________________
सामायिक समाधि
२०५
भी कहा जा सकता है।
साधना की दो स्थितियां हैं—संवर और निर्जरा । निर्जरा के लिए एक शब्द है-विधूननम्'-प्रकम्पित कर देना। जैसे पक्षी पंखों को हिलाकर सारे रजःकणों को धुन डालता है, हिला डालता है, वैसे ही जो निर्जरा करने वाला है वह अपनी सत्प्रवृत्ति के द्वारा कर्मरजों को धुन डालता है, प्रकम्पित कर, झाड़कर साफ कर देता है। निर्जरा प्रकम्पन की प्रक्रिया है । इसमें व्यक्ति अवांछनीय प्रकंपनों के प्रति, वांछनीय प्रकंपन पैदा कर, शक्तिशाली प्रकम्पन पैदा कर उसको समाप्त कर देता है, पुराने संग्रह को समाप्त कर देता है।
दूसरी प्रक्रिया है संवर की । इससे प्रकम्पन बन्द हो जाते हैं । सामायिक संवर की प्रक्रिया है । इसमें प्रकंपन निरुद्ध हो जाते हैं, शान्त हो जाते हैं। जैसे ही मन समभाव की स्थिति में जाता है, वैसे ही प्रकम्पन बंद हो जाते हैं । जब प्रकंपन बंद हो जाते हैं तब चाहे लाभ हो या अलाभ, सुख हो या दुःख, निंदा हो या प्रशंसा, हमारे लिए कुछ भी नहीं है । क्योंकि उन प्रकम्पनों को ग्रहण करने वाले द्वार को तो हमने बन्द कर दिया। खिड़की बन्द कर दी, अब चाहे आंधी चले या तूफान, भीतर कुछ भी नहीं आयेगा। सामायिक समाधि प्रकम्पनों को बन्द कर देने की प्रक्रिया है । उस समय में ऐसी समाधि घटित होती है कि जिस समाधि पर कोई आंच नहीं आती। कोई भी बाहर की स्थिति उसमें क्षोभ पैदा नहीं कर सकती । सामायिक के लिए तीन बातें जरूरी हैं
१. मन की शिथिलता-मन को विकल्पों से खाली कर देना । २. शरीर की शिथिलता-शरीर को तनावों से मुक्त कर देना । ३. प्रकम्पनों का अग्रहण ।
शरीर की चंचलता ही सारे प्रकम्पनों का मूल कारण है । तत्त्व की दृष्टि से विचार करें तो प्रवृत्ति वास्तव में एक ही है और वह है शरीर की। हम कहते हैं कि प्रवृत्तियां तीन हैं-मन की प्रवृत्ति, वचन की प्रवृत्ति और शरीर की प्रवृत्ति । श्वास की प्रवृत्ति को हमने प्रवृत्ति माना ही नहीं। यथार्थ में . प्रवृत्तियां तीन नहीं हैं, एक ही है। वह है शरीर की प्रवृत्ति । मन और वचन की जो प्रवृत्ति है, उसका काम है-शरीर के द्वारा प्राप्त सामग्री को छोड़ देना । बाहर से कुछ भी लेना, यह सारा का सारा काम शरीर का है। इसलिए वास्तव में प्रवृत्ति एक शरीर की ही है । ये दो योग-मन का योग