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वाक्-संवर-१
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क्या ? ऐसा होना चाहिए कि जो मैंने नहीं करने का सोचा वह काम फिर नहीं ही किया। ऐसा होना चाहिए । यह विभाजन बहुत स्वाभाविक विभाजन है । यानी मेरा मूल मन जो कहता है कि यह काम नहीं करूं, किन्तु वह बेचारा बहुत कम शक्तिशाली है। उसके हाथ में कोई बहुत बड़ी डोर नहीं है। जीवन की डोर उसके हाथ में नहीं है। वह सोचता है और बाहर की स्थिति को देखता है, सुनता है, समझता है और मन में संकल्प भी करता है कि यह काम अच्छा नहीं है और यह नहीं करना चाहिए, किन्तु जिसके हाथ में शक्ति का सूत्र है, जिसके हाथ में शक्ति का धागा है. जिसके हाथ में हमारे जीवन की पतवार है, वहां तक यह बात नहीं पहुंचती है। या हमारे अन्तमन में, हमारे अचेतन मन में यह संकल्प नहीं पहुंचता कि यह काम करणीय नहीं है।
जब स्थूल मन काम करता है, तब तो ठीक है कि मैं काम नहीं करूंगा। जैसे ही स्थूल मन पर अवचेतन मन का धक्का लगता है, बेचारा स्थूल मन दब जाता है। भार को वहन नहीं कर सकता, सहन नहीं कर सकता और घुटने टेक देता है । शान्त हो जाता है। एक आदमी मदिरापायी है । सोचता है कि अब मदिरापान नहीं करूंगा । किन्तु समय आया, शरीर में शिथिलता आयी, संस्कार जागा, स्नायु झंकृत हो गया और वह मदिरापान कर लेता है। वह इस बात को जानता है कि मदिरा पीने का परिणाम कितना बुरा होगा? मदिरा पीने से शरीर पर क्या प्रभाव पड़ेगा. वह इस बात को जानता है । मदिरा पीने से आर्थिक स्थिति में कितना नुकसान होगा, वह जानता है किन्तु इन सारी बातों को जानते हुए भी, वह अपनी भावना को अवचेतन मन तक नहीं पहुंचा पाता। इसलिए सब कुछ जानते हुए भी मदिरापान उसके लिए विवशता है और वह मदिरा को छोड़ नहीं सकता। __ हम अपने प्रत्येक आचरण के लिए इसी प्रकार उत्तरदायी हैं। कोई भी व्यक्ति अगर इस रहस्य को समझ ले, इस मर्म को पकड़ ले कि मुझे अपनी बात अवचेतन मन तक पहुंचा देनी है और वह अवचेतन मन तक अपनी बात पहुंचाने की प्रक्रिया को पकड़ लेता है, समझ लेता है, तो मैं समझता हूं कि उसका यह द्वैध समाप्त हो जाता है। फिर यह द्वैध नहीं रहता कि मैं कुछ सोचूं और हो जाए कुछ । यह द्वैध सदा के लिए समाप्त हो जाता है । किन्तु यह द्वैध तब तक रहेगा जब तक कि स्थूल मन और सूक्ष्म मन में ऐक्य स्थापित नहीं होगा। सामंजस्य नहीं होगा। और उस सामंजस्य की स्थापना में