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महावीर की साधना का रहस्य
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मनुष्य का धर्म के प्रति आकर्षण भी कम हो जाए ।
हमारे चरित्र निर्माण में भय और प्रलोभन का बहुत बड़ा स्थान रहता है । यह अस्वाभाविक नहीं है । बहुत सारे लोग खाने में रुचि लेने वाले होते हैं । किन्तु अमुक-अमुक चीजें नहीं खाते। क्यों नहीं खाते ? स्वास्थ्य बिगड़ जाएगा । वे खाना इसलिए नहीं छोड़ रहे हैं कि खाना छोड़ने में उनकी दृष्टि परमार्थ की है । किन्तु इसलिए छोड़ रहे हैं कि स्वास्थ्य खराब हो जाएगा । स्वास्थ्य के बिगड़ने का भय रहता है। मिर्च नहीं खाना है। मिर्च नहीं खाने का मन पर क्या असर होता है, इसलिए मिर्च छोड़ने वाले कम मिलेंगे, और मिर्च खाने से पेट पर, पेट की क्रिया पर क्या असर होता है, इस दृष्टि से मिर्च को छोड़ने वाले ज्यादा मिलेंगे । मनुष्य के चरित्र-निर्माण में भय और प्रलोभन का बहुत बड़ा स्थान रहा है और रहेगा । इसे कभी मिटाया नहीं जा सकता । अगर यह मिट जाए तो दो बातें हो सकती हैं—या तो मनुष्य पूरा पशुता की ओर चला जाएगा या फिर पूरा परमार्थ की ओर चला जाएगा । फिर यह बीच की स्थिति नहीं रहेगी । भय और प्रलोभन की स्थिति समाप्त तब हो सकती है जब परमार्थ की दृष्टि समाज में इतनी विकसित हो जाए कि हर आदमी परमार्थ को सामने रखकर काम करता रहे । फिर भय और प्रलोभन की जरूरत नहीं रहेगी । या मनुष्य इतना पशुता की ओर चला जाए, इतना मूर्च्छा में चला जाए, फिर उसे भय और प्रलोभन की जरूरत नहीं रहेगी । ये दो स्थितियां हैं । एक वह छोर है जहां मनुष्यता का पूरा पतन होता है, और एक वह छोर है, जहां मनुष्यता का पूरा-पूरा विकास होता है । यह मध्य का बिन्दु है । यहां जो चरित्र का निर्माण होता है वह भय और प्रलोभन के आधार पर होता है ।
दूसरी स्थिति है प्रशंसा और निंदा की। यह भी हमारे चरित्र-निर्माण में सहायक बनती है । मैंने एक काम किया और गुरुजनों ने उसका समर्थन कर दिया, अनुमोदन कर दिया तो मैं चाहूंगा कि वह काम फिर करू, मेरी वह आदत बन जाएगी, स्वभाव बन जाएगा और मैं बार-बार उसे दोहराना चाहूंगा, करना चाहूंगा। मैंने कोई काम किया और पहले ही किसी ने टोक दिया कि तुमने अच्छा नहीं किया, बस वह स्थिति समाप्त । वह नहीं होगा । तो हमारे करने में, हमारी आदत के निर्माण में इनका भी बहुत बड़ा स्थान है । जिस काम के करने से मुझे प्रशंसा मिलती है, समर्थन मिलता है, अनुमोदन मिलता है और दूसरों का बल मिलता है, वह काम करना मैं पसंद