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महावीर की साधना का रहस्य
जमा होता चला जाता है । फिर हम जो कुछ करते हैं, वह हम नहीं करते । उस समय हमारा कोई कर्तृत्व नहीं होता । तब या तो प्रियता करती है या अप्रियता करती है । इन दोनों में से ही हमारा कर्तृत्व निकलता है । हमारा कर्तृत्व तब स्वाभाविक नहीं रहता, वैभाविक हो जाता है, अस्वाभाविक हो जाता है । और जो उन दो धाराओं --प्रियता और अप्रियता की धाराओंसे निकलता है, वह जीवन से छनता जाता है । उस स्थिति में मन की अशांति • और व्याकुलता बढ़ती चली जाती है । असमाधि तीव्र होती चली जाती है ।
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हमारी स्थिति बड़ी विचित्र है । एक ही घटना के प्रति हम दो तरह का व्यवहार करते हैं । एक वस्तु किसी के हाथ से गिर गयी । समझ लीजिए कि एक शीशा किसी के हाथ से गिर गया। दूसरा शीशा किसी दूसरे के हाथ से गिर गया। दोनों शीशे फूटकर चूर-चूर हो गए। दोनों घटनाएं समान हैं । दोनों में शीशा नीचे गिरता है और फूट जाता है । किन्तु दोनों की प्रतिक्रिया एक नहीं होगी, समान नहीं होगी। वही शीशा प्रिय व्यक्ति के हाथ से गिरा है तो मन में यही आएगा कि 'चलो, गिर गया। फूट गया तो क्या हुआ ? नया ले लेंगे । आदमी की भूल होती है ।' बात यहीं समाप्त हो जाती है । यदि वही शीशा अप्रिय व्यक्ति के हाथ से नीचे गिरकर फूटा है तो मन क्रोध से भर जाता है । गालियों की स्थिति आ सकती है और हाथ भी उठ सकता है। एक ही घटना के प्रति यह अन्तर क्यों ? यह इसलिए है कि अप्रियता से जो व्यवहार निकलता है वह दूसरे प्रकार का होता है और प्रियता से निक-लने वाला व्यवहार दूसरे प्रकार का होता है ।
हमारा राग दो दिशाओं में फैलता है और द्वेष भी दो दिशाओं में फैलता । राग का अर्थ है— प्रियता और द्वेष का अर्थ है अप्रियता । दोनों दो दिशाओं में फैलते हैं । राग माया और लोभ - इन दो दिशाओं में फैलता है । द्वेष अभिमान और क्रोध- - इन दो दिशाओं में फैलता है । पहले लोभ होगा और बाद में माया । यद्यपि शब्दों का क्रम भिन्न है, पर पहले लोभ, फिर माया । इधर भी चुनाव करें तो पहले मान और फिर क्रोध । क्रोध बहुत बार तब आता है जब हमारे अहं पर कोई चोट करता है । और भी अनेक कारण हो सकते हैं । शारीरिक कारण भी होता है । आदमी शरीर में दुर्बल होता है तो क्रोध अधिक आता है। बीमार व्यक्ति को क्रोध अधिक आता है । अनेक स्थितियां बन सकती हैं । बहुत बार क्रोध आता है, हमारे अहं पर चोट होने
पर ।