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भोजन का विवेक
होती है और कुछ
क्रिया होती है ।
वस्तु का लक्षण है होना और होने का लक्षण है क्रिया करना । जो क्रियाशील नहीं होता वह सत् नहीं होता । सत् वह होता है जिसमें क्रिया होती है और निरंतर होती है । कुछ वस्तुओं में स्वाभाविक क्रिया वस्तुओं में स्वाभाविक और सांयोगिक - दोनों प्रकार की क्रिया का स्रोत है शक्ति और शक्ति का स्रोत है आहार | हमारे शरीर-तंत्र में दो मुख्य अवयव हैं- मस्तिष्क और पाचन संस्थान । मस्तिष्क ज्ञानकेन्द्र और क्रियाकेन्द्र है । वह शरीर की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण पाता है, उनका संचालन करता है । पाचन संस्थान आहार का परिवाक कर उसका शरीर के साथ सात्म्य करता है ।
मस्तिष्क और शरीर - दोनों की क्रिया प्राण ऊर्जा या विद्युत ऊर्जा द्वारा होती है । मस्तिष्क को अपनी क्रिया करने के लिए बीस वोल्ट विद्युत ऊर्जा चाहिए । उसकी पूर्ति ग्लूकोज और ऑक्सीजन - इन दो स्रोतों से होती है । परिमित भोजन पाचन संस्थान के हिस्से में आने वाली विद्युत ऊर्जा से काम चला लेता है । अतिरिक्त भोजन अतिरिक्त विद्युत ऊर्जा का उपयोग करता है । पाचन-संस्थान द्वारा अतिरिक्त विद्युत ऊर्जा का उपयोग किये जाने पर मस्तिष्क को मिलने वाली विद्युत ऊर्जा की मात्रा कम हो जाती है । फलतः पेट की क्रिया प्रधान और मस्तिष्क की क्रिया गौण हो जाती है । आदमी अधिक आहारवान् और कम बुद्धिमान् हो जाता है । क्या कोई भी समझदार इसे पसन्द करेगा ?
आहार के बारे में हमारा दृष्टिकोण बहुत ही सीमित है । परिमित भोजन आहार का एक मानदंड है । किन्तु वही एकमात्र नहीं है । संतुलित भोजन का भी अपना महत्त्व है । कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो कुछ भी खाकर शरीर की अपेक्षा पूरी कर लेते । सब वैसे नहीं होते । जिनकी प्राण ऊर्जा सशक्त होती है, जो अपने अन्तःस्रावों पर पूर्ण अधिकार पा लेते हैं, उनमें रासायनिक परिवर्तन की क्षमता उत्पन्न हो जाती है । साधारण आदमी ऐसा नहीं कर पाते । वे संतुलित भोजन के अभाव में शरीर और मन दोनों