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अतीतकालीन विभिन्न संस्कारों से प्रभावित होती है । उसकी निर्मल धारा आती है और मन के साथ योग करती है तो मन निर्मल बनता है, राग-द्वेषरहित बनता है | चेतना के साथ मल आता है, आसक्ति आती है, अज्ञान आता है, राग-द्वेष आता है तो मन का स्वरूप दूसरा हो जाता है । निर्मल चेतना का योग भी मन में सक्रियता लाता है और मलिन चेतना का योग भी उसमें सक्रियता लाता है । सक्रियता दोनों ओर से आती है । किन्तु मन की स्थिति में अन्तर आ जाता है । उसका प्रवाह दो दिशाओं में विभक्त हो जाता है | राग-द्वेष-रहित चेतना का योग होने पर मन होता है पर आसक्ति नहीं होती । राग-द्वेष-युक्त चेतना का प्रवाह आता है तब मन भी होता है और आसक्ति भी होती है । यही चंचलता है । इसकी अतिरिक्त मात्रा या पुनरावर्तन ही अशांन्ति है ।
मन की तीन अवस्थाएं निष्पन्न होती हैं—
१. राग-द्वेष-युक्त मन, २. राग-द्वेष- शून्य मन, और ३ अमन ( मानसिक विकल्प का निरोध ) ।
ध्यान की भूमिका में हमें सबसे पहले इस पर विचार करना होता है कि किस प्रकार की चेतना को उसके साथ जोड़ें और जोड़ें तो किस रूप में जोड़ें, और कुछ क्षण ऐसे बिताएं कि मन के साथ चेतना को जोड़ें ही नहीं । जब हम चेतना को मन के साथ जोड़ते ही नहीं तब चेतना अलग होती है और मन अलग । जब हम इंजिन में ईंधन डालते ही नहीं तब इंजिन कैसे चलेगा ? मोटरकार तभी चलती है जब उसके इन्जिन में ईंधन डाला जाता है । वायुयान तभी चलता है जब उसके इन्जिन में ईंधन डाला जाता है । जब ईंधन नहीं डाला जायेगा तब उसमें गति नहीं होगी । यंत्र होगा पर सक्रियता नहीं होगी । यह ध्यान की सबसे अच्छी स्थिति है । किन्तु व्यवहार में जीने वालों के लिए यह मान्य नहीं होता । वे नहीं चाहते कि घर में मोटरकार खड़ी है और खड़ी ही रहे, कभी काम में न आये । वे उसका हैं । व्यवहार की भूमिका में जीने वाले यह पसन्द नहीं का यन्त्र निकम्मा पड़ा रहे । वे उसे सक्रिय करने के लिए चेतना का उपयोग करते हैं । मन का निर्माण ही न हो, यह ध्यान का आदि-बिन्दु नहीं है, उसकी अग्रिम भूमिका है । उसका आदि-बिन्दु है- -मन के साथ जुड़ने वाली चेतना का विवेक करना । मन के साथ चेतना जुड़े, पर राग-द्वेष-युक्त चेतना न जुड़े । प्राण की धारा मन को सक्रिय बनाए पर उसके साथ आकांक्षा न आए, प्रमाद
ध्यान
उपयोग करना चाहते
करते कि हमारे मन