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महावीर की साधना का रहस्य
न आए और कषाय न आए । जब राग-द्वेष, आकांक्षा, प्रमाद और कषाय के दरवाजे बन्द कर देते हैं तो फिर जो चैतन्य आता है वह मन को सक्रिय बनाता है, चंचल भी करता है, किन्तु उस चंचलता में मन का शोक नहीं होता, मन की अशान्ति नहीं होती। फिर चंचलता हमारा कोई अनिष्ट नहीं कर पाती।
उमास्वाति के अनुसार एक आलम्बन पर अन्तःकरण की वृत्ति का निरोध करना ध्यान है।
अनासक्त चेतना, अप्रमत्त चेतना और वीतराग चेतना सहज ध्यान है । इसके विपरीत आसक्त चेतना, प्रमत्त चेतना और राग-द्वेष चेतना मन की चंचल अवस्था निर्मित करती है । उस समय शोक बढ़ता है, अशान्ति बढ़ती है, क्रोध बढ़ता है, प्रवंचना और लोभ बढ़ता है। इस स्थिति में ध्यान की योग्यता प्राप्त नहीं होती। ध्यान की परिभाषा जिनभद्र के अनुसार स्थित चेतना ध्यान और चल चेतना चित्त कहलाते
_ 'जं थिरमज्झवसाणं त ताणं, जं चल तयं चित्तं ।२ आचार्य अकलंक ने बताया है-'जैसे निर्वात प्रदेश में प्रज्वलित प्रदीपशिखा प्रकंपित नहीं होती, वैसे ही निराकुल प्रदेश में अपने विशिष्ट वीर्य से निरुद्ध अंतःकरण की वृत्ति एक आलंबन पर अवस्थित हो जाती है ।' उनके अनुसार व्यग्र चेतना ज्ञान होती है, वही स्थिर होकर ध्यान हो जाती है ।
क्या प्राण और अपान का निग्रह ध्यान है ? नहीं है। प्राण और अपान के निग्रह से प्रचुर वेदना उत्पन्न होती है । उससे शरीरपात का प्रसंग आता है । इसलिए ध्यान-काल में प्राण और अपान को मन्द करना चाहिए। ध्यान का समय अन्तमुहूर्त है। एक आलंबन पर इतने समय तक एकान रहना पर्याप्त है । इसके बाद आलम्बन बदल जाता है । हठपूर्वक एक ही आलम्बन पर चेतना को स्थापित करने का प्रयत्न इन्द्रिय उपघात का हेतु बन सकता
ध्यान में श्वास और काल आदि की मात्रा की गणना नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने पर चेतना व्यग्र हो जाती है। इसलिए ध्यान नहीं होता। १. तत्त्वार्थ सूत्र ६।२७ । २. ध्यानशतक, २।