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महावीर की साधना का रहस्य
का । वह दोनों की बड़े. सच्चे भाव से पूजा किया करता था । कुछ दिन बीते । ऐसा संयोग आया कि वह दरिद्र हो गया । धन चला गया । विपत्ति आयी । पैसे की कठिनाई आ गयी । उसने सोचा कि और अब कुछ भी नहीं बचा है, यह मूर्ति और घोड़ा बचा है । इन्हें बेचकर अपना काम चलाऊं । वह मूर्ति और घोड़े को लेकर एक जौहरी के पास गया। मूर्ति थी एक सेर सोने की और घोड़ा था तीन सेर सोने का। जौहरी को दिखाया तो उसने कहा-"मूर्ति के एक हजार रुपये तथा घोड़े के तीन हजार रुपये मिलेंगे।" चारवाहे ने कहा- “ऐसा नहीं हो सकता। यह भला कैसे हो सकता है कि मेरे भगवान् के तो मात्र एक हजार रुपये और उनके घोड़े के तीन हजार रुपये । कभी नहीं हो सकता।" ___ जौहरी ने उत्तर दिया-"भले आदमी ! तुम्हारे लिए यह भगवान् है और यह घोड़ा है । मेरे लिए तो यह सोना है । मेरे लिए भगवान् भी नहीं और यह घोड़ा भी नहीं है ।" रामजा के लिए खंडोबा भगवान् था और घोड़ा घोड़ा था। किन्तु उस जौहरी के लिए न वह भगवान् था और न वह घोड़ा था । उसके लिए दोनों सोना थे । अपनी-अपनी दृष्टि का अन्तर होता है । साधना की पद्धति में भी अन्तर रहा है। किसी साधक ने किसी एक पद्धति से साधना की और दूसरे ने किसी दूसरी पद्धति को महत्त्व दियायह अपनी-अपनी रुचि का अन्तर है ।
हठयोग ने प्राण और अपान को महत्त्व दिया । हठयोग का मतलब ही है-प्राण और अपान का योग । बहत सारे लोग कहते हैं कि हठयोग का अर्थ है-साधना में हठ का प्रयोग । यह गलत अर्थ है । हठयोग का यह कोई मतलब नहीं है । हठयोग की यह भावना नहीं है । हकार और ठकार-इन दोनों का पारिभाषिक अर्थ हठयोग के आचार्यों ने किया है-'ह' माने प्राण और 'ठ' माने अपान । तो प्राण और अपान का जहां योग होता है, जहां सूर्य और चन्द्र का मिलन होता है, उसका नाम है हठयोग । यानी सूर्य
और चन्द्र का मिलन, प्राणवायु और अपानवायु का मिलना । उसका नाम है हठयोग । उन्होंने अपनी सारी पद्धति प्राणवायु और अपानवायु के आधार पर विकसित की। राजयोग की भी अपनी एक पद्धति है । उसमें प्राण और अपान को महत्त्व नहीं दिया गया, मुख्य स्थान नहीं दिया गया। उसमें मुख्य स्थान है-मन का और आत्मा का । 'मन को साधे सब सधे'-यानी मन को साधने पर सब-कुछ सध जाता है । मन को ही महत्व दिया। एक ओर