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महावीर की साधना का रहस्य
और वचन का योग-तो गौण हैं। प्रवृत्ति मात्र के तीन अंग हैं—लेना, परिणमन करना और छोड़ना । ग्रहण, परिणमन और विसर्जन-ये तीनों काम एक शरीर के ही होते हैं । मनोयोग और वचनयोग का काम केवल विसर्जन है, ग्रहण या परिणमन नहीं है। ग्रहण करने का कार्य कामयोग का है, शरीर की प्रवृत्ति का है। मनोवर्गणा के पुद्गल और वचन वर्गणा के पुद्गल-इनका ग्रहण भी कामयोग के द्वारा ही होता है ।
शरीर मूलभूत वस्तु है। शरीर की चंचलता छूटती है तो सब कुछ ठीक हो जाता है । प्रकम्पन भी कम हो जाते हैं। सामायिक समाधि का मूल कारण है शरीर की स्थिरता । सामायिक के बत्तीस दोष माने जाते हैं । शरीर को हिलाना-डुलाना, सहारा लेना, चंचलता करना, आदि-आदि सामायिक के दोष हैं । सामायिक में शरीर स्थिर होना चाहिए। शरीर जितना स्थिर और शांत होगा उतनी ही सामायिक समाधि प्राप्त होगी, सिद्ध होगी। शरीर चंचल रहेगा तो कुछ भी नहीं बनेगा, सामायिक में शरीर स्थिर और मन खाली होना चाहिए । तीनों बातें साथ में होती हैं तब सामायिक समाधि निष्पन्न होती है। ___ शरीर को शिथिल करना, मन को खाली करना और प्रकम्पनों को ग्रहण न करना, न उत्पन्न होने देना—यह है सामायिक की पद्धति या सामायिक समाधि का उपाय।
केवल जान लेने, उच्चारण कर देने या उपदेश दे देने से समता सम्पन्न नहीं होती । हम जो चाहते हैं, वह निष्पन्न नहीं होता । वह होता है क्रिया के द्वारा । सिद्धि के लिए हमारे आचार्यों ने तीन उपाय बतलाए हैं-क्रिया, मंत्र और औषध । क्रिया का अर्थ है-एकाग्रता, स्थिरता । तीन घंटे तक एक विषय पर एकाग्रता करें तो एकाग्रता की सिद्धि मानी जाती है । इसका नाम है क्रिया की सिद्धि । यह प्रथम बार में ही नहीं हो जाती । अभ्यास इस दिशा में हो कि हमें उस सिद्धि की स्थिति तक पहुंचना है । जब साधक एक घंटे की एकाग्रता साध लेता है, तब आगे क्या करना है, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं रहती। क्योंकि उसे अपना मार्ग स्वयं दीखने लग जाता है। एक विषय पर एक घंटा एकाग्र होना मामूली बात नहीं है। यह कठोर साधना से ही फलित होने वाली सिद्धि है । जो इस स्थिति का स्पर्श कर लेता है उसके लिए कोई उपदेश आवश्यक नहीं होता । 'उवदेसो पासगस्स णत्थि'-द्रष्टा के लिए उपदेश आवश्यक नहीं होता। वह साधक तो उस स्थिति में चला