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महावीर की साधना का रहस्य
संक्रमण, अज्ञात तल में छिपी ग्रंथियों को ज्ञात तल में लाकर उनका निर्जरण व क्षपण की प्रक्रिया 'विपाक-विचय' ध्यान है। • वस्तु के विभिन्न पर्यायों का अनुचिन्तन 'संस्थान-विचय' ध्यान है।
ध्येय और ध्यान का फल __परमार्थ दृष्टि से ध्यान करने वाले साधक का ध्येय होता है-आत्मा का अनुभव, शुद्ध चैतन्य का अनुभव या आत्म-साक्षात्कार । इस अन्तिम ध्येय तक पहुंचने के लिए माध्यम के रूप में वह एकाग्रता का सहारा लेता है। वह एकाग्रता की निष्पत्ति के लिए अनेक ध्येयों का निर्माण करता है। उन सब ध्येयों को दो वर्गों में संगृहीत किया जा सकता है-द्रव्य ध्येय और भाव ध्येय । जिस वस्तु को ध्यान का आलम्बन बनाया जाता है, वह द्रव्य ध्येय है । ध्यान करने वाले व्यक्ति के मन का ध्येय-सदृश परिणमन होता है, वह भाव ध्येय है । ध्यान जैसे-जैसे स्थिर होता है वैसे-वैसे ध्येय का रूप, ध्येय के पास न होने पर, आलेखित जैसा प्रतीत होने लगता है। ऐसा लगता है मानो वह सामने उपस्थित हो । ध्यान करने वाला ध्यान के बल से शरीर को शून्य बनाकर ध्येय के स्वरूप में प्रविष्ट हो जाता है, तब वह ध्येय जैसा बन जाता है।
ध्यान का फल है-संवर और निर्जरा । संवर का अर्थ है-प्रकंपनों का निरोध । निर्जरा का अर्थ है-पूर्वाजित आवरणों और प्रकम्पनों की क्षमता । ध्यान से ज्ञानावरण क्षीण होता है, इसलिए सहज ज्ञान प्रस्फुटित होता है । उससे वेदनीय कर्म क्षीण होता है, इसलिए सुख-दुःख के संवेदन नष्ट होते हैं। असाध्य लगने वाली बीमारियां भी नष्ट हो जाती हैं। ध्यान से अन्तराय क्षीण होता है फलतः शक्ति और धृति असीम हो जाती है। उससे मोह क्षीण होता है फलतः कषाय-चेतना समाप्त हो जाती है। कपाय-चेतना को शान्त करने के लिए ध्यान किया जाता है। जैसे-जैसे ध्यान बढ़ता है वैसे-वैसे कषाय-चेतना क्षीण होती है । जैसे-जैसे कषाय-चेतना क्षीण होती है वैसे-वैसे ध्यान बढ़ता है। भावना
हम भावना के मर्म को समझे बिना ध्यान में सफल नहीं हो सकते, इसलिए ध्याता को सबसे पहले भावना का मूल्यांकन करना चाहिए और एकाग्रताध्यान के साथ-साथ उसका प्रयोग भी करते रहना चाहिए। इसके बिना