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महावीर की साधना का रहस्य
को सबसे पहले बन्द कर दो जो कि पाप को भी पोषण दे रहा है, पुण्य को भी पोषण दे रहा है, और हमारा सबसे बड़ा बाधक और विघ्न जो कर्म - शरीर है, उसे निरन्तर पोषण दे रहा है । सबसे पहले इसे बन्द करो । उन्होंने कहा कि काय की गुप्ति करो, यह दरवाजा बन्द हो जाएगा ।
कायगुप्ति की साधना किस प्रकार हो सकती है ?
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कायगुप्ति की साधना के लिए हमें सबसे पहले आत्मकेन्द्रित होना होगा । आत्मदर्शन की तीव्र भावना हमारे भीतर विकसित होती है तो जैसे ही उसमें ध्यान केन्द्रित हुआ, शरीर में शिथिलता आनी शुरू हो जाती है । वह एक इतना बड़ा आलंबन है कि उस पर ध्यान टिका और शरीर का भान कम होता चला जाएगा ।
दो चीजें होती हैं - एक देह की आसक्ति और एक आत्मा। हमारा ध्यान जितना देहाश्रित होगा, शरीर पर टिकेगा, उतनी ही चंचलता बढ़ती जाएगी । हमारा ध्यान जितना आत्मकेन्द्र पर जाएगा, उस बिन्दु पर जाएगा, यह पकड़ अपने आप ही शिथिल होती जाएगी । इसीलिए सबसे पहले यह सूत्र हैआत्मा और देह इन दोनों को भिन्न समझा जाए । और भिन्न समझकर अपने अस्तित्व पर ध्यान केन्द्रित किया जाए ।
'जो अग्राह्य को ग्रहण नहीं करता - राग को ग्रहण नहीं करता, जो गृहीत है चैतन्य उसे कभी छोड़ता नहीं, जो सबको सब प्रकार से जानता है, वह मैं हूं | वह मेरा अस्तित्व है - यह अस्तित्व की बात जब प्रकट हो जाए तो आसक्ति की बात क्षीण हो जाएगी । और जैसे-जैसे ममत्व या ममकार और अहंकार क्षीण होता जाएगा, देह की चंचलता अपने-आप ही क्षीण होती चली जाएगी ।
• आत्मा और देह मिले हुए हैं, फिर किस प्रकार विदेह का ध्यान करें ?
दुनिया में सारी चीजें मिली - मिलाई होती हैं । यह उस समय सोचें कि जब खाने के लिए बैठते हो, और गेहूं में कंकर होता है, उस समय कैसे खाते हो ? मिला मिलाया होता है। गेहूं में कंकर आता है, चावल में कंकर आता है, और भी बहुत सारी चीजें मिली -मिलाई आती हैं । किंतु खाते समय विवेक करते हैं । दोनों को अलग-अलग कर देते हैं। ठीक यह विवेक करना है और कुछ भी नहीं करना है । यह थी महावीर की विवेक प्रतिमा । भगवान् ने सबसे पहले कहा कि विवेक करो । विवेक होगा तो फिर व्युत्सर्ग होगा । पहला विवेक और फिर दूसरा व्युत्सर्ग या विसर्जन | यह आत्मा है, चैतन्य है.