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ध्यान और कायोत्सर्ग
१५.५.
अभ्यास में अपने शरीर के प्रकम्पनों को रोकता है, वह सामान्य स्थिरता होती है | अभ्यास करते-करते वह अप्रकम्पन की सुदृढ़ स्थिति तक पहुंच जाता है । मात्रा भेद के आधार पर कायिक ध्यान की अनेक श्रेणियां बन जाती हैं । आनापान ध्यान
श्वास का प्रकम्पन भी पूर्णत: नहीं रुकता । अन्तर में प्राण का प्रवाह चालू रहता है । हमारे शरीर के रोमकूप सूक्ष्म आनापान को ग्रहण करते हैं । हम नथुनों के द्वारा जिस आनापान को ग्रहण करते हैं उसे मंद किया जा सकता है, रोका जा सकता है। आनापान ध्यान का प्रथम बिन्दु श्वास को मंद करने
अभ्यास है । स्वस्थ मनुष्य का श्वास जिस गति से चलता है उसमें मंदता लाना, उसके प्रकंपनों को कम करना इस दिशा में पहला प्रयत्न है । इस प्रयत्न में दो बातें मुख्य हैं
१. श्वास की संख्या को कम करना ।
२. प्राणवायु की मात्रा को कम करना ।
मृदु-मंदता में श्वास दीघं हो जाता है । मध्य-मंदता में प्राणवायु की मात्रा कम हो जाती है । अति-मंदता में महाप्राण की स्थिति घटित होने लग जाती है, श्वास-निरोध या कुंभक सहज ही हो जाता है ।
वाचिक ध्यान
जैसे शरीर और श्वास की ऊर्मियां निरन्तर प्रवाहित रहती हैं वैसे वाणी की ऊर्मियों का प्रवाह निरन्तर नहीं रहता । हम जब बोलने का प्रयत्न करते हैं तभी उनका प्रवाह होता है। बोलने की आकांक्षा और उसका प्रत्यन नहीं करना ही उन प्रकम्पनों को रोकना है । यही वाचिक ध्यान है । मानसिक ध्यान
मन के तीन मुख्य कार्य हैं—स्मृति, मनन और कल्पना । अतीत की स्मृति, वर्तमान का मनन और भविष्य की कल्पना होती है । हम जो मनन और चिन्तन करते हैं उसकी आकृतियां बनती हैं। ये आकृतियां मनन समाप्त होने पर आकाश मंडल में फैल जाती हैं । हमारे मस्तिष्क के भीतर भी वे अपना प्रतिबिम्ब छोड़ जाती हैं जिसे हम धारणा, वासना या अविच्युति कहते हैं । यह धारणा हमारे स्मृति कोष्ठों मे संचित रहती है । जब कभी कोई निमित्त मिलता है, हमारे स्मृति कोष्ठ जागृत हो जाते हैं, मन गतिशील हों जाता है ।