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जैन साहित्यमें संख्या तथा संकलनादिसूचक संकेत
डॉ० मुकुटबिहारी लाल अग्रवाल, आगरा, (उ० प्र०) आज विज्ञानका युग है। आजका जिज्ञासु प्रतिपल नवीन खोज एवं उपलब्धियोंको ज्ञात करने में विकल है। यदि मानव एक अनन्त आकाशकी नीलिमा, नक्षत्र तथा चन्द्रलोकका सम्यक ज्ञान प्राप्त करने में व्यस्त है, तो दूसरी ओर वह प्राचीन साहित्य तथा भूगर्भमें छिपे हुए अनन्त रहस्योंको जाननेमें भी संलग्न है।
जैन साहित्य ज्ञानराशिका विपुल भण्डार है। यह विशाल साहित्य यत्र तत्र विखरा हुआ है। इस साहित्यमें प्रत्येक विषयपर असीम ज्ञानराशि उपलब्ध है। गणितमें भी जैन विद्वान किसीसे पीछे नहीं रहे। उन्होंने इस क्षेत्रमें भी आगे बढ़कर अपनी सूझ-बूझ तथा क्षमताका परिचय दिया है। उनके इस क्षेत्रमें सराहनीय कार्यका अवलोकन करके जहाँ एक ओर उनकी अलौकिक प्रतिभा, ज्ञान तथा बुद्धिमत्ताका परिचय मिलता है, वहीं दूसरी ओर आजके गणितके क्षेत्रसे कुछ अलग-थलग तथा आश्चर्यमें डालनेवाली बातें भी मिलती हैं । लेकिन ये बातें भी ठोस ज्ञान, तर्क तथा बुद्धिमत्ताके धरातल पर आधारित है।
प्रस्तुत निबन्ध जन साहित्यमें संख्या तथा संकलनादिसूचक संकेतमें इस बातकी जानकारी देनेका प्रयत्न किया गया है कि जैन साहित्यमें संख्या एवं उसके सूचक संकेतोंका क्या रूप था । जैन साहित्य में इस बातका अध्ययन करनेके साथ ही विषयकी गरिमाको बढ़ानेके लिए तथा जिज्ञासु पाठकोंको नवीन दिशाके बोध हेतु जैनेतर साहित्यके साथ तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया गया है। आज एकको संख्या में सम्मिलित किया जाता है, परन्तु जैन साहित्यके अध्ययनके पश्चात् यह तथ्य दृष्टिमें आता है कि जैन मनीषियोंने एकको संख्याकी कोटिमें नहीं रक्खा है। आज हम देखते हैं कि जहाँ बड़ी-से-बड़ी संख्या केवल अठारह-उन्नीस अंकोंकी होती है, वहीं जैन साहित्यमें दो सौ पचास अंकों तककी संख्या उपलब्ध है जो जैन विद्वानोंकी प्रतिभा तथा अनन्त ज्ञानकी द्योतक है। निबन्धमें इस तथ्यको भी व्यक्त करनेका प्रयास किया गया है कि जैन साहित्यमें संख्या एवं अंकोंकी बनावट किस प्रकार थी जिससे आजका विज्ञ पाठक उस रूपका अध्ययन करनेके पश्चात इस बातसे परिचित हो सके कि उस समय भी जैन विद्वान गणितके क्षेत्रमें कितने आगे पग बढ़ाकर विश्वको ज्ञानका आलोक विकीर्ण कर रहे थे। गणित संकेतोंका आज बड़ा महत्त्व है क्योंकि इनके ही माध्यमसे गणितके क्षेत्र में आगे पग बढ़ाया जाता है। संख्याकी परिभाषा
व्याकरणशास्त्रके अनुसार संख्या शब्द सं + ख्या + अ + टापसे बना है। व्युत्पत्ति के अनुसार संख्यातेऽनया इति संख्या अर्थात् जिसके द्वारा गणना की जाती है वह संख्या है। शब्दकल्पद्रुमके अनुसार गणनाके व्यवहारमें जो हेतु है, उसे संख्या कहते हैं। न्यायकोशमें भी इसी प्रकारका कथन है। उसमें लिखा है कि शब्दशास्त्री नियत विषयके परिच्छेदके हेतूको संख्या कहते हैं । कोशकारोंके अतिरिक्त कुछ
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