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महावीर की साधना का रहस्य
में से आ रही हैं वासना की ऊर्मियां जिस रास्ते से वासना की ऊर्मियां प्रवेश पा रही हैं, उनके द्वार को बन्द कर दो। इसी का नाम है प्रत्याहार । पहली बात हुई कि विषयों को ग्रहण मत करो — शब्द, रूप, रस गन्ध और स्पर्शइन्हें ग्रहण ही मत करो । इन्द्रियों के दरवाजे को बन्द कर दो ।' आचारांग सूत्र में इसका प्रतिवाद मिलता है । सूत्रकार ने कहा – 'यह कैसे संभव है कि शरीर हो और विषयों का ग्रहण न हो । कानों में शब्द आ रहे हैं, उन्हें रोक पाना शक्य नहीं है । शब्दों को ग्रहण मत करो, उन्हें मत सुनो, यह संभव नहीं है । जब तक कान के पर्दे हैं, तब तक यह नहीं हो सकता । जब तक आंख हैं, यह नहीं हो सकता कि मत देखो ।'
हम घंटा भर आंख मूंद
अग्रहण की बात कुछ समय के लिए ठीक है । कर बैठ गए। पांच घंटा बैठ गए। ठीक है । किन्तु सारा जीवन इस प्रकार नहीं चल सकता । यह अल्पकालीन बात हो सकती है, जीवनकालीन बात नहीं हो सकती । आपने सर्वेन्द्रियां - मुद्रा कर ली। बाहर से किसी वस्तु को ग्रहण नहीं किया । यह कुछ समय के लिए हो सकता है । किन्तु शाश्वत समय के लिए यह बात संभव नहीं है । शाश्वत समय में हमें इन्द्रियों की प्रवृत्ति करनी ही होगी । उन्होंने फिर दूसरा विकल्प सुझाया कि तुम ऐसा मत करो। इस अग्रहण की बात पर इतना बल मत दो। तो क्या करो ? जो विषय प्राप्त होते हैं— शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श, उन पर राग-द्वेष मत करो, उनके साथ चेतना को मत जोड़ो | यह रहा दूसरा विकल्प | पहला था अग्रहण और दूसरा अनासक्ति ।
प्रश्न जटिल है । राग-द्वेष न करो, यह बात ठीक है । परन्तु कैसे नहीं करें ? केवल आंख मूंद ली या मन में सोच लिया कि जो भी सामने रूप आएगा, रंग आएगा, उस पर मैं राग और द्वेष नहीं करूंगा, यह कैसे संभव होगा ? आंख मूंद लेने मात्र से तो यह संभव नहीं है । जैसे ही कोई सुन्दर रूप सामने आया, राग का भाव उत्पन्न हो जाएगा । जैसे ही कोई बीभत्स चीज सामने आयी, गन्दगी सामने आयी या विकृत चेहरा सामने आया, मन में घृणा का भाव पैदा हो जाएगा । सोच लेने मात्र से होगा कैसे ?
तो फिर और आगे बढ़ें। वासना का निर्मूलन करें। यह कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर आचारांग में बहुत सुन्दर मिलता है । उस सत्ता की उपा सना करो, उस सत्ता के जगत् पहुंच जाओ जहां शब्द नहीं है, रूप नहीं है, गंध नहीं है, रस नहीं है और स्पर्श नहीं है ।
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