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महावीर की साधना का रहस्य
णाम होना चाहिए, मौन का जो अर्थ होना चाहिए, वह मौन नहीं हुआ। मौन तब होगा जब आपका विकल्प समाप्त हो जाएगा । आप शब्द को ग्रहण नहीं करेंगे। शब्द को ग्रहण नहीं करने का मतलब होगा-निविचारता । निर्विचारता का अर्थ होगा—मौन । और मौन का साथी होगा मन का संवर । यह मन का संवर और वाणी का संवर, मन की गुप्ति और वचन की गुप्ति, दोनों वास्तव में साथ-साथ चलते हैं।
हमारी बोलने की क्रिया को दो भागों में बांटा गया है-एक बहिर्जल्प और दूसरा है अन्तर्जल्प । बाहर का बोलना और भीतर का बोलना। जो बाहर का बोलना है, वह हमारी वैखरी वाणी है, स्थूल भाषा है। जो भीतर का बोलना है, वह अन्तर्जल्प है । अन्तर्जल्प और बाहिर्जल्प, दोनों जब तक समाप्त नहीं होते, तब तक मौन का अर्थ हमारी समझ में नहीं आता। मौन करें और अन्तर्जल्प को बन्द कर दें, फिर कभी वह अंगुली का संकेत नहीं करेगा । इशारा नहीं करेगा।
मौन या वाक्-संवर का मतलब है वाणी का सर्वथा अप्रयोग। न केवल वाणी का किन्तु शब्दों का भी सर्वथा अप्रयोग । मात्रिका का, ध्वनि का सर्वथा अप्रयोग। वाक्-संवर की अंतिम कक्षा वह होगी, जहां वर्ण का कोई प्रयोग नहीं हो रहा है। बाहर भी नहीं और भीतर भी नहीं। बाहर और भीतर दोनों शब्द-स्थानों में शब्द का सर्वथा अप्रयोग का नाम है वाक्-संवर । • ध्वनि को सूक्ष्म कैसे किया जा सकता है ? ।
ध्वनि मूलतः सूक्ष्म में चलती है । वह बाहर आती है तब वाक् प्रयत्न के द्वारा उसे स्थूल करना पड़ता है। हमारे अन्तर् में जो प्राणमय ध्वनि हो रही है, वह स्वभावतः सूक्ष्म है। हम जिसे उपांसु जप कहते हैं, जैसे 'ओम, ओम' का जप करते हैं तो होंठों में करते हैं, बाहर नहीं लाते। जब बाहर लाना पड़ता है तब उसे स्थूल बनाना पड़ता है। हमारे शरीर में कुछ यंत्र हैं जो ध्वनि को बाहर फेंकते हैं। वे उसे स्थूल बना देते हैं। किन्तु स्वभावतः वह सूक्ष्म होती है। इसके लिए आप एक प्रयोग करके देखें। आप अपनी जीभ को दन्तमूल में लगाएं । 'अर्हम्-अर्हम' का उच्चारण करें। लगातार एक मिनट तक करते चले जाएं । उच्चारण बराबर होता है, परन्तु न आपको सुनाई देता है और न किसी दूसरे को । • एक व्यक्ति बोलता नहीं है किन्तु मन में विचार करता है। क्या उसे मौन का पूरा लाभ नहीं मिलता ?