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ध्यान और कायोत्सर्ग
कायिक ध्यान को कायोत्सर्ग भी कहा जाता है । श्वास को शरीर से भिन्न भी माना जा सकता है और अभिन्न भी माना जा सकता है । जैन आचार्यों ने श्वास की साधना को शरीर की साधना के साथ निरूपित किया है। कायोत्सर्ग
और श्वास का गहरा सम्बन्ध है। कायोत्सर्ग का कालमान श्वास से ही निर्धारित किया जाता है, जैसे-आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग, पचीस श्वासोच्छ्वास का 'कायोत्सर्ग, सौ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग । यह विभिन्न प्रवृत्तियों की विश्रान्ति या विशुद्धि के लिए किया जाता है।।
__ तनावमुक्ति के लिए पन्द्रह मिनट का कायोत्सर्ग पर्याप्त है। ध्यान की सिद्धि के लिए कोई निश्चित कालावधि नहीं है। घंटों, प्रहरों या दिन तक साधक अपनी सुविधा के अनुसार जितना कर सके, उतने समय तक किया जा सकता है । पूर्वअर्जित संस्कारों को क्षीण करने के लिए लम्बे समय तक कायोत्सर्ग करना आवश्यक है ।
कायोत्सर्ग के साथ श्वास की क्रिया सूक्ष्म होती है, फिर भी उसका स्वतंत्र अभ्यास करना चाहिए। सामान्यतः स्वस्थ मनुष्य एक मिनट में पन्द्रहसोलह श्वास लेता है । उसे मन्द और सूक्ष्म करने के लिए एक मिनट में छह श्वास (दस सेकंड में एक श्वास) ले । कुछ सप्ताहों की साधना के बाद एक मिनट में तीन श्वास (बीस सेकंड में एक श्वास) ले और फिर कुछ समय बाद एक मिनट में एक श्वास ले । इस क्रम से श्वास-साधना को आगे बढ़ाया जा सकता है। यह महाप्राण की दिशा में जाने का उपक्रम है। अभ्यास प्रारम्भ करे तब कम से कम पांच मिनट अवश्य लगाए। उसके परिपक्व होने पर अधिक समय भी लगाया जा सकता है।
श्वास को मंद और सूक्ष्म करने का दूसरा प्रकार यह है कि साधक कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित होकर मन को नासाग्र पर या ऊपर के होंठ पर दोनों नथुनों के नीचे केन्द्रित करे । मानस-चक्षु से उस स्थान को देखे । आतेजाते श्वास पर मन लगाए । कुछ समय के बाद श्वास अपने आप मंद और सूक्ष्म हो जाता है । कम से कम दस मिनट तक इसका अभ्यास करे ।
कायिक ध्यान स्वतन्त्र भी होता है और उसमें मानसिक ध्यान भी किया जा सकता है । मानसिक एकाग्रता के लिए कायिक ध्यान अत्यन्त आवश्यक है, इसलिए जहां मानसिक ध्यान करना है वहां कायिक स्थिरता और श्वास की मंदता कर लेनी चाहिए।
मानसिक ध्यान का अभ्यास किसी एक आलंबन के आधार पर किया