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महावीर की साधना का रहस्य
अब भला कौन है ? मार खाने वाला भला है या मारने वाला ? बुरा कौन हैं ? मार खाने वाला बुरा है या मारने वाला बुरा है ? यह निर्णय बहुत उलझन में पड़ गया । हम नहीं समझ पाए कि इन्द्रियां बुरी हैं या इन्द्रियों में से झांकने वाला बुरा है । बुरा कौन है ? मुझे लगता है कि इन्द्रियां बुरी नहीं हैं । इन्द्रियों में कोई बुराई नहीं है । आंख में कोई बुराई नहीं है । कान में बुराई नहीं है । नाक में कोई बुराई नहीं है । और त्वचा में कोई बुराई नहीं हैं । ये बेचारी जड़ हैं, अचेतन हैं । कुछ भी नहीं करने वाली हैं । केवल रास्ता और केवल रास्ता है । हमारे विराट् चैतन्य की रश्मियां इन्हीं इन्द्रियों के रास्ते से बाहर आती हैं और हमारी वासना की रश्मियां भी इन्हीं रास्तों से बाहर आती हैं ।
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हमें पहुंचना चाहिए था वासना तक और हम रुक गए इन्द्रियों तक । यह हमारी कठिनाई हो गई । मैं समझता हूं कि 'इन्द्रियों को जीतो', इस भाषा में कोई मतलब नहीं है । हमारी भाषा होनी चाहिए- 'वासना को जीतो', 'संस्कार को जीतो' और 'जो इन्द्रियों को धूमिल बनाती हैं, उन वृत्तियों को जीतो ।'
हमारे इस स्थूल शरीर में होते हैं सूक्ष्म शरीर । उनमें एक होता है वासना का शरीर, कर्म शरीर जिसमें सारे संस्कार पलते हैं । आदमी ज्यादा खा लेता है । अच्छी चीज होती है तो ज्यादा खा लेता है । सुन्दर चीज होती है तो ज्यादा देख लेता है । किन्तु पशु वैसा नहीं करता । क्योंकि वासनाएं उसमें इतनी तीव्र नहीं होतीं । मनुष्य की वासनाएं बहुत तीव्र होती हैं । उसके संस्कार बहुत तीव्र होते हैं और संस्कार के कारण ऐसा करता है, इन्द्रियों के कारण ऐसा नहीं करता । जीभ यह कभी नहीं प्रेरित करती कि बहुत खाया जाए । जीभ का काम है स्वाद लेना पहुंचा देना ।
और जो आए उसे आगे
एक अंग्रेज पर्यटक तिब्बत में लामाओं के पास गया। जहां लामा का मठ था, उसके पास थी एक खाई । पचास गज गहरी और पचास गज चौड़ी । उसे कैसे पार किया जाए ? वह जैसे ही पहुंचा तो सामने लामा का एक दूत खड़ा दिखाई पड़ा । दूत ने कहा - 'महाशय, आइए । मैं आपको योग-शक्ति के द्वारा पार पहुंचा दूंगा ।' ऊपर कोई पुल नहीं था । उसने योगबल के द्वारा अंग्रेज पर्यटक को पार पहुंचा दिया। वह लामा के पास पहुंचा
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