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प्राण
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को यों ही गंवा देना । क्या लाभ होने वाला है आपको? यह उन लोगों के लिए ठीक है जिनको कामना नहीं है, जिन्हें व्यापार नहीं करना है, जिन्हें बैठेबैठे रोटी खाना है और कोई काम-काज नहीं करना है । न कोई सगाई-सम्बन्ध करना है, न किसी से व्यवहार जोड़ना है, न किसी से तोड़ना है । ठीक है, वे जीते हैं तो अपनी इच्छा से जीते हैं। चले जाते हैं तो पीछे चिन्ता करने की जरूरत नहीं । ऐसे लोगों के लिए तो यह रास्ता ठीक हो सकता है। किन्तु आप तो सामाजिक प्राणी हैं । आपके लिए ऐसा रास्ता क्यों आवश्यक होना चाहिए ?
फिर मैं मुड़कर देखता हूं। दुनिया में मूर्ख कोई नहीं है। और जिसे हम मूर्ख मानते हैं, उतना मूर्ख वह भी नहीं है जितना कि हम उसे मानते हैं । वैसे तो हर आदमी मूर्ख है, हर आदमी पागल है। दुनिया में कोई भी आदमी शत-प्रतिशत समझदार नहीं है । साधना में आए हैं तो सोच-समझकर आए हैं । निकम्मा रहना भी बहुत समझदारी की बात है । और जो लोग निकम्मा रहना नहीं जानते, वे अपनी कर्मजा शक्ति को बहुत जल्दी नष्ट कर देते हैं। निकम्मा रहने की कला जीवन की कला है । निकम्मा रहने की कला प्राणशक्ति के महान् उपयोग की कला है। जो आदमी निकम्मा रहने की कला को नहीं जानता, वह कर्म की कला को भी नहीं जानता । मैं समझता हूं कि प्राण को निष्प्राण करना तथा स्पंदन को निःस्पंद की अवस्था में ले जाना वास्तव में कर्म की शक्ति को तीव्र करने की अद्भुत कला है।
यह कैसे ? यह प्रश्न हो सकता है। अब इस पर भी मुझे कुछ बातें आपसे कहनी हैं । चैतन्य की शक्ति प्रकट होती है प्राण के हटने पर । दो बातें हैं—एक हमारा व्यक्तित्व और एक हमारा अस्तित्व । व्यक्तित्व एक उपाधि की भांति है । जैसे यह डॉक्टर है, यह इंजीनियर है, यह वकील है और यह व्यापारी है । यह है व्यक्तित्व । उन लोगों ने अपनी शक्ति को एक भाषा में बांध लिया, एक सीमा में बांध लिया और शक्ति के पीछे एक आवरण डाल दिया, घेरा डाल दिया, एक परकोटा बना दिया। इससे बाहर उनका कुछ भी नहीं है । डॉक्टरी को छोड़ दें तो बाहर कुछ भी नहीं हैं। व्यवसाय को छोड़ दें तो बाहर कुछ भी नहीं है। यानी इसकी सीमा यह दीवार है और दीवार के बाहर कुछ भी नहीं है। यह होता है व्यक्तित्व जो एक सीमा में बंध जाता है।
एक होता है अस्तित्व । अस्तित्व निस्सीम होता है। उसकी कोई सीमा