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ध्यान और कायोत्सर्ग
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नहीं है । शारीरिक स्थिरता की तीन अवस्थाएं होती हैं-गाढ़, गाढ़तर और गाढ़तम । चतुर्थ अवस्था में शरीर की प्रवृत्ति निरुद्ध हो जाती है।
श्वासमंदता की तीन अवस्थाएं होती हैं—सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतर । चतुर्थ अवस्था में श्वास निरुद्ध हो जाता है ।
मानसिक एकाग्रता की तीन अवस्थाएं होती हैं-सघन, सघनतर और सघनतम । चतुर्थ अवस्था में वह निरुद्ध होता है ।
प्रारम्भिक तीन अवस्थाओं में प्रकम्पन अल्प, अल्पतर और अल्पतम होते जाते हैं । चतुर्थ अवस्था में वे स्थगित हो जाते हैं।
कायिक ध्यान को कायोत्सर्ग भी कहा जाता है। इसकी प्रथम अवस्था में स्थिरता प्राप्त होती है उसका वर्णन किया जा चुका है। इसकी दूसरी अवस्था में कुछ विशिष्ट परिवर्तन घटित होते हैं• स्नायु-तंत्र प्रभावित होता है। • मस्तिष्क की तरंगों और मस्तिष्कीय विद्युत् में परिवर्तन आ जाता है । • ऑक्सीजन की खपत कम हो जाती है। • अनैच्छिक मांसपेशियों पर नियन्त्रण स्थापित होने लगता है और स्वायत्त स्नायुतन्त्र का उत्तेजना स्तर गिर जाता है। उसमे स्थिरता आती है। शारीरिक कार्यक्षमता बढ़ जाती है । • श्लेष्म आदि दोषों के क्षीण होने से देह की जड़ता नष्ट होती है । • जागरूकता के कारण बुद्धि की जड़ता नष्ट होती है । • सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्वों को सहने की क्षमता बढ़ती है । • चित्त की एकाग्रता सुलभ हो जाती है।
इसकी तीसरी अवस्था में स्थूल शरीर का बोध क्षीण हो जाता है । सूक्ष्म शरीर की सक्रियता बढ़ जाती है । कभी-कभी वह स्थूल शरीर को छोड़कर बाहर चला जाता है । उस स्थिति में सूक्ष्म पदार्थ दृष्ट होने लग जाते हैं। इन्द्रियों का अनुभव क्षीण हो जाता है ।
इसकी चतुर्थ (निरुद्ध) अवस्था में आत्मा के चैतन्यमय स्वरूप का प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है । श्वास की मन्दता का सम्बन्ध कायोत्सर्ग और मानसिक एकाग्रता-इन दोनों से है । कायिक स्थिरता का सम्बन्ध श्वास की मन्दता और मानसिक एकाग्रता-इन दोनों से हैं। मानसिक एकाग्रता का सम्बन्ध . काया की स्थिरता और श्वास की मन्दता-इन दोनों से है। इसलिए शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों की व्याख्या इनमें से किसी एक के माध्यम से नहीं की जा सकती । कायिक स्थिरता से होने वाले परिवर्तन का जो प्रतिपादन किया गया है, वह एक सापेक्ष प्रतिपादन है।