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इन्द्रिय-संवर
शिष्य ने आचार्य से पूछा - " आत्मा परमात्मा कैसे हो सकती है ? ' आचार्य ने उत्तर दिया - " जब मन का मन्दिर उजड़ जाता है, इन्द्रियों की सारी प्रवृत्तियां नष्ट हो जाती हैं तब आत्मा परमात्मा बन जाती है ।"
बहुत सीधा-सा सूत्र उन्होंने आत्मा से परमात्मा बनने का बताया । दो बातें उन्होंने मुख्य बतलाई - मन का मन्दिर उजड़ जाए और इन्द्रियों का व्यापार नष्ट हो जाए । इन्द्रिय और मन हमारे जीवन के दो स्तम्भ हैं । इनके आधार पर हमारा साग जीवन चलता और आचार्य ने उत्तर दिया कि इन्द्रियां भी समाप्त हो जाएं और मन भी समाप्त हो जाए । शेष रह जाए यह जड़ शरीर जैसे कोई सूखा वृक्ष खड़ा हो। तो फिर आत्मा परमात्मा बन जाएगी । बहुत अटपटी-सी बात आचार्य ने कही ।
अगर इंद्रियां न हों, मन न हो तो हमारा जगत् ही क्या होगा ? यह सारा जगत् शब्द, रूप, रस, स्पर्श, गन्ध और संकल्पात्मक है । हम अपनी इंद्रियों के द्वारा जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित करते हैं । कानों से हम सुनते हैं। आंखों से हम देखते हैं । नाक से हम सूंघते हैं । जीभ से हम चखते हैं और त्वचा से हम स्पर्श करते हैं । इन्हीं पांच इंद्रियों के द्वारा हम सम्पूर्ण जगत् से सम्पर्क स्थापित करते हैं । किन्तु आचार्य ने कहा कि इन्द्रिया समाप्त कर दो । मन के द्वारा हम इनका संकलन करते हैं, इन्हें याद रखते हैं और फिर काम में लेते हैं । आचार्य ने कहा की मन का मंदिर उजड़ जाए । इसका मतलब हुआ कि हमारा दृश्य जगत् के साथ सम्पर्क टूट जाए । और इस प्रकार हम अकेले पड़ जाएं कि जहां केवल हम हों और दूसरा कोई न हो । यह बहुत ही विचित्र स्थिति है । इसका प्रतिपादन आचार्य ने कर दिया । तो क्या सचमुच मन इतना खराब है ? इन्द्रियां इतनी खराब हैं ? क्या इन्द्रियां इतनी अनिष्ट हैं कि जिनके व्यापार को हम रोक लें
हिन्दुस्तान में इन्द्रियों को लेकर बहुत विचित्र धारणाएं रही हैं । इतने विचित्र मत रहे हैं, ऐसा लगता है मानों सारी दुनिया का नुकसान, सारी दुनिया की हानि, यदि कोई करने वाली है तो ये इन्द्रियां हैं, और कुछ नहीं