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कुछ ऐसे भी स्तम्भ हैं जिनके सिरे पर औंधे रखे हये कमलोंके लहराते पत्ते वेसनगरके स्तम्भ-शीर्षके सदृश ही हैं । एक अर्धस्तम्भ पर बारह हंस श्रेणीबद्ध हैं, जिनकी चोंचमें कमल पुष्प है। हंस उड़ते हुए दिखाएँ गये हैं। कमलों पर खड़ी श्री लक्ष्मीको मति है। देवीके दोनों ओर उठते हये कमलों पर दो हाथी देवीके अभिषेकके लिये उद्यत दर्शाए गये हैं।
नासिककी गुफामें गोतमी पुत्र बिहारके स्तम्भके अत्यधिक सुन्दर दिखनेका कारण है उसका पदावर वेदिकामें आवेष्टित होना। वेदिकाके खम्भों और सूचियों पर कमलकी सजावट मथुराके कंकाली टीलेसे प्राप्त पद्मवर वेदिकाके सदश ही है।
लखनऊके राज्य संग्रहालयमें जैन आयागपट्ट पर मध्यमें सर्पफणी पार्श्वनाथ प्रतिमाके दोनों ओर व्यक्ति हाथ जोड़कर खड़े हैं। बाहर गोलाईमें अंगूर, तथा कमलके बेलकी सजावट है। यह प्रतिमा कुषाण कालकी प्रथम शताब्दीकी है। इसी संग्रहालयमें लगभग १० वीं शताब्दीकी उरई (जालोन) से प्राप्त पद्मासनमें ध्या स्थ तीर्थकरके दोनों ओर कंधों पर बाल हैं। प्रतिमा कमलासन पर है। संभवतः प्रतिमा ऋषभनाथकी है। ९वीं शताब्दीकी सर्वतोभद्र तीर्थंकर प्रतिमामें तीन और अन्य तीर्थंकर तथा एक ओर ऋषभनाथकी दिगम्बर प्रतिमा है। यह एक ओर कमल और दूसरी ओर अंगुरकी वेलसे सुशोभित है । एक अन्य वेदिका स्तम्भ पर नीचे कमल तथा उसके ऊपर वेल है। यही पर गुप्तकालका लता, कमल तथा मणिबन्ध आदिसे अलंकृत स्तम्भ भी है।।
उपनिषदोंके अनुसार कमल सम्पूर्ण उत्पत्तियोंसे भी पूर्ववर्ती है। विद्याकी देवी सरस्वती' की स्तुति पद्मासने संस्थिताके उच्चारणोंसे की जाती है। ऐतरेय ब्राह्मणमें अश्विनी कुमारोंकी नीलवर्णका कमलहार पहने बताया गया है। भारतका राष्ट्रीयपुष्प कमल भावगतकी प्राचीनतम संस्कृतिसे सम्बन्धित है।
अश्व-भारतीय संस्कृतिमें कमल सदन अश्वका भी अत्यधिक जिक्र हुआ है। कहीं कला रूपमें, कहीं यज्ञ के लिए, तो कहीं सिक्कों पर अश्वांकन है। प्राग ऐतिहासिक कालके नव पाषाण युगके चित्रमें युद्धरत योद्धा घुड़सवार हैं। लखनियाँ दरी (मिर्जापुर क्षेत्र) में घड़सवारोंका चित्रांकन है। इसीप्रकार बाँदा जिलेके मानिकपुर स्थानके चित्रोंमें भी घुड़सवार चित्रित हैं। सिंधके किनारे मन्दोरी, गेदाब और घड़ियाला नामक स्थानोंमें चट्टानों पर युद्धरत सशस्त्र योद्धा घोड़े, ऊँट और हाथियों पर हैं ।
___ अनुमान है कि सिन्धुघाटीके लोग घोड़ेसे परिचित नहीं थे। मोहन जोदड़ोकी ऊपरी सतहसे प्राप्त एक भोड़ी मूर्तिमें घोड़ेका नमूना है किन्तु यह पहचान सन्देहजनक है।
राजा या गृहस्वामी गाय और घोड़ोंको रखनेके लिये स्थान बनवाते थे, ऐसा अथर्ववेदमें वर्णन आता है ( गोभ्यो अश्वेभ्यो नमो यच्छालयां विजायते, अथर्ववेद, ८९।३।३)। महाजनपद कालमें महलोंके पिछवाड़े ही अश्वशाला अथवा राजवल्लभ तुरंगोंको मंदुरा भी थी। जैनियोंके अर्धमागधी आगम साहित्य ( जो पाली . साहित्यके समयका है ) में हयसंघाड़के बनाये जानेका वर्णन है। सिन्धु सभ्यता और शृग्वेदमें वर्णित पशु हाथी, सिंह और वृषभके साथ कहीं-कहीं तुरंग भी हैं।
चतुर्तीपी भूगोलकी प्रारम्भिक कल्पनामें पृथ्वीको चतुर्दल कमल माना गया। इसके मध्य बीज रूपमें सुमेरुपर्वत था । सुमेरुपर्वतके पूर्व में भद्राश्व, दक्षिणमें भारत, पश्चिममें केतुमाल और उत्तर दिशामें उत्तर कुरु द्वीप था । भद्राश्वका अर्थ है-कल्याणकारी अश्व । यह उस श्वेत वर्णके अश्वकी याद दिलाता है जो चीन देशमें पूजनीय भी था, साथ ही इसे पुण्य चिह्न भी माना गया। चीन देशकी अनेक सभ्य जातियाँ भद्राश्व या श्वेत अश्वको अपना मांगलिक चिह्न मानती थीं। वहाँकी कलामें यह चिह्न सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसी कारण चीनका नाम पुराणोंमें भद्राश्व हो गया ।
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