Book Title: Kailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Kailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP

View full book text
Previous | Next

Page 559
________________ सण कुमारचरिउ नामक महत्वपूर्ण अप्रभंश ग्रन्थोंका सम्पादन कर उन्हें प्रकाशित किया । इस यात्रा में कलकत्ता विश्वविद्यालयने उन्हें डाक्टर आफ लैटर्स और जैन समाजने जैनदर्शन दिवाकरकी पदवीसे सम्मानित किया | यूरोप में प्राकृत - अध्ययनके पुरस्कर्ताओंमें रिचर्ड पिशल (१८४९ - १९०८) का नाम भी काफी आगे रहेगा । पिशल ए० एफ० स्टेन्लरके शिष्य थे जिनकी 'एलिमेण्टरी ग्रामर आफ संस्कृत' आज भी जर्मनीमें संस्कृत सीखने के लिये मानक पुस्तक मानी जाती है। प्राकृतके विद्वान वेबरके लैक्चरोंका लाभ भी पिशलको मिला था। उनका कथन था कि संस्कृतके अध्ययनके लिये भाषाविज्ञानका ज्ञान व अध्ययन आवश्यक है। और उनके अनुसार यूरोपके अधिकांश विद्वान इस ज्ञानसे वंचित थे । ग्रामेटीक डेर प्राकृत स्प्रशेन ( द ग्रामर आफ प्राकृत लैन्ग्वेजेज ) पिशलका एक विशाल स्मारक ग्रन्थ है जिसे उन्होंने वर्षोंके कठिन परिश्रमके बाद अप्रकाशित प्राकृत साहित्यकी सैकड़ों हस्तलिखित पांडुलिपियोंके आधारसे तैयार किया था। जिसमें उन्होंने भिन्न-भिन्न प्रकारकी प्राकृतोंका विश्लेषण कर इन भाषाओके नियमोंका विवेचन किया । मध्ययुगीन आर्यभाषाओंके अनुपम कोष हेमचन्द्रकी देशीनाममालाका भी बुहलर के साथ मिलकर, पिशलने आलोचनात्मक सम्पादन कर एक महान कार्य सम्पन्न किया । इन ग्रन्थोंमें प्राकृत एवं अपभ्रंशके ऐसे अनेकानेक शब्दों का संग्रह किया है जो शब्द क्वचित् ही अन्यत्र उपलब्ध होते हैं । संयोगकी बात है कि याकोबी और पिशल -- ये दोनों ही विद्वान पश्चिम जर्मनीके कील विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रह चुके हैं जहाँ उन्होंने अपनी-अपनी रचनाएँ समाप्त कीं । अर्स्ट लायमान (१८५९-१९३१) बेबरके शिष्य रहे हैं। उन्होंने जैन आगमों पर लिखित निर्युक्ति और चूर्णि साहित्यका विशेष रूपसे अध्ययन किया । यह साहित्य अब तक विद्वानोंकी दृष्टिसे नहीं गुजरा है । वे स्ट्रॉसबर्ग में अध्यापन करते थे और यहाँकी लाइब्र ेरीमें उन्हें इन ग्रन्थोंकी पांडुलिपियोंके अध्ययन करनेका अवसर मिला । औपपातिकसूत्रका उन्होंने आलोचनात्मक संस्करण प्रकाशित किया। कहने की आवश्यकता नहीं क्रि लायमान द्वारा सम्पादित प्राकृत जैन आगम साहित्य पिशलके प्राकृत भाषाओंके अध्ययनमें विशेष सहायक सिद्ध हुआ । १८९७ में उनका 'आवश्यक - एरजेलु गेज' (आवश्यक स्टोरीज) प्रकाशित हुआ । पर इसके केवल चार फर्मों ही छप सके । तत्पश्चात् वे वीवरसिष्ट डी आवश्यक लिटरेचर (सर्वे आदि आवश्यक लिटरेचर ) में लग गये जो १९३४ में हैम्बर्गसे प्रकाशित हुआ । वाल्टर शूविंग जैनधर्मके एक प्रकाण्ड पण्डित हो गये हैं जो नौरवेके सुप्रसिद्ध विद्वान स्टेनकोनो के चले जाने पर हैम्बुर्ग विश्वविद्यालय में भारतीय विद्याके प्रोफेसर नियुक्त हुए । उन्होंने कल्प, निशीथ और व्यवहारसूत्र नामक छेदसूत्रोंका विद्वत्तापूर्ण सम्पादन करनेके अतिरिक्त महानिशीथसूत्र पर कार्य किया तथा आचारांगसूत्रका सम्पादन और वर्टे महावीर (वर्क आव महावीर ) नामसे जर्मन अनुवाद प्रकाशित किया। उनका दूसरा महत्त्वपूर्ण उपयोगी ग्रन्थ, डी लेहरे डेर जैनाज है जो दि डॉक्ट्रीन्स आव दी जैनाज के नामसे अंग्रेजीमें १९३२ में दिल्लीसे प्रकाशित हुआ । इस ग्रन्थ में लेखकने श्वेताम्बर जैन आगम ग्रन्थोंके आधारसे जैनधर्म सम्बन्धी मान्यताओंका प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत किया। जर्मनी में किसी विद्वान व्यक्तिके निधन के पश्चात् उसकी संक्षिप्त जीवनी तथा उसकी रचनाओंकी सूचना प्रकाशित करनेकी प्रथा हैं किन्तु महामना शूविंग यह कह गये थे कि उनकी मृत्युके बाद उनके सम्बन्ध में कुछ न लिखा जाय । जे० इर्टल (१८७२-१९५५) भारतीय विद्याके एक सुप्रसिद्ध विद्वान हो गये हैं जो कथा साहित्यके विशेषज्ञ थे। उन्होंने अपना समस्त जीवन पञ्चतन्त्र के अध्ययनके लिये समर्पित कर दिया। वे जैन कथा - ५१२ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630