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जागरिका
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उनको शुद्ध - अशुद्ध — इन राशियों में बांटकर उनका शोधन करना । एक उदाहरण दिया है कोदो का । कोदो धान है, उससे मादकता होती है । अब उस मादकता को धो डाला । थोड़ा धोया, थोड़ी मादकता धुली । कुछ और धोया, मादकता और समाप्त हो गयी । इस प्रकार धोते-धोते पूरी मादकता समाप्त हो गयी । यह सारी की सारी सम्यक्दर्शन की प्रक्रिया और योग की प्रक्रिया है । इस शताब्दी में इन सब बातों पर काफी काम भी हुआ है । 1. और उन्होंने यह बताने का प्रयत्न भी किया है कि यह सम्यक्दर्शन की बहुत अच्छी प्रक्रिया है ।
दूसरी बात यह है कि मैं जो कह रहा हूं इतना अनुभव तो मेरा है ही - कि मनःचक्र पर ध्यान करने से कषाय की शान्ति होती है और यह मनःचक्र ही एक ऐसा स्थान है, इसी को अरविन्द कहते चैत्यपुरुष या हृदय- पुरुष । हृदय - पुरुष का भी यही स्थान है । लोग कहते हैं कि घट-घट में राम । वह यही घट है । मैंने स्वयं इस पर ध्यान किया है और यह अनुभव भी किया है कि कषाय- शान्ति के लिए यह सबसे अच्छा स्थान है ।
अब प्रश्न रहा जैन आचार्यों के अनुभव का । जैन परम्परा में दो प्रकार के आचार्य हुए हैं – कुछ ज्ञानी हुए हैं और कुछ योगी । योगी - कक्षा के जितने आचार्य हुए हैं, उनके ग्रन्थों को आप देखेंगे तो आपको मालूम होगा कि हमारे आचार्यों ने इन इन विषयों पर कितना विस्तार से लिखा है । उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि ध्यान के बिना राग-द्वेष की ग्रंथि का भेदन नहीं होता । वह ग्रंथि भी शरीर से सम्बन्धित होती है । सूक्ष्म शरीर का प्रतिबिम्ब होता है स्थूल शरीर । इसलिए दोनों से सम्बन्धित है । मैं कोई बात कल्पना के आधार पर नहीं कह रहा हूं । अपना अनुभव साथ में है और जैन आचार्यों की या दूसरे योगी आचार्यों की धारणा के आधार पर कह रहा हूं ।
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वैदिक परम्परा में अनाहत चक्र और हृदयचक्र शायद एक ही बताया गया है, उसके सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं ?
सभी ऐसा नहीं मानते, कुछ मानते हैं । खोजने के लिए आज भी बहुत अवकाश है । जैसे-जैसे खोज हो रही है, नयी-नयी चीजों का पता चल रहा है । आज खोजने पर हो सकता है और भी नये चक्र हमारे सामने आ जाएं । वैज्ञानिकों ने आज अनेक ग्रंथियों का प्रतिपादन किया है ।