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शरीर का संवर ___ 'महर्षि ! जो स्वयं छूटनेवाला है, उसे छोड़कर क्या करोगे ? यह तो स्वयं छूट जाएगा, आप क्या करेंगे ? जो मरणधर्मा है, उसे मारने में आपको कोई बड़ा श्रम नहीं होगा। आपका कोई शौर्य और वीर्य नहीं होगा। आप अमृत के द्वारा मृत्यु पर विजय पाएं, न कि मरनेवाले को मारकर विजय पाने का प्रयत्न करें । महर्षि की आंखें खुल गयीं। उन्होंने अमृतत्व की ओर ध्यान दिया, आत्मा की ओर ध्यान केन्द्रित किया। वे निर्विकल्प समाधि की ओर अग्रसर हो गए। ___ भगवान् महावीर ने जो भी किया, सब आत्मकेन्द्रित होकर किया, आत्मा के लिए किया, और किसी के लिए नहीं किया । उनका आत्मदर्शन उन्हें संवर की स्थिति में ले गया। संवर और आत्मा, ये दो चीजें नहीं हैं। चाहे आप संवर कहिए और चाहे आत्मा । दोनों एक ही चीजें हैं । भोजन करूंगा, ध्यान का विघ्न होगा, भिक्षा लानी होगी, लोगों से बातचीत करनी होगी, खाना होगा, उत्सर्ग करना होगा, इसलिए भोजन करना छोड़ दिया । एक दिन नहीं किया, दो दिन नहीं किया, महीने-भर नहीं किया, छ:-छ: महीने तक नहीं किया। आखिर में देखा कि शरीर को बिलकुल तो नहीं छोड़ना है। छोड़ना तो है परन्तु मूर्खतापूर्ण ढंग से नहीं छोड़ना है। इसको रखना भी है । नकाब डाले हुए रखना है । बेनकाब नहीं करना है। थोड़ा-सा उसे सहारा दिया जिससे कि वह टूटे भी नहीं और भीतर को तोड़कर चला जाए। विष की औषधि विष है । जातीय विरोध पैदा कर दिया। सूक्ष्म शरीर को तोड़ना और उसी के अनुचर द्वारा तोड़ना, उसी के सेवक के द्वारा तोड़ना । थोड़ा-सा सहारा दिया, वह काम करने लगा। महावीर अपना काम कर रहे थे, स्थूल शरीर अपना काम कर रहा था। महावीर का तप शरीर को सुखाने के लिए नहीं था । अपना काम साधने के लिए था। आप इस बात को भूल गए कि महावीर सोलह दिन-रात तक काय-संवर करके खड़े रहे । कितना लम्बा समय था ! हिले नहीं, डुले नहीं । सोलह दिन-रात तक आंखों ने झपकी नहीं ली। मच्छर ने काटा तो हटाया नहीं। घूमकर देखा तक नहीं। ___अब जिस व्यक्ति को सोलह दिनों तक काय-संवर करना है, वह कैसे खायेगा, कैसे बोलेगा, कैसे पीएगा, कैसे चलेगा और कैसे लेटेगा ? कुछ भी नहीं होगा। मूल बात थी काया का संवर। काय-संवर के लिए उन्होंने आत्म-दर्शन की पद्धति प्रस्तुत की। यदि काया का संवर करना है तो वह आत्म-दर्शन के द्वारा ही हो सकता है।