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इन्द्रिय-संवर
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निक के रूप में 'इन्द्रियवादी की चौपई' में देख सकते हैं । आचार्य भिक्षु ने उन लोगों पर बड़ा व्यंग्य किया जो इन्द्रियों को दुत्कारते हैं। उन्होंने कहा कि रोग कहीं और निदान कहीं । आंखों को फोड़ने से तुम्हारा होगा क्या ? बीमार हो गया ऊंट और दाग दिया बैल को। क्योंकि ऊंट तक हाथ पहुंचता नहीं, बैल तक पहुंच जाता है । मन को मारते नहीं, फोड़ते हैं आंख को। आप आश्चर्य करेंगे कि ऐसे बहुत से लोग हुए हैं जिन्होंने आंखों को फोड़ा है । इसलिए कि विकार न आए। आंख फोड़ने से उनका विकार मिट गया हो ऐसा मुझे नहीं लगता । __ नमि राजर्षि से ब्राह्मण ने पूछा-'आप अभी दीक्षित क्यों हो रहे हैं ? अभी बहुत से चोर हैं, अपराधी हैं, डाकू हैं, लुटेरे हैं, उनको पहले दण्डित कीजिए, फिर बाद में दीक्षा लीजिए।'
राजर्षि ने कहा—'यह बड़ी विचित्र दुनिया है । बहुत बार ऐसा होता है कि लोग मिथ्या दण्ड देते हैं, झूठा दण्ड देते हैं। जो अपराधी है वह बच निकलता है और जो अपराधी नहीं है, भोला-भाला है, वह दण्डित हो जाता है।' मुझे लगता है कि हमारी इन्द्रियां व्यर्थ में ही जेल में ठूसी जा रही हैं। व्यर्थ ही बन्दी बनाई जा रही हैं। और इतना दंड उन्हें दिया जा रहा है जितना नहीं दिया जाना चाहिए। जिसे दंड दिया जाना चाहिए उसकी ओर हमारा ध्यान भी नहीं है और उसकी हम खबर भी नहीं लेते हैं।
किसे दंड दिया जाए ? किसे पकड़ा जाए ? किसका निग्रह किया जाए? किसे वश में किया जाए ? मेरा विषय है-इन्द्रिय का संवर । तो दंड इन्द्रिय को ही दिया जाना चाहिए । किन्तु मैं समझता हूं कि यह मात्र विषय का दरवाजा है । पहुंचना हमें भीतर है । दरवाजे पर हम इतने लोग बैठ नहीं सकते । इतने लोग खुली जमीन में और खुले आकाश में बैठ सकते हैं, छोटे से दरवाजे पर इतने लोग कहां समाएंगे ? वह तो एक दरवाजा हो गया। हमें पहुंचना है भीतर, भीतर और भीतर जहां कि वह चोर छिपकर बैठा है
और जो अपनी चोरी के कारण, अपनी प्रवृत्ति के कारण बेचारी सारी इन्द्रियों को दूषित बनाए बैठा है । इसीलिए भगवान ने कहा-'संवर करो। दरवाजे को बन्द करो। जो भीतर है, वहां तक बन्द करो। न केवल बाहर से बन्द करो, भीतर तक बन्द कर दो । जो विकार की रश्मियां-ऊर्मियां आ रही हैं, वहां से दरवाजे को बन्द कर दो।'
दो प्रणालिकाएं हैं। एक में से आ रही हैं चैतन्य की ऊर्मियां और दूसरी