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मन का विलय
मैं देखता हूं कि जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है, उसका लय या विलय कैसे होगा ? भाषा बहुत लचीली है । बहुत सारे व्यक्ति अपने भावों को अभिव्यक्ति देने के लिए भाषा का चाहे जैसे प्रयोग कर देते हैं । किसी ने कहा कि हमने साधना की और मन का विलय हो गया । ध्यान किया और मन का विलय हो गया । मन शान्त हो गया, किसी रूप में विलीन हो गया । तो दूसरी भाषा यह है कि मन था ही नहीं । विलय हुआ किसका ? जिसका कोई अस्तित्व हो, उसका विलय हो सकता है । पर मन था कहां ? मन नही था । जैन, बौद्ध आदि जो साधना की धारणाएं हैं उनकी भाषा है— मन का कोई अस्तित्व ही नहीं है । मन का कोई आधार ही नहीं है, मन की कोई प्रतिष्ठा ही नहीं है और मन कहीं स्थित नहीं है । फिर उसी बात को भिन्नभिन्न भाषाओं में कह देना पड़ता है । कभी आदमी मजबूरी के कारण कहता है, कभी अपनी समझ के कारण कह देता है ।
उज्जैनी के पास नटों की एक बस्ती थी । एक मुखिया नट था । उसके बेटे का नाम था रोहक । राजा ने एक बार आदेश भेजा - 'एक बूढ़ा हाथी वहां आ रहा है । तुम्हारे गांव में रहेगा । तुम्हें उसकी सार-संभाल करना है, देखभाल करना है । मुझे प्रतिदिन उसका कुशल संवाद भेजना है । पर एक बात का ध्यान रखना कि मौत का समाचार मत भेजना । यदि मौत का समाचार सुना दिया तो सुनाने वाला भी मौत का शिकार हो जाएगा ।' बड़ी उलझन थी । रोज कुशल- समाचार देना परन्तु मौत का समाचार न देना । कुछ दिनों तक यह क्रम चलता रहा । रोज संवाद जाते रहे । हाथी बूढ़ा तो था ही । मरने जैसा था और मरने के लिए ही शायद भेजा गया था । कुछ दिनों बाद वह मर गया । अब गांव के लोगों ने चिन्ता की बात है । आज क्या संवाद दें राजा को ? अगर कुशल-संवाद दें तो झूठ होगा । झूठ कहें तो मृत्यु और अगर यह भी कह दें कि मर गया तो भी मृत्यु । करें क्या ? रोहक ने एक बात सुझा दी । दूत गया और जाकर बोला- 'महाराज, प्रणाम !' 'कहो, कैसे है हाथी ?' राजा ने पूछा । दूत
सोचा कि क्या करें ? बहुत
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