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ध्यान-साधना की निष्पत्ति
हमारे पास मन, वाणी, शरीर, श्वास और कर्म - ये पांच तत्त्व हैं । देह रहेगा, मिटेगा नहीं । जब देह रहेगा तब ये सब रहेंगे । किन्तु इन्हें कुछ विशेष रूप से धारण करना है । विदेहानां देहः- हम विदेह रहकर देह को धारण करें । अवाचां वाक् – हम अवाक् रहकर वाणी के मर्म को समझें । अमनसां मनः - अ-मन रहकर मन के मर्म को समझें । अनुच्छव सतां श्वासः - - हम श्वांस न लेकर श्वास के मर्म को समझें । अकर्मणा कर्म - हम अकर्म रहकर कर्म के मर्म को समझें ।
अकर्म का कर्म, अनुच्छ्वास का श्वास, अ-मन का मन, अवाक् का वाक् और विदेह का देह-साधना काल में इनकी निष्पत्ति होनी चाहिए। इनकी निष्पत्ति बाह्य और आंतरिक तप के प्रयोगों से होती है ।
भगवान् महावीर तीस वर्ष तक विदेह होकर गृहवास में रहे । देह के होते हुए भी विदेह रहे | जब आदमी विदेह हो जाता है तब शेष सारी बातें प्राप्त हो जाती हैं । मुख्य बात है विदेह की । विदेह होता है तो अवाक् का वाक्, अमन का मन, अनुच्छ्वास का श्वास और अकर्म का कर्म – ये सब स्वतः प्राप्त हो जाते हैं । हमें अकर्म की स्थिति तक पहुंचना है । साधना का आदिबिन्दु है विदेह और अंतिम बिन्दु है अकर्म । जब तक शरीर है तब तक कर्म नहीं छूटेगा, फिर अकर्म की बात कैसे संभव है ? किन्तु अकर्म में से वही कर्म निकलेगा जो अत्यन्त आवश्यक होगा, अनिवार्य होगा । व्यर्थ का कोई कर्म नहीं निकलेगा । वास्तव में व्यर्थ की प्रवृत्तियां या कर्म ही हमारी शक्ति को क्षीण करते हैं । प्रतिदिन शरीर की हजारों-हजारों कोशिकाएं नष्ट होती हैं | विश्रान्ति की स्थिति में उनका पुनः निर्माण हो जाता है । इस प्रकार विनाश और उत्पादन का संतुलन बना रहता है । मस्तिष्क के विषय में ऐसा नहीं होता । उसकी भी हजारों कोशिकाएं प्रतिदिन नष्ट होती हैं, किन्तु उनका निर्माण पुनः नहीं होता । यह विनाश मनुष्य को मौत की ओर ले जाता है और एक दिन कोशिकाओं के पूर्ण नष्ट होने पर मनुष्य मर जाता है ।