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अनेकान्त है तीसरा नेत्र असमय में ही क्यों जगा दिया ? इतनी जल्दी क्यों उठा दिया ? मैं तो बहुत समय तक समाधि में रहना चाहता था ।" शिष्य ने कहा, “महाराज ! करूं क्या ? बाहर देखिए, क्या हो रहा है ?"
मुझे लगता है किसी बड़े आचार्य ने या बहुश्रुत साधु ने इस प्रकार की समाधि ली हो और कोई दुर्घटना घटित हो गयी हो, उसको लेकर शायद यह कहना पड़ा हो कि जैन साधु प्राण का निरोध न करे। अन्यथा आप देखिए, यह भी आता है कि ध्यान शुरू करते समय जब उसने समाधि शुरू की, तब उसने श्वास और निःश्वास को मंद कर दिया । श्वासोच्छ्वास को मंद करना भी प्राणायाम है। प्राणायाम की और भी बहुत सारी प्रक्रियाएं मिलती हैं ।
एक स्थिति यह हुई कि चौदह पूर्वो में हमारा जो 'प्राणावाय' पूर्व था, जिसमें सारी प्राण और अपान की प्रक्रियाएं प्रतिपादित थीं, उसके लुप्त हो जाने के कारण ही ये बहुत सारी स्मृतियां हो गयीं । यही कारण है कि प्राणायाम के सम्बन्ध में हमारी धारणाएं कुछ भिन्न हो गयीं । दिगम्बर साहित्य में कहीं भी प्राणायाम का निषेध नहीं है। यह श्वेताम्बर आचार्यों की परम्परा में चला और उन्होंने ऐसा किया। किन्तु सब बात से विचार करने से ऐसा लगता है कि प्राणायाम नहीं करना ऐसी बात नहीं है, किन्तु प्राणायाम में विवेक रखना या अमुक-अमुक परिस्थितियों में कैसे-क्या करना, इसका विवेक जरूर मध्यवर्ती आचार्यों ने दिया है। • क्या बिना आत्मा पर प्रभाव डाले, बिना आत्मा के आवरण को हटाए जागरण हो सकता है?
आत्मा पर प्रभाव नहीं डालना है। प्रभाव उस पर डालना है जिसने आत्मा की शक्ति पर आवरण डाल रखा है। उस प्रक्रिया के द्वारा सूक्ष्म शरीर पर प्रभाव डालते हैं। वह प्रकम्पित होता है, वह दूर होता है तो आत्मा अपने-आप ही प्रकट हो जाती है। • सषुम्ना का वर्णन जैन आगम में है या नहीं ?
सुषुम्ना का वर्णन जैन आगम में है या नहीं, इसका उत्तर देना तो जरा कठिन है। क्योंकि जिसकी चर्चा कर रहे हैं वह आगम भी हमारे सामने नहीं है। परन्तु कुछ स्थलों से इसकी सूचनाएं हमें प्राप्त होती हैं। ___'मझत्यो निज्जरापेही'—यह आचारांग सत्र का एक वाक्य है। इसका प्रचलित अर्थ है-'निष्पक्ष और निर्जरापेक्षी'। गहराई में जाने पर शायद इसके अर्थ को बदलना होगा। और बहुत सारे ऐसे आधार मिले हैं जो इन्हें