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महावीर को साधना का रहस्य
क्रोध बहुत था । फिर प्रश्न हुआ कि उनमें क्रोध बहुत क्यों था ? इसका कारण बताया कि वे रूखा भोजन खाने वाले थे, इसलिए उन्हें गुस्सा ज्यादा आता था। आप देखेंगे कि केवल शरीर को तपाने वाले प्रायः क्रोधी होते हैं । कोरा तपस्वी क्रोधी होता है।
शरीर के प्रति हमने जैसा दृष्टिकोण बना रखा है वह बहुत गलत है; क्योंकि शरीर का पूरा ध्यान रखे बिना हम शक्ति का पूरा प्रयोग नहीं कर सकते । अगर हम शरीर का पूरा ध्यान रखें तो निश्चित ही बहुत-सी बुराइयों से बच सकते हैं । जो शरीर के द्वारा अच्छाइयां प्रकट होती हैं, अगर हम उनके प्रति सजग रहें तो उनका पूरा उपयोग कर सकते हैं। प्रायः प्रकट होने वाली अच्छाइयां भीतर की भीतर रह जाती हैं । हम अपनी शक्ति का उपयोग नहीं कर पाते । हम अपने आनन्द का उपयोग नहीं कर पाते । वह हमारे ऊपर निर्भर है कि हम शरीर को किस प्रकार रखते हैं और उसके साथ कैसा व्यवहार करते हैं ।
शक्ति के प्रकट होने का जो केन्द्र है यह है पृष्ठरज्जु । सारे स्नायु यहीं से निकले हैं। यहां स्नायुयों का जाल है। सारे चक्र इसी में हैं। दूसरा केन्द्र आनन्द का है । आनन्द का केन्द्र है-अनाहत चक्र—मनःचक्र, हृदयचक्र । आनन्द सारा यहां प्रकट होता है, क्योंकि तन्मयता यहां होती है, भावनाएं यहां होती हैं । राग-द्वेष के भाव भी यहीं होते हैं और आनन्द भी यहीं होता है।
एक बहुत सुन्दर रूपक है । देवताओं ने असुरों से युद्ध किया तो आनन्द का घट उनके हाथ लग गया। उन्होंने सोचा-इसे रखें कहां ? आनन्द का घट खुले में तो रखा नहीं जा सकता । अगर वह असुरों के हाथ लग गया तो वे आनन्द में मग्न हो जाएंगे । असुरों से बचाकर रखना है तो कहां रखें ? खोजते-खोजते उन्हें जब कोई अनुकूल स्थान नहीं मिला तो उन्होंने खोजा एक सुरक्षित स्थान । और वह था मनुष्य का हृदय । और वह सुरक्षित क्यों है ? मनुष्य और सब कुछ देखता है, अपने हृदय को नहीं देखता। इसलिए यह स्थान सबसे अधिक सुरक्षित है । देवताओं ने आनन्द का घट लाकर मनुष्य के हृदय में रख दिया।
मनुष्य और सब कुछ खोजता है, ढूंढ़ता है, भटकता है, परन्तु अपने हृदय को नहीं खोजता । इसलिए आनन्द का घट आज भी सुरक्षित वहीं का वहीं पड़ा है । यह रूपक हो सकता है परन्तु इसका तात्पर्य यह है-आनन्द का