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महावीर की साधना का रहस्य
करना होगा, यानी संवर करना होगा। और संवर में भी सबसे पहले काया का संवर नहीं होगा तो मन का संवर नहीं हो सकता। मन का संवर और काया का संवर-दोनों साथ में जुड़े हुए हैं। क्योंकि मन और वाणी-ये दोनों भी काया के द्वारा ही प्रेरित हैं । अपने आप में वे पंगु हैं । वाणी पंगु है, मन पंगु है । मन अपने आप नहीं चल सकता। वाणी अपने आप नहीं चल सकती। दोनों के पैर नही हैं। सारी गति है काया में नियोजित । स्थूल शरीर पुद्गलों को ग्रहण करता है तो मन संचालित होता है । मन की वर्गणाएं, मन के पुद्गल ग्रहण कौन करता है ? मन ग्रहण नहीं करता। ग्रहण करता है स्थूल शरीर। वाणी के पुद्गलों को कौन ग्रहण करता है ? वाणी ग्रहण नहीं कर पाती, ग्रहण करता है स्थूल शरीर । और वास्तव में सारी प्रवृक्ति एक ही है और वह है काययोग, यानी काया की प्रवृत्ति । योग वास्तव में तीन नहीं हैं। तीन की संख्या सापेक्ष है। मूल योग एक है । प्रवृत्ति का मूल स्रोत एक है काया-शरीर । शरीर के द्वारा सब बाहरी पुद्गलों का ग्रहण होता है, इसलिए सबसे पहले भगवान् ने कहा-काया का संवर करो। काया के संवर के बाद होगा वाणी का संवर और फिर होगा मन का संवर । सबसे पहले काया का संवर है।
महावीर की साधना में सबसे पहली बात है संवर, और संवर में भी सबसे पहली बात है काया का संवर, शरीर का संवर, शरीर की प्रवृत्ति का निरोध । जब शरीर की प्रवृत्ति का निरोध होता है तब सूक्ष्म शरीर को एक धक्का-सा लगता है । सीधी चोट होती है उस पर और वह प्रकंपित हो जाता है । सूक्ष्म शरीर को इतना धक्का लगता है कि मानो बम का विस्फोट हुआ हो। हम तो निश्चल होकर बैठ जाते हैं। हमारा स्थिर होना सूक्ष्म शरीर के लिए विस्फोट होना है। बेचारा इतना कांप उठता है कि उसे अनन्त-अनन्त परमाणुओं को उसी समय छोड़ देना पड़ता है। अनन्त-अनन्त परमाणु बिखरने लग जाते हैं। अपने अवयवों को तोड़कर गिरा देना होता है। वे टूटकर गिरने लग जाते हैं। ___आप कल्पना कीजिए, हिरोशिमा पर जो बम-वर्षा हुई थी, और उस समय वहां की जनता की जो हालत हुई थी, उससे भी बुरी हालत सूक्ष्म शरीर की, कर्म-शरीर की हो जाती है, जब हम स्थूल शरीर को शांत, स्थिर, निष्क्रिय और प्रवृत्तिहीन बना देते हैं। यह साधना का गहरा रहस्य है। चित्तातीत अवस्था का आपने निर्माण कर लिया, फिर आपको चित्त-पर्याय के