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महावीर की साधना का रहस्य
साधना फलित नहीं हो रही है। यदि कषाय क्रमशः दूर होते चले जा रहे हों तो मान लेना चाहिए कि साधना ठीक दिशा की ओर गतिशील है ; वह क्रमशः सफलता की ओर बढ़ रही है। साधना के फलस्वरूप स्थूल और सूक्ष्म शरीर की विशिष्ट प्रक्रियाएं भी जागृत होती हैं; किन्तु यह अत्यन्त गौण बात है । इसका कोई आध्यात्मिक मूल्य नहीं है । आध्यात्मिक साधना का सर्वाधिक या एकमात्र मूल्य है-कषाय का विवेक, कषाय का विलगाव, कषाय का उपशमन, कषाय की शांति । यही है समता या सामायिक । एक शब्द में कषाय की कमी ही सामायिक है। ___ समता का उपासक 'सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि'-इस पाठ का उच्चारण करता है। इसका अर्थ है-'मैं समस्त सावद्य योग (प्रवृत्ति) का प्रत्याख्यान करता हूं, उससे अपने आपको अलग करता हूं।' सावध योग का अर्थ है-पापकारी प्रवृत्ति । वह कौन-सी प्रवृत्ति है जो पापकारी है ? जो प्रवृत्ति क्रोध, मान, माया और लोभ से प्रेरित होती है, वह पापकारी प्रवृत्ति है । वह सावध योग है। आचार्य मलयगिरि के अनुसार अवध का अर्थ हैक्रोध, मान, माया और लोभ । 'जो अवद्य सहित प्रवृत्ति होती है वह है सावध प्रवृत्ति । मूल है कषाय । कषाय-सहित प्रवृत्ति सावध होती है। उसका विवेक करना, उसका निरोध करना, वह है सामायिक, समभाव । न इधर झुकाव
और न उधर झुकाव । दोनों पलड़े बराबर। जैसे तराजू के दोनों पल्ले बराबर होते हैं, वैसे ही हमारी प्रवृत्ति के दोनों पल्ले जब बराबर होते हैं, न राग और न द्वेष, कहीं कोई विकृति नहीं, तब सामायिक होता है। जब हम सम चलते हैं, तब होता है सामायिक, तब होती है समता की साधना।
सामायिक किसके होता है—यह एक प्रश्न है। प्राचीन गाथा में इसका उत्तर है
जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य ।
तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥ -सामायिक उसके होता है जो सब प्राणियों के प्रति सम होता है । जिसके मन में कोई विषमता नहीं होती किसी भी प्राणी के प्रति, वह समभाव की साधना में बढ़ता चला जाता है। जहां विषमभाव आ गया, वहां सामायिक नहीं हो सकता। उसका स्व-रूप ही है समभाव ।
समभाव का अर्थ है-लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान-इन द्वन्द्वों में सम रहना । जो इनमें सम रहता है उसके