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मुड़े यह बात उनके सभी निकटवर्ती साथियों और छात्रोंको विदित है जब लिखने में लगे, तो एक योगीकी तरह लिखते गये और लिखते जा रहे हैं ।
जैन पण्डितोंने जिस निष्ठा और श्रमसे ताड़पत्रीय प्रन्थोंका उद्धार, सम्पादन और अनुवाद किया, वह सराहनीय है। विदेशों में ऐसी लगन नहीं मिलती, यदि मिलती है तो अलरों अथवा पौण्डोंमें उसकी कीमत हमारे लिए आश्चर्यका विषय होती है। एक बार एक विद्वान् पण्डित, सिद्धान्ताचार्य कैलाशचन्दजी के विरुद्ध धुर्वाधार बोल रहे थे । सार था कि पण्डितजीने धवलाके सम्पादनमें सहस्रों रुपया नाजायज ढंगसे बचाया में मौन था निन्दा शब्द रसाल से परिचित था। मैंने केवल इतना कहा कि पण्डितजीका यह काम यदि अमेरिका, इंगलैण्ड अथवा जर्मन जैसे देश में सम्पन्न हुआ होता, तो उनपर गवर्नमेण्टकी ओर से लाखों रुपया न्योछावर कर दिया जाता, हाथों-हाथ उठा लिया जाता और विश्वके मानचित्रपर उनका एक चमकता चित्र होता जैन समाजने उनको क्या दिया ? समुद्रको बूँदकी भेंटका क्या मतलब और क्या महत्त्व ?
विगत २० वर्षों में जितना जैन लेखन हुआ, उसमें एक कमी है— मेरी दृष्टि में नहीं भी हो सकती । अपना-अपना दृष्टिकोण है । तुलनात्मक तत्त्वोंकी बेहद कमी है। एक स्वस्थ और तटस्थ तुलना सदैव आदरणीय होती है। तुलनाके लिए जहाँ अनेक ग्रन्थोंका पारायण करना होगा, वहाँ विदेशी दर्शन साहित्य और धर्म आदिका भी आलोडन करना आवश्यक हो जायेगा। जैन दर्शन अथवा सिद्धान्तको जगत्के क्षितिजपर प्रतिष्ठित करनेके लिए यह अनिवार्य है । वे विद्वान् जिन्हें जैन दर्शनका ठोस ज्ञान है, पश्चिमी दर्शन और दृष्टिसे नितान्त अस्पृष्ट हैं उन्हें करना होगा। तीव्रगामी यानोंसे एकमेव होते विश्व में यह एक अहं महत्त्वकी बात है । उसके बिना हम कटे-कटे-से हो जायेंगे। मैंने पण्डितजीके 'जैन इतिहास' में अंग्रेज और जर्मन लेखकोंके शतशः उद्धरणोंको ठीक प्रसंग टंने देखा और उसका तर्कसम्मत खण्डन या मण्डनदेखा तो प्रसन्नता हुई । यदि पण्डितजी अपने दर्शन और सिद्धान्त के ग्रन्थोंमें भी तुलनात्मक दृष्टिकोण अपनायें, तो कीर्तिमान स्थापित होगा । यह निःसन्देह सत्य है ।
भाषण एक कला है, ऐसा मैं मानता हूँ । किन्तु यह भी मैं मानता हूँ कि जब उसके पीछे ग्रन्थ-गत ज्ञान और द्रवणशील हृदय होता है, तो उसमें निखार आता है । वह जमकर बोलता है और विभोर होकर बोलता है । सामनेका श्रोता समूह विमुग्ध हो उठता है । हत-चेतन, अवाक्, मुँह बाये वह भाषणकर्ताकी भाव तरंगों के साथ उठता और गिरता है, हँसता और रोता है, उत्तेजित और शान्त होता है। मैंने अनेक ऐसे भाषणकर्ताओं को देखा और सुना है । उसमें एक पण्डित कैलाशचन्द्रजी भी हैं । धर्म और दर्शन के टेढ़े-मेढ़े रास्तोंको पण्डितजी सहजगम्य ही नहीं, हरे-भरे भी बना देते हैं, जिसपर चन्द्रकिरण छिटकती हैं। और मलयानल बहता है। पण्डितजीको वाक्शक्ति जन्मसे मिली ऐसा प्रतीत होता है। उनके बोलनेका ढंग अनुकरणीय है ।
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स्याद्वाद महाविद्यालय में छात्रोंकी एक सभा थी। उसका वार्षिक चुनाव होता था । बड़ी गरमागरमी रहती थी । उसके विधानमें साप्ताहिक बैठकका नियम था । उसमें छात्र हिन्दी और संस्कृत में बोलते थे । बादमें अंग्रेजीमें भी बोलनेका प्रावधान हो गया था। मैंने उन सभाओं में बोलना सीखा। इतना सीखा कि स्याद्वाद विद्यालयके सात वार्षिकोत्सवोंमें मुझे प्रथम पुरस्कार मिला । अन्य अनेक पुरस्कार भी मिले। इस सबके प्रेरणासूत्र थे पं० कैलाशचन्द्रजी। उन्होंने मुझे जैन सिद्धान्त पढ़ाया और भाषण देना भी सिखाया। पण्डितजीका एक रूप पत्रकारका रूप है । इसके माध्यम से उन्होंने जैनसमाजको अपना मार्ग दर्शन
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