Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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उनकी स्थिति और संख्या, प्रदेश उतने ही रह जाते हैं जितने कि आयुकर्म के रहते हैं। ऐसा होने पर शेष रहे कर्मों का आयुकर्म की समयस्थिति के साथ ही क्षय हो जाने से आत्मा पूर्ण निष्कर्म होकर सिद्ध-बुद्ध हो जाती है। यही आत्मा का लक्ष्य है, जिसे प्राप्त करने में आत्मा के पुरुषार्थ की सफलता है ।
इस प्रकार से जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त का वैज्ञानिक रूप से निरू पण किया गया है। जिसमें अनेक उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाया है । विभिन्न रहस्यों को उद्घाटित किया है और आत्मा में स्वतन्त्रता प्राप्ति का उत्साह जगता है । स्वपुरुषार्थ पर विश्वास करने की प्रेरणा मिलती है । ग्रन्थ परिचय
प्रस्तुत शतक नामक कर्मग्रन्थ श्री देवेन्द्रसूरि रचित नवीन कर्मग्रन्थों में पाँचवाँ कर्मग्रन्थ है । इसके पूर्व के चार कर्मग्रन्थ क्रमशः (१) कर्म विपाक ( २ ) कर्मस्तव, (३) बंधस्वामित्व ( ४ ) षडशीति नामक इसी ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो चुके हैं । उन कर्मग्रन्थों की प्रस्तावना में उनके बारे में परिचय दिया गया है । यहाँ उसी क्रम से इस पंचम कर्मग्रन्थ का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है।
इस पंचम कर्मग्रन्थ में प्रथम कर्मग्रन्थ में वर्णित प्रकृतियों में से कौन-कौन प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी, अध्रुवबन्धिनी, अबबन्धिनी, धवोदया, अवोदय, सत्ताक, अध्र ुबसत्ताक, सर्वदेशघाती, अघाती, पुण्य, पाप, परावर्तमान, अपरावर्तमान हैं, यह बतलाया है ।
उसके बाद उन्हीं प्रकृतियों में कौन-कौन क्षेत्रविपाको, जीवविपाकी, भवविपाकी और पुद्गलविपाकी हैं, यह बताया गया है ।
अनन्तर कर्म प्रकृतियों के प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध और प्रदेशवन्ध, इन चार प्रकार के बन्धों का स्वरूप बतलाया है । प्रकृतिबन्ध के कथन के प्रसंग में भूल तथा उत्तर प्रकृतियों में भूयस्कार,