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महावीर की साधना का रहस्य
पाचन-संस्थान अधिक मात्रा में ऊर्जा को खींचता है । फलतः ऊर्जा का बहाव असंतुलित हो जाता है । मस्तिष्क में उसका बहाव कम हो जाता है । एक व्यक्ति धन का संग्रह बढ़ाता है तो निश्चित है कि किसी दूसरे के यहां गढ़ा होता है । पाचन संस्थान में ऊर्जा बढ़ेगी तो मस्तिष्क की ऊर्जा क्षीण होगी । इसीलिए जो पेटू होते हैं, उनका पेट बड़ा और दिमाग छोटा होता है । जिन्हें बुद्धि की चिन्ता नहीं है, जिनके सामने प्रतिभा के विकास का प्रश्न नहीं है, वे अधिक खाते हैं तो खा सकते हैं । किन्तु जो लोग बुद्धि का उपयोग करना चाहते हैं, प्रतिभा की कुशाग्रता से काम लेना चाहते हैं, चिंतन-मनन करना चाहते हैं, उनके लिए अधिक भोजन करना बहुत बड़े शत्रु को निमंत्रित करना है ।
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भगवान् महावीर ने साधना के प्रथम सूत्र के रूप में 'अनशन' का विधान किया । इसका अर्थ है - ऊर्जा का खर्च कम हो । जो हो वह मुख्यतः चेतना के विकास के लिए मस्तिष्क में ही हो । मस्तिष्क की ऊर्जा का पेट के लिए उपयोग करना चेतना के विकास का अवरोध है और पेट की ऊर्जा का मस्तिष्क के लिए उपयोग चेतना के विकास की साधना है ।
ऋतभोजी वह होता है जो मुफ्त का नहीं खाता, दूसरे का शोषण कर नहीं खाता । हमारे शरीर को केवल भोजन ही शक्ति नहीं देता, भावना भी शक्ति देती है । हम दूसरों की जितनी सद्भावना अर्जित करते हैं, उतना ही हमारा आन्तरिक बल बढ़ता है । दूसरों की आह के साथ जो भी हमारे पेट में जाता है, वह हमारी भावना को विकृत बनाता है । जैसे सुपाच्य और मन की पवित्रता में अवरोध पैदा नहीं करने वाली वस्तुओं का चुनाव भोजन का महत्त्वपूर्ण विषय है, वैसे ही श्रम और शुद्ध साधनों से अर्जित वस्तुओं का चुनाव भी बहुत मूल्यवान् है । भोजन का मूल्यांकन चेतना के विकास क मूल्यांकन है । हम इसकी उपेक्षा नहीं कर सकते ।