Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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और पंचसंग्रह टीका का उल्लेख किया गया है। इन ग्रन्थों के अलावा अन्य ग्रन्थों का उल्लेख विशेषरूप से नहीं हुआ है । शतक की अनेक गाथाओं पर पंचसंग्रह की स्पष्ट छाप है, कहीं-कहीं तो थोड़ा सा ही परिवर्तन पाया जाता है । शतक की ३६ वीं गाथा का विवेचन ग्रन्थकार ने पहले पंचसंग्रह के अभिप्रायानुसार किया है और उसके बाद कर्म प्रकृति के अभिप्रायानुसार कर्म प्रकृति और पंचसंग्रह में कुछ बातों को लेकर मतभेद हैं । कर्मप्रकृति का मत प्राचीन प्रतीत होता है फिर भी कहीं-कहीं कर्मग्रन्थकार का झुकाव पंचसंग्रह के मत की ओर विशेष जान पड़ता है । यद्यपि उन्होंने दोनों मलों को समान भाव से अपने ग्रन्थ में स्थान दिया है और कर्मप्रकृति को स्थान-स्थान पर प्रमाण रूप में उपस्थित किया है तो भी पंचसंग्रह के मत को उद्धृत करते हुए कहीं-कहीं उसे अग्रस्थान देने से भी वे नहीं चुके हैं। अतएव यह कहना होगा कि विशेष इन्हीं दोनों ग्रन्थों के आधार पर उन्होंने शतक की रचना की है ।
इस प्रकार से प्राक्कथन के रूप में कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी कुछ एक पहलुओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालने के साथ ग्रन्थ की रूपरेखा वनलाई है। इन विचारों के प्रकाश में कर्मसाहित्य का विशेष अध्ययन किया जाये तो कर्मसिद्धान्त का अच्छा ज्ञान हो सकता है । यद्यपि कर्मसाहित्य अपनी गंभीरता के कारण अभ्यासियों को नीरस प्रतीत होता है, लेकिन क्रम-क्रम से इसके अध्ययन को बढ़ाया जाये तो बहुत ही सरलता से समझ में आ जाता है। इसके लिये आवश्यक है जिज्ञासावृत्ति और सतत अभ्यास करते रहने का अदम्य उत्साह | पाठकगण उक्त संकेत को ध्यान में रखकर कर्मग्रन्थ का अध्ययन करेंगे, यही आकांक्षा है ।
सम्पादक
श्रीचन्द सुराना
देवकुमार जैन