Book Title: Kailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Kailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP

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Page 520
________________ वैशाली शोध संस्थानमें शोधके क्षितिज डा० लालचन्द्र जैन, वैशाली शोधसंस्थान, वैशाली बिहार में उद्भुत तथा विकसित प्राचीन विद्या, संस्कृति और साहित्यके उन्नयन, पुनरुद्धार और प्राचीन गौरवको पुनरुन्नति करनेके उद्देश्यसे बिहार सरकारने दरभंगा, नालन्दा, मिथिला, वैशाली और पटनामें अनेक शोध संस्थानोंकी स्थापना की। इनमें जैनविधाओंके अध्ययनसे सम्बन्धित प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान वैशाली भी एक है। प्रस्तुत शोध संस्थान तत्कालीन शिक्षासचिव तथा प्रमुख शिक्षाविद् स्वर्गीय श्री जगदीश चन्द्र माथुर आई० सी० एस०के अथक परिश्रमका फल है जिन्होंने इसकी स्थापनामें प्रमुख भूमिका अदा की थी। मूलतः इसकी स्थापनाका श्रेय वैशाली महोत्सव और वैशालीसंघको है । इसने सर्वप्रथम १९५२ में जे० सी० माथुरके मंत्रित्वकालमें वैशालीमें प्राकृत जैन इन्ट्रीच्यूट खोलनेका प्रस्ताव पास कर राज्य सरकार और जैन समाजसे सहयोगका अनुरोध किया था। इस कार्य हेतु बिहारके प्रसिद्ध उद्योगपति तथा दानवीर साहू शांतिप्रसाद जैन द्वारा सवा छः लाख रुपये दान स्वरूप देनेकी घोषणाके पश्चात् १९५५ में बिहार सरकारने इस संस्थानको स्थापित करनेका अनुरोध अन्तिम रूपमें स्वीकार कर लिया। अन्ततोगत्वा २४ वर्ष पूर्व २३ अप्रैल १९५६ वी०नि०सं० २४८२ (वि०सं० २०१२) चैत्र शुक्ल त्रयोदशी सोमवारको जैनोंके अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीरके जन्म स्थान वासोकुण्डमें इसका शिलान्यास तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसादके करकमलों द्वारा किया गया। प्राकृत और जैनशास्त्रके कृत-मनीषी डा. हीरालाल जैन इस संस्थानके प्रथम निर्देशक हुये। फरवरी १९६५ तक इस संस्थानका प्रमुख कार्यालय मुजफ्फरपुरमें किरायेके भवनमें संचालित होता रहा । इसके बाद बासोकुण्डके निवासियों द्वारा इस संस्थानके लिए लगभग तेरह एकड़ भूमि राज्य सरकारको दान स्वरूप दी गई। साहू शान्तिप्रसादजीके परम सहयोगसे संस्थानके मुख्य भवनका निर्माण हो जानेपर मार्च १९६५ में प्राकृत विद्यापीठका कार्यालय स्थाई रूपसे वैशाली, वासोकुण्डमें आ गया। प्राकृत विद्यापीठ स्थापित करनेका औचित्य . वैशाली प्राकृत विद्यापीठकी स्थापना अनेक कारणोंसे की गई। [क] संस्कृत और पालि भाषाकी तरह प्राकत भाषा साहित्यमें भी काव्यकला. ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, इतिहास. सामाजिक तथा सांस्कतिक सामग्री प्रचुर मात्रामें विद्यमान है। फिर भी, १९५२ तक इस ओर विद्वानोंका ध्यान नगण्य ही था। यद्यपि इस समय तक डा० याकोबी, बूलर, पिशल, विण्टरनित्ज, जैनी, पी० सी० नाहर, पं० सुखलाल संघवी, पं० बेचरदास, मुनि जिनविजय, प्रो० के०सी० भट्टाचार्य, डा. सत्करी मुकर्जी, पी० एल० वैद्या, डा० हीरालाल जैन तथा डा० ए०एन० उपाध्येके समान कुछ प्राच्यविदोंने इस क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक अध्ययन किये, तथापि इनकी ओर उदीयमान प्रतिभाओंका ध्यान आकृष्ट नहीं होता था। साथ ही, अनेक संस्थाओंसे जैन विद्या परम्परागत विद्यार्थी निकलते थे जो उच्चतर अध्ययनमें रुचि रखते थे। उनके लिए कोई शोध सुविधा सम्पन्न स्थान भी नहीं था। प्राकृत भाषा सम्बन्धी अध्ययन या शोधकी ... - ४७५ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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