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मन
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सीधा नहीं है जितना कि शब्दों में कहा जाता है । मन कोई स्थाई तत्त्व नहीं है। वह उत्पन्न होता है और नष्ट हो जाता है। फिर उत्पन्न होता है और फिर नष्ट हो जाता है । इसलिए बंध और मोक्ष का हेतु मन से परे है, कोई दूसरा तत्त्व है । कषाय बंध का हेतु है और उसका उपशमन मोक्ष का हेतु है । कषाय का कार्य मन पर आरोपित होता है किन्तु इस कार्य-चक्र में उसका मौलिक योग नहीं है । जिन वृत्तियों का, जिन संस्कारों का हमने संचय कर लिया वे जब उभरते हैं तब बन्धन को लाते हैं। जिन संस्कारों का हमने विलय कर दिया, वे हमें मुक्ति की ओर ले जाते हैं। संस्कार का निर्माण बंधन है और उसका विलय मोक्ष है। संस्कार के उभरने पर मन उत्तेजित होता है, और उसका विलय होने पर मन शान्त हो जाता है । संस्कार परोक्ष में रहता है और मन हमारे प्रत्यक्ष में, इसलिए हम कहते हैं कि मन ही बंध और मोक्ष का कारण है। • 'मन कुछ नहीं है'-यह मेरी समझ में नहीं आया । इसे फिर स्पष्ट करें। ____ मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मन कुछ नहीं है। मैं यह कहना चाहता हूं कि वह एक प्रवाह है । प्रवाह को हम यह नहीं कह सकते कि वह कुछ नहीं है। देशकृत प्रवाह में पानी की पहली धार आगे बढ़ जाती है और उसके स्थान पर नई धार आ जाती है। धार बनी रहती है किन्तु एक ही धार नहीं रहती। रास्ता चालू है, स्रोत खुला है तब तक प्रवाह रहता है। स्रोत को बन्द कर देते हैं, फाटक को बन्द कर देते हैं तो पानी का प्रवाह रुक जाता है। इसलिए प्रवाह स्थायी तत्त्व नहीं। जब तक फाटक खुला रहा, बांध में से पानी नहरों में प्रवाहित होता रहा। फाटक को बन्द कर दिया गया, पानी का प्रवाह रुक गया । मन एक संकल्प करता है । वह चला जाता है । दूसरा संकल्प आ जाता है । वृत्तियों का स्रोत खुला होता है, संकल्प आते रहते हैं। वृत्तियों का स्रोत बन्द होता है, संकल्प का प्रवाह समाप्त हो जाता है । मन भी समाप्त हो जाता है, शान्त हो जाता है । • मन को कैसे शान्त रखें जिससे वह कुछ भी न रहे ?
श्वास का कुंभक किया, मन की क्रिया समाप्त हो गई। मन नए सिरे से उत्पन्न नहीं हुआ, कुंभक फाटक बन गया। ऐसा क्यों हुआ ? इस पर थोड़ा चिंतन करें । मानसिक चेतना मस्तिष्क के कोष्ठों द्वारा अभिव्यक्त होती है। वे कोष्ठ श्वास के द्वारा सक्रिय होते हैं । शरीर की सारी क्रिया श्वास के द्वारा