________________
इन्द्रिय-संवर
आत्मा का अस्तित्व शब्दातीत, रूपातीत, गन्धातीत, रसातीत और स्पर्शातीत । यह है आत्मा का अस्तित्व । वहां पहुंच जाओ, फिर संस्कार समाप्त, सारी वासनाएं समाप्त और सारा विकार समाप्त । गीता ने इसी भाषा में कहा—
विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः ।
रसवजं रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।
"
८५
नाक को बन्द कर
जो निराहार होता है, बाहर से कुछ लेता नहीं है, आंख मूंद लेता है, कान में भी उंगली डाल लेता है या रुई डाल लेता है, लेता है और त्वचा के संवेदन का भी संवरण कर लेता है, वह विषयों से दूर हो जाता है । जो निराहार होता है, बाहर से नहीं लेने वाला होता है, उसके विषय समाप्त हो जाते हैं । तो फिर प्रश्न उठा कि क्या विकार समाप्त हो गया ? निराहार होने से, बाहर से नहीं लेने से क्या विषय समाप्त हो गए ? विकार समाप्त नहीं हुए। तो फिर क्या करना चाहिए ? रस नहीं छूटा । रस कैसे छूटेगा ? वासना कैसे छूटेगी ? विकार कैसे छूटेगा ? प्रश्न तो यह है । उन्होंने कहा कि 'पर' की उपासना करो, 'पर' का दर्शन करो, ग्रन्थि समाप्त हो जाएगी । विकार और वासना समाप्त हो जाएगी । यह है 'परदर्शन' और इसी का नाम है 'आत्म-दर्शन' । जिस व्यक्ति ने 'आत्म-दर्शन' किया है, आत्मा को देखा है, आत्मा पर ध्यान केन्द्रित किया है, उस व्यक्ति सब विषयों से मुक्ति पा ली, विकारों से मुक्ति पा ली। फिर वह देखता हुआ भी नहीं देखता ।
जो दर्शन का क्षण है वही मन की शांति का क्षण है । मन शांत तो इन्द्रियां शांत । मन चंचल तो इन्द्रियां चंचल । यह है आत्म-दर्शन का क्षण, आत्मा की उपासना, शब्दातीत स्थिति की उपासना ।
इन्द्रिय-विजय का धागा कहां तक पहुंचता है ? आप थोड़ी गहराई से ध्यान दें । इन्द्रिय-विजय का धागा यहां तक नहीं पहुंचता कि हमने एक चीज को खाना बन्द कर दिया और मान लिया कि रसना पर हमारी विजय हो गई । हमने दो-चार दिनों के लिए अमुक चीज को खाने का त्याग कर दिया, और हमने मान लिया कि रसना पर हमारी विजय हो गई। हमने थोड़े घंटों तक आंख मूंदकर ध्यान कर लिया और मान लिया कि चक्षु पर विजय हो गई । यह हमारी भ्रान्ति होगी । हम विजय के द्वार तक भी नहीं पहुंच पाएंगे। विजय का द्वार अभी खटखटाया ही नहीं है । अभी दूर खड़े हैं और