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महावीर की साधना का रहस्य
बनते हैं, बिगड़ते हैं, बनाते है और बिगाड़ते हैं, चलते हैं और ठुकराते हैं ।
दूसरी है कर्तव्य की भूमिका, दायित्व की भूमिका । यह पहली भूमिका से ऊर्ध्वगामी है । जिन लोगों में दायित्व की चेतना जागृत हो जाती है, वे व्यक्ति उन बातों से ऊपर उठ जाते हैं। वे अपने चरित्र का निर्माण दायित्व के आधार पर करते हैं। उन्हें दायित्व की अनुभूति हो जाती है और वे अपने चरित्र को विकसित करते हैं। आप अनुभव करते होंगे कि बहुत सारे लोग चंचल होते हैं, बहुत नटखट होते हैं। उनका आचरण भी अच्छा नहीं होता । किन्तु जब किसी दायित्व के पद पर आ जाते हैं और दायित्व का अनुभव कर लेते हैं तो उनके चरित्र में अन्तर पड़ जाता है और सचमुच ही बदल जाते हैं वे । कुछ लोग नहीं बदलते । स्वभाव अच्छा नहीं होता, तो उन्हें यह परामर्श दिया जाता है-'अरे भाई ! यह ऐसे नहीं सुधरेगा, जरा जिम्मेदारी इस पर डाल दो, इस पर थोड़ा बोझ डाला और अपने आप ही यह ठीक हो जाएगा।' यह सलाह बहुत सारे समझदार लोग देते हैं और आपने भी शायद सुना होगा। हमने देखा है । हमारे साधु-साध्वी जगत् में भी हम इस बात का अनुभव करते हैं । ऐसे प्रयोग भी चलते हैं । किसी व्यक्ति की किसी आदत में परिवर्तन करने की जरूरत होती है और वह नहीं होता है तो उसे दायित्व सौंपकर बदलने का प्रयत्न किया जाता है। लोग तो सोचते हैं कि यह व्यक्ति उसके योग्य नहीं था, फिर इस पर यह दायित्व क्यों सौंपा गया ? क्यों डाला गया ? किन्तु मैं यह अनुभव करता हूं कि दायित्व डालने पर उस व्यक्ति में सचमुच परिवर्तन आ जाता है । परन्तु दायित्व की अनुभूति अवश्य होनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति जिसे दायित्व का अनुभव न हो, उसमें परिवर्तन की सम्भावना नहीं की जा सकती। किन्तु जिसे दायित्व की अनुभूति हो जाए तो सचमुच उसमें परिवर्तन आने लग जाता है। चरित्र-निर्माण की दूसरी श्रेणी का हेतु है-दायित्व-बोध ।
तीसरी श्रेणी जो इससे आगे की है, वह है धर्म-बोध, धार्मिक चेतना को जागरण, विवेक का जागरण । जो व्यक्ति इस प्रेरणा से प्रेरित होकर अपने चरित्र का निर्माण करता है वह उच्चतम कक्षा का चरित्र-निर्माण होता है ।
मुआज को यमन का शासक नियुक्त किया गया। मोहम्मद साहब ने पूछा-'तुम यमन के शासक बने हो। तुम्हारे सामने बहुत सारे अभियोग आएंगे और तुम्हें फैसला करना होगा । बताओ, तुम किस आधार पर करोगे?' उसने कहा-'अल्लाह की पवित्र पुस्तक कुरान के आधार पर सारे फैसले