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यह ही कारण है कि बहुत कुछ विस्मरण कर जानेके बाद भी बहुत कुछ याद है। आज बड़ी-बड़ी डिग्रियों
और उपाधियोंसे सुशोभित अनेक मिल जाते हैं, किन्तु एक अच्छे अध्यापकका मिलना कठिन होता जा रहा है। यह मैं प्रतिदिन अनुभव करता हूँ। सच यह है कि भारतीय शिक्षाविद् भारतकी धरा, जलवायु
और संस्कृतिको बिना समझे शिक्षाका रथ चलानेकी कोशिश करते है ओर फेल हो जाते हैं । अरबों रूपया व्यय करने के बाद भी भारतीय शिक्षाका कोई 'फारमला' नहीं बन पाया। यह एक खेदका विषय है। तो, पण्डितजीका अध्यापन अविस्मरणीय रहेगा।
जहाँ तक प्रधानाचार्यका सम्बन्ध है, उनमें प्रशासनिक सूझ-बूझ और प्रतिभा थी। पूर संस्था उनके हाथमें थी। वे चाहते तो संस्थाके तानाशाह बन सकते थे, किन्तु उन्होंने सदैव लोकतन्त्रको तरजीह दी। मुझे स्मरण नहीं कि उन्होंने छात्रोंकी न्यायोचित माँगोंको न माना हो । खुला वातावरण था । शिक्षा प्राप्त करने और विचार प्रगट करनेको खुली छूट थी। कहीं संकीर्णता नहीं, दबाव नहीं, शोषण नहीं । उस कालके संस्कृत विद्यालयोंमें इतना खुलापन कहीं सम्भव नहीं था। यही कारण था कि हम केवल शास्त्र ओर ग्रन्थमें बन्धकर न रह सके, हम कुछ मौलिक चिन्तन और सृजनकी ओर बढ़े । मैं स्याद्वाद महाविद्यालयके वातावरण का सदैव ऋणी रहूँगा। पण्डित कैलाशचन्दजी उसके जन्मदाता थे।
अध्यापक वही है, जो अध्यापनसे बचे समयमें शोध-खोज, अन्वेषण, सम्पादन, ग्रन्थ-सृजन आदिमें अपना समय लगाता है। मैंने अपनी किशोरावस्थासे ही पण्डितजीको, छेदीलालके मन्दिरके नीचे बने भवनके एक प्रकोष्ठ में ग्रन्थोंके घेरेमें घिरा देखा है। उन्होंने धवला-जैसे ताड़पत्रीय ग्रन्थोंका सम्पादन और अनुवाद किया है । ग्रीष्मकी जलती दुपहरियों और शीतके कटकटीते जाड़ोंमें, मैंने उनकी लौ का दीप सतत जलते देखा है । जेठकी एक दुपहरीमें, मैं छेदीलालजीके मन्दिरके उस उपर्युक्त प्रकोष्ठमें पहुँच गया । मुझे अपने शोध प्रबन्धके प्रथम खण्ड-'जैन भक्ति काव्यकी पृष्ठभूमि के सम्बन्धमें पण्डितजीसे विचार-विमर्श करना था। पण्डितजीने एक घण्टे तक मुझे समझाया ही नहीं, अनेक दुर्लभ ग्रन्थोंके उद्धरण भी दिये । अनुसन्धित्सुओंके प्रति वैसा स्नेह और विद्वत्तापूर्ण निस्वार्थ दिग्दर्शन आज केवल कल्पना-सा लगता है। ऐसा लगता है कि युग बीत गया है । ऐसा लगता है कि भारतका गोल्ड समाप्त हो गया पर गोल्डनकी चकाचौंध है, जिसे विद्वत्ताके गगनचुम्बी सौध पर सजानेमें अहोभाग्य माना जाता है।
पण्डितजीने अनेक ग्रन्थोंका सम्पादन-अनुवाद और मौलिक सुजन किया है। वे धर्म, इतिहास और संस्कृतिके माने-जाने विद्वान् है। उनके ग्रन्थ मनीषियों और साधारण जन-दोनोंके बीच समान रूपसे समादृत है । इसका एक कारण है कि उनकी भाषा सहज-सरल सीधी और प्रवाह-पूर्ण होती है, तो उनके विचारों और भावोंकी अनुवतिनी भी। उन्हें कहीं खीच-तान नहीं करनी पड़ती। भाषा स्वयं उनके पीछे-पीछे चलती है। सहजगतिसे, उसकी सधी चाल, सभीके मनको मोह लेती है। उसे विद्वान् समझ लेता है, तो साधारण जन भी। पण्डित कैलाशचन्द्रजी दर्शन और धर्मकी टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियों पर भी साधारण-से-साधारण जनको भी चलानेमें समर्थ हए, उसका कारण उनकी भाषाकी सरलता और प्रवाहमयता ही थी। गांधीजी एसी ही भाषा चाहते थे ।
पण्डितजीके ग्रन्थोंमें उनके गम्भीर अध्ययन और चिन्तनकी स्पष्ट छाप है। "आज"के यशस्वी सम्पादक श्री बाबूराव विष्णु पराड़करका कथन था कि पहले तो अनेकानेक ग्रन्थोंका वर्षो अध्ययन और मनन करना चाहिए, तभी लिखनेकी ओर प्रवृत्त होना श्रेयास्पद होता है। पण्डितजीने अपने जीवनका महत्त्वपूर्ण अंश केवल अध्ययन और अध्यापनमें बिताया। इसके बाद ही वे सम्पादन और लेखनकी ओर
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