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वाक्-संवर-१
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प्रेषित करेगा भाषा के पास, और भाषा उसे बाहर फेंक देगी। केवली के वह भावमन तो है नहीं । मन समाप्त है । अब केवल ज्ञान है। केवलज्ञान का काम भाषा को देना नहीं है । यह श्रुतज्ञान का काम है । इसलिए सारा प्रश्न जटिल बन जाता है। फिर भी हम इतना अवश्य मान लें कि चाहे केवली के लिए
और चाहे सामान्य व्यक्ति के लिए, जैसे मन की शक्ति बढ़ती जाती है, भाषा वैसे ही मुक्त और कम होती चली जाती है। • शब्द के माध्यम को छोड़कर दूसरे माध्यम को विकसित करने की क्या अपेक्षा है ?
बुद्ध जंगल में बैठे थे। उनके हाथ में कुछ पत्तियां थीं। बुद्ध ने पूछा, आर्यो ! बताओ कि मेरे हाथ में पत्तियां ज्यादा हैं या इस जंगल की पत्तियां ज्यादा हैं ?' शिष्यों ने कहा, 'भंते ! यह तो स्पष्ट है । आपके हाथ में दस, बीस, पचास पत्तियां होंगी। और जंगल में एक-एक पेड़ पर लाखों-करोड़ों पत्तियां होंगी।' बुद्ध ने कहा, 'देखो ! मैंने तुम्हें धर्म बताया है, जो बात कही है, वह इतनी-सी बात है । शेष सारा जंगल की पत्तियों के समान है। वह भाषा में आ नहीं सकता।'
अनेकान्त के अनुसार एक शब्द में एक वस्तु का अनन्तवां हिस्सा कहा जाता है । मैं कहता हूं लाल । यह लाल शब्द लाल रंग का प्रतिनिधित्व करता है, उसका वाचक बनता है, अर्थ होता है। किन्तु लाल रंग के अनन्त धर्म हैं। उनमें से अनन्तवें हिस्से के एक भाग का प्रतिपादन करता है। जो व्यक्ति तत्त्वज्ञानी होता है और वह देखता है कि शब्द के द्वारा जो कहना चाहता हूं, वह कुछ भी नहीं कह पाता; इसलिए वह शब्द के माध्यम को छोड़कर दूसरे माध्यम को विकसित करने लग जाता है ।