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ध्यान और कायोत्सर्ग
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ईंधन के मिलने पर निमित्त मिलने पर
ध्यान होता है । आलंबन में मृदु रूप से संलग्न, अव्यक्त और अनवस्थित मन ध्यान नहीं कहलाता । जिस अग्नि में ऊष्मा शेष है वह पुनः प्रज्ज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार अव्यक्त मन पुनः व्यक्त हो जाता है । निरालंब ध्यान में मन होता । वहां वह निरुद्ध हो जाता है । इसलिए वह भूमिकाएं हैं - एक सालंबन ध्यान, जिसमें मन किसी एक आलंबन पर निरंतर प्रवाहित हो जाता है । दूसरा निरालंबन ध्यान, जिसमें मन की क्रिया निरुद्ध हो जाती है, शुद्ध चैतन्य का दीप प्रदीप्त हो जाता है ।
अव्यक्त या स्थगित नहीं ध्यान की दो
ध्यान है ।
जैन साधकों ने ध्यान का क्रम यह बतलाया है कि पहले सालंबन ( जिसमें आत्मा से भिन्न किसी वस्तु का आलंबन हो ) ध्यान किया जाए । उसका अभ्यास जब परिपक्व हो जाए तब निरालंबन ( जिसमें केवल आत्मा या शुद्ध: चैतन्य का अनुभव हो ) ध्यान किया जाए । सालंबन ध्यान भिन्न ध्यान है । उसमें ध्याता और ध्येय भिन्न होते हैं । निरालंबन ध्यान अभिन्न ध्यान है । उसमें ध्याता और ध्येय की भिन्नता नहीं होती । जो साधक अपने चैतन्य भिन्न वस्तुओं के ध्यान को परिपक्व कर लेता है, एकाग्रता को लम्बे समय तक चालू रख सकता है, वह किसी आकुलता के बिना सहज ही आत्म-ध्यान या अभिन्न ध्यान में जा सकता है ।
विचय
साधक चेतना- विकास की सर्वोच्च भूमिका तक पहुंचने के लिए ध्यान करता है । वह उन अर्हतों के अनुभव को, जिन्होंने चैतन्य - विकास की विभिन्न भूमिकाओं को पार कर आत्म-साक्षात्कार किया है, आभार मानकर अपनी सुप्त शक्तियों को जागृत करने के लिए तन्मय हो जाता है । आत्मा में अनन्त ज्ञान- दर्शन है, अनन्त आनन्द है, अनन्त शक्ति है । यह हमें ज्ञात नहीं है । हम आज्ञा के सहारे अज्ञात को ज्ञात करने का प्रयत्न करते हैं । यही ध्यान 'आज्ञाविचय' ध्यान है ।
राग-चेतना, द्वेष - चेतना और विविध प्रकंपनों से प्रकम्पित मनोदशा के समय होने वाली ग्रंथियों का विश्लेषण करना, उनके तात्कालिक और दीर्घकालिक दोषों पर चिन्तन करना, उनके नव-निर्माण को रोकने का उपाय खोजना 'अपायविचय' ध्यान है ।
कर्म-बन्ध या मानसिक ग्रन्थि की प्रकृति, स्थिति, फल- शक्ति, उदीरणा ( कर्म की स्थिति और विपाक में ) परिवर्तन, एक वृत्ति से दूसरी वृत्ति में