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शरीर का संवर
निर्माण की या निर्जरा की चिंता करने की जरूरत नहीं है । उसे तो अपने आप ही उसका सहारा लेना होगा, उसकी शरण में आना होगा ।
मूल बात निर्जरा नहीं है । मूल बात है संवर । मूल बात चित्त पर्याय का निर्माण नहीं है, मूल बात है चित्तातीत अवस्था का निर्माण । हमने देखा कि भगवान् उपवास करते थे । लोग कहते हैं कि महावीर तपस्वी थे । महावीर शरीर को कष्ट देते थे । कायक्लेश करते थे । ये सारी बातें बहुत अच्छी लगती हैं और सीधी लगती हैं और हमारी बुद्धि ग्रहण करना चाहती है कि महावीर ठीक ऐसा ही करते थे । मैं यह इनकार नहीं कर रहा हूं कि करते नहीं थे । करते थे, परन्तु क्यों करते थे ? क्या किसी चित्त-पर्याय का निर्माण करने के लिए करते थे ? या और किसी के लिए करते थे ? या कुछ बनने के लिए करते थे महावीर ने कभी यह संकल्प नहीं किया कि मैं अमुक बनूं । मैं आकाशगामी बनूं । मैं भूमि से ऊपर उठ जाऊं । मैं पानी पर चलूं | वे आत्मज्ञानी थे । उनके सामने आत्मा बनने के सिवाय और कोई विकल्प ही नहीं था । अपने अस्तित्व तक पहुंचने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प ही नहीं था । वे शुद्ध आत्मज्ञानी थे ।
एक था आत्मज्ञानी साधक और दूसरा था चित्त पर्याय का साधक । चित्त - पर्याय के साधक ने साधना करते-करते पानी पर चलने की शक्ति प्राप्त कर ली । लघिमा शक्ति प्राप्त हो जाने पर आदमी इतना हल्का हो जाता है: कि पानी पर चल सकता है । लघिमा प्राप्त हो जाने पर वह इतना हल्का हो जाता है कि आकाश में उड़ सकता है । उसने पानी पर चलने की सामर्थ्य या शक्ति प्राप्त कर ली । पानी पर चला । हजारों-हजारों लोगो ने देखा । लोगों को एक अद्भुत बात लगी । भारी प्रशंसा हुई । साधक प्रशंसा की गठरी लेकर आत्मज्ञानी साधक के पास गया जो नदी के तट पर बैठा था । उसने सोचा कि आज तो इस आत्मज्ञानी को मेरी प्रशंसा करनी होगी । वह आया, खड़ा रहा । आत्मज्ञानी ने उसे देखा, परन्तु कुछ नहीं कहा । जल पर चलने वाले साधक ने सोचा कि जहां हजारों-हजारों लोग मेरी प्रशंसा के गीत गा रहे हैं, चारों ओर मेरी गाथाओं का गान हो रहा है, और यह मौन बैठा है ! क्या बात है ? उसने पूछा, 'महात्मन् ! क्या आपने देखा नहीं ? उसने कहा, 'क्या देखूं ? मैं तो देख रहा हूं ।' 'क्या आप मुझे नहीं देख रहे हैं ? मैं अभी पानी पर चलकर आया हूं ।' 'हां, मैंने देखा ने कहा । 'देखा है तो इसके बारे में आपका मत क्या है ?
है' - आत्मज्ञानी
यह साधना करते