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सकता ।” ऊंट चला गया । गधा वहीं रुक गया। क्योंकि दोनों की ऊंचाई में अन्तर था । दोनों की लम्बाई में अन्तर था । ऊंट चला गया और गधा
प्राण
रुक गया ।
इसी प्रकार अस्तित्व की ऊंचाई और मन की ऊंचाई एक साथ नहीं चल सकती । मन की ऊंचाई बहुत नीचे रह जाती है । मन उसके साथ नहीं चल सकता । उसे तो गधे की तरह रुकना ही पड़ता है । तो मन को छोड़ देना, मन को त्याग देना, यह वास्तव में अस्तित्व की ऊंचाई को पाने का अविरल और महत्त्वपूर्ण प्रयत्न है । हम यह कैसे करें ? प्राण को कैसे छोड़ें ? प्राण को शान्त कैसे करें और प्राण की धारा को किस रास्ते से प्रवाहित करें जिससे कि हमें अस्तित्व की ऊंचाई प्राप्त हो जाए ? इस पर भी योग में बहुत विचार हुआ है । प्राण की धारा को हम मध्यवर्ती करें। शरीर के बीच में प्रवाहित करें, पृष्ठरज्जु में प्रवाहित करें । प्राण शांत हो जाएगा, मन शांत हो जाएगा और हमारे अस्तित्व को प्रकट होने का मौका मिल जाएगा ।
फिर एक प्रश्न और उभरता है । यह कैसे करें ? प्राण की धारा को वहां कैसे ले जाएं ? इस पर हमें चर्चा भी करनी है और इसे प्रायोगिक रूप भी देना है । इसे मध्यवर्ती के लिए, बीच के मार्ग से बहाने के लिए, जो पानी इधर जा रहा है, उधर जा रहा है, छितर रहा है, बिखर रहा है, उस पानी को एक धारा में, मध्यवर्ती धारा में बहाने के लिए हमें कुछ रास्ते खोजने हैं । वे रास्ते क्या हैं ? पहला रास्ता मैं आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं । वह है M कपालभाति प्राणायाम । उसका प्रयोग करते ही प्राण की धारा इधर-उधर से सिमटकर मध्यवर्ती होने लग जाती है ।
दूसरा रास्ता है— त्रिबन्ध । तीन बंधों का प्रयोग । उड्डीयान, जालंधर और मूलबंध - इन तीनों बंधों का प्रयोग करने से प्राण की धारा मध्यमार्ग से प्रवाहित होने लग जाती है ।
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तीसरा रास्ता है - दीर्घ श्वास । दीर्घ श्वास का प्रयोग करने से प्राण की धारा मध्यवर्ती हो जाती है । दीर्घ श्वास का मेरा एक अनुभूत प्रयोग है, मैंने उसको नाम दिया कोटि-प्राणायाम । जैन लोगों में तपस्या होती है । उसक नाम है कोटि-तप । कोटि- प्राणायाम की प्रक्रिया यह है, जैसे – एक दीर्घ श्वास लें । उसका रेचन कर तत्काल दूसरा दीर्घ श्वास लें । पहला श्वास पूरा होते ही दूसरा उसके साथ संलग्न हो जाए, बीच में विराम न हो । श्वास का चक्र-सा बन जाए, वर्तुल-सा बन जाए । एक का अन्त और दूसरे का