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श्वास- संवर
- राजा का आदेश था । ज्योतिषी कारा का बन्दी बन गया । राजा ने दूसरे ज्योतिषी को बुलाया । बुलाकर वही बात कही कि मुझे •बहुत बुरा स्वप्न आया है । ज्योतिषी ने कहा- "बताओ !” राजा ने स्वप्न की बात बतायी । ज्योतिषी ने कहा – “यह किसने कहा कि बुरा स्वप्न है ? यह तो बहुत अच्छा स्वप्न है ।' राजा ने आश्चर्य की मुद्रा में पूछा - " अच्छा कैसे ? पहला ज्योतिषी तो कह गया कि बहुत बुरा है और मैंने भी सोचा कि बहुत बुरा है ।" ज्योतिषी ने कहा - "नहीं, महाराज ! गलत बात है । बहुत - अच्छा स्वप्न है ।" राजा ने कहा - "फल बताओ । फल क्या होता है ?" ज्योतिषी ने कहा- "महाराज ! आप देखते चले जाइए । इसका इतना - अच्छा फल होगा कि आप इतने दीर्घजीवी होंगे कि बहुत सारी स्थितयां घटती जायेंगी और आप देखते रहेंगे । आप जीवित रहेंगे ।”
राजा बहुत खुश हुआ । उसने अपने मंत्री से कहा - " जाओ, इस ज्योतिष को पुरस्कार दो ।" एक को मिला कारागार और एक को मिला पुरस्कार | अन्तर कुछ भी नहीं था, केवल भाषा का अन्तर था । एक ने कह दिया कि आपके लड़के आपके देखते-देखते मर जाएंगे। दूसरे मे कहा कि आप इतने दीर्घजीवी होंगे, इतने चिरायु होंगे कि बहुत कुछ घट जाने पर भी आप सब कुछ देखते रहेंगे, आप बरकरार रहेंगे । मात्र भाषा का अन्तर था, तथ्य में कोई अन्तर नही था ।
मैं समझता हूं कि बहुत सारी बातें ऐसी होती हैं जहां भाषाएं भिन्न हो जाती हैं; अभ्युपगम भिन्न हो जाते हैं, हमारी स्वीकृतियां भिन्न हो जाती हैं, किन्तु परिणाम, निष्पत्ति और फलित में कोई अन्तर नहीं होता । प्रस्तुत विषय भी इसका एक उदाहरण है । योग के कुछ आचार्यों ने इस बात पर बहुत बल दिया कि श्वास का संवर होना चाहिए, श्वास का निरोध होना चाहिए, कुंभक होना चाहिए, श्वास शान्त होना चाहिए । उन्होंने उसे साधना की एक मुख्य पद्धति का रूप दिया । आप देखेंगे कि भगवान् महावीर ने नहीं कहा कि श्वास का संवर होना चाहिए। श्वास का निरोध होना चाहिए । उन्होंने ऐसा नहीं कहा - फिर मैं कैसे कह रहा हूं कि यह जैन साधना पद्धति का मुख्य अंग है । यह केवल भाषा का भेद है । किस व्यक्ति ने किस रूप में, भाषा के किस रूप को पकड़ा, यही हमें आज समझना है । आप देखें कि भगवान् महावीर ने कहा – संवर करो, तपस्या करो, उपवास करो । उपवास करो या एक व्यक्ति ने कहा, श्वास का संवर करो, दोनों में अन्तर क्या है ?
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