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सामायिक समाधि
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सामायिक होता है।
एक प्रश्न उभरता है कि क्या इन द्वन्द्वों में सम रहना संभव है ? क्या यह केवल मानसिक कल्पना ही तो नहीं है ? क्या यह संभाव्य भी है ? एक ओर यदि हम ऊंचा आदर्श, बहुत ऊंचा आदर्श स्थापित कर लें और उसके गीत गाते चले जाएं, उसका यशोगान करते-करते कभी न ऊबें तो क्या यह हमारी आकाशी उड़ान नहीं होगी? क्या वह मानसिक कल्पना मात्र कहीं होगी ? क्या वह केवल श्रेष्ठता का आवरण नहीं होगा ? वास्तविकता क्या है ? यथार्थ क्या है ? क्या ऐसी साधना संभव है ? क्या ऐसा हो सकता है कि मनुष्य लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान में सम रहे ? व्यवहार की भूमिका में यह सर्वथा आकाशीय उड़ान है। यदि हम व्यवहार की भूमिका में जी रहे हैं, चल रहे हैं तो निश्चित मान लेना चाहिए कि यह सारी गाथा केवल आकाशीय उड़ान है । यह कभी संभव नहीं हो सकता कि आदमी लाभ में भी सम रहे और अलाभ में भी सम रहे । यह हो नहीं सकता । जैसे ही कुछ लाभ होगा, प्रसन्नता आएगी। जैसे ही अलाभ होगा, विषण्णता आएगी। यह निश्चित क्रम है। इसमें कोई सन्देह नहीं है, चाहे संबंधित व्यक्ति प्रकट करे या न करे। वर्तमान में तो ऐसे यंत्र भी हैं जो मापकर बता देंगे कि अमुक घटना से आपके मन में प्रसन्नता की मात्रा कितनी बढ़ी है और अमुक घटना से विषाद की मात्रा कितनी बढ़ी है। यह कैसे संभव हो सकता है कि व्यक्ति सुख-दुःख में सम रहे ? कभी संभव नहीं है। सुख होगा तो मन आह्लाद से भर जाएगा, विकसित हो जाएगा। दुःख होगा तो मन विषण्ण हो जाएगा, सिकुड़ जाएगा। देखने वाले को भी पता लग जाएगा कि अभी चेहरे पर क्या भाव उभर रहे हैं। क्या घटित हो रहा है । आकृति तो वही है किन्तु भिन्न-भिन्न स्थितियों में उसकी अवस्था भिन्न-भिन्न हो जाती है। आदमी कुछ और का और बन जाता है।
कुछ दिन पहले की बात है। एक आदमी मेरे पास बैठा था। उसको देखते ही दूसरे व्यक्ति ने कहा-'लगता है, तुमने काफी पैसा कमाया है।' उसने कुछ पूछा नहीं किन्तु उसकी आकृति बता रही थी कि उसने पैसा कमाया है । सचमुच उसने काफी पैसा कमाया था। यह होता है। आकृति देखकर बताया जा सकता है कि व्यक्ति घाटे में है या लाभ में । चेहरा स्वयं बता देता है । आकृति स्वयं बता देती है। तो हम यह कैसे माने कि सुख-दुःख, लाभ