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ध्यान और कायोत्सर्ग
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स्वस्थ और मन प्रसन्न होता है । आकाशमंडल में अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के परमाणु फैले हुए हैं । अच्छी भावना करने वाला अच्छे परमाणुओं को आकर्षित करता है । फलतः उनसे वह लाभान्वित होता है । बुरी भावना करने वाला बुरे परमाणु को आकर्षित करता है । फलतः वह शारीरिक और मानसिक विकृतियों को उत्पन्न करता है । अज्ञान, मिथ्यादृष्टि, असंतुलित मनोभाव, राग और द्वेष के संस्कार बहुत प्रबल होते हैं । वे प्रतिपक्ष भावना से एक साथ ही नहीं टूट जाते । किन्तु ज्ञान आदि की भावना का बार-बार प्रयोग करने से क्रमशः क्षीण होते हैं । जिसे ध्यान के विषय में ज्ञान नहीं होता, उसके प्रति दृष्टिकोण सम्यक् नहीं होता, वह उससे लाभान्वित नहीं हो सकता । इस दृष्टि से संस्कारों को रूपान्तरित करना ध्यान की पहली उपेक्षा है |
भावना (सम्यक्त्व चेतना और व्रत चेतना) का अभ्यासक्रम
हम शरीर और मन की चंचलता, श्वास और स्नायुतंत्र की उत्तेजना से होने वाले परिणामों को जानें और साथ-साथ शरीर और मन की स्थिरता, श्वास और स्नायुतंत्र की शांतता से होने वाले परिणामों को जानें । अधिक सक्रियता, उत्तेजना और श्वास की तीव्रता जीवनीशक्ति को क्षीण करती है इसके विपरीत स्थिरता, एकाग्रता और शांति जीवनी-शक्ति, कार्यक्षमता और मानसिक सन्तुलन को बढ़ाती है । यह बोध हमारी मानसिक क्रिया को अपने-आप रूपान्तरित कर देता है । एकाग्रता के प्रति हमारा आकर्षण बढ़ जाता है।
सामान्यतया हम प्रकम्पनों को ही महत्त्वपूर्ण मानते हैं । प्रकम्पन के साथ मन जुड़ता है तब हमें रसानुभूति होती है । हम मन को प्रकम्पनों के साथ न जोड़ें, प्रकम्पनों को देखें, मन को द्रष्टा बना दें। इन क्षणों में जिस शांति, अनाशक्ति, मैत्री और सत्य का अनुभव होगा, वह अपने दृष्टिकोण को रूपा - तन्तरित कर देगा ।
हमारे शरीर में कभी सुख का संवेदन होता है और कभी दुःख का । हमें कभी सर्दी का अनुभव होता है और कभी गर्मी का । हम अनेक द्वन्द्वों का संवेदन करते रहते हैं । अनुकूल संवेदन होने पर हर्ष होता है और प्रतिकूल संवेदन होने पर विषाद होता है । हम इस प्रकार की चेतना का निर्माण करें कि जिससे संवेदन होने पर भी हर्ष और विषाद न हो। हम शरीर में घटित होने वाली घटनाओं को यथार्थत: जानें, किन्तु उनके प्रति प्रियता और