Book Title: Kailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Kailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP

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Page 621
________________ षट्खण्डागम प्रथम खण्ड जीवट्ठाणके सत्प्ररूपणाके सूत्र ९३ में 'संजद' पाठके सम्बन्धमें पू० आचार्य (स्व०) शान्तिसागरजीका ___ अन्तिम अभिमत जिनदास पार्श्वनाथ फडकुले और गुलाबचन्द्र सखाराम गांधी जीवट्ठाणके सत्प्ररूणाके सूत्र ९३ में संजद पदके होनेके संबंधमें एक समय बड़ा विवाद था । एक बार पू० श्री १०८ आचार्य शांतिसागरजीका चातुर्मास शोलापुर में हआ था। उस समय षटखंडागम जीवस्थान प्रथम भागका स्वाध्याय चलता था। उस समय यह माना जा रहा था कि द्रव्य-स्त्रीवेदीको भावसंयम नहीं होता, अतः उसे प्रथम पाँच गुणस्थान ही होते हैं। कि द्रव्य-स्त्री वस्त्रादिकका त्याग नहीं कर सकती, फलतः उसके उच्चतर गुणस्थान नहीं हो सकते । फलतः सूत्र ९३; द्रव्यस्त्रीके संयमका वर्णन करता है, यह आचार्य श्री का आग्रह था। इस अभिप्राय का तत्कालीन अनेक विद्वानोंने समर्थन किया था। इसके विपर्यासमें अनेक विद्वानोंका मत यह था कि यह सूत्र भावस्त्रीके संबंधमें वर्णन करता है और इस सूत्र में 'संजद' पद होना चाहिये, किन्तु लिपिकारको असावधानीसे वह मूल सूत्रमें छूट गया । अर्थात् लिपिकार 'संजद' शब्द लिखना भूल गया ।' सूत्रकी टीकाके सूक्ष्म अध्ययनसे भी सूत्रमें संजद पदके १. षट्खंडागम पृ० ७ की भूमिकामें स्व० पं० लोकनाथ शास्त्री, मूडबिद्रीका २४-४-४५ का पत्र प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने सूचित किया था कि धबलाकी दो ताड़पत्रीय प्रतियोंमें ९३वें सूत्र में - ५७४ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..

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