Book Title: Kailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Kailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्ताचार्य पंडित कैलाशचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ संपादक मंडल डॉ० वागीश शास्त्री बालचन्द्र जैन नंदलाल जैन डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर पं० माणिकचन्द्र चवरे सतीश कुमार जैन प्रबन्ध सम्पादक बाबूलाल जैन फागुल्ल सिद्धान्ताचार्य पंडित कैलाशचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन समिति रीवा (म. प्र. ) १९८० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक प्रवन्ध समिति, सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन समिति रीवा, मध्यप्रदेश प्रकाशन वर्ष 1980 मूल्य 40,00 मुद्रक बाबूलाल जैन फागुल्ल महावीर प्रेस, भेलपुर, वाराणसी ( उ० प्र०) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Siddhantacharya Pandit Kailashchandra Shastri Felicitation Volume Editorial Board Dr. Vaggesh Shastri Balchandra Jain Nandlal Jain Dr. Vidyadhar Johrapurkar Pandit Manikchand Chavre Satish Kumar Jain Managing Editor Babulal Jain Phagulla Siddhantacharya Pandit Kailashchandra Shastri Felicitations Committee, REWA, M.P. 1980 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisher Executive Committee, Siddhantacharya Pt. K.C. Shastri Felicitations Committee, Rewa, M.P. Year of Publication 1980 All Rights Reserved Price Rs. 40.00 Printers Babulal Jain Phagulla Mahavir Press Bhelupur, Varanasi, U.P. (India) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री M Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परामर्शदाता सम्पादक मण्डल डा० बी० एन० शुक्ल, कुलपति, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी डा० पी० एन० कौठेकर, कुलपति विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन डा० ज्योतिप्रसाद जैन लखनऊ डा० जगदीशचन्द्र जैन बम्बई डा० नथमल टाट्या लाडनूं डा० मोहनलाल मेहता पूना स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती इलाहाबाद पं० नाथू लाल शास्त्री इन्दौर प्रो० कृष्णदत्त बाजपेयी सागर श्री दलसुख भाई मालवणिया अहमदाबाद श्री अगरचन्द नाहटा बीकानेर प्रो० टी० जी० कालघाटगी धारवाड़ संस्थागत सदस्य सदस्यगण प्रबन्ध समिति साहू श्रेयान्स प्रसाद संरक्षक मिश्रीलाल काला एन० के० फीरोदिया निर्मलचन्द जैन, एडवोकेट अध्यक्ष सुल्तान सिंह वाकलीवाल उपाध्यक्ष एवं स्वागताध्यक्ष धन्यकुमार सिंघई उपाध्यक्ष रमेशचन्द्र जैन रतनलाल गंगवाल हिम्मत सिंह जैन मुल्कराज जैन नन्दलाल जैन मंत्री गुलाबचन्द दर्शनाचार्य (स्वागत) , सतीशकुमार जैन सहमंत्री बालचन्द देवचन्द शाह संस्थागत सदस्य एल० सी० जैन डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य सुबोधकुमार जैन डॉ. नगेन्द्र प्रसाद डॉ० राजाराम जैन डॉ० डी० सी० जैन प्रेमचन्द राजकृष्ण जैन सुरेश बारोलिया डॉ० सुरेन्द्र जैन नीरज जैन निर्मलचन्द भूरा जयचन्द लोहाड़े प्रो० उदयचन्द्र जैन श्रवणकुमार जैन डॉ० अरविन्द कुमार डॉ० एस० के० जैन मदनलाल जैन शीतल प्रसाद जैन लालचन्द जैन Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ADVISORY EDITORIAL BOARD Dr. B.N. Shukla, Vice-chancellor, Samskrit University, Varanasi Dr. P.N. Kauthekar, Vice-chancellor, Vikram University, Ujjain Dr. Jyotiprasad Jain, Lucknow Dr. Jagdishchandra Jain, Bombay Dr. Nathmal Tatia, Ladnun Dr. Mohanlal Mehta, Poona Swami Satyaprakash Saraswati, Allahabad Pt. Nathulal Shastri, Indore Prof. K.D. Bajpayee, Sagar Shri Dalsukhbhai Malvania, Ahemedabad Shri Agarchand Nahta, Bikaner Prof. T.G. Kalaghatgi, Dharwar Sahu Shreyans Prasad Jain, Bombay Shri Mishrilal Kala, Calcutta Shri N.K. Phirodia, Poona Shri Nirmalchand Jain Advocate Shri Ramesh Chand Jain Shri Ratanlal Gangwal Shri Sultnsingh Bakliwal Shri Dhanyakumar Singhai Himmat Singh Jain Mulk Raj Jain Nandlal Jain EXECUTIVE COMMITTEE Satishkumar Jain Gulabchand Darshanacharya Balchand Deochand Shah Laxmi Chand Jain Dr. Pannalal Sahityacharya Subodhkumar Jain Dr. Rajaram Jain Dr. Nagendra Prasad Dr. D. C. Jain Premchand Rajkrishna Jain Suresh Barolia Dr. Surendra Jain Niraj Jain Nirmalchand Bhura Jaichand Lohade Dr. Arvindkumar Shri Shitalprasad, Ex-B. D. O. Shri Shravankumar Jain Shri Lalchand Jain Shri Madanlal Jain Prof. Udaichand Jain Dr. S. K. Jain Patron 33 37 Chairman Vice-president & Chairman Vice-president (reception) "} "" Secretary Jt. Secretary Secretary (Reception) Institutional Member ور "" 17 "" "" כל Member 33 "3 35 99 23 31 39 "" 33 33 33 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समितिकी ओरसे सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री जैन और जैनेतर विद्वत्-समाजमें बहुश्रुत हैं । उत्तर प्रदेशके एक अज्ञात ग्राममें जन्मे तथा काशीमें शिक्षा-दीक्षा पाये पंडितजी ने अपने अध्ययन-अध्यापनकी आधी सदीमें न केवल अपनी भारत व्यापी सहस्राधिक शिष्य मंडलीके माध्यमसे जैनधर्मकी ज्योतिको प्रज्वलित रखने में योगदान किया है, अपितु अपनी भाषण कला एवं विचारपूर्ण निष्पक्ष लेखनीसे पंडित समाजकी प्रतिष्ठाको भी प्रतिष्ठित बनाये रखा है । आपके गौरवपूर्ण अभिनन्दनका विचार समिति के हुआ था जब जबलपुरकी स्थानीय समितिने मध्यप्रदेशके एक विद्वद्वत्नको अभिनंदित थी । इसके सम्पन्न होने पर जब इस ओर ध्यान दिया गया, तब ज्ञात हुआ कि काशीकी जैन विद्वन्मंडली न केवल अपने विवादों में उलझी हुई है, अपितु उसके कारण उसकी सामाजिक श्रद्धामें भी ह्रास होने लगा है । इस स्थिति से अनेक स्याद्वादी विद्यार्थी भी विचलित होकर कहने लगे — इस स्थिति में कब सुधार होगा ? भट्टारक श्री चारुकीर्तिजीके आशीर्वाद तथा विद्वत् परिषद्के प्रयत्नसे १९७८ में विद्वानोंका पुनर्मिलन हुआ । यह सुखद अवसर ही वर्तमान आयोजनका बीजांकुरण बन गया । इस विषय में कोई चालीस भूतपूर्व 'स्याद्वादियों' एवं चौबीस समाजके प्रतिष्ठित विद्वानों व व्यक्तियोंसे सम्पर्क किया गया। सभी ने खुले दिल से अपना समर्थन और सहयोग देनेका वचन दिया। इस सम्पर्कके दौरान ही यह ज्ञात हुआ कि पूर्व में भी स्व० डा० नेमचन्द्र ज्योतिषाचार्य तथा डा० ज्योतिप्रसाद जैन और उनके सहयोगियोंने अनेक वर्षों पूर्व ऐसा ही विचार किया था। पर वह किन्हीं कारणोंसे मूर्तरूप नहीं ले सका। इन सभी सज्जनोंसे भी हमें प्रेरक सहयोग मिला । वस्तुतः ये प्रयत्न ही हमारे आयोजनकी आधारशिलाके रूपमें काम आये । समितिका वास्तविक कार्य बसंत पंचमी, १९७९ से प्रारम्भ हुआ । इसने अपनी द्विचरणी योजना बनाई, (१) अभिनंदन ग्रन्थ तैयार करना और (२) एक अखिल भारतीय संगोष्ठीके माध्यमसे इसे समर्पित करना । प्रारम्भिक चरणमें समितिको भारतके बारह प्रमुख विद्वानोंसे परामर्शदाता के रूपमें सहयोग देनेका बचन मिला। इससे प्रेरित होकर सप्त-सदस्यीय संपादक मंडलका गठन किया गया जिसमें डा० वागीश शास्त्री, निदेशक अनुसंस्थान संस्थान, संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, काशीके समान अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान् भी सम्मिलित हुए । इन सभी के सहयोग से प्रस्तुत सप्त खंडी ग्रन्थ तैयार किया गया है | समितिने इसे स्मरणीय एवं संग्रहणीय बनानेका यत्न किया है । सुधी पाठक एवं विद्वद्-वर्ग ही हमारे इस विश्वासकी पुष्टि कर सकते हैं । द्वितीय चरण में, हमने आयोजन हेतु प्रबंध समितिका गठन किया । इसमें हमें कुछ समय लगा है । इसके ३१ सदस्य मुख्यतः मनोनीत ही किये गये हैं । इसमें विद्वदु-वर्ग, श्रेष्ठि वर्ग, संस्थाएँ एवं समाजसेवीसभी कोटिके व्यक्ति हैं। सभी ने समय-समय पर हमारा, तन, मन और धनसे सहयोग किया है। समिति के सदस्योंकी सूची पृथक से ही दी गई है । इस समितिकी विशेषता सह है कि इसमें जैन समाज के प्रमुख संप्रदायों और संस्थाओंके प्रतिनिधि सम्मिलित हैं। यह एक अभूतपूर्व अवसर है जब इतनी संस्थाएँ एक साथ किसी आयोजन में सक्रिय रूपसे सहयोग कर रही हैं । 151 मंत्रीके मनमें उसी समय करने की योजना बनाई Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबंध समितिने संपूर्ण आयोजन हेतु ३८००० रु० का प्रारम्भिक वजट स्वीकार किया । यह मूल्यशुद्धि, मार्ग व्यय वृद्धि तथा अन्य कारणोंसे सगभग २०% तक अधिक जा रहा है। इसकी पूर्ति मे स्वागत समितिकी सदस्यताके रूपमें स्याद्वाद विद्यालय, काशीके भूतपूर्व २७ स्नातकोंने ५९००००, तथा स्याद्वाद महाविद्यालय, भारतीय ज्ञानपीठ, जीवराज ग्रंथमाला, दि० जैन विद्वत् परिषद्, महावीर ट्रस्ट, ( इन्दौर), आदिनाथ ट्रस्ट (आरा), दि० जैन संघ (मथुरा) के समान संस्थानोंने ७६०००० का सहयोग किया है । इस कार्य में श्रेष्ठिवर्ग के सहयोग के बिना तो काम ही कैसे चल सकता था ! श्री मिश्रीलालजी काला, कलकत्ता ने ५०००'०० रु० देकर हमें अत्यन्त ही प्रोत्साहित किया है । अन्य अनेक व्यक्तियोंसे भी हमें चार अंकोंकी राशि मिली है। हमें काशी, कारंजा, बम्बई, कलकत्ता, अहमदाबाद, जबलपुर, कटनी, मुजफ्फरनगर, अजमेर, कुरवाई, विदिशा, भोपाल, शहडोल, इन्दौर और सतना आदि नगरोंसे . १८००००० का सहयोग प्राप्त हुआ है । इस सहयोगने हमारा भार अत्यन्त लघुतर किया । यहीं नहीं, दिल्ली में आयोजन हेतु अहिंसा इन्टरनेशनलके सचिव भाई सतीशकुमार जी ने लगभग ९००००० की राशि एकत्र की है और अनेक सहयोगियोंने अन्य प्रकारसे भी सहयोग दिया । हमने यह प्रयत्न किया है कि इस सार्वजनिक राशिका मितव्ययिताके साथ सदुपयोग हो । अपने इन सभी सहायकोंकी सूची परिशिष्टमें दी जा रही है । समिति समक्ष अभिनन्दन समारोहके केन्द्रीय स्थानमें आयोजित करनेकी प्रमुख समस्या थी । अपनी यात्राओं के दौरान समितिके मंत्रीको दिल्ली में भाई सतीशकुमार जी मिले । उन्होंने सहर्ष इस समारोह को न केवल दिल्ली में आयोजित करनेका प्रस्ताव स्वीकार किया, अपितु एतदर्थ आवश्यक व्ययके लिए भी समितिको आश्वस्त किया । उन्होंने दिल्लीमें ६१ सदस्योंकी आयोजन समिति बनाई, जिसके अध्यक्ष प्रसिद्ध समाजसेवी श्री सुलतान सिंह वाकलीवाल हैं । भाई सतीशकुमार जी इस समिति के महामंत्री तथा हमारी समिति के सहमंत्री हैं । उनके अथक प्रयत्नोंसे ही हमारा यह आयोजन इतनी गरिमामय रीति से दिल्ली में सम्पन्न हो सका । समिति मन्त्रीने इस योजनाकी सफलता हेतु अनेक स्थानोंकी लगभग २३००० किमी० की यात्रा की एवं शताधिक व्यक्यिोंसे सम्पर्क किया । समितिको प्रारम्भमें ही पं० माणिकचन्द्रजी चवरे, सिंधई धन्यकुमारजी, श्री शीतल प्रसादजी मुजफ्फरनगर, श्री बालचन्द्र देवचन्द्र शाह, बम्बई, डॉ० कछेदीलाल जैन, शतडोल तथा नीरज जैन सतनाके समान प्रेरक सहयोगी और मार्गदर्शक मिले। एक मूक और आशीर्वाद भरी मुस्कुराहट तो पहलेसे ही हमारे साथ थी । इनके विपर्यासमें अनेक स्थानों पर उन्हें पण्डितोंके प्रति घृणाभाव व आलोचनाओंके दर्शन हुए। उन्हें इनके कारण समाजमें पड़नेवाली दरारोंके रूप भी प्रकट हुए । वस्तुतः समितिने आयोजनके दौरान जैसी स्थितियोंका अनुभव किया, वे कल्पनातीत हैं । 'अपने हुए विराने' की स्थिति भी प्रतीत होती रही। फिर भी, पूज्य पण्डितजीके प्रति जिस श्रद्धा और आदरभावके दर्शन हुए, , वे प्रेरक ही बने रहे । यह अचरज की बात रही कि पण्डितोंके कारण समाज में नये वर्गभेद प्रकट हो रहे हैं । समितिका विश्वास है कि भूतकालके समान वर्तमानमें भी विद्वान् आगम या शास्त्रोंके अर्थकार और व्याख्याकार हैं । कभी-कभी ये व्याख्याएँ भिन्न भी हो सकती हैं। पर विद्वान् कभी नहीं चाहता कि इनके कारण समाज में विभेद हो । वस्तुतः सैद्धान्तिक तत्वचर्चाने सदैव मतवादोंको जन्म दिया है पर उससे समाज वर्गित हुई दिखी, यह बीसवीं सदीके उत्तरार्ध की ही घटना है । उपरोक्त स्थिति के कारण हमारे धर्म और समाजकी प्रभावकता एवं व्यावहारिकता पर जो प्रभाव पड़ रहा है, उसका कटु अनुभव पक्षातीत समाज सेवियों एवं - ८ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वानोंके लिए अत्यन्त कष्टकर होता जा रहा है। संभवतः इस स्थितिका उपचार भी विद्वान् ही कर सकते हैं। समितिका मत है कि विद्वान्की गरिमा उसकी समाजसेवा, धर्मप्रचार और तर्कसंगत व्याख्या करनेकी क्षमतासे ही अंकित होती है। व्याख्याभिन्नता विद्वान्की प्रतिष्ठा या अप्रतिष्ठाका कारण मानना अनेकान्ती जैनोंके लिए शुभवृत्ति नहीं मानी जा सकती। निद्वान् समाजका मार्गदर्शक हैं, उसकी संस्कृतिका संरक्षक और प्रकाशक है । उसको विद्वत्ता सम्पूर्ण समाज की धरोहर है । पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्रीकी कोटि निश्चित रूपसे इन सभी निकषों पर खरी उतरती है। उनके अभिनन्दनसे समितिको गौरवका अनुभव हो रहा है। समिति अपने सम्पादन परामर्शदाताओं तथा सम्पादकमण्डलके प्रति आभार व्यक्त करती है, जिनके सक्रिय सहयोग व समन्वयके बिना ग्रन्थकी सामग्रीका संयोजन एवं चयन सम्भव ही नहीं था। हमें प्रसन्नता है कि समितिके निवेदन पर हमें देश और विदेशके प्रश्रुत विद्वानोंने अपने लेख व बहुमूल्य संस्मरण भेजे । यह सामग्री इतनी अधिक थी कि उसे पूर्णतः सम्मिलित करना सम्भव नहीं था। इससे ग्रन्थमें अनेक बहुमूल्य लेखोंका समाहरण नहीं हो सका। समिति अपने इन सहृदय लेखकोंके प्रति तो आभार ब्यक्त करती ही है, साथ ही, उन सहयोगी लेखकोंसे क्षमाप्रार्थी भी है, जिनके लेखोंको अपनी सीमाओंके कारण मुद्रित नहीं किया जा सका। अपनी समय-सीमामें मुद्रण कार्य करने हेतु हमारे प्रबन्ध सम्पादक श्री बाबू लालजी फागुल्लने अथक प्रयत्न किया है और व्यक्तिगत रुचि ली है। समिति उनकी ऋणी है। समितिके कार्यालयीय कार्यमें कु० प्रतिमा जैन एम० ए० का सहयोग तो भुलाया ही कैसे जा सकता है ! वह तो मेरी पुत्रीके समान ही है। उसे मैं आशीर्वाद ही दे सकता हैं । हमारे इस आयोजनमें अनेक अन्य व्यक्तियों तथा स्याद्वाद विद्यालयके भूतपूर्व स्नातकोंने भी प्रत्यक्ष और परोक्ष सहयोग किया है। इन सभीका नामोल्लेख यहाँ सम्भव नहीं है। उन सबकी समिति आभारी है। हाँ, डॉ० नन्दलाल जैनका उल्लेख यहाँ आवश्यक मानता हूँ। वे इस आयोजनमें अथसे इति तक अत्यन्त श्रम, लगन और निष्ठासे जुटे रहे । वास्तवमें, यह उन्होंकी जीवन्त सक्रियताका परिणाम है कि हम यह आयोजन अनेक तकनीको और प्रतिस्पर्धी व्यवधानोंके बावजूद भी यथासमय सम्पन्न कर सके। हमारे आयोजनके साहित्यिक, सामाजिक, प्रशासकीय एवं वित्तीय-सभी पक्षोंको उन्होंने 'एकला चलो रे के आधार पर सम्हाला है। हम उन्हें भी अपना आशीर्वाद देना चाहते हैं। समिति अपने सभी सदस्यों, आयोजन समितिके सदस्यों, पन्द्रह नगरोंके सहायकों, आठ संस्थाओं तथा भाई सतीश कुमारजीके प्रति भी आभारी हैं, जिन्होंने समितिको आर्थिक दृष्टिसे पुष्ट बनाया है। अपने अन्तिम और क्रान्तिक समयमें भाई रमेशचन्द्र जैन, दिल्लीने हमें जो सहयोग दिया, उसे कैसे भुलाया जा सकता हैं ? अन्तमें, समितिको विश्वास है कि पिछले इक्कीस महीनोंके छः सौ तीस दिनोंके लगभग दो हजार घण्टों, तेइस हजार किलोमीटरकी यात्राओं, १७० व्यक्तिगत एवं, २५०० पत्राचारी सम्पर्कों एवं बत्तीस हजारकी राशिके माध्यमसे सम्पन्न यह प्रयास विद्वद-वर्ग, अध्येता तथा अनुसन्धित्सुओं एवं समाजके प्रगतिशील विचारकोंके लिए सारवान् सिद्ध होगा। यदि इसमें कोई अपूर्णता और त्रुटियाँ रह गई हों, तो वे मेरी स्वतः की ही हैं। इनके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हैं। जवलपुर निर्मलचन्द्र जैन १० अक्तूबर १९८० अध्यक्ष Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय जैनधर्म और संस्कृतिके इतिहासमें आचार्यों और सांस्कृतिक उन्नायकोंकी एक परम्परा रही है । यद्यपि भ. महावीरके अनन्तर लोहाचार्य और बज्राचार्यके समय तककी आचार्य-परम्परामें कुछ भेद पाया जाता है, तथापि उसके बादकी परम्परा स्पष्टतः दो धाराओंमें विभक्त पाई जाती है। दिगम्बर-परम्परामें आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी, पुष्पदन्त-भूतबलि, पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्द, गुणधर, वादिराज, धर्मभूषण, नेमिचन्द्र चक्रवर्ती, प्रभाचन्द्र और आशाधरके समान विद्वान् प्रमुख रहे हैं। यद्यपि इनमें प्रायः सभी आचार्य पदधारी रहे हैं, तथापि प्रभाचन्द्रको आचार्य और पण्डित-दोनों पदोंसे अभिहित किया गया। आशाधरजीको तो पंडित पदसे ही स्मरण किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सामान्यतः गहस्थ विद्वानोंको पंडितकी संज्ञा दी गई जब कि आचार्य प्रायः साधुवेषी ही रहे। वैदिक संस्कृतिमें गृहस्थ पंडितों और ऋषियोंकी परम्परा प्रारम्भसे ही रही है परन्तु श्रमण-संस्कृति में कई सदियों तक केवल साधुवर्ग ही साहित्य-निर्माण व जागरणमें अग्रणी रहा है । भ० महावीरके निर्वाणके तेरह सौ वर्ष बाद सम्भवतः धनञ्जय पहले गृहस्थ थे जिन्होंने इस प्रक्रियामें प्रतिष्ठा प्राप्त की। पंडित आशाधरजीके अनन्तर दो सौ वर्षोंकी परम्परा शोधका विषय है, फिर भी इस अन्तरालमें रइधू और वाग्भटके नाम सुज्ञात है। पंडितों और आचार्योंके बीच समसामयिक कवि-परम्परा भी चली जिसमें नवमी सदीसे पन्द्रहवीं सदीके बीच धनञ्जय, स्वयम्भू, पुष्पदन्त, हस्तिमल्ल, हरिश्चन्द्र, श्रीधर, धनपाल और तेजपालके नाम अग्रणी हैं। सम्भवतः ये कवि भी प्रायः गृहस्थ ही रहे हैं। इन कवियोंका प्रमुख कार्य उपाख्यानों द्वारा धर्मचक्रको जीवित बनाये रखना था। इसके विपर्यासमें, पंडितोंका कार्य धार्मिक सिद्धान्तोंको जनभाषामें प्रस्तुत करना रहा है। पिछले तीन सौ वर्षों में उत्तरप्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेशके अनेक पंडितोंने जैन समाजको धार्मिक रूपसे जागरूक बनाये रखा। इस परम्परामें राजमल, बनारसीदास, द्यानतराय, दौलतराम, टोडरमल और सदासुखजी आदिने आध्यात्मिक शैलीसे और गोपालदास वरैया, देवकीनन्दन शास्त्री, मक्खनलाल शास्त्री, बंशीधर न्यायालंकार, के० भुजबली शास्त्री तथा अन्योंने न्याय-शैलीसे धार्मिक जागृति की। इनका कार्य धर्म-ग्रन्थोंकी भाषा-टीका, प्रवचन, प्रभावना और प्रचार मुख्य रहा है। लेकिन इनका क्षेत्र सीमित रहा । बीसवीं सदीमें एक विशिष्ट पंडित-परम्पराका अभ्युदय हुआ। इसके अन्तर्गत जुगलकिशोर मुख्तार, नाथूराम प्रेमी, पं० फूलचन्द्र शास्त्री, पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री, पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, सुमेरुचन्द्र दिवाकर, डॉ० हीरालाल जैन, डॉ० ए० एन० उपाध्ये, डॉ०. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, डॉ० पन्नालाल जैन, डॉ० दरबारीलाल कोठिया, चैनसुख दास तथा डॉ० ज्योतिप्रसाद जैनकी कोटिके विद्वान् आते हैं। इस परम्पराने जैनधर्म और साहित्यकी हिन्दी टीकाके साथ नये मौलिक ग्रन्थोंका भी सूजन किया। युगानुरूप सैद्धान्तिक व्याख्याएँ भी प्रस्तुत की। इसने जैनधर्म और संस्कृतिको जैनेतर जगत्में भी प्रकाशित किया। इस युगमें अनेक व्यक्तियोंने जैन धार्मिक साहित्यका अंग्रेजीमें अनुवाद भी किया। इससे विदेशोंमें जैनधर्म और इसके इतिहासके सम्बन्धमें अनेक भ्रान्तियाँ दूर हई। अंग्रेजी और हिन्दीमें पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित कर समाजकी एकरूपता और जागरूकताको प्रगति दी। बीसवीं सदीके मध्य तक आते-आते एक नवीन विद्वत्परम्पराका जन्म हआ जिसने पाश्चात्त्य पद्धति पर संस्कृत, प्राकृत तथा जैनदर्शन और साहित्यका समीक्षात्मक अध्ययन कर नये प्रतिमानोंके अनुरूप साहित्यकी सृष्टि की। इस युगमें कुछ तुलनात्मक अध्ययन भी प्रारम्भ हुए जिससे नयी पीढ़ीके दृष्टिकोणकी व्यापकताका अनुमान लगता है । इस परम्परामें Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैद्धान्तिक अध्ययनकी तीक्ष्णता, विशदता तथा गम्भीरता गहन शोधके विषय हैं । फिर भी, ऐसा अवश्य प्रतीत होता है कि बीसवीं सदीके पूर्वार्ध और उत्तरार्धके विद्वद्-वर्गके एक-दूसरेके पूरक बननेकी प्रक्रिया उतनी सरल नहीं दिखाई पड़ती। अस्तु, अपने ढंगसे ही सही, यह पीढ़ी भी पुरानी पीढ़ीके कार्यको आगे बढ़ाती हुई जैन संस्कृति एवं समाजको दिशादान कर रही है। श्वेताम्बरोंमें पंडित-परम्परा इतनी विकसित नहीं पाई जाती। इस परम्परामें धर्म प्रचार व जागरणका कार्य आचार्यों एवं सूरियोंने किया है। हाँ, इस सदीमें पं० सुखलाल संघवी, पं० बेचरदास दोशी, पं० दलसुख भाई मालवणिया तथा अगरचन्द नाहटाके समान विद्वानोंने अपना बहुमूल्य योगदान किया है। विशिष्ट मानवों और अतिमानवोंकी स्तुति, नाराशंसी, गाथा और प्रशस्तियोंके उल्लेख वेद-उपनिषदों तकमें पाये जाते हैं। दानवीर, यद्धवीर तथा नरेशोंकी प्रशस्तियाँ अनेक काव्योंके रूपमें हमें सुज्ञात हैं। इसी प्रकार, साहित्य, संस्कृति और समाजके उन्नायक विद्यावीरोंकी प्रशस्ति भी स्वाभाविक है। यह कहा जाता है कि आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिकी प्रशस्ति-स्तुति देवताओं तकने की थी। वर्तमान अभिनन्दन भी इसी प्रकारकी प्रशस्तिके आधुनिक संस्करण हैं। इनका उद्देश्य एवं रूप भी समय-समय पर बदलता रहा है। कभी यह मात्र व्यक्ति-प्रमुख था, पुष्पमाल तक सीमित था, फिर 'पत्रं पुष्पम्' और मानपत्रोंमें परिणत हुआ और वर्तमानमें यह अभिनन्दनीयके माध्यमसे एक स्थायी साहित्य-निर्माणको प्रक्रियाके रूपमें विकसित हुआ है जो विद्वानों, शोधकों तथा सुधी पाठकोंके लिए ज्ञानवर्धक एवं विचार-प्रेरक सन्दर्भ साहित्यका काम करता है । ऐसे साहित्यका निष्काम उद्देश्य तत्त्वज्ञान और साधनाकी ओर उन्मुख होना है। प्राच्यविद्याके क्षेत्रमें डॉ० भांडारकर और प्रो० विन्टरनित्स् आदि मनीषियोंका सम्मान करनेका यही उपाय उचित समझा गया कि उनके जीवनकी आधारभूत प्रवृत्तियों-शोधादि पर आधारित कृतियाँ ही उन्हें समर्पित की जाएँ। इससे प्रेरित होकर ही, सम्भवतः पिछले चार दशकोंमें अनेक दिगम्बर और श्वेताम्बर विद्वानों और साधुजनोंके अभिनन्दन इसी रूपमें आयोजित किये गये । इस प्रकारके अनेक अभिनन्दन अथवा स्मृति-ग्रन्थोंके माध्यमसे जो साहित्य सामने आया है, वह स्फुट तो अवश्य है, परन्तु उससे धर्म, दर्शन, पुरातत्त्व, साहित्य, इतिहास तथा विज्ञानसे सम्बन्धित जैन विद्याओंके अनेक ऐसे पक्ष प्रकाश में आये हैं जिनसे महावीरकी पराम्पराकी महत्ता, प्रभावकता एवं प्रसारमें पर्याप्त योगदान मिला है। ऐसे प्रयत्नोंकी निरन्तरता बीसवीं सदीकी एक अनिवार्य एवं वेगवती भावना बनती जा रही है। आदरणीय पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने अपने गहन अध्ययन, लेखन, सम्पादन, प्रवचन, मार्गदर्शन, वक्तृत्वकला, अध्यापन और शोधकार्य, दानवृत्ति एवं सहयोग-भावके कारण जैन समाज और अखिल भारतीय विद्वद् वर्गमें जो कीर्तिमानी स्थान प्राप्त किया है, वह भी समादरणीयताकी कोटिमें स्वतः समाहित होता है । इस आधार पर ही अनेक व्यक्तियों एवं संस्थाओंके सहयोगसे वर्तमान समितिने उनके अभिनन्दन का निश्चय किया। समितिको अथक प्रयत्नसे लगभग शताधिक सहायकों, शताधिक ही लेखकों एवं विद्वानोंका भरपूर सहयोग मिला। इसकी प्रत्याशामें ही हमने अभिनन्दन ग्रन्थको सप्त-खंडी रूपरेखा तैयार की। इसके अनुरूप ही हमारे निवेदन पर देश और विदेशके ख्यातिप्राप्त विद्वानोंने हमें इतनी बहुमूल्य सामग्री प्रेषित की कि इसका तृतीयांश तो हम इच्छा रहते हुए भी, अपनी पृष्ठसीमा तथा अर्थसीमाके कारण, इस ग्रन्थमें समाहित न कर सके। इसके अतिरिक अनेक लेखोंको हमें सम्पादित कर संक्षिप्त भी करना पड़ा है। इन लेखोंका चयन लेखकके आधार पर नहीं, अपितु विषय-वस्तुकी मौलिकता, नवीनता, विविधता तथा रोचकताके आधारपर किया गया है। ग्रन्थकी व्यापक उपयोगिताको ध्यानमें रखकर हमने इसके महत्त्वपूर्ण अंग्रेजी लेखोंका हिन्दी-सार देनेकी नई परम्परा अपनाई है। यह भी इस ग्रन्थकी अभिनवता होगी। इस कार्यमें हमारे परामर्शदाताओं एवं सम्पादक-मण्डलके सभी सदस्योंने पर्याप्त मार्गदर्शन हा हा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और श्रम किया है। फिर भी, यह चयन कैसा रहा, इसपर हमारा प्रबुद्ध पाठकवर्ग ही निर्णय दे सकता है । सम्पादकोंको विश्वास है कि उनका यह सामग्री-चयन रुचिकर होगा। ग्रन्थके प्रारम्भमें भारतके विविध क्षेत्रोंमें काम करनेवाले ६३ समाजसेवियों, सहपाठियों, शिष्यों, विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयोंके विद्वानों एवं मनि व साधजनों के आशीर्वचन एवं संस्मरण दिये गए हैं जो पंडितजीकी विविध प्रवृत्तियोंका दिग्दर्शन कराते हैं और उनकी प्रभावकताका क्षेत्र प्रदर्शित करते हैं। इस खंडमें देरसे आये अनेक लोगोंके संस्मरणोंको सम्मिलित नहीं किया जा सका, इसका हमें खेद है। प्रथम खण्डमें माननीय पण्डितजीके व्यक्तित्व और कतित्वके विविध रूपों पर विवरणात्मक एवं समीक्षात्मक प्रकाश डाला गया है । हमें हर्ष है कि इसके अन्तर्गत आ० पण्डितजीने मेरा जीवन-क्रम देकर अपना अन्तरंग भी प्रस्तुत किया है। इस खण्डमें हम उनके द्वारा ही लिखित 'मेरे माता-पिता' (जैन सन्देश, १९६०) भी देना चाहते थे, पर वह अनुपलब्ध रहा। इस खण्डमें हमने उनके द्वारा लिखित तेरह मौलिक और अट्ठाईस सम्पादित, सहसम्पादित तथा अनुवादित कृतियोंके विवरणके साथ उनके द्वारा लिखित विविध लेखोंको भी विषयवार वर्गीकृत रूपमें दिया है। यह सूची पूर्ण है, यह हम नहीं कह सकते। साथ ही, पंडितजीका लेखन सम्प्रति भी जारी है। हमें समय पर अनेक आवश्यक पत्र-पत्रिकाएँ भी नहीं मिल सकों । फिर भी, इस कार्य में हमें स्याद्वाद विद्यालय, काशी, दि० जैन संघ, वर्णी विद्यालय, सागर तथा प्रो० उदयचन्द्र जैन, काशीसे अविस्मरणीय सहयोग मिला है। इस खंडमें हमने पंडितजीके तीन मौलिक ग्रन्थों-जैनधर्म, जैन-साहित्यका इतिहास, जैन-न्यायकी समीक्षा भी प्रस्तुत की है। इसमें पंडितजीके लेखन तथा विद्वत्ताके अनेक पहल प्रकाशमें आये हैं। इस प्रकारकी कृति-समीक्षा भी इस अभिनन्दन ग्रन्थकी एक अन्य विशेषता ही मानी जाएगी। इसका 'विद्यावृक्ष' भी एक नवीनताका प्रतीक है। ___द्वितीय खंडमें धर्म और दर्शनसे सम्बन्धित लेखोंमें भारतके चारों कोनोंके प्रश्रुत विद्वानोंने धार्मिक सिद्धान्तों तथा विषयों पर अधुनातनः तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है । परम्परागत पाठकको इस खंडमें परम्परागत विषयोंके लेखोंका अभाव खटकेगा पर हमने युगानुरूप पाठ्य एवं शोधसामग्री देकर उनके ज्ञानकोशको बढ़ाना तथा विचार प्रेरण करना ही अधिक उपयुक्त समझा है। __ इसी प्रकार, साहित्य तथा इतिहास व पुरातत्त्वके तृतीय और चतुर्थ खंडोंमें भी हमारा लक्ष्य पाठकोंके लिए नवीन विधाओंकी सामग्री प्रस्तुत करना रहा है। हमें विश्वास है कि दो दर्जनसे अधिक लेखोंकी यह सामग्री अत्यन्त रोचक तथा ज्ञानवर्धक प्रमाणित होगी। अनेक लेखोंकी सचित्रता इसे और भी आकर्षण दे सकेगी। जैनदर्शनकी वैज्ञानिक परम्परा नामक पाँचवाँ खण्ड अनेक दृष्टियोंसे विचारप्रेरक है। वैज्ञानिक रूप हमने इस खण्डमें भौतिकी, रसायन, गणित, ज्योतिष, आयर्वेद, भगोल तथा खगोलसे सम्बन्धित जैन मान्यताओंपर तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक लेख दिये है । ऐसी सामग्री एक स्थानपर इस रूपमें अन्यत्र दुर्लभ है। लेखोंके हिन्दी सारके माध्यमसे उन्हें सामान्य पाठकों तक पहुँचानेका प्रयत्न किया गया है। हमारा विश्वास है कि यह सामग्री अनेक विद्वानों व शोधकोंके लिए समीक्षण, संशोधन एवं ज्ञानवर्धनकी प्रेरक बनेगी। इस खण्डके लेखकोंमें अनेक अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त है। इनके अधिकांश लेख मूलतः अंग्रेजीमें ही दिये गये हैं। इसमें हमारा उद्देश्य यह कि जैनदर्शनकी वैज्ञानिक परम्परा तथा मान्यताओंकी जानकारी ऐसे राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय पाठकों तक भी पहँचे जिनसे यह समुचित स्थान और गरिमा ग्रहण कर सके। अभी तो जैन वैज्ञानिक मान्यताओंके विषयमें वैज्ञानिक जगत् प्रायः अन्धकारमें ही है । छठवा खड वर्तमान एवं भावी शोध-क्षेत्रोंकी ओर संकेत करता है। जैन विद्याओसे सम्बन्धित अधिकांश शोधकार्य अबतक विभिन्न भाषाओंमें उपलब्ध ललित-साहित्यसे ही सम्बन्धित रहा है। पर अब -१२ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायशास्त्र, विज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति तथा अन्य विषयोंके क्षेत्रमें भी अनेक विद्वान शोधकार्य कर रहे हैं । इससे अनेक परिभाषाओं और मान्यताओं पर पुनर्विचारकी आवश्यकताका भी अनुभव किया जा रहा है । इस खण्डके लेखकोंने बड़ी ही महत्त्वपूर्ण प्रेरक एवं समीक्षापूर्ण सामग्री देकर सम्पादक मण्डलको उपकृत किया है । हमारा विश्वास है कि किसी भी ऐसी नयी कृतिमें इस प्रकारका खण्ड अवश्य रहना चाहिए जो हमारे लिए भविष्यका दिग्दर्शक बने । विदेशों में जैनविद्याएँ नामक सातवाँ खण्ड और भी महत्त्वपूर्ण है। इसमें फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, अमेरिका, फिनलैंड तथा अन्य देशोंमें जैनविद्याओंके अध्ययनकी एक झाँकी दी गई है । इससे ज्ञात होता है कि विदेशों में अधिकांशतः श्वेताम्बर - साहित्य पर ही अध्ययन किया गया है। इसका कारण सम्भवतः यह है कि विदेशों में दिगम्बर-साहित्य इस सदीके पूर्वार्ध तक पहुँच नहीं पाया। इस साहित्यके सुलभ करनेकी प्रक्रिया तीव्र की जानी चाहिए । यद्यपि इस दिशा में जैनमिशन और राजकृष्ण चैरिटेबल ट्रस्टका कार्य प्रेरणास्पद है, तथापि उसमें कई गुनी वृद्धिकी आवश्यकता है । यह प्रसन्नताकी बात है कि अब विदेशों में साहित्य के अतिरिक्त धार्मिक सिद्धान्तों एवं न्यायशास्त्र पर भी कुछ काम होने लगा । इसके लिए समुचित आर्थिक सुविधाओंको जुटाने तथा आवश्यक साहित्य - प्रसारकी महती आवश्यकता है। हम इस खंडमें कुछ और विदेशी विद्वानोंके लेख देना चाहते थे, पर हमारी सीमाओंने हमें विवश कर दिया । हमने इस अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित सामग्री के चयन में यह प्रयास किया है कि यह उपयोगी, सारवान् एवं ज्ञानदीपको प्रकाशित करनेवाले वायुके समकक्ष हो । इसके लेखोंमें बीसवीं सदीकी तुलनात्मक और समीक्षात्मक दृष्टि मुख्य रही है । यही दृष्टि ज्ञानके क्षेत्रको विकास एवं संवर्धनके नये आयाम देती है एवं हमें अन्वेषण की ओर प्रवृत्त करती है । यही हमारी ज्ञानपिपासाका साध्य है । इस उत्कृष्ट साध्य के लिए समुचित कारक प्रस्तुत करनेकी प्रक्रिया ही विद्वान्‌का साध्य और अभिनन्दन है । इस साध्यकी पूर्ति में विचारोंकी भिन्नता उनके विकासकी प्रक्रियामें ही सहायक होती है। यह सम्भव नहीं है कि सम्पादकमण्डल लेखकोंके सभी विचारोंसे सहमत हो, फिर भी उन्हें प्रकाशित कर वह अन्य विद्वानों को उनके समुचित परीक्षण के लिए प्रेरित करना चाहता है । सम्पादक मण्डलके कार्य में जिन सम्मान्य लेखकों, गुरुजनों एवं सन्तोंने सहयोग किया है, उसके लिए वह सभीका आभारी है । उनके सहयोग के बिना हमारा यह गुरुतर कार्य मूर्तरूप ही कैसे ले सकता था ! इस अवसर पर हम उन सहयोगियोंसे क्षमा-याचना भी करना चाहते हैं जिनकी कृतियोंको हम इसमें, अपनी सीमाओंके कारण, समाहित नहीं कर सके । हम सभी सम्पादन परामर्शदाताओं एवं प्रबन्ध-सम्पादकके भी आभारी हैं जो निरन्तर मार्गदर्शन और प्रेरक सुझाव देते रहे हैं । हम प्रबन्ध समिति के सदस्योंके ऋणी हैं जिन्होंने मंडल पर पूर्ण विश्वास किया और उसके कार्य में सभी प्रकारकी सुविधाएँ प्रदान कीं । हम महावीर प्रेस के व्यवस्थापक, आचार्य कपिलदेव गिरि एम० ए०, टंकक द्वय तथा सम्पादन कार्य में सहयोगी कु० प्रतिमा जैन एम० ए० तथा प्रमोद दुबेके प्रति भी अपना आभार व्यक्त करते हैं । अन्तमें, मैं डॉ० नन्दलाल जैनका नाम लिये बिना भी नहीं रह सकता जिन्होंने ग्रन्थ में अभिनवता एवं नवीनता लानेके लिए अथक श्रम किथा है । अनेक प्रकारकी सावधानीके बावजूद भी मुद्रण कार्य में त्रुटि रह जाना स्वाभाविक है । इनके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं । हम यह आशा करते हैं कि पाठक उन्हें सुधार कर पढ़ेंगे और हमें भी विभिन्न अपूर्णताओं की सूचना देंगे । B. 3 / 115 शिवाला, काशी १२-१०-८० } - १३ - भागीरथप्रसाद त्रिपाठी, 'वागीश शास्त्री' कृते सम्पादक मण्डल Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम आशीर्वचन, अभिवादन और संस्मरण आशीर्वचन आचार्य समन्तभद्रजी महाराज आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज यशोदेव सूरिजी भट्टारक चारुकीर्तिजी भट्टारक लक्ष्मीसेनजी अभीप्सा युवाचार्य महाप्रज्ञ मार्गदर्शन डॉ० श्री कस्तुराज भण्डारी कविता निर्मल आजाद कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः कमलकुमार जैन भौतिक काया पर औढ़ी चादरमें रंच न मोल कल्याणकूमार 'शशी' वन्दन शत अभिनन्दन हजारीलाल 'काका' सद्भावना पद्मश्री सुमतिबाई शाह सन्त सरस्वती पुत्र ब्र० जगन्महोनलाल शास्त्री सहपाठीके प्रति विद्याभूषण के० भूजबली शास्त्री भैया कैलाशचन्द्र हरिश्चन्दजी भाईजी भूली-बिसरी यादें डॉ० जगदीशचन्द्र जैन गवेषक पंडितजी पी० एन० कोठेकर, कुलपति, उज्जैन व्यक्ति नहीं, संस्था डॉ० प्रभुदयाल अग्निहोत्री धर्मनिष्ठ पंडितजी पं० दलसुख भाई मालवणिया अभिनन्दनीय पण्डितजी अगरचन्द नाहटा मूर्धन्य विद्वान् नाथूलालशास्त्री निर्लोभवृत्ति पं० गोविन्दराय जैन पंडितकी विवशता : एक खरी बात डॉ० कंछेदीलाल जैन जैन समाजके सुमेरु प्रो० श्रीचन्द्र जैन आदर्श कीर्तिस्तम्भ माणिकचन्द्र नाहर विनम्रता और स्वाभिमानके ओजसे मंडित पंडितजी जयकिशनदास खंडेलवाल शत शत वन्दन : कोटि-कोटि अभिनन्दन बाबूलालशास्त्री 'फणीश' Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादशिरोमणि जीवन्त स्रोत आदरभाव प्रतिभाशाली निर्भीक विद्वान विद्वत्ताकी विभूति मेरी नजरमें प्रभावक लेखनीके धनी लोकप्रिय विद्वान् और प्रभावशाली वक्ता जिनवाणीके एन्साइक्लोपीडिया कर्मठ समाजसेवी शास्त्रीजी शतायु हों सन्त कैलाशचन्द्रजी आदराञ्जलि शारदाका निडर सपूत मेरे पूज्य चाचाजी विद्यावारिधि शास्त्रीजी कृतज्ञ कारंजा गुरुकुल परिवार शत शत वन्दन कंजूस और उदार व्यक्तित्व विद्यागुरुका नमन आदर्श अध्यापक और सफल साहित्यकार विद्याव्यसनी एवं कर्मठ व्यक्तित्व एक कर्मयोगी सहृदय पंडितजी मेरी दृष्टिमें पंडितजी जैन संस्कृतिके अग्रदूतके प्रति अनुपम निधि महान् मानवरत्न महाविद्वान् पंडितजी लोकप्रिय सम्पादक आस्थाके प्रतीक सतत अभिनन्दनीय पंडितजी धर्मशास्त्रमय सब जग जानी श्रद्धेय पंडितजी निरभिमानी व्यक्तित्व जादूगर पंडितजी यतीन्द्रकुमार शास्त्री वीरेन्द्रकुमार जैन बालचन्द्र शास्त्री प्रकाश हितैषी शास्त्री लक्ष्मीचन्द्र सरोज प्रतापचन्द्र जैन राजकुमार शास्त्री डॉ० कस्तूरचन्द्र काशलीवाल डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया विष्णु सनावद्या, सुमनाकर मूलचन्द्र किशनदास कापड़िया प्रेमचन्द जैन, अहिंसा मन्दिर महताब सिंह जैन नीरज जैन अमरचन्द्र जैन पं० शिखरचन्द्र शास्त्री पं० माणिकचन्द्र चवरे और पं० माणिकचन्द्र भिषीकर स्वतन्त्र जैन डा० रमेशचन्द्र जैन डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य महामहोपाध्याय हरीन्द्रभूषण राजकुमार जैन, बी. ए. एम. एस. डॉ. सुरेशचन्द्र जैन राजनाथ रसोइया डॉ० प्रेमसागर जैन धन्यकुमार सिंघई सेठ भागचन्द सोनी भगवानदास शोभालाल जैन सत्यन्धरकुमार सेठी हीराचन्द बोहरा डॉ० देवेन्द्र कुमार जैन डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला नरेन्द्रप्रकाश जैन महेन्द्रकुमार 'मानव' रतनलाल कटारिया Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंड-१ : व्यक्तित्व और कृतित्व हेरुलखण्डके विजनौर जनपदकी जैन विभूतियाँ श्रेयांसकुमार शास्त्री मेरा जीवन-क्रम सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजी जीवनकी एक झलक : पंडित कैलाशचन्द्रजी सतीशकुमार जैन जैसा देखा : जैसा सुना श्रीकान्त गोयलीय पंडितजी : प्रवृत्तियाँ और विचारधारा सम्पादक पंडितजी और बुन्देलखंड डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी सम्पादकीय लेखोंकी विषयवार सूची (अ) शिक्षा, शिक्षार्थी, शिक्षक तथा शिक्षण-संस्थाएँ, परीक्षा और परीक्षा-पद्धति (ब) सामाजिक समस्याएँ और संस्थाएँ (स) शास्त्रीय और धार्मिक लेख (द) राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय (य) व्यक्तिविशेष (र) लोकप्रिय लेख (ल) शोधलेख पंडितजीकी कृतियाँ महत्त्वपूर्ण पुस्तकोंकी समीक्षा (अ) जैनधर्म डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर (ब) जैन साहित्यका इतिहास : एक समीक्षा डॉ० हरीन्द्रभूषण जैन (स) जैन न्याय : एक समीक्षा अन्यायी पंडित कैलाशचन्द्रजीका वंशवृक्ष पंडितजीका विद्यावृक्ष खंड-२ : धर्म और दर्शन कर्मशास्त्र : मनोविज्ञानकी भाषामें युवाचार्य महाप्रज्ञ सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी जैनपरम्परामें सन्त और उनकी साधना-पद्धति डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री तत्त्वार्थकी दिगम्बर-टीकाओंमें आगम तथा निर्ग्रन्थताकी चर्चा पं० दलसुख भाई मालवणिया समयसारके भाष्य आत्मख्यातिकी मद्रित प्रतियोंमें एक महत्त्वपूर्ण पाठमें एकरूपताकी आवश्यकता पं० माणिकचन्द्र चवरे संग्रहवृत्तिसे असंग्रहवृत्तिकी ओर अगरचन्द नाहटा विष्णुसहस्रनाम और जिनसहस्रनाम लक्ष्मीचन्द्र सरोज जैन साइकोलोजी डॉ० टी० जी० कालघाटगी १०२ १०६ ११२ ११२ ११३ ११७ १२३ १३५ १४० १४३ १४७ १५२ -१७ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहाँ तक आपका शासन और अधिकार : ( बोधकथा) नेमिचन्द पटोरया रत्नकरंड श्रावकाचार में प्रोषधोपवास चर्चा मोन महलकी परथम सीढी समकित वेफ्यूटेशन आव वेस्टर्न मेटीरियलिज्म ऑन दी बेसिस आव जैन फिलोसोफी उत्तम सत्य जैनधर्मका उद्गम क्षेत्र : मगध जैन आगम साहित्य भिक्षु पद्मपुराण और मानसके राम जैन धार्मिक साहित्य में उपमान और उपमेय पद्मानन्दका वैराग्यशतक रत्नाकरकी हंसकला चतुर्विंशतिसन्धानकाव्य विबुध श्रीधर एवं उनका पासणाहचरिउ जैन गीतिकाव्य में भक्ति - विवेचन पाणिनीय और शाकटायन व्याकरण : खंड-३ : साहित्य तुलनात्मक अध्ययन कन्ट्रीब्यूशन आव कर्नाट टू जैन लिटरेचर एण्ड कल्चर कन्नड एण्ड जैनागम साहित्य रतनचन्द्र कटारया नीरज जैन (अ) इतिहास जैन साहित्य संवर्धन में राष्ट्रकूटयुगका योगदान बिहार में जैनधर्म मध्यप्रदेश में जैनाचार्योंका विहार महिलायें : जैन संस्कृतिकी सेवामें चन्देरी अन्डर मालवा सुल्तान्स (ब) पुरातत्त्व भारतीय संस्कृतिके प्रतीकोंमें कमल और अश्व बुन्देलखण्ड में जैनधर्मके प्राचीनतम प्रतीक जैन प्रतिमाओं में सरस्वती, चक्रेश्वरी, पद्मावती और अम्बिका मुनि महेन्द्रकुमार द्वितीय डा० बी. एस. कुलकर्णी प्रो० कृष्णदत्त बाजपेयी प्राचार्य कुन्दनलाल जैन डॉ० राजाराम जैन प्रो० श्रीचन्द्र जैन डॉ० वागीशशास्त्री डॉ० के० कृष्णमूर्ति प्रो० एम. डी. वसन्तराज खंड ४ : इतिहास और पुरातत्त्व साध्वीजी कनकश्रीजी बी० जी० संडेसरा डॉ० लक्ष्मीनारायण दुबे डॉ० अमिताभ कुमार डॉ० प्रभुदयाल अग्निहोत्री जी० ब्रह्मप्पा डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन उपेन्द्र ठाकुर डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर पद्मश्री सुमतिबाई शहा एच. ए. निजामी श्रीमती सुधा अग्रवाल चन्द्रभूषण त्रिवेदी डॉ० कादम्बरी शर्मा - १८ - १५६ १५७ १६३ १७६ १८५ १९१ १९३ २०२ २०५ २०७ २१५ २२१ २२५ २२७ २३८ २५१ २५७ २६८ २७३ २८१ २८८ २९४ ३०४ ३१२ ३१९ ३२२ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ ३३५ ३४१ ३४५ ३४८ ३५२ ३६५ ३७५ ३८८ ४०० ४०२ ऊनके प्राचीन जैन मन्दिर राकेशदत्त द्विवेदी महोबाकी जैन प्रतिमायें शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी जैन वास्तु और मूर्तिकला पं० भुजबली शास्त्री राजस्थानकी पुरा-सम्पदाके खजाने प्राचीन जैन पांडुलिपियाँ विजयशंकर श्रीवास्तव पचराई और र डरके महत्त्वपूर्ण जैनलेख कु० ऊषा जैन विदेशी संग्रहालयोंमें महत्त्वपूर्ण जैनप्रतिमायें डॉ. ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा जैन वुड काविग्स व्ही० पी० द्विवेदी खंड-५ : जैनदर्शनकी वैज्ञानिक परम्परा रीयलिटी एण्ड फिजिक्स : सम एस्पेक्ट्स डी. एस. कोठारी स्पेस टाइम एण्ड द यूनिवर्स जी. आर. जैन प्रोपर्टी आव मैटर इन जैन कैनन्स एन. एल. जैन पुद्गल पत्रिंशिका : एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रेमलाल शर्मा, शक्तिधर जैन साहित्यमें संख्या तथा संकलनादिसूचक संकेत डॉ० मुकुटबिहारीलाल अग्रवाल ज्योतिष्करण्डक : एक अध्ययन डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर चिकित्सीय ज्योतिषके क्षेत्रमें जैन साहित्यका योगदान डॉ० ज्ञानचन्द्र जैन आचार्य महावीरकी रेखागणितीय उपपत्तियाँ स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती कन्सेप्ट आव मैटर इन अर्ली बुद्धिज्म डॉ० अंगराज चौधुरी मेटल्स एण्ड एलायज ड्यूरिंग ठक्कर फेरूज टाइम एन. एल. जैन स्टडीज इन जैन ऐस्ट्रोनोमी पोस्टवेदांग प्री-सिद्धान्तिक इण्डियन ऐस्ट्रोनोमी एस. एस. लिश्क : एस. डी. शर्मा ए. क्रिटिसिज्म अपॉन मोडर्न वीउज ऑफ आवर जी. सी. जैन जैनधर्म की कुछ भगोल-खगोली मान्यतायें और विज्ञान स्वामी सत्यभक्त खंड-६ : अनुसन्धानके वर्तमान क्षितिज जैनशोध : समस्या और समाधान डॉ. महेन्द्रसागर प्रचंडिया जैनविद्याओंमें शोधके क्षितिज : एक सर्वेक्षण रसायन और भौतिकी डॉ० नन्दलाल जैन जैनविद्याओंमें शोधके क्षितिज : एक सर्वेक्षण जीव-विज्ञान डॉ० कल्पना जैन वैशाली शोध संस्थानमें शोधके क्षितिज डॉ० लालचन्द्र जैन, शास्त्री महाकवि असग और उनकी कृतियाँ श्रीमती प्रतिभा जैन गुर्जरकवि सोमेश्वरदेव : एक परिचय श्रीमती सरला त्रिपाठी प्राकृत तथा अपभ्रंश शोधमें कार्यकी दिशाएँ डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री जैन कन्सप्शन ऑव लोजिक : सम कमेन्टस प्रो० एम. पी. मराठे जीव एण्ड अजीव प्रो० एस. एस. बालिगे ४११ ४१४ ४१७ ४२६ ४३४ ४३९ ४४६ ४५१ ४५७ ४५९ ४७५ ४८१ ४८७ ४९१ ४९८ ५०४ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०९ ५११ ५१६ ५२० ५२४ खंड-७ : विदेशोंमें जैनविद्याएँ जापान में प्रचलित येनमत और जैनधर्म पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री जर्मनीमें जैनधर्मके कुछ अध्येता डाँ० जगदीशचन्द्र जैन विदेशों में प्राकृत और जैन विद्याओंका अध्ययन डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन जैन स्टडीज़ इन फ्रान्स डॉ० कोले कैले जैन कन्सेप्ट आव दि सेक्रेड पद्मनाभ एस० जैनी जैनीज्म एण्ड मोडर्न साइन्स : ए कम्पेरेटिव स्टडी डॉ० दुलीचन्द्र जैन सम रिमार्क्स ऑन द प्रामाण्यवाद ऑव जैनीज्म आत्सुशी यूनो द टेल ऑव एलीफेन्ट ड्राइवर इन आवश्यक वर्जन एडेल्हीड मैटे ट्र डिफीनीशन्स ऑव अहिंसा डॉ० अन्ट्र टाहिटनेन उत्तराध्ययन स्टडीज़ : एन एडीशन एण्ड ट्रान्सलेशन आव फोर्थ अध्ययन विद ए मीटिकल एनेलिसिस एण्ड नोट्स के० आर० नोर्मन परिशिष्ट संजय पद जिनदास पार्श्वनाथ फड़कुले और गुलाबचन्द्र सखाराम गांधी ५३४ ५४२ ५४९ ५६ ५६४ ५७३ -२० Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वाद, अभिवादन व संस्मरण Blessings, Regards & Memoirs nuternational FForpoateaPersonal use only wwanjabalpress Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Prvale & Personal use only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन आचार्य समन्तभद्रजी महाराज, बाहुबला पंडित कैलाशचन्द्रजीको सवृद्धि, समाधिवृद्धि तथा स्वात्मोपलब्धि प्राप्त हो, ऐसा मंगल व शुभ आशीर्वाद । हम आपका सब तरह से कुशल चाहते | आपकी जिनवाणी सेवा अपूर्व है । आप जैसे यथार्थखोजी विरल हैं । आपकी सातिशय बुद्धिको मेरा आशीर्वाद । हम आपका परमकल्याण चाहते हैं । पूज्य १०८ आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री शतायु हों । विद्वानोंका सम्मान प्राणिमात्र करें, ऐसी हमारी कामना है । मिथ्यात्वकी तुलना में स्याद्वादवेत्ता का जगह-जगह सम्मान करना चाहिये । प प्रयत्नकी सफलता के लिये मेरा पूर्ण आशीर्वाद । आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज सम्मान शब्दों द्वारा नहीं होता । शब्दों से केवल प्रदर्शन ही होता है । तथापि आपके समान अच्छे कार्यके लिये मेरा आशीर्वाद । डॉ० यशोदेवसूरिजी पालीताणा शास्त्रीजी जैसे विद्वान्का अभिनन्दन समुचित है । स्नातकोंके लिये यही गुरुदक्षिणा है । ग्रन्थ सम्पादन तटस्थ दृष्टिसे एवं सुचारु ढंगसे होगा, ऐसी आशा है । शास्त्रीजी ज्ञानकी खूब प्रभावना करते रहें । धर्मलाभ | भट्टारक श्री चारुकीर्तिजी, मूडबिद्री, कर्नाटक बहुश्रुत मनीषी परमश्रुतसेवक विद्वद्वर्यका अभिनन्दन वस्तुतः परम स्तुत्य कार्य है । यह कार्य वस्तुतः बहुत पहले ही सम्पन्न हो जाना चाहिये था । मेरा इस कार्य में पूर्ण सहयोग रहेगा । महास्वामी भट्टारक लक्ष्मीसेनजी, कोल्हापुर, महाराष्ट्र पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्रीकी सेवायें ध्यान में रखकर आप ग्रन्थ निकाल रहे हैं । यह स्तुत्य है । इस कार्य के लिये हमारी शुभाशीर्वाद सहित शुभकामना है । सभी सहयोगियोंके लिये आशीर्वाद : इति भद्रं भूयात । - १ - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभीप्सा युवाचार्य महाप्रज्ञ मुनि श्री नथमलजी पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री एक व्यक्ति भी हैं और एक महाग्रन्थ भी हैं । उनके व्यक्तित्वस अनेक व्यक्तित्व निर्मित हुए हैं । उस महाग्रन्थसे अनेक लोगोंने तत्त्वबोध उपलब्ध किया है । ऐसे व्यक्तित्व का अभिनन्दन तत्त्वविद्याका अभिनन्दन है । इस प्रयत्नमें अभिनन्दन करनेवाले ही धन्यताका अनुभव करेंगे । यही सार्थकता है तत्त्वविद्याके अभिनन्दन की । पण्डितजीको मैंने प्रत्यक्षतः कई बार देखा है । किन्तु परोक्षत: बहुत बार देखा है । उनकी गुण ग्राहकता और समीक्षा शैली द्वारा मेरा ध्यान उनकी ओर आकर्षित हुआ था । आज भी उनके प्रति वह आकर्षण बना हुआ है । पण्डितजीने जैन शासनकी महत्त्वपूर्ण सेवाएं की हैं। भविष्य भी उनकी सेवाओंके प्रति अभीप्सावान् रहेगा । मार्गदर्शन So श्री कृष्णराज भंडारी, कुलपति, अ०प्र० सिं० विश्ववि०, रीवा मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि सिद्धान्ताचार्य पंडित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री अभिनन्दन समिति शास्त्रीजी के अभिनन्दन हेतु एक विशेष ग्रंथ प्रकाशित कर रही है । इस प्रयासके लिए मैं सभी संयोजकोंको बधाई देता हूँ और मेरी शुभकामना है कि यह प्रयास सफल हो । इस ग्रंथमें उनके व्यक्तित्व व कृतित्वपर तो लेख लिखे ही जा रहे हैं और उनके प्रिय विषयों, 'धर्म और दर्शन, इतिहास, संस्कृति और साहित्य, पुरातत्त्वके अतिरिक्त विज्ञानपर भी विशिष्ट सामग्री प्रकाशित की जा रही है । इसमें देश विदेश के विद्वानों व मनीषियोंके जो लेख सम्मिलित किए जा रहे हैं, वे निस्सन्देह उपयोगी हैं। मैं आशा करता हूँ कि यह ग्रन्थ न केवल विद्वत् समाज के लिए वरन् जन-साधारणके लिए भी उपयोगी सिद्ध होगा तथा शास्त्रीजी समाजको मार्गदर्शन करते रहेंगे । जिनके कण्ठ वसी जिनवाणी, आगम का है ज्ञान भरा । अमृत-सी प्रियध्वनि बिखेरते, शास्त्रों का है सार भरा ॥ :: :: अभिनन्दन है पूज्य आपका कोटि नमन स्वीकार करें । महावीर पंथ के अनुयायी बन, हम पापों का क्षार करें । निर्मल आज़ाद, जबलपुर - २ - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ यज्ज्ञानसिन्धोर्ज लविन्दवोऽत्र सर्वत्रलोके प्रसरन्त्यजस्रम् सोऽत्राभिवन्द्यो नितरां बुधेश कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः कमलकुमारो जैनः गोइल्ल, कलकत्ता २ निरन्तरज्ञानविवृद्धये यः कृतश्रमप्राप्तनिजात्म बोधः निरस्तचिन्तः स्वपरार्थसाधकः कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः ३ सहस्रशिष्याः प्रसरन्ति यस्य सर्वत्र देशे नगरोपनगरे ग्रामेषु गेहेषु वसन्ति नित्यम् कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः ४ स्याद्वादविद्याविदितात्मरूपः न्यायात्तनानाविधवस्तुरूपः सिद्धान्तवेत्ता स्वपरार्थचित्तः कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः ५ स्वस्यायुषो येन सुबोधवारिधेः संवर्धने प्राप्तमहोपयोगः साहित्यनिर्माणकृते निमग्नः कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः -3 ६ बुद्धिर्यदीया प्रतिभाति लोके लोकातिगा वस्तुविवेचने व वक्तृत्व साफल्यसमन्विता च कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः ७ योऽनिशं तत्त्वविमर्षणाय विदत्तचित्तः सुतरां सुबोधः शास्त्रेषु नानाविषयेषु दक्षः कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः ८ शान्तस्वभावो विनयावनम्रः सारल्यमूर्तिनिर्लुब्धवृत्तिः चारित्रनिष्ठो नितरां प्रतिष्ठः कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः ९ यत्पाठसरणी हृदयावधार्या व्याख्यानरीतिश्च मनोऽभिहार्या न्यायार्हनीतिश्चन रैर्निधार्या कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः १० सिद्धान्तशास्त्राणि बहूनि येन भाषार्थरूपेण कृतानि सम्यक् तत्त्वार्थजिज्ञासुकृते हितानि कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ १४ स्याद्वादसिद्धान्तसुबोधनाय तत्राप्यनेकान्तमहोदयाय यन्मानसं सत्यविबोधनेऽस्ति कैलाशचन्द्रो जयतात्सूधीन्द्रः दिगम्बरे जैनकुले सुजातः यो जातितोऽभून्ननु चाग्रवालः प्रशान्तमूर्तिः सरलस्वभावः कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः १२ बुद्धिर्यदीया प्रतिभाति लोके सर्वत्र सार्थेविषयेऽनुभूते वाण्याःपटुत्वं प्रतिवस्तुगामि कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः चरित्रनिष्ठो ह्यमितप्रतिष्ठः सज्ज्ञानलाभे विहितप्रयत्नः कृतादरो भव्यजनोपदेशे कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः मनीषिमान्यः प्रवरैः प्रमाण्यः धन्यो हि विज्ञानधनैः प्रधन्यः नान्योऽस्ति यत्तः सुकृतां वदान्यः कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः विद्योपजीवी सुतरान्त्वमेव करोषि शास्त्राध्ययनं सदैव तं नम्यते प्रेमभरेण मूर्धा कैलाशचन्द्रो जयतात्सुधीन्द्रः १७ कैलाशचन्द्रस्य यथार्थरूपाः प्रमोदभावेन निरुपिता च भूयात्प्रशस्तिः प्रशमाय चैषा बुधप्रियाणां वरमानवानाम् अन्तिमशुभाभिसन्धिः १८ भूयात्सदैषा शुभमार्गदृष्टिः कृतिर्जनानां हितमुत्सुकानाम् करोतु कृत्यं सुखसाधनार्थम् निर्बाधरूपेण सदाशया वै Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौतिक काया पर ओढ़ी चादर में रंच न झोल कल्याणकुमार जैन 'शशि', रामपुर, उ० प्र० आत्मोन्नति पथ का प्रतिपादन, आगम-सम्मत ध्येय जीवन की यात्रा के साथी, अपरिग्रह अस्तेय मूल्यों का आरक्षण, जिनके जीवन का पाथेय ऐसे पण्डित आज कहां हैं, निर्विवाद श्रद्धय मुक्त हस्त से वितरित है, विद्वत्ता का औदार्य, पण्डितवर कैलाशचन्द्र शास्त्री सिद्धान्ताचार्य । वाणी में खिरतो जिनवाणी, करती है कल्लोल धार्मिक सामाजिक सेवायें, एकत्रित अनमोल, भौतिक काया पर ओढ़ी चादर में रंच न झोल उतरी ठीक धर्म काँटे पर तत्परता की तौल युगों युगों तक शोधाश्रित हैं, मूल्यांकन के कार्य पण्डितवर कैलाशचन्द्र शास्त्री सिद्धान्ताचार्य ।। अनेकान्त की सरिताओं का कलकल मधुर निनाद, बोध-विद्धित क्षमताओं का सचित पुण्य प्रसाद गहित तर्काश्रित विवाद की रुचियों का अपवाद जो चरित्र को मूर्ति रूप दें, इतनी कुशल खराद विद्या वाणी, धर्मशास्त्र प्रतिपादन में प्राचार्य पण्डितवर कैलाशचन्द्र शास्त्री सिद्धान्ताचार्य । शूल भरे शिक्षा के पथ में जीवन हुआ व्यतीत जड़ा चला उज्ज्वल भविष्य से, भागा हुआ अतीत विजयकेतु है, स्याद्वाद-विद्यालय परम पुनीत विद्यमान है विद्याधारी, उपकृत गणनातीत वृद्धावस्था में भी जीवन पूर्णतया अनिवार्य पण्डितवर कैलाशचन्द्र शास्त्री सिद्धान्ताचार्य । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्भावना पद्मश्री सुमतिबाई शहा, शोलापुर पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री जीको हमारो शुभकामना। उनसे हमारा बहुत दिनोंसे गहरा सम्बन्ध है । आपने कई वर्षों से जैन विद्वानों की वर्तमान पीढ़ीका निर्माण किया। वे जैन आगम साहित्यके सम्पादन एवं निर्माण कार्यमें संलग्न रहे हैं तथा जैन विद्याओंके नये विद्वानोंको जागरणका संदेश दे रहे हैं। आपको दीर्घायु प्राप्त होवे, यही सद्भावना है। वन्दन, शत अभिनन्दन हजारीलाल काका, सकरार, झाँसी जिनके स्वागत को उत्सुक नर लेकर रोली चन्दन, पण्डित श्री कैलाशचन्द का वन्दन, शत अभिनन्दन जो भी लिखा अकाट्य, आपको चलो लेखनी निर्भय मनमें सेवा भाव, भावना में बसता सर्वोदय, तभी देशहित किया आपने, सत्साहित्य समर्पण, पण्डित श्री कैलाशचन्द का, वन्दन, शत अभिनन्दन x जैन जाति की सेवामें, जीवन सम्पूर्ण बिताया ज्ञान दान दे कई, पण्डितों का निर्माण कराया, इसीलिये पण्डित समूह भी करता इनका वन्दन, पण्डितश्री कैलाशचन्द का वन्दन, शत अभिनन्दन x जब तक चमक रहे हैं नभमें, सूरज चाँद सितारे, हरी भरी धरती के जब तक सागर पाँव पसारे, तब तक चमके कीर्ति आपकी, कहता है कवि का मन, पण्डित श्री कैलाशचन्द का, वन्दन, शत अभिनन्दन ॥ ६ - Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्त सरस्वतीपुत्र ब्र० जगन्मोहनलाल शास्त्री, कुंडलपुर पण्डित कैलाशचन्द्रजीका नाम आज जैन समाजके बच्चे-बच्चेकी जबान पर है। सभी उनसे परिचित हैं, भारतके कोने-कोनेमें उन्होंने धर्मप्रचार किया है। सैकड़ों प्रतिष्ठाओं, समाजों, सोसाइटियों, धर्मप्रचार संस्थाधिवेशनों व यूनिवर्सिटियों तथा सेमिनारोंमें उनके भाषण हुए। दशलाक्षणिक महापर्व, महावीर जयन्ती, अष्टान्हिक महापर्व, ऋषभ जयन्ती आदि उत्सवोंपर भी अनेक स्थानोंमें उनके गम्भीर ओजस्वी भाषण हुए हैं । उनके भाषणकी लोकप्रियताका यही प्रमाण है कि उनकी सभामें लोग शांतिपूर्वक मौनसे सुनते हैं । वे अनेकों महनीय ग्रन्थोंके अनुवादक तथा अनेकोंकी भमिकाओंके लेखक हैं । जैन सन्देशके सम्पादक आप वर्षों से हैं, अन्य दिगम्बर, श्वेताम्बर पत्रिकाओंमें उनसे विविध विषयों पर सामयिक उद्बोधक लेखोंने भी उनकी प्रतिष्ठा में बहत बड़ा योगदान किया है। वे एक समाजशास्त्री, समाजकी नाड़ी पहिचाननेवाले, निर्भीक लेखक तथा वक्ता हैं। वर्तमान सामाजिक विवादके बीच वे निष्पक्ष लेखनी द्वारा यथार्थ मार्गका दर्शन समाजको कराते हैं । वर्तमानके विचारजन्य संघर्ष में उनके लेख मार्गदर्शक होते हैं। विस्तृत समुद्रकी विशाल जलराशिके अन्धकारमें प्रकाशस्तम्भकी तरह वे दिशा बाँध देते हैं । उनका विरोध करनेवाले कुछ विद्वज्जन भी हैं, तथापि वे उनके द्वारा फैलाये गये अपने मिथ्या अपवादोंकी चिन्ता न कर मार्गमें अविचलित रहकर अपनी आगम श्रद्धाका व आगम ज्ञानका परिचय सदा अपनी लेखनी द्वारा देते रहते हैं। उनको इस निष्पक्ष लेखनीके कारण अकारण ही कुछ विरोधी विद्वानोंने उनपर सोनगढ़ द्वारा सहायता प्राप्त करनेके मिथ्या आक्षेप किये, और ऐसा कर उन्होंने अपनी निम्न मनोवृत्तिका परिचय दिया। मेरा छात्रकालसे ही पंडितजीसे सहयोग तथा परिचय है । अतः मैं जानता हूँ कि वे सोनगढ़की यथार्थ बातोंके समर्थक हैं तथा गलत बातोंके आलोचक भी हैं। आज तक सोनगढ़ तो क्या, समाजके किसी नगरसे उन्होंने भेंट भी नहीं ली, जो लिया वह काशी विद्यालय के लिये ही लिया जो कि विद्यालयमें जमा है । स्याद्वाद जैन महाविद्यालयकी ५० वर्ष उन्होंने सेवा की तथा सहस्रों विद्वान् तैयार किए । प्रकारान्तरसे इस ५० वर्षके युगमें उत्पन्न काशीके श्रेष्ठतम विद्वान उनकी सेवाके फल है। भा०दि० जनसंघ मथुराका जीवनकाल तो उनकी सेवासे भरा है। जैन संदेशका समस्त जीवन उनकी दिव्यदृष्टिसे खड़ा है। वर्णी ग्रन्थमालाके वे आदिसे कर्मठ सदस्य हैं तथा उससे प्रकाशित अनेक ग्रन्थोंके लेखक व सम्पादक हैं । जयधवलाके सफल टीकाकार है जो अनेक भागों तक चली है। 'जैन धर्म' उनकी अनुपम कृति है जो जैन-जनेतरोंको जैनधर्मका परिज्ञान कराने में सक्षम है।। - आज ३०-३५ वर्षसे इनकी पत्नी मस्तिष्ककी एक खराबीसे रुग्ण हैं। अपने पुत्रके पास राँची रहती हैं । पण्डितजी ब्रह्मचर्यपूर्वक अपना जीवन सरस्वती माँकी सेवामें लगाये हुए हैं। स्याद्वाद विद्यालयके छात्रावासमें ही वे अपना भोजन खर्च नियमित चुकाकर छात्रोंके भोजनके बाद बचा हुआ भोजन करते हैं । बाजारका कुछ खाते नहीं । ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन और अस्वादवत इनके इतने उत्कृष्ट हैं कि इन्हें गृहवासी सन्त कहा जा सकता है। अपने इस नीरस जीवनको इन्होंने कभी नीरस नहीं माना, सरस ही बनाए रक्खा । सरस्वती सेवाका रसास्वाद ही इनका उत्कृष्ट भोजन रहा है। वे ज्ञान सरोवर में ही सदा रमण करते हैं। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके ऐसे उत्कृष्ट जीवनके प्रति मेरी आस्था है। मैं उनका अभिनन्दन करता है तथा उनके दीर्घ जीवनकी कामना करता हूँ। सहपाठी के प्रति विद्याभूषण के० भुजबली शास्त्री श्री शास्त्रीजी मेरे सहपाठी हैं। हम दोनों मोरेनामें साथ-साथ पढ़े थे। सिद्धान्ताचार्य उपाधि भी आरामें विहारके राज्यपालके हस्तसे एक साथ मिली थी। आपसमें हम लोगों में अच्छी मित्रता भी है। शास्त्रीजीकी बहुमूल्य तीन कृतियोंका मैंने कन्नड़ भाषामें अनुवाद भी किया। शास्त्रीजी अनेक विषयोंके अधिकारी विद्वान् हैं। शास्त्रीजी अनेक अमूल्य ग्रन्थोंके लेखक, अनुवादक एवं सम्पादक हैं। खासकर जैन समाज शास्त्रीजीको कभी नहीं भूल सकता। आपकी सेवा बहुमूल्य है। मेरी हार्दिक शुभकामना है कि शास्त्रीजी शतायु होकर इतोप्यधिक धर्म, साहित्य और समाजकी सेवा कर अपने जन्मको सार्थक एवं पवित्र बनावें। भैया कैलाशचन्द्र भाई श्री हरिश्चन्द्र, जबलपुर प्रथम विश्वयुद्धके वर्ष १९१४ में मेरे पिताजी श्री सिं० लक्ष्मीचन्द्रजीने मुझे स्याद्वाद महाविद्यालय भदैनी, वाराणसीमें अध्ययन हेतु प्रविष्ट कराया। उस समय विद्यालयमें ७७ विद्यार्थी थे। वहाँ धर्म, न्याय. साहित्य, व्याकरण तथा अंग्रेजीका अध्यापन होता था और पण्डित उमरावसिंहजी ( बाद में व ज्ञानानन्दजी) हमारे प्रधानाध्यापक थे। मेरे साथ भाई कैलाशचन्द्रजी, नहटौर, पं० राजेन्द्र कुमारजी, कासगंज तथा अन्य बारह विद्यार्थी प्रथमामें पढ़ते थे। मुझे पं० सुब्रह्मण्यं शास्त्री, पं० अंबादत्त शास्त्री ( न्याय ), पं० घुन्दराज शास्त्री ( साहित्य ) तथा पं० उमरावसिंहजी (धर्म ) पढ़ाते थे। उस समय बाबू सूमतिलालजी मन्त्री तथा पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी अधिष्ठाता थे। इन सभीका मेरे ऊपर विशेष स्नेह था। वे हम सभी का पितृवत् पालन करते थे । हम सभी साथियोंमें भाई कैलाशचन्द्रजीकी बुद्धि अत्यन्त प्रखर थी। यही कारण है कि वे १९१९ में प्रथमा परीक्षामें प्रथमश्रेणीमें उत्तीर्ण हए थे। उस समय मेरे साथ पढ़नेवालोंमें पं० चैनसुखदासजी (जयपुर), जीवन्धरजी न्यायतीर्थ तथा मन्नालाल रांधेलीय, सागर भी थे। -८ - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१९ के बाद मैं मुरैनाके विद्यालयमें चला आया लेकिन मेरा और कैलाशचन्द्र जी का भ्रातभाव अबतक भी सहोदर जैसा बना हआ है। आज भी, जब कभी वे बम्बई, भोपाल या दक्षिणकी ओर जाते हैं, तो कुछ समयके लिए जबलपुर अवश्य ठहरते हैं । उस समय हम तत्त्वज्ञानकी चर्चा करते हैं । इस वय-बोझिल तनसे आज भी वे अपने अध्ययन, लेखन एवं शोधकार्य में लगे हुए हैं। वे समाजसे स्वयं कोई पारिश्रमिक ग्रहण नहीं करते। यह उनकी ज्ञानके प्रति सच्ची निष्ठा, समाजके प्रति उदारतापूर्ण कर्तव्यभावनाका प्रतीक है। अपने जीवनकालमें उन्होंने अनेक धर्मग्रन्थोंका सम्पादन, मौलिक ग्रन्थोंका लेखन एवं शोध कार्य किया है। उनके लेखनकी विशेषता यह है कि वे मूल ग्रन्थकी मौलिकता अक्षुण्ण रखते हैं । लेखनके साथ आपने अनेक संस्थाओंको जन्म दिया है। इन्हें वे आज भी पुष्पित एवं पल्लवित कर रहे हैं। कैलाशचन्द्र जी की वाणीमें प्रखरता तथा माधर्यका मिश्रण है। उनकी पाण्डित्य शैली सहज बौधग य होती है। उनका ज्ञान अगाध है। जबलपुर नगरीमें ही आज ३२ विद्वान् उनके शिष्य हैं जो विभिन्न क्षेत्रोंमें अपने साथ आपकी यशोगाथा भी प्रद्योतित कर रहे हैं। पं० कैलाशचन्द्रजीकी आत्मीयता मझे सदैव याद आती है। यद्यपि हमारा और उनका कार्यक्षेत्र प्रारम्भसे ही पथक-पृथक रहा है, फिर भी वह आज तक बनी हुई है। एक बार १९४८ में मुझे संग्रहणी हो गया और मैं चिकित्साहेतु वाराणसी गया। उस समय आपने मुझे अपने घर पर ही ठहराया और पूर्ण स्वस्थ होने तक आपके परिवारने मेरी सभी प्रकारसे सेवा की । वह आज भी स्मरणमें आती है। ऐसी आत्मीयता आज तो दुर्लभ ही है । ____ ज्ञान गंगाका यह भगीरथ चिरायु हो, यही मेरो जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना है । भूली-बिसरी यादें डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, बम्बई "जगदीश चन्द्र जी", यह आवाज सुनकर मैंने घूमकर देखा, तो श्वेत गांधी टोपीमें धोती-कुर्ता पहने पण्डितजी बैठे हए दिखाई दिये। मैंने कहा, 'पण्डित जी आप?' "हाँ, घर लौट कर आने पर दरवाजे पर लगा हआ आपका नोट देखा, तो पूछता-पूछता मैं कृष्णचन्द्र बेरी जी की दुकान पर पहँचा और उन्होंने अपनी गाड़ी में मुझे यहाँ भेज दिया ।" "आपको बड़ा कष्ट हुआ, पण्डित जी ?' "आप मेरी अनुपस्थितिमें मेरे घर गये और घर पर मिल न सका। आपसे बिना मिले रह जाता, तो आपको कष्ट होता। कष्ट तो किसीको होना ही था।" मैंने अपने गाँवके निवासी अपने भतीजे गणभषण जैन से, जो उत्तर पूर्वी रेलवेमें इन्जीनियर हैं और जिनके घर हम लोग ठहरे हए थे, पण्डित जी का परिचय कराया। काशी एक्सप्रेसके छूटनेका समय हो रहा था। हम लोग गाडीमें सवार होकर स्टेशनके लिये चल दिये । रास्ते में मेरी पत्नीने पण्डित जी की लडकीके बारेमें पूछा जो बहत दिन पहले बम्बई आई थी। उन्होंने कहा, "अब तो बड़ी हो गई है, उसकी शादी भी हो गई।" उस समयकी एक घटना मुझे याद आ गई। उस दिनों मेरी पत्नी की अस्वस्थताके कारण हम लोगोंने भोजन बनानेके लिये एक गुजराती रसोइयाँ रक्खा था। पण्डित जी सपरिवार हमारे घर ठहरे हुए थे। उनकी छोटी बच्चीको पीनेके लिये दूध दिया गया। पण्डित जी ने रसोइयेसे दूधमें मीठा डाल देनेको कहा । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह हैरान हुआ कि उसे दूधमें मीठा (गुजराती में मीठा यानी नमक) डालनेको क्यों कहा जा रहा है। पहले तो वह चुप रहा, लेकिन आग्रह किये जाने पर उसने एक चम्मच भरकर दूधमें मीठा डाल दिया । बच्चीने दूध पीनेसे इन्कार कर दिया। दूध न पीनेकी जिद देख कर उसकी माँ को बहुत बुरा लगा । उन्होंने अपनी बच्चीको बहुत डराया धमकाया, लेकिन कोई असर न हुआ। मामला संगीन होता ही जा रहा था। हम लोग बीच-बचाव करने चले । रसोइये से पूछा गया । उसने जवाब दिया, "साहब, इन्होंने दूधमें मीठा डालनेको कहा था, सो मैंने डाल दिया ।" यह घटना सुनकर पण्डित जीके चेहरे पर हर्षकी रेखा फूट पड़ी और आनत्यकी एक हंसी चारों ओर बिखरती हुई दिखाई दो एक दूसरा प्रसंग याद आ गया । दिवालीका दिन था । पण्डित जी तथा स्याद्वाद विद्यालयके विद्यार्थी भदैनीके छेदीलाल मंदिरमें उपस्थित थे। भगवान्‌की प्रतिमाका अभिषेक सम्पन्न होनेके पश्चात् पूजाकी सामग्री पालमें सजायी जा चुकी थी, पूजा पढ़ी जा रही थी। इस बीच देखा कि पण्डित जीका लड़का सुपार्श्व वहाँसे गायब है । इधर-उधर खोज की जाने लगी । देखा, तो वे एक कोने में बैठे आरामसे लड्डूका स्वाद ले रहे हैं। "कहिये इसे लड्डुका सदुपयोग कहा जाये या दुरुपयोग ।" 1 इस प्रसंग को याद कर हम लोग खूब हँसे । X X X मेरे जेष्ठ भ्राता की इच्छा थी कि मैं संस्कृत पढ़कर समाजकी कुछ सेवा करूँ। उन्हें पता लगा कि मोरेनामें पण्डित गोपालदास जी बरैयाकी कोई पाठशाला है जहाँ विद्यार्थियोंको निःशुल्क शिक्षा आदि देने की व्यवस्था है । मुझे साथ लेकर वे मोरेना पहुँचे और यद्यपि वार्षिक परीक्षाके दिन नजदीक थे, फिर भी पण्डित देवकीनन्दन जी शास्त्रीकी परम अनुकम्पासे मुझे प्रवेश मिल गया । यहाँ कैलाशचन्द्र जीसे मेरा दूरका प्रथम परिचय हुआ। वे बड़ी कक्षाके विद्यार्थी थे और मैं ठहा एक साधारण-सा विद्यार्थी जो अभी-अभी जैन सिद्धान्त पाठशाला में भरती हुआ था ऐसी हालत में अपनी सीमाओंको लांघकर उनके परिचयमें आनेकी कल्पना भी मैं नहीं कर सकता था । यहाँ जो कैलाशचन्द्रजी और जगन्मोहनलालजीका निकटका सम्बन्ध देखने में आया, वह अन्यत्र दुर्लभ ही होगा । और विशेषता यह है कि यह सम्बन्ध दोनोंमें अभी तक सुरक्षित है । दोनों ऊँची कक्षाके प्रमुख विद्यार्थी थे । वे न्यायाचार्य पण्डित माणिकचन्द्रजी से अष्टसहस्री, सिद्धांताचार्य पण्डित वंशीधरजीसे तत्त्वार्थवार्तिक पढ़ते थे । दोनों पाठशालाके जेष्ठ विद्यार्थियोंके साथ एक बड़े हालमें साथ साथ रहते थे। दोनों एक साथ जंगलमें शौच जाते, साथ स्नान करते और साथ ही मन्दिर में दर्शनार्थ जाते, शामको एक साथ टहलने जाते और गांवसे एक लोटेमें दूध लेकर लौटते इन दोनोंकी मित्रतासे सचमुच में प्रभावित हुआ जान पड़ा। सम्भवतः कैलाशचन्द्र जीके प्रति मेरे अज्ञात मनमें इसलिये भी रागभाव रहा हो कि वे मेरे जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेशके अग्रवाल वंशमें जन्मे थे । । एक बार मैं नजीबाबाद (जिला बिजनौर) में अपने मामाके घर गरमियोंकी छुट्टियां बिता रहा था। एक दिन मामाके किसी मित्रको दुकान पर बैठा हुआ था । इतने में देखता क्या हूँ कि कैलाशचन्द्र और जगन्मोहनलाल घोड़े के लॉंगमें बैठे हुए उस दुकानके सामने आकर रुके। मैं समझ गया कि अवश्य ही कैलाशचन्द्र जीने अपने मित्रको जन्मस्थान नहटौर आनेका निमंत्रण दिया होगा। लेकिन क्या आप समझते हैं कि तपाक से उठकर मैंने उनका स्वागत किया, या यह कहनेकी हिम्मत की कि देखिये मैं भी यहींका रहने वाला हूँ नहीं, मुझ जैसा एक छोटा सा अल्पश विद्यार्थी अपने से बड़े विद्यार्थियोंसे बातचीत करनेकी हिमाकत कैसे कर सकता था ? यद्यपि कहनेकी आवश्यकता नहीं कि यह प्रश्न आज भी मेरे मनमें कम तूफान पैदा नहीं करता - १० - Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि आखिर उनके सामने मेरा मुह क्यों नहीं खुला ? बोलना नहीं था, तो कमसे कम सामने आकर अभिवादन तो किया जा सकता था । राजेन्द्रकुमार, मथुरादास, बनवारीलाल आदि और भी अनेक विद्यार्थी जैनसिद्धांत पाठशाला में पढ़ते थे । परवार जातिके छात्रोंकी संख्या अधिक थी । दक्षिणी विद्यार्थियों में के० भुजवली जीका नामोल्लेख किया जा सकता है जिन्होंने आरामें रहकर शोधकार्य किया है और आजकल मूढविद्री में रिटायर्ड जीवन बिता रहे हैं । दक्षिणवासी शाकाहाल उन दिनों पाठशालाके सुपरिन्टेन्डेन्ट पद पर कार्य करते थे। एक दिन वे अध्ययन कक्ष में किसी से बातचीत कर रहे थे कि इतने में मैं वहाँ पहुँच गया। उन्होंने मेरी भर्त्सना करते हुए चहाँसे तुरन्त चले जानेका आदेश दिया। मैंने जानेसे इंकार कर दिया। बस, इतनेमें वे अपने कमरेमें से उठकर अपनी पैंत लाये और मुझे ऐसे जोरसे लगाई कि मेरे सिरमेंसे सूनकी धारा बह निकली। अस्पतालमें जाकर टाँके लगवाने पड़े । हस्तिनापुर के जैन गुरुकुलकी भाँति मोरेना की जैन सिद्धान्त पाठशाला की स्थिति भी दिनोंदिन बिगड़ती गई । पण्डित माणिकचन्द्रजी पण्डित देवकीनन्दनजी और आगे चलकर पण्डित बंशीधरजी भी संस्था छोड़कर चले गये और वरैयाजी द्वारा अत्यन्त लगनके साथ स्थापित की हुई यह संस्था अनाथ हो गई । X X X अब काशीका स्याद्वाद विद्यालय ही ऐसा बचा था जहाँ निःशुल्क शिक्षा प्राप्त कर उच्च विद्याध्ययन किया जा सकता था । लेकिन काशी मेरे घरसे दूर जगह थी । काशीके बारेमें बहुत-सी बातें सुन रक्खी थीं, वहाँके पण्डे बहुत हैरान करते हैं, वहांकी गलियाँ बहुत टेढ़ी-मेढ़ी हैं कि एक बार प्रवेश करने पर आदमीका पता ही नहीं चलता कि किधर गया और वहाँ जादूगर रहते हैं ओ इन्सानको तोता बनाकर छोड़ देते हैं। गाँवके रहनेवाले १६-१७ वर्षके एक अबोध बालकके मनपर इस प्रकारकी बातोंका असर होना स्वाभाविक था। फिर सबसे बड़ी समस्या थी कि इतने बड़े विद्यालय में बिना सिफारिशके प्रवेश कैसे पाया जाये ? ऐसे मौकों पर मेरे जेष्ठ भ्राताने अपनी आशुबुद्धि और कर्मठताका परिचय देकर हमेशा मुझे आगे बढ़ाया है। सहारनपुर के लालाओंसे उनका परिचय था। मुझे लेकर वे सहारनपुर पहुँचे । पता लगा कि स्याद्वाद विद्यालय के अधिष्ठाता बाबू सुमतिलाल जी उन दिनों लाला जम्बूप्रसाद जी की कोठीमें रहते थे। जम्बू प्रसादजी बड़े उदार मना धार्मिक विचारोंके व्यक्ति थे जो यथाशक्ति किसीको अपने दरवाजेसे निराश नहीं जाने देते थे। भाई साहबने विनम्रभावसे मेरे प्रवेश पाने की समस्या उनके समक्ष प्रस्तुत की। उन्होंने फौरन हो बाबू सुमतिलालजीको बुलाकर उनसे मुझे एक पत्र स्वाहाद विद्यालयके सुपरिटेन्डेन्टके नाम भिजवा दिया और बिना फार्म आदि भरे मेरा प्रवेश पक्का हो गया । काशी अनन्त सम्भावनाओं का द्वार सिद्ध हुआ । विद्यालयसे सटकर बहनेवाली गंगा बड़ी प्रेरणादायक सिद्ध हुई । विद्यालय के एक जेठे विद्यार्थीको पावभर अंगूरोंकी दत्रिणा देकर मैंने उसे अपना गुरु बनाया और गुरुजीने मुझे बहुत जल्दी तैरना सिखा दिया। गर्मी के दिनोंमें पड़ीकी सुईकी ओर नजर रहती और चारकी टनटन होते ही अपना लंगोट उठाकर गंगा किनारे पहुँच जाते । विद्यार्थियोंके लिए यहाँ कितने सदावरत खुले थे जहाँ मुफ्त में भरपेट भोजन कर विद्याभ्यास करनेकी सुविधा थी । एक धोती और शरीरके ऊपरी हिस्सेको ढँकनेके लिए एक बनारसी अंगोछा - यही उनका परिधान था । विद्यार्थी धाराप्रवाह संस्कृत में बातचीत करते और अवकाशके दिनोंमें दुर्गाकुण्ड आदि स्थानोंपर होनेवाले शास्त्रार्थो में जूझते दिखाई पड़ते । कहनेकी आवश्यकता नहीं कि इन सब अभिनव परिस्थितियोंने मुझे पर्याप्तरूपसे अभिभूत किया । - ११ - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगरके संस्कृत विद्यालयोंमें स्याद्वाद विद्यालय अपना एक स्थान रखता था । यहाँ काशीके सुप्रसिद्ध और नैयायिक पण्डित अंबादासजी शास्त्री, न्याय और साहित्याचार्य पण्डित मुकुन्दजी शास्त्री काव्य और साहित्यका अध्यापन करते थे। पण्डित हीरालालजी शास्त्री और बादमें पण्डित फूलचन्दजी शास्त्री धर्माध्यापकके पदपर प्रतिष्ठित थे। कुछ समय बाद पण्डित कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीकी धर्माध्यापकके पदपर निय क्ति हई । मेरे हर्षका ठिकाना न था। जो व्यक्ति मोरेनामें मेरे साथ उच्च कक्षाका एक विद्यार्थी रह चुका है और जिसे मैं अपने अन्तर्मनमें आदर्शरूप मानकर चलता आया था, वह मेरा धर्मदीक्षक होगा, यह विचार कुछ कम कौतूहलजनक न था। पण्डित कैलाशचन्द्रजीसे मुझे गोम्मटसार, तत्त्वार्थराजवातिक आदि ग्रन्थोंके अध्ययन करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैंने पाया कि वे अपने विषयके प्रकाण्ड पण्डित हैं, अध्यापन निर्वाधगतिसे आगे बढ़ता जाता है । अध्यापन भी एक कला है । और यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि अध्यापनकी कलामें वे श्रोताको प्रभावित किये बिना नहीं छोड़ते । अध्यापक होनेके साथ सहृदयता भी उनमें कूट-कूट भरी है। वस्तुतः सहृदय व्यक्ति ही एक सफल अध्यापक बनने योग्य होता है। धीरे-धीरे मैं संस्कृत विद्यासे अंग्रेजी विद्याकी ओर उन्मख होता गया। मैट्रिक पास करके बनारस विश्वविद्यालयमें फर्स्ट इयर साइंसमें नाम लिखा लिया। धीरे-धीरे वहाँके होस्टलमें रहने लगा । यद्यपि पण्डित कैलाशचन्द्रजीका सम्पर्क कम हो गया था, फिर भी उनसे प्राप्त होनेवाली प्रेरणामें कमो न आई । जब कभी कालेजकी फीस भरनेके लिए अथवा होस्टलमे भोजनका खर्चा चुकानेके लिए पैसेकी जरूरत होती, तो पण्डितजी मुटी बाँधे खड़े दिखाई देते । सोचता हूँ यदि इस उदारमना व्यक्तिकी छत्रछाया मुझपर न होती, तो क्या मैं विश्वविद्यालय की अपनी पढ़ाई कर पाता । X १९३२ में बनारस छोड़नेके बाद पण्डितजी का सम्पर्क और घटा, फिर भी बीच-बीचमें उनके स्नेह और ममताके पत्र तो मिलते ही रहे। कितने ही अवसर ऐसे आते, जब वे अंग्रेजी पत्रिकाओंमें प्रकाशित शोध सम्बन्धी लेख मेरे पास भेजकर अपने उपयोगके लिए, उनका अंग्रेजीमें भाषान्तर कराते । इस श्रमका पारिश्रमिक भिजवानेमें वे कभी न चूकते । मेरे बम्बई चले आने पर तो पत्राचार भी शिथिल पड़ गया। बीच-बीच में कभी मेरा बनारस आना होता या उनका बम्बई आना होता, तो दर्शन-स्पर्शन हो जाता । लेकिन क्या कभी इतनी बड़ी भूख एकाध ग्राससे शान्त हो सकती थी ? पिछले दिनों, जर्मनीसे लौटने पर गयामें होनेवाली एक जैन संगोष्ठी में पण्डितजी भी सम्मिलित हुए थे और मैं मी । वर्षोंके अन्तरालके बाद उनसे मिलकर बड़ा हर्ष हुआ। वही सादा लिवास, वही चाल ढाल, बोलचाल और मुस्कराता हुआ खिला चेहरा। मैंने कहा, 'पण्डितजी आप तो तीस वर्षीय युवक जान पड़ते हैं। थोड़ा भी परिवर्तन आपमें मालम नहीं होता। ऐसी कौन-सी सदाबहार बूटीका आप सेवन करते हैं, कुछ हमें भी तो बताइये ।' यह सुनकर पण्डितजीके मुँहसे एक स्वाभाविक हँसी छूट पड़ी। जब-जब पण्डित कैलाशचन्द्रजीसे मिलनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है, उनके अलौकिक व्यक्तित्वसे मैं प्रभावित हुआ हूँ। पण्डित होकर भी स्वाभिमानका जीवन उन्होंने जिया है जिससे कभी दूसरोंकी दया पर जीनेका अवसर उन्होंने नहीं आने दिया। ७७ वर्षकी अवस्थामें पदार्पण करने पर भी वे एक सुकुमार -१२ - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजकुमार जैसे प्रतीत होते हैं । सक्रियता एवं उत्साहसे भरपूर । राँचीमें हर प्रकारकी सुख-सुविधा होनेपर भी वे अपने सुपुत्रके साथ इसलिए रहना पसन्द नहीं करते थे कि गंगाजलसे पूत काशी नगरीकी प्रेरणादायक सक्रियता वहाँ नहीं है। इस योगी पुरुषने भदैनी घाटपर आसन जमाकर जो बरसों तक धूनी रमाई है, उससे विलग कैसे हुआ जा सकता है ? . हमारा सौभाग्य है कि ऐसी निस्पृह आत्मा हमारे बीच मौजूद है । हम उनके शान्तिपूर्ण दीर्घ जीवन की कामना करते हैं । उनके चरणोंमें विनम्र शतशः प्रणाम । गवेषक पंडितजी ___ डॉ० प्रभाकर नारायण कवठेकर, कुलपति, उज्जैन वि० वि० भारतीय साहित्य और संस्कृतिके क्षेत्रमें अनेक विद्वानोंने अपने शोधपूर्ण लेखों तथा ग्रन्थोंके द्वारा महती सेवा की। उनमें वाराणसीके पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीका नाम उल्लेखनीय है। प्रारी भक दिनों में भारत विद्याकी किसी भी शाखामें कार्य करते समय संस्कृतिके कतिपय ग्रन्थोंका ही आधार दिया जाता था किन्तु बादमें यह परिस्थिति नहीं रही। भारत विद्याका क्षेत्र दिनोंदिन व्यापक होता गया। एक ओर जहाँ बौद्ध साहित्यका विश्लेषण होने लगा, वहीं दूसरी ओर जैन आगम ग्रन्थों तथा विभिन्न प्रकारके साहित्य पर गवेषणा होने लगी। इसका परिणाम यह हुआ कि जैन साहित्यका भी अध्ययन व्यापक दृष्टिसे विद्वानों द्वारा होने लगा। मेरी मान्यता है कि जैन साहित्यमें आज भी शोधकार्यके लिए प्रचर सामग्री है। साहित्यकी विभिन्न विधाओंमें जैन साहित्यकारोंका अपना योगदान रहा है। साहित्यको हो लीलिए, मैं समझता हूँ कि धार्मिक कथाओंके साथ-साथ लौकिक कथाओंका भी उपयोग जैन साहित्यमें दिखाई देता है । जैन साहित्य लोक साहित्यसे जुड़ा हुआ रहा है। लोक साहित्यकी मार्मिकता जैन साहित्यके अन्तर्गत समाविष्ट कथाओंमें मिलती है। मैं समझता हूँ कि पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री जैसे विद्वानोंका इस दिशामें किया हुआ कार्य महत्त्वपूर्ण है । मैं भगवान् महावीरसे प्रार्थना करता हूँ कि वह पण्डितजीको दीर्घायु प्रदान करें। व्यक्ति नहीं, संस्था डॉ. प्रभुदयाल अग्निहोत्रो, भोपाल पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री व्यक्ति नही, संस्था है। वे प्राचीन भारतीय परम्पराके कुलगुरु हैं। उन्होंने दो पीढ़ियोंका प्रत्यक्ष निर्माण किया है और अनेक भावी पीढ़ियोंके नैतिक एवं आत्मिक स्तरको ऊँचा उठानेके लिये विपुल साहित्यकी सृष्टि कर निःसंगभावसे उसे समाजको सौंप दिया है। इस पद्धतिके प्राचार्य अब विरल होते जा रहे हैं। ऐसे बहश्रत, बहुशः तपःपूत मनीषियोंका जितना अभिनन्दन होगा, समाज उतना ही ऊपर उठता जायगा । मैं पण्डितजीके शताधिक जीवनकी कामना करता हूँ। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मनिष्ठ पण्डितजी दलसुख मालवणिया, अहमदाबाद पं० कैलाशचन्द्रजीसे मेरा परिचय दीर्घकालीन है। इस लम्बे कालमें मेरा आदर उनके प्रति उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया है । मैं उनके सौजन्यका यही लक्षण मानता हूँ । मतभेद होते हुए भी हमारे बीच कभी मनोभेद नहीं हुआ। सादा जीवन, नियमित जीवन, कर्तव्यपरायण जीवन, जीवनकी एकरूपता देखना हो, तो पं० कैलाशचन्द्रजीका जीवन देखना चाहिये । जबसे उनका परिचय हुआ है, मैंने उनमें यही पाया है। वे लेखन और प्रवचनमें स्थिर, गम्भीर और व्यवस्थित हैं। उतार-चढ़ावके बिना एक धारासे तर्कपूर्ण लेखन और प्रवचन उनके होते हैं। यही उनकी विद्वत्ताकी निशानी है। पण्डितजीने जिस विषयको भी लिया, उसकी पूरी जानकारी प्राप्त करके हो उसके विषयमें बोला या लिखा । आधुनिक विद्वानोंमें दिगम्बर मान्यताको लेकर लिखनेवाले कई हैं, किन्तु जिस सौम्यभावनासे पण्डितजीकी तर्कपूर्ण लेखनी चलती है, वह उनकी ही अपनी शैली है। उसकी नकल करना अन्यके लिये सम्भव नहीं । अनेक ग्रन्थोंका सम्पादन-अनुवादन पण्डितजीने किया है। यह तभी सम्भव हआ है जबकि उनमें एक निष्ठा है। जब भी उनसे मिलने जायें, तब वे कुछ न कुछ लिखने में ही व्यस्त देखे गये । स्याद्वाद महाविद्यालय और पंडित कैलाशचन्द्रजी एक और अभिन्न ही देखे गये । मानों वे महाविद्यालयके लिये ही जीते हों । संस्थाके प्रति ऐसी कर्तव्यनिष्ठा अन्यत्र दुभ है। सांसारिक जीवन उनका सुखमय इसलिये बना कि उन्होंने जैसी परिस्थिति हई, उसमें जीना सीखा। ऐसा जीना वही जी सकता है जिसमें धर्मनिष्ठा और कर्तव्यनिष्ठा पराकाष्ठामें हो । उनका संसार महाविद्यालय और साहित्य साधना ही है। उसी साधनाका साधन गहस्थी है, ऐसा उनके जीवनका निरीक्षण करनेसे निश्चय होता है । पंडितजीका घरेलू जीवन है, यह नहीं कहा जा सकता और यदि है तो स्याद्वाद विद्यालय और साहित्यिक साधना यही है, ऐसा मैंने दीर्घकालके उनके सम्पर्कसे पाया है। वर्षोंसे नियमित रूपसे 'जैन सन्देश' में सम्पादकीय उनका होता है। जैन संदेशके द्वारा उन्होंने अपने विचार दिगाबर समाजको दिये हैं। पण्डित होकर भी सुधारक-समाज और धर्मकी समस्याके विषयमें सुलझे हए विचारक-वे हैं । समाज और राष्ट्र के अनेक प्रकारके प्रश्नोंके विषयमें धर्मदृष्टिसे क्या समाधान हो, इसकी विवेचना पण्डितजी जिस रूपमें करते हैं, वैसा अन्य पण्डितके लिये सरल नहीं। वे सुधारपंथी होकर भी धर्मविमुख नहीं, यह उनकी विशेषता है। प्रायः सुधारक गिने जानेवाले धर्मविमुख हो जाते हैं, किन्तु पण्डितजीने सुधारक होकर भी अपने धर्मको नहीं छोड़ा, यह स्थिति दुर्लभ है। जिन्दगीमें विवादके प्रसंग अनेक आये हैं, किन्तु पण्डितजीने अपने सौजन्यका अतिक्रम किया हो, ऐसा मैंने नहीं जाना । धार्मिक और धर्मपरायण व्यक्तिकी ऐसे विवादके प्रसंगमें ही परीक्ष देखा यह जाता है कि ऐसे अवसरों पर प्रायः सौजन्यका अतिक्रम हो जाता है। पण्डितजी ऐसे अतिक्रमसे बचे हैं, यह उनकी विशेषता है और यही उन्हें महान् बनाती है । जीवनमें ऐसे पुरुषोंके सत्संगका लाभ दुर्लभ है। और मैं अपनेको धन्य मानता हूँ कि मुझे ऐसे महापुरुषके सम्पर्कका अवसर मिला । आशा करता हूँ कि वे शतायु हों और धर्मकी सेवा करते रहें। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनीय पण्डितजी अगरचन्द नाहटा, बीकानेर दिगम्बर समाजमें कुछ वर्षों पहले मुनि बहुत ही कम थे, पण्डितोंके द्वारा ही धर्म प्रचार अधिक रूपमें होता रहा है। भट्रारकोंने खब काम किया। इसी तरह पण्डित वर्गने भी जैनधर्म और शासनकी बहुत बड़ी सेवा की। गत ३५० वर्षों में उन्होंने खूब साहित्य निर्माण किया। जब प्राकृत और संस्कृतके जैन ग्रन्थ साधारण जनताके लिये समझाना बहुत कठिन हो गये, तो बहुतसे श्रावकों और पण्डितोंने हिन्दी टीकायें लिखकर उन्हें सर्व सुलभ बना दिया। इधर ६०-७० वर्षों में पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी और पं० गोपालदासजी आदिके प्रयत्नसे गुरुकुल व विद्यालय खोले गये । इनसे सैकड़ों विद्वान तैयार हो गये और आज भी हो रहे हैं। स्याद्वाद विद्यालय वाराणसीसे अनेकों विशिष्ट विद्वान तैयार हए। उनमें पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं क्योंकि अनेकों वर्षों से वे वहीं रहकर शिक्षा और साहित्यकी विशिष्ट सेवा कर रहे हैं । विद्यालयके लिये उन्होंने खूब काम किया। पं० कैलाशचन्द्रजीको दिगम्बर साहित्यका बड़ा विशाल व गहन अध्ययन है। उन्होंने बहुतसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंका सम्पादन व अनुवाद आदि किया है और जैनधर्म व साहित्यके स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे हैं । इस तरहका इतना काम बहुत ही कम लोग कर पाते हैं । संख्या और गुणवत्ता-दोनों दृष्टियोंसे उनकी साहित्य-सेवा बहुत ही सराहनीय है। मैंने पण्डितजीको अनेक बार लिखा कि आप श्वेताम्बर साहित्यका अध्ययन और भी बढ़ाइये । फिर निष्पक्ष दृष्टिसे दोनोंकी मान्यताओंमें कहाँ और क्या-क्या भेद है, उसका समाधान कैसे हो सकता है ? इस तरहका तुलनात्मक व विचारात्मक अध्ययन प्रस्तुत कीजिये । यह जैनधर्मकी बहुत बड़ी सेवा होगी क्योंकि यगकी मांग है कि दोनों सम्प्रदायोंमें सदभाव और एकता बढ़े। वर्तमान पीढ़ी दोनों सम्प्रदायोंमें जो अपनी-अपनी खींचातानी है, उसमें नहीं पड़ना चाहती, उसे अच्छा भी नहीं समझती। यदि हम भेदके कारणोंके निवारण सम्बन्धी ठोस कार्य करके समाजके सामने उपस्थित कर सद्भाव व समन्वयका मार्ग प्रशस्त करें और अपनी साम्प्रदायिक भावनाओंको मिटावें, दोनों प्रकारके साहित्यका अध्ययन बढ़ाकर अपनी व समाजकी वृद्धि करें, तो यह पण्डितजीके समान विद्वानोंकी नई पीढी व भावी पीढ़ीके लिये सर्वोत्तम देन होगी। मूर्धन्य विद्वान् ___पं० नाथूलाल शास्त्री, अध्यक्ष विद्वत् परिषद्, इन्दौर, म० प्र० जैन समाज आज अपने मूर्धन्य विद्वान् सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, वाराणसीकी उच्चकोटिकी विद्वत्ता और उनकी निश्छल सेवाओंसे गौरवान्वित है । पंडितजीने स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीके प्राचार्य एवं अधिष्ठाता पदसे सैकड़ों विशिष्ट विद्वानोंको तैयार करनेके साथ ही संस्थाके संचालनार्थ उसकी आर्थिक स्थिति दूर करनेका महत्त्वपूर्ण प्रयास किया है। पंडितजीने अनेक महत्त्वपूर्ण मौलिक ग्रन्थोंकी रचना और अनेक बड़े-बड़े महत्त्वपूर्ण मौलिक ग्रन्थोंका अनवाद व सम्पादन कर जैन साहित्यको समृद्ध बनाया है। सन् १९४४ में अखिल भारतीय दि० जैन विद्वत परिषद की स्थापनामें पण्डितजीका प्रमुख Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगदान रहा है और सोनगढ़ (१९४७) एवं ललितपुर (१९५९) अधिवेशनके आप अध्यक्ष रहे हैं। अब आप परिषद्के संरक्षक रहकर उसका मार्गदर्शन करते रहते हैं। आपका आदर्श जीवन विद्वद्वर्ग के लिये अनुकरणीय एवं प्रेरणास्पद है। 'जैनसन्देश' के प्रधान सम्पादक होते हुए आप अपनी लेखनीसे निर्भय होकर सामाजिक स्थितिका चित्रण करते हैं। इसीलिये जैन पत्रोंमें जैन सन्देशका स्थान ऊँचा माना जाता है। जैन सिद्धान्त और जैनदर्शनके आप उद्भट विद्वान् हैं। आप वर्तमान अनेक प्रमुख विद्वानोंके विद्यागुरु हैं। अपनी प्राचीन श्रमण संस्कृतिकी गरिमाको न भलाते हए धार्मिक तत्त्वज्ञानके प्रचार-प्रसारका जो कार्य पण्डितजी द्वारा हआ है, वह चिरस्मरणीय रहेगा। आदरणीय पंडितजीका अभिनन्दन कर समाज अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है। यह सम्मानकी परम्परा सराहनीय है। इस पावन प्रसंग पर मैं पंडितजीका हार्दिक अभिनन्दन करते हुए उनकी दीर्घायुको कामना करता हूँ। निर्लोभ वृत्ति पं० गोविन्दराय जैन, झूमरीतिलैया सिद्धान्ताचार्य श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री जैन समाजके जाने-माने विद्वानोंमेंसे एक अद्वितीय ही हैं। आप प्रखर वक्ता हैं । सुलेखक है। आपने अनेक पुस्तकें लिखी हैं। अनेकोंका सम्पादन किया है। जैन समाजका ऐसा कोई उत्सव नहीं, जहाँ आपकी उपस्थिति न हो। कोई समाचार पत्र नहीं जिसमें आपके लेख न आते हों। कई वर्षों तक स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसीके प्रधानाचार्य पद पर रहकर उसका सफल संचालन क्रिया है । इस ढलती उम्र में भी आपमें बालकों जैसी स्फूर्ति एवं नौजवानों सरीखी तेजस्विता एवं अदम्य उत्साह है। इस ज्ञान मूर्तिके दर्शन करनेको निरन्तर जी चाहता है। झूमरीतलैयामें अनेक बार इन्हें आनेका सुअवसर मिला है । पर निर्लोभ वृत्ति इतनी कि भाड़ेके सिवाय एक पैसा भी अधिक ग्रहण नहीं करते । मैं ऐसे उद्भट विद्वान्की शतायु होनेकी कामना करता हूँ। ये हमारे बीचमें चिरकाल तक रहकर हमें मार्ग दर्शन कराते रहें। पण्डितकी विवशता : एक खरी बात डॉ० कन्छेदीलाल जैन, उपसंपादक, जैन सन्देश, आगरा एक बार राजस्थानके एक शहरमें श्री पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीको बुलाया गया और उनकी उपस्थितिमें कुछ लोगोंने योजना बद्ध ढंगसे विद्वानोंकी बराइयाँ बताते हए भाषण दिये। उसमें एक भाषणका भाव यह था कि विद्वान् लोग जब समाजसे चन्दा लेने आते हैं, तब चन्दा लेते समय दानवीर, उदार, श्रीमान् आदि झूठी उपाधियाँ बनाकर चन्दा मांगकर ले जाते हैं और बादमें दातारोंको पूछते भी नहीं । इतना ही नहीं, जिन संस्थाओंके लिये चन्दा मांगते हैं, उन संस्थाओंके कार्योंको बढ़ा-चढ़ाकर बखान करते हैं । इस प्रकार पण्डित लोग प्रायः झूठ बोलते हैं । अन्तमें पं० कैलाशचन्द्र जीने पांच मिनटका समय बोलनेके लिये मांगा, उन्हें दो मिनटका समय दिया गया। लोगोंने सोचा-ये पण्डितोंके बचावमें क्या बोलेंगे । आदरणीय पण्डित जीने कहा कि कोई Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित संस्था खड़ी नहीं करता है । संस्था खड़ी करके पदाधिकारी सभी सेठ लोग, धनी लोग बन जाते हैं। और अपना नाम बनाये रखनेके लिए पण्डितको प्रचारक बनाकर रख लेते हैं कि बेटा, तू इस संस्था को चन्दा ला कर चला तथा स्वयं भी कमा खा । पण्डितको सेठोंकी संस्था चलानी पड़ती है, तो काम निकालनेके लिये गधेको भी बाप भी बनाना पड़ता है। इतना कहकर पण्डित जी बैठ गये। लोगोंने फुसफुस करते हुए कहा कि अभी पण्डिताई जीवित है । जब तक पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री जैसे स्वतंत्र विचारक तथा बिना लोभ तथा भयके सही बात कहने वाले हैं, तभी तक पण्डिताई जीवित है, ऐसा मानना चाहिये। ऐसे प्रेरक संस्मरणके साथ ही मैं पण्डितजी के प्रति अपना आदरभाव व्यक्त करता हूँ । जैन समाजके सुमेरु प्रो० श्रीचन्द्र जैन, उज्जैन, ( म०प्र०) पण्डितजी निश्चयतः आजकी युवा पीढ़ी के लिए आदर्श हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व त्यागकर जनजनकी सेवामें 'निज' को लगाया । उन्होंने न कभी समाजसे कुछ चाहा और न उससे किसी भी प्रकार की अपेक्षायें कीं । पूज्य पण्डितजी इस तथ्यको भली-भांति समझते हैं कि जो समाजका किसी भी रूपमें मुखापेक्षी होता है, वह अपमानित, तिरस्कृत एवं अवनत किया जाता है। वही मानव प्रतिष्ठित होकर अपना सिर ऊँचा उठाता है और निर्भीक होकर चलता है जो स्वार्थी समाज को अपने संयमी, त्यागी तथा साधनामयी जीवनसे निरन्तर उपकृत करता रहता है। यह समाज की विकृति नहीं है, अपितु काल दोष है धनपतियों की लालसाओं तथा कुप्रवृत्तियोंसे पण्डितजी अच्छी तरह परिचित हैं । फलतः उनकी जीवन्तता म कभी अनादरसे विकृत बनी और न कभी अवान्छित क्रिया कलापोंस उद्वेलित हुई। विवश होकर भी इस मानव सिंहने न संकीर्णताको अपनाया और न बाह्य आडम्बरकी परिपुष्टि की। आपका चिन्तन-मनन बड़ा तलस्पर्शी, विचारोत्तेजक, निर्बन्ध और समुज्ज्वल है । गंगाकी धाराकी भाँति आपकी सतत प्रवाहमयी शैली जन-जनके मानसको मोह लेती है । पण्डितजी प्रगल्भ वाग्मी, निर्भीक वक्ता, अनासक्त योगी तथा सरलताकी प्रतिमूर्ति हैं। आपके अनेक ग्रन्थोंसे आपकी स्थितप्रज्ञता, विशाल पाण्डित्य और गंभीर अध्ययनशीलता मुखर हो उठती हैं। स्याद्वाद महाविद्यालय, काशीके अधिष्ठाताके रूपमें आपने अपमाननाको उल्लासकी तरंग, अवसादके क्षणोंको आनन्दकी किरण, अवरोधको सुधार और विपत्तिको उत्थानकी सरस सरणी स्वीकारा। इसलिए पूज्य पण्डितजीको सन्त कबीरका यह छन्द प्रिय लगता है ज्ञान- रवि रश्मियोंसे प्रतिभासित पूज्य पण्डितजीका विविध मानवीय विराद जागरण शाश्वत अध्यात्मवादका प्रतीक बने । ३ निन्दक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय । बिन पानी बिन साबुने, निर्मल करे सुभाय ॥ - - १७ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श कीर्तिस्तम्भ बी० माणिकचन्द्र नाहर, मद्रास पण्डित कैलाशचन्द्रजीका साधनामय, ज्ञाननिष्ठ और भोगोंसे विरत संयमी जीवन सम्पूर्ण जैन तरुण पीढ़ीके लिए आदर्श कीर्ति स्तम्भ है। आपके मुँहको स्मितता और प्रसन्न मुखमद्रा अंतरंगमें प्रवाहित आत्मानन्दके अविरल स्रोतका सूचक है। पण्डितजीके गुरुत्व, लेखकत्व और नेतृत्वसे भी बढ़कर उनका वक्तत्व है । आपके प्रत्येक भाषणमें अगाध सैद्धान्तिक और व्यावहारिक ज्ञानकी सुगन्ध रहती है। इस सुअवसर पर आप पण्डितजीके निबंध संकलित कर पुस्तकाकार कैलाश निबन्धावलीके नामसे प्रकाशित करनेका प्रयास कीजियेगा। विनम्रता और स्वाभिमानके ओजसे मण्डित पण्डित जी डॉ. जयकिशन प्रसाद खण्डेलवाल, आगरा पूज्य एलाचार्य मुनि श्री विद्यानन्दजीके माध्यमसे पण्डितजीसे मेरी पहली भेंट १९६७ में मेरठमें महावीर जयंतीके अवसर पर हुई थी। महावीर जयन्तीके बाद पूज्य मुनिश्रीजीने पण्डितजीसे परिचय कराया। उनके सुवक्ता होनेका परिचय तो उनके भाषणसे मिल ही चुका था। संस्कृत शिक्षाके क्षेत्रमें पण्डितजीने स्याद्वाद महाविद्यालयके द्वारा जो एक मानदण्ड स्थिर किया था, उससे भी मैं पहले ही परिचित था । गंगाके पवित्र तट पर स्थापित यह महाविद्यालय गंगाके शैत्य और पावनत्वसे विभूषित था और पण्डितजीकी ज्ञान गरिमासे यह प्रथित यश वाला बना हुआ था। पण्डितजीसे पहली भेंट यहीं तक सीमित न रही। मुझे एक कार्यवश उसी ट्रेनसे वाराणसी जाना था, जिससे वे वापिस लौट रहे थे । मैं उनके प्रति श्रद्धा भावसे अभिभूत था। पूज्य गुरुदेव विद्यानन्द मुनिने उनकी प्रशंसा की थी और पण्डितजीके सान्निध्यमें उसकी साक्षातताका अनुभव हो रहा था। वाराणसीमें उनके दर्शन स्याद्वादके प्राचार्यके रूपमें किये । निरन्तर शैक्षणिक कार्य, अध्ययन एवं लेखनमें व्यस्त रहते थे। उनके शिष्य उनका वात्सल्य प्राप्त कर अपनेको धन्य समझते थे। स्याद्वाद महाविद्यालयका शैक्षणिक वातावरण श्लाघनीय था । जैन समाजमें पण्डितजी अपने ज्ञान-विज्ञानके साथ ही आचार-विचारके लिये भी प्रसिद्ध रहे हैं । पण्डितजीने विनम्रताके साथ ही स्वाभिमानको कभी नहीं जाने दिया। उनके चेहरे पर ज्ञान एवं स्वाभिमान का तेज दिखलाई पड़ता है। पण्डितजीके प्रति मेरी सहज श्रद्धा बढ़ चली। फिर तो कई बार दिल्लीमें पूज्य गुरुदेव मुनिश्रीजीके सांनिध्यमें कार्यक्रम हुए जिनमें पण्डितजी मुख्य अतिथि बनकर आये थे। कई बार पण्डितजीको विभिन्न संस्थाओंके द्वारा पुरस्कृत करनेकी चर्चा चली किन्तु साधु समाजके प्रति अनन्य श्रद्धा रखने वाले पण्डितजीने उनके आशीर्वादको ही विशेष महत्त्व दिया। पण्डितजीके साथ पुनः एक बार घरेलू वातावरणमें दिल्लीमें भेंट हुई । वे प्रायः सुश्री विदुषी जयमालाजीके यहाँ ठहरते थे, वहीं एक बार मैं भी आमंत्रित था । पण्डितजीके वात्सल्यको प्राप्त कर मैं अभिभूत हो उठा। इतने महान् विद्वान् और सहज स्वभाव । उनके समीप जो भी क्षण बीते, उनमें मुझे उनकी आत्मीयताकी झलक मिली। वे ज्ञानवृद्ध हैं, आचार वृद्ध हैं, अनेक उच्चपदों पर रह चुके हैं और आज भी ज्ञानपीठ जैसी संस्थाके परामर्शदाता हैं और स्यावाद महाविद्यालयकी महानताकी' स्थापना तो पण्डितजीके महान् व्यक्तित्वसे Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जड़ी हुई है। अवकाश प्राप्त करनेके बाद भी उनकी कर्मठता, उनकी स्वाध्यायकी प्रवृत्ति में तनिक भी न्यूनता नहीं दिखाई पड़ती। ___ मैंने उन्हें दूरसे भी देखा, समीपसे भी। दूरसे उनकी ज्ञानवृद्धतासे प्रभावित हुआ, तो समीपसे उनकी आत्मीयता, सहजता एवं वात्यल्यभावसे स्नात होकर अपनेको धन्य समझता रहा हूँ। शत शत वन्दन, कोटि कोटि अभिनन्दन ___ बाबूलाल शास्त्री 'फणीश', ऊन (पावागिर) इस बीसवीं सदीके मूर्धन्य जैन विद्वानोंमें परम श्रद्धय पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्यका नाम श्रेष्ठतम है। भारतका समस्त जैन समाज ही नही, किन्तु सारा राष्ट्र आपसे भली भांति सुपरिचित है । इस उद्भट विद्वान्ने भागीरथीके पावन तट पर स्याद्वाद महाविद्यालय रूपी वटवृक्षको सम्पूर्ण रूपसे सिंचित किया, उसे संजोया, अगणित फलोंसे । आपने निर्धन-धनिक बालकोंको सम्यग्ज्ञानकी ज्योतिसे, धर्मामत पान कराया जो आज भी नक्षत्रोंकी भाँति चमकते हए समाज व राष्ट्रकी सेवा करते हैं। इसलिये आप सहस्रों विद्यार्थियोंके जनक तुल्य हैं । सफल लेखक, प्रबल प्रवक्ता, समाजोद्धारक, निष्पही, निर्लोभ मूक सेवकके रूपमें आपने समाज व देशको गौरवान्वित किया। मैं पण्डितजीको शत शत वन्दन एवं कोटि कोटि अभिनन्दन करता हूँ। हिमिगिरि से पावन गंगा ने, अविरल स्रोत बहाया । इसी भाँति श्रीकैलाशचन्द्र ने, ज्ञानामृत पान कराया ॥ जब तक पावन गंगा जल है, तब तक जीवन पाओ। जब तक नभ में रवि-शशि चमके, अपना यश चमकाओ॥ स्याद्वाद शिरोमणि पं० यतीन्द्र कुमार शास्त्री, लखनादौन, म०प्र० चलना ही जीवन है। चाहे व्यक्ति हो, समाज हो, राष्ट्र हो या धर्म हो। जो गतिवान है, वही जीवित है । यदि सफलतापूर्वक मंजिल तय करना है, तो विश्वास, प्रेम तथा विवेकको साथ लेकर बढ़ते चलो । अगर कोई कठिनाइयाँ आयें, तो उनसे हँसते हुये जूझो। जीवन सदैव समताभावी हो, तो कुछ काम करो । निष्काम भावनासे करो। मानव सिद्धिके पहले प्रसिद्धिकी कामना करता है । यही उसकी भूल है। प्रतिज्ञा जीवन विकासका अनिवार्य अंग है। किन्तु वह तभी तक है जब तक उसे पूरी तरह निभाया जाये। तभी गन्तव्य पर पहुँचा जा सकता है। जीवनका व्यवहार आदान-प्रदान पर चलता है । प्रदानके बिना आदान शोषण है । आदान कम, प्रदान ज्यादा, यही जीवनकी महानता है। जीवन संगीतके दो स्वर हैं-एक सख्त और एक कोमल । जो इनका समयानुकूल प्रयोग जानता है, वही धर्म या समाजकी सच्ची सेवा कर सकता है। ये उद्गार पूज्य महापुरुषोंके हैं जो उन्होंने समय पर प्रगट किये हैं तथा दृढ़ता पूर्वक अपने जीवन में उतारे हैं। किसी भी तरहके स्वार्थ और प्रलोभनसे रहित कर्तव्यकी प्रेरणासे सेवा कार्य करना ही पण्डितजीके जीवनका उद्देश्य रहा है। सत्यकी अभिव्यक्ति हो जाने पर उसे नगाड़ेकी - १९ - Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोटकी तरह उन्होंने व्यक्त किया । सत्यके कहने में संकोच करना मानवताके प्रति विश्वासघात करना है। ऐसा पण्डितजीका सदैव विश्वास रहा है। वे सदैव प्रसिद्धि और प्रशंसाके दूर भागते रहे हैं। पर वर्तमानमें जैन समाजमें जो प्रगति और गतिविधियां चल रही हैं, उनमें पण्डितजीका सदैव ही सहयोग प्राप्त होता रहा है। असलमें, ऐसे व्यक्ति धर्म और समाजके कार्यमें विशेष सहयोगी नहीं हो पाते, जिनमें दूसरोंको अपने पीछे चलानेकी शक्ति नहीं या दूसरोंके पीछे चलनेकी शक्ति न हो। पण्डितजीमें दोनों गुण प्रचुर मात्रामें विकसित हुए हैं। इसलिये उनके सहयोगियोंकी संख्या विशाल है। प्रायः लोग युवावस्था या बुढ़ापेका समय शरीरसे मानते हैं। पर उनकी यह धारणा गलत है। नित्य नव तरंगित रहनेवाला उल्लास भरा मन सदा ही युवा रहता है। आज भी जब पण्डितजी मंचपर बोलने खड़े होते हैं, तो उनमें पूर्ण युवोचित उत्साह प्रगट होता है और ओजपूर्ण वाणी सुनकर बुढ़ापेकी बात भूल जाते हैं । आपकी सम्पूर्ण साधना, श्रद्धा, ज्ञान और आचरणका पवित्र संगम रही है। पंडितजी सदैव कहते हैं-सम्पूर्ण समाज एक नौकापर सवार है जहाँ सबके हित-अहित बराबर है। यदि एक पार होगा, तो सब पार होंगे । यदि एक डूबा, तो सब डूब जायेंगे । इसलिये हमें व्यक्तिगत स्वार्थोंसे ऊपर उठकर सामूहिक स्वार्थकी बात सोचनी पड़ेगी। पर आज तो यह परिस्थिति है कि नावके एक कोने में बैठा एक आदमी यह चाहता है कि दूसरा डूब जाये, दूसरा यह चाहता है कि पहला डूब जाय । समूचे समाजका अस्तित्व एक ही शरीर जैसा है। शरीरके किसी अंगमें रोग होनेपर या चोट लगनेपर कष्टका अनुभव पूरे शरीरको होता है। पंडितजी जैन सिद्धान्तके मर्मज्ञ आचार्य हैं और समचा जैन सिद्धान्त अनेकान्तमय है। अनेकान्तका उद्देश्य सम्पूर्ण विरोधोंका परिहार करना है। पर आजके अनेकान्तवादी स्वयं ही निश्चय और व्यवहार, निमित्त-उपादानके पक्षापक्षमय आग्रहसे आपसमें विवाद कर राग-द्वेष बढ़ाकर स्वयं ही विभाजित हो रहे हैं । विवादने इतना विकराल रूप धारण कर लिया है कि एक पक्षवाले दूसरोंको जैन ही माननेको तैयार नहीं हैं । अब तो इस विरोधने क्षोभक रूप भी धारण कर लिया है। यह विचार भेदभात्र न रहकर मन्दिर और आगम ग्रन्थों तक जा पहुंचा है। इस विवादमें पंडितजीने एक समन्वयकारी दृष्टिकोण उपस्थित किया है। इससे आचार्य परम्पराके साथ अपने पूज्य गुरु गणेशप्रसादजी वर्णीके विचारोंका पूरा समर्थन हआ है। अपने भाषणोंमें तथा जैन संदेशके माध्यमसे समय-समयपर उन्होंने स्पष्ट विचार प्रगट किये है तथा स्वयं सोनगढ़ जाकर विशाल जन-समूहके सामने प्रकट किया कि जैन सिद्धान्तका रहस्य समझने में जो भूल हो रही है, उसे समझा जाये । केवल शुद्ध, बुद्ध, आत्माके वर्णन करनेसे सांसारिक आत्मा शुद्ध-बुद्ध नहीं हो सकती । कंचनको शुद्ध करनेके लिए उसे तपाया जाता है । जैनधर्मने केवल साध्यके लक्ष्यका वर्णन नहीं किया, बल्कि उसके साधनोंपर भी पूरा जोर दिया है। यदि साधनोंकी शुद्धि न मानी जाय, तो उन परिग्रह वस्त्रधारी साधुओंको क्यों न सम्यक् माना जावे । पंडितजीने कहा था “जबतक संयोगी जोवन है, तबतक निमित्तको अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। निमित्तके बिना कार्यकारण भाव भी नहीं बनेगा और कार्यकारण भाव नहीं माना जावेगा, तो जैनधर्मकी वैज्ञानिकता ही समाप्त हो जायेगी। सात तत्त्वोंका विवेचन पूर्ण वैज्ञानिक है और यह जैनधर्मका प्राण है । उन सात तत्त्वोंके सिद्धान्तको व्यवहार सम्यकदर्शन कहते हैं जो निश्चय सम्यकदर्शनका निमित्त कारण है। इसे हेय कैसे कहा जा सकता है।" इसी प्रकार पुण्य-पाप सम्बन्धी विवादका भी पंडितजीने उचित समाधान किया था। चरित्रधारी जैन दिगम्बर साधु सम्यक चरित्रके आश्रयभत निमित्त कारण हैं। यदि इस निमित्तको हम सर्वथा अकिंचित्कर मानकर बैठ जाते हैं, तो उसे फिर कुछ करनेकी जरूरत भी न होगी। उपादान -२० - Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ir अपनी योग्यतासे सब कुछ कर बैठेगा। इस नियतिवादी दृष्टिकोणसे पुरुषार्थ गौण बन जायेगा। अतः अनेकान्तका लक्ष्य रखकर पक्षका आग्रह छोड़ना पड़ेगा, चाहे निश्चयका हो, चाहे व्यवहारका हो । जहाँ पक्षका आग्रह है, वहीं विवाद है। पंडितजीने कभी पक्षका आग्रह नहीं किया। यही कारण है कि जब व्यवहार पक्षवालोंने सोनगढ़से प्रकाशित शास्त्रोंका अपमान किया, तो पंडितजीने दुःखित हृदयसे जोरदार अपील निकाली कि सोनगढ़से प्रकाशित साहित्य हम सबके लिए पूज्य है। उसका अपमान करना अपने पैरपर कुल्हाड़ी मारनेके समान मूर्खतापूर्ण है। जिसे न पढ़ना हो, न पड़े, लेकिन बहिष्कार करना अनुचित है। युवा आचार्य मनि श्री विद्यासागरजी महाराजके दर्शन कर पंडितजीने जो श्रद्धा-भक्तिके उदगार प्रगट किये, वे अनुकरणीय है। "जिन्होंने ऐसी कल्पना बना रखी है कि पूर्व कालकी तरह आजकल दिगम्बर साधुचर्याका परिपालन द्रव्य और भावरूपेण सम्भव नहीं है, वे श्री विद्यासागरजीके सांनिध्यमें रहकर उनका पवित्र रत्नत्रय आराधनाका आदर्श देखें। मैंने पूर्ण श्रद्धा-भक्तिसे आहार देकर महान् पुण्य लाभ लिया है। वे २८ मूल गुणोंका पालन करते हैं । वे सच्चे दिगम्बर जैन साधु हैं।" ये उद्गार उन की आदर्श साधुनिष्ठाके प्रतीक है। पंडितजीमें स्पष्टवादिता और सत्य निष्ठा कट-कुटकर भरी है। वे सच्चे गुणानुरागी विद्वान् हैं। उन्होंने अपने सत्य विचारोंको कभी ढहाया नहीं। अपने गुरुके द्वारा जैनधर्म और समाजकी भलाईके लिए स्याद्वाद महाविद्यालयरूपी जिस वटवृक्षका बनारसमें बीजारोपण किया गया था, उसको उन्होंने तन्मयतासे सिचित कर पुष्ट किया और उससे हजारों विद्वानरूपी फल समाजको अर्पित किये। वे एक महान गरुके आदर्श शिष्य है। पंडितजीने अपने गुरुकी समाधिमरणके समय तक खूब वैयावृत्ति की। उनके वियोगके समय उन्होंने जो दुःखी होकर उदगार प्रगट किये थे कि वर्णीजी जैसा महान् सन्त, निर्विकार महात्मा, विद्यारसिक आदर्श त्यागी होना बहुत कठिन है। आज समाजमें जो कुछ भी धार्मिक वातावरण देखने में रहा है एवं विद्वानोंका समूह नजर आता है, यह सब वीजीकी कृपाका फल है। आज हम सब अनाथ हो गये हैं। फिर भी, वे साहसपूर्वक अपने गरुका अनुकरण करते हए विद्वद वर्ग, समाज तथा साहित्य निर्माणको दिशामें मार्गदर्शन एवं योगदान कर रहे हैं. यह हमारे लिये सौभाग्यकी बात है। जीवन्त स्रोत ___ वीरेन्द्र कुमार जैन, बम्बई पण्डित कैलाशचन्द्रजी तो वर्तमानमें जिन शासनके एक जीवन्त स्रोत, पराकोटिके मनीषी और जीवनमें पंचमहाव्रतधारी मुनियोंमें भी बड़े महापुरुष हैं । पण्डितजीसे मिलनेका सौभाग्य ही न हुआ मेरा, अतः संस्मरणका खजाना मेरे पास कहाँ ? उनके प्रति मेरी शुभकामना । आदर भाव बालचन्द्र शास्त्री, हैदराबाद पण्डितजी समाजके माने हुए विद्वान् है । उनके द्वारा कितनी ही संस्थाएं उपकृत हुई हैं । ऐसे लब्धप्रतिष्ठ विद्वानके लिये मेरे आदरभाव । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिभाशाली निर्भीक विद्वान् प्रकाश हितैषी, शास्त्री, दिल्ली आदरणीय श्री पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री जैनसमाजके मूर्धन्य विद्वानोंमें अग्रगण्य हैं । आप चारों अनुयोगोंके अधिकारी प्रतिभाशाली विद्वान् हैं । आपकी यह विशेषता है कि आप जैन विद्वानोंमें बड़े ही निर्भीक एवं स्पष्टवादी लेखक व प्रवक्ता हैं । आप बड़ी-बड़ी शक्तियोंके समक्ष भी यथार्थ बात कहने में कभी नहीं हिचकते हैं। शिथिलाचारका विरोध करनेपर आपको बड़ी-बड़ी उग्र शक्तियोंका कोपभाजन बनना पड़ा है। आपको अनेक तरहसे अपमानित करनेका भी प्रयत्न किया गया किन्तु आप कभी भी असत्य और शिथिलाचारके समक्ष झुके नहीं। आप हिमालयकी तरह अडिग रहे। आप शिथिलाचारका विरोध पीठ पीछे नहीं, किन्तु सन्मुख खड़े होकर करते हैं । जैनसन्देशमें आपका संपादकीय बड़ा महत्त्वपूर्ण और स्पष्टवादितासे भरा हुआ होता है। आपकी शिष्यमण्डलीमें बड़े-बड़े उच्चकोटिके विद्वान हैं, जो आपके गरुत्वकी गरिमाका प्रदर्शन करते हैं । जैनसाहित्यकी सेवाके लिए तो आपका जीवन ही समर्पित है । साहित्य तपस्वियोंकी गणनामें भी आपका अग्रिम स्थान है। इतना सब होते हुए भी आप निरीहवृत्तिके विद्वान् हैं। आपने समाजसे कभी भी कोई अपेक्षा नहीं रखी । ऐसे विद्वानका अभिनन्दन करके संयोजकोंने स्वयंको गौरवान्वित किया है। उनका अभिनन्दन तो सूर्यको दीपक दिखाना है। विद्वत्ताकी विभूति लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज' एम०ए०, जावरा, (म०प्र०) पण्डितप्रवर कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, मेरी दृष्टिमें उस गुलाबके प्रसून सदृश हैं जो कष्टरूपी कण्टकोंमें पलकर भी देश और समाजके हितमें गौरवकी गन्ध देता है। अब वे तपे तपाये गुलाब है, उनके कार्यों और कृतियोंकी महकसे आज भी देश और समाजका प्रांगण सुशोभित, सुरक्षित तथा सुवासित हो रहा है। पण्डितजीने चार-पांच दशक वर्षों तक, जिस स्याद्वाद विद्यालयमें प्राचार्य पदपर कार्य किया, जैन विद्याकी विचारधारा बढ़ाई, उसके जन्म और जीवनदाता प्रातःस्मरणीय गणेशप्रसाद वर्णीके अमोघ व्यक्तित्व और कृतित्वसे वे भला कैसे अप्रभावित रहते ? जिस शास्त्रार्थ संघके प्रमुख पत्र 'जैन संदेश के सम्पादनके माध्यमसे उन्होंने दो-तीन दशक वर्षों तक धर्म, समाज तथा साहित्यकी सेवा की, उस संघकी गतिविधियोंसे वे अनभिज्ञ अछूते रहते, यह तो असम्भव ही था। जिस विद्वत्परिषद्के वे एकसे अधिक बार अध्यक्ष रहे और जिसने सोनगढ़ अधिवेशनसे कानजी स्वामीकी विचारधाराको भी आगे बढ़ाया, पंडितजी समयसारकी दष्टि लिए निश्चयमूलक दृष्टिकोणसे वंचित रहते, ऐसा हो ही नहीं सकता था। __पंडितजो ज्ञानके धनी हैं, विद्वत्ताकी विभूति हैं, उन्होंने अनेक कृतियोंको जन्म और जीवन दिया। 'जैनधर्म पर तो उन्हें युवावस्थामें ही पुरस्कार मिल चुका था । पंडितजीने अपने शिष्योंको अपनेसे भी आगे बढ़ते देखना चाहा। महावीर जयन्तीपर श्री महावीरजीकी सभामे पंडित और डाक्टर नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्यकी प्रशंसा करते हुए भी प्रस्तुत पंक्तियोंके लेखकने उन्हें देखा था। एक वाक्यमें, उन्होंने हिमालयसदृश गंगायमुना जैसी विद्वान-सरिताओंको प्रवाहित करनेके लिए अपना ज्ञान वारि सौंप दिया है। पंडितजीकी व्यवहार और वात्सल्य मूलक अनेक बातें हैं। पंडितजीका दैनिक जीवन आदर्श और यथार्थका अद्भुत समिश्रण -२२ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, ठीक वैसे ही जैसे वे अभी भी गणेशप्रसाद वर्णी और कानजी स्वामीकी उपस्थिति आत्मसात् कर रहे हैं । वास्तविकताकी स्वीकृति देने में पंडितजी सर्वदा अग्रसर रहे हैं । वे पंडितकी अपेक्षा ज्ञानी अधिक हैं। घिसी-पिटी लोकपर आंख मींचकर चलना उनके स्वभाव के विरुद्ध है। पंडिजीने जैसे ज्ञानको दिशा ग्रहण की, वैसे ही वे चरित्रकी दिशा भी ग्रहण करेंगे, तो देश और समाजद्वारा तृतीयवर्णी के रूपमें प्रतिष्ठित और पूज्य भी हो सकेंगे। 1 अतीत से आजतक मेरी आंखें यह देखनेके लिये अतीव उत्सुक रही हैं कि किसी व्यक्तित्वमें ज्ञान और चरित्रका कांचन और मणि सदृश संयोग हो, तो मैं उसे अपनी श्रद्धा निधि समर्पित कर प्रणाम कर लूँ और उससे जीवनदायी प्रेरणा ग्रहणकर अहोभाग्य समझें। पंडितजी बहुविज्ञ प्रशस्त और प्रणम्य हैं। वे सफलता के और भी समीप पहुँचे। उनके प्रति मेरी यही सद्भावना और शुभकामना है । मेरी नजर में प्रतापचन्द्र जैन, आगरा प्रथम दर्शन - आगरा दिग० जैन वोटिंग हाउसका मैदान और मोसम सर्दीका वार्षिक उत्सवका दूसरा दिन था। गैसके हंडों और बिजलीसे जगमगाता पण्डाल स्त्री-पुरुषोंसे खचाखच भरा था। उस दिन बड़ी उत्सुकतासे किसीकी प्रतीक्षा की जा रही थी। लोगों में शामसे ही जोरोंकी चर्चा थी कि आज बनारससे कोई पण्डितजी आ रहे हैं, जो बड़े ऊंचे विद्वान् हैं। सुनते हैं कि जब वे बोलते हैं, तो श्रोता मुग्ध हो जाते हैं । आज रात उनका व्याख्यान होगा । रात्रिके साढ़े सात बजे होंगे कि मंच से स्व० सेठ मटरूमल बैनाड़ा खड़े हो गये और बोले कि पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री पधार रहे हैं। वे पण्डालमें प्रवेश कर चुके हैं। सुनते ही सबकी निगाह प्रवेश द्वारक ओर र्थ - कुर्ता-धोती और वेस्टकोट पहने, शिर पर गोल फैल्ट कैप और आँखों पर चश्मा लगाये एक सौम्यपूर्ति मंचकी ओर चली आ रही थी। वहाँ पहुँचते ही उन्हें आदरपूर्वक बैठाया गया। वे हाथ जोड़े हुए बैठ गये और लोगोंमें जो फुसफुसाहट होने लगी थी, वह शान्त हो गयी वर्ष तो याद नहीं, पर बात चौथे दशक की है। पण्डाल में उस समय संपके उपदेशक भैयालालजीका भजन चल रहा था। उसके समाप्त होनेपर स्व० श्री महेन्द्रजीने पण्डितजीका स्वागत करते हुये सबको उनका परिचय कराया कि आप स्याद्वाद महाविद्यालय काशीके प्रधानाचार्य और दिग० जैन संघ, मथुरासे भी सम्बद्ध हैं। जैनधर्मके प्रकाण्ड विद्वान् और एक प्रखर प्रभावशाली बनता है। फिर उन्होंने पण्डितजीसे सबको अपनी ज्ञान गंगा स्नान करानेके लिए प्रार्थना की। वाणीके धनी - पण्डितजी महावीरके जयकारोंके बीच खड़े हुए। जैसे ही उन्होंने बोलना शुरु किया, पण्डाल में पिन ड्राप साइलेंस छा गई। वे लगभग एक घण्टा बोले और जन समूह उन्हें बड़ी शान्ति और श्रद्वासे सुनता रहा। एक ही रफ्तार और नपे-तुले शब्द, शैली विशिष्ट और भाषा सरल सुबोध शब्द मानों स्वयं खिल रहे हों । चेहरे पर कोई तनाव नहीं । बीच-बीच में श्रोता जयकार बोलते रहे । व्याख्यान समाप्त होनेपर बड़ी देर तक करतल ध्वनिके साथ जयकारे होते रहे । पण्डितजी और उनका व्याख्यान काफी दिनों २३ - Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक नगरके जैन समाजमें चर्चाका विषय बने रहे। मैं भी उनके प्रशंसकोंमें एक हो गया। इसके बाद तो इलाहाबाद, जयपुर, और अन्य स्थानोंमें उनके अनेक बार दर्शन करनेका मुझे सौभाग्य मिला। सम्पर्कका माध्यम जैन सन्देश-सन् १९६२ में रिटायर होकर मैं आगरा आ गया और सामाजिक कार्योमें और लेख लिखनेकी मेरी प्रवृत्तियाँ फिरसे शुरू हो गई। जैन सन्देशसे अपने पुराने रिश्तेको फिरसे जोड़नेकी इच्छा हुई, तो पुरानी बातोंको याद दिलाते हुए मैंने एक दिन पण्डितजीको पत्र लिख डाला। वे उसके प्रधान सम्पादक थे और अब भी हैं। जैन सन्देशका द्वार उन्होंने मेरे लिए खोल दिया । मेरे लेख उसमें छपने लगे और वह मेरे पास आने भी लगा। इसे मैंने अपना सौभाग्य माना । मेरे लेख कभी-कभी लम्बे हो जाते और कभी कार्बन कापी उनके पास भेज देता। एक-दो बार मेरे लेख नहीं छपे, तो मैंने पण्डितजीको लिखा । उनका उत्तर आया कि एक तो आपके लेख लम्बे होते हैं, दूसरे वही लेख आप और जगह भी छपने भेज देते हैं। उन्होंने सलाह दी कि मैं लेखोंको लम्बा न किया करूँ । उनकी यह सलाह मुझे मार्गदर्शकके रूपमें थी और उसी रूपमें मैंने उसे लिया भी । संक्षिप्त करके भेजने पर वे लेख आगे छप गये, परन्तु उसी लेखको और जगह भी प्रकाशनार्थ भेजनेसे मैं बाज नहीं आया क्योंकि डाककी गड़बड़ीसे लेख इधर-उधर भी हो जाते हैं। कई वर्ष पूर्व एक वर्षान्तके सम्पादकीयमें लेखकोंके नाम देते हए उन्होंने मेरे नामका भी उल्लेख किया था । २१ मार्च १९६८ के सम्पादकीयमें मेरे निवेदन पर यहाँ की जैन शिक्षा संस्थाओंके संगठनकी योजनापर भी सम्पादकीय लिखनेकी कृपा की थी। चोटीके लेखक और सम्पादक-इस प्रकार पण्डितजीके निकट आनेका और उनसे कुछ सीखनेका जैन सन्देश एक माध्यम बन गया। वे चोटीके जैन लेखकों और सम्पादकोंमें गिने जाते हैं। जिस तरहकी विशिष्ट शैली उनके बोलने की है, वैसी ही लिखने की भी है । पण्डितजीके सम्पादकीय और अन्य लेख बड़े ही गम्भीर और विद्वत्तापूर्ण होते हैं। वे जो कुछ भी लिखते हैं, सद्भावनासे निर्भीक होकर लिखते हैं। बात खरी कहते हैं बगैर लाग-लपेटके परन्तु मजी भाषामें और शिष्ट शैली में । कुछ लोग उन्हें अपमानजनक भाषामें बुरा-भला कहने में नहीं चूकते । परन्तु वे अपना सन्तुलन नहीं खोते हैं और उनका उत्तर देते हैं पर शिष्ट रूप से । वे जो भी लिखते हैं, सप्रमाण और तर्कसंगत, अनुभव और अन भतिके आधार पर । उनका ध्येय रहता है, 'कोई बुरा कहे या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे। तो भी न्यायमार्गसे मेरा कभी न पग डिगने पावे ।' पण्डितोंके आर्थिक संकट और अनादरको लेकर उनके हृदय में जो दर्द है, वह किसीसे छिपा नहीं है। समाजकी विघटनकारी प्रवृत्तियोंसे वे बराबर जूझते रहते हैं और सिद्धान्तकी रक्षामें जोखिम तक उठाने में नहीं हिचकते । अग्रणी साहित्य सेवी पत्रकारिताके साथ-साथ पण्डितजी साहित्य सृजनमें भी अग्रणी रहे हैं। आपने अनेकों उच्चकोटिकी पुस्तकों, टीकाओं और ग्रन्थोंकी रचना की है परन्तु आपकी पुस्तक 'जैन धर्म' सर्वाधिक लोकप्रिय रही है। जैनधर्मका बुनियादी ज्ञान करानेवाली यह पुस्तक अनुपम है जो अजैनोंमें भी लोकप्रिय है । सन्त विनोवाके सतत प्रयत्नसे तैयार किये गये ग्रन्थमें 'समण सुत्तं' में जो जैन गीताके नामसे विख्यात है, आपकी भूमिका मूल्यवान रही। उसका हिन्दी गद्यानुवाद करनेका श्रेय आपको ही है । जैन साहित्यका इतिहास भी आपकी बेजोड़ कृति है। आदर्श गुरु-शिक्षाके क्षेत्रमें भी आपकी सेवायें महान् हैं । काशीका स्याद्वाद महाविद्यालय, आपके जीवनका अभिन्न अंग बन गया है । अपने जीवनका अमूल्य बहभाग खपाकर आपने उसकी जो सेवा की है, वह अमिट है । आपके बिना महाविद्यालय की और महाविद्यालयके बिना आपकी चर्चा अधूरी है। देशका Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शायद ही कोई भाग ऐसा हो, जहाँ आपके शिष्य नहीं मिलें। अब आप कुछ वर्षोंसे वहाँ अधिष्ठाता है। भारतवर्षीय दि० जैन संघको वे वर्षों सींचते और पल्लवित करते रहे। वे एक आदर्श गुरु भी हैं । __ अद्भुत पारखी-पंडितजी पारखी भी अद्भुत हैं । वर्षों पूर्व आपने नवदीक्षित युवा मुनि १०८ श्री विद्यासागरजी महाराजके चरित्र पालनका किशनगढ़ (राज.) में उनके दर्शन कर जो मत व्यक्त किया था, वह आगे चलकर शतप्रतिशत सही सिद्ध हुआ। तभी लिखे आपके सम्पादकीयने मुझे उस साधक सन्तके दर्शन करने के लिए बेचैन कर दिया था। क्या इस युगमें ऐसे साधकका होना सम्भव है जो तीनों रत्नोंका धारी हो। अब तक इधर जितने साधु मेरे देखने-सुनने में आये, उनमेंसे अधिकांश या तो पर्याप्त आगम ज्ञानी नहीं हैं या भीड़-भाड़ अथवा प्रतिबन्धोंसे घिरे रहनेवाले दिगम्बरत्वके अतिरिक्त सुविधा और शोहरतके आक.क्षी। किसी किसीका तो व्याख्यान सभाके अलावा साधारण श्रावकके लिए दर्शन भी दुर्लभ । एक दिन ऐसा भी आया कि आगरेमें उस महान् साधकके दर्शन कर मैं धन्य हुआ। पंडितजीने जैसा लिखा था, वैसा ही मैंने उस साधु शिरोमणिको पाया। स्वाध्यायरत, निस्पृही और आत्मलीन रहनेवाले। पण्डितजीका व्यक्तित्व-जयपुरमें १९७० में सम्पन्न जैन साहित्य संसदके अधिवेशनमें पंडितजीका पांडित्य और गारभीर्य छाये रहते थे। वहाँ अनेक स्थानोंसे प्रतिष्ठित प्रौढ़ और युवा जैन विद्वान् आये थे। किसी भी विषय पर बहस तो बहत होती थी, पर निर्णय तभी होता था जब पंडितजीके विचार सुननेको मिलते थे। उन्हें किसी भी तरहका आग्रह नहीं होता था, जो बात भी करते, सहज भावसे कहते, सबकी बातें और तर्क ध्यानसे सूनकर, हमारे चिन्तन पर चिन्तन कर । वहाँ एक बात महत्त्वकी अवश्य सामने आयी। राजस्थान विश्वविद्यालयके दर्शन-विभागकी गोष्ठीमें डॉ० कमलचन्द सोगानीने स्पष्ट कर दिया था कि जबतक हम आधुनिक पाश्चात्य-दर्शनका भी अध्ययन नहीं कर लेते और उसे ध्यानमें रखते हुए अपने दर्शन पर चिन्तन नहीं करते, तबतक आजकी वैचारिक दुनियाँ में हमारे ज्ञान व समाधानमें कहीं न कहीं अधूरापन रह जाता है । मेरा ख्याल है कि पाश्चात्य विद्वानोंका जो दार्शनिक चिन्तन है, उसका आधार तो भारतीय और श्रमण दर्शन ही है। हमारे दर्शनशास्त्रोंको लेकर ही जर्मनी, रूस, ब्रिटेन और इटली आदि देशों में बहुत काम हुआ है और हो रहा है। हमारे देशमें आकर और रहकर भी उन्होंने बहुत कुछ खोजबीन की है और हम उनके ऋणी हैं । आप देखते नहीं कि हर्मनयाकोबी जैसे विद्वानोंको उद्धरित करते हम नहीं अघाते । जून सन् १९७८ में जब मैं उज्जैन गया, तो डॉ० हरीन्द्रभूषणजीने मुझे बताया था कि जिस बारहवें अंग दृष्टिवादको हम लुप्त मानते रहे हैं, उसपर जर्मन विद्वान् डॉ० लुडविग आल्सडोर्फने 'ह्वाट वेयर दी काण्टेंट्स आफ दृष्टिवाद' नामसे तीन खण्ड लिखकर प्रकाशित भी करा दिये हैं। कैसी विचित्र बात है कि मूल आधार तो हमारा और उनका एक ही है, परन्तु अन्तर यह है कि हमारा अध्ययन और चिन्तन तो परम्परासे जो चला आ रहा है, उसीको लेकर है जब कि पाश्चात्य विद्वानोंने आधुनिक विचारक्षेत्र में वैज्ञानिक और मौलिक दृष्टिसे स्वतन्त्र रूपसे शोधपूर्ण अध्ययन और चिन्तन किया है। अतः हमे अपनी चिन्तनपद्धति पर भी चिन्तन करनेकी आवश्यकता है। यद्यपि हमारी पण्डितजीसे बहुत समयसे प्रत्यक्ष भेंट नहीं हो पाई है, फिर भी उनके प्रति मेरे मन व मस्तिष्कमें अगाध श्रद्धा और आदरभाव बना हुआ है और मैं उनके स्वस्थ व सुखी दीर्घजीवनकी हृदयसे कामना करता हूँ। - २५ - Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावक लेखनीके धनी राजकुमार शास्त्री, नवाई (टोंक) सम्माननीय सिद्धान्तमहोदधि प्रकाण्ड पंडित, निर्भीक प्रखरवक्ता, निःस्वार्थ प्रमख समाज सेवी, कर्मठ कार्यकर्ता, प्रभावक लेखनीके धनी श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री-बनारसका अभिनन्दन किया जाना समाज सेवियोंकी सराहनीय सूझ-बूझ और कृतज्ञताका परिचायक है। उनका सम्मान समाज और विद्वानोंका सम्मान है। उनमें धर्मके प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा है। धर्म स्वरूपको समझानेकी अपूर्व क्षमता है। समाजोत्थानकी उत्कट लगन है । ढोंग और व्यर्थके वादविवादों तथा समाज विघटन करनेके क्रियाकलापोंसे उन्हें मर्मान्तक पीड़ा पहुँचती है। यदि इसी प्रकारसे थोड़ेसे भी विद्वान् समाजमें और हो जावें, तो मेरा विश्वास है कि समाजमें व्याप्त धींगाधीगी, कुरीतियाँ और विघटनकी क्रियायें सदाके लिये समाप्त हो सकती हैं। मैं ऐसे विद्वद्वरके लिये सदैव नतमस्तक होकर अपनी शुभकामनायें अर्पित करता हूँ। लोकप्रिय विद्वान एवं प्रभावशाली वक्ता __ डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर वाराणसी विद्वानोंकी नगरी है और इसी नगरीके विद्वान हैं पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री । वर्तमान विद्वत् वर्गमें सर्वाधिक लोकप्रिय विद्वान् हैं। पूरा जैन समाज उनके नाम एवं उनकी विद्वत्तासे परिचित है । मेरा उनसे कब परिचय हुआ, यह तो मझे याद नहीं है, लेकिन गत ३० वर्षोंसे मैं किसी न किसी रूपमें उनसे पत्राचारके माध्यमसे सम्पर्क में हैं। उनके प्रवचन सुने है । कितने ही गोष्ठियों व उत्सवोंमें उनके साथ रहनेका अवसर प्राप्त हुआ है और जबसे विद्वत् परिषद्को कार्य समितिका मैं सदस्य बना है, तबसे तो और भी उनके सम्पर्कमें रहा हूँ। __ शास्त्रीजीके प्रति सभी विद्वानोंकी अपार श्रद्धा एवं कृतज्ञताके भाव हैं। वास्तवमें स्याद्वाद महाविद्यालयमें प्राचार्यके पद पर रहकर आपने विद्वानों, सरस्वती-पतों तथा लेखकोंकी जो पंक्ति खड़ी की है, उसपर आज सारा समाज गर्व कर सकता है। लेकिन पण्डित जी विद्वानोंको तैयार करनेवाले अध्यापक या गुरु ही नहीं हैं, किन्तु प्राचीन सिद्धान्त ग्रन्थोंके उद्धारक हैं, सम्पादक हैं तथा लेखक हैं। उनकी अकेली जैनधर्म पुस्तक ही उनकी कीर्तिको अमर करनेके लिये पर्याप्त है। लेकिन आपने जयधवला जैसे महान् ग्रन्थके सम्पादन में सहयोग दिया तथा जैनन्याय जैसी सुन्दर पुस्तकको लिखनेका यश प्राप्त किया। आपकी बीसों पुस्तकें प्रकाशित होकर देश-विदेशमें जैन धर्मको उजागर कर रही हैं। पण्डितजी जैसे अच्छे लेखक एवं सम्पादक हैं, उसी तरह अच्छे वक्ता भी है। जब आप बोलने लगते है, तथा सिद्धान्तोंके रहस्यको समझाते हैं, तो श्रोतागण हर्षविभोर हो उठते है। यही कारण है कि पण्डितजीको अधिकांश समय वाराणसीसे बाहर रहना पड़ता है। आपके जीवनमें पूरी सादगी है। प्रदर्शन एवं दिखावेसे आप कोसों दूर रहते हैं । वाराणसीमें आप एक छोटेसे कमरेमें बैठे-बैठे सारे समाजको दिशा निर्देशनका कार्य करते हैं । कमरेमें एक टूटी-सी खटिया तथा २-४ पुरानी सियाँ मिलेंगी। आपके जीवनकी सादगीको देखकर कोई नहीं कह सकता कि सामने बैठा हुआ व्यक्ति वर्तमानमें जैन-समाजमें सर्वोपरि ख्याति प्राप्त विद्वान है। आप दिन-रात लेखन क्रियामें लगे रहते हैं तथा प्राचीन सिद्धान्त ग्रन्थोंका सम्पादन करते रहते हैं। -२६ - Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपकी बोलीमें आकर्षण है । बहुत दूरसे ही आप समझ जावेंगे कि कौन बोल रहा है । अभी आप मदनगंज, किशनगढ़ पंच कल्याणक महोत्सवमें आये थे। उस समय विद्वत परिषदकी कार्यकारिणीका अधि भी था। आपने जिस ढंगसे अधिवेशनका संचालन किया तथा पंचकल्याणक महोत्सव में विद्वानोंका नेतृत्व किया, वह उल्लेखनीय है । मदनगंजके पश्चात् आप श्रुतपंचमीके अवसरपर जयपुर पधारे और यहाँ सभामें सिद्धान्त एवं अध्यात्म ग्रन्थोंके भेदको समझाया । उससे जयपुर जैनसमाज आपकी विद्वत्तासे अत्यधिक प्रभावित हुआ। आप देश एवं समाजके गौरव हैं। आप शतायु होकर जैनसाहित्य एवं समाजका दिशा निर्देशन करत रहें, यही हमारी हार्दिक अभिलाषा है । जिनवाणीके एन्साइक्लोपीडिया डा. महेन्द्रसागर प्रचंडिया, डी.लिट्, अलीगढ़, (उ० प्र०) बात आजकलकी नहीं, करीब पन्द्रह वर्ष पुरानी है । काशीपुर (नैनीताल) में त्रिदिवसीय महोत्सव था। बाहरसे आगत विद्वानों और मनीषियोंमें राजनेता श्रीमान बाबू रतनलालजी जैन, मध्यप्रदेशके राजनेता श्रीश्यामलालजी पांडवी, पण्डितप्रवर श्रीमान् कैलाशचन्द्रजी जैन शास्त्री, डॉ० कुन्दनलाल जैन, संगीतज्ञ श्री ताराचन्द्र जी प्रेमी तथा गुणी गन्धर्व श्रीमाणिकजी पधारे थे। अलीगढ़से अहिंसा सम्मेलनके लिए मुझे भी आमंत्रित किया गया था। आयोजनके प्राण थे-बाबू उग्रसेनजी जैन । पण्डितजीके साथ एक ह' मंचपर बोलनेका कदाचित् यह मेरा पहला ही प्रसंग था । जब आगत विद्वान् बोल लिये, उसके बाद प्रेमीजीका गीत गान हुआ। मा० उग्रसेनजी द्वारा मेरा परिचय दिया गया और णमोकार मंत्रके उपरान्त मेरा वक्तव्य बैठकर हआ। एक घण्टे बोलनेके बाद मेरी पीठको थपथपाया गया और मेरे वक्तव्यकी अनुशंसा की गई। मालूम है मेरी पीठ थपथपानेवाला कौन था ? वे थे आदरणीय पण्डितप्रवर कैलाशचन्द्रजी शास्त्री। इतना नहीं, उन्होंने स्वस-पादित मथुराके जैनसन्देशमें मेरे व्याख्यानकी खूब प्रशंसा कर डाली । मुझे लगा कि मानो पण्डितजी द्वारा मेरे लिये यह प्रमाणपत्र है। अब तो मुझे समाज द्वारा खूब बुलाया जाने लगा। सायंकालीन भोजनके उपरान्त मुझसे पण्डितजीने वार्तालाप भी किया और मुझे लगा कि दर्शन, साहित्य और संस्कृतिके विषयमें स्पष्ट दृष्टिकोण समाजमें वस्तुतः विरल ही है। तभीसे मेरे मनमें पण्डितजीके प्रति श्रद्धा-भावना उग आई। महावीर जयन्तीके अवसरपर दूसरी बार बिजनौरमें मुझे पण्डितजीके साथ बोलनेका सुअवसर मिला था। कालिज प्रांगण में आयोजित विशाल सभाको सम्बोधित करनेके उपरान्त जब पण्डितजीसे वार्ता हुई, तो मुझे खूब स्मरण है कि उन्होंने कहा था कि आप रजनीशकी भाँति खूब बोलते हैं। मेरा आशीर्वाद है । आप जैसे नवयुवकों द्वारा अब जैनधर्मको प्रभावना होगी। यह मेरे लिये पण्डितजीका दूसरा स्वस्तिपरक प्रमाणपत्र था। इन भेटोंमें मुझे जो लगा, उससे स्पष्ट है कि जो स्थान हिन्दी साहित्यमें आचार्य प्रवर श्री महावीरप्रसाद द्विवेदीका है, वही स्थान जैन-समाज में पण्डित प्रवरका है। पण्डितजी ज्ञानके पक्के पारखी और सिद्धान्तके सुदृढ़ सुमेरु हैं । दिशा दर्शन तथा प्रेरणा प्रणाली कोई उनसे सीखे । अखिल विश्व जैन मिशनके आद्य संचालक बाबू कामताप्रसादजी जैनके सौजन्यसे मुझे पण्डितजी कृत अनेक ग्रन्थोंके पारायणका सुअवसर प्राप्त हुआ है । लेखनमें पण्डितजीका दृष्टिकोण स्पष्ट और सर्वथा मौलिक परिलक्षित होता है। वे समयानुसार धर्म और सिद्धान्तके प्रतिपादनमें आस्था रखते हैं। उदारता Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादी सिद्धान्ताचार्य पण्डितजीके सम्मुख आकर सारे विरोध प्रायः अनुरोधमें बदल जाते हैं। वे वस्तुतः अनेकान्त दर्शनकी सफल प्रयोगशाला हैं। स्याद्वाद महाविद्यालयके प्राचार्य पदसे जहाँ पण्डितजीने अनेक ग्रन्थोंका प्रणयन किया है, वहाँ निर्गन्थवादी विद्वानोंको भी बनाया-सिखाया है। वर्तमान विद्वानोंकी नामावली यदि बनाई जावे, तो आधेसे अधिक विद्वान् पण्डितजीके शिष्य हो मिलेंगे। वे सचमुच जिनवाणी व्याख्याताओंके विश्वविद्यालय हैं । पण्डितजी द्वारा शास्त्र प्रवचन तथा स्वतन्त्र व्याख्यानोंको यदि टेप किया जाता, जो जैनधर्मकी एक साहित्यिक सम्पत्ति हमारे पास होती जो अनेक दशाब्दियों तक हमारा मार्ग प्रशस्त करती रहती। पण्डितजी निश्चित ही जिनवाणीके एन्साइक्लोपीडिया हैं । जिनवाणीके विचार-कोष पण्डितजी शतवर्षी होकर हमारा मार्गदर्शन करते रहें, यही हमारी कामना है । इस शाब्दिक आदरभावके साथ जिनवाणीके मल्लिनाथ श्री पण्डितजीको मेरे अनेक हार्दिक प्रणाम । कर्मठ समाजसेवी विष्णु सनावद्या, सुमनाकर, ऊन, म०प्र० वास्तवमें श्री शास्त्रीजीने अपने जीवनके ५० वर्ष जैन जगत्की सेवामें व्यतीत किये हैं। ऐसे कर्मठ समाजसेवीका सम्मान करना जैन-समाजका परम कर्तव्य है। श्री शास्त्रीजीकी दीर्घायुके लिए मैं भगवान् श्री महावीरजीसे प्रार्थना करता हूँ । शास्त्रीजी शतायु हों मूलचन्द, किशनदास कापडिया, सूरत हम तो दो वर्ष कम १०० वर्ष के हो रहे हैं, हमारा शरीर अत्यन्त शिथिल है। इन्द्रियोंने एक प्रकारसे जवाब दे दिया है । इसलिये लिखना पढ़ना भी नहीं बनता। हम पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री को अपनी शुभकामनायें प्रेषित करते हैं। वे शतायुष्क एवं सुखी जीवनके भोक्ता हों। वे आजीवन इसी प्रकार धर्म व समाज की सेवा करते रहें। भगवान् महावीर आपका कल्याण करें। सन्त कैलाशचन्द्रजी प्रेमचन्द जैन, अहिंसा मन्दिर, दिल्ली पूज्य पण्डित जी का जन्म १९०३ में भगवान् पुष्पदन्तके ज्ञान कल्याणकके दिन नहटौर, उत्तरप्रदेश में हुआ था । आप स्व० पं० राजेन्द्रकुमार जी न्यायतीर्थके सहपाठी थे। उन्होंने उनके साथ में आर्यसमाज से अनेक शास्त्रार्थों में सहयोग किया । आपका नाम बड़ी श्रद्धा और कृतज्ञतासे लिया जाता है । आपने अनेक प्राचीन शास्त्रों को आधुनिक भाषामें संपादित किया और जैनधर्म पुस्तक तो आपकी सर्वोत्तम कृति है जिसके लिये आपको पुरस्कार भी मिला। जैन सिद्धान्तके अनेक उच्चकोटिके ग्रन्थ आपके द्वारा सम्पादित ( दि० जैन शास्त्रार्थ संघ मथुरा, वर्णी ग्रन्थमाला वाराणसी, भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली व अन्य जगहों से ) होकर प्रकाशित हुए है। -२८ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके प्रेरणास्पद भाषण एवं आपकी धार्मिक रचनायें एक अमूल्य धरोहर हैं जो आनेवाली पीढ़ियों को आगमज्ञानमें सदैव उदबोधित करती रहेंगी। आजके समयमें जबकि पांडित्य अर्जन करने की ओर से लोगों की रुचि कम होती जा रही है, आपके अनेक विद्वान डाक्टरेट करके समाज को दिशा दे हमारे तो आपसे अम्बाले से ही पारिवारिक सम्बन्ध हैं। जब कभी आप देहली आते हैं, बिना हमें आशीर्वाद दिये नहीं जाते । जिससे एक बार सम्पर्क बना लेते हैं, जीवन भर निर्वाह करते हैं । आपका साधनामय, ज्ञाननिष्ठ जीवन एक संतके जीवनसे कम नहीं है। इन्हीं शब्दोंके साथ मैं यही भावना भाता हैं कि उनका वरदहस्त हम लोगोंके सिर पर चिरकाल तक बना रहे। । आदराञ्जलि महताबसिंह जैन, पानदरीबा, दिल्ली पं० केलाशचन्द्रजी शास्त्रीसे मेरा सर्वप्रथम परिचय १९४४ में हुआ था जब मुझे दिल्ली की जैन समाजके जैन मित्र मण्डलका प्रधानमंत्री नियक्त किया गया था। उस समय सामाजिक लोगोंमें चुनाव की प्रथा नहीं थी बल्कि समाजके कुछ प्रमुख लोग किसी अच्छे व्यक्तिको आग्रहसे किसी पदपर नियुक्त करते थे। मैंने भगवान महावीर जयन्ती पर पंडितजीको आमंत्रित किया था। उनके प्रवचनों तथा उपदेशोंसे यह दढ विश्वास हआ कि असलियत में ही पण्डितजी सरस्वती ( माता का नाम तथा जिनवाणी ) के पुत्र हैं। इन्होंने सारी उम्र जिनवाणी की सेवामें बितायी है और आज ७७ वर्षकी अवस्थामें भी वे उसकी सेवा में व्यस्त हैं। स्याद्वाद महाविद्यालय का इतना भारी कार्य करते हुए भी आपने अनेक ग्रन्थ लिखे एवं सम्पादित आपकी केवल एक पस्तक जैनधर्म ही आपका नाम अमर करनेको पर्याप्त है। इसपर आप पुरस्कारके विजेता हैं। आप प्रकृतिसे सादा, सौम्य और सरल स्वभावके हैं, बुद्धिके कुशाग्र हैं और कुशल वक्ता हैं । धर्मकी धारा आप जैसे सुहृद् साधु विद्वानोंके कारण ही अविच्छिन्न रूपसे बहती है। आपकी वक्तृत्व शैली अति सरल और आकर्षक है। जनता मंत्रमग्ध होकर आपको सुनती है। आपके कई शिष्य ऊँचे पदोंपर कार्य कर रहे हैं। आपको अनेक स्थानोंसे बहत-सी पदवियों से सम्मानित किया गया है। जिनेन्द्र देवसे प्रार्थना है कि आप चिरजीवी होकर समाज और धर्मकी सेवामें जीवनपर्यन्त तत्पर रहें। किये । आपकी के शारदा का निडर सपूत नीरज जैन, एम० ए०, सतना शास्त्राभ्यासी बन जाना एक प्रयत्नसाध्य कार्य है। उस अजित ज्ञानका प्रसाद निरपेक्षभावसे दूसरों को बाँटने वाला प्रणम्य है। जिन-शासनकी प्रभावनाके लिये उस ज्ञानका उपयोग करने वाला दनीय है। सिद्धान्ताचार्य श्रीमान पंडित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीका सहज सादगी भरा व्यक्तित्व इन तीनों ही महिमाओंसे मण्डित हैं। उनके अभिनन्दन के अवसर पर अपने श्रद्धा पुष्प समर्पित करके हम स्वतः अपने आप को गौरवान्वित अनुभव करते हैं । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 पंडितजी के व्यक्तित्व और कृतित्वके सम्बन्धमें अपने-अपने ढंगसे बहुत कुछ लिखा जा सकता लिखा जा चुका है और लिखा जा रहा है। मैं उनके प्रति अपनी आदरपूर्ण भावनाओंको थोड़ी-सी पंक्तियोंमें बाँधने का प्रयत्न करूँगा । 1 पंडितजीसे मेरा परिचय तो पूज्य बाबा गणेशप्रसादजी वर्गीके चरणोंमें, सागरमें लगभग तीस वर्ष पूर्व हुआ था। उसके बाद विद्वत् परिषद्के निमित्त से तथा पूज्य वर्गीजीकी जयन्तो के निमित्तसे और सामाजिक उत्सव अनुष्ठानोंके निमित्त से प्रतिवर्ष एकाधिक बार उनका दर्शन और सम्पर्क प्राप्त होता आया है | सतनामें उनकी सेवा करने का अवसर भी कई बार प्राप्त हुआ है, दो बार तो पर्यूषण पर्व में उन्होंने सतना पधारने की कृपा को उनकी अर्हतुकी कृपाका प्रसाद उदारतापूर्वक समाजमे छोटे-बड़ों सभीको मिलता है । इससे अधिक मुझे उनका स्नेह भी प्राप्त हुआ है । घण्टों दिनों और कभी-कभी सप्ताहों मैंने बड़ी निकटता से उनके व्यक्तित्व का अध्ययन किया है। मैं इस बात को अतिशयोक्ति नहीं किन्तु यथार्थके रूपमें स्वीकारने योग्य मानता हूँ — कि जैसा बहुमुखी व्यक्तित्व पंडित कैलाशचन्द्रजीके रूपमें विकसित हुआ है। बैसा बहुत कम लोगोंका हो पाता है। जितने अनूठे साधना-सिद्ध आयाम पंडितजीके व्यक्तित्व में रूपायित हुए हैं, उतने बहुत कम लोगोंके व्यक्तित्वमें हो पाते हैं । मैंने उनमें समय-समय पर विद्यार्थीका लगन और निष्ठा का दर्शन किया है, विद्वान्की गहराइयाँ देखी हैं, साधकका मनन और चिन्तन परिलक्षित किया है, प्राचार्य का अनुशासन और दृढ़ता देखी है तथा एक फक्कड़-मनमौजी व्यक्तिकी निश्चिन्तता पाई हैं । प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने आपको सही दिशामें स्थिर रखते हुए, अपने अभिप्रायकी साधना करनेकी कला यदि सीखना हो, तो उसे बड़े-बड़े ग्रन्थोंमें ढूँढ़ने के बजाय पंडित कैलाशचन्द्रजीके जीवनसे सीख लेना अधिक आसान है। फक्कड़पन की सीमाओंको छूती हुई उनकी इसी निस्पृहताने उन्हें समस्त दिगम्बर समाजकी कई पीढ़ियोंके लिए वन्दनीय बना दिया है । ईसरीमें पूज्य वर्णीजीकी समाधिके समय प्रथम बार, अधिक दिनोंके लिए मुझे उनका सांनिध्य प्राप्त हुआ। जीवनके प्रति उनकी निस्पृहताका, अपने प्रति उनकी जागरूकताका और क्षुद्रताओंके प्रति उनकी उपेक्षा भावका मुझे पहला दर्शन वहीं प्राप्त हुआ। उनके व्यक्तित्वकी अगम गहराईने मुझे उसी दिन उनका प्रशंसक बना लिया। दूसरी बार मैंने उन दिनों उनकी जटिल मनःस्थितिका अध्ययन किया जब जैन-सन्देशमें उनके लेखनको लेकर उन पर सोनगढ़ के प्रति पक्षपातका आरोप, समाज में एक विशिष्ट वर्ग द्वारा लगाया जा रहा था, सोनगढ़ से स्वार्थ साधन करनेका मनगड़न्त और बेबुनियाद आरोप प्रचारित करके उनके चरित्र हननका प्रयास किया जा रहा था। मैंने पाया कि ऐसे क्षुद्र आरोपोंका प्रतिकार करने में पंडितजीने कभी एक क्षण भी नष्ट नहीं किया। उसकी आवश्यकता भी नहीं समझी। बड़ीसे बड़ी दुरभिसन्धि कभी उनकी निष्कर्ष निर्भीकताको आन्दोलित नहीं कर पाई और बड़ेसे बड़े प्रलोभन भी उनकी लेखनी या वाणी से कभी अन्यथा प्रतिपादन कराने में, या गोल-मोल बात कराने में समर्थ नहीं हुए । वस्तु स्वरूपके चिन्तनमें उनका मस्तिक सदैव अत्यन्त सुलझा हुआ रहा और उन्होंने हमेशा दो टूक लहजे में तत्त्वका यथार्थ विश्लेषण स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित किया। सोनगढ़ परम्परामें कानजी स्वामी और उनके परिकरके पास अध्ययन, चिन्तन और साधनाका जो तत्व जिस सीमा तक उन्हें उचित लगा, उन्होंने किसीकी परवाह न करते हुए निडर होकर उसकी प्रशंसा की जो आचरण उन्हें अनुपयुक्त लगे 'पोपडम' । और 'एकान्तपक्ष' जैसे कठोर शब्दोंमें उनकी आलोचना करनेमें भी पंडितजी कभी सहमे नहीं । जैन - सन्देश के उनके कई सम्पादकीय लेख पढ़ने में तो दस मिनट लगते हैं परन्तु महीनोंके चिन्तनकी सामग्री पाठकोंको दे जाते हैं । 'एलाचार्य पदवी' ' अथवा 'पीछी कमण्डलु' 'उनके ऐसे ही लेख हैं । - ३० Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोनगढ़ में पंचकल्याणकके अवसरपर विद्वत् सम्मेलनको आयोजना की गई थी । आयोजनका स्वरूप और अभिप्राय अघोषित था । अध्यक्षता करनेके लिए पंडित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री उपस्थित थे । उद्घाटन श्रीमान् जगन्मोहनलालजीको करना था और प्रमुख वक्ता पंडित कैलाशचन्द्रजी थे । मेलेमें सोनगढ़ विचारधारा के समर्थक तो विपुल संख्या में थे ही, ऐसे लोगोंकी भी वहाँ पर्याप्त संख्या थी जो इस विचारधाराको परीक्षणीय और विचारणीय मानते हुए उसपर प्रश्नचिन्ह लगाते थे । सोनगढ़ परिकरके इन दो विद्वानोंको बोलनेका अवसर देनेमें क्या हेतु है, क्या रहस्य है, यह वहाँ चर्चाका विषय बना हुआ था । इस सम्मेलन में ये दोनों विद्वान् अनेकान्त विचारधाराका कैसा प्ररूपण करेंगे, यह सुनने के लिए हजारों लोग उत्कण्ठापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे । उद्घाटन भाषण में पंडित जगन्मोहनलालजीने 'परस्पर सापेक्षता' और 'निमित्त की तत्कालिक उपादेयता' का जो सुन्दर प्रतिपादन किया उसे लिखनेका यहाँ प्रसंग नहीं है । पंडित कैलाशचन्द्रजीने 'परमागम मंदिर' के प्रस्तुतीकरण की सराहना करते हुए बड़े जोरदार शब्दों में दो बातें कहीं। पहली यह द्यपि एक वस्तु दूसरीपर कोई प्रभाव नहीं डालती है फिर भी कुछ तो बात है कि यह पच्चीस हजार का श्रोता समुदाय कानजी स्वामीके निमित्तसे और परमागम मंदिरके निमित्त से अपने उपादानको प्रभावित करने के लिए आज यहाँ उपस्थित हुआ है । पंडितजीने दूसरी बात यह कही कि आचार्य कुन्दकुन्दने अकेले समयसारकी रचना नहीं की, उन्होंने और भी अनेक ग्रन्थ रचे हैं । कुन्दकुन्दके दर्शन को समझने के लिए हमें उनकी सम्पूर्ण रचनाओंको सामने रखकर विचार करना पड़ेगा । जिन-वाणीका भण्डार बहुत बड़ा है । उसकी प्ररूपणा करनेवाले वीतरागी आचार्यो की परम्परा भी बहुत बड़ी है । कुन्दकुन्द अकेले नहीं हैं । धरसेनाचार्य, भूतबली, पुष्पदन्त और समन्तभद्र भी हैं । उमास्वामी, पूज्यपाद, अकलंकदेव और श्रुतसागर भी हैं । यतिवृषभ, नेमिचन्द्र, अमृतचन्द्र, जिनसेन और जयसेन भी हैं । हमें इन सबकी कथन पद्धतिको दृष्टि में रखकर ही मार्गका निर्णय करना पड़ेगा । अकेले कुन्दकुन्दके लिए हम, आचार्योंकी दीर्घ परम्पराका बलिदान नहीं कर सकते । पण्डितजीका यह भाषण तालियोंकी लम्बी गड़गड़ाहट में मुक्तकण्ठसे सराहा गया। वास्तव में यह भाषण सुनने योग्य तो था ही, देखने योग्य भी था । जिस समय वे "आचार्योंकी परम्पराके बलिदान" की बात कह रहे थे, उस समय उनके शब्दोंकी दृढ़ता और उनके मनका आवेश सचमुच दर्शनीय हो उठा था । उन्होंने तीन मिनटमें जो कुछ कह दिया, उसने उनके तीस वर्षकी साधना परसे संशयका कोहरा हटाकर उनके अनेकान्त प्रेरित चिन्तनको निमिष भर में उजागर कर दिया । प्रायः सुनने में आता है कि पण्डितजी तो मुनि-विरोधी हैं। वे तो साधुओंको नमस्कार भी नहीं करते । परन्तु मेरा अनुभव बिलकुल दूसरा है । पण्डितजी आचार्य संहिताके मर्मज्ञ और परीक्षा प्रधानी, आस्थावान् व्यक्ति हैं । अन्धभक्ति या मूढभक्ति अवश्य उनके भीतर नहीं है । वे पंच परमेष्ठीकी वन्दना करते समय लोकके सर्व साधुओंको जिस आस्थासे त्रिबार नमन करते हैं उसी आस्थासे उन साधुओंके लिए उनका साक्षात् नमस्कार हमेशा निवेदित है जो साधु, आचार संहिताके अनुसार 'ज्ञान-ध्यान और तप' में लगे हुए हैं । मैंने उन्हें स्वर्गीय आचार्य शिवसागर महाराजके संघमें विनयपूर्वक परामर्श करते हुए देखा है | आचार्य श्री विद्यासागर महाराजके चरणोंमें तो वे एकाधिक बार पहुँचे हैं । उन्होंने अत्यन्त भक्तिपूर्वक महाराज से न केवल चर्चायें की हैं वरन् उन्हें आहार भी दिया है । पूज्य समन्तभद्र महाराजके पास भी पंडितजी गये हैं । इस प्रकार वे जिनवाणी और जिनदेवके भक्त तो हैं ही । वीतरागी गुरुके प्रति भी उनके मनमें अपार श्रद्धा और भक्ति हैं । - ३१ - Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'विद्वान' विद्याके धनीका नाम नहीं है। इस शब्दसे जो सामान्य चित्र हमारे मस्तिष्कमें बनता है वह ज्ञान, मनन, साधना और निस्प हतासे संवारा हुआ एक सरस चित्र होता है। पण्डित कैलाशचन्द्रजीके व्यक्तित्वमें उस चित्रके वे सारे रंग अपने पूरे समन्वय और पूरी अस्मिताके साथ परिलक्षित होते हैं । उनका लेखन बहु-आयामी है। सिद्धान्तके गूढ़तम रहस्योंको उन्होंने बालबोध भाषामें प्रस्तुत किया है। एक ओर 'सत्प्ररूपणा' जैसा नवनीत उनकी लेखनीसे प्रसूत हआ वहीं दूसरी ओर सागार-अनगार धर्मामृत और गोम्मटसार जैसे महान् ग्रन्थोंकी अवतारणा भी उनकी साधनासे सुबोध भाषामें उपलब्ध हुई है। उनका मौलिक लेखन और चिन्तन भी अपनी जगह विपुल और खरा है। उनकी साधनाकी वरिष्ठता नापनेका हमारे पास एक सरल आधार है कि आज, उन्हींके सामने, उनके शिष्योंके शिष्य, अपने शिष्योंका जीवन संवारने में संलग्न हैं। इस प्रकार विद्या-व्यसनी समाजकी चार-चार पीढ़ियाँ एक साथ जिसे प्रणाम करती हों, उस व्यक्तित्वके प्रति झुक जाना मस्तकका ही सौभाग्य है। मेरे पूज्य चाचाजी __ अमरचन्द्र जैन, सतना आज सबके परमादरणीय पंडित कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीसे परिचय प्राप्त करनेका कभी सौभाग्य प्राप्त हुआ हो, ऐसा मुझे याद नहीं आता । मैट्रिककी परीक्षा देकर जिस वर्ष उत्तीर्ण हुआ, स्कूलकालेज खुलते ही पिताजीने मेरी कालेजी पढ़ाईकी तैयारी कर दी और एक दिन मेरे बनारस जानेका कार्यक्रम निर्धारित करके मुझे गाड़ीपर बैठा दिया। उस अनिश्चित अभियानका एकमात्र सम्बल था मेरे हाथ में एक पत्र, जिसे देते हुए पूज्य पिताजीने ये शब्द कहे थे कि "बनारस जाकर अपने कैलाशचन्द्र चाचाजीको यह पत्र दे देना, और जैसा वे बतायें सो करना।" बनारसमें पहली बार मिलनेके बाद तबसे आजतक जैसा निश्छल वात्सल्य, जैसी कृपा और अनुग्रह जैसी ममता ओर अपनापन, उनसे मझे और मेरे परिवारको मिला, और मिल रहा है, वह किसी विद्वानसे समाजके किसी सदस्यको मिलना सम्भव नहीं था। गुरुसे शिष्यको भी उसकी उपलब्धि सहज नहीं थी। उसकी अजस्र धारा तो कोई पितृव्य, चाचा, दादा ही अपने बेटों, भतीजोंपर बरसा सकता है । वही अनुपम उपलब्धि मुझे उनसे हुई और इसलिए मेरे लिए वे कभी बड़े भारी विद्वानके ताम-जामसे पंडित महापुरुष नहीं दिखे । न ही कभी "गुरु" का संभ्रम पूर्ण आतंकमय व्यक्तित्व मेरी निगाहें उनमें देख पाई। यह सब महानताएँ उनमें हैं और दिनों-दिन उनके व्यक्तित्वमें इनका उत्कर्ष होगा, परन्तु मेरे लिए तो वे सदेव ही निपट अपने, सहज सीधे, चाचा जी रहे हैं। मुझे यह भी ज्ञात है कि उनकी इस अजस्र प्रेम-परसादीका मैं अकेला हकदार नहीं हूँ। मेरे कुछ और भी भागीदार है। परन्तु हममेंसे प्रत्येक हमेशा यह समझता है कि चाचा जी पर, उनके लाड़ प्रेम और स्नेह पर, उसका ही एकच्छत्र अधिकार है। सबके लिए अपनेपन की यह पूर्णानुभूति प्रदान करना सचमुच उनके विशाल व्यक्तित्वकी विलक्षण विशेषता है । पंडित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री और मेरे पिताजीका उनके विद्यार्थी जीवनसे ही भाई-भाई जैसा स्नेह और सम्मानसे भरा सम्बन्ध रहा, जो आज तक निरन्तर वर्धमान होता चला जा रहा है। इस उल्लेख करते समय मैं 'सगे भाईकी तरह जानबूझकर नहीं लिख रहा हैं क्योंकि सगे भाइयों में ऐसे निश्छल और निःस्वार्थ सम्बन्ध, कमसे कम मेरे जमानेमें देखने में नहीं आते और यदि कहीं देखने में आते भी हैं, तो इतने दीर्घकाल तक उनका चलना तो नितान्त असम्भव ही है। -३२ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहाँ तो मेरे पूर्वजोंका यह गरिमामय प्रभामंडल, और कहाँ मैं, धर्म और साहित्यके मामलेमें निपट अनपढ़, दफ्तरका बाबू, जिसे आठों याम अपने कामसे काम । जब मैं बनारस पढ़ने गया, तब तक मैंने अपने पिताजीके मुखसे भी 'धर्म प्ररूपणा' नहीं सुनी थी। चाचाजीके मुखसे ही पहली बार मैंने प्रवचन और व्याख्यान सुने । उन्हीं से कुछ थोड़ा-सा ग्रहण कर पाया। उन्हींके सहारेसे वह मनोबल जीवन में प्राप्त हुआ जिसके रहते साधनाके क्षेत्रमें अपने रंकपनेका अनुभव तो होता है, उसपर लज्जा या पश्चात्ताप नहीं । उनके जीवनको अपने लिए आदर्श और मार्गदर्शक जीवन मानकर उनसे जो कुछ भी सीखनेका प्रयास किया है, उसका एक छोटा अंश भी मेरे पल्ले पड़ जायेगा, तो मेरे लिए यह भव सार्थक हो जावेगा। उनके किस गुणकी चर्चा करूँ ममता में मातृत्व के समकक्ष, लाड़-प्यार देने में पितासे भी बड़े अनुशासनमें मृदुता पर कलईकी तरह बड़ी हुई कठोरता और हित चिन्तनामें सन्त-सी निर्मलता। इन सारे गुणों को एक साथ जोड़कर निस्पृहता और उदारता के साँचे में ढालनेपर जो व्यक्तित्व बनेगा, वह है मेरे चाचाजीका व्यक्तित्व । जबसे सुना समाज उनका अभिनन्दन करने जा रहा है, मैं बेचैन हूँ कि अभिनन्दनकी उस मालामें कमसे कम एक सुमन, या कमसे कम एक पंखुड़ी मेरी भी हो, जो प्रतीक बने श्रद्धा और विनयकी उन भावनाओं की, जिन्हें शब्दों में व्यक्त करना मेरे लिए सचमुच सम्भव नहीं है । विद्यावारिधि शास्त्रीजी पं० शिखरचन्द्र शास्त्री, ईसरीबाजार ( बिहार ) पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री यथानाम तथागुण हैं । आपने जीवनभर विद्याकी आराधना की है । आपका कार्यक्षेत्र अत्यन्त व्यापक रहा है। आपकी वाचन, प्रतिपादन एवं लेखनशैलीकी मोहकताके कारण आपको चतुरस्रवी कहा जा सकता है। आपके द्वारा की गई जिनवाणीकी सेवा 'इदानीमप्येषा दुधजनपराः परिचिता' का स्मरण कराती है। पूज्य व जीके जीवनकालमें आप उदासीनाश्रममें प्रायः आते रहे थे। आपकी सिद्धान्त सम्बन्धी चर्चाओं में उन्हें बड़ा आनन्द आता था वर्णीजी कहते थे कि पण्डितजी इस उक्तिको पूर्णत: चरितार्थ करते हैं : 'स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।' पूज्य वर्णोजीकी अन्तिम समाधिके समय आपका पूर्ण सहयोग रहा। आपके मधुर सामायिक पाठ तथा स्तोत्रपाठसे पूज्य वर्णीजीके शरीरमें अपार पीड़ा रहनेपर भी उसकी अनुभूति नहीं होती थी । वे नयी चेतनताका अनुभव करते थे । अध्ययन, अध्यापन, लेखन तथा भाषण ये चारों ही आपके जीवनके अंग बन गये हैं। आप स्थागमार्गी पण्डित हैं। आप जिनवाणी रूप कैलाशपतिके ऊपर उदित होते हुए अपूर्व शान्ति सुखदाता चन्द्र हैं । मैं उनके प्रति अपना आदरभाव व्यक्त करता हूँ । ५ - ३३ - Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतज्ञ कारंजा गुरुकुल परिवार पं० माणिकचन्द्र चवरे, कारंजा और पं० माणिक चन्द्र भिषीकर, बाहुबली मैंने सर्वप्रथम विद्ववर कैलाशचन्द्रजीको अपनी विद्यार्थी अवस्थामे ५ मार्च १९३० को कारंजा गुरुकूलमें देखा था । तब वे बिजनौर रथयात्राके लिये पण्डित देवकीनन्दनजीको बुलाने आये थे। उसके पूर्व मैंने उनकी विद्वत्ताके विषयमें बहुत कुछ सुना था, पर जब मैंने अपनी संस्थाके संरक्षक स्वाध्यायपण्डित प्रद्युम्न साहूके साथ उनकी गोम्मटसारकी गहन और गूढ चर्चा प्रत्यक्षतः सुनी, तब मैं उनकी विद्वत्तासे अत्यन्त प्रभावित और प्रसन्न हुआ था। उन दिनों मेरे मनमें वाराणसी जाकर आपसे अध्ययन करने की अनेक बार इच्छा हुई । पर मुझे यह सूयोग नहीं मिल सका। आपके द्वारा लिखित और सुसंपादित अनेक ग्रन्थोंसे आपकी विद्वत्ताके दर्शन होते हैं । सागरके डा० पन्नालाल साहित्याचार्य, आ० अमृतचन्द्र रचित 'लघु तत्व स्फोट'का हिन्दी अनुवाद कर रहे थे । उस समय यह निश्चय हुआ कि इसका आद्योपान्त वाचन बाहुबली (कुंभोज) में किया जाय। एतदर्थ मुझे भी उनके साथ लगभग अढाई सप्ताह तक रहनेका संयोग प्राप्त हुआ। उस समय आपने हस्तलिखित प्रतिके आधार पर कई अशुद्ध पाठोंको शुद्ध करने में तथा अनेक दुरूह पाठोंके आशयको समझाने में अपनी सातिशय प्रतिभाका प्रकटन किया। इसी समय मुझे आपके व्यक्तित्वकी अनेक अमूर्त तथा जीवंत घटनाओंका प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। यद्यपि उन्होंने अपने मुखसे कभी अपने विषयमें नहीं कहा, लेकिन उनके सहपाठी पं० जगन्मोहनलालजीसे मुझे बहुतेरी बातें ज्ञात हुई। उनकी विशेषताओंका प्रत्यक्ष दर्शन अत्यन्त सुखद रहा । मैने उनमें निरामय निश्छलता, सन्तुष्ट परोपकारिता, उद्यमशीलता, सादगीपूर्ण पवित्रता, दृष्टिसम्पन्न ज्ञानपरायणता पाई। इस समय मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि आपको निर्दोष जिनवाणीके किसी भी अंगका अवमूल्यन स्वप्नमें भी इष्ट नहीं। यह उन्हें असह्य है। परमागमका मूल्यांकन परमागमके रूपमें होना चाहिये । वक्ता समय या विषयके अनुसार गौण-मुख्यरूपसे कथन करे, यह बात दूसरी है परन्तु आप जिनवाणीका सदा समादर चाहते हैं। यद्यपि वाराणसीसे कारंजा काफी दूर है, पर पण्डितजीने हमारे निमंत्रणोंको सदैव स्वीकार किया है और वे आत्मीयतापूर्वक यहाँ पधारे हैं । उन्होंने प्रामाणिक सलाहकारके रूपमें हमें अपनी संस्थाओंकी विशेषतः एलोरा गुरुकुलकी अनेक पेचीदी समस्याओंको सुलझाने में समयोचित और समचित मार्गदर्शन दिया है । एतदर्थ गुरुकुल परिवार आपका कृतज्ञ है। आपकी प्रामाणिक ज्ञान साधना अद्भुत रूपसे धारावाही तथा अखण्ड रही है। आपका सुसंस्कृत व्यक्तित्व समाजके लिये आदर्श एवं वरदानस्वरूप रहा है। मेरी हार्दिक भावना है कि आप निरामयरूपसे दीर्घजीवी रहें और आपके परिपक्व अनुभवोंसे समाज लाभ उठाता रहे। शत-शत वन्दन स्वतंत्र जैन, सूरत गुरुजीकी हम क्या बात करें, क्या लिखें? हम जैसे अगणित शिष्यों पर आपके ऐसे उपकार हैं जिनसे हम जीवन भर भी ऋणमक्त नहीं हो सकते । शिष्योंकी बात छोड़िये, वे समाजको अपने जीवन में देते ही रहे हैं। आपको बड़ी बड़ी शक्ति तथा प्रलोभन भी नहीं डिगा सकी है। ऐसे ठोस सत्यवादी एवं व्यापक ईमानदारके प्रति हम नतमस्तक हैं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डितजी बड़े स्पष्टवादी है। वे आगमके अनुकूल ही प्रवचन करते हैं। इसलिये उन्होंने शियिलाचारी मुनियों और उनके पोषकोंको सदा खरी बातें सुनाई हैं। वे मुनिधर्ममें किसी प्रकारको विसंगति नहीं चाहते । सत्यके प्रशंसक एवं प्रतिपादक अपने गुरुवरको मैं शतशत वंदन करता है। कंजूस और उदार व्यक्तित्व डॉ. रमेशचन्द जैन, बिजनौर (उ० प्र०) पण्डितजी स्याद्वाद महाविद्यालयके इतिहास में पिछले पचास वर्षसे अपनी सम्पूर्ण आभाके साथ उगते हुए सूर्यके रूपमें अधिष्ठित रहे हैं । इस महाविद्यालयको स्मृति आते ही पण्डितजीकी छवि अंकित हो जाती है। वस्तुतः स्याद्वाद और पण्डितजी एक दूसरेके पूरक हो गये हैं। किसो संस्थाके प्रति इतना ओतप्रोत जीवन्त पुरुष मैंने आज तक नहीं देखा । वहाँका छात्र होनेके कारण मुझे उनको अनेकों रूपोंमें देखनेका अवसर प्राप्त हुआ है। और बदलते प्रसंगोंमें जितना उन्हें नकारनेका प्रयत्न किया गया है, उतनी ही अधिक मात्रामें उनके साथ सम्बन्धोंकी सूढता घनीभूत हुई है । आजकी नवीन पीढ़ीके अनुशासनहीन वातावरणको देखकर उनके कठोर अनुशासनकी अनेक बार याद आई है और अपने पर्यावरणको किस प्रकार अनुशासित करना चाहिये, इसका अमूर्त सन्देश उनसे प्राप्त हुआ है। ___ छात्र कोई छोटासे छोटा ही अपराध क्यों न करे, उसे उनका सामना अवश्य करना होता था और अपनी स्थिति स्पष्ट कर अथवा उनसे दण्ड प्राप्त कर आनेके बाद ही अपराधी छात्रको मुक्तिकी साँस मिलती थी। विद्यालयका छात्र दिनभर अथवा रातमें कहीं भी रहे, सर्वत्र उसके मस्तिष्कमें पण्डितजी रूपी अप्रत्यक्ष साक्षी विद्यमान रहते थे। विद्वत्ता, वक्तता और लेखन-तीनोंकी दष्टिसे उनकी सरस्वती अद्वितीय है। विषयको सरल एवं सुस्पष्ट करना और अपने विचारोंको छाप श्रोतापर छोड़ देना, उनकी निजी विशेषता है। उनकी वाणीका जादू बड़ेसे बड़े कोलाहलमें भी नीरवता ला देता है और सुनने वाला उनकी दो ट्रक बातोंको सुनकर उनपर विचार करने और कार्य करनेको मजबूर होता है । यथार्थवादिता उनकी वाणीकी विशषता है। स्याद्वाद प्रचारिणी सभा, काशीकी एक सभामें वक्ताओंका विषय था 'यदि मेरे पास अमतकूम्भ होता' । अनेक वक्ताओंने अमतकुम्भके विषयमें व्याख्यान किये । किसीने कहा कि मेरे पास अमृतकुम्भ होता, तो मैं राजा श्रेणिकको पुनः पृथ्वीपर ले आता, किसीने कहा कि मैं राजा कुमारपालको जीवित कर देता, इत्यादि । अन्तमें जब पण्डितजी अध्यक्षीय भाषण देने खड़े हुए और उन्होंने अमृतकुम्भ पर सामान्य प्रकाश डाला, तो कुछ श्रोताओंने उनसे स्पष्ट कहा कि यह बताइये कि आपके पास अमतकुम्भ होता तो आप क्या करते ? पण्डितजीने तत्काल उत्तर दिया-मैं तो किसीको नहीं पिलाता, सारा अमत मैं ही पीकर अपनेको अमर कर लेता। यह उनकी यथार्थवादिताका एक दृष्टान्त है। पण्डितजीमें कंजूसी और उदारताका विचित्र संयोग उपस्थित है। लक्ष्मीको व्यय करनेमें, चाहे निज कार्यके लिये ही हो, वद्धमुष्टि रहना उनका स्वभाव है और अपनी इसी विशेषताके कारण प्रायः वे छात्रों तथा अन्य सम्पर्कमें आने वाले व्यक्तियोंकी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष आलोचनाकी परिधिमें आ जाते हैं । यह सब होते हुए भी उन्होने लक्ष्मीका संग्रह करनेमें कभी अन्यायका आश्रय नहीं लिया। परिश्रमसे उपार्जित अपनी सीमित सम्पदामें ही वे सुखी हैं । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डितजी लक्ष्मीको व्यय करनेमें जितने अनुदार हैं, उतने ही सरस्वतीकी सुरभिको फैलाने में उदार हैं । यही कारण है कि भारतवर्षके कोने कोने में उनका शिष्य समुदाय फैला हुआ है। पण्डितजी एक कुशल पत्रकार हैं, और सहस्रों लेखोंके जनक है। वे सच्चे मार्गदर्शक है। मेरे ऊपर उनकी विशेष अनुकम्पा रही है। वे हमारे प्रेरणा स्रोत बने रहे हैं, यही मझ जैसे अनेक शिष्योंकी कामना है। विद्यागुरुका नमन डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य, मंत्री, विद्वत्परिषद्, सागर सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री दिगम्बर जैन विद्वानोंमें मूर्धन्य विद्वान् हैं । श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसीके प्राचार्य अथवा प्राणाचार्य रहने के कारण आप हजारों विद्वानों के गुरुत्वको प्राप्त हैं । वक्तृत्व और लेखन कलाके धनी पण्डितजी जिस समारोहमें पहुँच जाते हैं, वह गौरवशाली हो जाता है। हृदयके सरल और विद्यार्थियोंके बीच अपना समग्र जीवन बितानेवाले पण्डितजी विद्यार्थीका मानस परखने में अत्यन्त निपुण हैं । जो विद्यार्थी आपकी अन्तःपरीक्षामें उत्तीर्ण हो जाता है, आप उसके जीवन निर्माणमें पिताका काम करते हैं । सदा उसके शिर पर वरदहस्त रखते हैं । बेजोड समीक्षक-मैंने देखा है कि अध्यापनके अतिरिक्त समयमें आप निरन्तर अध्ययनरत रहते हैं । जहाँ आप मौलिक साहित्यके निर्माता हैं, वहाँ अन्य साहित्यकारोंके द्वारा लिखित साहित्यके बेजोड़ समीक्षक भी हैं । देखा जाता है कि कितने ही समीक्षक विद्वान् ग्रन्थकी साज-सज्जा देख तथा प्रस्तावनाके दो चार पन्ने पलटकर अपना समीक्षा लेख लिख देते हैं। परन्तु आप सम्पूर्ण ग्रन्थका अध्ययन किये विना किसी ग्रन्थकी समालोचना नहीं करते । समालोचना देरसे प्रकाशित हो, इसकी आप चिन्ता नहीं करते । समालोचना करते समय आप निजी लेखकोंका भी संकोच नहीं करते । जो बात उन्हें अनुचित दिखती है, उसका वे बराबर उल्लेख करते हैं। दूरस्थ लेखककी कृतिमें गण भी होते हैं और दोष भी। पण्डितजी अपने समीक्षा लेखमें दोनोंका उल्लेख करते हैं। मुखर संपादक-जैन संदेशके आप सम्पादक हैं और आप उसके सम्पादकीय लेख इतनी निर्भयता और औचित्यको लेकर लिखते हैं कि विचारक पाठक आकृष्ट हुए बिना नहीं रहता। भाषण देते समय यथार्थ बातको कहने में आप कभी पीछे नहीं हटते। अध्ययनशील गवेषी-अपने शिष्यजनोंको किसी अच्छे काममें प्रोत्साहित करने तथा उन्हें आगे बढ़ानेका आप सदा ध्यान रखते हैं । वे सफल पत्रकार, टीकाकार और मौलिक ग्रन्थनिर्माता हैं । प्राभृत संग्रह, न्यायकुमुदचन्द्रोदय, सागार धर्मामृत, अनागारधर्मामत, उपासकाचार तथा जीवकाण्ड आदिकी प्रस्तावनाएं पण्डितजीकी अध्ययनशीलताको प्रकट करती है और जैनधर्म तथा जैनसाहित्यका इतिहास १-२ भाग आपके गवेषणात्मक अध्ययनको अभिव्यक्त करते हैं। आपकी जैनधर्म रचना पुरस्कृत रचना है तथा सर्वत्र बड़े आदरके साथ पढ़ी जाती है। डांटनेवाले गरु-मैं सन १९३० में स्यादाद महाविद्यालयमें छह माह रहा। उस समय मा आपसे राजवार्तिक पूर्वाद्ध पढ़नेका अवसर मिला। छात्रको अपना पाठ तैयार कर ही पण्डितजीके पास जाना पड़ता था। पाठ सुने बिना वे अगला पाठ नहीं पढ़ाते थे। यदि छात्रने कदाचित् अपना पाठ तैयार नहीं किया, तो उसपर वह डाँट पड़ती थी जिसे वह जीवन भर याद रखता था। संभवतः इसी प्रवृत्ति ने उनके शिष्योंको अध्ययनशील बनाया है। यही वृत्ति दोनोंकी ही प्रतिष्ठामें साधन बनी है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डितजी और संस्थायें-पण्डितजी दिगम्बर जैन संघ, मथुरा और भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषदके संस्थापकोंमेंसे एक है । आप दो बार विद्वत्परिषद्के अध्यक्ष रह चुके हैं। सोनगढ़ तथा ललितपुर के अधिवेशनमें आपके महत्त्वपूर्ण अध्यक्षीय भाषण हुए हैं। गोपालदासजी बरैया और गणेशप्रसादजी वर्णी शताब्दी समारोह विद्वत्परिषद् की ओरसे मनाये गये, इसमें आपके ही प्रस्ताव मार्गदर्शक रहे हैं । वर्तमानमे आप विद्वत्परिषद्म संरक्षक है तथा सदा मार्गदर्शन करते रहते हैं। आपका मार्गदर्शन विद्वत्परिषद्के संरक्षणमें महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। _ विद्यागुरुका अभिनन्दन-विद्वज्जनोंके अभिनन्दनकी परम्परा बहुत प्राचोन है । वीरसेन स्वामीने धवलाके प्रारम्भमें लिखा है कि षटखण्डागमकी रचना होनेपर भदन्त पुष्पदन्त और भूतवलि आचार्यका अभिनन्दन देवोंके द्वारा किया गया था। उसी प्राचीन परम्पराको अब पुनः नवीन रूप दिया जा रहा है। इस परिप्रेक्ष्यमें हजारों विद्याथियोंके जीवननिर्माता पं० कैलाशचन्द्र जीका अभिनन्दन न होना खटकनेवाली बात थी । यह प्रसन्नताकी बात है कि पण्डितजीके ही अनेक शिष्योंने इस कार्यको हाथमें लिया है। इस सन्दर्भ में मैं अपने विद्यागुरु पूज्य पण्डितके प्रति अपनी विनयाञ्जलि समर्पित करता हुआ उनके दीर्घायु होने की कामना करता है और पण्डितजीका निम्नलिखित आर्या द्वारा नमन करता हूँ। सहृदयताकुलभवनं, विद्यापाथोधिमन्दरं परमम् । कृतिपाटवसंपूर्णः नमामि कैलाशचन्द्रं तम् ॥ आदर्श अध्यापक एवं सफल साहित्यकार महामहोपाध्याय डॉ० हरीन्द्रभूषण जैन, उज्जैन पण्डित-वरेण्य सिद्धान्ताचार्य कैलाशचन्द्र शास्त्रीको मैं एक आदर्श अध्यापक एवं शिक्षा शास्त्रीके रूपमें देखता हूँ । उन्होंने एकान्त साधनाके रूपमें पैतालीस वर्षों तक श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसीकी सेवा कर उसका सर्वांगीण अभ्युदय किया है। महाविद्यालयसे सेवानिवृत्त होनेके पश्चात् भी वे आजकल अधिष्ठाताके रूपमें उसकी सेवा कर रहे हैं। गुरुत्वका तात्त्विक निरूपण करते हुये महाकवि कालिदासने मालविकाग्निमित्रमें कहा है कि कुछ व्यक्ति केवल विषयको भलीभांति जानते हैं और कुछ विषयको दूसरोंको सिखानेमें चतुर होते हैं। किन्तु जो व्यक्ति दोनों प्रकारकी कलाओंमें चतुर हों, वही शिक्षक शिरोमणिकी प्रतिष्ठा प्राप्त करने योग्य है : श्लिष्टा क्रिया कस्यचिदात्मसंस्था, संक्रान्तिरन्यस्य विशेषमुक्ता। यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां, धुरि प्रतिष्ठापयितव्य एव ।। इसी प्रकार अध्यापकके मौलिक गुणोंकी ओर संकेत करते हुए कालिदास कहते हैं कि जो अध्यापक नौकरी प्राप्त कर लेनेपर शास्त्रार्थसे भागता है, दूसरोंके उंगली उठानेपर भी चुप रहता है और केवल पेट पालने के लिये विद्या पढ़ाता है, ऐसे लोग पण्डित नहीं, ज्ञान बेचनेवाले वणिक है। लब्धास्पदोऽस्मीति विवादभीरोस्तितिक्षमाणस्य परेण निन्दाम । यस्यागमः केवलजीविकाय, तं ज्ञानपण्यं वणिजं बदन्ति ।। कविकुल शिरोमणिने श्रेष्ठ गुरुके जो गुण ऊपर वर्णित किये हैं, वे गुरुवर्य पं० कैलाशचन्द्रजीमें पूर्णतः पाये जाते है। मुझे पं० कैलाशचन्द्रका साक्षात् दशवर्ष तक शिष्य होनेका गौरव प्राप्त है और मैं Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःसंकोच यह कहनेको स्थितिमें हूँ कि विषयका प्रौढ़ज्ञान और छात्रोंको सुन्दर रीतिसे उसका प्रदान-इन दोनों कलाओंमें पं० जी सिद्धहस्त है । वे जातिसे वणिक् अवश्य हैं किन्तु ज्ञानपण्यवाले वणिक नहीं। उन्होंने जो कुछ भी अर्थ, संस्थासे प्राप्त किया है, उससे अनेक गुना अर्थ संस्थाको उपार्जित करके दिया है : "सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः ।" इस विद्यालयको एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता रही है-राष्ट्रसेवाको भावना पैदा करना। इस विद्यालयके अनेक छात्रोंने १९४२ के राष्ट्रीय स्वातन्त्र्य आन्दोलनमें सक्रिय भाग लिया जिनमें मेरा नाम भी सम्मिलित है । फलस्वरूप मुझे जेल-यात्राके साथ कुछ वर्षों के लिए अध्ययन स्थगित कर देश भ्रमण करना पड़ा। . पं० कैलाशचन्द्र जी अपने जीवनके प्रारम्भसे ही राष्ट्रीय भावनाओंसे ओतप्रोत रहे हैं। वे सदैव शुद्ध खादीके वस्त्र पहिनते हैं। उनके ही सौजन्यसे स्याहाद महाविद्यालयमें राष्ट्रीय भावनाका वातावरण रहा । इसी कारण १९४२ में यह महाविद्यालय राष्ट्रीय स्वातन्त्र्य आन्दोलनके प्रमुख केन्द्रोंमें गिना जाता था। उस समय शहरके सभी मुद्रणालयोंपर शासनने अपना अधिकार कर लिया था किन्तु स्याद्वाद महाविद्यालयने मुलतानी मिट्टीसे बने बिना मूल्यके देशी मुद्रणालयोंमें प्रतिदिन हजारों पर्ची को छपाकर शहरमें राष्ट्रीय आन्दोलनको जागृत रखा । पण्डितजी सदैव ऐसी राष्ट्रीय गतिविधियोंको प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूपसे प्रोत्साहित करते रहते थे। पं० कैलाशचन्द्रजी आदर्श अध्यापक होने के साथ एक सफल साहित्यकार भी हैं। वे भारतीय ज्ञानपीठ, जीवराज ग्रन्थमाला आदि अनेक जैन साहित्य प्रकाशक संस्थाओंके सम्पादक नियामक आदि तो हैं ही, स्वयं भी उन्होंने जो उच्चकोटिका साहित्य निर्माण किया, उसके आधारपर सफल साहित्यकारोंमें उनकी प्रतिष्ठा है। पण्डितजीने अभीतक १२ मौलिक ग्रन्थोंकी रचना तथा १२ ग्रन्थोंके सम्पादन और अनुवादके साथ सहस्राधिक सामाजिक एवं शोधात्मक निबन्ध लिखे हैं । जैन साहित्यके इतिहासपर रचित उनके तीन मौलिक ग्रन्थ उनकी शोध प्रतिभाके निदर्शन हैं। आप जैन विद्वानोंकी नई पीढ़ीके जनक है। जैन विद्वानोंकी समाज-सेवासे विमुखता एवं निरन्तर हो रहे उनके अभावसे पीड़ित होकर पण्डितजीने जैन साहित्यका इतिहास, प्रथम भाग (वर्णी जैन ग्रन्थमाला प्रकाशन) के लेखकके दो शब्दमें लिखा था : "दिगम्बर जैन समाजमें भी चरित्रके प्रति तो आदरभाव है किन्तु ज्ञानके प्रति आदरभाव नहीं है। इसीसे जहाँ दिगम्बर जैन मुनिमार्ग वृद्धिपर है, वहाँ जैन पण्डित धीरे-धीरे समाप्तिकी ओर बढ़ रहे हैं । दिगम्बर जैन मुनिमार्गपर धन खर्च करनेसे तो श्रीमन्तोंको स्वर्ग सुखकी प्राप्तिकी आशा है किन्तु दिगम्बर जैन विद्वानोंके प्रति धन खर्च करनेसे उन्हें इस प्रकारको कोई आशा नहीं है । फलतः निर्ग्रन्थोंके प्रति धनिकों के द्रव्यका प्रवाह प्रवाहित होता है और गृही जैन विद्वानोंको आजकी मंहगाईमें भी पेट भरने लायक द्रव्य भी कोई देना नहीं चाहता। इससे विद्वान तैयार होते हैं और समाजसे विमुख होकर सार्वजनिक क्षेत्र अपना लेते है। वहाँ उन्हें धन, सम्मान-दोनों मिलते हैं।" आदरणोय ५० कैलाशचन्द्रजीका सम्मान कर हम उनमें निहित सरस्वतीके सम्मान द्वारा अपनेको कृतार्थ कर रहे हैं। मैं उन्हें अपनी आदराञ्जलि समर्पित करता है। - ३८ - Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्याव्यसनी एवं कर्मठ व्यक्तित्व राजकुमार जैन, अ० भा० आ० चिकित्सा परिषद्, नई दिल्ली यह एक निविवाद एवं असंदिग्ध तथ्य है कि विद्या-दानके द्वारा पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने असंख्य छात्रोंका भविष्य निर्माण किया है और उनके अन्धकारावृत पथको ज्ञान-पुंजसे उद्भासित कर उन्हें योग्य, सक्षम एवं विद्वान् बनाया है। पण्डितजीके असंख्य शिष्योंमेंसे मैं भी एक हूँ। उनके असाधारण व्यक्तित्वमें जहाँ मैंने कर्मठता और कर्मशीलताका अनुभव किया है, वहीं मैंने निश्छलता, उदारता और सहज सहृदयताका भी अनुभव किया है। वे एक सरल स्वभावी एवं निस्पृही व्यक्तित्वके धनी हैं। उन्होंने अपनी विशाल शिष्य परम्पराके द्वारा समाजमें जागृतिको मशाल जलाई है जिससे विशाल जन साहित्यका नव-निर्माण एवं पुनरुद्धार भी हुआ है। स्वयं पण्डितजीने भी साधना-रत रहते हुए इस दिशामें जो योगदान किया है, वह उनको सतत क्रियाशीलता एवं विद्याभ्यासकी प्रतिमूर्ति है। पण्डितजीने अपने ज्ञान, गौरव, विलक्षण प्रतिभा एवं साधनापूर्ण जीवनके द्वारा जो अपूर्व आदर्श प्रस्तुत किया है, वह सर्वथा श्लाघनीय एवं अनुकरणीय है। निःसन्देह समाज उनकी सेवाओंसे उपकृत है और ऋणी है । निश्छल एवं कर्मठ व्यक्तित्वके धनी पण्डितजीके प्रति अपनी अभिनन्दनांजलि अर्पित करते हुए मैं उनके सुदीर्घ जीवनकी कामना करता हैं। समाज उनके पथ-प्रदर्शनका लाभ उठाते हुए चिरकालतक अपनी ज्ञानपिपासाको शान्त करता रहे और अपनी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक धरोहरकी रक्षा करता रहे, यही मंगल कामना है। एक कर्मयोगी डॉ० सुरेशचन्द्र जैन, रायपुर, (म० प्र०) पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री जैन समाजकी क्या, समूचे विश्वके लिए एक प्रेरणास्रोत हैं। स्याद्वाद महाविद्यालय काशीमें पण्डितजीके चरणोंमें इन पक्तियोंके लेखकको चार वर्ष तक अध्ययनका स्वर्ण अवसर मिला है। इतने लम्बे छात्र जीवनमें पण्डितजीको बहत ही नजदीकसे देखा है। उनका जीवन पूर्ण सादगीसे भरा हुआ है। वे अपनी धुनके तो इतने पक्के हैं कि जिस कार्यको अपने हाथमें लेते हैं, उसको पूरा करके ही चैन लेते है । स्याद्वाद महाविद्यालय, काशीके तो आप प्राण ही माने जाते थे। एक समयका प्रसंग है कि पण्डितजीको अपनी सुपुत्रीकी अस्वस्थताके कारण बाराबंको (उ० प्र०) जाना था । यात्राके लिये बिस्तर वगैरह तैयार था। इसी बीच विद्यालयका जरूरी कार्य आ जानेसे वह बिस्तर बाराबंकी न खुलकर विद्यालयके कार्य हेतु अन्यत्र ही खुला । ऐसे कई प्रसंग है जिनसे आपकी विद्यालयके प्रति अनठी निष्ठा झलकती है। समयके तो इतने पक्के हैं कि उस समय हम छात्र लोग उन्हें विद्यालयमें देखकर अपनी घड़ी मिलाया करते थे। आज जो उच्चकोटिके विद्वानोंकी श्रृंखला दृष्टिगोचर होती है, उसमें प्रायः पण्डितजीकी ही शिष्यमण्डली है । आपकी छत्रछायामें जो भी थोड़ा-सा समय व्यतीत किया, उसने आपके निर्मल चरित्रसे बहत कुछ पाया । वास्तवमें ऐसे विद्वानसे किसी वर्ग सम्प्रदाय या जाति विशेष नहीं, बल्कि सारी मानवता Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही लाभान्वित होती है । उनकी जैनधर्म नामक पुस्तक तो जैनेतर समाजके लिये भी एक निर्देश ग्रन्थ बन चुकी है । जयधवला आदि उच्चकोटिके ग्रन्थोंको टीका कर आपने समाजके जनसाधारणके लिये जो उपकार किया है, उसको भावी पीढ़ियाँ कई सदियों तक स्मरण करेंगी । ऐसे निस्पृही विद्वान्के अभिनन्दनसे समाज स्वयं ही गोरवान्वित रही है । मेरी कामना है कि पण्डितजी अपने उज्ज्वल जीवनकी शताब्दी मनाते हुए यशोवर्द्धन करें । सहृदय पण्डितजी राजनाथ रसोइया, स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी श्री स्याद्वाद महाविद्यालयके अधिष्ठाता पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री बड़े ही उच्चकोटिके विद्वान् और महापुरुष हैं वे महात्मा के समान । पण्डितजीका बोल- वचन बहुत ही सच और मधुर है । पण्डितजी द्वारा प्रदत्त पुस्तक रामचरित मानस हम लोगों को बहुत ही प्रिय है । उसे हम अपने घर ले गये तो हमारे गाँवके लोग बड़े प्र ेमसे उसको पढ़ते हैं । हमारे घरके लोग पण्डितजीको बहुत ही आदरणीय मानते हैं । एक घटना है कि हमारे पिता बहुत ज्यादा बीमार थे । पण्डितजीसे घर जानेकी छुट्टी माँगी, तो पण्डितजीने कहा— जाओ, देख आओ । अब अच्छे हो गये होंगे । घर गये, तो पिताजी अच्छे हो गये थे । इस प्रकार पण्डितजीके वचन बहुत ही सच निकलते हैं । उनका भोजन शुद्ध और सादा चलता है । कई बार तो बिना नमकका ही भोजन कर लेते हैं, फिर बादमें याद आता है कि नमक नहीं पड़ा था । मगर पण्डितजी कुछ कहते नहीं हैं । अष्टमी - चतुर्दशीको एकाशन रखते हैं । जब पण्डितजी विद्यालय में प्राचार्य थे, तो सुबह छह बजे ही ठंडेके दिनोंमें भी मन्दिर होकर गद्दीपर पढ़ाने बैठ जाते थे । हम समस्त भृत्योंके प्रति पण्डितजीका अच्छा व्यवहार रहा है । वे हम लोगोंकी हर समस्याको सुनते हैं और उसको यथासंभव पूरा करा देते हैं । वे समय-समयपर हमें हर साल कपड़े तथा त्योहारोंपर त्योहारी दिया करते हैं । जब पण्डितजीका साथ छोड़नेकी बात आती है, तो आखोंमें आँसू भर आते हैं । मेरी दृष्टिमें पण्डितजी डॉ० प्रेमसागर जैन, बड़ौत गौर वर्ण, प्रशस्त ललाट, रोम-रोमसे झलकती प्रतिभा, पाण्डित्यके धनी, एक असाधारण व्यक्तित्व । प्रथम दर्शनमें ही मुग्ध रह जाना पड़ता है । मेरा भी यही हाल हुआ, जब स्याद्वाद महाविद्यालय में पढ़ने गया । सहज श्रद्धा उमगी, तो विनम्र हो जाना स्वाभाविक था । वैसे, संस्कृत विद्यालय विनयके प्रतीक होते हैं । और फिर वह समय ही कुछ ऐसा था, जिसमें अनुशासन भीतरसे फूटता था । पण्डितजी प्रधानाचार्य थे । वहाँ मैं ९ वर्ष पढ़ा। पण्डितजी सफल अध्यापक थे । जो कुछ पढ़ाते गलेके नीचे उतर जाता । - ४० - Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह ही कारण है कि बहुत कुछ विस्मरण कर जानेके बाद भी बहुत कुछ याद है। आज बड़ी-बड़ी डिग्रियों और उपाधियोंसे सुशोभित अनेक मिल जाते हैं, किन्तु एक अच्छे अध्यापकका मिलना कठिन होता जा रहा है। यह मैं प्रतिदिन अनुभव करता हूँ। सच यह है कि भारतीय शिक्षाविद् भारतकी धरा, जलवायु और संस्कृतिको बिना समझे शिक्षाका रथ चलानेकी कोशिश करते है ओर फेल हो जाते हैं । अरबों रूपया व्यय करने के बाद भी भारतीय शिक्षाका कोई 'फारमला' नहीं बन पाया। यह एक खेदका विषय है। तो, पण्डितजीका अध्यापन अविस्मरणीय रहेगा। जहाँ तक प्रधानाचार्यका सम्बन्ध है, उनमें प्रशासनिक सूझ-बूझ और प्रतिभा थी। पूर संस्था उनके हाथमें थी। वे चाहते तो संस्थाके तानाशाह बन सकते थे, किन्तु उन्होंने सदैव लोकतन्त्रको तरजीह दी। मुझे स्मरण नहीं कि उन्होंने छात्रोंकी न्यायोचित माँगोंको न माना हो । खुला वातावरण था । शिक्षा प्राप्त करने और विचार प्रगट करनेको खुली छूट थी। कहीं संकीर्णता नहीं, दबाव नहीं, शोषण नहीं । उस कालके संस्कृत विद्यालयोंमें इतना खुलापन कहीं सम्भव नहीं था। यही कारण था कि हम केवल शास्त्र ओर ग्रन्थमें बन्धकर न रह सके, हम कुछ मौलिक चिन्तन और सृजनकी ओर बढ़े । मैं स्याद्वाद महाविद्यालयके वातावरण का सदैव ऋणी रहूँगा। पण्डित कैलाशचन्दजी उसके जन्मदाता थे। अध्यापक वही है, जो अध्यापनसे बचे समयमें शोध-खोज, अन्वेषण, सम्पादन, ग्रन्थ-सृजन आदिमें अपना समय लगाता है। मैंने अपनी किशोरावस्थासे ही पण्डितजीको, छेदीलालके मन्दिरके नीचे बने भवनके एक प्रकोष्ठ में ग्रन्थोंके घेरेमें घिरा देखा है। उन्होंने धवला-जैसे ताड़पत्रीय ग्रन्थोंका सम्पादन और अनुवाद किया है । ग्रीष्मकी जलती दुपहरियों और शीतके कटकटीते जाड़ोंमें, मैंने उनकी लौ का दीप सतत जलते देखा है । जेठकी एक दुपहरीमें, मैं छेदीलालजीके मन्दिरके उस उपर्युक्त प्रकोष्ठमें पहुँच गया । मुझे अपने शोध प्रबन्धके प्रथम खण्ड-'जैन भक्ति काव्यकी पृष्ठभूमि के सम्बन्धमें पण्डितजीसे विचार-विमर्श करना था। पण्डितजीने एक घण्टे तक मुझे समझाया ही नहीं, अनेक दुर्लभ ग्रन्थोंके उद्धरण भी दिये । अनुसन्धित्सुओंके प्रति वैसा स्नेह और विद्वत्तापूर्ण निस्वार्थ दिग्दर्शन आज केवल कल्पना-सा लगता है। ऐसा लगता है कि युग बीत गया है । ऐसा लगता है कि भारतका गोल्ड समाप्त हो गया पर गोल्डनकी चकाचौंध है, जिसे विद्वत्ताके गगनचुम्बी सौध पर सजानेमें अहोभाग्य माना जाता है। पण्डितजीने अनेक ग्रन्थोंका सम्पादन-अनुवाद और मौलिक सुजन किया है। वे धर्म, इतिहास और संस्कृतिके माने-जाने विद्वान् है। उनके ग्रन्थ मनीषियों और साधारण जन-दोनोंके बीच समान रूपसे समादृत है । इसका एक कारण है कि उनकी भाषा सहज-सरल सीधी और प्रवाह-पूर्ण होती है, तो उनके विचारों और भावोंकी अनुवतिनी भी। उन्हें कहीं खीच-तान नहीं करनी पड़ती। भाषा स्वयं उनके पीछे-पीछे चलती है। सहजगतिसे, उसकी सधी चाल, सभीके मनको मोह लेती है। उसे विद्वान् समझ लेता है, तो साधारण जन भी। पण्डित कैलाशचन्द्रजी दर्शन और धर्मकी टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियों पर भी साधारण-से-साधारण जनको भी चलानेमें समर्थ हए, उसका कारण उनकी भाषाकी सरलता और प्रवाहमयता ही थी। गांधीजी एसी ही भाषा चाहते थे । पण्डितजीके ग्रन्थोंमें उनके गम्भीर अध्ययन और चिन्तनकी स्पष्ट छाप है। "आज"के यशस्वी सम्पादक श्री बाबूराव विष्णु पराड़करका कथन था कि पहले तो अनेकानेक ग्रन्थोंका वर्षो अध्ययन और मनन करना चाहिए, तभी लिखनेकी ओर प्रवृत्त होना श्रेयास्पद होता है। पण्डितजीने अपने जीवनका महत्त्वपूर्ण अंश केवल अध्ययन और अध्यापनमें बिताया। इसके बाद ही वे सम्पादन और लेखनकी ओर -४१- . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुड़े यह बात उनके सभी निकटवर्ती साथियों और छात्रोंको विदित है जब लिखने में लगे, तो एक योगीकी तरह लिखते गये और लिखते जा रहे हैं । जैन पण्डितोंने जिस निष्ठा और श्रमसे ताड़पत्रीय प्रन्थोंका उद्धार, सम्पादन और अनुवाद किया, वह सराहनीय है। विदेशों में ऐसी लगन नहीं मिलती, यदि मिलती है तो अलरों अथवा पौण्डोंमें उसकी कीमत हमारे लिए आश्चर्यका विषय होती है। एक बार एक विद्वान् पण्डित, सिद्धान्ताचार्य कैलाशचन्दजी के विरुद्ध धुर्वाधार बोल रहे थे । सार था कि पण्डितजीने धवलाके सम्पादनमें सहस्रों रुपया नाजायज ढंगसे बचाया में मौन था निन्दा शब्द रसाल से परिचित था। मैंने केवल इतना कहा कि पण्डितजीका यह काम यदि अमेरिका, इंगलैण्ड अथवा जर्मन जैसे देश में सम्पन्न हुआ होता, तो उनपर गवर्नमेण्टकी ओर से लाखों रुपया न्योछावर कर दिया जाता, हाथों-हाथ उठा लिया जाता और विश्वके मानचित्रपर उनका एक चमकता चित्र होता जैन समाजने उनको क्या दिया ? समुद्रको बूँदकी भेंटका क्या मतलब और क्या महत्त्व ? विगत २० वर्षों में जितना जैन लेखन हुआ, उसमें एक कमी है— मेरी दृष्टि में नहीं भी हो सकती । अपना-अपना दृष्टिकोण है । तुलनात्मक तत्त्वोंकी बेहद कमी है। एक स्वस्थ और तटस्थ तुलना सदैव आदरणीय होती है। तुलनाके लिए जहाँ अनेक ग्रन्थोंका पारायण करना होगा, वहाँ विदेशी दर्शन साहित्य और धर्म आदिका भी आलोडन करना आवश्यक हो जायेगा। जैन दर्शन अथवा सिद्धान्तको जगत्के क्षितिजपर प्रतिष्ठित करनेके लिए यह अनिवार्य है । वे विद्वान् जिन्हें जैन दर्शनका ठोस ज्ञान है, पश्चिमी दर्शन और दृष्टिसे नितान्त अस्पृष्ट हैं उन्हें करना होगा। तीव्रगामी यानोंसे एकमेव होते विश्व में यह एक अहं महत्त्वकी बात है । उसके बिना हम कटे-कटे-से हो जायेंगे। मैंने पण्डितजीके 'जैन इतिहास' में अंग्रेज और जर्मन लेखकोंके शतशः उद्धरणोंको ठीक प्रसंग टंने देखा और उसका तर्कसम्मत खण्डन या मण्डनदेखा तो प्रसन्नता हुई । यदि पण्डितजी अपने दर्शन और सिद्धान्त के ग्रन्थोंमें भी तुलनात्मक दृष्टिकोण अपनायें, तो कीर्तिमान स्थापित होगा । यह निःसन्देह सत्य है । भाषण एक कला है, ऐसा मैं मानता हूँ । किन्तु यह भी मैं मानता हूँ कि जब उसके पीछे ग्रन्थ-गत ज्ञान और द्रवणशील हृदय होता है, तो उसमें निखार आता है । वह जमकर बोलता है और विभोर होकर बोलता है । सामनेका श्रोता समूह विमुग्ध हो उठता है । हत-चेतन, अवाक्, मुँह बाये वह भाषणकर्ताकी भाव तरंगों के साथ उठता और गिरता है, हँसता और रोता है, उत्तेजित और शान्त होता है। मैंने अनेक ऐसे भाषणकर्ताओं को देखा और सुना है । उसमें एक पण्डित कैलाशचन्द्रजी भी हैं । धर्म और दर्शन के टेढ़े-मेढ़े रास्तोंको पण्डितजी सहजगम्य ही नहीं, हरे-भरे भी बना देते हैं, जिसपर चन्द्रकिरण छिटकती हैं। और मलयानल बहता है। पण्डितजीको वाक्शक्ति जन्मसे मिली ऐसा प्रतीत होता है। उनके बोलनेका ढंग अनुकरणीय है । 1 स्याद्वाद महाविद्यालय में छात्रोंकी एक सभा थी। उसका वार्षिक चुनाव होता था । बड़ी गरमागरमी रहती थी । उसके विधानमें साप्ताहिक बैठकका नियम था । उसमें छात्र हिन्दी और संस्कृत में बोलते थे । बादमें अंग्रेजीमें भी बोलनेका प्रावधान हो गया था। मैंने उन सभाओं में बोलना सीखा। इतना सीखा कि स्याद्वाद विद्यालयके सात वार्षिकोत्सवोंमें मुझे प्रथम पुरस्कार मिला । अन्य अनेक पुरस्कार भी मिले। इस सबके प्रेरणासूत्र थे पं० कैलाशचन्द्रजी। उन्होंने मुझे जैन सिद्धान्त पढ़ाया और भाषण देना भी सिखाया। पण्डितजीका एक रूप पत्रकारका रूप है । इसके माध्यम से उन्होंने जैनसमाजको अपना मार्ग दर्शन - ४२ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया। उनके सम्पादकीय निर्भीकताके प्रतीक होते हैं । वे समाजसे कभी डरे नहीं, जो कहना था, कहां । प्रबुद्ध वर्ग सदैव उनके साथ रहा। समाजके कुछ लोगोंने उनका विरोध भी किया, किन्तु वे दबे नहीं । उनका जीवन सदैव गरिमापूर्ण और शालीन रहा। उन्होंने आवश्यकतासे अधिक पैसेकी कभी आकांक्षा नहीं की। उनके सादा जीवनके अनुरूप जो कुछ उन्हें कभी मिलता था, उसमें सन्तुष्ट थे। मैंने उन्हें कभी किसी सेठ अथवा सेटिठ-पुत्र अथवा राजकीय पुरुषकी खुशामद करते नहीं देखा। वे बिकनेवाले जीव नहीं हैं। यदि ऐसा होता, तो वे अभी तक कभीके खरीदे जा चके होते और फिर उनको लेखनीमें ऐसी निर्भीकता नहीं देखी जाती। उनका “पत्रकार" सदैव सजग और निर्भीक रहा । उनका यह रूप मुझे भाता है। पण्डितजाका जीवन सात्त्विक और धर्ममय है। वे प्रतिदिन सात्त्विक और अल्पभोजन ही करते हैं । एक साधुके भोजनसे उनका आहार कहीं अधिक सादा होता है। सादा शाकाहार ही उनका जीवन है । ऐसा मैंने अनेक बार अपनी आँखोंसे देखा है। रात्रि-भोजनका नितान्त निषेध है। हर परिस्थितिमें निषेध है । भारतीय ज्ञानपीठके एक लाख पुरस्कार समारोहके अवसरपर मुझे उनके साथ, लगभग चार वर्ष, एक साथ रहनेका सौभाग्य मिला है। वे दोपहरका ही भोजन कर पाते थे। शाम तो मीटिंगमें बीत जाती थी। रात्रिको सूखे मेवे और दूध लेकर सो जाते थे। देव दर्शनका ऐसा नियम कि उसके बिना नाश्ता तक नहीं करते । देवदर्शन भी ऐसा-वैसा नहीं कि मत्था टेका और भाग आये, लगभग एक घण्टा । पाँच मिनट बाद, मैं मन्दिरसे बाहर आ जाता और पचपन मिनट पण्डितजीकी प्रतीक्षा करता था। कभी-कभी उनसे अण्टशण्ट बोल जाता, किन्तु वे सदैव मसकराते ही रहते। बात-चीतसे विदित हआ कि आदमी अभ्यासमें जीता है । मन तो कभी-कभी ही रमता है। ___ पण्डित कैलाशचन्द्र एक ऐसे पण्डित हैं, जिनके चेहरे पर कोई मुखौटा नहीं है । आजकी इस दुनियामें असली चेहरा लेकर घूमना कितना मुश्किल है । हर कोई जानता है । एक असमियाँ कविताका सार है, "मेरे चारों तरफ भीड़ है। मैंने हरेकके चेहरे पर नजर डाली, तो असली चेहरा किसीका न मिला । एक दूर खड़े आदमीको मैंने समझा कि उसका चेहरा असली है। मैं उसके पास गया उसके चारों ओर घूमकर देखा तो मालूम पड़ा कि उसके पीछे बड़ी-बड़ी गुफाएँ हैं। मैं फिर आकर अपनी जगह खड़ा हो गया और सोचने लगा कि क्या इन मुखौटा-चढ़े लोगोंके बीचमें असली चेहरा लिये जिन्दा रह सकता हूँ।" किन्तु पण्डितजी जी रहे हैं और यह उनकी बहुत बड़ी जीत है। असलियत को छिपाना वे नहीं जानते, ऐसा उनका निष्कलुष हृदय है। आज के इस पैसा और सेक्सके युगमें मनसे कलुष हटा देना बहुत बड़ी बात है। मन और वाणीकी एकता कभी सम्भव नहीं रही। जो कर पाते थे, साधक कहलाते थे । मैं पण्डितजीको साधक तो नहीं कहता किन्तु उनका इस दिशामें सतत प्रयत्न, एक सद् प्रयत्न तो है ही। इससे उनके मनके पुनीत भाव उजागर होते हैं । पैसा बहुत बड़ी चीज है। उसके बिना जीवन नहीं चलता । जिसने मनुष्यका शरीर पाया है, उसे पैसा जरूर चाहिए। महावीरने दुनियाके लोगोंके लिए पैसेको नगण्य नहीं माना। किन्तु उसके सन्तुलनपर उन्होंने बल दिया। उन्होंने कहा कि जरूरतसे अधिक पैसा संकलित करना पाप है। पाप इसलिए कि वह समाज और व्यक्ति दोनोंके लिए हानिकारक और विपत्तियों का जन्मदाता है। आज पैसेका युग है । महावीरने बहुत बड़ी बात कही थी, किन्तु जैनोंने न उसे प्रचारित किया और न प्रसारित । जब मार्क्स की थीसिस प्रकाशमें आई, तब भी जैन चुप रहे। उस समय उन्हें महावीरके सिद्धान्तोंसे विश्वको वाकिफ करना चाहिए था । इस सम्बन्धमें पण्डितजीसे बात हुई। उन्होंने कहा कि महावीरका यह सिद्धान्त कि "जरूरतसे अधिकका संकलन मत करो", एक सार्वभौम और सार्वकालिक तत्त्व था । पण्डित कैलाशचन्द्रजी स्याद्वाद Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यालयके प्राचार्य पदसे अवकाश ले चुके हैं । अब कोई पैसा उन्हें नहीं मिलता। मैंने पूछा कि क्या आप लड़केकी कमाईपर निर्भर हैं ? उन्होंने कहा-नहीं। हमारा बैंकमें इतना पैसा जमा है कि २०० रुपया माहवार ब्याजका आ जाता है। इससे अधिककी हमें आवश्यकता नहीं है। पण्डितर्ज से रमारानी और साह शान्तिप्रसादने एकाधिक बार कहा कि अब, अवकाश-प्राप्तिके बाद, आप 'भारतीय ज्ञानपीठ' सम्भालिए । पण्डित जी ने इन्कार कर दिया। इस सन्दर्भमें उनका स्पष्ट मत है कि मैं अब कहीं नौकरी नहीं करूँगा। मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है। पण्डितजी भारतीय ज्ञानपीठकी मूर्तिदेवी ग्रन्थमालाके प्रधान सम्पादक हैं । इस दिशामें उनका सहयोग नितान्त अवैतनिक है। आज, जब भारतीय समाज पैसेकी चकाचौंधमें चौंधियाता जा रहा हो, पण्डितजीकी उसमें कोई आसक्ति नहीं। उनका यह निरासक्त भाव अभिनन्दनीय है। पण्डितजी अपने सभी छात्रों, सम्बन्धियों, विद्वानों, समाजके जान-पहचानके व्यक्तियोंसे प्रेम करते हैं, किन्तु मोह किसोसे नहीं। उसके भीतरका यह मोह-हीन रूप हम लोगोंको सदैव चक्कर में डालता रहा है। किन्तु जहाँ तक मैं समझ सका है, पण्डितजी जैन होते हुए भी जगदगुरु शंकराचार्यकी इन पंक्तियोंका मूल रूपमें अमल करते हैं : का ते कान्ता, कस्ते पुत्रः, संसारोऽयं अतीव विचित्रः । मैं पण्डितजीकी शतायुकी शुभ कामना करता हूँ। जैन संस्कृतिके अग्रदूतके प्रति धन्यकुमार सिंघई, कटनी, म० प्र० आजके पावन प्रसंगपर विश्वविख्यात अंग्रेज साहित्यकारकी एक घटनाका स्मरण आ रहा है। एक समय प्रधान मन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू अपनी लंदन यात्राके अवसरपर आंगल मनीषी जार्ज वर्नाडशासे उनके निवासपर मिलने गये । विशुद्ध शाकाहारकी चर्चाके समय शॉने प्रशंसात्मक शब्दोंमें नेहरूजीस कहा कि आपके भारतमें बहुत अच्छी चीजें है। गाँधी है, आप है, जैन धर्म है। इस कथनसे किस भारतीयका मस्तक गौरवसे ऊँचा नहीं होता। ऐसी है हमारी गरिमापूर्ण अहिंसामयी परम्परा। और उसीके परिवर्धक और प्रसारक हैं हमारे पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री। अतीत कालमें समय-समय पर असाधारण पाण्डित्य एवं प्रगल्भ प्रतिभासम्पन्न पुरुषोंने हमारे देशमें जन्म लिया है। जैन वाङ्मयकी विभिन्न प्रकारकी रचनाओंसे समयके अनुसार साहित्य सृजनकर उन्होंने जिनवाणी माताका कोष समृद्ध किया है। मेरी मान्यता है कि उसी श्रृंखलामें यदि आचार्य प्रवर युगमनीषी पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीको रवू, तो मेरी दृष्टिसे कुछ अत्युक्ति नहीं होगी। उनकी असाधारण मेधावी प्रवृत्तियोंने जैन संसार और विश्वको कुछ ऐसी विशिष्ट कोटिकी रचनायें दी हैं जो सहज सम्भव नहीं है। आपकी एक दर्जनसे अधिक मौलिक रचनायें आपके गम्भीर अध्ययन, अनुशीलन एवं अनुभबके प्रमाण हैं । जहाँ विशद ग्रन्थोंके सम्पादन, अनुवाद, टीका आदि की विवेचनाका प्रश्न है, वहाँ इतना ही उल्लेख करना पर्याप्त होगा कि ग्रन्थराज जयधवला जैसे महान आगमग्रन्थकी टीका आपके द्वारा सम्पन्न हो रही है। आपने अनेक ग्रन्थोंकी गवेषणापूर्ण सरल सुबोध टीका कर सर्व सुलभ बनाया है। जैन दर्शनपर खोजपूर्ण निबन्धों एवं सामयिक धार्मिक प्रश्नोंके समाधान स्वरूप अपने सैकड़ों लेखों द्वारा समाजके जिज्ञासुओंको -४४ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्तुष्ट किया है । जैन संदेशके सम्पादकीयके अग्रलेखोंका अपना अलग महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। बिना किसी पक्षपातके वस्तूतन्वका निर्भीकतासे प्रतिपादन करना उनकी अपनी विशेषता है। मेरे लिये उनकी कृतियों एवं कार्योंकी समीक्षा करना अत्यन्त कठिन है। इनकी जैन जगत् की सेवायें अनुपमेय है। केवल भावी पीढ़ी या इतिहासकार ही उनकी सेवाओंका मूल्यांकन करने में समर्थ हो सकेगा। इतना अवश्य कह सकता हूँ कि आपकी रचनायें आपके सिद्धान्तोंके गहन पाण्डित्यको प्रतीक है। काशीका स्थावाद महाविद्यालय और आपका ब्यक्तित्व एक दूसरेके पूरक बन गये हैं। ४५ वर्षके प्रधानाचार्यत्वके बाद पिछले ७ वर्षोंसे आप अधिष्ठाता पदपर रहकर आज भी विद्यालयकी सेवामें संलग्न हैं। विद्यालयके अतिरिक्त, आप अनेक उपयोगी धार्मिक, सांस्कृतिक कार्यों, शोध एवं परामर्श मण्डलोंमें व्यस्त रहते हैं। आपके कुशल दूरदर्शिता पूर्ण नेतत्व एवं मार्गदर्शनका अनेक संस्थानोंको पूरा-पूरा लाभ मिलता है । साहित्य सृजनमें आपकी विशेष रुचि है। आपका अधिकांश समय लेखन, सम्पादन, अनुवाद व टीका करने में व्यतीत होता है । लेखन कलामें आप जितने सिद्धहस्त हैं, उतना ही आपका वाणीपर अधिकार है । घण्टों अपनी ओजस्वी वाणीसे बड़ेसे बड़े समुदायको सम्बोधित कर आप मंत्र मुग्धकर प्रभावित करते हैं। आप जितने बड़े विद्वान हैं, उतनी ही आपके जीवनमें सादगी है और सरलता है। आडम्बरहीन जीवन ही उन्हें विशेष प्रिय है। निस्पृहता आपमें कूट-कूटकर भरी है। धार्मिक, सामाजिक आयोजनोंमें आप कभी भेंट स्वीकार नहीं करते । निष्काम भावसे धर्म तथा समाज सेवाका निर्वाह प्रारम्भिक जीवनसे ही निरासक्त वृत्तिसे कर रहे हैं । वर्तमानमें यह अप्रतिम अनुकरणीय आदर्श है जिसके दर्शन हमें व्यक्तिमें कदाचित् ही अन्यत्र मिलते हैं । ऐसे संकल्पके धनी व्यक्ति इस भौतिक युगमें विरले हैं। उन्होंने समाजसे लेनेकी अपेक्षा उसे दिया ही दिया है। :-हमारी स्मृति जहाँ तक जाती है, हमें पण्डितजीका स्नेह एवं कृपाभाजन होनेका सौभाग्य प्राप्त है। उनका हमारे परिवारसे सम्पर्क रहा है। हमें ऐसा कोई अवसर याद नहीं जब पण्डित जीने हमारे पारिवारिक, धार्मिक उत्सवों या वैवाहिक मांगलिक प्रसंगोंमें भाग न लिया हो । उनका आशीवर्वादात्मक वरदहस्त सदैव हमारे ऊपर रहा है। वे हमारे परिवारके अभिन्न अंग, अग्रज और कर्णधार रहे हैं । अनेक बार यात्राओंमें उनके साहचर्य एवं सत्संगके लाभसे भी लाभान्वित हुए हैं। ऐसी अनेक रोचक, सरस प्रवासकी स्मृतियाँ हैं जो हमारे स्मृति पटलपर निधि स्वरूप सुरक्षित हैं। उनमें एक ऐसी अविस्मरणीय घटना है जिसका उल्लेख करना अनुचित न होगा। पण्डितजीके विद्यार्थी जीवनकी घटना है। आप आदरणीय पण्डित जगन्मोहनलालजीके सहपाठी थे । पण्डितजीके पिता श्री बाबा गोकुलचन्द्र ब्रह्मचारी धर्म प्रचार हेतु पन्ना स्टेटके अंचलमें बसे ग्रामोंका भ्रमण कर रहे थे। दूर-दूर तक फैले वनों के बीचमें छोटी-छोटी ग्रामीण बस्तियोंमें जैन समाजके परिवार बसते थे। रियासत होनेसे आवागमनके विशेष साधन सुलभ न थे। कभी-कभी रियासतकी डाक सेवा बस आती थी । राज्य कर्मचारियोंकी कृपासे बसमें कभी-कभी कुछ यात्रियोंको यात्राकी सुविधा मिल जाती थी। अधरे बने होनेके कारण बीच में ही यात्रीको मार्गमें छोड़ देती थी । दुर्गम पहाड़ी वन-वीथियोंके द्वारा अभीष्ट स्थानोंमें पहुँचनेके लिये काफी कठिनाईका सामना करना पड़ता था। दैववशात् बाबा मोकुलचन्द्रजी भ्रमण करते-करते एक ग्राममें सख्त बीमार हो गये। पं० जगन्मोहनलालजीको किसी तरह पिताजी की बीमारीकी सूचना मिली। वे जैसे-तैसे कठिनाइयोंका सामना करते हुए पता लगाकर वन्य मार्गोसे उस Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाँव पहुँच सके। जंगली स्थान होनेसे मार्ग में हिंसक पशुओं एवं शेरोंका भय बराबर बना रहता था। पिताजीको ३० लंघने हो चुकी थीं। देह टूट चुकी थी। ग्रामीण वैद्य २० मील दूरपर रहते थे। चिकित्साकी समुचित व्यवस्था न पाकर और स्थिति गम्भीर देखकर इन्होंने एक पत्र अपने सहाध्यायी मित्र श्री कैलाशचन्द्र जीको मुरेना विद्यालय के पतेपर पिताजीकी गम्भीर स्थितिका जिक्र करते हुए छोड़ दिया। जब उन्हें इनका पत्र मिला, वे मित्रके संकटसे विचलित हुए। पैसा पास में नहीं था। जटिल समस्या थी । केवल एक अंगूठी सोनेकी अंगुली में थी । अन्ततोगत्वा कोई चारा न देखकर उसीको गिरवी रखकर मित्रकी सहायतार्थ वे मुरेनासे चल पड़े। चूंकि हमारे परिवारसे बाबा श्री गोकुलचन्द्र जी का सम्बन्ध था, अतः वे चलकर सीधे कटनी आये और यहां इन्होंने बावाजीकी बीमारोको सूचना दी। हमारे पर भी उनकी अस्वस्थताका समाचार आया था । पर उस गाँवका पूरा-पूरा पता ठिकाना न मालूम होनेसे हमारे ताऊ व चाचाजी वगैरह कोई सहायता न कर सके । किन्तु कृतसंकल्प पं० श्री कैलाशचन्द्रजी ग्रामका पता लगाते-लगाते सतना स्टेशन से पन्ना रियासतके उस दुर्गम जंगली ग्राम में अनेकानेक कठिनाइयों को पारकर, पद यात्रा तथा घोड़ेकी सहायता से पहुँच गये। जब उनकी पण्डित जगन्मोहनलाल जीसे भेंट हुई तो उनके नेत्र भर आये । गम्भीर वस्तुस्थितिके समय इनके साहस और सायनाने जो कार्य किया, वह किसी महौषधिसे कम नहीं था । शनैः शनैः बाबाजी स्वस्थ हुए। उनका समाज सेवा एवं जिन धर्म प्रचारका कार्य यावत् जीवन चलता रहा । श्री सिद्ध क्षेत्र कुंडलपुर में उनके द्वारा स्थापित श्री महावीर उदासीन आश्रम आज भी वर्तमान है । श्रद्धेय पण्डित जगन्मोहनलालजी आज भी उनके जीवन स्मारक है जो गृह त्यागकर निस्पृह जीवन यापनका व्रत लेकर जैन संसारकी महती सेवा कर रहे हैं। ऐसे महर्षि-सम महामानवको मेरा शत-शत प्रणाम । अनुपम निधि सेठ भागचन्द्र सोनी, अजमेर पण्डितजी समाजकी अनुपम निधि हैं, उनका सम्मान समाजका सम्मान है, जिनवाणीका सम्मान है । वाग्देवी सरस्वतीके महान् उपासक पण्डितजी अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थोंके यशस्वी रचयिता तथा सम्पादक, प्रखर पत्रकार एवं कुशल ओजस्वी उपदेष्टा है। उनकी वाणीमें ओजपूर्ण माधुर्य लेखनीमें तर्कपूर्ण गवेषणात्मक शैली तथा समाजको दिशा देनेकी अद्भुत क्षमता है। पूज्य क्षु० श्री १०५ गणेशप्रसादजी वर्णीके शब्दोंमें 'स्याद्वादके प्राण' पण्डितजी वस्तुतः स्याद्वादके प्राण है। इन्होंने अपनी क्षमतापूर्ण साधनासे श्री स्वाद्वाद महाविद्यालयको विशाल वटवृक्षके रूपमें पल्लवित पुष्पित किया है। उनकी यश-सुरभि आज उनके हजारों शिष्य सर्वत्र बिखेर रहे हैं। दूसरी ओर जैनधर्मके शाश्वत सिद्धान्त स्वाद्वादके वे प्रखर प्रबल उपदेष्टा तथा रचनाकार हैं। स्वाद्वादके प्राणका स्याद्वादके प्रति समर्पण भावनापनीय ही नहीं, अपितु अभिनन्दनीय है पण्डितजीका और मेरा सामाजिक सौहार्द है बल्कि कहना न होगा कि उनका सामाजिक स्नेह अन्तरंगसे है। वे एकाधिक बार अजमेर पधारकर अपनी मृदुवाणीसे अजमेर वासियोंको उपकृत कर चुके हैं। उनका निश्छल अनुराग मेरे स्मृति पटलपर सतत बना रहता है। पण्डितजी चिरायु हों, समाजका चिरकाल तक मार्गदर्शन करें, यही श्रीमज्जिनेन्द्र देवसे प्रार्थना है । - ४६ - , Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान् मानवरत्न भगवानदास शोभालाल जैन, सागर, (म० प्र०) ज्ञान समान न आन जगतमें, कोऊ सूखको कारण । यह परमामृत जन्म-जरा-मृत्यु, रोग निवारण । सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, न्यायतीर्थका अखिल भारतीय स्तर पर अभिनन्दन सम्पूर्ण जैन समाजके लिए बड़े ही गौरवकी बात है। आप जैन सिद्धान्तके मुर्धन्य विद्वान हैं। उनकी गणना भारतके उच्चकोटिके विद्वानोंकी शृङ्खलाको सुशोभित कर रही है। 'गुणोंकी सर्वत्र पूजा हुआ करती है ।' इसी भावोक्तिपूर्ण तथ्यको लेकर, जैन-अजैन जो भी आपसे परिचित हैं, सभीको उनकी गुण गरिमापर गर्व है ।। पण्डितजी हिन्दी-संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओंके ज्ञाता, जिनवाणी माताके अनन्य उपासक, सरस्वतीके वरदपुत्र, विद्यावारिधि, जैनधर्म, दर्शन एवं साहित्यके प्रकांड विद्वान, साहित्य मनीषी, सफल सम्पादक, ग्रन्थकार, रचनाकार, टीकाकार तथा जैन धर्मके गूढ़ रहस्योंके ज्ञाता, ओजस्वी वक्ता एवं प्रवचन कर्ता है । वह साहित्यकी विविध-विधाओंसे श्री-सम्पन्न हैं। पण्डितजीकी सस्थागत, सतत साहित्यिक सेवाएँ सदैव चिर स्मरणीय रहेंगी। उनके जीवनका अधिकांश समय अध्ययन, मनन एवं चिन्तनमें व्यतीत हुआ और वही क्रम अभी भी उनके जीवनके दैनिक कार्यों में समाहित है । इससे बढ़कर उनके जीवनकी विलक्षणता और क्या हो सकती है ? वास्तव में वह सादा जीवन उच्च विचारके प्रबल पोषक और ज्ञानगंगामें अवगाहन करनेवाले महान् मानव रत्न हैं। धर्मके प्रचार एवं प्रसारमें उन्होंने अपना सारा जीवन ही समाजको समर्पण कर दिया है और इस उक्तिको सिद्ध कर दिया है कि ज्ञानके समान सुखका साधक अन्यत्र मिलना संभव नहीं है। इन्हीं आत्मिक प्रसूनोंके द्वारा हम श्रद्धेय पण्डितजीके सम्मानमें अपनी भाव वन्दना समर्पित करते हुए श्रीवीर प्रभुसे उनके स्वस्थ जीवन एवं दीर्घायुकी मंगल कामना करते हैं । महाविद्वान् पण्डितजी सत्यन्धरकुमार सेठी, उज्जैन, (म० प्र०) वास्तव में जैन-समाजके महाविद्वान, चिन्तक और मनीषी पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री सिद्धान्ताचार्य बनारसका अखिल भारतीय स्तपर अभिनन्दन एक अनुकरणीय प्रयास है। मैं इस अभिनन्दनको एक आदर्श अभिनन्दन मानता हैं। यह ऐसे व्यक्तित्वका अभिनन्दन है जिसने अपने जीवनका हर क्षण माँ भारतीकी सेवामें, उसकी साधनामें अर्पित किया है। ऐसा अभिनन्दन समाज व राष्ट्र के लिए गौरवकी बात है। __ भारत देश सदैव विद्वानोंका गढ़ रहा है। ये समाजके एक सजग प्रहरी होते हैं। इनके पवित्र और आदर्श जीवनसे समाज और राष्ट्र के जीवनका निर्माण होता है। प्राचीन भारतमें जैन समाजमें हरयुगमें ऐसे विद्वान होते रहे हैं जिनके चिन्तनसे और आदर्श साहित्य-सर्जनसे भारतीय राष्ट्रको आदर्श Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लेखनीय सेवायें हुई हैं। उनमें महाविद्वान् पं० टोडरमलजी, जयचन्दजी, पं० सदामुखजी, द्यानतरायजी, भागचन्दजी, टेकचन्दजी आदिके नाम विशेष उल्लेखनीय है। वर्तमान पीढ़ीमें भी अनेक विद्वान पैदा हए हैं जिनमें पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीका उच्चतम स्थान है। पण्डितजीसे मेरा साक्षात् परिचय बहुत कम हआ है, लेकिन उनके आदर्श जीवनसे और उनकी विद्वत्तासे मैं काफी प्रभावित हूँ। मैं जानता हूँ कि उन्होंने जैन-साहित्य व समाजके लिए जो सेवायें अर्पित की हैं वे इतिहासके पन्नोंमें स्मरणीय रहेंगी। पण्डितजी समाजमें एक निर्भीक, स्पष्टवादी एवं निःस्वार्थ वक्ता हैं। उनकी वाणीमें ओज है, आदर्श है। वे समाजमें एक ऐसे विद्वान है जिन्होंने कभी भी अपने जीवनको किसी भी व्यर्थक विवादमें नहीं उलझाया है। वे एक विशुद्ध आगमपंथी विद्वान् हैं। उनके विचार पंथभेदोंसे ऊपर उठे हुए हैं। वे नहीं चाहते कि समाजमें इस तरहके विवाद पनपें । वे एक वीतराग मार्गके पोषक हैं और शिथिलाचारके घोर विरोधी हैं। वे चाहते हैं कि जैनधर्म आदर्श बना रहे। उनके विचारोंमें जैनधर्म एक आडम्बरविहीन धर्म है । पण्डितजीकी धार्मिक आस्था अडिग है। वर्तमान साधु संस्थामें भी उनकी आस्था है, लेकिन उनमें व्याप्त शिथिलाचारको वे किसी भी कीमतमें सहन कर लेनेको तत्पर नहीं है। जैनसन्देश पत्रके आप से सम्पादक हैं। आपकी सम्पादकीय विचारधारा हमेशा समाजको सही मार्गदर्शन देती रही है। जैनसन्देश आदर्श सेवा एवं उच्चकोटिका पत्र माना जाता है । इसका शोधांक तो आज शोधके विद्यार्था और विद्वानोंके लिए प्राणस्वरूप है। इस पत्र की नीति वास्तवमें आपहीके कारण निष्पक्ष रही है। आपने कभी भी इस पत्रमें किसी विवादको महत्त्व नहीं दिया और न स्वयं कभी किसी विवादमें पड़े। सोनगढ़के पूज्य कानजी स्वामीको लेकर आज समाजमें काफी विवाद है। इसको लेकर आप पर भी कभी-कभी आक्षेप किये जाते हैं। लेकिन जहाँतक मेरा ख्याल है, आपने अपने आपको कभी भी इस विवादमें नहीं उलझाया । सही बातका समर्थन करना पक्षपात नहीं कहलाता। सोनगढ़के सम्बन्धमें भी आपने वहाँपर होनेवाले विशाल समारोहमें भी कुछ ऐसी बातोंका डटकर विरोध किया था जो उन्होंने वहाँपर विपरीत रूपमें देखी थी । सहारनपुर में मैंने स्वयं ही कानजी स्वामीके सम्बन्ध पण्डितजीसे चर्चा की थी। तब भी उन्होंने मुझे यही कहा था कि हमारा समर्थन किसी भी व्यक्ति विशेषका नहीं है, हमारा समर्थन सिर्फ वीतरागमार्ग और आगमका है। कई बार उनके विचारसे मैं भी सहमत नहीं होता, तब मैं बराबर उनसे पत्र व्यवहार करता हूँ और मुझे उनसे स्पष्टतया निर्भीकता पूर्वक समाधान मिलता है। इससे मालूम होता है कि वे अपने विचारोंपर पूर्णतः दृढ़ रहते हैं। उनकी स्पष्टवादिता और निर्भीकतासे मैं काफी प्रभावित होता हूं। पण्डितजीने कितने ही मौलिक और सिद्धान्तग्रन्थोंका सम्पादन किया है और वर्तमान पीढीको मार्ग दर्शन देनेके लिये नव निर्माण भी किया है। आपके द्वारा रचित ग्रन्थोंमें जैनधर्म नामा ग्रन्थका विशिष्ट स्थान है। यह आज देश और विदेशमें मान्यता प्राप्त है। अन्य ग्रन्थ भी पठनीय और मननीय है। आपको जन्म देनेका सौभाग्य उत्तरप्रदेशको मिला है लेकिन आज वे इतने सार्वभौमिक है कि हर प्रान्तका व्यक्ति आपको अपना मानता है और अनुभव करता है कि आप हमारे ही हैं। स्याद्वाद महाविद्यालय बनारससे तो आप वर्षोंसे सम्बन्धित रहे ही हैं लेकिन आपकी जैन समाजकी अन्य संस्थाओंके लिये भी उल्लेखनीय सेवायें रही हैं। समाज सेवा भी हमेशा आपकी निःस्वार्थ रही है। महावीर जयन्ती जैसे समारोहों, दशलक्षण पर्व जैसे महान पर्वो में धर्म प्रचारार्थ आप पधारते हैं लेकिन आपने कभी भी समाजसे -४८ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी भी रूपमें कोई आकांक्षायें प्रगट नहीं की है जबकि अन्य विद्वानोंकी स्थिति इसके विपरीत है। ऐसे महाविद्वान् पर हमें गर्व है और आस्था है। पण्डितजीका एक आदर्श चारित्रिक जीवन है। सात्त्विक खानपान है और सादा पहनावा है। उनमें न अहंकारके दर्शन होते हैं और न भावनायें । वास्तवमें, वे उच्चकोटिके महान विद्वान है । मैं उनको जैन समाजकी एक अमूल्य विभति मानता हूँ। वर्तमानमें पण्डितजी जेसे विद्वानोंका उदगम होना संभव नहीं है। यह महाविद्वान चिरंजीवी बनकर इस महान वीतराग मार्गकी सेवा करते हए अपने आपको अमर बनायें। लोकप्रिय सम्पादक हीराचन्द बोहरा, कलकत्ता समाजले यशस्वी लेखक, उच्चकोटिके विद्वान् एवं लोकप्रिय सम्पादक पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीके द्वारा जैनधर्म, साहित्य व समाजके क्षेत्रमें जो उल्लेखनीय सेवायें हुई हैं, समाज उन्हें कभी विस्मरण नहीं कर सकता। उनकी बक्तत्व शैली, लेखन शैली एवं प्रगाढ़ विद्वत्ताकी छाप अगणित व्यक्तियों पर पडी है। शास्त्रीजीने अपना समूचा जीवन ही सेवा हेतु अर्पित किया है। विद्याके प्रचारके क्षेत्रके अतिरिक्त जैन सन्देशके सम्पादक के रूपमें उन्होंने जिस निर्भीक, सुलझी हुई विचारधाराका परिचय दिया एवं समाजको विवटनसे बचानेका सदा आह्वान किया, यह उनकी विशेषता है । शास्त्रीजी दीवायु हों, सदा नीरोग रहें और समाजको उनकी सेवाका लाभ मत प्राप्त होता रहे। यही श्री वीर प्रभुसे मेरी प्रार्थना है । आस्थाके प्रतीक डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच संसारमें व्यवहारकी उज्ज्वलता लिये तरह-तरहके चटकीले रंगोंमें प्रकाशित होनेवाले विहगों, मराल-मालाओं और तदनुरूप अपने आपको व्यक्त करने वाले नर-नारियोंकी भी कमी नहीं है । शब्दोंको रट लेने वाले खगोंकी भाषामें अपने व्यक्तित्वका प्रदर्शन करने वाले विद्वानोंकी भी कमी नहीं दिखलाई पड़ती। इसी प्रकार चारि का दम्भ भरने वाले और अपनी श्रेष्ठताका ढिंढोरा पिटवाने वालोंकी भी कमी नहीं है। किन्तु उन सबमें अलगसे लक्षित होनेवाला भी एक मानवीय व्यक्तित्व है जो अपनी आस्थाके शिखर पर सदा स्थिर रहने वाला है, जिसे अपनी आस्थाका स्वाभिमान है और जो प्रत्येक परिस्थितिमें अपनी ईको उजागर करने वाली आस्थाका प्रतीक है। ऐसे व्यक्तित्वका संघर्ष कम नहीं होता, किन्तु वह अडिग चट्टानकी भाँति झंझाओं, चक्रवातोंकी चिन्ता कब करता है? उसके व्यक्तित्वका निर्माण आस्थाके उन सूत्रोंसे होता है जो कभी मिटना नहीं जानते और जो सदा अपराजेय होते हैं। जैन समाजकी विद्वन्मण्डलीमें प्रमुख रूपसे व्याख्यानवाचस्पति पं० देवकीनन्दनजी और पं० चैनसुखदासजीका बरबस स्मरण हो आता है, जिनकी प्रखरता सत्यके खरेपनमें चमकती हुई भासमान होती थी और जो आस्थाके पक्षधर थे। उनकी जैसी निर्भीकता, स्पष्टता और खरापन आज भी गुरुवर्यमें परिलक्षित होता है। समाज और देशमें चाहे जैसे विचारोंकी आँधी चलती हो, समय-समय पर झंझावातोंकी प्रबलता लक्षित होती हो; किन्तु उनके विचारोंमें सदा एकरसता है-समरसता है। वे Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागताके प्रबल पक्षधर हैं। कोई कुछ भी कहे और कछ भी माने: वह बडे-से-बडा साध. त्यागी भी का जाता हो, पर जिनवाणीके सामने वे किसीके आगे सिर नहीं झका सकते। यह एक ऐसी विशेषता है जो किसी विरलेमें ही लक्षित होती है। मेरे गुरुवर्य ऐसे ही विरले हैं। प्रभावक वक्तृता और प्रभावोत्पादक लेखन, साथ ही शास्त्रीय ग्रन्थोंका सम्पादन, अनुवाद आदिका कार्य सब एक साथ सफलतासे करने वाले बहत कम देखे जाते हैं । आपमें ये सभी विशेषताएं एक साथ पाई जाती हैं । लेखनमें भी स्पष्टता, निष्पक्षता और प्रामाणिकता आपके विशेष गुण हैं । एकके बाद एक कर अनेक पीढ़ियाँ बीतती जायेंगी, परन्तु आपके गुण सरस्वती-मन्दिरमें प्रवेश पाने वालोंके लिए, जैन आस्थाकी देहरी पर चढ़ने वालेके लिए, सदा दीपकके प्रकाशकी भांति स्पष्ट आलोक प्रदान करते रहेंगे । और इसीलिये युग-युगों तक आस्थाके प्रतीकको हम अपने स्मतिमन्दिरमें संजो कर रखेंगे-भावी पीढ़ीके पथ-प्रदर्शन व प्रेरणा-प्राप्ति हेतु। सतत अभिनन्दनीय पंडितजी डा० ज्योतिप्रसाद जन, लखनऊ 'पंडित' शब्द इधर कुछ विवादका विषय बन गया है और कई ऐसे अर्थों में भी प्रयुक्त होने लगा है जो शायद उपहासास्पद या अशोभनीय भी लगें। तथापि सच्चे पंडित आज भी हैं, सदैव रहे हैं और होते रहेंगे । समादरणीय सिद्धान्ताचार्य पंडित कैलाशचन्द्र शास्त्री ऐसे ही यथार्थ पंडित है। वर्तमान जैन शास्त्री पंडितोंमें वह शीर्षस्थानीय हैं। वह अदभुत पाण्डित्यके धनी, जैन साहित्यके गम्भीर अध्येता और परम सिद्धान्त मर्मज्ञ ही नहीं हैं, वरन् पुरातन शास्त्रकारोंके हार्दको खोलकर सरल सुगम भाषा एवं शैलीमें उसे प्रस्तुत करने में भी अत्यन्त प्रवीण हैं। एक कुशल अध्यापक होनेके साथ ही साथ वह एक प्रगतिशील सजग पत्रकार भी हैं, और एक आकर्षक वक्ता एवं प्रवचनकार होनेके साथ-साथ विपुल एवं विविध साहित्यके प्रणता भी हैं। सिद्धान्तज्ञ या दार्शनिक विद्वान बहधा ऐतिहासिक दष्टि-शून्य होते हैं, किन्तु हमारे पंडितजी इस नियमके अपवाद हैं। उनके लेखनमें भी और भाषणोंमें भी एक सुलझी हई समीक्षात्मकता, तुलनात अध्ययन तथा स्वतन्त्र चिन्तन भी यत्र-तत्र प्रभुत दृष्टिगोचर होते हैं। उनका अध्ययन जैन शास्त्रों तक ही सीमित नहीं रहा, वरन जैनेतर दार्शनिक, धार्मिक एवं लौकिक साहित्य और समसामयिक विचारधाराओंसे भी उन्होंने स्वयंको अवगत रक्खा । इसीसे उनके विचारोंमें प्राचीनता और आधुनिकता, पुराने और नये, का स्वस्थ सामंजस्य बहुधा प्राप्त होता है। पक्षका आग्रह उन्हें अभिभूत नहीं करता, सत्यका आग्रह ही उन्हें इष्ट रहा है। इसीलिए वह भिन्न या विरोधी विचारों अथवा सम्प्रदाय आदिकोंमें जहाँ-कहीं कुछ उपादेय देखते हैं तो उसकी सराहना करने में संकोच नहीं करते, और स्वयं अपनी परम्परामें जहाँ कोई असिद्ध, तर्कहीन या अनुपादेय बात देखते हैं तो उसकी आलोचना करने या उसे अमान्य करने में भी नहीं चूकते। वह गुणग्राही हैं। इसके अतिरिक्त, शोध-खोजके क्षेत्रमें जिस अनाग्रह दृष्टिकी अपेक्षा रहती है, वह उनमें भरपूर है । वीरसेनीय धवलाटीकाके रचनाकालको लेकर स्व. प्रो० हीरालालजीके साथ विचार-विरोधकी कहानी चौंतीस-पैंतीस वर्ष पुरानी हो गई। आदरणीय प्रोफेसर सा० से मतविरोध करना उस समय हमारा एक दुस्साहस ही शायद समझा गया था। उनके नाम, वैदुष्य और प्रामाणिकताकी धाकके कारण हमारा किसीने समर्थन नहीं किया, यहाँ तक कि स्व. मुख्तार सा० ने भी नहीं, जिन्हें हमारी बात जॅच गयी थी। किन्तु Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे मतका खंडन भी आज तक किसीने नहीं किया। मुख्तार सा० एवं पंडितजी प्रभति कोई-कोई विद्वान इस मतभेदका उल्लेख अवश्य करते रहे । किन्तु उक्त घटनाके लगभग दो दशक बाद जब पंडितजीकी दृष्टिमें कुछ ऐसे संदर्भ आये जिनसे हमारा मत समर्थित होता था, तो शोधांक में प्रकाशित अपने एक लेखमें उन्होंने हमारे मतकी स्पष्ट पुष्टि कर दी। उस लेखसे यह भी विदित हुआ कि स्वयं प्रो० हीरालालजीने भी यह स्वीकार किया था कि हरिवंशकार जिनसेनसूरि ( ७८३ ई० ) के सन्मुख धवलाटीका अवश्य रही थी। हमने धवलाका रचनाकाल ७८१ ई० सिद्ध किया था, जबकि प्रोफेसर सा० ने ८१६ ई० निर्णय किया था। पंडितजी के अनाग्रही शोधक दृष्टिके ऐसे अनेक उदाहरण हैं। हमारे साथ पंडितजीका निकट परिचय एवं घनिष्ठ सम्पर्क है। उनके दर्जनों प्रवचन और भाषण सुने हैं, जैन संदेशके उनके अग्रलेखोंको साधिक तीस वर्षसे बराबर पढ़ते आ रहे हैं, उनके अन्यत्र प्रकाशित लेखों और पस्तकाकार कृतियोंको भी प्रायः सभीको पढ़ा है। घण्टों उनसे चर्चा-वार्ता की है, देखा-समझा है, उनसे बहुत कुछ सीखा है, उनसे हमें सदैव बड़े भाईका स्नेह मिला है। उनके मधुर व्यवहार, सरल हृदय तथा स्पष्टवादितासे उनका विरोध करनेवाले भी इन्कार नहीं करते। यों स्पष्टवादी स्वतन्त्रता समालोचकका विरोध करनेवाले तो होते ही रहते हैं उनके भी हैं । परन्तु, विरोधसे घबराकर अपनी बात कहनेसे भी पंडितजी कभी नहीं चूकते। अपने प्रकाण्ड वैदुष्य, मधुर व्यवहार, निर्लोभ और सरलताके कारण पंडितजी न केवल जैन समाजमें ही पर्याप्त लोकप्रिय रहे हैं, वरन् जैनेतर विद्वत्समाजमें भी समादत रहे हैं। जैन समाजके लिए उनमें एक तड़प है, विशेषकर वर्तमान जैनोंके जीवनमें धर्मभावका जो हास होता जा रहा है और धर्मके नामपर जो विकृतियाँ उदयमें आ रही हैं उनसे वह क्षुब्ध हैं। उनके लेखोंमें वह क्षोभ बहुधा तीखा होकर उजागर होता है और अनेक पाठकोंको भी क्षुब्ध कर देता है-कुछको सुधारकी प्रेरणा देकर तो कुछको विरोधकी । वैसे भी, पंडितजीके सच्चे भक्त शायद थोड़े ही हैं, क्योंकि पंडितजी न कुटनीतिज्ञ हैं और न चाटुकार, और शायद व्यवहारचतुर भी कुछ कम हैं । इसलिये जिसके साथ कुछ उपकार भी करते हैं, वह भी उनसे संतुष्ट नहीं होता। उनकी बाह्य वेषभूषाकी सादगी और अन्तरकी सरलता-'जहा अन्तो तहा बाहि, जहा बाहि तहा अन्तो' ने उन्हें दुनियादारीके लिए कुछ निरर्थक-सा बना दिया। सन्तोषी प्रकृति और संयमी जीवन होते हए भी व्यावहारिक उदारताकी कमीने उनके प्रशंसकोंको संख्या सीमित रखी है। गुण होते हैं तो दोष भी कुछ होते हैं। पंडितजीमें भी दोनों हैं-पूर्ण निर्दोष तो कोई होता ही नहीं, सिवाय वीतराग भगवान् के। जो गुणग्राही हैं, वे दोषों पर दृष्टि नहीं डालते, गुणोंको ही ग्रहण करते हैं, और उन्हींके आधारसे व्यक्ति विशेषका मूल्यांकन करते हैं। पंडितजीके जो दोष या त्रुटियाँ है वे वैयक्तिक है, किन्तु उनके जो गुण हैं, जैन विद्या, साहित्य, संस्कृति और समाजके लिए उनकी जो अमूल्य सेवायें और देनें हैं, उन्होंने वर्तमान युगीन जैन पंडितों, विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, शिक्षकों, प्रवक्ताओं और समाज उदबोधकोंमें उन्हें जो अग्रस्थान प्रदान किया है, वह स्थायी महत्त्वका है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मशास्त्र मय सब जग जानी प्रो० खुशाल चन्द्र गोरावाला सामलकी महावीर पाठशालासे प्रवेशिका उत्तीर्णकर मैं स्याद्वाद महाविद्यालय में प्रविष्ट हुआ और २९ जुलाई १९२८ को प्रातः धर्माध्यापकजी पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्रीकी कक्षा में सागार धर्मामृत लेकर उपस्थित हुआ । मैंने देखा कि लम्बी बीमारीसे उभरते, खाँसते - खखारते और दुर्बल अध्यापकजी बिना पुस्तक के ही पढ़ा रहे हैं। बड़ी कक्षा के छात्रोंसे जाना कि कर्मकाण्ड वगैरह भी इसी तरह पढ़ाते हैं, क्योंकि मुरैना सिद्धान्त विद्यालयके दिग्गज विद्वानोंके शिष्य हैं । यद्यपि विद्यालय गृहपतिको अन्य अध्यापकसे क्या, धर्माध्यापक ( प्रधानाध्यापकजी ) से भी अधिक वेतन तथा सुविधाएं देकर तथा प्रबन्ध समासे अलग रखकर धर्माध्यापकीकी समुचित गरिमाको स्वयं दये था । तथापि दूसरोंकी नजर में अल्पज्ञ या अज्ञ बनकर भी अपने कर्त्तव्य स्वार्थको सर्वोपरि करके चलनेवाले धर्माध्यापक पं० कैलाशचन्द्रजीने अपने ज्ञानकी पुष्टि तथा वक्तृताका ऐसा विकास किया कि दो वर्ष बाद जब काशी विश्वविद्यालय के मानद जैन धर्म प्राध्यापकके पदके लिये पं० कैलाशचन्द्र जीके साथ आचार्य एवं वयसा प्रौढ़ बड़े छात्र भी अभ्यथा हुए थे, तब प्रोफेसर स्व० बॅरिस्टर चम्पतरायने उन आचार्यों की अपेक्षा पं० कैलाशचन्द्र जीके पक्षमें अपनी संस्तुति की। तदनुसार इनकी काशी विश्वविद्यालय में नियुक्ति हुई । आचार्यमन्य छात्रोंने भी उनकी विद्वत्ताका लोहा मान लिया । पंडितजी के सहाध्यायी स्व० पं० राजेन्द्रकुमारजी इस समय तक भा० दि० जैन शास्त्रार्थ संघके द्वारा अपना प्रभाव उत्तर भारत में जमा चुके थे । इन्होंने एक ओर अपने साथियों स्व० पं० अजितकुमार शास्त्री, पं० चैनसुखदासजी, पं० जगन्मोहनलालजी और पं० कैलाशचन्द्रजीको साथ लिया, वहीं दूसरी ओर अपने अग्रज सहाध्यायियों ( स्व० पं० तुलसीराम वाणीभूषण, पं० अर्हदासजी पानीपत, आदि ) को भी प्रतिष्ठित किया था । स्व० लाला शिब्बामलजी रईस, अम्बाला छावनीकी विशालहृदयता, जिन धर्म-प्रेम और सीमित किन्तु समय पर दत्त दानने वेदविशारद स्व० पं० मंगलसेनके अभिभावकत्व में विकसित 'संघ' को अल्प कालमें ही 'महासभा' और 'परिषद्' से आगे कर दिया था, क्योंकि आर्य समाजके साथ सफल शास्त्रार्थो को करनेके समान ही 'संघ' धार्मिक आयोजनों और धर्मगुरुओं के विहारमें आयी बाधाओंका निवारण करनेमें भी अग्रणी था । फलतः सामाजिक सम्पर्क और दिशा बोध देनेके लिए संघने जब 'जैन दर्शन' पत्रिकाको प्रकाशित किया, तो पंडित कैलाशचन्द्रजीका पत्रकारिताका प्रारम्भ हुआ, और 'जैन संदेश' साप्ताहिकके द्वारा तो समाज के समस्त पत्रोंने पं० कैलाशचन्द्रजीको मूर्धन्य सम्पादक रूपमें स्वीकार किया, भले ही कतिपय स्थितिपालक उनके विचारोंसे असहमत थे । किन्तु इससे शास्त्रीजी के प्रभावका विस्तार ही हुआ क्योंकि दशलक्षण पर्व आदिमें शास्त्र प्रवचन ओर व्याख्यानके लिए इतने निमंत्रण मिलते थे कि विद्याके अधिकारियोंको विवश होकर मना ही करना पड़ता था । स्याद्वाद महाविद्यालय में उच्चतम प्राच्य शिक्षण के आदर्शको पूज्यवर श्री १०५ गणेशवण ने स्वयं आदर्श न्यायाचार्य बनकर कार्यान्वित किया था। जब स्व० ० शीतलप्रसादजी अधिष्ठाता हुए, तो इन्होंने स्व० सेठ माणिकचन्द्र जे० पी० के विचारोंसे सहमत होकर न्यायतीर्थ, शास्त्री आदिके साथ पाश्चात्य उच्च शिक्षा ( बी० ए०, एल-एल० बी० ) का विद्यालय में सूत्रपात किया था । परिवर्तित परिस्थितिवश जब ब्रह्मचारीजीने अधिष्ठातृत्व छोड़ा, तो पुनः पूज्य श्री १०५ गणेशवर्णी महाराज अधिष्ठाता हुए । इन्होंने स्याद्वाद महाविद्यालय के शिक्षण लक्ष्यको सिद्धान्तशास्त्री, आचार्य और एम० ए० तक पहुँचा दिया | - ५२ - Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यालयकी इस उत्तम शैक्षणिक उपलब्धिमें पंडितजीका प्रधानाचार्यत्व निश्चित ही धर्म द्रव्य था। इसीलिये वर्णीजी स्यादवाद विद्यालयके प्राण कहकर समाजमें इनका परिचय देते थे। पण्डितजीके प्राचार्यत्वमें स्यादवाद महाविद्यालयसे सन १९३९ में जैन समाजका प्रथम आचार्य एवं एम० ए० निकलते ही उभय-शिक्षणकी असंभवता छात्रोंके मनसे विदा हो गई। इसी समयसे स्व० साह शान्तिप्रसादजी द्वारा स्थापित मूर्तिदेवी छात्रवृत्तियाँ मिलते ही स्याद्वाद महाविद्यालयसे आचार्यके साथ एम० ए०, एस० एस० सी०, इंजीनियरिंग करनेवालोंकी बाढ़ आ गई। यदि इस युगको स्याद्वाद महाविद्यालयका और पंडितजीका स्वर्णयुग कहा जाये, तो समुचित ही होगा। इस अन्तरालमें अनेक छात्रोंने आचार्य, एम० ए०, पी-एच० डी० तो किया ही, बहुतसे उन प्राक-छात्रोंने भी आचार्यके शेष खंडोंको पूर्णकर प्रौढ़ावस्थामें एम० ए० और पी-एच० डी० किया और स्याद्वाद महाविद्यालयके गौरवको बढ़ाया जो परिस्थितिवश अपूर्ण प्राच्य-शिक्षण ही छोड़ कर चले गये थे अथवा जो जैन समाजके अन्य विद्यालयोंका पूर्ण शिक्षण ( न्यायतीर्थ और शास्त्री-मंग्बई ) करके अध्यापनार्थ वाराणसी भेजे गए थे। स्व० पं० सुखलालजी संघवी प्रज्ञाचक्ष इस शतीके चतुर्थ दशकमें काशी विश्वविदयालयके प्राच्य विद्यालयमें जैन दर्शनके व्याख्याता होकर आये थे और विद्यालयसे लगे जैन मन्दिरकी धर्मशालामें रहते थे । उन्हें व्युत्पन्न तथा प्रौढ़ जैन विद्वानोंका समागम इष्ट था क्योंकि वे 'वाचक'के बिना अपना बौद्धिक जीवन चला ही नहीं सकते थे । जैन शास्त्रोंके प्रौढ़ पंडित, प्रभावक वक्ता और निष्पक्ष शोधक पं० कैलाशचन्द्रजी तथा इनके अनगामी क्षयोपशमशाली, प्रभविष्णु और आर्थिकाय उन्निनीषु स्व० पं० महेन्द्रकुमारका समागम प्रज्ञाचक्ष जीके लिए 'खात्पतितरत्नवष्टि'के समान था। उस समय प्रज्ञाचक्षुजीका मत था कि समन्तभद्रादि ही जैन न्यायके आदि प्रतिष्ठापक सर्वोपरि आचार्य हैं। फलतः इन्होंने 'न्यायकुमुदचन्द्र'के सम्पादन तथा प्रकाशन का सुझाव दिया जिसे उक्त दोनों विद्वानोंने स्वीकार किया। इस प्रकार पं० कैलाशचन्द्रजीके सम्पादकत्व रूप की व्यक्ति प्रारंभ हुई। सतत स्वाध्याय, दीर्घचिन्तन एवं निष्पज्ञ दृष्टिके कारण इनकी शोधकता तथा प्रसाद गुण पूर्ण शैलीकी प्रशंसा आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार, डा० उपाध्ये, पं० नाथू राम प्रेमी आदि तत्कालीन प्रमुख शोधकों और सम्पादकोंने भी की थी। यद्यपि शास्त्रीजीने स्याद्वाद महाविद्यालयकी कक्षाओंसे बचे पूरे दिनका सदुपयोग करनेकी दृष्टिसे ही जिनवाणी-सेवा प्रारंभ की थी, तथापि आप उन लोगोंके कृतित्वके भी प्रशंसक रहे हैं, जिन्होंने आजीविका या आय बढ़ाने की दृष्टिसे साहित्य सृजन को अपनाया क्योंकि निदान लोकिक (आयवृद्धि) होनेपर भी वे सतत स्वाध्यायके शुभका बन्ध तो करते ही हैं। पंडितजीकी क्षमतासे प्रेरित होकर भा० दि० जैन संघने भी जयधवलाके प्रकाशन और सम्पादन को अपने कार्यक्रममें लिया। इसी समय वर्णी ग्रन्थमाला व भारतीय ज्ञानपीठकी स्थापना हुई और पंडितजी उनकी प्रवृत्तियोंसे भी संबंधित रहे। स्पष्ट है कि इस अर्द्ध-शतीकी समस्त जैन-प्रवृत्तियोंसे साक्षात या परम्परया पंडितजीका सम्बन्ध रहा है क्योंकि अपने कार्यको करना सबको यथा-शक्ति सहयोग देना और किसीको रुष्ट न करना आपकी प्रकृति है। स्व० पं० राजेन्द्रकुमारजीके शब्दोंमें 'हाजिरमें हुज्जत नहीं, गैर की तलाश नहीं, भाई कैलाशचन्द्रजीकी अपनी असाधारणता है। पडितजी स्याद्वाद महाविद्यालयके जीवनदानी हैं। विद्यालयने ग्यारह वर्षकी वयमें भर्ती करके इन्हें जैन वाङ्मयका ज्ञान दिया और इसके बाद कुछ समय मुरैना तथा कुछ समय अस्वस्थताके कारण घर रहने के बाद १९२७ से आज तकका पूरा समय इन्होंने इस विद्यालयको दिया है। इनका प्राचार्यत्व स्याद्वाद -५३-. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविद्यालय का भी मध्यान्ह रहा है। इस सबके पीछे पंडितजीका धर्मशास्त्रका अध्ययन, धर्मशास्त्र का अध्यापन, धर्मशास्त्र का प्रवचन, धर्मशास्त्र पर लेखन, तथा इसका ही चिन्तवन, आदि हैं। अड़सठ वर्ष की वयमें विद्यालयसे सेवानिवृत्त होकर भी उक्त समस्त प्रवृत्तियाँ यथावत् चल रही हैं । यतः विद्यालयके लिए उपयुक्त प्राचार्य नहीं मिला है अतः विद्यालयके अधिष्ठातृत्वके सिवा, शैक्ष्य प्राचार्यों के स्थितीकरणके लिए वे बड़ी कक्षाओंका अध्यापन भी करते हैं । 'एके (धर्मशास्त्र या स्याद्वाद महाविद्ययालय) साथै सब (धर्म, समाज, संघ, साहित्य आदि) सधै'का निदर्शन इनका जीवन है । तुलसीदासके लिए' सियाराम मय सब जग जानी' था, तो इनके लिए भी 'धर्मशास्त्र मय सब जग जानी' है। अतः उन्हें 'करो प्रणाम जोर जग पाणी।" श्रद्धेय पंडितजी नरेन्द्रप्रकाश जैन, जैन इण्टर कालेज, फिरोजाबाद, उ० प्र० आजसे बीस वर्ष पूर्व 'जनसन्देश' में प्रकाशनार्थ 'जैनसमाज और देवमूढ़ता' नामक अपना पहला लेख मैंने श्रद्धेय पंडितजीके पास भेजा था और चाहा था कि उसके ५० रिप्रिंट्स भी मुझे मिल जायें । व्यक्तिगत परिचय न होनेसे लेख छपेगा या नहीं, इस बारेमें तो दुविधा थी ही, फिर रिप्रिंट्स पानेकी क्या उम्मीद हो सकती थी। लेकिन मेरी प्रसन्नताका ठिकाना न रहा, जब चौथे या पाँचवें दिन ही लेखकी स्वीकृतिका पत्र मझे मिला, जिसमें सन्देशके लिए आगे भी बराबर कुछ-न-कुछ लिखते रहनेका स्नेहपूर्ण आग्रह था। उसके कुछ दिन बाद ही सन्देश मिला । उसमें मेरा लेख तो था ही, पंडितजीने उसी सन्दर्भमें अपना सम्पादकीय भी लिखा था। शीर्षक था-'देवमूढ़तासे बचिये । मुझे रिप्रिंट्स भी प्राप्त हुए, मेरे मनमें उस वक्त प्रसन्नताके साथ ही सुखद आश्चर्यके भी भाव थे। आज ऐसे कितने सम्पादक हैं जो नवोदित लेखकोंको इस तरह प्रोत्साहन देते हों? श्रद्धेय पंडितजीसे बादमें "मोरेना विद्यालयका नवोन्मेष : कुछ सुझाव' शीर्षक सन्देशमें प्रकाशित मेरे एक लेखपर स्व० पं० मक्खनलालजी शास्त्रीकी प्रतिक्रियाको लेकर पत्र-व्यवहार हुआ। उन्होंने उस समय मझे वाद-प्रतिवादसे बचनेकी सलाह दी। सोनगढ़ सम्बन्धी आशंकाओं एवं आक्षेपोंके मेरे एक पत्रके उत्तरमें तो उन्होंने जैनसन्देशमें लगातार दो सम्पादकीय लिखे, जिन्हें व्यापक सराहना मिली । सम्पादकीय नोटके साथ उन्होंने मेरे पत्रको भी छाप दिया । अपने नोटमें उन्होंने मेरे दृष्टिकोणको सन्तुलित बताया था। इस सम्बन्धमें अपने एक पत्रमें उन्होंने अपने शिष्यसे प्राप्त टिप्पणीके आधारसे मेरे फल्टनमें हए भाषणोंकी प्रशंसा की थी। मतभेद रखनेवालोंके प्रति भी ऐसा औदार्य आज कितने विद्वानोंमें पाया जाता है। पिछले वर्षों से मेरा उनसे साक्षात्कार अनेक बार हुआ है। उन्हें निकटसे देखने-जाननेके बाद मेरी यह पक्की राय है कि वे किसी गुट या पंथसे बँधे हुए नहीं हैं तथा स्वतन्त्र रूपसे जैसा वे सोचते हैं, उसे व्यक्त करनेमें कभी संकोच नहीं करते । सत्य-प्रतिपादन करने में वह निर्भीक हैं । इस या उस पक्षके लोग क्या कहेंगे, सोचेंगे, इससे वह विचलित या प्रभावित नहीं होते ।। आजतक मेरे किसी पत्रका उत्तर मुझे न मिला हो, ऐसा मुझे स्मरण नहीं है। पत्रोत्तरमें ऐसी तत्परता कम ही देखनेको मिलती है। उनके उत्तर संक्षिप्त किन्तु युक्तियुक्त होते हैं। पत्र पानेवालेको उनसे आत्मीयताकी झलक मिलती है। सबको अपनत्व देना पंडितजीका एक बहुत बड़ा गुण है । -५४ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धेय पंडितजीकी लेखनीका भक्त तो मैं बचपनसे ही हैं। उनकी प्रवाहपूर्ण सीधी-सरल भाषाका पाठकपर अच्छा प्रभाव पड़ता है । वह कठिनसे कठिन बातको इस तरह लिखते हैं कि वह बालककी भी समझमें आ जाए । उनके व्यंग्य शिष्ट और सपाट होते हैं। कभी-कभी चुभते तो हैं, किन्तु जख्म नहीं करते । उन सरीखे लेखकका पाना जैनसमाजका सौभाग्य है। निरभिमानी व्यक्तित्व महेन्द्र कुमार 'मानव', छतरपुर सन् १९४० को जुलाईमें मैंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालयमें बी० ए ० प्रथम वर्षमें प्रवेश लिया था। निवासकी व्यवस्था स्याद्वाद विद्यालयमें की थी। तब प्रथम बार पं० कैलाशचन्द्रजीके दर्शन करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था । लेकिन विशेष परिचयमें आनेका अवसर नहीं मिला था क्योंकि १५ दिन बाद ही मैं प्रयाग चला गया था। फिर जब-जब काशी आता रहा तब-तब पण्डितजीके दर्शन करता रहा । पण्डितजीका व्यक्तित्व बड़ा सरल और सौम्य है । कुछ लोगोंके व्यक्तित्व ओढ़े हुए होते हैं, कोई पाण्डित्य ओढ़ लेता है, कोई अफसरियत ओढ़ लेता है, कोई पद ओढ़ लेता है। पण्डितजी पण्डित हैं लेकिन उन्होंने पाण्डित्यको ओढ़ा नहीं है। इसीलिए वे बहुत ही निरभिमानी हैं। पण्डितजीने बहुतसे ग्रन्थ लिखे हैं, बहुतसे ग्रन्थोंका सम्पादन किया है । लेकिन उनकी कीर्तिको अक्षुण्ण बनाए रखनेके लिए उनकी एक ही पुस्तक 'जैनधर्म' काफी है। इस पुस्तकमें पण्डितजीने गागरमें सागर भर दिया है। विशाल जैन वाङ्मयका मन्थन कर उन्होंने इस पुस्तकमें नवनीतको जुटा दिया है। इससे पण्डितजीके गहन अध्ययनका पता चलता है । यदि कोई जैन धर्मका जिज्ञासु हो, तो यह पुस्तक उसकी जिज्ञासाको पूरी कर सकती है। इसी प्रकार उनकी पुस्तक 'जैन साहित्यका इतिहास : पूर्व पीठिका' है। इस पुस्तकको पढ़नेके बाद सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि पण्डितजोने पुस्तकको लिखनेमें कितना परिश्रम किया है। पण्डितजीका प्रवचन सुननेका कई बार अवसर मिला। समाज द्वारा पण्डितजीको जगहजगह प्रवचनके लिए आमन्त्रित किया जाता है। पण्डितजीने खजुराहोके भगवान् शान्तिनाथके मन्दिरके प्रांगणमें प्रवचन किया। उनका प्रवचन हृदय पर इतना प्रभाव छोड़नेवाला था कि लगता था कि यह प्रवचन समाप्त ही न हो। वह प्रवचन हमारे मन, इन्द्रियों और आत्मा-सबको तृप्त कर रहा था । पण्डितजी स्वयं यदि अध्यात्मरसमें डूबे न हों तो दुसरोंको भी उस रसमें डुबा नहीं सकते। यह शक्ति उन्होंने अपनी साधनासे अर्जित की है। उनके प्रवचनकी दूसरी विशेषता यह है कि वह सम्प्रदाय या पक्षसे बँधा नहीं होता। उसे कोई . भी धर्मावलम्बी सुन सकता है और समान आनन्द ले सकता है । पण्डितजी चिरायु हों और मानव समाज की सेवा करते रहें-यही कामना है। -५५ - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जादूगर पण्डितजी रतनलाल कटारिया, केकड़ी मेरे प्रिय जैन लेखकोंमें-श्री मुख्तार सा०, प्रेमीजी और डॉ० ए० एन० उपाध्येजी जो सब दिवंगत हो चुके हैं-के बाद विद्वत सम्राट, साहित्यचक्रवर्ती पं० कैलाशचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री ही प्रमुख हैं। मैं इनकी रचनाओंको अत्यन्त मनोयोग पूर्वक रुचिके साथ एक ही बारमें आद्योपान्त पढ़ जाता है । जो मजा एक मनोरंजक उपन्यासके पढ़ने में आता है, उससे भी कई गुना ज्यादा आनन्द और रसास्वादन इनकी कृतियोंके अध्ययनमें आता है। ये अध्यापनके भी जादुगर हैं। इन्होंने अपना सारा जीवन इसीमें व्यतीत किया है। इनके द्वारा शिक्षित हजारों शिष्य इनका नाम रोशन कर रहे हैं । ये अध्ययनके भी जादूगर हैं । इनका शास्त्राध्ययन मामूली चलता-सा नहीं है किन्तु मार्मिक, ठोस और गम्भीर है जिसमें शोध-खोज तुलनात्मक ऐतिहासिक विकासक्रम परक दृष्टि, रहस्योद्घाटन, चिन्तन-मनन, विश्लेषण, समीक्षण, त्रुटिनिष्कासन, समन्वयीकरण, विचार-विमर्श आदि अनेक तत्व हैं। इसीके आधारपर वे कलमके जादूगर बने और दो दर्जनसे अधिक ग्रन्थोंका प्रणयन किया। इसी तरह ये शास्त्रके वाचनके भी जादूगर है। शास्त्रकी गद्दीपर बैठकर शास्त्र बाँचनेवालेमें जो गुण आगममें बताये हैं, उसके ये अधिकारी है। उत्तर प्रदेशके बिजनौर जिलेमें नहटोर ग्रामके लाला मुसद्दीलालजी अग्रवालके घर कनिष्ठ पुत्रके रूपमें संवत् १९६० सन् १९०३ कार्तिक शुक्ल १२ को आपका जन्म हुआ था। आपकी धर्मपत्नीका नाम वसंती देवी है जिनसे एक पुत्र रत्न है जो विवाहित हैं और उच्च पदपर हैं। उनके अनेक गुणोंकी मैं यहाँ पुनरावृत्ति नहीं करना चाहता। मैं माँ सरस्वतीसे प्रार्थना करता हूँ कि आप शतायु हों तथा समाजको आपका हितकारी मार्गदर्शन एवं साहित्य भंडारको आपके ज्ञानरत्न बराबर मिलते रहें। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in Education International खण्ड १ :: Section 1 व्यक्तित्व और कतित्व Person & Works : Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ and cation Intematon www.jainelibrary.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुहेलखण्डके बिजनौर जनपदकी जैन विभूतियाँ __ पं० श्रेयांसकुमार शास्त्री, किरतपुर ( बिजनौर ) रुहेलखण्डका क्षेत्र और जैन संस्कृति-उत्तरप्रदेश राज्यके बरेली राजस्व संभागके सात जिले ( बरेली, बिजनौर, मुरादाबाद, बदायू, रामपुर, पीलीभीत, और शाहजहाँपुर ) अठारहवीं सदीके मध्यके लगभग रुहेले पठानोंके संसर्गके कारण रुहेलखण्ड कहलाते हैं। इसके पूर्वके ८-९ सौ वर्षों तक यह क्षेत्र कटहरिया राजपूतोंके कारण कटेहर कहलाता था। इसके पूर्व भी यह क्षेत्र महाभारत कालसे लेकर आठवींनवमीं सदी तक पांचाल देशका उत्तरी भाग माना जाता था। इस क्षेत्रके विभिन्न भागोंमें अति प्राचीन कालसे ही जैनोंके धर्मायतन, तीर्थस्थान तथा सांस्कृतिक केन्द्र रहे हैं। यहाँ अनेक स्थानोंपर जैन रहते थे । पिछले सौ वर्षो में तो इस क्षेत्रने जैनधर्म और समाजके प्रगतिपथमें अनेक मीलके पत्थर दिये हैं। इस क्षेत्रके विभिन्न जिले गंगा नदी और हिमालयी पर्वतांचलके मध्यवर्ती तराई और मैदानी भागोंमें बसे हैं। इस क्षेत्रके साथ जैन संस्कृतिका सम्बन्ध प्रायः भारतीय इतिहासके प्रारम्भसे ही रहा है। अयोध्यामें जन्मे भगवान् आदिनाथने अपने मुनिजीवनमें मध्य हिमालयके इन पवित्र प्रदेशोंमें तपस्या की और केवलज्ञान प्राप्तिके बाद हस्तिनापुरके साथ इस प्रदेशमें भी विहार कर उपदेश दिया। अन्तमें, वे रुहेलखण्डके मैदानी भागोंमें धर्मविहार करते हुए कुपायू गढ़वाल होते हुए कैलाश पर्वत पर गये और वहाँसे सिद्ध हुए। उनके पुत्र चक्रवर्ती उनका निर्वाण महोत्सव मनाने इसी मार्गसे होकर कैलाश गये थे । दशवों सदीमें जिनसेन द्वारा रचित आदिपुराणके पर्व १६, २५, २९ और ३२ में भगवानके उपदेश तथा भारतकी दिग्विजयके प्रकरणमें इस क्षेत्रका पांचालके रूपमें नाम दिया गया है। हरिवंशपुराणके सर्ग ११ में पांचाल देश और उसके उत्तरवर्ती हिमायस्थ पहाड़ी प्रदेशोंका वर्णन किया गया है । भगवान ऋषभदेव और भरत चक्रवर्तीके उपरान्त अनेक चक्रवतियोंने भी इस क्षेत्रपर शासन किया। इतिहाससे ऐसा प्रतीत होता है कि बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथका इस क्षेत्रसे कुछ अधिक सम्बन्ध रहा है। जिनप्रभ सूरिने बताया है कि पांचाल देशकी महानगरी शंखावतीमें भगवान् नेमिनाथका प्राचीन तीर्थ था। यहाँ भगवानकी प्रतिमाके साथ ही उनकी शासन देवी सिंहवाहिनी अम्बिका देवीकी मूर्ति भी प्रतिष्ठित थी। नेमिनाथका जीवनकाल ईसा पूर्व इक्कीसवीं सदीके लगभग बैठता है। यह शंखावती भगवान् पार्श्वनाथ ( ८७७-७७७ ई० पू० ) की तपोभूमि और ज्ञानकल्याणक भूमि भी रही। इसके समीपवर्ती भीमाटवी महावनमें शंबर असूरने पूर्व वैर-वश उनपर घोर उपसर्ग किया। धरणेन्द्र पद्मावतीने इस उपसर्गका निवारण किया । इस कथाका विस्तृत विवरण पासणाहचरिउमें मिलता है । यह नगरी, इसीलिए, अहिच्छत्र कहलाने लगी। इसके बाद ही, पार्श्वनाथ केवली हुए और यहींपर उन्होंने अपने धर्मोपदेश प्रारम्भ किये। इस घटनाके कारण ही रुहेलखण्डका यह स्थान तीर्थक्षेत्र बना। इस क्षेत्र पर बने विशाल कपका जल अनेकों रोगोंको शान्त करता है। अतः अहिच्छत्रको अतिशय क्षेत्र भी माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि पात्रकेसरी स्वामीको भी सम्यग्दष्टि यहीं प्राप्त हुई थी। इसे कण्व ऋषिकी जन्मभूमि भी कहा जाता है। यद्यपि इस क्षेत्रमें जैनोंकी विरलतासे लगभग एक हजार वर्ष तक यह स्थान अज्ञात एवं उपेक्षित-सा पड़ा रहा है, फिर भी पात्रकेसरी स्वामी कथा ( सातवीं सदी), बृहत्कथा कोश ( दसवीं सदी), पुण्यास्रवकथा कोश तथा विविधतीर्थ कल्प ( चौदहवीं सदी), आराधनासार कथाकोश ( सोलहवीं सदी) तथा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिच्छत्र पार्श्वनाथ स्तोत्र ( अठारहवीं सदी ) के माध्यमसे जैन आचार्यों ने इसे सातवीं शताब्दीसे अठारहवीं सदी तक जीवित रखा है। वर्तमान में, यह स्थान रुहेलखण्डके बरेली जिलेकी आंवला तहसीलके अन्तर्गत रामनगर गांवके पास है। यह लखनऊ-सहारनपर रेलमार्गपर स्थित आंवला ग्रामसे छह मील दर है। यहाँ लगभग छह सौ वर्षोंसे चैत्र मासमें एक मेला लगता है। इसका उल्लेख विविधतीर्थ कल्पमें किया गया है । यह आज भी गरिमामय रीतिसे लगाया जाता है। इस नगरोंके इतिहासके लिये रुहेलखण्ड कुमायू जैन डायरेक्टरी ( सं० डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, १९७० ) देखना चाहिए। इससे पता चलता है कि यह स्थान कभी एक महानगर था जिसे अतीतके दो हजार वर्षों में नौ-नौ बार बसाया और उजाड़ा गया। इस क्षेत्रके बिजनौर जिलेके दो अन्य स्थान भी जैन संस्कृतिसे ऐतिहासिक रूपसे सम्बन्धित है । इस जिलेमें पारसनाथ किला नामक स्थान है जो नगीनाके पास बढ़ापुर गाँवसे तीन मील पूर्वमें प्राचीन बस्तीके खण्डहरोंके रूपमें आज उपलब्ध है । यहाँ एक प्राचीन दुर्गके भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि पारसनाथ किला भगवान्की तपोभूमि एवं देशनाभूमि रहा होगा। यह स्थान हस्तिनापुरसे अहिच्छत्रके मार्गमें पड़ता है। फलतः यह सम्भव है कि पार्श्वनाथ भीमाटवी पहुँचनेके पूर्व इस स्थान पर कुछ समय रहे हों। आज यह स्थान उपेक्षित दशामें अपने दिन बिता रहा है। इस स्थानकी व्यवस्थित पुरातात्विक शोधबीन अत्यन्त आवश्यक है। इतिहास-प्रेमी बन्धुओंको इस दिशामें प्रयत्नकर इस क्षेत्रके इतिहासपर प्रकाश डालना चाहिए। __ कुछ समय पूर्व हुए अल्प पुरातात्त्विक गवेषणसे यहाँ अनेक जैन प्रतिमाएँ व पट्ट प्राप्त हुए हैं। इनमेंसे एक पट्रपर ब्राह्मी लिपि तथा प्राकृत भाषामें संवत १०६७ का उल्लेख है। इस संवतको यदि वीर निर्वाण संवत माना जाय. तो यह पट छठी सदीका प्रमाणित होता है। इससे यह निष्कर्ष कि यह किला क्षेत्र भी प्राचीन कालसे विख्यात है। बिजनौर जिलेका दसरा महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान मोरध्वज किला है जो आज नजीबाबाद कोटद्वारा मार्गपर छह भील उत्तरपूर्वमें एक प्राचीन दुर्गके भग्नावशेषके रूपमें विद्यमान है । कहते हैं कि इसका निर्माण ध्वजवंशी राजा मयूरध्वजने कराया था। इसके भीतर स्थित एक ऊँचे टीलेको शीगिरिके नामसे पुकारा जाता है। सम्भव है, यह श्रीगिरि या श्रीगहका अपभ्रंश हो और वहाँ एक उत्तङ्ग जिनालय रहा हो । यह शोधका विषय है क्योंकि किलेके खण्डहरोंसे अनेक प्राचीन कलावशेष तथा देवमूर्तियाँ प्राप्त हुए हैं। इसी जनपदमें महर्षि कण्वका आश्रम, शत्रुताल तीर्थ और अन्य स्थान हैं। इसी प्रकार रुहेलखण्डके अन्य जिलोंमें भी अनेक प्राचीन स्थल पाये जाते हैं। इनकी सन्तोषजनक खोज आवश्यक है । लेकिन उपरोक्त विवरणसे यह स्पष्ट है कि वर्तमान रुहेलखण्डके विभिन्न जनपदोंमें जैन संस्कृतिका ऐतिहासिक कालसे ही घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। इस दृष्टिसे इस क्षेत्रका अतीत गौरवमय रहा है। यही कारण है कि वर्तमान कालमें भी इस क्षेत्रने इस संस्कृतिके उन्नायकोंको जन्म देकर अपनी प्राचीन गरिमाको बनाये रखा है । रुहेलखण्डकी जैन विभूतियाँ-अपनी प्राचीन गरिमाके अनुरूप रुहेलखण्डने उन्नीसवों-बीसवीं सदीमें ऐसी अनेक प्रतिभाएँ प्रदान की हैं जिन्होंने जैन समाज और संस्कृतिके साथ राष्ट्रका नाम भी प्रकाशित किया है। यह रुहेलखण्डका ही सौभाग्य है कि इस क्षेत्रमें बीसवीं सदीमें ऐसे धनपति और विद्यापति हुए हैं जिन्होंने एक-दसरेके सहयोगसे अनेक क्षेत्रोंमें महनीय कार्य किये हैं। इस क्षेत्रमें जन्म लेनेवाले जैन बन्धुओंने राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं औद्योगिक क्षेत्रमें Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति उपार्जित की है। इस क्षेत्रका वर्तमान युग और इतिहासकी कितनी ही महत्त्वपूर्ण घटनाओंसे घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है जिनसे यहाँकी प्रगतिशीलता एवं मार्गदर्शन क्षमता प्रकट होती है। यद्यपि इस क्षेत्रमें जैनोंकी संख्या पर्याप्त अल्प (०-०४ प्रतिशत) है, लेकिन उनके कार्यक्षेत्र और सेवाक्षेत्र इतने व्यापक है कि वे समस्त जैन समाज एवं राष्ट्रको प्रभावित करते रहे हैं । रुहेलखण्डकी प्रमुख जन विभूतियोंको अवतरित करने में बिजनौर जिलेका नाम अग्रणी रहेगा । यहाँ जन्मे प्रसिद्ध उद्योगपति साह शान्तिप्रसादजी व श्रेयान्सप्रसादजी, साहू जुगमन्दिरदास, प्रसिद्ध साहित्यिक लाला राजेन्द्र कुमारजी तथा उनके अनुज इन्जीनियर व्यापारी तथा समाजसेवी जगतप्रसादजी एवं प्रसिद्ध देशभक्त बाबू रतनलाल एडवोकेट तथा बाबू नेमीशरणके नाम कभी नहीं भुलाये जा सकते । बिजनौर जनपदने ही अनेक विश्रुत विद्यापतियोंको भी जन्म दिया है । नहटौरमें जन्मे पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीको कौन जैन नहीं जानता? वहींके श्री प्रेमचन्द्रजी डिब्र गड़में एक कालेजमें प्राचार्य हैं। किरतपुरके पं० श्रेयांसकुमार शास्त्री भी उनके ही शिष्य हैं। मुरादाबादके पण्डित चुन्नीलाल, मुंशी मुकुन्दलाल, पं० पन्नालाल बाकलीवाल, वैद्य शंकरलाल तथा वैद्य विष्णुकान्तके नाम क्षेत्रीय समाजके अतिरिक्त समस्त जैनसमाजको गौरवान्वित करते हैं। हम यहाँ केवल बिजनौर जिलेकी कुछ विभूतियोंकी ही चर्चा करेंगे। साहू परिवारके सदस्य-बिजनौर जिलेके नजीबाबाद नगरके साहू परिवारके अनेक सदस्योंने जैनसमाजको अनेक रूपोंमें गौरवान्वित किया है। साह जुगमन्दिर दास अपने समयके प्रसिद्ध सुधारक और समाजसेवी रहे हैं। उनकी हाजिर-जवाबी, मेहमान-नवाजी, खशमिजाजी और मिलनसारीकी कोई मिसाल नहीं । साह श्रेयांसप्रसादजी वर्तमानमें बम्बईमें रहते हैं और अपने विविध औद्योगिक कारबारको देखते हुए सम्पूर्ण जैनसमाजके केन्द्रबिन्दु बने हऐ हैं। आपकी सामाजिक गतिविधियाँ देशके कोने-कोने तक फैली हुई हैं । साहू शान्तिप्रसादजी डालमिया उद्योग-समूहके संचालक रहे हैं। वे जैनसमाजके रत्न रहे हैं। एक ओर साहू जैन ट्रस्टकी स्थापनासे उन्होंने शिक्षा और संस्कृतिके प्रसारमें योगदान किया है और साधनहीन छात्रोंको अध्ययनके लिए सहायता की है, वहीं दूसरी ओर उन्होंने भारतीय ज्ञानपीठके माध्यमसे साहित्यिक जगत्को नयी आशाकिरण प्रस्तुत की। ये दोनों ही संस्थायें उनके ऐसे स्मारक हैं जो जैनधर्म और संस्कृतिकी परम्पराको प्रसारित करने में लगे हए हैं। पच्चीस सौवें महावीर निर्वाणोत्सव वर्षमें उन्होंने जैनसम्प्रदायोंकी एकताके लिए अथक प्रयास किये और उत्सवको सफल बनाया । अबतक आपके माध्यमसे एक करोड़से भी अधिककी राशि छात्रवृत्ति, संस्था-निर्माण, तीर्थ-संरक्षण तथा अन्य सामाजिक, धार्मिक कार्यो के लिए प्रदान की जा चुकी है। ऐसा कहा जाता है कि साहू जी समाजके भामाशाह थे, कल्पवृक्ष थे। वे समाजमें नव-जागरणका विहान फूंकनेवाले प्राणवायु थे। वे जैनसमाजके एक युगका प्रतिनिधित्व करते थे। उनके अधूरे कार्यको अब उनके अग्रज साहू श्रेयांसप्रसादजी देख रहे हैं। दोनों ही साहू बन्धुओं- . का पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीसे घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। अनेक प्रकारके शैक्षिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में पण्डितजी उनके अप्रतिम सलाहकारके रूपमें रहते हैं। ला० राजेन्द्र कुमारजी तथा जगतप्रसादजीने बिजनौरके वर्द्धमान डिग्री कालेजकी स्थापनामें सहयोग दिया है । साह रमेशचन्द्रजी भी टाइम्स ऑव इण्डिया पत्र-समूहके व्यवस्थापक बनकर अनेक रूपोंमें जैनसमाज और देशकी सेवा कर रहे हैं । पं० कैलाशचन्द्र शास्त्रीके जन्मस्थान नहटौरकी ख्यातिमें भी अनेक महनीय विभूतियोंका योगदान रहा है। रायबहादुर बाबू द्वारकादासजी अपनी इन्जीनियरिंगकी श्लाघनीय सेवाके बावजूद भी सदैव -५९- - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहटौरका ध्यान रखते थे । उन्होंने ही पण्डितजीको अध्ययन के लिए प्रेरित किया, बाहर भिजवाया । इनके वंशजोंने ही नहटौरमें जैन कालेज खुलवाया। वे प्रखर समाज-सुधारक तथा समाजसेवी थे । वे गुप्तदानी भी थे और लोगोंको आगे बढ़ानेमें मार्गदर्शक सहयोग देते थे । नहटौरकी ही एक अप्रतिम विभूति पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री हैं जिन्होंने अपने अध्ययन-अध्यापन, साहित्य निर्माण तथा मार्गदर्शक गुणोंके कारण इस क्षेत्रका नाम प्रशस्त किया है। वस्तुतः बिजनौर जिलेके दो परिवारोंने मणिकांचन - संयोगकी उक्ति चरितार्थ की है । ये हैं - साहू परिवार और लाला मुसद्दीलालका परिवार । एक परिवार धनकुबेर था, तो दूसरा विद्यापति प्रमाणित हुआ । एक ही क्षेत्रमें लक्ष्मी और सरस्वतीका यह संयोग विरल ही देखा जाता है । इनका जीवन इसी ग्रन्थमें अन्यत्र दिया गया है । पंडितजी समाज के लिए सूर्यसमप्रकाशस्तम्भ तथा सुमेरुसम उत्तुङ्गत्ता प्रदान कर रहे हैं । रुहेलखण्ड क्ष ेत्रने अखिल भारतीय जैन संस्थाओं के संस्थापन और अभिवर्धनमें काफी योगदान किया है। मुरादाबाद पण्डित चुन्नीलालजी आदि महासभाके संस्थापकों (१८९१ ) में हैं । दिगम्बर जैन परिषद्का सर्व प्रथम अधिवेशन भी १९२४ में साहू जुगमन्दिरदास की अध्यक्षतामें नजीबाबादमें हुआ था । यह एक सुधारवादी संस्था रही है और इसने समाजकी अनेक कुरीतियोंको दूर करने में अग्रणी कार्य किया है । faraौर जिलेकी समस्त विभूतियाँ ( इनमें लेखक भी सम्मिलित है) इस परिषद् के अभिवर्धन में प्रारम्भ से ही सक्रिय रही हैं । रुहेलखण्ड -कुमायूँ जैन परिषद् की स्थापनामें भी मा० उग्रसेनजीके साथ बिजनौर के बाबू रतनलालजी एडवोकेटका प्रमुख हाथ रहा है । उनकी प्रेरणासे ही इस क्षेत्रकी एक जैन डायरेक्टरी प्रकाशित की गई है। यद्यपि जैन अग्रवाल समाजके लिये दस्तूरुल अमलका विधान १९२५ में धामपुरमें बनाया गया था, पर उसकी कार्यरूपमें परिणति जिला दि० जैन परिषद् के नहटौरके १९४१ के अधिवेशनमें पारित संशोधित प्रस्तावके बाद ही सम्भव हुई । इसके अनुसार दहेज प्रथा तथा अन्य कुरीतियोंपर अंकुश लगाया जा सका । यह प्रस्ताव लेखकके मन्त्रित्वकालमें बड़े साहस और श्रमके बाद पारित किया जा सका । यह क्षेत्रीय जैन समाजके लिये नवजागरण का प्रथम संकेत था । सामाजिक कार्यो के अतिरिक्त, यह क्षेत्र स्वतंत्रता संग्रामियोंका भी गढ़ रहा है । इस क्षेत्रकी जैन समाज इस दिशा में भी काफी आगे रही है । रामपुरके कल्याण कुमार शशि, धनौराके शान्तिस्वरूप कुसुम, अयोध्याप्रसादजी गोयलीय, जुगल किशोर मुख्तार, ज्योतिप्रसादजी प्रेमी, बाबू शान्तिचन्द्र तथा अन्य कवियों, ज्ञानियों, जैन पत्र सम्पादकों, साहित्य सृष्टाओंने इस दिशामें जो योगदान किया है, वह इस क्षेत्र की कीर्तिको चिरस्मरणीय बना रहा है । इस दिशामें बाबू रतनलाल एडवोकेटका योगदान कौन भूल सकता है जिन्होंने अनेकों बार जेल यात्रा भी की है । वस्तुतः न केवल निकट अतीत में ही, अपितु वर्तमान में इस क्षेत्र प्रभूत जैन बन्धु देश और समाजकी भी प्रगति में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं । बिजनौर, नजीबाबाद एवं नहटौर आदि स्थानोंमें अनेक जैन शिक्षण संस्थायें कार्यरत हैं, जंन पाठशालायें हैं, अनेक समाजसेवी संस्थायें हैं जो समाजकी अमूल्य सेवा कर रही हैं । हमें इनके संचालकों पर गर्व है । हमारी कामना है कि इस क्षेत्रमें जैन संस्कृतिकी मशाल को अविरत जलाते रहने के लिए ऐसी ही विभूतियाँ सदा अवतरित होती रहें । ६० Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद महाविद्यालय के प्राचार्यत्व के प्रारम्भ में सिद्धान्ताचार्य (सन् १९२७) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमती वसन्तीदेवी धर्मपत्नी सिद्धान्ताचार्य il Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी पत्नी सौ० वसन्तीदेवी, पुत्र सुपार्श्वकुमार, पुत्रवधू सौ० सरोज, पौत्रों ( रंजन एवं संजीवकुमार), पौत्रवधू सौ० पभा एवं प्रपौत्र चि० रवि के साथ सिद्धान्ताचार्य जी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य श्री १०८ आचार्य समन्तभद्र जी महाराज के साथ शास्त्रचर्चा में अन्य विद्वन्मंडली सहित सिद्धान्ताचार्य SAT! बा० देवकुमार-शोधसंस्थान में आयोजित सिद्धान्ताचार्य-सम्मान को।मगध विश्वविद्यालय के कुलपति से ग्रहण करते हुए सिद्धान्ताचार्य www.jainelibrars.org Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करत निर्माण समान वीणा जानि राती मन्ति नान्या सुतं त्वपर्म जननी प्रमु सर्वा दिशो दधतिमानि सहस्र व्यव दिवजनयति स्फुरदशुजा GRO श्री १०८ मुनि विद्यानंद जी के सान्निध्य में आयोजित श्री जिनेन्द्र वर्णी के सम्मान समारोह में बाल-आश्रम, दिल्ली में भाषण देते हुए दिगम्बर जैन मंदिर, जनरलगंज, कानपुर में दशलक्षण पर्व - प्रवचन करते हुए च Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री १०८ समन्तभद्र जी महाराज को आहार देते हुए सिद्धान्ताचार्य जी। Mor दि० जैन समाज एकता-सम्मेलन में समाजप्रमुख साहु शान्तिप्रसाद, सेठ राजकुमार सिंह, आदि के साथ दिल्ली में Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत्परिषद् के सागर अधिवेशन के अध्यक्ष, अपने शिष्य आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री, आदि अन्य अध्यक्षों के साथ सागर की आगमवचनिका में विद्वन्मण्डली के साथ लीन सिद्धान्ताचार्य पंडित कैलाशचन्द्र जी शास्त्री Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यवर श्री १०५ गणेश वर्णी जी रुग्णावस्था में भी अत्यन्त शान्त और अडिग थे । उनकी समाधिचर्या में रत श्री बाबू छोटेलाल सरावगी के साथ कैलाशचन्द्र जी शास्त्री पार्श्वनाथ वर्णी शान्तिनिकेतन, ईसरी में अपने गुरु पं० वंशीधर जी आदि के साथ पूज्य श्री १०५ वर्णीजी के प्रवचन में Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा जीवन-क्रम सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री स्वयं अपने सम्बन्ध कुछ लिखते हुए बड़ी कठिनाईका अनुभव होता है। प्रत्येक मनुष्यमें गुणोंके साथ कुछ दोष भी होते ही हैं । मेरेमें भी दोष है किन्तु इतना आत्मबल नहीं कि कविवर बनारसीदासजीकी तरह उन्हें जनताके सामने रख सकूँ । फिर भी, अपना यत्किंचित् परिचय देता हूँ। मेरा जन्म वि०सं० १९६०के कार्तिकमासमें शक्लपक्ष की द्वादशी को हआ था। उस समय मेरी माता घरमें एकाकी थी। सब परिवार हस्तिनापुरके वार्षिक मेले में गया था। जन्मस्थान उत्तर प्रदेशके विजनौर जिलेमें नहटौर नामक कस्बा है । वहाँ जैनोंकी संख्या जिले में सबसे अधिक है । मकानसे एकदम लगा जैनमन्दिर है और उसीके सामने जैन पाठशाला का मकान है। जब वहाँ मन्दिर नहीं बना था, तब हमारे ही घरमें मन्दिर था। आज भी पक्की पुख्ता वेदी हमारे घरमें स्थित है। उस भाग को काममें नहीं लाया जाता और द्वार सदा बन्द रहते हैं । यह उस समयके धार्मिक आदरभाव का एक नमूना है। मेरी माता पढ़ना-लिखना नहीं जानती थी। उस समय स्त्रियों को पढ़ाना अच्छा नहीं माना जाता था। किन्तु थी धार्मिक और समझदार। उनके पिता साहकारी करते थे और गोम्मटरसारके ज्ञाता थे । जब मैं पढ़ लिख गया, तो वे शास्त्र चर्चा करते थे। मेरे पिताजी बहुत साधारण लिखना-पढ़ना जानते थे । वे मुसहीलाल पंसारीके नामसे कस्बे और देहातमें प्रसिद्ध थे। उनकी पंसारे की दुकान थी और खूब चलती थी । किन्तु वे इतने उदार थे कि उन्होंने कभी संचय नहीं किया । मेरी शिक्षा कस्बेके प्राइमरी स्कूल में हई। उस समय हमारे प्रदेशमें उर्दू का ही चलन था। किन्तु मुझे हिन्दी लिवाई गई। कुछ लोगोंने कहा भी कि यह हिन्दी पढ़कर क्या करेगा। किन्तु कहा है कि जैसी भवितव्यता होती है, वैसी ही सहायक सामग्री भी मिल जाती है। जैन पाठशालामें मैं धार्मिक शिक्षा लेता था । मन्दिरमें शास्त्र सभा होती थी। अपनी माताके साथ मैं जाता था और पुराण सुना करता था। अपनी माताके धार्मिक जीवन का मुझपर बहुत प्रभाव पड़ा। उसी समय हस्तिनापुरमें जैन गुरुकुल स्थापित हुआ था और उसमें मुझे प्रवेश करानेकी बात चली थी। उस साल भी मेरा परिवार हस्तिनापुरके मेले में गया था। वहाँ मैंने सुना कि पं० गोपालदासजी बरैया आये हैं। वह शास्त्र प्रवचन करते हैं और शास्त्र देखे बिना घण्टों बोलते हैं। यह सुनकर मेरे बाल मनमें यह जिज्ञासा हुई, क्या मैं भी ऐसा शास्त्र बाँच सकूँगा? हमारे कस्बेमें एक बाब द्वारकाप्रसा थे। वह कलकत्तामें गैरीसन इन्जीनियर थे। उन्हें सरकारकी ओरसे रायबहादुरीकी उपाधि मिली थी। बड़े शिक्षा प्रेमी और उदार थे । अपने कस्बेके कई होनहार असमर्थ बालकोंको सहायता देकर उन्होंने योग्य बनाया था। वह जब भी नहटौर आते थे, जैन पाठशालामें पधारते थे और बालकोंकी परीक्षा लेते थे, मिष्ठान्न वितरण करते थे। उसी अवसरपर मैं उनकी दृष्टिमें आ गया। शिक्षाप्रेमी होनेसे वह काशीके स्यादाद महाविद्यालयसे भी परिचित थे। उन्हीं के प्रयत्नसे मेरा प्रवेश महाविद्यालयमें हआ। उस समय मेरी अवस्था ग्यारह वर्षकी थी। सबसे छोटा पुत्र होनेके कारण मैं तबतक भी अपनी माँके पास सोता था । जीवनमें प्रथम बार मुझे माँका वियोग सहना पड़ा। किन्तु मेरे बड़े भाई मुझे पहुँचाने गये थे और रेलयात्राका आकर्षण था, अतः वियोग खला नहीं । किन्तु जब मेरे भाई मुझे विद्यालय Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में प्रविष्ट कराकर घर लौटने लगे, तो मेरे धैर्यने जवाब दे दिया। इसके बाद क्या हुआ, कैसे मैं विद्यालयमें रह गया, इसका विवरण अन्यत्र प्रकाशित हुआ है । उसकी पुनरावृत्ति मैं नहीं करना चाहता । स्याद्वाद महाविद्यालयमें मैंने छह वर्ष तक अध्ययन किया । उस समय छात्र बड़ी लगनसे पठनपाठन करते थे । बड़े छात्र छोटे छात्रोंको पढ़ाते थे और बड़े छात्रोंमें यह प्रतिस्पर्धा रहती थी कि किसके पास अधिक छात्र पढ़ने जाते हैं। समय विभाग नहीं था। अतः छात्र पहलेसे ही कक्षामें जमकर बैठ जाते थे कि पहले हम पढ़ेंगे । आपसमें लड़ाई-झगड़ा तक हो जाता था। रात्रिमें पढ़नेके लिए विद्यालयकी ओरसे देसी तेल मिलता था । अतः रात्रिमें अधिक समय तक पढ़नेके लिए छात्र एक-दूसरंका तेल भी चुरा लेते थे। अनेक छात्र जल्दी सो जाते थे और दूसरोंके सो जानेपर जागकर पढ़ते थे । रातभर किसी न किसीका दीपक जलता था। मुझे भी प्रारम्भसे ही पढ़ने में आनन्द आने लगा था। अतः मैं भी रातके १२ बजे जागकर पढ़ने लगा। उस समय विद्यालयके संस्थापक बाबा भागीरथजी वर्णी विद्यालयमें ही रहते थे । उन्होंने एक दिन मुझे बुलाकर कहा, "हम तुम्हें नहीं रखेंगे, तुम्हारे घर भेज देंगे।" मैं काँप उठा कि क्या कसूर हुआ। तब बोले-इस तरह पढ़ोगे, तो बीमार पड़ जाओगे । अभी तुम बालक हो । यह सुनकर मुझे शान्ति मिली। यह उस समयकी पठन-पाठनकी स्थिति थी। पंडित जीवन्धरजी, पं० चैनसुखदासजी, पं० रमानाथजी, पं० दयाचन्द्रजी, पं० दरबारीलालजी (सत्यभक्त), पं० कवरलालजी, ये उस समयके बड़े विद्यार्थी थे। पं० तुलसीरामजी, पं० घनश्यामदासजी, पं० गोविन्दरायजी पढ़ते भी थे और अध्यापकी भी करते थे। पूज्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णी भी आते रहते थे । ब्र० शीतलप्रसादजी भी अधिष्ठाताके रूपमें जब-तब आया करते थे और सब व्यवस्था देखते थे । सन् १९२० में महात्मा गांधीने असहयोग आन्दोलन चलाया। सन् २१ की वसन्तपंचमीको विद्यालयके समीप ही काशी विद्यापीठकी स्थापना हुई । पं० उमरावसिंहजी तब ब्र० ज्ञानानन्द होकर विद्यालयमें रहते थे। उन्होंने अहिंसा प्रचारिणी सभाकी स्थापना करके अहिंसा नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित किया । मैं उसका प्रूफ देखता था। राष्ट्रीयताके प्रभावमें आकर विद्यालयके छात्रोंने भी सरकारी परीक्षाका बहिष्कार किया। उसी साल मैं भी न्यायतीर्थकी परीक्षा देनेवाला था। उसके त्यागके साथ ही मैं विद्यालय त्यागकर घर आ गया और मोरेनाके जैन सिद्धान्त विद्यालयमें जैन सिद्धान्तका अध्ययन करने चला गया। तबतक काशीके महाविद्यालयमें जैनधर्मके अध्ययनकी समुचित व्यवस्था नहीं थी। साहित्य, व्याकरण और जैनन्यायका पठन-पाठन जोरसे चलता था । ___ उस समय गुरुवर्य गोपालदासजीके द्वारा स्थापित मोरेना विद्यालय की समाजमें बड़ी प्रतिष्ठा थी। गुरुजीके प्रधान शिष्य पं० माणिक चन्द्रजी न्यायाचार्य, पं० वंशीधरजी न्यायालंकार और पं० देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री वहाँके अध्यापक थे । इन्हीं तीनोंके पास मैने गोम्मटसार, तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, त्रिलोकसार और पंचाध्यायी का अध्ययन किया। पं. जगन्मोहनलालजी और पं० फूलचन्द्रजी मेरे सहाध्यायी थे। दो वर्ष तक अध्ययन करनेके पश्चात् मेरी नियुक्ति स्याद्वाद महाविद्यालयमें धर्माध्यापकके पद पर हुई। एक वर्ष अध्यापन करनेके बाद मैं अस्वस्थ हो गया और मुझे विद्यालय छोड़ देना पड़ा। लगभग तीन वर्ष मैं कास रोगसे पीड़ित रहा। उस तीव्र असाताके उदयमें मेरी जिनभक्तिने ही मेरी रक्षा की । लौकिक चिकित्सा करनेके साथ ही मैं संसार रूपी महारोगके सिद्धहस्त चिकित्सक भगवान जिनेन्द्र देवको अपनी करुण गाथा प्रतिदिन सुनाता था और आश्वस्त होता था। जब मैं स्वस्थ हुआ तो मेरी धर्मात्मा माता मुझे मेरी पत्नीके साथ अहिच्छत्र, सोनागिर और श्रीमहावीरजीके वन्दन कराने ले गई। उसके पश्चात मैं अपने -६२ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवसायमें लगा और दुकानदारी करने लगा। मुझे व्यवसाय करते एक वर्ष ही हुआ था कि मेरे पास स्याद्वाद महाविद्यालयसे पत्र पहुँचा कि आपका स्थान रिक्त है। आप आना चाहें, तो आ सकते हैं। इस तरह मैं भाग्यवश पुनः बनारस पहँच गया। इस घटनाने मुझे भाग्यवादी बना दिया। मुझे अपनी आजीविका के लिए किंचित् भी प्रयत्न नहीं करना पड़ा। इसमें मेरा केवल वही प्रयत्न काम आया जो मैंने विद्यार्जनमें किया था । यदि मैं अपने प्रथम एक वर्षके अध्यापन कालमें सफल न होता, तो मुझे तीन वर्षके पश्चात् कौन स्मरण करता? किन्तु मेरा भाग्य मेरे साथ था। उसने ही मुझे मेरे जीवन-पथपर लाकर खड़ा किया और इस तरह मैंने जो आठ वर्ष तक परिश्रमपूर्वक विद्याध्ययन किया था, उसका उपयोग हो सका। अन्यथा आज कौन मुझे जानता ? इसे मैंने श्री स्याद्वाद महाविद्यालय और जिनका य जन्मस्थान है, उन सुपार्श्वनाथ भगवान्की शुभ भक्तिका ही प्रसाद माना है और उन्होंके पाद-पंकजमें मेरा जीवन बीता है। यहाँ रहकर मैंने क्या नहीं पाया ? सभी कूछ तो पाया-विद्या, पत्नी, सन्तान, सुख-समृद्धि, यश-सम्मान । वाराणसी विद्याकी राजपुरी है । संस्कृतके विद्वानोंकी खान है। यहाँ रहकर मेरा समस्त जीवन पठन-पाठन और लेखनमें ही बीता है। घर और विद्यालयके सिवाय मेरी अन्यत्र उठ-बैठ नहीं रही। यहाँ मेरा कोई शत्रु नहीं, तो मित्र भी नहीं। छात्रोंसे मैंने सदा ही एक-सा व्यवहार किया और जानबूझकर किसीके साथ पक्षपात नहीं किया। मेरे विद्यार्थी प्रायः बुन्देलखण्डके होते थे। मेरे सहाध्यायी भी वहींके थे। फलतः उन्हींके साथ मेरा विशेष सम्पर्क रहा । यतः विद्वान् बुन्देलखण्डमें ही होते हैं, अतः आज भी मेरे सुपरिचित मुझे बुन्देलखण्डका समझते हैं । यहाँ रहते हुए मैं समाजके सम्पर्कमें भी आया। सबसे प्रथम मुझे शास्त्र-प्रवचनके लिए कलकत्ता रथयात्रा महोत्सव पर जाना पड़ा। उस समय कलकत्तामें पं० झम्मनलालजी, पं० गजाधरलालजी, पं० श्रीलालजी आदि विद्वान् बसते थे। मेरी प्रथम शास्त्रसभामें ये सब उपस्थित थे। मुझसे एक प्रश्न किया गया जो मेरे लिए एकदम नया था । किन्तु मैं घबराया नहीं और मैंने अपनी बुद्धिसे जो उत्तर दिया, वह ठीक निकला। इससे मेरा साहस बढ़ा। उस समय जीवदया प्रचारिणी सभाके मंत्री पं० बाबुरामजी भी उपस्थित थे। जब मैं शास्त्र बाँचकर उठा, तो उन्होंने मेरी पीठ ठोंकी। मैं पास हआ। Finni . .. - : - उस समय जैन मित्रमण्डल, धर्मपुरा, दिल्ली महावीर जयन्ती बड़े ठाठसे मनाता था और विद्वानोंका वहाँ जमघट रहता था। उसमें सम्मिलित होना सौभाग्य माना जाता था । मुझे भी वह सौभाग्य प्राप्त हुआ। वह मेरा प्रथम सार्वजनिक भाषण था । अतः तैयारी करके गया था । सभापतिके आसनपर बैरिस्टर चम्पतराय विराजमान थे । मेरे भाषणके मध्यमें मण्डलके प्रधान मंत्री बा० उमरावसिंहजीने सभापतिसे कहा-बढ़ा जमा हुआ भाषण हो रहा है। जब मैंने यह कहकर भाषण समाप्त किया कि मैं थक गया हूँ, तो बैरिस्टर सा० तत्काल बोले-आप बोलते-बोलते भले ही थक गये हों, हम लोग तो सुनते-सुनते नहीं थके। उसी साल मुझे धर्मपुरा, दिल्लीसे दशलक्षणीका निमंत्रण मिला और सबसे प्रथम मानपत्र भी मुझे वहींसे मिला । यह घटना सन् १९३४ की है। इस तरह मैं धीरे-धीरे समाजके सम्पर्कमें आया और मुझे उससे प्रोत्साहन मिलता गया। . - . . - मेरे बाल सहाध्यायी पं० राजेन्द्रकुमारजी उस समय अम्बाला छावनीमें लाला शिब्बामलजीकी पुत्री चम्पावतीको पढ़ाते थे। चम्पावतीका स्वर्गवास होनेपर उनकी स्मृतिमें एक ट्रैक्टमाला स्थापित की गई, और उसमें मुझे भी एक ट्रैक्ट अहिंसा शीर्षक लिखना पड़ा। संभवतया वह मेरा प्रथम लेखन कार्य था। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादको अम्बाला छावनीमें शास्त्रार्थ संघकी स्थापना हुई और उससे एक पाक्षिक पत्र जैनदर्शन प्रकाशित हुआ। मैं सहायक सम्पादक बनाया गया। तब मुझे लेख लिखनेका अभ्यास नहीं था। एक लेख लिखने में घंटों बीत जाते थे। बादको तो जब संघने साप्ताहिक पत्र जैनसन्देश प्रकाशित किया, मैं उसका सम्पादक बना और मझो उसके लिए प्रति सप्ताह सम्पादकीय लिखना पड़ा। इस तरह मैं लेखक बना । प्रारम्भसे ही मेरी यह नीति रही कि जो कुछ लिखा जाय, वह व्यक्तिगत राग-द्वषसे ऊपर उठकर लिखा जाय । फिर भी, अपनी कमजोरियोंके कारण मेरे लेखनमें कभी-कभी कटुता भी आ जाती थी। मरी नीति सदा माध्यम-मार्गी रही। मैं न तो प्रत्येक सूधारका विरोधी था और न समर्थक । मैंने जैन शास्त्रोंका निष्पक्ष रीतिसे जो अध्ययन किया था उससे मेरा एक दृष्टिकोण बन गया था-आगमके विपरीत लिखना नहीं और रूढिको मान्यता देना नहीं। अपने इसी दृष्टिकोणको सामने रखकर मैं सामाजिक विषयोंपर तथा धार्मिक चर्चाओंपर लिखता रहा हूँ। जैन जातियोंमें परस्पर विवाह सम्बन्धका मैं पक्षपाती हूँ। पं० आशाधरजीने सागार-धर्मामतमें लिखा है-“साधर्मीको ही कन्या देनी चाहिये जिससे उसके धार्मिक संस्कार नष्ट न हों।" अतः मझामें जातिकी अपेक्षा धर्मका ही पक्षपात विशेष रहा है। मैंने जातिवादको भी प्रथय नहीं दिया । जो जैन धर्मावलम्बी है, वह मेरा सजातीय है। यही मेरी श्रद्धा है। हाँ, खान-पानमें शुद्धताका पक्षपाती रहा हैं। किन्तु मनियोंके द्वारा आहारदान देनेवालेसे कराई जानेवाली शूद्रजल त्यागकी प्रतिज्ञाका मैं विरोधी हैं। मैं इसे शास्त्र-सम्मत नहीं मानता । पं० आशाधरजीने सत् शुद्रको आहारदान देनेका अधिकारी माना है। हरिजनोंके सम्बन्धमें भी मैं पं० आशाधरजीके मतका अनुयायी हूँ कि आचार-शुद्धि और शारीरिक शुद्धिके साथ शूद्र भी धर्मसाधनका यथायोग्य अधिकारी हो सकता है। आजके बदलते समयमें हमें परम्परागत रूढिसे चिपका न रहकर शास्त्रसम्मत परिवर्तनको अपनानेमें ही हित है, यह मेरी दृष्टि रही है। मैंने सन्देशके द्वारा वर्तमान मुनिमार्गमें बढ़ते शिथिलाचारका विरोध किया है । इससे मुनियोंके भक्त मुझे मुनि-विरोधी मान सकते हैं। किन्तु कोई जैन धर्मानुयायी मुनिमार्गका विरोधी नहीं हो सकता। मुनिमार्ग आत्मकल्याणके लिए है। उसे अपनाकर मुनिमार्ग विरोधी क्रियाएँ करनेसे आत्मकल्याण तो सम्भव नहीं है, मुनिमार्गपर भी दूषण आता है। लगभग तीन दशकोंसे सोनगढ़ के विरुद्ध प्रचार चला है। मेरी दष्टिसे उस प्रचारमें साधर्मीवात्सल्य का लेश भी नहीं है । जिस व्यक्तिने स्वतः प्रेरित होकर दि० जैनधर्मको स्वीकार किया, मूर्तिपूजा विरोधी सम्प्रदायका गुरु होते हुए सौराष्ट्र में दिगम्बर जैन मन्दिरोंकी श्रृंखला खड़ी कर दी, जिस सौराष्ट्र में दिगम्बर जैन नाममात्रको थे, उसे दिगम्बर जैनोंका गढ़ बना दिया, उस व्यक्तिके प्रति विरोधियोंके चित्त में थोड़ा-सा आदर-भाव न होना क्या धर्मका परिचायक है ? ऐसे व्यक्तिका जिन्होंने बहिष्कार किया, जिनवाणीकी अवमानना की, उन्हें क्या कहा जाये, समझमें नहीं आता ? यह सब दिगम्बर जैनधर्मके लिए महान् हानिकारक है। अनुचित बातोंका विरोध होना चाहिये किन्तु उन्हें दिगम्बर जैन न माननेमें क्या तुक है ? आज समयसारकी चर्चा सर्वत्र है, निमित्त-उपादानको साधारण-जन भी जानने लगे हैं। जो सोनगढ़ विरोधी है, वे आज भी धर्मज्ञानसे शुन्य जैसे हैं। उनमें शास्त्रीय चर्चाके प्रति रुचि नहीं है, क्योंकि वे उनसे अनजान हैं। यह सब मैं अपने अभिप्रायानुसार लिख रहा हूँ क्योंकि मुझे अपना अन्तरंग परिचय भी तो देना है। जैनधर्म एक सत्यनिष्ठ धर्म है। उसका सच्चा अनुयायी किसीके भी साथ अन्याय नहीं कर सकता । न तो वह सत्यका अपलाप कर सकता है और न सत्यका आरोपण कर सकता है। किन्तु खेद है कि आज धर्म में भी राजनीति घुस गई है और राजनैतिक पार्टियोंकी दलबन्दीकी तरह धर्ममें भी दलबन्दी चल पड़ी -६४ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। अब धार्मिक प्रश्नोंका निर्णय शास्त्र के आधारपर न करके दलबन्दीके आधारपर किया जाता है, इससे धर्मको भी क्षति पहुँच रही है । नई पीढ़ी धर्मसे विमुख होती जाती है और उस ओर हमारा ध्यान नहीं है । अस्तु । जैनसाहित्य और उसके रचयिता आचार्यों के इतिवृत्तके सम्बन्धमें स्व० नाथू रामजी प्रेमी और स्व. पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारकी देन अपूर्व है। ये दोनों ही संस्कृतके पठित पंडित नहीं थे। किन्तु दोनोंने ही स्वतः अभ्यास करके ऐसी सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त की थी कि संस्कृत-प्राकृतके शास्त्रोंमेंसे मतलबकी बात पकड़ लेते थे । और मुख्तार साहबकी सूझ-बूझ और अनुसन्धान शैली तो बेजोड़ थी । प्रेमीजीने तथा मुख्तार साहबने जैनहितैषीमें अनेक लेख जैनसाहित्य और जैनाचार्यों के सम्बन्धमें लिखे जो बादको पुस्तकाकार भी प्रकाशित हए। प्रेमीजीने स्व० सेठ माणिकचन्द्रजी बम्बईकी स्मतिमें एक ग्रन्थमाला स्थापित की और उसमें अनेक अप्रकाशित ग्रन्थोंको प्रकाशित करके जैन साहित्यकी श्रीवृद्धि की। उसी ग्रन्थमालासे आचार्य समन्तभद्रका रत्नकरण्डश्रावकाचार मुख्तार साहबकी विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनाके साथ प्रकाशित हुआ। आचार्य समन्तभद्र और उनके कृतित्वके सम्बन्धमें तथा टीकाकार प्रभाचन्द्रके सम्बन्धमें मुख्तार साहबने अपने जीवनभरकी शोध सामग्रीके साथ प्रकाश डाला था। उसको पढ़कर मेरी रुचि जैनसाहित्य और उसके इतिहासकी ओर हई तथा मख्तार साहबके द्वारा अनेकान्त पत्रके प्रकाशनके साथ मैं उस ओर अधिकाधिक रुचि लेने लगा। जब पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीके सम्पादकत्वमें सिद्धसेनके सन्मतितर्कका प्रकाशन गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबादसे हुआ, तो प्रेमीजीकी भावना हुई कि किसी दिगम्बर ग्रन्थका सम्पादन भी इसी रूपमें होना चाहिये । तब उन्होंने मुझे और स्व० पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यको आचार्य प्रभाचन्द्रके न्यायकुमुदचन्द्रका भार सौंपा। उसी समय मैंने न्यायकुमुदचन्द्रके प्रथम भागमें प्रकाशित उसकी प्रस्तावना लिखी जिसे प्रेमीजीने पसन्द किया था। सन् ४१ में भा० दि० जैन संघने वाराणसीमें श्री जयधवल सिद्धान्त ग्रन्थके प्रकाशनके लिए जयधवला कार्यालय स्थापित किया। उसमें मेरे सिवाय पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री और न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजी कार्य करते थे। इससे पूर्व पं. फलचन्द्रजी धवल नामक सिद्धान्त ग्रन्थके सम्पादनका कार्य कर चुके थे, अतः उन्हें ऐसे कार्यका विशेष अनुभव था। प्रथम खण्डके प्रकाशनके बाद पं० महेन्द्रकुमारजी तो पृथक् हो गये किन्तु पं० फूलचन्द्रजीके साथ मैं लगा रहा। उसी समयके लगभग उज्जैनके साहित्यप्रेमी सेठ लालचन्दजीकी ओरसे जैनधर्म पर सर्वश्रेष्ठ रचनाके लिए पारितोषिककी घोषणा हुई और मैंने जैनधर्म पुस्तक लिखकर वह पारितोषिक प्राप्त किया। उसके अबतक चार संस्करण प्रकाशित हो चुके है । सन् ५३ के लगभग श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमालाने जैनसाहित्यके इतिहास निर्माणकी एक ना चाल की। उसमें रहकर मैंने जैनसाहित्यके इतिहासकी पर्वपीठिका तथा जैनसाहित्यका इतिहास लिखा जो उक्त ग्रन्थमालासे प्रकाशित हुआ। एक तरहसे बनारसमें जयधवला कार्यालयको स्थापनाके साथ ही मेरे साहित्यिक जीवनका सूत्रपात होता है। श्री स्याद्वाद महाविद्यालय प्रातःकाल छह बजेसे यारह तक लगता था । अतः सन् ४१ से मेरी यह नियमित चर्या रही है कि प्रातःकालका समय पढ़ानेमें और सायंकालका समय लेखनमें अभी तक भी बीतता रहा है। डॉहीरालालजीके रवर्गवासके पश्चात भारतीय ज्ञानपीठके अन्तर्गत मूर्तिदेवी ग्रन्थमालाके सहायक सम्पादकका भार मुझे वहन करना पड़ा और डॉ० ए० एन० उपाध्येके स्वर्गवासके पश्चात् श्री जीवराज जैन ग्रन्थमाला शोलापुरके सम्पादकका भार भी मुझे ही वहन करना पड़ा है। इस तरह मेरा समस्त Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन पठन-पाठन और सम्पादन-लेखनमें ही बीता। और इन पंक्तियोंके लेखनके समय भी वह क्रम चालू है, क्योंकि अभी मेरा पुरुषार्थ बना है और मुझसे खाली बैठा नहीं जाता है। अपने उक्त जीवनके प्रकाशमें जब मैं अपने जीवनको एक पंडितके रूपमें आँकता हूँ तो मुझे अपने पंडित जीवनपर असन्तोष नहीं होता। यदि मैं पंडित न बनकर साधारण गृहस्थ ही रहा होता तो मेरे जीवनका उपयोग भी अपने पारिवारिक झंझटोंमें ही बीतता । न मैं आत्माको जानता, न परमात्माको जानता। समस्त जीवन "नोन तेल लकड़ी" की चिन्तामें ही बीत जाता । भगवान महावीर और उनकी वाणीके पठन-पाठनमें, आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, पूज्यपाद, नेमिचन्द्र, अकलंकदेव, वीरसेन स्वामी, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, अमृतचन्द्र आदि महान् आचार्यो के ग्रन्थरत्नोंका आलोडन करने में जो सुख मिला है, उसे मैं लेखनीसे लिखने में असमर्थ हूँ। खेद यही है कि मैंने अपने ज्ञानका उपयोग आत्महितमें नहीं किया । यह जानते हुए भी कि मैं द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मसे भिन्न एक स्वतन्त्र चेतन द्रव्य हूँ, मुझे संसार, शरीर और भोगोंसे आन्तरिक विराग नहीं होता और इस परसे मैं यह निष्कर्ष निकालता हूँ कि मेरी आत्मासे मिथ्यात्वका पर्दा हटा नहीं है, यद्यपि जीवनभर मैंने सच्चे देवशास्त्र गुरुकी ही श्रद्धा की है, उसीकी प्राप्तिके लिए मैं प्रयत्नशील हैं और आप सबका आशीर्वाद चाहता हूँ। आज जैनसमाज एक व्यापारी समाज है और सब तीर्थकर, जिन्होंने जैनधर्मका प्रवर्तन किया, क्षत्रिय थे। धीरे-धीरे क्षत्रियोंसे जैनधर्म लुप्त हो गया। हिन्दू समाजकी तरह जैनसमाजमें ब्राह्मण जाति नहीं रही है। ब्राह्मण जातिका कार्य ही हिन्दू धर्मका संरक्षण और प्रचार है। जैनसमाजमें यह कार्य प्रायः संसारत्यागी मुनिगण और आचार्य करते थे। धीरे-धीरे उनका भी लोप होनेसे समाजके सामने कठिनाई उपस्थित हुई। तब संस्कृतके महाविद्यालय स्थापित करके विद्वानोंको परम्परा चालूकी गई। इस परम्पराने लगभर सात दशकों तक समाजमें धार्मिक शिक्षा और धर्मोपदेशका कार्य किया। संस्कृत और प्राकृतके ग्रन्थोंका भाषानुवाद किया और इस तरह जैनसाहित्यका भी संरक्षण और संवर्धन किया। किन्तु सामयिक परिस्थितिके बदलनेसे अब इस विद्वत्परम्पराका भी अन्त सन्निकट प्रतीत होता है। क्योंकि अब इस मार्गमें न तो आर्थिक ही आकर्षण रहा है और न लौकिक ही। मंहगाईकी अत्यधिकताके कारण एक परिवारके निर्वाहके लिये जितना अर्थ आवश्यक है उतना समाजसे मिलता नहीं है । अतः छात्र भी धार्मिक शिक्षाकी ओर ध्यान न देकर लौकिक शिक्षामें ही रुचि रखते हैं। किन्तु आजका पण्डित उनका सन्तोष नहीं कर सकता। इस स्थितिसे विषम समस्या पैदा हो रही है। जब तक जैनसमाज जैन विद्वानके पोषणके लिये आवश्यक आर्थिक व्यवस्था नहीं करेगा तब तक इस परम्पराका चालू रखना अशक्य होता जायेगा। अत समाजको इधर ध्यान देना चाहिये। और एक विद्वानको ५००) से कम वेतन नहीं देना चाहिये । यदि ऐसा हो जाये तो इस क्षेत्रमें आकर्षण बढ़ सकता है। उसके अभावमें जैनसमाजके सामने विषम समस्या पैदा हो जायेगी। वस्तुतः जैनधर्म आत्मकल्याणके लिये है, जीविकाके लिये नहीं है। किन्तु गृहस्थाश्रममें रहनेवालेका जीवन निर्वाह तो आत्मकल्याणसे हो नहीं सकता। अतः उसे जीवन निर्वाहके लिये धनकी आवश्यकता है। आजीविकाके अन्य साधन अपनानेसे रुचि उधर ही लग जाती है। अतः आर्मिक क्षेत्र में कार्य करनेवाले विद्वानों का उपयोग उसी ओर रहे, इसके लिये उन्हें जीविकाकी ओरसे निराकूल करना ही चाहिये। साथ ही विद्वत्ताके योग्य-सन्मान भो उन्हें दिया जाता चाहिये। स्कूल कालिजोंमें अध्यापकोंकी जो स्थिति होती है वही स्थिति जैन विद्वानकी जब तक नहीं होगी तब तक यह समस्या सुलझ नहीं सकती। मेरा यह अनुभव है कि विद्वानको सन्मान दो कारणोंसे मिल सकता है। एक निरीहवृत्ति और दूसरे विद्वत्ता । निरीहवत्ति तब तक संभव नहीं है जब तक जीवन निर्वाहके योग्य आजीविका न हो । और उसके Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये यह भी आवश्यक है कि विद्वान केवल परीक्षा पास न हो, किन्तु उसे जिनागमका रहस्य भी ज्ञात हो, भाषणकलामें भी कुशल हो और शास्त्रीय प्रश्नोंका उत्तर शास्त्राधारसे देनेकी क्षमता हो। इसके लिये उसे शास्त्राभ्यासी होना आवश्यक है। आजकल तो छात्रोंमें शास्त्राभ्यासकी रुचि नहीं पाई जाती। कक्षामें पढ़ते समय भी वे अन्यमनस्क रहते हैं। परीक्षामें नकल करके पास होते हैं। ऐसी स्थितिमें उन्हें विषयका ज्ञान कैसे सम्भव है। और उसके अभावमें वे कैसे समाज पर अपना प्रभाव डालने में सक्षम हो सकते हैं । अतः दोनों ही ओरसे अपनीअपनी त्रुटियोंको दूर करने पर ही समस्याका हल निकल सकता है। उसके बिना परिस्थितिमें सुधार सम्भव नहीं है । आशा है समाज इधर ध्यान देगा तथा विद्वान बननेके इच्छुक भी ध्यान देंगे । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनकी एक झलक : पण्डित कैलाशचन्द्रजी ___सतीशकुमार जैन, असिस्टैंट कमिश्नर (वन), भारत सरकार, नई दिल्ली अपनोंके विषयमें अधिक जानते हुए भी अधिक नहीं लिखा जा सकता। यही स्थिति मेरी भी है। जिन्हें सदैव जीवनमें सर्वाधिक सम्मान दिया है, उनके विषयमें क्या लिखा जाये, क्या छोड़ा जाये, यही ऊहापोहकी स्थिति बनी रहती है । जन्म और मातापिता-छोटेसे कस्बेमें साधारण परिवार में लाला मुसद्दीलाल जैनके कनिष्ठ पुत्रके रूपमें जन्मे बालक कैलाशचन्द्र के विषयमें किसको यह पूर्वाभास हो सकता था कि भविष्यमें यह बालक देशके अग्रणी विद्वानोंमें भी आदरपूर्ण स्थान प्राप्त करेगा। पण्डितजीका जन्म उत्तरप्रदेशके आमों और खण्डसारीके लिये पर्याप्त प्रसिद्ध कस्बे नहटौर (जिलाबिजनौर) में कार्तिक शुक्ला द्वादसी, संवत १९६० (सन् १९०३) में हुआ। हम नहटौर वालोंको गर्व है कि सरलस्वभावी एवं जैनदर्शनके उदभट विद्वान सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजीका जन्म इसी मिट्टीमें हुआ है । पण्डितजी का समूचा परिवार सरल स्वभावके लिये सारे नहटौरमें प्रसिद्ध था। पिता श्री मुसद्दीलालजी, अत्यन्त हंसोड़ प्रकृतिके सरल स्वभावी तथा सन्तुष्ट व्यक्ति थे। पं० जीके ज्येष्ठ भ्राता स्व० श्री शिखरचन्द्रजी समाज-सेवा, भजनोंके गायन, पर्युषण पर्व पर प्रभातफेरीके संचालन तथा लतीफेबाजीके लिये प्रसिद्ध थे। उनके मकानसे संलग्न श्री दिगम्बर जैन मन्दिरके चबूतरे पर सायंकालको बैठकर बच्चे एवं वयस्क समान रूपसे उनकी रोचक वर्णन शैलीका आनन्द उठाते थे। पण्डितजीके मार्गदर्शनमें श्री शिखरचन्द्र जीका विशेष हाथ रहा । शिक्षा-दीक्षा और जीवन चरित्र-पण्डितजीकी आरम्भिक धार्मिक शिक्षा स्थानीय जैन पाठशालामें, जो मन्दिरजीके ठीक सामने थी, आरम्भ हुई। जैन समाजके ख्यातिप्राप्त धर्मप्रेमी रायबहादुर द्वारकाप्रसाद जैन, गेरिसन इन्जीनियर, जो सेवा निवृत्त होनेके पश्चात् नहटौर में ही अपने विशाल भवनमें रहने लगे थे, बालकोंकी धर्म एवं हिन्दी परीक्षा लिया करते थे। रायबहादुर साहब बालक कैलाशचन्द्रके जैन धर्म, हिन्दी प्रेम तथा सुन्दर व्यक्तित्वसे अधिक प्रभावित हुए और उन्हींके सुझाव पर श्री शिखरचन्द्रजी आपको स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसीमें प्रविष्ट करानेके लिये तैयार हो गये। सन् १९१५ की भाद्रपद मासकी कृष्ण चतुर्थी, आपके वहाँ प्रवेशका प्रथम दिन थी। उस समय पण्डितजीकी अवस्था १० वर्षकी थी और भाई शिखरचन्द्र जीकी १८ वर्ष । इस कारण उनके साथ वाराणसी जाने में पण्डितजीको घर पर कोई घबराहट नहीं हुई थी। उस समय स्याद्वाद महाविद्यालयका प्रबन्ध पं० उमरावसिंहजीके हाथोंमें था, जो पण्डिज गोपालदासजी बरैयाके पाँच मुख्य शिष्योंमें से एक थे। उमरावसिंहजी वहाँ सन् १९१८ तक रहे, उसके पश्चात् उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर ब्र० ज्ञानानंद नाम धारण कर लिया था। पं० उमरावसिंहजीका अनुशासन कठोर था। नहटौरमें पक्षीके समान स्वच्छंद रहनेवाले बालक कैलाशचन्द्रका मन यहाँ तीन दिनमें ही उचाट हो गया। शिखरचन्द्रजी तब तक वहीं रुके हुए थे । पण्डितजीने उनसे नहटौर वापिस ले चलनेका प्रबल आग्रह किया। विद्यालयमें उन्हें तीन दिन तीन वर्षसे भी अधिक लम्बे लगे। घरके स्वच्छन्द वातावरण एवं परिवार वालोंकी अविकल स्मृतिने इन्हें विकल कर दिया। श्री शिखरचन्द्र के नहटौर जानेका नार पण्डितजीके मनमें गहरी उदासी छा जाती थी। वह पिंजरेमें बन्द पक्षीके समान छटपटाने लगे। उनके मुख Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर उदासी एवं आँखोंमें आँसू अन्ततः सहोदरसे भी सहन न हुए और वह उन्हें घर वापिस ले चलनेके लिये सहमत हो गये । पण्डितजीकी प्रसन्नताका पारावार न रहा । लेकिन समस्या यह थी कि उस कठोर अनुशासन एवं देख-रेखमें से निकलकर बिना किसीको पता चले स्टेशन तक कैसे पहुंचा जाये। दोनों भाई विद्यालयके अधिकारियों तथा विद्यार्थियोंकी आँखोंसे बचकर वहाँसे निकल भागनेका उपाय सोचने लगे। बहत देर तक माथापच्ची करनेके पश्चात विद्यालयकी संध्याकी प्रार्थनाके पश्चात भाग निकलनेका कार्यक्रम निश्चित किया गया । प्रार्थनाके समय स्वयं पं० उमरावसिंहजीकी उपस्थितिमें छात्रोंकी हाजिरी ली जाती थी। पण्डितजीको आशा थी कि प्रार्थनामें उपस्थित रहनेके कारण अधिकारी उनकी ओरसे निश्चिन्त हो जायेंगे और वह बेखटके वहाँसे निकल सकेंगे । योजनानुसार संध्या आनेपर प्रार्थनाके पश्चात् भाई श्री शिखरचन्द्र अपना बोरिया-बन्धना उठाकर विद्यालयसे रवाना हुए। आँख बचाकर उछलते हुए हृदयसे बालक कैलाशचन्द्र भी एक-दो-तीन हो गया । किन्तु संकटको कहाँ टलना था। विद्यालयके फाटकसे कुछ ही पग आगे जाने पर एक कर्मचारीसे भेंट हो गयी। दोनोंके चेहरोंपर बदहवासी देखकर उसे कुछ शक हुआ और उसने घूरकर पूछा, "कहाँ जा रहे हो। बालक कैलाशचन्द्र इसपर कुछ सकपकाया, किन्तु साहस पूर्वक उत्तर दिया, "भाईको पहुँचाने जा रहे हैं।" सन्तुष्ट होकर कर्मचारी आगे बढ़ गया । एक मोर्चा तो फतह कर लिया गया था । एक तेज चलनेवाला इक्का लेकर स्टेशन पहुँच गये किन्तु पता चला कि रात्रिमें कोई भी गाड़ी घरकी ओर नहीं जाती। विवश होकर मुसाफिरखाने में बिस्तर बिछाकर भाईके साथ लेटना पड़ा। भाई तो शीघ्र ही गहरी नींदमें मशगूल हो गये किन्तु पण्डितजीको नींद भली प्रकार न आई। पुकारनेका भारी शब्द सुनकर दोनोंकी ही आँख खुल गयी और सामने देखकर दोनोंको ही हैरानी हो गयी। पं० उमरावसिंहजी दो यमदूतों सहित सशरीर पकड़नेके लिए तैयार खड़े थे। झटसे उन्होंने पण्डितजीको उठाया और इक्केमें सवार होकर विद्यालय ले चले । भाई शिखरचन्द्र विवशतासे कुछ न कर सके और अश्रुपूर्ण नेत्रोंसे विदा किया। लगभग १५ दिन तक पण्डितजीका मन खिन्न रहा। इस बीच में पं० उमरावसिंह पत्रिकाओंके चित्रों द्वारा उनका मनोरंजन करनेका प्रयत्न करते रहे। पण्डितजी मानते हैं कि यदि पं० उमरावसिंह उस समय उनकी ओरसे उदासीन हो जाते तो उनके प्रारम्भिक जीवनकी यह घटना उनके भविष्यके जीवनपर गहरा पर्दा डाल लेती। पं० उमरावसिंहकी भांति शिक्षा संस्थाओंके कितने प्रबन्धक अथवा अध्यापक इस प्रकार अपने कर्तव्यका पालन करते हैं ? तरुणावस्थामें पण्डितजी राष्ट्रीय भावनाओंसे प्रभावित हुए बिना न रह सके। सन् १९२१ में आपने कलकत्ताकी न्यायतीर्थकी सरकारी परीक्षाका बहिष्कार महात्मा गान्धी द्वारा चलाये गये असहयोग आन्दोलनके कारण किया । उस समय विद्याध्ययन छोड़कर कुछ समय नहटौर ही रहे । किन्तु वहाँ मन न लगनेपर पुनः सन् १९२१ में मोरेनामें जैनसिद्धान्त विद्यालयमें, जिनका कालान्तरमें गोपालदास जैन विद्यालयके रूपमें नाम पड़ा, अध्ययनके लिए आये। वहाँ १९२३ तक रहे और वहींसे शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की । सन् १९२३में स्याद्वाद विद्यालयमें आप अध्यापक नियुक्त होकर आये। आरम्भमें वहाँ एक वर्ष ही कार्य किया था कि अस्वस्थ होनेपर महाविद्यालयसे नहटौर वापिस चले गये। दिसम्बर १९२७ में अनुरोधपर आप पुनः स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीमें आये । १९३१ में यहाँसे बंगाल संस्कृत एसोसियेशनकी न्यायतीर्थ परीक्षा प्रथम श्रेणीमें उत्तीर्ण की। ४ दिसम्बर १९७२ में अवकाश प्राप्त करनेके समय तक आप वहाँके सफल एवं यशस्वी प्रधानाचार्य रहे । तत्कालीन युगकी कुछ बातें-मेरे प्रश्न करनेपर कि उस समय विद्यार्थियोंमें पढ़नेके प्रति कितनी लगन थी, पण्डितजीने बतलाया कि स्याद्वाद महाविद्यालयमें विद्यार्थी एक-दूसरेको बिना विदित हुए पढ़ते थे । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 वे छिप छिपकर रात्रिमें पढ़ना आरम्भ करते थे। अतएव वह भी रात्रिमें १२ बजे उठकर पढ़ने बैठ जाते थे । बाबा भागीरथ वर्णों, जो उस समय यहां के संरक्षक थे तथा पं० उमरावसिंहके कहनेपर कि इससे स्वास्थ्यपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, पण्डितजीने इतनी रातसे उठकर पढ़ना बन्द किया । पण्डितजीके विचारमें विद्यार्थी अब उतनी लगनसे शिक्षा ग्रहण नहीं करते। इसी सन्दर्भमें पण्डितजीने एक रोचक बात और बतलाई कि उस समय पढ़ाई के लिये जितना तेल मिलता था, वह रात्रिभरकी पढ़ाई के लिए पर्याप्त नहीं होता था, अतएव विद्यार्थी एक-दूसरेका तेल चुरा लिया करते थे। विद्यार्थियोंकी यह अजब चोरी थी। उस समय शिक्षा देनेमें स्वार्थ एवं भ्रष्टाचार नहीं था । त्याग एवं निःस्वार्थ सेवाका ही वातावरण था । पं० गोपालदासजी विद्यालयसे बिना कुछ लिये ही वहाँ शिक्षा देते थे । इस सद्वृत्तिका पण्डितजी पर पूर्ण प्रभाव पड़ा है और इसी कारण उनको धनका मोह कभी नहीं हुआ । अपने सम्पूर्ण अध्यापनकाल में आप केवल आवश्यक वेतन लेकर ही स्वाद्वाद महाविद्यालयको विकसित करने एवं योग्यसे योग्य छात्र निर्माण करनेमें जुटे रहे। पण्डितजी जैसे स्पातिप्राप्त एवं प्रखर विद्वान्‌के लिये किसी धनाढय संस्थामें अच्छेसे अच्छा वेतन पाना कोई कठिन कार्य नहीं था । व्यक्तित्व और सार्वजनिकता - पर्युषण पर्व पर नहटौर में पण्डितजीके कभी-कभी शास्त्र प्रवचन करने पर वहाँकी जैन समाज में विशेष उल्लास रहता था । कठिन प्रसंगोंका विवेचन होने पर बहुधा मैं बाल सुलभ जिज्ञासा समाधान हेतु पण्डितजीसे लम्बे प्रश्न किया करता था और पण्डितजी थे कि गद्गद मनसे कठिन विषयोंको सरल रूपमें मेरेमें हृदयंगम करानेका प्रयत्न करते थे। नवयुवक वर्गकी धर्ममें आस्था ऐसे विद्वानोंके सहयोगसे ही पनप सकती है । पण्डितजीका सर्वप्रथम सार्वजनिक भाषण सन् १९३४ में धर्मपुराकी जैन सभामें हुआ। उसी समय आपको सर्वप्रथम मानपत्र भी भेंट किया गया था । इस प्रकार दिल्लीमें ही आपका सार्वजनिक जीवन आरम्भ हुआ । तबसे आपका सार्वजनिक जीवन अनवरत रूपसे अधिकसे अधिक गौरवपूर्ण बनता जा रहा है । स्याद्वाद महाविद्यालयके तो पण्डितजी प्राण ही बन गये हैं । देशमें अधिकांश जैन विद्वान इसी विद्यालयसे उत्पन्न हुए। आपके सरल स्वभाव एवं सादे जीवनकी विद्यालयके विद्यार्थियों पर गहरी छाप रही है। लगभग ६०० से अधिक विद्यार्थी आपसे शिक्षा प्राप्तकर देशमें अनेक उत्तरदायित्वपूर्ण स्थानों पर कार्य कर रहे हैं । अनेक सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् पण्डितजीके शिष्य रहे हैं। अभी तक भी उनकी पण्डितजीमें गहरी श्रद्धा है । विद्यार्थियोंमें गुरुजनोंके प्रति आदरभाव आप उनके उचित आवश्यक मानते हैं। उसी परम्परामें अभी तक भी अपने गुरुओं में चन्द्रजी न्यायाचार्य एवं पण्डित देवकीनन्दनजीके प्रति आपकी अपार श्रद्धा है। पण्डितजीने एक पूर्व घटना बहुत विनोदपूर्वक सुनाई । सन् १९३४ में आप खुरजामें एक प्राचीन शास्त्र देखना चाहते थे। उसकी व्यवस्थासे सम्बन्धित एक महानुभाव यह नहीं चाहते थे कि उस शास्त्रको कोई देखे । पण्डितजीने पत्र लिखा तो उत्तर आया कि मैं उस समय खाली नहीं रहुँगा । इस कारण अनेका कष्ट न करें। फिर भी पण्डितजी खुरजा गये । उनको देखते ही महानुभावने कहा कि मैंने तो पहलेही अपको न आनेके लिये पत्र लिख दिया था। रात्रि में पण्डितजीने मन्दिरमें शास्त्र प्रवचन किया। सारे श्रोता उससे प्रभावित हुये और वह सज्जन भी । फिर उन्होंने उमंगसे उस शास्त्रको पण्डितजीको दिखाया । उस समय रूढ़ियाँ इतनी कठिन थीं कि योग्य विद्वनोंको भी प्राचीन शास्त्रोंको प्रकाश में लानेके लिये कठिनाईका सामना करना पड़ता था । - ७० अध्ययन एवं जीवनके उत्कर्षके लिये वंशीधरजी न्यायालंकार पं० माणिक Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौलिक लेखक और अनुवादक-जैन शिक्षा एवं साहित्यमें पण्डितजीकी देन अपूर्व है । पं० नाथूरामजी प्रेमीकी प्रेरणासे आप साहित्य सृजनकी और प्रवृत्त हुये। स्व० पण्डित महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यके साथ न्यायकुमुदचन्द्रका सम्पादन किया और उसकी विस्तृत भूमिका लिखी। पं० फूलचन्द्रजीके साथ भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघसे प्रकाशित जयधवलाका लगभग १३ खण्डोंमें आपने सम्पादन किया। सन् १९४८ में उज्जैनके एक प्रसिद्ध विद्याप्रेमी स्व० से० लालचन्द्र सेठीने जैन धर्मपर सर्वोत्तम पुस्तकके लिये १००० रुपयेका पुरस्कार घोषित किया था। जैन धर्मकी विशेषताओंको समाहित करते हुए आपने जैनधर्म नामक पुस्तकको लिखा और वह पुरस्कार आपको ही मिला । जैन साहित्य जगत्में पण्डितजीका नाम वास्तव में इस पुस्तक द्वारा ही अमर हआ। यह पुस्तक वाराणसी, सागर आदि विश्वविद्यालयों में पाठ्य पुस्तकके रूपमें मान्य है । इनके अतिरिक्त जैन साहित्यका इतिहास व उसकी पूर्वपीठिका (ग्रन्थ), जैन न्याय, तत्त्वार्थ सूत्रकी टीका, दक्षिण भारतमें जैनधर्म, अनागार धर्मामृत, सागार धर्मामृत, गोम्मटसार जीवकांड और कर्मकाण्ड, भगवती आराधना, चरणानुयोग प्रवेशिका, नमस्कार महामंत्र, भगवान ऋषभदेव, सोमदेव उपासकाध्ययन आदि आपके द्वारा लिखित उच्चकोटिके ग्रन्थोंमें आपका गहन अध्ययन एवं विशद पाण्डित्य पूर्णरूपेण परिलक्षित है । 'भगवान् महावीरका अचेलक धर्म' भी आपकी अमूल्य रचना है। पत्रकार और सम्पादक-जैन पत्रकारिताके क्षेत्रमें भी पंडितजीकी सेवायें बहुमूल्य हैं । भारतवर्षीय दि० जैन सघ, मथुराके द्वारा आपकी पत्रकारिता मुखरित हुई। इस संस्थाके लिये पण्डितजीने अनथक कार्य किया है और अभीभी इससे बेहद लगाव है । इसके आप कर्णधार हैं और प्रकाशन विभागके मंत्री हैं। संघने सर्वप्रथम जैनदर्शन पत्र प्रकाशित किया । सन् १९३९ में जैनसन्देशका प्रकाशन आरम्भ करने पर आप उसके सम्पादक बने। इस पत्रके सम्पादकीय वक्तव्योंके रूपमें आपके सैकड़ों लेख प्रकाशित हुए हैं। पत्रकारिताके क्षेत्रमें पण्डितजीने कभी अपने हृदयकी आवाजके विरुद्ध नहीं लिखा। जाँचकर, परखकर, विचार मन्थन द्वारा जो आपको उचित लगा, निर्भीक भावसे उसीको लिखा, प्रतिपादित किया। इसी कारण कभी-कभी पण्डितजी आलोचनाके शिकार रहे हैं, किन्तु उससे वह किंचित भी अपने स्वतंत्र लेखनके प्रति प्रभावित नहीं पण्डितजीकी विशेषतायें-वाल्यावस्था से अब तक पण्डितजीको सुननेका मुझे अनेकों बार अवसर मिला है । अनेक अवसरोंपर निकट बैठकर उनके अन्तरंगको छूनेका भी अवसर मिला है । किन्तु पाया है कि उनके विचारोंमें पूर्ण स्वतंत्रता है-पण्डितजी पूर्णरूपेण परम्परावादी नहीं है, किन्तु वे समयकी मांगके अनुसार धर्ममूल्योंमें अथवा सिद्धान्तोंके परिवर्तनके बिल्कुल हामी नहीं हैं। वह मानते हैं कि निःसन्देह महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म अवश्य ही कठोर है किन्तु जैन धर्मके मूल्योंको मूलरूपसे जीवित रखनेके लिए उसको तो वैसे ही स्वीकारना आवश्यक होगा। पण्डितजी अधिक संस्थाओंमें व्यस्त होकर अपना अमूल्य समय खोनेके पक्षमें नही हैं। फिर भी, वे कुछ महत्त्वपूर्ण संस्थाओंसे संबंधित है । भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत् परिषद्की स्थापनामें, जो वीर शासनमहोत्सवके समय १९४४ में स्थापित हई थी, आपका मुख्य हाथ रहा है और आप उसके संरक्षक हैं। भारतीय ज्ञानपीठकी परामर्श समितिके आप सदस्य तथा मतिदेवी जैन ग्रन्थमाला एवं जीवराज जैन ग्रन्थमाला, शोलापुरके आप सम्पादक है । सुन्दर व्यक्तित्वने पण्डितजीके प्रभावशाली वक्तत्वको चार चाँद लगाये हैं। वाणीकी मिठास हृदयमें गहराई तक उतरती जाती है। शास्त्र-प्रवचन हो अथवा विशाल सार्वजनिक आयोजन, श्रोतागण विभोर Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होकर आपके स्पष्ट एवं अगाध सैद्धान्तिक और व्यावहारिक ज्ञानयुक्त विद्वत्तापूर्ण वक्तव्योंको सुनते अघाते नहीं । आपकी भाषण शैली विद्वत्तापूर्ण एवं विशिष्ट है । व्यावहारिक पुट देकर गूढ़से गूढ़ प्रकरणका विश्लेषण भी वे इस प्रकार करते हैं कि जन-साधारणको भी वह सहज गम्य हो जाता है । जनसमाजके कदाचित् ही ऐसे विशाल स मेलन होते हैं जहाँ आप निमंत्रित न किये जाते हों । अनेक सार्वजनिक अवसरों पर जनसमाजने आपका हृदयसे सम्मान किया है । १९४६ में सिवनीकी जैनसमाज द्वारा आपको सिद्धान्तरत्नकी उपाधि तथा १९६३ में जैन सिद्धान्त भवन आराके हीरक जयन्ती महोत्सव पर सिद्धान्ताचार्यकी उपाधि से विभूषित किया । सरस्वतीके इस उपासकने लक्ष्मीके प्रति कभी भी मोह नहीं रखा। कहा जाए तो उसके प्रति विरक्त ही रहे हैं । आपने स्याद्वाद महाविद्यालयके सम्पूर्ण अध्यय कालमें केवल आवश्यक वेतन लेकर ही सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत किया है। साथ ही, उसमेंसे नहटौरके परिवार के प्रति आर्थिक उत्तरदायित्वका निर्वाह भी किया है । अनेक घनिष्ठ व्यक्ति आपकी किसी भी आर्थिक इच्छाकी पूर्ति करना अपना सौभाग्य मानते किन्तु पण्डितजी धनकी लालसाके प्रति सदैव निस्पृह ही रहे हैं । नहटौर आनेपर वहाँके व्यक्ति कभी आपसे विनोदमें पूछ लेते थे कि पण्डितजी, आपका जैसा यश है, उससे आप अच्छा आरामका जीवन व्यतीत करनेका प्रयास क्यों नहीं करते, तब मुस्कराहट भरे चेहरेसे पण्डितजीका उत्तर हुआ करता था, "काहेके लिए।" पण्डितजी जैसा सन्तोषी व्यक्ति मैंने अपने सार्वजनिक जीवनमें अभी तक नहीं पाया है । साधारण भोजन मिल जाये, बस यह पर्याप्त है । आर्थिक स्थितिके ही प्रति नहीं, विषम पारिवारिक स्थितिमें भी पण्डितजी पूर्ण सन्तोषी रहे हैं । पत्नी बसन्ती बाईके दीर्घकालसे अर्द्ध-विक्षिप्त होनेपर भी पण्डितजीके निजी जीवनमें दुःख अथवा विषाद कभी नहीं आया है । आपके एकमात्र सुपुत्र श्री सुपार्श्व जैन, हैवी इन्जीनियरिंग कारपोरेशन राँचीमें अच्छे बड़े पदपर नियुक्त हैं, किन्तु आपका मन, धर्म एवं विद्या केन्द्र, वाराणसी में ही लगता है । परम सन्तोषी वृत्तिसे आपका जीवन जिनवाणीको समृद्ध करने तथा अधिकसे अधिक विद्वान् उत्पन्न करनेके लिए अर्पित रहा है । आपके अनेक शिष्य विश्वविद्यालयों अथवा महाविद्यालयों में प्राचार्य अथवा अध्यापक पदों पर कार्य कर रहे हैं । मेरे मनमें एक कसक अभी भी रह-रहकर उठ जाती है कि पण्डितजीके शिष्य के रूपमें संस्कृत में जैनधर्मका अध्ययन किया होता तो मेरा जीवन भी धन्य हो जाता । जैसा देखा, जैसा सुना श्रीकान्त गोयलीय, डालमियानगर जैन जागरण के अग्रदूतके लेखक श्रीगोयलीयजीके शब्दों में, 'बीसवीं शताब्दी रूपी वधूका डोला अभी आया भी नहीं था कि उसके स्वागत समारोहके लिये समूचे भारतमें इस छोरसे उस छोर तक उत्साहकी लहर दौड़ गयी । जनता में सेवा, तप, त्याग, बलिदानके भाव अंकुरित हो उठे । वह अपने साथ राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक चेतना दहेज स्वरूप लायी जैन समाजमें भी होड सी मच गयी । राजा लक्ष्मणदास आदि महासभाकी स्थापना कर ही चुके थे । पण्डित गोपालदासजी बरैया भी मुरैनामे आसन मारकर बैठ गये और न्यायाचार्य गणेशप्रसादजी व बाबा भागीरथजी वर्णी बनारस में धूनी रमा बैठे। इनके द्वारा स्थापित स्याद्वाद विद्यालय में पं० कैलाशचन्द्रजीको विद्यार्थी, स्नातक एवं प्राचार्य होनेका गौरव प्राप्त है। जिस - ७२ - Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यालयसे आप पिंड छुड़ाना चाहते थे, वही स्याद्वाद विद्यालय आपके चरणोंकी रज पाकर सुगंधमय हो गया । भारतकी सभी दिशाओं में विद्यालयकी प्रशस्ति गूँज उठी । विद्यालयमें प्रवेश करते समय आपके कुछ दिन अत्यन्त उद्विग्नतामें बीते । आपने अपने बड़े भाई साहबके सहयोगसे वहाँसे चतुराईसे भाग जानेमें ही अपना हित देखा । और यदि पण्डितजीको उस रातमें गाड़ी मिल गयी होती, तो श्री स्याद्वाद विद्यालयका वर्तमान स्वर्ण युग हमें देखने को नहीं मिलता, जैनवाङ्मयको सम्भवतः आपके मेधावी शिष्य नहीं मिलते तथा आपकी कलमका रस - माधुर्य चखनेको नहीं मिलता । रेलवेसारिणीने बड़ी कृपा की है हमारे जैनसमाजपर कि पंडितजीको रातमें गाड़ी नहीं मिली ।.... पिताजी आपकी प्रशंसा करते हुए अघाते नहीं थे जब आपका जिक्र आता, पिताजी कहते, "पं० कैलाशचन्द्रजी बहुत स्वाभिमानी व्यक्ति हैं । बहुत उदार हैं, खाने-पीने का बहुत बढ़िया शौक रखते हैं । बाल-बच्चोंके विवाह में आपका खातिर - तवाजह और सुरुचिपूर्ण मीनू देखते बनता है। शादी-विवाह में विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, प्रिंसिपल जौक-दर-जौक आगे रहते | आप बहुत पापुलर हैं । मेहमानके लिए बिस्तरा रिजर्व रखते हैं । घरपर आए-गएका खाना-पीना, आदर-सत्कार बहुत चावसे करते हैं । तबीयत - में सुलझा हुआ मजाका है आप जैसे विद्वान् हमारे यहाँ कहाँ है । स्थाद्वाद विद्यालयके लिए आपने सब कुछ अर्पण कर दिया । X X आइए वाराणसी चलें । भगवान् पार्श्वनाथकी जन्मभूमि । भदैनीके लिए रिक्शा कर लेते हैं । घबड़ाइये नहीं, थोड़ी देर में भदैनी तीर्थ आ जायेगा, जहां गंगा स्याद्वाद विद्यालय एवं पं० कैलाशचन्द्रजीको प्रतिदिन प्रतिपल प्रणाम करती है । लीजिए, भदैनी आ गया । यहीं उतर जाइये । इसी गलीमें हमारे योगी तपस्वी रहते हैं । हाँ, यहीं सामने ( लाल ईंटोंवाली ) ऊँचाई पर पाँव बढ़ाइये । तपस्वी सन्त ऊँचाई पर रहकर ही तपस्या साधना करते हैं । विशाल दरवाजेसे अन्दर चलें । देखा, "आइये - आइये", मधुर कंठ और मुक्त मुस्कानसे आपका स्वागत हो रहा है। आपको अपने पास बहुत प्यारसे बैठाया गया है। जी, शिरपर गांधी टोपी, बहुत सुन्दर मुख, गौर वर्ण, स्वाध्याय और सामायिकमें डूबी हस्ती और और तेजस्वी आँखों पर चश्मा, अधरोंपर नाचती हुई मधुर मुस्कुराहट, संयमित एवं गर्भित वाणी, खादीकी वास्कट, कुर्ता, धोती और कपड़ेका जूता पहने हुए जो दिव्य पुरुष दिख रहे हैं, यही आचार्यों के आचार्य, संतोंमें संत वन्दनीय श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री हैं । X • बहका वक्त है, आपके लिए पण्डितजी गरमागरम जलेबी लायेंगे । आपको इतने प्यारसे जलेबी खिलायेंगे कि आप बहुत भावुक हो जायेंगे । लगेगा गलेमें जलेबीका रस दुगना हो गया है। आपसे कुशलक्षेम पूछेंगे, आपके आनेके अभिप्रायको यथाशीघ्र पूरा करेंगे। अपने बारेमें अपने साहित्य सजनके बारेमें नहींके बराबर चर्चा करेंगे। बहुत जानने की कोशिश करियेगा, तो अति संक्षेपमें जानकारी देकर चुप हो जायेंगे । आपके भोजनका वक्त हो गया है, पण्डितजी आपको स्वादिष्ट भोजन चखानेके लिए, रसोइयेको आदेश देकर पुनः आपके पास बैठ गये । भोजन आपको बहुत प्रेम से करायेंगे । आपके प्रमुख शिष्य बाबू चेतनलालजीके शब्दोंमें, " पण्डितजी ऐसा सन्तोषी और गुणी व्यक्ति मिलना मुश्किल है ।" आपका आचरण मुनियों जैसा है । हमेशा नपी-तुली भाषामें अपने शब्दों को कहना और सलाह देना, आपका स्वभाव है । वे अपने शिष्यों के हित के लिए हमेशा चिन्ता करते हैं । आपके पढ़ाये हुए शिष्य, बारोजगार और १० - ७३ - Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुशहाल रहें, इसके लिए आप कोई कोर-कसर अपनी ओरसे नहीं छोड़ते । आपने हमेशा देना सीखा है । आपके शिष्यगण आपके कठोर अनुशासन, समयकी पाबन्दी और पढ़ाई-आचरणके प्रति सख्ती देख, आपके श्रीचरणोंमें मुग्धभावसे झुके रहते हैं। सार्वजनिक समारोह हो, आपके प्रतिष्ठित एवं बहुत उच्च पदपर आसीन आपके शिष्य, आपकी चरणरज अपने भालपर लगाने में गौरव महसूस करते हैं । आप सुबह पाँच बजेकी गाड़ीसे प्रवाससे आये हैं, पर ठीक ६ बजे नियत समयपर पण्डितजी विद्यालय आ जायेंगे। पण्डितजीके अनुशासन एवं कार्य-चुस्तीने पूरे भारतवर्ष में स्याबाद विद्यालयकी पताका आज लहरा दी है। रविबाबूका स्मरण करनेसे शांतिनिकेतन, योगिराज अरविन्दका स्मरण करनेसे पांडिचेरी आश्रमका ध्यान आता है। इसी भाँति पण्डितजीका स्मरण करनेसे श्री स्याद्वाद विद्यालय (वाराणसी) की स्मृति मानस-पटलपर अंकित होती है। आपके लिए श्री स्याद्वाद विद्यालय ओढ़ना-बिछौना रहा है। आपके प्रवचनोंकी पूरे भारतवर्ष में धूम मची है। जहाँ जाते हैं, वहींका समाज आपके तप, त्याग, ज्ञान और चारित्रसे मुग्ध होकर आपको अपने सर-आँखोंपर बिठाता है। समाजसे अपने लिए कभी कुछ स्वीकार नहीं करेंगे। हाँ, पत्र-पुष्प श्री स्याद्वाद विद्यालयके लिए ग्रहण कर सकते हैं। आपकी हादिक इच्छा रहती है, समाजका आपपर न्यूनतम व्यय हो। समाजके चाहनेपर भी आप प्रथम श्रेणीका मार्ग-व्यय स्वीकार नहीं करेंगे । आप अन्तरंग-बहिरंगसे सादगीमें विश्वास करते हैं। ___ आपके प्रिय शिष्योंने मुझे बताया है, पण्डितजी अपने कमरेमें विभिन्न तरहका मेवा-मिश्री रखते हैं । आपके पास जानेपर स्नेह, आशीर्वाद तथा ज्ञान तो मिलता ही है, साथमें बहुभाँतिके मेवे भी प्रसादस्वरूप ग्रहण करनेको मिलते हैं। आपका धर्मशास्त्र पर प्रवचन सुननेको सुअवसर जिन्हें मिला है, वे जानते हैं, पण्डितजी कैसे धीरेधीरे साधारण ज्ञाताको ज्ञान और धर्मकी अतल गहराईमें ले जाते हैं। श्रोता वर्ग उनकी वाणीकी सरलता, भाषापर संयम तथा ज्ञान-गांभीर्य देख मुग्ध हो जाता है । पण्डितजी नपे-तुले शब्दोंमें धर्म एवं समाज तथा शास्त्रकी बातें प्रवाहमें कह जाते हैं । समाज बारम्बार धन्य होकर साधुवाद करता है। आप अपनेसे पूर्व वक्ताके वक्तव्यमें नहीं पड़ते ।। श्री स्याद्वाद विद्यालयके मन्दिरमें आपको सामायिकमें लीन होते देखा है। दीन-दुनियासे बेखबर । बस, तद्गुण लब्धयेके ध्यानमें अपनेको आत्मसात् किये हुए । डालमियानगरमें सिद्धचक्रका पाठ हआ। आरतीके समय आप वेदीके निकट सजदेके आलममें गोया खड़े थे, लगा आपही भगवान्की वाणी सुन रहे हैं। तभी आपने उस दिन सभामें कहा था, "जिनदर्शन करते समय प्रतिमामें तुम्हें अपना रूप दिखे । यही जिनदर्शनका लक्ष्य होना चाहिये ।" डालमियानगरकी धरती आपकी चरण-धूलसे अनगिनत बार भाग्यशाली हो चुकी है। इस जन्मके यहाँ शादी-ब्याहमें पधारे हुए हैं स्थानीय पण्डितजी शादीकी रस्में, पूजा करवा रहे हैं। आप वेदीके पास बैठे रहेंगे, पण्डितजीके गुणदोष नहीं निकालेंगे, अपितु उसे प्रोत्साहन देते हैं । दावतमें चुपचाप बहुत शान्त स्वभावसे भोजन ग्रहण करेंगे। जिन खाद्य-वस्तुओंको आप स्वीकार नहीं करते हैं, उसे चुपचाप धीरेसे इस तरहसे सरका देते हैं कि बगलमें बैठे व्यक्तिको आभास भी नहीं मिलता है। -७४ - Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुझे आपका स्नेह और आशीर्वाद ग्रहण करनेका निरन्तर गौरव रहा है । आपका प्यार और दुलार मुझे मंगलाप्रसाद पुरस्कारके समान सुख देता है । आपके गौरवशाली शिष्योंमें श्री चेतनलालजी जैन, डॉ० भागचन्द्रजी जैन, डॉ० नेमिचन्द्रजी जैन शास्त्री, डॉ० राजारामजी जैन इत्यादि प्रमुख हैं। अन्य भाग्यशाली शिष्य भी आपपर कुरबान रहते हैं । आपकी प्रो० खुशालचन्द्रजी गोरावालासे अनुज जैसी आत्मीयता है । पण्डितजीके सुपुत्र श्री सुपार्श्वकुमारजी जैन, चार्टड एकाउण्टेण्ट राँचीमें बहुत ही ऊँचे पदपर हैं । पण्डितजीने अपने हाथसे पोतेके विवाह-सुखको लूटा है, चखा है । ____ आपने प्रसिद्ध पुस्तक 'जैनधर्म' में बहुत सरल शब्दोंमें जैनदर्शनका गूढ़ तत्त्व प्रस्तुत किया है, एक सुलझे हुए गाइडकी भाँति, सभी चिन्तकोंसे परिचय कराया है। वैदिक धर्म और हिन्दू धर्मका तुलनात्मक विश्लेषण, जैनधर्मका दर्शन, आध्यात्मरूपी मणिरत्नोंको आप जैसा अनुभवी, अध्ययनशील तथा कुशल गोताखोर ही हिन्दीके सरस्वती-मन्दिरमें पेश कर सकता था। हमने इन्द्रभूति गौतम गणधर और कुन्दकुन्दाचार्यको नहीं देखा है, पण्डितजीको देख लिया, सब कुछ देख लिया । यह हमारे लिये गौरवकी बात है। हम उस युगमें रह रहे है जिस युगमें हमारे पण्डितजी कैलाशचन्द्रजी रह रहे है । हमें भी वही हवा लग रही है जो पण्डितजीके तपस्वी शरीरका स्पर्श कर सुगन्धमय हो रही है। आइये, आज हम पण्डितजीके भव्य ललाटपर अक्षत, पष्प और रोलीका टीका लगाकर स्वयंको सम्मानित करें ।* पण्डितजी : प्रवृत्तियाँ और विचारधारा सम्पादक आदरणीय पण्डित कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीके जीवन की झलकसे स्पष्ट है कि वे विविध प्रकार की प्रतिभाओं और प्रवृत्तियोंके धनी रहें हैं । दोनों ही दृष्टियोंसे, उनका क्षेत्र व्यक्तिसे लेकर विश्व तक व्यापक रहा है। उनको विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक प्रवत्तियोंको संक्षेपमें, निम्न आठ रूपोंमें वर्गीकृत किया जा सकता है :(१) अध्ययन-अध्यापन (५) प्रशासन एवं मार्गदर्शन (२) मौलिक लेखन (६) भ्रमण और धर्म प्रचार (३) सम्पादन और अनुवादन (७) शोध प्रवृत्ति (४) जैन संदेश का संपादन (८) राष्ट्रीय प्रवृत्तियाँ । उनके विषयमें उनके व्यक्तियोंने अपने संस्मरण लिखते समय उनकी इन प्रवत्तियोंका अपनी-अपनी दृष्टिसे रोचक विवरण प्रस्तुत किया है। उन्हें समग्रतः संकलित सारके रूपमें देना पण्डितजीके व्यक्तित्वके बहुमुखी रूपके अनुरूप ही होगा। ये प्रवृत्तियाँ उनकी विचारधाराके विविध रूपों को मुलरूपमें प्रकट करती हैं। १. अध्ययन-अध्यापन-पण्डितजीका अध्ययन काल १९२३ तक अर्थात् उनके बीस वर्षकी * तीर्थकर, १९७८ से साभार संक्षेपित । -७५ - Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वय तक माना जा सकता है जब उन्होंने अध्ययन छोड़कर अध्यापनको अपना जीविका-साधन और स्याद्वाद महाविद्यालय काशी को अपना कार्य क्षेत्र बनाया । उन्होंने मख्यतः धर्म ग्रन्थों का अध्यापन किया । लेकिन सिद्धान्त ग्रन्थों पर उपलब्ध टीकाग्रन्थ न्यायशास्त्रीय मान्यताओं तथा जैनेतर मान्यताओंके खंडन-मंडनके आकर ग्रन्थ हैं, फलतः वे क्रमशः सिद्धान्तशास्त्रीके साथ साथ दर्शन व न्यायशास्त्री भी बनते गये। इसी का फल है कि उन्होंने जैन न्याय पर एक स्वतंत्र ग्रन्थ ही हिन्दीमें प्रस्तुत किया। स्याद्वाद महाविद्यालयके अब तकके लगभग १३०० स्नातकोंमेंसे लगभग ९०० स्नातक पण्डितजीके ही शिष्य रहे है जिनमेंसे आज अनेक जैन धर्म व समाजके शैक्षिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय क्षेत्रोमें अग्रणी बने हुए हैं। ___ अध्यापनके साथ अध्ययनकी वृत्ति आपके साथ अविनाभावके रूपमें रही है। यही कारण है कि । वाकशक्ति और प्रवचनशक्ति इतनी ग्राह्य एवं सक्षम बन सकी है। कौजर बैकनने ठीक ही कहा है कि अध्यापन और भाषणके लिए कई गुना और कई बार अध्ययन करना पड़ता है। अध्ययन-अध्यापनकी इस प्रवृत्ति में उन्हें संस्कृतमय धर्मशिक्षाकी जटिलताको अनुभव-गम्य करनेमें सहायता दी जिससे उन्हें भावी पीढ़ीके हितके लिए सिद्धान्त ग्रन्थोंके हिन्दीमें अनुवाद और सम्पादनकी प्रेरणा मिली। यही नहीं, अपनी अध्ययनशील प्रवृत्ति के कारण उन्हें जैनधर्म सम्बन्धी जैनेतर प्राच्य एवं पाश्चात्य भ्रामक मान्यताओं का भी भान हुआ जिसे दूर करनेके लिए उन्होंने और भी गहनतर अध्ययन और स्रजनात्मक लेखन किया । यद्यपि ४७ वर्षों के बाद १९७२ में उनके अध्यापनकी जीविकावृत्ति औपचारिक रूपसे समाप्त हो गई है, फिर भी उनकी अध्ययनवृत्ति अभी भी पूर्ववत है जो विगत अनेक वर्षों से उनके अनेक प्रकारके प्रकाशित व अप्रकाशित लेखोंके रूप में प्रकट होती रहती है। अध्यापक होनेके कारण स्पष्टतः ही उनका सारा जीवन जैन विद्यालयोंके अपने सहयोगी अध्यापकों, विद्यार्थियों तथा शिक्षणदात्री संस्थाओं तथा परीक्षा पद्धतियोंसे सम्बन्धित रहा है। अपने सम्पादकीय लेखोंके माध्यमसे इन क्षेत्रोंसे सम्बन्धित समस्याओंपर उन्होंने अनेक बार प्रकाश डाला है। एक ओर जहाँ वे और शिक्षार्थियोंके कर्तव्य और उत्तरदायित्वको वर्तमान अवस्थासे चिन्तित हैं, वहीं वे शिक्षकोंकी आर्थिक दुरवस्था एवं समाज द्वारा उनके हितोंकी उपेक्षावृत्तिसे रोषपूर्ण भी दिखते हैं । वे शिक्षणको मानवके जीवन निर्माणका माध्यम मानते हैं, फिर भी उसे व्यवहारिक जीवनसे असंबद्ध या विलगित रूपमें नहीं देखना चाहते इसीलिये उन्हें जैन विद्यालयोंके लिए सुयोग्य विद्वानोंके वर्तमान अभावकी स्थिति अखरती है और वे इस दिशामें पर्याप्त सुधार चाहते हैं । वे विद्यार्थियोंकी वर्तमान मनोवृत्ति व प्रवृत्तिसे भी दुखी हैं और उनकी अध्ययन वृत्तिको जगाना चाहते हैं। उन्हें परीक्षा पद्धति एवं परीक्षकोंकी अभ्युक्तियोंसे भी कुछ क्षोभ है क्योंकि प्रश्नपत्रोंमें ऐसी विधिसे प्रश्न पूछे जाते हैं जो अध्ययन-विधि व विषयपर या तो आधारित नहीं होते या उन्नत बौद्धिक स्तरपर चले जाते हैं। इसीलिये सन् १९४४ में ही उन्हें भारतको भावी शिक्षापर लिखना पड़ा था। जिसमें सामाजिक परिवेशसे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य तकका व्यापक लक्ष्य निहित था । पण्डितजी यह मानते है कि आज धार्मिक शिक्षाका स्तर गिर रहा है। इसे बनाये रखनेके लिये विद्वानोंकी परम्पराका संरक्षण आवश्यक है। इस अर्थ-प्रधान युगमें पाण्डित्यका न्यूक्लियन एवं संबर्धन उन्हें इसलिये भी अभीष्ट है कि इसीसे मूलभूत सिद्धान्तोंकी व्याख्या एवं सुरक्षा हो सकती है। इसके लिये वे विद्यालयोंमें कार्यरत् विद्वानोंकी आर्थिक स्थितिको सुधारनेके पक्षधर रहे हैं । वह स्वतंत्रचेता विद्वान हैं और नयी पीढ़ीसे भी पक्षातीत व्याख्या एवं मार्गदर्शनकी आशा रखते हैं। २. मौलिक लेखन-यह माना जाता है कि अध्ययनशील अध्यापक बिना लेखनी चलाये रह नहीं सकता । ऐसी लेखनी व्यक्तिको विचार एवं अवधारणकी शक्ति, ज्ञानकी मशालको जन-जन तक पहुँचानेकी Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्ति तथा ज्ञान-पिपासुओंकी तृष्णाको शान्त करनेकी उत्कट इच्छको व्यक्त करती हैं। यह प्रवृत्ति ज्ञानकी दुरूहताको सरलतामें भी परिवर्तित करती है। वर्तमान अंग्रेजी प्रधान युगमें संस्कृतके धार्मिक एवं दार्शनिक साहित्यको पण्डितजीने हिन्दी भाषामें अनेक प्रकारसे प्रस्तुत किया है जिससे जैनधर्म संबंधी ज्ञान उन लोगों तक भी पहुँच सके जो न संस्कृत-प्राकृत जानते हैं और न अंग्रेजी ही। इन दो भाषाओंको जानने वालोंकी संख्या है ही कितनी ? यह उनका बड़ा उपकार है कि उन्होंने अपने एक दर्जनसे भी अधिक मौलिक कृतियोंके द्वारा जैनधर्म, संस्कृति व साहित्यके विषयमें साधारण एवं प्रगत जनोंको जानकारी देनेका सफल प्रयास किया है। इनकी सहायतासे लोगोंको यह जानकारी हुई कि एतद्विषयक मान्यताओंका आधार क्या है और उन्हें किसी प्रकार सही रूपमें लिया जाना चाहिये। जैन न्याय, जैन साहित्यका इतिहास और जैनधर्म लिखकर उन्होंने अनेक विषयोंपर अपनी गरिमामय लेखनी चलाई है। उनके द्वारा लिखित मौलिक पुस्तकोंका विवरण अन्यत्र दिया गया है । पण्डितजीके मौलिक लेखनके लिये उनका विषयोंका बनाव तो महत्वपूर्ण है ही. इसके अतिरिक्त इसके लिये जो वैचारिक परिपष्टता, समचित भाषा प्रवाह और सरलता तथा अभिव्यक्तिको स्पष्टता आवश्यक है, वे भी अनेक साहित्यमें भलीभाँति परिलक्षित होते हैं। यही नहीं, जिस तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययनकी आजका नवविद्वान् चर्चा करता है और जिसके आधारपर वह अपने गुरुजनको पीढीको अनेक प्रकारसे आलोचिज्ञ करता है, वह पण्डितजीपी कृतियोंमें कूट-कूट कर भरा है। उनका आशय है कि बिना इस प्रकारके अध्ययनके वास्तविक और तथ्यपूर्ण ज्ञान प्रस्तुत ही नहीं किया जा सकता। अनेक लोगोंको यह आपत्ति हो सकती है कि उनके लेखनमें केवल भारतीय अध्ययन या समीक्षण ही पाया जाता है, पश्चात्य नहीं। संभवत वे अपने शिष्योंसे ही इस कमीको पूरा करनेकी आशा रखते हैं। वैसे यह कहना असंगत न होगा कि उन्होंने भारतीय अध्ययनको ही अपना केन्द्र-विन्दु बनाया है क्योंकि उनका अध्यापन, लेखन तथा चिन्तन भारतीय परिवेशमें ही हुआ है। उसीकी स्पष्टता उन्हें अभिप्रेत रही है । साथ ही, पाश्चात्य विचारधाराका क्षेत्र लेखनयुगमें उतना प्रवहभान भी नहीं हो पाया था । फलतः आधुनिक दृष्टिसे स्वतः सीमित क्षेत्र में जो भी उन्होंने लिखा है, उसके विषय और कलाकी सभीने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। उसे पांडित्यकी अपूर्णता कहकर नकारा नहीं जा सकता । मौलिक लेखनकी अनेक विशेषताओंमें लेखककी स्वयंके मतावमतको व्यक्त करनेकी तथा उसको पुष्ट करनेकी क्षमताका गुण महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः स्वतंत्र मतोंका पुनः स्थापन ही ज्ञानके क्षेत्रका विस्तार करना है। इसके अन्तर्गत चिरप्रतिष्ठित तथ्यों व घटनाओंका पुनर्मूल्यांकन तथा नवीन व स्वतंत्र मतवादका प्रस्थापन एवं पुराने मतवादका नवीन तथ्यों व विचारोंके आधारपर खंडन-मंडन आदिका समाहरण होता है । पण्डितजी द्वारा लिखित मौलिक ग्रन्थोंमें ये सभी विशेषतायें पाई जाती हैं। वे केवल प्राचीन साहित्यके संक्षेपण मात्र नहीं हैं। यही कारण है कि उनके कुछ ग्रन्थोंका अन्य भारतीय भाषाओंमें भी अनुवाद किया गया है । उन्होंने मौलिक ग्रन्थोंके रूपमें लगभग ३७०० पृष्ठोंका साहित्य सृजन किया है। ३. सम्पादन और अनुवाद-अनेक विद्वान् संपादन और अनुवादनकी प्रक्रिया साथ-साथ करते है। संपादनकी प्रक्रिया अनुबादन कार्यके लिए इसलिये महत्त्वपूर्ण है कि जब तक मूलपाठ शुद्ध एवं सर्वमान्य नहीं होता, उसका सही अर्थ कैसे क्रिया सकता है ? संपादन में ग्रन्थकी मूल प्रतियोंकी खोज तथा उनके पाठभेदोंका अध्ययन कर शुद्ध पाठका निर्धारण किया जाता है। पण्डित महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यने प्रमेयकमलमासण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्र नामक न्याय ग्रन्थोंको इसी विधिसे संपादित किया है। संपादनकी प्रक्रियामें मुलग्रन्थोंके लेखक संबंधी विवरण और समीक्षा भी प्रस्तुत की जाती है जिसके लिए विशेष अध्ययनको -७७ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकता होती है । प्राच्य विद्याओंके प्राचीन ग्रन्थोंमें लेखक सम्बन्धी जानकारी एक दुष्कर कार्य है क्योंकि उनके लेखक 'यशःकाये में विश्वास करते थे। यही कारण है कि अनेक लेखकोंके जीवन व समयके अबतक मतभेद चल रहे हैं । ___अनुवादका उद्देश्य जटिल एवं अन्य भाषाओंमें उपलब्ध ग्रन्थ या विषय-वस्तुको सरल जनभाषामें प्रस्तुत कर लोकोपकारकी भावनाको मूर्तरूप देना है। भारतमें पाश्चात्य विद्याके प्रसारसे अंग्रेजीके अनेक विषयोंके ग्रंथोंका भारतीय भाषाओंमें अनुवाद किया गया है। इसी प्रकार, पाश्चात्य जगत्को भारतीय विद्याओंसे परिचित करानेके लिए अनेक भारतीय ग्रन्थोंका अंग्रेजीमें अनुवाद हआ है। उच्च शिक्षाका माध्यम पर्याप्त समय तक अंग्रेजी होनेके कारण भारतीय विद्याओंके सम्बन्धमें अनेक पुस्तकें भी मौलिकतः अंग्रेजीमें लिखी गई हैं। वस्तुतः भारतीय विद्याओंके महत्त्वका आभास भी हमें पाश्चात्य लेखकों तथा अंग्रेजीके ग्रन्थोंसे ही हुआ है । सम्भवतः भारतीय विद्याओंके साहित्यके जनभाषाओंमें अनुवादकी प्रेरणाका यही स्रोत रहा है जिससे भारतवासी अपने ऋषियों व आचार्यो के ज्ञानको पढ़ सकें, जान सकें। संस्कृत एवं प्राकृत भाषाके लोकभाषा न बन पानेमें अनेक कारण रहे है । पर उसमें निबद्ध ज्ञान आज भी अनेक दृष्टियोंसे अद्वितीय माना जाता है। जैन विद्याओंसे सम्बन्धित संस्कृत-प्राकृतके ग्रन्थोंका स्थान भी इसी कोटिमें आता है। अतः उस ज्ञानको बहुजन सुलभ बनानेके लिए उनका जनभाषान्तरण आवश्यक हो -तीन सौ वर्ष पहले राजस्थानमें अनेक विद्वानोंने तत्कालीन भाषामें आगम ग्रन्थोंकी टीकाएँ लिखी थीं। उसी परम्परामें वर्तमान पीढ़ीके अनेक जैन विद्वानोंने आजकी भाषामें यह कार्य किया है। पण्डित कैलाशचन्द्र जी भी ऐसे विद्वानोंमें प्रमुख हैं। आपने जयधवलाके समान आगम ग्रन्थोंके तेरह खण्डों सहित लगभग सत्ताईस ग्रन्थोंका सम्पादन और अनुवाद किया है । इस प्रकारका कुछ कार्य आज हाथमें भी है। अनुवादकी सफलताके लिए सम्बद्ध भाषाओंके ज्ञानके साथ भाव-प्रवाह और भाषा-प्रवाहकी प्राकृतिक गति आवश्यक है । अच्छा अनुवाद वह माना जाता है जिसमें यह पता ही न चले कि पाठ्यवस्तु मूल है या भाषान्तरकृत है । मूल लेखकके गूढ़ व जटिल अन्तर्विचारोंको समझकर उसे सुबोध भाषा देना अनुवादककी स्वयंकी प्रतिभा होती है। इस दृष्टिसे निश्चय ही पण्डितजी सम्पादन-अनुवाद कलाके उत्कृष्ट कोटिके धनी है। उनके द्वारा इस कोटिमें प्रणीत ग्रन्थोंकी सूची उनकी कृतियोंके अन्तर्गत दी गई है। उनके द्वारा सम्पादित-अनूदित साहित्यकी अनुमानित पृष्ठसंख्या ८००० से अधिक होगी।। ४. 'जैन सन्देश'का सम्पादन-ग्रन्थोंके सम्पादन-अनुवादके अतिरिक्त, 'जैन सन्देश'के समान साप्ताहिक पत्रका सम्पादन भी पण्डितजीकी एक प्रखर प्रवृत्ति रही है। यह जैन धर्मकी प्रतिष्ठा बढ़ाने, जैन समाजको संगठित करने तथा सामाजिक धार्मिक समस्याओंके समय समुचित मार्गदर्शन करनेमें सदैव अग्रणी रहा है। १९३९ में प्रारम्भ इस पत्रने जैन जगत्में अपने सम्पादकके कारण अपना एक विशिष्ट स्थान बना रखा है। इसके सामान्य एवं सम्पादकीय लेखोंकी कोटिमें आकर्षण रहा है, नवीनता रही है । सम्पादककी पक्षातीत विचारधारा पत्र की शक्ति बनी हुई है। यही कारण है कि यह पत्र समाजके अनेक झंझावातोंके बावजूद भी अपना सुदृढ आधार बनाए हुए है। पत्र सम्पादनके लिए आवश्यक बहुमुखी सूचनाओंका संधारण-समीक्षण, समय-समयपर आनेवाली सैद्धान्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओंके तथ्यपूर्ण विश्लेषणकी क्षमता एवं पक्षातीत स्वतंत्र मार्गदर्शनकी प्रवृत्ति पण्डितजीमें निश्चय ही विद्यमान है । इसके सम्पादकीय लेखोंके माध्यमसे उन्होंने अपनी विचारधाराओंको बड़े स्पष्ट व साहसपूर्ण ढंगसे व्यक्त किया है और समाजका विश्वास अजित किया है। अपने पुष्ट एवं आगम सम्मत विचारोंके कारण उन्हें पर्याप्त विरोधका भी सामना करना पड़ा है। आज भी वे अपनी इसी वृत्तिके कारण अनेक - ७८ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गोंके कोपभाजन बने हुए हैं । लेकिन पण्डितजी सिद्धान्तोंकी संरक्षा एवं व्याख्याकी तुलनामें कुछ व्यक्तियोंकी उपेक्षाओं या प्रहारोंको सहना अधिक पसन्द करते हैं । उन्होंने अपने सम्पादकीय लेखोंमें समय-समयपर आई अनेक सामाजिक समस्याओंपर अपने विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने मुनि चन्द्रसागरजी, अभिनन्दनसागरजी, पुस्तक विक्रेता तथा शिथिलाचारी गियोंकी प्रवृत्तियोंको आगम विरुद्ध बताकर आर्ष मुनिधर्मके पालनका पक्ष लिया है। मुनियों द्वारा पदवी या उपाधिग्रहणकी परम्पराको भी वे उचित नहीं मानते। अपनी इन विचारधाराओं के कारण समाजके कुछ वर्गमें उनके प्रति जो रोष है, उसका अनुभव लेखकको भी अनेक स्थानोंपर हुआ है। समयसमयपर पण्डितजीने सामयिक समस्याओंपर भी अपनी चिन्ता व्यक्त की। शिखरजीके जल प्रदूषण, तीर्थक्षेत्रोंके झगड़े, दहेज प्रथा, जबलपुर काण्ड, दशलक्षण और कषाय, 'सरिता और ब्लिट्स' में जैन धर्म और समाजसे सम्बन्धित प्रकाशित सामग्री और ऐसी ही अन्य समस्यायें उनके प्रखर विचारोंकी अभिव्यक्तिके माध्यम बनी हैं। वे विद्वानोंके संगठन, दि० जैन संघ, 'जैन लिखाओ' आन्दोलन, महिलाओंके स्वावलम्बन, मूर्तिपूजन, शाकाहार, दिवाभोजन, गजरथके समान सामाजिक और धार्मिक उत्सव, कारंजा गुरुकुल एवं जैन सिद्धान्त भवन जैसी संस्थाओं तथा आचार्य तुलसीके समाज सुधारक आन्दोलनके पक्षधर हैं। वर्तमान स्थितिकी समीक्षा करते हुए उनकी मान्यता है कि जैनोंसे जैनधर्म छूटता जा रहा है। उन्हें हवाका रुख एवं समयको पहचाननेका संकेत पण्डितजीने कई बार दिया है । वे जैन धर्म और संस्कृतिके प्रचारकी आवश्यकता अनुभव करते हैं और इस प्रयत्नमें सभी प्रकारसे सहयोग करते हैं। वे वर्तमान मुमुक्षओं तथा अ-मुमुक्षुओंकी स्थितिसे पर्याप्ततः चिन्तित हैं और उन्होंने दोनोंको ही संयम बरतनेका तथा आगमोंको सही रूपमें लेनेका सुझाव दिया है। उनकी मान्यता है कि समाजमें पैसोंकी वर्षा होती है पर उनका समुचित उपयोग होना चाहिए । पण्डितजी जैन धर्मको स्वतन्त्र मानते हैं तथा भारतके सभी सम्प्रदायोंके बीच सौमनस्य एवं समन्वयका विचार प्रस्तुत करते हैं। वे समाजको शुद्ध, दृष्टिको निर्मल तथा वादविवादहीन बनानेका आग्रह करते हैं। पण्डितजी यह मानते है वीतरागता ही सच्चा धर्म है और जीवनका लक्ष्य है । इसे प्राप्त करनेके लिए सम्यक्-दर्शन और सम्यक् -चरित्र दोनों आवश्यक हैं। व्यवहारमार्गसे ही निश्चयमार्गकी दिशा मिलती है । इन विचारोंको पुष्ट करनेके लिए उन्होंने समय-समयपर उत्पन्न मतवादोंकी समीक्षा की है। भावलिंगकी प्रमुखताको स्वीकार करते हुए भी वे द्रलिंगकी पूर्ण उपेक्षाके पक्षधर नहीं हैं। उसीके अनुरूप जहाँ एक ओर वे मूलशंकर देसाईकी टीकाकी आलोचना करते हैं, वहीं दूसरी ओर वे कानजी स्वामीके कट्टर विरोधकी भर्त्सना भी करते हैं। उनका मत है कि धर्म और विज्ञानके बीच तथाकथित रूपसे दृष्टिगोचरभेदक रेखाकी विधिवत् विवेचनाके लिए एक ज्ञान-विज्ञान अकादमी होनी चाहिए । वे शास्त्र सभाओंकी उपयोगिता स्वीकार करते हैं और सिद्धान्त ग्रन्थोंके अध्ययनका अधिकार सभी जिज्ञासुओंके लिए मानते हैं । धार्मिक दृष्टिसे वे नारीको विषकी बेल ही मानते हैं, पर उसकी प्रगतिके लिए पर्याप्त उत्सुक प्रतीत होते हैं। उन्होंने आचार्य पद, दिगम्बरत्व, बन्ध और मोक्षका उपाय, भूतार्थ और अभूतार्थ, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि, आचार्योंकी प्रामाणिकता, पठनीयशास्त्र, नियतिवाद और सर्वज्ञता आदिके समान वर्तमानमें अनेक विवादग्रस्त समस्याओंपर अपनी तीक्ष्ण और तर्कसंगत लेखनी चलाई और अपने विद्वदवर्गको प्रभावित किया है। "जैनसन्देश" का प्रारम्भ भारतीय स्वातन्त्र्यके आन्दोलनके युगमें हआ था। स्वतन्त्रता एक मौलिक राष्ट्रीय समस्या थी जिससे प्रत्येक भारतवासी मन, वचन व कार्यसे आन्दोलित रहा है। "जैनसन्देश" इससे अछूता कैसे रह सकता था? उसने गांधीजीके अहिंसात्मक आन्दोलनके राष्ट्रीय प्रयोगका प्रचण्ड Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थन किया और समय-समयपर लेख और लेखमालाएँ लिखीं। उन्होंने हिन्दू-मुसलमान, ईसाई और अन्य जातियोंके बीच एकताके संवर्द्धनमें लेख लिखे एवं पाकिस्तानवादी विचारधाराको क्षोभ और अनिष्टकी दृष्टिसे देखा। उन्होंने ग्रामोद्योग और अम्बर चरखाका समर्थन किया, भू-दानको भी उन्होंने सराहा । अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बेकारी, डांवाडोल राजनीतिक स्थितियोंने उन्हें सदैव चिन्तित किया है। राष्ट्रभाषाके प्रश्नपर भी उन्होंने अपने विचार व्यक्त किये हैं और उन्होंने हिन्दीको इस पदपर प्रतिष्ठित करनेकी वकालतकी। लेकिन वे संस्कृत-निष्ठ हिन्दीके पक्षपाती नहीं रहे। वे व्यापक राष्ट्रीय हितको विचार कर कार्य करनेवाले नेताओं तथा जनतंत्रीय पद्धतिके पोषक हैं। उन्हें देशभक्त, समाजसेवक तथा प्रश्रुत विद्वानोंकी क्षति प्रकृतिको करता ही लगती है क्योंकि इन क्षतियोंकी पूर्ति दुरूह ही प्रतीत होती है। पण्डितजीने जैन संदेशमें अपने संपादकीय कालमें कोई ९०० संपादकीय और अनेक लोकप्रिय तथा शोध लिखे हैं। इनकी सूची पृथक्से दी जा रही है। इनके संपादित संकलनसे लगभग ४००० पृष्ठका साहित्य निर्मित हो सकता है। ५. प्रशासन-स्याद्वाद विद्यालयमें अध्यापनके साथ ही उन्हें प्राचार्य के रूपमें उसका सभी दृष्टियोंसे प्रशासन भी करना पड़ा है। आधुनिक प्रशासन कलाके सिद्धान्तोंके अनुसार, अच्छे प्रशासकमें कुछ अनिवार्य गण होने चाहिये । उसे समय-समयपर वज्रादपि कठोराणि मुनि कुस्मादपिके समान रूप प्रदर्शित करने चाहिये । मौन भावसे सभी प्रकारकी अभिव्यक्तियाँ अडिग होकर सुननी चाहिये और निष्पक्षभावसे समस्याओंपर निर्णय देने चाहिये । वे यूनियनविहीन अनुशासन-प्रिय युगके प्रशासक रहे हैं और इसलिये उन्हें अनुशासनको कठोरतासे प्रतिष्ठित करना अभीष्ट रहा है। उनके अनुशासन-प्रेम के शिकार अनेक स्नातक हए हैं पर वे आज भी पण्डितजीके प्रति अपनी श्रद्धा रखते हैं। उनका मत है कि कुमार और युवावस्थाके प्रारंभ में मनुष्यम वह वैचारिक परिपक्वता नहीं आ पाती जो उसे सम्पूर्ण हिताहित एवं दूरदृष्टिके विचारकी क्षमता प्रदान कर सके । इसलिये इस अवस्थामें अनुशासन एवं नियंत्रण तो आवश्यक है ही, मार्गदर्शन भी आवश्यक है। स्याद्वाद महाविद्यालयके प्राचार्य होनेके कारण विद्यार्थियोंके अतिरिक्त अध्यापकोंपर भी पण्डितजीका प्रभाव रहा है। उनकी समयकी पाबन्दी, दूरसे दिखती हई गम्भीर मुद्राके बीच बिजली-सी क्षणिक मुस्कुराहट गहन विद्वत्ताकी छापसे सभीके मनमें उनके प्रति आदरभाव और अनुकरणीयता रही है। मुझे लगता है कि १९६० के बाद इस दिशामें काफी परिवर्तन आया होगा जो १९७२ तक तो दबी चिनगारी के रूपमें रहा, पर उनकी सेवानिवृत्ति के बाद उस परिवर्तनने विस्फोटक रूप ग्रहण करना प्रारम्भ किया । अब विद्यालय पुनः अपने पूर्ववत् अनुशासित एवं अध्ययन-अध्यापन परायण रूपको तो नहीं प्राप्त कर सकता, पर समुद्र में आई लहरें उनकी चतुरता एवं प्रशासनिक क्षमतासे शान्त हो गई हैं। ___ बहुतेरे लोग अनुशासन एवं नियंत्रण में कठोरताको पसन्द नहीं करते । मुझे दिल्लीमें विद्यालयके ही एक भूतपूर्व प्रबन्धक मिले । उनकी उद्वलित अभिव्यक्तियोंसे मुझे इस तथ्यका आभास हुआ। पर मैं मानता हूँ कि शिक्षा जगतकी अनेक समस्याओंका मल कारण इन दिशामें उत्पन्न लोचशीलता ही है। यह असीम हो गई है और शिक्षा जगत्से यह शब्द लुप्त हो गया लगता है। मुझे लगता है कि पण्डितजी भी इस स्थितिसे परम क्षुब्ध होंगे। । प्रशासनके उत्तम गुणों और उनके परिपालन करानेकी क्षमताके कारण ही वे पैंतालिस साल तक एक ही संस्थामें बने रहे । स्थानकी यह अपरिवर्तनीय एवं स्थिरता शायद काशीका प्रभाव और आकर्षण हो, पर इससे काशी गौरवान्वित ही हुई । यहाँसे जैनधर्म और संस्कृतिका प्रकाश भारतमें चतुर्दिक फैला । विद्यालयके प्रशासनके अतिरिक्त वे अनेक संस्थाओंके भी अनौपचारिक मार्गदशी प्रशासक बने -८० - Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहे हैं । ये संस्थायें उनके इस गुणका आज भी उपयोग करती हैं । प्रकृतिके नियमके अनुरूप उन्हें भी अपने इस उत्तम गुणके पारितोषिक के रूपमें अनेक बार प्रहार सहने पड़े हैं, पर उन्होंने सहिष्णुता तथा स्थिति-स्थापकताकी शक्तिसे उनपर विजय पायी और अपने उत्तम प्रशासकीय गुणका परिचय दिया । ६. भ्रमण और धर्म प्रचार - जो व्यक्ति लेखक, प्रशासक या मार्गदर्शी हो, उसकी प्रतिष्ठाका व्यापक प्रसाद स्वाभाविक ही है । फिर पण्डितजी तो काशीकी अखिल भारतीय जैन संस्थाके संचालक थे । अतः उनपर विद्याध्ययन और अध्यापनके अतिरिक्त परोक्ष रूपसे जैनधर्म और संस्कृतके प्रचार- प्रसारका उत्तरदायित्व भी रहा है । यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि उन्होंने इस उत्तरदायित्वका भी सक्षमता से आदर्शरूपमें निर्वाह किया है । इससे जहाँ जैनधर्मकी प्रतिष्ठा बढ़ी है, वहाँ स्याद्वाद महाविद्यालयको आर्थिक स्थिति भी सुदृढ़ हुई है । वर्ष १९२७ से १९७९ तक उन्होंने ४६ बार दशलक्षण पर्वपर विभिन्न क्षेत्रोंकी यात्रायें की हैं और विद्यालयको १,१६०००.०० रु० से भी अधिककी राशि प्राप्त कराई है । उनके भ्रमणक्षेत्रों में उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बम्बई, बिहार, असम, बंगाल, राजस्थान, पंजाब और दिल्ली प्रमुख रहे हैं । उन्होंने महावीर जयन्ती पर भी अनेक स्थानोंका भ्रमण किया है । अनेक धार्मिक एवं राष्ट्रीय महत्त्वके अवसरोंपर रेडियो प्रसारण किये हैं । अनेक सामाजिक एवं धार्मिक उत्सवों एवं संस्थाओंके धार्मिक अधिवेशनों पर भी अनेक स्थानोंकी यात्रा की है । दक्षिण भारत भी उनके लिए अछूता नहीं रहा । इस प्रकार पर्वों, उत्सवों, अधिवेशनों तथा अनेक अवसरोंपर पण्डितजीका लगभग प्रतिवर्ष दशमांश समय इसी कार्यके लिए व्यतीत होता रहा है । इससे जैनधर्म व उसके विविध अंगोंका प्रचार-प्रसार तो हुआ ही है, स्याद्वाद महाविद्यालयकी प्रतिष्ठामें भी चार चांद लगे हैं । भ्रमणकी यह प्रवृत्ति पण्डितजीके जीवनका एक अंग बन गयी है । प्रारम्भ में उनकी यह वृत्ति सामाजिक व धार्मिक स्तरों तक ही सीमित थी, पर अब वह शैक्षिक स्तरपर भी पहुँच गई हैं । यही कारण है कि पिछले अनेक वर्षों में उन्होंने अनेक विश्वविद्यालयीय स्तरको जैन विद्या संगोष्ठियों एवं संस्थागत विचारगोष्ठियों में भाग लेकर जैन विद्याओंके ज्ञानके प्रसारके अतिरिक्त उसके उच्चस्तरीय संवर्धन एवं संप्रसारणमें भी योगदान किया है। इससे यह भी अनुभव हुआ है कि नवीन जैन विद्याके अधिकारियोंके लिए प्राचीन जैन विद्या के अधिकारियोंका सहयोग और मार्गदर्शन इस संवर्धनको और भी प्रभावक बना सकता है । ७. शोध प्रवृत्ति - अध्ययन-अध्यापनमें रत व्यक्तियों एवं विद्वानोंमें प्राचीन और नवीन विषयों पर शोधकी प्रवृत्ति, ज्ञानको अभिवृद्धि, विचार और चिन्तन शक्तिकी क्षमता तथा उपयोगिताको प्रकट करती है । यह विलुप्त एवं पुरातन ज्ञानको प्रकाशित करती है तथा नये क्षितिजोंका अन्वेषण करती है । इससे पुरातनकी गरिमाकी अभिवृद्धिका मान होता है और ज्ञान के प्रवाहकी निरन्तरता पुष्ट होती है । पाश्चात्य देशोंमें तो अध्यापन और शोध - दोनों प्रवृत्तियाँ अविनाभाव रूपसे चलती हैं। शोध लेखनकी प्रवृत्तिको भी प्रेरित करती है । फलतः विद्वानके लिए शोध प्रक्रियामें लगना एक सहज वृत्ति है । पण्डितजी में भी इस प्रवृत्तिके दर्शन प्रारम्भसे पाये जाते हैं । इसीके फलस्वरूप उन्होंने जैनधर्म तथा उसके अनेक विषयों व आचार्यो के सम्बन्धमें ऐतिहासिक, पुरातत्त्वीय एवं समीक्षात्मक लेख और ग्रन्थ लिखे हैं । न्यायकुमुदचन्द्र की प्रस्तावना तथा अनेकान्त, जैनसन्देशके शोधांक, जैनसिद्धान्त भास्कर और ऐसी ही अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके तीन दर्जन से अधिक शोध लेख उनकी इस प्रवृत्तिको पुष्ट करते हैं । यही नहीं, उनके अनेक ग्रन्थोंमें वर्णित विषय-वस्तुको विवेचना भी उनके गहन अध्ययन और मननको प्रकट करते हैं । 'जैनसाहित्यका इतिहास' तो इस दृष्टिसे एक सर्वविदित ग्रन्थ है । शोधवृत्तिके साथ-साथ उनमें स्मरणशक्ति तथा अभि ११ - ८१ - Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यंजना शक्ति भी प्रचुर परिलक्षित हुई है जिनका उल्लेख युवाचार्य महाप्रज्ञजीके समान मनीषीने अपनी अभीप्सामें व्यक्त किया है। उनकी इस वृत्तिके कारण कुछ लोग उन्हें 'जैनधर्मका इन्साइक्लोपीडिया' ही मानते हैं। इसीलिए अनेक देशी और विदेशी विद्वान् अपने शोधकार्य में उनसे सदा मार्गदर्शन लेने आते हैं। यह सही है कि उन्होंने शोधकार्य के माध्यमसे आजके विश्वविद्यालयोंसे कोई उपाधि नहीं प्राप्त की है, पर उनकी अनेकों प्रस्तावनायें और ऐतिहासिक निबन्ध आजकी किसी भी पी-एच० डी० के शोधप्रबन्धसे निश्चित रूपसे उत्कृष्ट कोटिमें आती हैं। उनमें जो अध्ययनका गाम्भीर्य और अभिव्यक्तिकी मनोहरता है, वह आजके प्रबन्धोंमें कहाँ मिलती है ? हमें इस बातकी प्रसन्नता है कि उनके अनेक शिष्य भी इसी प्रकारकी गंभीर शोध दिशामें लगे हुए हैं और जैन दर्शन तथा संस्कृतिके अज्ञात, दुरूह एवं उपगृहित अंगोंका उद्घाटन कर रहे हैं। वर्तमान में, आकस्मिक रूपमें उठने वाले अनेक सैद्धान्तिक महत्वके प्रश्नों पर उनके लेख इस दिशामें मननीय है । पंडितजी आज भी अपनी इस प्रवृत्तिको जीवन्त रूपमें चला रहे है । ८. राष्ट्रीय प्रवृत्तियाँ-जैन समाज भारतीय राष्ट्र का ही एक अंग है। अतः उसका विद्वद्वन्द अपने समाजको राष्ट्रीय समस्याओंके समय उसमें सक्रिय भाग लेनेके लिये सदैव प्रेरित करे, यह स्वाभाविक ही है। इसीके अनुरूप पंडितजीने भी अनेक प्रकारकी राष्ट्रीय समस्याओं पर अपने विचार व्यक्त कर समाजको मार्गदर्शन दिया है। उन्होंने स्वातंत्र्य आन्दोलनके अवसर पर अनेक प्रकारसे प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रेरणायें देकर विद्यालयके स्नातकोंमें राष्ट्रीय चेतनाको पनपाया है। उन्होंने राष्ट्र भाषाके रूप में हिन्दीका सदा समर्थन किया है। अहिंसा एवं सर्वधर्म समभाव पर उनकी लेखनी चली है। भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्तिके अवसरपर सर्वधर्म-प्रार्थनाके अन्तर्गत जैन प्रार्थनाओंके प्रसारणके लिये उन्हें ही चना गया। महावीर निर्वाणोत्सवकी रजतशतीमें जैन गीताके रूपमें संकलित 'समण सूत्तं' का हिन्दी गद्यानुवाद भी उन्होंने ही किया है। उसके संकलनमें भी उनका योगदान अमूल्य रहा है। भारतमें समय-समय उत्पन्न होनेवाली राष्ट्रीय समस्याओं पर समाजको उचित कर्तव्य निभाने एवं समचित मनोवत्ति प्रदर्शित करनेके लिये उन्होंने सदैव आदेश लिये हैं। यही कारण है कि राष्ट्रीय विपत्तियों के समय तन, मन व धनसे राष्ट्र की सहायता और सेवा करने वालोंमें जैन समाजको अग्रणीके रूपमें माना जाता है। इस सूक्ष्मदर्शी संक्षेपणके आधार पर पंडितजीकी बहुविध प्रवृत्तियोंके दूरदर्शी महत्वका अनुमान साज ही लगाया जा सकता है। पण्डितजी और बुन्देलखण्ड डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी, छतरपुर स्याद्वाद महाविद्यालय, काशीके भावात्मक एवं भौतिक बीजारोपणमें बन्देलखण्डकी ही अनेक विभूतियोंका हाथ रहा है। एतदर्थ एक ओर जहाँ उन्होंने जीवनाथ मिश्र जैसे विद्वानोंकी गर्दा सुनी, वहीं उन्हें अम्बादास शास्त्रीके समान पण्डितोंका प्रोत्साहन भी मिला । १२ जन. १९०५ के दिन विद्यालयके प्रथम छात्रोंमें इसी क्षेत्रके छात्र रहे हैं। फलतः बन्देलखण्डके बालकों और पालकोंमें काशीके प्रति अविरत अनुराग बना रहे, यह स्वाभाविक भी है । यही कारण है कि काशीके दूरवता होनेपर भी इस विद्यालयमें बुन्देलखण्डके छात्रोंकी संख्या सदैव दो-तिहाईके लगभग रही है। इस निष्कर्षकी पुष्टि विद्यालयकी स्वर्णजयन्ती स्मारिका, -८२ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५५ में प्रकाशित ३७० स्नातकोंकी सूचीमें लगभग २४० के इस क्षेत्रके होनेके तथ्यसे होती है। यहाँ बुन्देलखण्डका अभिप्राय बृहत्तर बुन्देलखण्डसे लेना चाहिये जो बुन्देली भाषाका क्षेत्र है। इसमें वर्तमान मध्यप्रदेशका विन्ध्यक्षेत्र, महाकोशल, कुछ मालव क्षेत्र तथा उत्तरप्रदेशके कुछ जिले समाहित होते हैं और इसीलिये यह सम्भव हो सका है कि आज इस क्षेत्रके प्रत्येक नगर और अच्छे ग्राममें इस विद्यालयका स्नातक पाया जाता है । यही नहीं, कहीं-कहीं तो स्नातक पीढ़ियाँ तक पाई जाती है। ये सभी स्नातक जहाँ अपने काशी वासके प्रति गर्वका अनुभव करते हैं, वहीं अपने क्रिया-कलापोंसे काशीको गौरवान्वित भी कर रहे हैं। इस कथनमें प्राकृतिक नियमानुसार, अपवादोंकी कमी नहीं है । उपरोक्तसे स्पष्ट है कि स्याद्वाद विद्यालयका विद्यार्थी समुदाय बुन्देलखण्ड बहुल रहा है। इसीलिये वहाँके अध्यापकों और अधिकारियोंकी यहाँके छात्रोंके प्रति एक विशेष प्रकारकी अनुरागात्मक भावना तथा विद्यादानके प्रति सजीवता पाई जावे, इसे सहज प्रकृति ही मानना चाहिये। १९२७ से विद्यालयके प्रधानाध्यापक और वर्तमान अधिष्ठाता पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्रीको तो इस क्षेत्रके विद्यार्थियोंसे और प्रगाढ़ स्नेह संभावित है क्योंकि उन्हें बुन्देलखण्डके ही कुछ विद्वानोंने काशीमें पढ़ाया है। इसके अतिरिक्त, इस क्षेत्रके स्नातकोंने उनके साथ स्याद्वाद महाविद्यालयमें अध्ययन और अध्यापन भी किया है। इस तरह बुन्देलखण्ड क्षेत्र स्याद्वादके वर्तमान अधिष्ठाताकी गरुभमि, सहपाठी भमि, सहकर्मी भमि तथा विद्यार्थी भूमि है। अनेक तीर्थक्षेत्रोंके कारण यह धार्मिक आस्थाकी भूमि तो है ही। इन कारणोंसे पण्डितजीके मनमें अन्य क्षेत्रोंकी तुलनामें इस क्षेत्रके स्नातकोंके प्रति बहगणित अनुराग और सदभावना रही है। उन्होने इसे अगणित अवसरों पर अनेक उत्सवों एवं व्यक्तिगत सम्पर्कोमें व्यक्त भी किया है। इस क्षेत्रके विद्यार्थियोंने यह अनुभव किया है कि पण्डितजी न केवल विद्यागुरु ही हैं अपितु वे जीवनगुरु भी हैं। उनके आशीर्वादात्मक सहयोगसे इस क्षेत्रके अनेक विद्यार्थी भारतके विभिन्न प्रदेशोंमें नियोजित होकर आपकी गाथाका परोक्ष विवरण देते हैं। पूर्वसे पश्चिम तथा उत्तरसे दक्षिण किसी ओर भी प्रमुख नगरमें जाइये, आपको इस क्षेत्रका विद्वान् अवश्य मिलेगा। इस क्षेत्रके प्रति अपार आकर्षणका ही यह फल है कि इस क्षेत्रके जिस किसी भी उत्सवमें आपको आमंत्रित किया जाता है आप उसमें अत्यंत सजीवताके साथ सम्मिलित होते हैं । दशलक्षण, महावीर जयंती, गजरथोत्सव, धर्मचक्र स्वागत आदि पर आपने जबलपुर, ललितपुर, द्रोणगिर और सतना, जैसे अनेक स्थानों पर अपने प्रवचन दिये हैं। आपको इन यात्राओंके समय आपकी क्षेत्रीय शिष्टमण्डलीकी प्रभा देखते ही बनती है। यह अपने जीवन उपकर्ता तथा संस्कर्तासे आज अधिक जीवन्त प्रेरणा लेती है क्योंकि विद्यार्थी जीवन तो परोक्षतः ही प्रभाववादी रहा होगा। उस समय इतनी मानसिक या बौद्धिक परिपक्वता कहाँ रहती है जो स्थायी प्रभाव कर गुणोंका अनुकरण कर सके । वह तो विद्रोहका जीवन होता है । पण्डितजीने अपने जीवन में दोनों प्रकारके बुन्देलखंडोंके शिष्य देखे हैं विद्रोही और अनुयायी । सम्भवतः जो विद्यार्थी जीवनमें विद्रोही थे. वे आज या तो उनके उत्कट अनुयायी बन गये है या फिर प्रचण्ड विद्रोही हो गये हैं। पर आदर्श जीवनदर्शन देने और पालने वालेके लिए यह स्थिति तो सामान्य ही है। फलतः आपका आशीर्वाद दोनोंको समान रूपसे मिलता रहता है। मुझे याद है कि एक बार स्याद्वाद महाविद्यालयमें यह प्रश्न एक जटिल रूप लिये हये था कि संस्कृतके साथ अंग्रेजी पढ़ी जाय या नहीं, अनेक विद्यार्थियोंकी इस बातमें रुचि रही है कि आजीविकाके क्षेत्रकी सम्भावनाओंको उन्नत करनेके लिए धार्मिक शिक्षाके साथ लौकिक शिक्षाकी उपाधियाँ भी होनी चाहिये। इस रुचिका एक और भी प्रेरणा स्रोत था। उस समयके जैन विद्यालयोंके अनेक प्रमुख जैन विद्वान केवल लौकिक शिक्षा ही ले रहे थे । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादके तत्कालीन विद्यार्थियोंको ऐसा लगने लगा था कि संस्कृत शिक्षा इतनी हेय कि हमारे गुरुजनोंकी संतति उससे दूर ही रखी जा रही है । सामान्यतः यह भी मान्यता रही है कि इस क्षेत्रके लोग निर्धन हैं और विद्यालय में मुख्यतः निशुल्क व्यवस्थायें होनेसे ही प्रायः यहाँके लोग जाते हैं । इसलिये संस्कृत शिक्षा असमर्थीकी शिक्षा मानी गई। चूँकि हमारे गुरुजन तुलनात्मकतः समर्थ रहे हैं, अतः वे अपनी संततियोंको असमर्थोंको दी जाने वाली शिक्षा क्यों दिलायें । एक ओर हमें संस्कृत शिक्षा के माध्यम से शिक्षाकी अर्थकरता प्रति उदासीन बनाया जा रहा था, वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत जीवनमें हमारे गुरु मात्र अर्थकरी शिक्षा के पोषक हो रहे थे । इस स्थितिमें उस समयके स्याद्वादी विद्यार्थियोंमें निश्चित ही अपनी निर्धनताका बोध हुआ था । और वे भी अपनी पूर्वकर्मोपार्जित नीच गोत्रकी प्रकृतिको काशीमें भस्मकर उच्चगोत्री बननेकी दिशामें सोचने लगे थे । विद्यालयके गुरु और प्रशासक होनेके नाते इस समस्या के उदारता पूर्वक समापन में जो रुचि विद्यार्थियोंने अपेक्षितकी थी, उसके दर्शन अनेक वर्षों बाद ही हो सके जब विद्यालय में प्रवेश चाहने वालोंकी संख्यामें कमी होने लगी । विद्यालयके विद्यार्थियोके लिए इस नीतिक परिवर्तनमें पूज्य बाबा वर्णीजीका योगदान भी भुलाया नहीं जा सकता । वे स्वयं बुन्देलखण्ड के थे और उन्हें अपने ही क्षेत्र विद्यार्थियोंसे अपार प्रेम था । प्रारम्भमें तो वे भी इस नई दिशाको माननेकी दिशा में आनेवाली अनेक तथाकथित आशंकाओंसे परेशान हुये थे पर उन्होंने वर्तमानकी तुलना में उज्ज्वल भविष्यकी आभाको अधिक महत्व दिया । और उसके बाद विद्यालय प्रशासन उदारतापूर्वक धार्मिक शिक्षाके साथ लोकिक शिक्षाके लिए अनुज्ञा दी । भाग्यसे, उसी समय पूर्ति छात्रवृत्ति की योजना चली जिसमें दोनों प्रकारकी शिक्षा लेनेवालेको छात्रवृत्ति दी जाती थी । छात्रवृत्तिका प्रायः पूरा अंश ही विद्यालय में ऐसे छात्रोंको निशुल्कताकी सुविधासे वंचित करनेका दण्ड देकर प्राप्त किया । फलतः दोनों दिशाओंकी शिक्षा लेने वाले विद्यार्थी विद्यालयके परोक्ष सहायक भी बने । अब तो संस्कृत विश्वविद्यालयने भी अपने पाठ्यक्रमोंका आधुनिकीकरण कर दिया हैं । फलतः यह समस्या ही नहीं रही । उपरोक्त नीति परिवर्तनको प्रक्रियामें अनेक छात्रोंने भाग लिया था और प्रारम्भ में विद्यालय प्रशासन संभवतः उनसे ही समझिये कि इन विद्रोही विद्यार्थियोंको निर्दण्ड ही प्रसन्नता है कि मेरी पीढ़ी उन्हीं दिनोंकी है और मेरे उत्तरवर्ती वर्षोंके लगभग दस वर्षोंके समय में विद्यालयसे जो खिन्न भी रहा । पर इसे पण्डितजीकी उदारता विद्यालय में रहने दिया गया । मुझे इस बातकी विद्यार्थी जीवन कालके कुछ पूर्ववर्ती और कुछ उभयथा प्रशिक्षित वर्ग निकला, उसका बहुभाग • आज समाजका विभिन्न क्षेत्रों में अग्रणी बना हुआ है । यद्यपि उनमेंसे कुछ तो केवल अग्रणी अर्थंकर ही रह गये हैं । उनका सामाजिक दृष्टिकोण विशुद्ध व्यक्तिवादमें सीमित हो गया है । इनको उच्च गोत्री प्रकृतिका बन्ध हो गया है । मुझे ऐसा लगता है कि इस नये अर्थकरी शिक्षा ग्राहक वर्गने पण्डितजीको कुछ निराशा तो दी होगी, पर वे उस पीढ़ीसे पूर्णतः निराश हों, ऐसा सोचना किंचित् दुःसाहस ही होगा । इस पीढ़ी अनेक लोग न केवल भारत में ही, अपितु विदेशोंमें भी काशी और 'स्याद्वाद' की कीर्ति- पताका फहरा रहे हैं और जैन संस्कृतिको नव संस्कृत भाषामें प्रसारित कर रहे हैं । यह एक प्रकरण जब बुन्देलखण्ड के विद्यार्थियोंने अपने गुरुवरका गम्भीर मौन देखा और उनकी अन्तः सहानुभूति पाई। उनका यह अन्तरंग आशीर्वाद हमपर आज तक अविरतसे छाया हुआ । यही हमें उनके उपकारोंको अविस्मरणीय बताता है । बुन्देलखण्डके स्याद्वादी स्नातकोंने अनेक अवसरोंपर अपनी कृतज्ञताको व्यक्त करनेके लिए अपने गुरुवरको अभिनन्दित किया है । द्रोणगिरमें तो उन्हें विद्यावारिधि का उपाधि भी विभूषित किया गया । यहीं उनका एक अभिनन्दन १९५५ में भी किया गया था जब वहाँ बीस वर्षकी गजरथ विहीन समाजका प्रथम गजरथोत्सव आयोजित हुआ था । उस समारोहमें अनेक विदेशी - ८४ - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वान् भी उपस्थित थे । जबलपुरमें भी क्षेत्रीय स्याद्वादियोंने उनको एक अभिनन्दनपत्र समर्पित कर अपनेको कृतार्थ किया था । एक ओर जहाँ क्षेत्रीय शिष्यमण्डली अपने विद्यागुरुके कारण गौरवका अनुभव करती है, वहीं पण्डितजी भी समय - समयपर इस क्षेत्रके स्याद्वाद स्नातकोंके प्रति अपने भावभीने उद्गार व्यक्त करते रहते हैं । पूज्य वर्णीजी समाधिमरणके समय वे वहाँ उपस्थित थे । उस समय उन्होंने अपने जीवनके लिये एक परमावश्यक व्रत ग्रहण किया था - लौकिक कल्याणके साथ ही पारलौकिक कल्याणके हेतु भी समाज की मनोभूमि विशुद्ध करनेके लिए पूज्य वर्णीजीके उपदेशोंको और अधिक रूपमें प्रचारित करनेका व्रत लिया था । तभीसे बुन्देलखण्डमें उनके आवागमनकी वारम्वारता कुछ बढ़ गयी । वर्णीजीने एक समय पण्डितजी से कहा था, जब तक संस्थामें एक रुपयेका भी फण्ड रहे और जब तक एक भी छात्र रहे, तब तक आप विद्यालय चलाते रहें । वर्णीजी द्वारा सौंपा गया यह उत्तरदायित्व व आजतक निभा रहे हैं। यह उन जैसे समर्थ व्यक्तित्वका ही काम है जिससे हमारे क्षेत्रीय लोग लाभान्वित हो रहे हैं । इन्हें ही सम्बोधित करते हुए पण्डितजीने एकबार द्रोणगिरमें कहा था, "मैने अपने जीवनमें अभी तक अनेक जगह अभिनन्दनके कार्यक्रम देखे हैं, मेरे भी हुए हैं । परन्तु यह जो अभिनन्दन बुन्देलखण्ड के छात्रों द्वारा आयोजित हुआ है, वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । गुरुके प्रति जो निष्ठा मैने बुन्देलखण्ड के छात्रोंमें देखी, वह अन्यत्र देखनेमें नहीं आई । लघु सम्मेदशिखर कहे जानेवाले द्रोणगिरमें यह सम्मान निश्चय ही महत्वपूर्ण है । मेरी मान्यता है कि ऐसे सम्मान मेरे या किसी व्यक्तिके न होकर विद्वत्तामा के प्रति होने चाहिये । द्रोणगिरिकी तपोभूमि वर्णी वाणीके प्रचारके लिये सर्वाधिक उपयुक्त है । आप सभी स्नातक द्रोणगिरिके विद्यालयको समर्थ बनावें और यहाँके छात्रों को पढ़नेकी प्रेरणा और साधन देते रहें । यही मेरा आपसे विनम्र अनुरोध है ।” इन उद्गारोंसे स्पष्ट है कि एक ओर पण्डितजी इस क्षेत्रके स्नातकोंको गुरुनिष्ठासे सन्तुष्ट हैं, वहीं वे इस बात पर किंचित् उद्विग्न भी हैं कि द्रोणगिरिका विद्यालय दम तोड़ रहा है । इस विद्यालयको जीवनदान देनेकी उनकी प्रेरणा यह संकेत देती है कि इस विद्यालयके लिये उनके समान ही कोई जीवनदानी इस क्षेत्र में होना चाहिये जो इस तपोभूमिको विद्याभूमि बना सके और इसको प्रकाशित कर सके । क्या बुन्देलखण्डके स्नातक अपने गुरुकी इस प्रेरणाको मूर्तरूप दे सकेंगे ? - ८५ - Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय लेखोंकी विषयवारसूची ___ इस सूची में उन लेखोंको सम्मिलित नहीं किया गया है जो प्रतिवर्ष विभिन्न जैन पर्वो या उत्सवोंपर लिखे गये। इनमें पर्दूषण, क्षमावणी, रक्षाबन्धन, श्रुतपंचमी, दीपावली, वीरशासन जयन्तो, अक्षय तृतीया, महावीर जयन्ती एवं पत्रकी वर्ष समाप्तिपर लिखे गये लेख आते हैं। इनकी संख्या लगभग एक दर्जन प्रति .. वर्ष होती है और २८ वर्षमें इनकी संख्या ३३६ के लगभग है। यहाँ पण्डितजी द्वारा लिखित लगभग ६०० सम्पादकीय, लोकप्रिय तथा शोधलेखोंकी विषयवार सूची दी जा रही है। (अ) शिक्षा, शिक्षार्थी, शिक्षक तथा शिक्षण संस्थाएँ, परीक्षा और परीक्षा-पद्धति ४ जनवरी ४० अध्यापकोंका उत्तरदायित्व और महत्त्व ८ फरवरी ४० नये अध्यापकोंकी समस्या १५ फरवरी ४० शिक्षा संस्थाओंका जीवन ६ जून ४० शिक्षा संस्थाओंके एकीकरणमें कठिनाइयाँ ५-७. ५-१२-१९ दिसम्बर ४० शिक्षाका आदर्श १,२,३ ८ अगस्त ४१ हमारे बोर्डिग हाउस ९ जनक्री ४२ शिक्षाका उद्देश्य मनुष्य बनाता है । १६ जुलाई ४२ परीक्षकोंके रिमार्क ११. २३ जुलाई ४२ हमारे संस्कृत विद्यालय १२-१३. २०-२९ अगस्त ४२ हमारे सरस्वती भवन १, २ २६ जनवरी ४२ संस्कृत कालेज जयपुर और जैन छात्र २१ सितम्बर ४२ माणिकचन्द्र परीक्षालयका परीक्षाफल २० दिसम्बर ४४ भारतकी भावी शिक्षा २५ जनवरी ४५ आज विद्वानोंकी कमी क्यों है ? १८. २६ दिसम्बर ५६ पण्डित वर्ग और जैनसमाज, १,२ १९. ३ जुलाई ५८ काशी विद्यालयका भवन गिरा २०. १० जुलाई ५८ छात्र और छात्रवृत्तियाँ २५ अगस्त ६० संस्कृत शिक्षालयोंपर एक दृष्टि २२. १० नवम्बर ६० विद्वानोंकी स्थिति २३. २७ जुलाई ६१ संस्कृत साहित्यका पठन-पाठन २४-२५. ६-१३ जुलाई ६१ नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षाकी आवश्यकता १, २ २६. १० मई ६२ संस्कृत शिक्षा : एक समस्या २८ जून ६३ शिक्षा की दशा ११ अक्टूबर ६२ विद्वान् और आजीविका १४. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. ३०. ३१. 6 or m m mmmmmm ७ मार्च ६३ २८ जुलाई ६३ ६ फरवरी ६९ १० जुलाई ७० ८ फरवरी ७३ २६ जून ७८ १४ जून ७९ २७ जुलाई ७८ १४ जून ७९ २९ जून ६७ | पाण्डित्यकी सार्थकता शिक्षा और उसका गिरता स्तर गुरुकुल इसे कहते हैं संस्कृत और धार्मिक शिक्षाकी स्थिति विद्वानोंकी परंपराका संरक्षण आवश्यक पैसा और पण् ित आजकी शिक्षा और परीक्षा जैन परंपरामें पण्डित और उनका योगदान आजकी शिक्षा-दीक्षा संस्कृत शिक्षालयोंके लिये कठिन समस्या ३४. ३७. ३८. १०. (ब) सामाजिक समस्याएँ और संस्थाएँ ११ जनवरी ४० समाजसेवा १४ मार्च ४० जातीय सभायें २१ मार्च ४० होली ४ अप्रैल ४० हमारे भोले ढले ३० मई ४० संघका प्रभाव और उसकी प्रतिक्रिया ४ जुलाई ४० जैन समाज और धर्मप्रचार ८ अगस्त ४० आगामी जनगणना : अपनेको जैन लिखाइये ८-९. २६ सितम्बर ४० सम्मेदशिखर तेरापंछी कोठीकी रिपोर्ट १,२ १० अक्टूबर ४० तारण समाज और उसके धर्मगुरुओंसे ११. २४ अक्टूबर ४० तारण समाज और मूर्तिपूजा १६ जनवरी ४१ मुनि चन्द्रसागरजीका बहिष्कार १३. २३ जनवरी ४१ इन्दौर काण्डका उत्तरदायित्व किसपर ? १४. १३ फरवरी ४१ प्रकृत बहिष्कार और हम १५. २० फरवरी ४१ श्री सावरकरके वक्तव्य से सावधान १६. ११ मार्च ४१ हमारा जैम लिखाओ आन्दोलन २० मार्च ४१ सर हुकमचन्द्र और इन्दौर काण्ड २७ मार्च ४१ सुधार और सुधारक १७ अप्रैल ४१ परित्यक्त स्त्रियोंकी माँग २४ अप्रैल ४१ महावीरजी पर उपद्रव २१. ५ जून ४१ परिषद अधिवेशनका वितंडा २२. ३ जुलाई ४१ धर्मप्रचारमें समाजका सहयोग २३. २१ अगस्त ४१ हाय रे मोह २४. २८ अगस्त ४१ मध्यम वर्गकी ऊँची रहन-सहन ११ सितम्बर ४१ मूर्तिपूजा १९. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. २७. २८. २९. ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. ३९. ४०. ४१. ४२. ४३. ४४. ४५. ४६. ४७. ४८. ४९. ५०. ५१. ५२. ५३. ५४. ५५. ५६. ५७. ५८. ५९. ६०. ६१. १८ सितम्बर ४१ ९ अक्टूबर ४१ २९ जनवरी ४२ १६ अप्रैल ४२ ३० अप्रैल ४२ १८ जून ४२ २ जुलाई ४२ ९ जुलाई ४२ २९ अक्टूबर ४२ ५ नवम्बर ४२ ३ दिसम्बर ४२ १४ जनवरी ४२ २१ जनवरी ४३ २८ जनवरी ४३ ८ अप्रेल ४३ २९ अप्रेल ४३ १३ मई ४३ २० मई ४३ १० जून ४३ १७ जून ४३ २४ जून ४३ ५ अगस्त ४३ १९ अगस्त ४३ २६ अगस्त ४३ १५ अक्टूबर ४३ ११ नवम्बर ४३ २५ नवम्बर ४३ ९ दिसम्बर ४३ २३ दिसम्बर ४३ ३० दिसम्बर ४३ ४ मई ४४ ११ मई ४३ १५ जून ४४ २२ जून ४४ २९ जून ४४ ६ जुलाई ४४ स्वास्थ्य प्रचारकी आवश्यकता विषकी बेल कौन ? समयको पहचानो संगठनमें बाधक कौन ? सुन्दरलालजीका पत्र संघके विरुद्ध प्रोपेगेंडाका भण्डाफोड़ दहेजकी प्रतिक्रिया संघ समितिके निर्णय १, २ तीर्थक्षेत्रोंके झगड़े जैनधर्मके प्रचारकी आवश्यकता मन्दिरोंमे कलह तीर्थक्षेत्रोंके झगड़े महँगी वाह रे हम ? हमारे आन्दोलन महंगीमें फिजूलखर्ची हमारा सामाजिक संगठन साहुजीका भाषण युवकोंका दायित्व कुछ महत्त्वपूर्ण दान नया हिन्दू विरासत कानून महिलायें स्वावलम्बी बनें स्तुत्य प्रस्ताव प्रकृतिका प्रकोप मन्दिरोंके झगड़े परोपदेशे पाण्डित्यम् हमारी खुदगर्जी हवाका रुख पहचानो विद्वत परिषदकी आवश्यकता उदार घोषणा पंचायतोंकी महत्ता हमारा सामाजिक क्षेत्र कलकत्ते में एक जैन केन्द्रकी आवश्यकता कारंजा आश्रम दानकी वर्षा मालवा में युवक संगठन जैनेन्द्रजीका भाषण - ८८ - Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. ६३. ६४. ६५. ६६. ६७. ६८. ६९. ७०. ७१. ७२. ७३. ७४. ७५. ७६. ७७. ७८. ७९. ८०. ८१. ८२. ८३. ८४. ८५. ८६. ८७. ८८. ८९. ९०. ९१. ९२. ९३. ९४. ९५. ९६. ९७. २९ सितम्बर ४४ ५ अक्टूबर ४४ १२ अक्टूबर ४४ ३० नवम्बर ४४ ७ दिसम्बर ४४ २१ दिसम्बर ४४ २५ जनवरी ४५ ८ फरवरी ४५ १५ फरवरी ४५ ८ मार्च ४५ १५ मार्च ४५ २२ मार्च ४५ ५ अप्रैल ४५ २८ नवम्बर ५७ २४ अप्रैल ५८ १७ जुलाई ५८ १४ अगस्त ५८ ४ दिसम्बर ५८ ११ सितम्बर ५८ ३० अक्टूबर ५८ २२ जनवरी ५९ ५।१२ फरवरी ५९ १९ मार्च ५९ २० अक्टूबर ६० १७ नवम्बर ६० १ दिसम्बर ६० ८ दिसम्बर ६० १५ दिसम्बर ६० ५ जून ६१ १९ जून ६१ २६ जून ६१ २ फरवरी ६१ १६ फरवरी ६१ ९ मार्च ६१ १२ १६ मार्च ६ अप्रैल ६१ अहिंसा प्रचारका एक अवसर जैनोंकी कानूनी स्थिति यह अंधेरा क्यों ? तीर्थक्षेत्रोंकी समस्या प्रान्तीय संगठनोंकी आवश्यकता मधुवनमें जहरीले पानीसे सावधान फिर वही वितण्डा बहिष्कारका समर्थन किन्तु प्रकारान्तरसे विद्वानोंसे प्रो० हीरालालजीके उत्तर विद्वत् परिषद्का अधिवेशन शिखरजीका पानी आज जैनत्व मिट रहा है बम्बईकी दुःखद घटना आज द्रव्य ही सब कुछ है रात्रि भोजन छोड़िये हमारी शक्तिका हास बालिकाओंका स्तुत्य साहस दिया तले अंधेरा समय रहते सावधान हो जाना ही हितकर है दोषी कौन, निन्दक या अन्धभक्त यह जैन सन्देशका नहीं, जैनधर्मका बहिष्कार है जबलपुर काण्ड पर एक दृष्टि जैनों और हिन्दुओंमें एकता सच्ची और खरी बातें जनगणनाके सम्बन्धमें अतिशय क्षेत्र महावीरजी जातीयताका विष एकता और संगठनकी बातें जैनोंसे जैनधर्म छूटता जाता है सार्वजनिक क्षेत्रमें जैनधर्म कैसा होना चाहिये ? मूर्तिपूजक होना गकी वस्तु विवाह आदि अवसरों पर रात्रिभोजन बन्द कीजिये तीर्थ-यात्रा विवाह नहीं सौदेबाजी शाकाहारके प्रचारकी आवश्यकता - ८९ - Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८. ० ० ० orwor wom ० ० ० १००. १०१. १०२. १०३. १०४. १०५. or M १०७. १०८. ११०. १११. ११२. ११३. ११४. ११५. ११६. २० अप्रैल ६१ २५ मई ६१ ८ जून ६१ २२ जून ६१ २९ जून ६१ ३ अगस्त ६१ ७ सितम्बर ६१ २४ दिसम्बर ६१ ४ जनवरी ६२ ११ जून ६२ १५ मार्च ६२ २६ अप्रैल ६२ ३ मई ६२ १४ जून ६२ २१ जून ६२ २८ जून ६२ २८ जुलाई ६२ ९ अगस्त ६२ १ सितम्बर ६२ ८ नवम्बर ६२ १३ दिसम्बर ६२ ३१ जनवरी ६२ ७ मार्च ६२ १५ अप्रैल ६२ १६ मई ६२ १३ जून ६२ ४ जुलाई ६२ २६ सितम्बर ६२ ५ दिसम्बर २६ दिसम्बर ६२ २ जनवरी ६४ ९ जनवरी ६४ १६ जनवरी ६४ ३० जनवरी ६४ ६ फरवरी ६४ ५ मार्च ६४ हमारे तीर्थक्षेत्र दहेज लेना-देना, माँगना जुर्म संस्था और व्यक्ति ब्लिट्ज पत्रकी रिपोर्ट ये पुस्तक विक्रेता त्यागी बेपतवारकी नाव परिषद्के लिये उपयोगी सुझाव फीरोजाबादका महोत्सव आदर्श सामूहिक विवाह हमारे सांस्कृतिक आयोजन ये अखिल भारतवर्षीय संस्थाएँ संघका अधिवेशन दि० जैन संघ, १९४० देवमूढ़तासे बचिये श्रुतकी रक्षा कीजिये वैवाहिक समस्यायें शिथिलाचारका विरोध और समर्थन अत्यंत दुखद घटना कल्याणकी बात वादरायण नहीं, साक्षात् सम्बन्ध हमें अपना लोक-व्यवहार सुधारना चाहिये असद् व्यवहारसे धर्मकी रक्षा नहीं हो सकती बाहुबली प्रतिष्ठा महोत्सव अभिनन्दनसागरजी विचार करें कुमायूसे धार्मिक जाग्रति धर्मप्रेम बनाये धर्महानि शाकाहार बनाम मांसाहार दशलक्षण बीतते ही कषायकी बौछार समयकी गति पहचानिये जनगणनामें जैन हम सब जैन है दक्षिण भारतको मत भूलिये एक सुन्दर सांस्कृतिक महोत्सव जै०सि० म० आराकी हीरक जयंती कारंजामें संघ अधिवेशन कारंजाका सांस्कृतिक महोत्सव दो पंचकल्याणक महोत्सव (शिखरजी और वाराणसी) ११७. ११८. ११९. १२०. १२१. १२२. १२३. १२४. १२५. १२६. १२७. Morwor १२८. १२९. १३०. १३१. १३२. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४. १३५. १३६. १३७. १३८. १३९. १४०. १४१. १४२. १४३. १४४. १४५. १४६. १४७. १४८. १४९. १५०. १५१. १५२. १५३. १५४. १५५. १५६. १५७. १५८. १५९. १६०. १६१. १६२. १६३. १६४. १६५. १६६. १६७. १६८. १६९. ६ अगस्त ६४ ८ अक्टूबर ६४ १९ नवम्बर ६४ १७ सितम्बर ६४ २४ दिसम्बर ६४ ३१ सितम्बर ६४ २१ जनवरी ६५ ११ मार्च ६५ १ अप्रेल ६५ ६ मई ६५ १३ मई ६५ २७ मई ६५ ३ जून ६५ १० जून ६५ ८ जुलाई ६५ १८ नवम्बर ६५ १८ नवम्बर ६५ २५ जनवरी ६६ १७ फरवरी ६६ २४ फरवरी ६६ ३ मार्च ६६ १७ मार्च ६६ २५ अप्रैल ६८ २ मई ६८ १५ जून ६८ २० जून ६८ २७ जून ६८ २८ जून ६८ १८ जुलाई ६८ २५ जुलाई १८ १९ सितम्बर ६८ २६ सितम्बर ६८ १० अप्रैल ६९ १ मई ६९ १९ जून ६९ ३ जुलाई ६९ विद्वानोंसे नम्र निवेदन मँहगाई बनाम भ्रष्टाचार भारतीय जैन साहित्यकार संसद धर्मप्रचारकी कुछ मूलभूत बातें महासभाका प्रस्ताव आचार्य तुलसीके तीन सुझाव भा० दि० जैन परिषद् तीन पंचकल्याण ( गौहाटी, सिवनी, मथुरा ) सम्मेद शिखरके प्रश्नपर दि० जैन समाज का आह्वान धर्मकी ओटमें सम्मेदशिखरके सम्बन्ध में पिछड़े हुए जैन बोगस कार्य के सम्बन्धमें यदि बाद ही खेतकी खाये तो ? जैन युवकोंसे सेठ राजकुमारसिंहजीका वक्तव्य और प्रतिक्रिया सद्भावनाकी आवश्यकता गन्दी सरिताका गन्दा लेख दि० जैन समाजका ताशकन्द सम्मेलन सामाजिक वातावरणमें स्वच्छताकी आवश्यकता समाज विचार करे सुधारका मूल संगठन मेरठ में भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत् परिषद् जीवनसे धर्म वहिष्कृत होता जाता है एक प्रश्न सामयिक चेतावनी मुनिचर्या पर भी काल का प्रभाव उत्तरी गंगा एक आदर्श मंत्री सराकोद्धारका कार्य तथोक्त महामुनिकी पूजा दि० जैन समाजके सामने अनेक मौलिक समस्याएँ शूद्रजल त्यागकी प्रतिज्ञामें कुछ तथ्य नहीं है जैन जातियों और वैवाहिक सम्बन्ध आचार्य पद प्रतिष्ठा - ९१ - - Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०. १७१. १७२. १७३. १७४. १७५. १७६. १७७. १७८. १७९. १८०. १८१. १८२. १८३. १८४. १८५. १८६. १८७. ३१ जुलाई ६९ १४ अगस्त ६९ २३ अक्टूबर ६९ २० नवम्बर ६९ १६ जनवरी ६९ २३ जनवरी ६९ २० जनवरी ६९ २० जनवरी ६९ ९ अप्रैल ७० ४ जून ७० २० अगस्त ७० ५ नवम्बर ७० २६ नवम्बर ७० १५ जनवरी ७० १२ फरवरी १९ फरवरी ७० ५ मार्च ७० ७ जनवरी ७१ १० जून ७१ २२ जुलाई १८ नवम्बर ७१ ६ मार्च ७२ ३० जुलाई ७२ ३ अगस्त ७२ २४ अगस्त ७२ ३१ अगस्त ७२ १६ नवम्बर ७२ ३० नवम्बर ७२ १४ जून ७३ १८ जनवरी ७३ ८ मार्च ७३ १२ अप्रैल ७३ २६ अप्रैल ७३ १४ जनवरी ७४ ३१ जनवरी २१ फरवरी दो उल्लेखनीय घटनाएँ जैनधर्म और आधुनिक विज्ञान दि० जैन सम्मेलन जनगणना आचरणमें ह्रास क्यों? समयकी माँग तीर्थरक्षाके लिए एक अ० भा० सम्मेलनकी आवश्यकता सराक जातिका धर्मप्रेम स्त्री और पुरुषका चिन्तनीय सम्पर्क आगमका यह अपलाप क्यों ? जैन लिखाओ, जैन बनो २५०० वीं निर्वाण जयन्ती कब से ? बुन्देलखण्डके तीर्थरक्षकोंसे कन्या किसे देना चाहिये ? एक पंथ दो काम जयपुर में बाहुबली महोत्सव बुन्देलखण्ड प्रान्तीय तीर्थक्षेत्र कमेटी होनी चाहिये २५०० में निर्वाणोत्सवक स्मृतिमें कथनी और करनीमें इतना अन्तर क्यों ? नारी की उठती हुई स्थिति महाराष्ट्र प्रदेशमें भावी पीढ़ी की चिन्तनीय स्थिति मुनिमार्ग की बिगड़ती स्थिति हस्तिनापुरके उद्यानमें गृहस्थ भी आरातीय होते थे क्रियात्मक अहिंसा प्रचार की आवश्यकता करुणाभाव और मोह क्या भौतिकता के साथ आध्यात्मिकता बढ़ रही है ? ब्रह्मदेवसूरि का ब्रह्माणुव्रत धार्मिक प्रवास भगवान् महावीर के चरित की समस्या एक विचारणीय सुझाव अन्य राज्य भी गुजरातका अनुकरण करें संघके सम्बन्धमें संघके प्रस्तावों पर एक दृष्टि १८८. १८९. १९०. १९१. १९२. १९३. १९४. १९५. १९७. १९८. १९९. २००. २०१. २०२. २०३. २०४. २०५. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६. २३ जनवरी ७५ दिगम्बर परम्परा व साहित्य पर मेरी श्रद्धा २०७. ४ अप्रैल ७५ जैनतीर्थ और पंचभेद २०८. ३१ लाई ७५ दो भट्टारकोंका पदारोहण २०९. ४ नवम्वर ७६ सामयिक और आवश्यक अपील २१०. २ दिसम्बर ७६ विवेकसे काम लीजिये २११. ६ जनवरी ७७ मुमुक्षुजन विचार करें २१२. १० फरवरी ७७ समाजपर एक दृष्टि २१३. २४ फरवरी ७७ धर्मप्रचार ही हमारा लक्ष्य है २१४. १७ मार्च ७७ दृष्टिको निर्मल बनाइये २१५. ३० जून, ७७ समाज शुद्धिको आवश्यकता २१६. १ दिसम्बर ७७ धर्मरक्षाका उपाय बहिष्कार नहीं है २१७. २२ फरवरी ७९ समयसे शिक्षा लीजिये २१८. १५ मार्च ७९ शास्त्रार्थसे समस्याका हल नहीं २१९. ४ अप्रैल ७९ उत्तर और दक्षिण २२०. १९ जनवरी ७८ धार्मिकके बिना धर्म नहीं २२१. २ नवम्बर ७८ लोकेषणासे बचनेमें ही हित २२२. २८ जून ५६ दहेज तथा आदर्श सामूहिक विवाह योजनापर विचार २२३. ५ जुलाई ५६ जैन साहित्यका प्रकाशन और उसकी समस्यायें १२ जुलाई ५६ सागरको संस्थायें और समाज २२५. ६ दिसम्बर ५६ सामाजिक स्थितिपर विचार कीजये २२६. ८ नवम्बर ७९ पीछो और कमण्डलु १० नवम्बर ७७ स्याद्वाद महाविद्यालयके तीन मास २८ जुलाई ७७ जैन विद्याके एक विशिष्ट विद्वान् वंशीधर भट्ट २९ दिसम्बर ७७ समयको पहचानिये २३०. ९ फरवरी ७८ भा० दि० जैन विद्वत् परिषद् २३१. २९ जून ७८ एलोरामें पंचकल्याणक २३२. २ नवम्बर ७८ एक पुण्यस्मरण तथा निवेदन २३३. १७ मई ७७ ये जन्म जयन्तियाँ (स) शास्त्रीय और धार्मिक लेख १. १४ दिसम्बर ३९ शास्त्राज्ञा और रीतिरिवाज १८ सितम्बर ४१ क्या शास्त्र सभायें बेकार है ? ३० अक्टूबर ४१ सिद्धान्त ग्रन्थोंका प्रकाशन और उसका विरोध २ दिसम्बर ४१ सिद्धान्त शास्त्र और उनके अध्ययनका अधिकार १,२,३,४,५,६ १७ दिसम्बर ४२ जैनिदण्डनम् या मूर्खमण्डनम् ११. ४ फरवरी ४३ | जैनिदण्डनम्के सम्बन्धमें २२४. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ० Or mmm m rm १२. ६ फरवरी ५६ १३. १२ दिसम्बर ५७ १४. ७ नवम्बर ५७ १५-६ ६ जून ५८ १७-८ २० जून ५६ १९. ३१ जुलाई ५६ ७ अगस्त ५६ २५ दिसम्बर ५८ ९ जून ६० ९ जुलाई ६० ६ अक्टूवर ६० १३ अक्टूबर ६० २९ दिसम्बर ६० १२ जनवरी ६१ २ फरवरी ६१ १५ जून ५६ २१ जून ५६ ३१. १५ मार्च ५६ २१ अक्टूबर ६२ २७ सितम्बर ६२ २८ फरवरी ६३ ३० मार्च ६३ १६ मई ६३ २० जून ६३ १ अगस्त ६३ ७ नवम्बर ६३ ४०. ९ अप्रैल ६४ २१ मई ६४ ४२-४४. २८ मई ६४ ४५. २ जुलाई ६४ ४६-४८. १६ जुलाई ६१ ४९. २० अगस्त ६४ १९ सितम्बर ६४ ५१. २२ अक्टूबर ६४ ५२. २१ जनवरी ६५ ५ फरवरी ६५ पं० मक्खनलालजीके आरोपोंका उत्तर सोनगढ़ चर्चा जैनतत्त्वज्ञान प्रगति क्या कुदेवपूजा शास्त्रविहित है ? १, २, जिनभक्तिका माहात्म्य १, २, देव और कुदेव पूजा और भक्ति वीतरागशासनमें भेदका कारण श्रद्धा बनाम विवेक त्यागधमके पथिकोंसे वैराग्य या अनुराग पथभ्रष्ट मुनिवेशियों के सम्बन्ध में आचार्य पद आ० कुन्दकुन्द का आम्नाय मूर्तिपूजक होना गर्व की वस्तु धार्मिक सिद्धान्त और विज्ञान ( ज्ञानविज्ञान एकेडेमी ) धार्मिक प्रवचनोंकी बाढ़ सिद्धान्त और आचरण निश्चय और व्यवहार निश्चयनय और व्यवहार निश्चय और व्यवहार अध्यात्म पर जोर सैद्धान्तिक चर्चा जैन ग्रन्थकारोंकी प्रामाणिकताएँ क्या टोडरमलजी अप्रमाण पुरुष थे ? सर्वज्ञ की चर्चा क्यों? पंथभेदजन्य अशान्तिको दूर करनेका उपाय पन्थभेदजन्य अशान्ति पर निश्चय और व्यवहार १, २, ३ क्या द्रव्यलिंगी और भालिंगीको पहिचान अशक्य है ? जिनशासनमें सर्वत्र भावका महत्व है ? १, २, ३ द्र व्यलिंगी और भावलिंगीकी पहचानके सम्बन्धमें कषाय और धर्म चारों अनुयोगोंके शास्त्र पठनीय है सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिकी पहिचान क्या रत्नत्रय मोक्षका परम्परा कारण है ? ४१. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. ५५. ५६. ५७. ५८. ५९. ६०. ६१. ६२. ६३. ६४. ६५. ६६-६७, ६८. ६९. ७०. ७१. ७२. ७३. ७४. ७६. ७७. ७८. ७९. ८०. ८१. ८२. ८३. ८४. ८५. ८६. ८७. ८८. २४ जून ६५ १५ जुलाई ६५ २९ जुलाई ६५ २० अगस्त ६५ २ दिसम्बर ६५ ३-१० नवम्बर ६६ ६ जून ६८ ३१ अक्टूबर ६८ १९ दिसम्बर ६८ ३ जुलाई ६९ १० जुलाई ६९ २४ जुलाई ६९ १३ मार्च ६९ २१ मार्च ७० ४ जून ७० ९ जुलाई ७० ६ अगस्त ७० १२ नवम्बर ७० ६ मई ७१ १३ मई ७१ २४ जून ७१ १ जुलाई ७१ ६ अगस्त ७१ ३ सितम्बर ७१ २ दिसम्बर ७१ २६ अगस्त ७१ १३ मार्च ७२ २० मार्च ७२ २८ मई ७२ ३ अगस्त ७२ १४ सितम्बर ७२ ५ अक्टूबर ७२ २१ जून ७३ २९ मार्च ७३ तथोक्त नियतिवाद और सर्वज्ञता जैसा केवलीने जाना, वैसा अवश्य होगा, क्या यह मान्यता मूलतः गलत है ? व्यवहार धर्मके उपदेशकी आवश्यकता सिद्धों में चारित्र और सुख नया तीर्थकरों की त्रिकालज्ञता हेतुकी बात है ? धर्म और पुण्य १, २ क्या व्यवहार रत्नत्रय मोक्षका मूल कारण है ? देवशास्त्र - गुरु और सम्यग्दर्शन स्वरूपाचरण और सिद्धोंमें परित्र आचार्य पद प्रतिष्ठा दिगम्बरत्वसे चिढ़ क्यों ? निश्वयाभासी और व्यवहाराभासी क्षुल्लकका वेष और आचार १, २ क्या चरित्रहीनको सम्यक्त्वकी प्राप्ति संभव है आगमका यह अपलाप क्यों ? सम्पक चरित्रके बिना मुक्ति नहीं, किन्तु सम्यक् दर्शनके बिना सम्यक् चरित्र नहीं । चरित्रकी उपयोगिता आ० कुन्दकुन्दका महत्व areगीका अर्थ द्रव्यदृष्टि सम्यग्दृष्टिका अर्थ क्या रत्नत्रय बन्धका कारण है ? क्या देश रस्नमय सम्पूर्ण रत्नत्रयका विपक्ष है ? बन्धका उपाय मोक्षका उपाय नहीं हो सकता क्या व्यवहारको मिथ्या और निश्चयको सत्य कहना धृष्टता है भूतार्थ और अभूतार्थका अर्थ अशुभसे बचकर शुभमें लगना भी सरल नहीं हैं सम्यक्त्व से पूर्व अष्टमूलगुणधारण आवश्यक है क्या अष्टमूल गुण धारण किये बिना सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता ? शास्त्रविरुद्ध शिथिलाचारका पोषक कौन ? मुनिमार्गी बिगड़ती हुई स्थिति वीतरागता ही सच्चा धर्म है ज्ञान व चरित्रका पक्ष लेने मात्रसे कल्याण नहीं होगा सिद्धान्तका पात तो मत कीजिये वीतरागी देव ही पूज्य है - ९५ - Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१. ~Nm २८ फरवरी ७१ १९ सितम्बर ७४ ४ जनवरी ७९ २६ अप्रैल ७९ ६ जनवरी ७७ ११ जनवरी ७९ १० मई ५६ २ अगस्त ५६ ६ सितम्बर ५६ २५ अक्टूबर ५६ ७ जून ५६ १० जनवरी ८० २१ फरवरी ८० २८ फरवरी ८० १७ नवम्बर ७७ १७ नवम्बर ७७ १२ अप्रैल ७९ ८ फरवरी ७९ समयसार संशोधनपर वीतारागता ही सच्चा धर्म क्या एलाचार्य भी कोई पद हैं ? एलाचार्य पद कल्पना मुमुक्षुजन विचार करें जिनशासनमें मिथ्थादृष्टि सिद्धान्त और आचरण कानजी स्वामीका विरोध मूलशंकर देसाईकी तत्त्वार्थसूत्रकी समीक्षा मोक्ष और निर्वाण : एक मध्यरेखा भारतीय और जैन संस्कृति भट्टारक पद के सम्बन्ध में कानजी स्वामी दि० जैन मुनि नहीं है नैतिकता और धार्मिकता संवर और निर्जरा अनुप्रेक्षा भ० महावीरका अचेतन धर्म भ० महावीरकी देन जीव और कर्म ९८. १००. १०१. १०२. १०३. १०४. १०५. १०६. (द) राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय १. २ मई ४० गान्धी और अहिंसा २-३. २३ मई ४० हम और अहिंसा १,२ ४. २५ जून ४० अहिंसा के क्षेत्रमें गांधीजीका एक और कदम ५-६. ५ सितम्बर ४० अहिंसाके सिद्धान्तका प्रयोग १, २ ७. १७ अक्टूवर ४० भारतका रोग : नेतागिरी ८-९. २८ नवम्बर ४० हिन्दू और मसलमान १, २ ६ फरवरी ४१ देशी ईसाई और मुसलमान ११. १३ मार्च ४१ भारतीय राष्ट्रका इतिहास २० मार्च ४१ रंगमें भंग १३-१५. १८ जनवरी ४० बेकारीकी समस्या कैसे सुलझे १,२,३ (अम्बर चरखा) १६. १५ मई ४१ हक मंत्रिमण्डलपर आरोप १७-८. २३ मई ४१ भारत और उसके शासक १,२ १९. २६ जून ४१ मि० जिन्नाका पाकिस्तान २०. २ अक्टूवर ४१ अभागा भारत २१. ६ नवम्वर ४१ हमारी दासताका कारण २२-२४. १३ नवम्वर ४१ गान्धी और अहिंसा १, २, ३ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. २६. २७. २८. २९. ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. ४०. ४१. ४२. ४३. ४४. ४५. ४६. ४७. ४८. ४९. ५०. ५१. ५२. ५३. ५४. ५५. ५६. ५७. ५८. ५९. ६०. ६१. १५ जनवरी ४२ ९ अप्रैल ४२ ३० अप्रैल ४२ ३१ मई ४२ २० अगस्त ४२ ८ अक्टूबर ४२ १० दिसम्बर ४२ ११ फरवरी ४३ २४ मार्च ५६ २२ मई ५८ ७ नवम्बर ५८ १९ नवम्बर ५८ ११ मई ६० २ जून ६० २ नवम्बर ६१ ८ फरवरी ६२ २२ फरवरी ६२ १५ मार्च ६२ १५ नवम्बर ६२ २२ नवम्बर ६२ ३ जनवरी ६३ १८ अप्रैल ६३ २३ मई ६३ १८ जुलाई ६३ ४ जून ६४ १८ जून ६४ १९ नवम्बर ६४ ८ फरवरी ६६ २९ मई ६९ १३ अगस्त ७० २२-२-७१ ३ जून ७१ ३ मार्च ७१. २४ मार्च ७७ १७ जनवरी ८० १ दिसम्बर ६६ १३ २२ जन ६७ देशकी राजनीतिक स्थिति ब्रिटिश योजनायें और हम समझौतेका प्रयत्न असफल अहिंसा ही देशकी रक्षा अन्नकी मँहगाई अन्नकी मँहगाई धर्म और देश पाकिस्तान या गुलामी हिन्दी और संस्कृत नेहरूजीकी उद्विग्नता डाँवाडोलराजनीतिक परिस्थिति जुग जुग जियो जवाहरलाल संतविनोवाका नया प्रयोग नये प्रयोगकी सफलता अतिवृष्टिसे हाहाकार अष्टग्रही योगसे भय क्यों ? गोवा अभियान और अहिंसा भारतके चुनावोंपर एक दृष्टि देशपर संकट भारतीयता जाग उठी अहिंसक प्रतिरोधका प्रश्न राष्ट्रपतिका भाषण : एक चेतावनी राजनीतिक उथलपुथल क्या देशमें भ्रष्टाचार है ? राष्ट्र के महान पुत्रका देहावसान नेहरू के उत्तराधिकारीका अभिनन्दन पण्डित नेहरू और उसके बाद राष्ट्रपर पुनः संकट राष्ट्रपतिकी यात्रा स्वतंत्रताके २३ वर्षोंमें बंगलादेशमें सुनकी होली बंगलादेश और पाकिस्तान देशपर एक दृष्टि जनतंत्र जयवंत हो मदर टेरेसाको नोबल पुरस्कार देशदरण मुस्लिम यहूदी संघर्ष ९७ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (य) व्यक्तिविशेष १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७, १८. १९. २०. २४. २५. १३-१२-५६ १२-२-५९ १९-५-६० २६. २७. २८. २९. २० अक्टूबर ६० १६-३-६१ १८-५-६१ १४-४-६१ १-२-६२ ४-६-६४ ८-२-६६ ३०-५-६८ ९-११-६९ १३-२-६९ २१. २२. २३. २४. २५. (२) लोकप्रिय लेख १-२०. २१. २-२-६९ ३-२-७२ ४-५-७२ १८-८-७७ १०-१-७७ ८-१-६१ २३-१०-७५ १०-५-७८ २५०५-७८ १८-१०-७९ ७-२-८० २०-२-७५ साहित्य तपस्वी मुख्त्यार साहब सूर्य अस्त हो गया ( सरसेठ हुकमचन्द्र ) मेरे माता-पिता दानवीर साहू गुरुवर गोपालदासजी दो महापुरुषोंकी शताब्दी शान्तिप्रसादजी सूर्य अस्त हो गया स्व० पं० लालारामजी राष्ट्र के महान पुत्रका अवसान ( नेहरूजी ) स्व० बाबू छोटेलालजी स्व० पं० अजितकुमारजी जैन साहित्य महारथीकी स्वर्गयात्रा स्व० पं० चैनसुखदासजी एक विभूति उठ गई स्व० आचार्य श्री महावीर कीर्तिजी जैनसंदेश ४०-४१ हमारी तीर्थयात्रा, २० लेख स्वर्ण जयंती संस्मरण, १९५५ स्याद्वाद महा०का प्रारम्भिक इतिहास २२-२३. जैनसंदेश, १४-२१ जून ५६ विज्ञान तथा अन्धविश्वास १, २ ५ जुलाई ५६ अपराध : आरण और निवारण १२ जुलाई ५६ बिक्रीकर चिदानन्द स्मृतिग्रन्थ, १९७४ सम्यग्दर्शन का महत्व महावीर स्मृतिग्रन्थ, १९७५ महावीर का दर्शन और धर्म महासमिति बुलेटिन, १०.७९ श्रमणपरम्पराकी प्राचीनता तीर्थंकर, नवं० दि० १९७८ णमो लोए सब्बसाहूणं (ल) शोध-लेख स्व० पं० मिलापचन्द कटारया पूज्य महिलारत्नका वियोग दि० जैन समाजरूपी प्रासाद कलशविहीन आचार्य तुलसीगणिका संघ और उसके कार्य डॉ० उपाध्ये भी स्वर्गवासी हुए प्रज्ञाचक्षु मनीषीका स्वर्गवास छोटे वर्णोजी स्व० पं० राजेन्द्रकुमारजी एक महान् विद्वान का वियोग एक नये नक्षत्रका उदव ( विद्यासागरजी ) १. आचार्य यतिवृषभ और उनकी कृतियाँ, २. कुछ आचार्योंके कालक्रम पर विचार ३. भट्टारक ज्ञानभूषण नामके दो ग्रन्थकार ४. यशस्तिलक में आगत कुछ भौगोलिक नाम - ९८ - १, २८ ( जै० सं० शो० ) ५. १७७ ७, २२४ ८, २७६ 17 27 " Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. विचारणीय ऐतिहासिक प्रसंग ४, १५१ ( जै० सं० शो०) ६. सिद्धसेन गणिकी टीका पर तत्त्वार्थवातिकका प्रभाव १०, ३३८ ७. आचार्य सोमदेव और उनका युग १६, १७७ , ८. स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीके अकलंक सरस्वती भवनमें वर्तमान कुछ हस्तिलिखित ग्रन्थोंकी लेखक प्रशस्तियाँ १४, ११८ , ९. भगवान् पार्श्वनाथकी ऐतिहासिकता १२, ५४ , १०. स्व० श्री नाथू राम प्रेमीके छह पत्र ११. कर्मपद्य हिन्दी ग्रन्थोंकी प्रशस्तियाँ २२, ४६ , १२. १२-१३ वीं सदीके कुछ ग्रन्थकार २५, ८ १३. द्रव्यसंग्रह : उसके कर्ता और टीकाकार २५, ८ १४. पं० आशाधरजीका वैदुष्य २१, १० १५. श्रीपालसत ढढ्ढाकृत पञ्चसंग्रह १६. अनेकान्त और स्याद्वाद ३८, ५६४ १७. भद्रबाह श्रुतकेवलो-विजय राजेन्द्र सूरिस्मा० २०१३ १८. स्याद्वाद और सप्तभंगी, प्रेमी अभि० ग्रन्थ, १९४६ १९. श्रुतज्ञान और उसका वर्ण्य विषय, बरैया अभि० ग्रन्थ, १९६७ २०. शब्दनय, वर्णी अभि० ग्रन्थ, १४७६ २१. सिद्धसेनका अभेदवाद और दिगम्बर परम्परा, छोटेलाल स्मृतिग्रन्थ, १९६७ २२. जैन दर्शन, चन्दाबाई अभि० ग्रन्थ, १९५४ २३. अनेकान्तवाद, कानजी अभि० ग्रन्थ, १९६४ २४. भारतीय आचार में प्राकृत वाङ्मयका योगदान २६, २, १७-३५ (जैनसि० भास्कर) २५. अनेकान्त और स्याद्वाद २९ किरण १,८-१३ २६. आचार्य कुन्दकुन्द कृत परिकर्म २३, २, १५-२२ २७. एक साम्प्रदायिक चित्रण १५, १,६ २८. जैनधर्म में योग ३, २, २९. दिगम्बर न ग्रन्थों की एक बृहत् सूची, ५, ४, २१९ ३०. देवकुमारजी की दानशीलता १८, १,७ ३१. धर्म शब्दकी व्युत्पत्ति , स्वरूप और व्याख्या २७, १, २, १-७७ ३२. नय विवरणके सम्बन्धमें ६, २, १२३ ३३. पाणिनि, पतञ्जलि और पूज्यपाद ६, ४, २१६ ३४. भट्टाकलंकका समय ४, ३, १६५ ३५. आचार्य शाकटायनका काल-निर्णय जैन, सं० २-९-४३ ३६. संयत शब्द, जैन संदेश, २१-१-४० । ३७-४०. जैन आम्नाय १, २, ३, ४, जैन संदेश ४१. आचार्य अमृतचंद्र के एक नवीन ग्रन्थकी उपलब्धि : लघुतत्व स्फोट, जैन संदेश, १-७-७६ -- ९९ - Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डितजीकी कृतियाँ (अ) मोलिक कृतियाँ नाम पृष्ठ संख्या प्रकाशक प्रकाशनवर्ष १. जैनधर्म ४३६ जैनसंघ, मथुरा १९४४ २. जैन न्याय ३६४ भारतीय ज्ञानपीठ १९६८. ३. जैन साहित्यके इतिहासकी पूर्वपीठिका । वर्णी ग्रन्थमाला वि०सं० २४८९ ४. जैन साहित्यका इतिहास-१ ४९८ , २५०२ ५. जैन साहित्यका इतिहास-२ ३९६ २५०२ ६. नमस्कार महामंत्र जैनसंघ भगवान ऋषभदेव २४७९ ८. करणानुयोग प्रवेशिका ९. चरणानुयोग प्रवेशिका १०. तत्त्वार्थसूत्र हिन्दी टीका २५६ भारतवर्षीय दि० जैनसंघ चौरासी. मथरा प्रथम २४६६ जैनसंघ १९५२ ११. दक्षिण भारतमें जैनधर्म १२. प्रमाणनय निक्षेप वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट १३. भगवान महावीरका अचेलक धर्म (ब) संपादित व अनुवादित कृतियाँ १४. जयधवला खण्ड १-१३ (संपादन व सहसंपादन) जैनसंघ (१) १९७४, (२) १९४८, (३) ५४, (४-५) ५६, (६-७) ५८, (८) ६१, (९) ६३, (१०) ६७, (११) ६८, (१२) ७१, (१३) ७२ १५. सत्प्ररूपणा सूत्र वर्णी ग्रन्थमाला १९७१ १६. नयचक्र २७६ भारतीय ज्ञानपीठ १७. सागारधर्मामृत १८. अनागारधर्मामृत ७३४ १९७७ १९, गोम्मटसार जीवकांड ५०४ १९७८ २०. गोम्मटसार कर्मकाण्ड २१. उपासकाध्ययन २२. समणसुत्तका हिन्दी गद्यानुवाद सर्वसेवासंघ २३. न्यायकुमुदचन्द्रकी भूमिका भारतीय ज्ञानपीठ १९३८ २४. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा ४९१ परमश्रुतप्रभावकाण्ड अगास १९६० २५. भगवती आराधना-१ जै० सं० संरक्षक संघ, शोलापुर २६. भगवती आराधना-२ ९५१ १९७८ २७. कुन्दकुन्द प्राभृत-संग्रह २२८ २८. भगवान महावीरका जीवनचरित वीर सेवा० मं० ट्रस्ट १९७५ २९. कल्याणमन्दिर २२४ श्री मामचन्द्र जैन ट्रस्टी १९७० -१०० Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म : एक समीक्षा डॉ० विद्याधर जौहरपुरकर, जबलपुर प्राचीन समयमें धर्म और दर्शनके विद्वान् आचार्योंसे अपेक्षा की जाती थी कि वे स्वसमय और पर समय ( अपने सम्प्रदायके शास्त्र और दूसरे सम्प्रदायोंके शास्त्रों ) के ज्ञाता हों। परन्तु दूसरे सम्प्रदायोंके ग्रन्थोंका अध्ययन प्रायः खण्डन करनेक दृष्टिसे ही किया जाता था। उसमें वस्तुनिष्ठ दृष्टि प्रायः नहीं होती थी । उन्नीसवीं शताब्दोमें पाश्चात्य विद्वानोंने भारतीय साहित्यका जो अध्ययन किया, उसमें खण्डनकी दष्टि प्रायः नहीं थी । अतः धर्म और दर्शनके अध्ययनमें स्वस्थ निष्पक्षताका उदय हआ। उनकी प्रेरणासे भारतीय विद्वानोंमें भी एक दूसरेके मतोंको सहानुभतिसे समझनेकी भावना उत्पन्न हई। फलस्वरूप ऐसे ग्रन्थोंकी आवश्यकता अनुभव हुई जिनमें विभिन्न परम्पराओंके आधारभूत सिद्धान्तोंका परिचय सरल भाषामें प्राप्त हो। जैन विद्याके क्षेत्रमें जार्ज बलरका 'दि सेक्ट आफ दि जैनाज', श्रीमती स्टीवेन्सनका 'दि हार्ट आफ जैनिज्म', श्री पूरणचन्द्र नाहरका 'दि एपी टोन आफ जैनिज्म' और जुगमन्दरलाल जैनीका 'आउट लाइन्स आफ जैनिज्म' नामक ग्रन्थोंका इस दृष्टिसे उल्लेखनीय स्थान है। ये सब अंग्रेजीमें थे, अतः बहसंख्यक भारतीय अध्येताओंके लिए दुर्गम थे। साथ ही इसमें पहले तीन मुख्यतः श्वेताम्बर सम्प्रदायसे प्राप्त सामग्री तक सीमित थे और चौथा केवल दर्शन पक्षको प्रस्तुत करता था। अतः राष्ट्रभाषामें जैन परम्पराके विविध पक्षोंको सरल रूपमें प्रस्तुत करनेकी आवश्यकता बनी रही। श्रद्धेय पं० कैलाशचन्द्रजीका 'जैनधर्म' इस आवश्यकताकी पूर्तिका सफल प्रयास सिद्ध हआ। सन् १९४८ में इसका पहला संस्करण स्व० सम्पूर्णानन्दजीके प्राक्कथनके साथ प्रकाशित हआ और उसका अभूतपूर्व स्वागत हुआ। उज्जैनके श्री लालचन्द्रजी सेठीने और फिर उत्तर प्रदेश सरकारने उसे पुरस्कृत किया । अनेक महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयोंके पाठ्यक्रममें उसे स्थान मिला। दो वर्षों में ही उसका दूसरा परिवर्तित संस्करण प्रकाशित हआ और वह भी शीघ्र ही समाप्त होनेसे पाँच वर्ष बाद तीसरा संशोधित संस्करण निकला । समीक्षकोंके सुझावोंपर पूरा ध्यान देकर पण्डितजीने प्रत्येक संस्करणमें ग्रन्थके स्वरूपको परिश्रम पूर्वक निखारा । सन् १९६३ में शोलापुरकी जीवराज जैन ग्रन्थमालाने श्री प्रेमचन्द्र देवचन्द्र शाह द्वारा किया गया इसका मराठी अनुवाद प्रकाशित किया तथा अगले ही वर्ष इसी ग्रन्थमालामें श्री अण्णाराम मिर्जी द्वारा किया गया कन्नड़ अनुवाद भी प्रकाशित हुआ। - इस ग्रन्थमें लगभग चार सौ पृष्ठोंमें जैन परम्पराका सर्वांगीण परिचय मिल जाता है। पहले अध्यायमें जैनधर्मके प्रवर्तक तीर्थंकरोंके परिचयके साथ भारतके विभिन्न प्रदेशोंमें जैन परम्पराकी उन्नतिका संक्षिप्त, साधार विवरण है। दूसरे अध्यायमें दर्शनके क्षेत्रमें जैनोंके विशिष्ट योगदान-अनेकान्तवादके परिचयके साथ द्रव्य, तत्त्व, कर्म और ईश्वर सम्बन्धी विचारोंका विवेचन है। तीसरे अध्यायमें गृहस्थों और मुनियोंके आचरणके नियमोंके विवेचनके साथ गुणस्थानोंकी चर्चा है । चौथे अध्यायमें दिगम्बर और श्वेताम्बर-दोनों सम्प्रदायोंके साहित्यका संक्षिप्त विवरण देते हुए पच्चीस प्रमुख आचार्योंका परिचय दिया गया है। पाँचवें अध्यायमें चित्रकला, मूर्तिकला और स्थापत्यकलाके क्षेत्र में जैनोंकी उपलब्धियोंकी चर्चा है। छठे अध्यायमें जैनोंके विभिन्न सम्प्रदायोंका परिचय है । सातवें अध्यायमें प्रमुख जैन वीरोंके परिचयके बाद जैन पर्वो और तीर्थक्षेत्रोंका विवरण है तथा अन्य सम्प्रदायोंमें जैनोंके विषयमें प्रचलित भ्रान्त धारणाओंको दूर करनेका प्रयत्न भी किया है। विभिन्न प्रसिद्ध ग्रन्थोंके कुछ भावपूर्ण सुभाषित वचनोंसे इस अध्ययन और ग्रन्थको समाप्त किया गया है। प्रत्येक अध्यायमें आधारपभूत प्राकृत और संस्कृत उद्धरणोंके अतिरिक्त -१०१ - Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्चात्य और जैनेतर भारतीय पण्डितोंके अभिमतोंके सन्दर्भ भी दिये गये हैं जिनसे विस्तृत अध्ययनके इच्छुक लाभ उठा सकते हैं । प्राचीन भारतीय इतिहासकी सामग्री दो शताब्दियोंके विद्वानोंके परिश्रमके बाद भी अनेक विषयों में परिपूर्ण नहीं हो पायी है । अतः अनेक आचार्यों, ग्रन्थों और क्षेत्रोंके सम्प्रदाय और समयके विषय में परस्परविरोधी विवरण विभिन्न ग्रन्थों में मिलते हैं । इसलिए सम्भव है कि इस ग्रन्थके कुछ विवरण भी मतभेदका विषय बनें । परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि विद्वान लेखकने यथासम्भव निष्पक्ष रूपसे सब उपलब्ध सामग्रीका उपयोग किया है । न्यायकुमुदचन्द्र और जयधवला जैसे कठिन ग्रन्थोंके सम्पादन में अनेक वर्ष व्यतीत करने के बाद भी, पण्डितजीने इस ग्रन्थमें अत्यन्त सुबोध भाषाका प्रयोग किया है, यह भी उनकी विशेष सफलता है । वे एक प्रथितयश वक्ता हैं, वक्तृत्वके आवश्यक गुणोंमें सुबोधताका स्थान पहला है । पण्डितजीके इस ग्रन्थको पढ़ते समय अनेक बार अच्छा भाषण सुनने जैसा आनन्दका अनुभव होता है । 'जैनधर्म' एक ऐसा ग्रन्थ है जो जैन और जैनेतर—दोनोंके लिये उपयोगी है । वर्तमान समयके जैन युवक जिन्हें प्राचीन भाषाओंके अध्ययनका अवसर नहीं मिलता या उसमें रुचि नहीं होती, इसके द्वारा विशाल प्राचीन साहित्यके सारभागसे परिचित हो सकते हैं और अधिक अध्ययनके लिये प्रेरित हो सकते हैं । जैनेतर विद्वान भी इस ग्रन्थ द्वारा जैन परम्पराके विविध अंगोंका साधार परिचय संक्षिप्त समयमें प्राप्त कर सकते हैं । विभिन्न सम्प्रदायोंमें सौमनस्य के साथ परस्पर परिचय बढ़ानेकी दिशामें इस ग्रन्थकी बड़ी उपयोगिता है । जैन साहित्यका इतिहास : एक समीक्षा महामहोपाध्याय डॉ० हरीन्द्रभूषण, उज्जैन जैन साहित्य के इतिहासके लेखनकी ओर जैन विद्याके पण्डितोंने उतना ध्यान नहीं दिया जितना आवश्यक था । यही कारण है कि भारतीय साहित्य में जैन साहित्यका अतिशय महत्त्व होते हुए भी इसके प्रति भारतीय विद्या विद्वानोंका झुकाव कम रहा है । सबसे पहले जर्मन भारतविद् डॉ० विष्टरनित्सने जर्मन भाषामें भारतीय भाषाका इतिहास लिखा जिसके एक संक्षिप्त अध्यायमें जैन साहित्यका विवरण है । इस ग्रन्थका अंग्रेजी तथा हिन्दी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। श्री मोहनचन्द्र दलीचन्द देसाईने गुजराती भाषामें 'जैन साहित्य नो इतिहास' नामक ग्रन्थ लिखा जो जैन श्वेताम्बर कान्फरेन्स, बम्बईसे प्रकाशित है । आजकल कुछ जैन साहित्यके और भी इतिहास प्रकाशित हुए हैं । किन्तु इन सभी ग्रन्थोंमें श्वेताम्बर जैन साहित्यको ही प्रधान रूपमें अपनाया गया है। अभी तक दिगम्बर जैन साहित्यका कोई क्रमबद्ध इतिहास नहीं था । पं० कैलाशचन्द्रजीने लिखा है, "दिगम्बर जैन समाजमें सर्वप्रथम इस विषयकी ओर पं० नाथूराम प्रेमी तथा पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारका ध्यान गया । इन दोनों आदरणीय व्यक्तियोंने अपने पुरुषार्थ और लगन के बलपर अनेक जैनाचार्यो और जैन ग्रन्थोंके इतिवृत्तोंको खोजकर जनताके सामने रखा। आज के जैन विद्वानोंमेंसे यदि किन्हींको इतिहासके प्रति अभिरुचि है तो, उसका श्रेय इन्हीं दोनों विद्वानोंको है । कमसे कम मेरी अभिरुचि तो इन्हींके लेखोंसे प्रभावित होकर इस विषयकी ओर आकृष्ट हुई । "9 १. पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री जैन साहित्यका इतिहास - पूर्व पीठिका, लेखक के दो शब्द, पृष्ठ १५ । - १०२ - Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमें यह सूचित करते हुए प्रसन्नता और गौरवका अनुभव होता है कि जैनधर्म और दर्शनके प्रसिद्ध विद्वान पण्डितप्रवर श्री कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने दि० जैन साहित्यका इतिहास तीन भागोंमें लिखकर उस कमी को बहुत कुछ पूरा किया। ये तीन भाग हैं : (१) जैन साहित्यका इतिहास - पूर्वपीठिका, (२) जैन साहित्यका इतिहास - प्रथम भाग तथा (३) जैन साहित्यका इतिहास द्वितीय भाग । ये तीनों ग्रन्थ श्री गणेशप्रसाद वर्णो जैन ग्रन्थमालासे क्रमशः १९६३, १९७५ तथा १९७६ में प्रकाशित हुए हैं । जैन साहित्यका इतिहास पूर्वपीठिका विवरण सन् १९५४ में जैन साहित्य के इतिहासको लिखे जानेकी एक रूप-रेखा स्व० पं० महेन्द्र कुमारजी तथा पं० फूलचन्द्रजी शास्त्रीके साथ पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने तैयार की थी जो पुस्तिकाके रूपमें प्रकाशित कर दी गयी थी । प्रस्तुत ग्रन्थ उसी रूपरेखाके अनुसार लिखा गया है। इसका खोजपूर्ण प्राक्कथन भारतीय विद्याओंके प्रसिद्ध विद्वान डॉ० वासुदेवशरण अग्रवालने लिखा है। इस ग्रन्थमें जैनधर्मकी मूल स्थापनासे लेकर संघभेद तकके सुदीर्घ काल तकका इतिहास लिखा गया है । इसमें श्रमण परम्पराका इस देशमें जिस प्रकार विकास हुआ, उसका विवेचन किया गया है । डॉ. अग्रवालने अपने 'प्राक्कथन' में जिन महत्त्वपूर्ण तथ्योंकी ओर संकेत किया है, वे इस प्रकार हैं : १. जैनधर्मकी परम्परा अत्यन्त प्राचीन है । २. भागवत में इस बात का उल्लेख है कि महायोगी भरत, ऋषभके शतपुत्रोंमें जेष्ठ थे और उन्हीं के नामसे यह देश भारत वर्ष कहलाया । ३. जैन और कुछ जैनेतर विद्वान भी सिन्धुघाटी सभ्यताकी पुरुषमूर्तिकी नग्नता और कायोत्सर्ग मुद्रा आधारपर उसे ऐसी प्रतिमा समझते हैं जिसका सम्बन्ध किसी तीर्थकरसे रहा है । ४. इस देशमें प्रवृत्ति और निवृत्ति की दो परम्परायें ऋषभदेवके समय में प्रचलित थीं । निवृत्ति परम्पराको मुनि परम्परा कहा जाता था । ऋग्वेद ( १०-१७) में सात वातरशना मुनियोंका वर्णन है । वातरशनाका वही अर्थ है जो दिगम्बरका है । ५. श्रमण परम्पराके कारण ब्राह्मण धर्ममें वानप्रस्थ और संन्यासको प्रश्रय मिला । पूरे ग्रन्थको चार खण्डों में विभाजित किया गया है ( १ ) जैनधर्मके इतिहासकी खोज, (२) प्राचीन स्थितिका अन्वेषण, (३) ऐतिहासिक युगमें तथा ( ४ ) श्रुतावतार | 'जैन धर्म के इतिहासकी खोज' नामक खण्डमें पाश्चात्य विद्वानोंमें जैन धर्मके सम्बन्धमें मतभेद, याकोबी और बूहलरकी खोजें तथा जैन धर्मकी प्राचीनतापर प्रकाश डाला गया है। पाश्चात्य विद्वानों में कोलबुक, स्टीवेन्सन और थामसका विश्वास था कि बुद्ध, जैन धर्मके संस्थापकका विद्रोही शिष्य था । किन्तु उससे भिन्न मत एच०एन० विलसन, बेवर और लार्सनका था । उनके मतानुसार जैनधर्म बौद्ध धर्मकी एक प्राचीन शाखा थी । 'प्राचीन स्थितिका अन्वेषण' नामक खण्डमें वेद, आरण्यक उपनिषद् और सिन्धुघाटी की सभ्यतामें श्रमण-संस्कृति के तत्त्वोंका अन्वेषण किया गया है जिनमें ऋग्वेदमें प्राप्त पणि, वातरशना ( दिगम्बर ), शिश्नदेव, हिरण्यगर्भ ( जिसकी तुलना ऋषभदेवसे की गयी है ) आदिकी समीक्षा की गयी है । डॉ० राधाकृष्णन्‌के अनुसार वेदोंमें ऋषभदेव आदि तीर्थंकरोंके नाम पाये जाते हैं । भागवत में ऋषभदेवका चरित्र वर्णित है । इस खण्ड में जैन पुराणोंमें श्री कृष्ण, बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथकी ऐतिहासिकता, द्रविड़ सभ्यता और जैनधर्म आदिका विस्तारके साथ वर्णन है । - १०३ - . Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ऐतिहासिक युग' नामक खण्डमें भगवान् पार्श्व एवं महावीरके जीवनका सम्पूर्ण विवरण, भद्रवाहु और चन्द्रगुप्त, अर्द्धफालक सम्प्रदाय, संघ भेदके मूल कारण वस्त्रपर विचार, गोशालकका जीवनवृत्त आदिका सविस्तार वर्णन है। 'श्रुतावतार' नामक खण्डमें, आगमसंकलना, जैन आगम और दिगम्बर परम्परा, बारह अंग, दृष्टिवाद अंगका लोप, दृष्टिवादमें वर्णित विषय, ३६३ मत, श्वेताम्बर परम्परामें श्रुत भेद, एकादश अंगोंका परिचय, पूर्वोसे अंगोंकी उत्पत्ति, उपांग, छेदसूत्र, मूलसूत्र तथा पइन्ना आदिका वर्णन है । इस प्रकार जैन साहित्यके इतिहासको पूर्व पीठिकामें जैन साहित्यका निर्माण जिस पृष्ठभूमिपर हुआ है, उसका चित्रण करने के लिये जनधर्मके प्राग इतिहासको खोजनेका प्रयत्न किया गया है। जैन साहित्यके इतिहासका चित्रण तो आगेके दो भागोंमें है। जैन साहित्यका इतिहास-प्रथम भाग इस ग्रन्थमें दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थोंका विस्तारके साथ परिचय दिया गया है । यह ग्रन्थ दो भागोंमें विभक्त है। प्रथम भागके चार अध्याय हैं और द्वितीय भागको पंचम अध्यायके रूपमें निबद्ध किया गया है। __प्रथम अध्यायके तीन परिच्छेदमेंसे प्रथम परिच्छेदमें 'कसाय पाहुड', उसके रचयिता आचार्य गुणधर, उनके उत्तराधिकारी आर्यमंक्षु और नागहस्ती, कसायपाहुडकी गाथा संख्या, शैली, विषय परिचय तथा कर्म सिद्धान्तका वर्णन है। द्वितीय परिच्छेदमें छक्खण्डागम (षट्खण्डागम ), उसका रचनाकाल, रचनास्थान, रचयिता आचार्य पुष्पदन्त और भूतबली, ग्रन्थका नाम सतकर्म प्राभूत, तीर्थंकर महावीरकी वाणीसे इसका सम्बन्ध और स्रोतका विवरण है । इस ग्रन्थमें निम्न पाँच खण्डोंका विषय परिचय दिया गया है : १. जीवट्ठाण, २. खुद्दाबन्ध, ३. बन्धसामित्तविचय, ४. वेदनाखण्ड तथा ५. वर्गणाखण्ड । तृतीय परिच्छेदमें महाबन्ध नामक छठे खण्डका विस्तारके साथ परिचय दिया गया है। द्वितीय अध्यायमें चूणि साहित्यका वर्णन है। दिगम्बर परम्परामें मूल सिद्धान्त ग्रन्थोंके कुछ ही समय पश्चात् चूणि साहित्य लिखा गया। बीज पदरूप गाथा सूत्रोंपर ये चूर्णिसूत्र, वृत्तिका कार्य करते हुए भी अनंक नयं तथ्योंको सूत्र रूपमें प्रस्तुत करते हैं । उदाहरणार्थ, 'कसाय पाहुड', पर आचार्य यतिवृषभने चूर्णिसूत्र लिखे हैं। इस अध्यायमें चूर्णिसूत्रोंकी रचना और व्याख्यान शैली, उनका ऐतिहासिक महत्त्व, यतिवृषभकी रचनायें, चूर्णिसूत्रोंकी विषयवस्तु आदिपर अच्छी तरह प्रकाश डाला गया है। तृतीय अध्यायके दो परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेदमें आचार्य वीरसेन द्वारा रचित छह खण्डोंपर बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण संस्कृतमिश्रित प्राकृत भाषामें धवला नामक टीकाका विस्तारके साथ वर्णन है । टीकाका नामकरण. महत्त्व, प्रामाणिकता, व्याख्यान शैली, विषय-परिचय, आचर्य वीरसेनका परिचय, उनका समय और उनकी रचनायें आदिका इसमें समहार है । द्वितीय परिच्छेदमें जयधवला नामक टीकाका विवरण है। यह टीका धवला टीकाके पश्चात् महत्त्वपूर्ण टीका है। यह टीका कसायपाहुड़ पर लिखी गई है और इसके टीकाकार हैं आचार्य वीरसेन और उनके योग्य शिष्य आचार्य जिनसेन । जयधवला टीकाको साठ हजार श्लोकप्रमाण बतलाया गया है। उसे तीन स्कंधोंमें विभाजित किया गया है। प्रदेश विभक्ति पर्यन्त प्रथम स्कन्ध; संक्रम, उदय और उपयोग पर्यन्त द्वितीय स्कन्ध तथा शेष भाग तृतीय स्कन्ध । ततीय परिच्छेदमें छक्खंडागमकी अन्य टीकाओंका विवरण है। वीरसेन स्वामीकी प्रसिद्ध धवला टीकाके अतिरिक्त छक्खंडागम पर अन्य टीका भी लिखी गई। कुन्द-कुन्दने परिकर्म टीका, शामकुण्डने -१०४ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्धति टीका, तु बलूसाचार्यने चूड़ामणि टीका, वप्पदेवने व्याख्याप्रज्ञप्ति और सुप्रसिद्ध तार्किक समन्तभद्रने संस्कृत टीका लिखी है । चतुर्थ अध्याय में अन्य कर्म साहित्यका वर्णन । छक्खंडागम, कसायपाहुड आदि मूल आगम ग्रन्थोंके अतिरिक्त कर्मविषयक अन्य प्राचीन साहित्य भी उपलब्ध है । यह साहित्य आगमानुसारी है और इसका रचनाकाल विक्रमकी पाँचवीं शताब्दीसे लेकर नवम शताब्दी तकका है । इस अध्याय में प्राचीन कर्म साहित्यका इतिहास प्रस्तुत है । यहाँपर कर्म प्रकृति, बृहत्कर्मप्रकृति, शतक चूर्णि सित्तरी, कर्मस्तव, प्राकृत पंचसंग्रह आदि ग्रन्थोंका विचार किया गया है । इस ग्रन्थ द्वितीय भाग रूप पंचम अध्यायमें उत्तरकालीन कर्मसाहित्यपर विचार किया गया है जो इस प्रकार है : लक्ष्मणसुत डड्ढा कृत पंचसंग्रह, अमितगतिकृत संस्कृतपंचसंग्रह, विक्रमकी ११वीं शताब्दीके दक्षिणके आचार्य नेमिचन्द्रकृत गोम्मट्टसार, ( दो भाग जीवकाण्ड तथा कर्मकाण्ड) तथा लब्धिसार क्षपणा सार, देवसेनकृत भावसंग्रह, गोविन्दाचार्य रचित कर्मस्तववृत्ति जिनवल्लभगणि रचित षड्शीति, देवेन्द्रसूरि रचित नवीन कर्मग्रन्थ (कर्म विषाक, कर्मस्तव, बन्धस्वामित्व, षडशीति और शतक), श्रुतमुनिकी रचनायें भावत्रिभंगी तथा आस्रवत्रिभंगी, पंचसंग्रहकी प्राकृत टीका, सिद्धान्तासार, सकल कीर्तिका कर्मविपाक आदि । जैन साहित्यका इतिहास द्वितीय भाग इस ग्रन्थमें भूगोल, खगोल तथा द्रव्यानुयोग (अध्यात्म और तत्त्वार्थ) विषयक साहित्यका इतिहास है । इसे पाँच अध्यायोंमें विभक्त किया गया है । प्रथम अध्यायमें भूगोल- खगोल विषयक साहित्य, द्वितीय अध्याय में द्रव्यानुयोग ( अध्यात्म) विषयक मूल साहित्य, तृतीय अध्याय में अध्यात्म विषयक टीका साहित्य, चतुर्थ अध्यायमें तत्त्वार्थ विषयक मूल साहित्य तथा पंचम अध्यायमें तत्त्वार्थ विषयक टीका साहित्यका विस्तार के साथ वर्णन है । भूगोल- खगोल विषयक साहित्यमें तिलोयपण्णत्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, ज्योतिष्करण्डक, बृहत्क्षेत्र समास, बृहत्संग्रणी, नेमिचन्द्रकृत त्रिलोकसार, माधवचन्द्र त्रैविद्यकृत त्रिलोकसार टीका, जम्बूदीप पण त्ति संग्रह, सिंहसूरिरचित संस्कृतलोकविभाग, तथा प्रवचनसारोद्वार का वर्णन है । द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक साहित्य में आचार्य कुन्दकुन्द और उनकी रचनायें - दर्शनप्राभृत, चारित्रप्राभृत, सूत्रप्राभृत, बोधप्राभृत, रयणसार, बारह अणुवेक्खा समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय और नियमसार, पूज्यपाद देवनन्दि और उनकी रचनायें - इष्टोपदेश और समाधितंत्र, जो इन्दु योगोन्दु और उनकी रचनायें - परमात्मप्रकाश तथा योगसारका वर्णन है । अध्यात्मविषयक टीका साहित्यमें, टीकाकार अमृतचन्द्रसूरि और उनकी रचनाएँ - पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, तत्त्वार्थसार, समयसार - टीका ( आत्मख्याति), प्रवचनसार - टीका ( तत्वदीपिका तथा पञ्चास्तिकाय टीका ( तत्वप्रदीपिका - वृत्ति), पद्मनन्दिकृत निश्चयपञ्चाशत्, टीकाकार जयसेन और कुन्दुकुन्दुके समयसार तथा पञ्चास्तिकायपर रचित उनकी टीकायें, प्रभाचन्द्रकृत समयसार टीका, टीकाकार पद्मप्रभ मलधारिदेव और कुन्दकुन्दके नियमसारपर उनकी टीका, आशाधरकी इष्टोपदेश टीका, टीकाकार ब्रह्मदेव और उनकी परमात्मप्रकाश - टीका तथा बृहद्दव्यसंग्रह टीका एवं अध्यात्मरसिक उपाध्याय यशोविजय तथा उनके अध्यात्मसार और अध्यात्मोपनिषद्का वर्णन ९ ! तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य में आचार्य कुन्दकुन्दके पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार तथा नियमसार एवं आचार्य गृद्धपिच्छ और उनके तत्त्वार्थसूत्रका वर्णन है । १४ १०५ - Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थविषयक टीका साहित्यमें आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि और उनकी रचनाएँ - जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, जैनाभिषेक, छन्दः शास्त्र और समाधिशतक, आचार्य अकलंकदेव और उनका तत्त्वार्थवार्तिक, आचार्य सिद्धसेनगणि और उनकी तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति, मुनि नेमिचन्द्र रचित द्रव्यसंग्रह, प्रभाचन्द्र कृ तत्त्वार्थवृत्तिटिप्पण, टीकात्रय ( प्रवचनसार, पंचास्तिकाय तथा समयसार पर टीकाएँ) और द्रव्यसंग्रहवृत्ति, आचार्य नरेन्द्रसेन और उनका सिद्धान्तसार-संग्रह, बृहत्प्रभाचन्द्रकृत लघुतत्त्वार्थसूत्र, प्रभाचन्द्ररचित अर्हतप्रवचन, माघनन्दि योगीन्द्र रचित शास्त्रसारसमुच्चय, ब्रह्मदेवकृत द्रव्यसंग्रह - टीका, भास्करनन्दि कृत तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति, तत्त्वार्थसूत्रकी दो अप्रकाशित टोकायें, तत्त्वार्थसूत्रकी हरिभद्रीय टीका तथा श्रुतसागर सूरि और तत्त्वार्थसूत्र पर उनकी श्रुतसागरीवृत्तिका विवरण है । इस प्रकार तीन भागोंमें निबद्ध जैन साहित्यके इस सम्पूर्ण इतिहास में जैनधर्मकी मूल स्थापनासे लेकर संघभेद, जैनागम साहित्य — कसायपाहुड़, षट्खण्डागम, महाबन्ध, चूर्णियाँ, उनकी धवला और जयधवला तथा अन्य टीकायें, अन्य कर्मसाहित्य, भूगोल, खंगोल, द्रव्यानुयोग, तत्वार्थ साहित्य और उनकी टीकाओं —प्रटीकाओं पर विस्तारके साथ विचार किया गया है । इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में अभी तक यत्र-तत्र बिखरे हुए सूत्रोंको जोड़कर दिगम्बर जैन साहित्यका जो एक क्रमबद्ध इतिहास लगभग १६०० पृष्ठोंमें प्रस्तुत किया गया है, वह इतिहास, साहित्य और शोध साहित्यसभी दृष्टियोंसे अत्यन्त महनीय है । पण्डितजीको भाषा अत्यन्त सरल एवं शैली सीधी विषयका प्रतिपादन करनेवाली है । जो भी कथन इस ग्रन्थमें निबद्ध हैं, वे सभी अत्यन्त प्रामाणिक रूपसे प्रस्तुत किये गए हैं । यत्र-तत्र समान श्वेताम्बर साहित्यकी भी तुलना की गई है । ग्रन्थके अन्तमें अकारादि क्रमसे ग्रन्थ एवं ग्रन्थकर्ताओंकी सूची भी दी गई है । आदरणीय कैलाशचन्द्र शास्त्रीने प्रथमवार जो दि० जैन साहित्यका व्यवस्थित इतिहास प्रस्तुत किया है, उसके लिये वे न केवल जैन साहित्य के इतिहासमें प्रत्युत भारतीय साहित्यके इतिहास में सदैव स्मरण किये जाते रहेंगे । जैन न्याय : एक समीक्षा अन्यायी सामान्यतः पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीको धार्मिक विषयोंका विद्वान् माना जाता है । उन्होंने स्याद्वाद महाविद्यालय में हमारे जैसे लोगोंको धर्म या सिद्धान्त ग्रन्थ ही पढ़ाये । इसलिये उनके द्वारा रचित जैन न्याय देखकर प्रथम दृष्टिमें आश्चर्य ही होता है । इस ग्रन्थको पढ़नेसे पता चलता है कि वे वास्तवमें न्यायतीर्थ भी हैं । धार्मिक मान्यताओंके लिए आगम या श्रद्धाका ही महत्त्व है । सम्भवतः तर्क और बुद्धि इस क्षेत्रमें उतने उपयोगी प्रमाणित नहीं होते । लेकिन आगमोंके सिद्धान्तोंको बौद्धिक धरातल पर स्पष्टतः सुविचरित करनेके लिए उत्तर भाग में न्यायशास्त्रका विकास किया गया है और उनपर पर्याप्त ऊहापोह हुआ है । यह बौद्धिक ऊहापोह निश्चित ही सिद्धान्तोंकी तुलनामें जटिल होता है और सामान्य जनकी समझमें कठिनाई से ही आता है । यहाँ दृश्य जगतके माध्यम से अदृश्य जगतकी धारणायें या तत्त्व सिद्ध किये जाते हैं । इस क्षेत्रमें अनुमान मुख्य योगदान करता है । यह मानवके अन्तर और बाह्यके सूक्ष्म निरीक्षण और परीक्षणकी प्रवृत्तिका द्योतक होता है । निर्दोष अनुमानके लिए यह प्रवृत्ति अत्यन्त सूक्ष्म और तीक्ष्ण होनी चाहिये । जैन न्यायके रचयिताके नाते सर्वप्रथम हमें लेखककी इस वृत्तिका १०६ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय तो मिलता ही है। इस ग्रन्थको पढ़नेसे पता चलता है कि लेखकने पूर्वाचार्यों द्वारा रचित न्याय ग्रन्थोंका गम्भीर आलोड़न किया है और उसे सहज बोधगम्य भाषामें विषयवार प्रस्तुत किया है। पं० गोपीनाथ कविराजके अनुसार जैन न्यायके कुछ महत्वपूर्ण पक्षको समझने के लिए यह ध्यानपूर्वक लिखी गई पुस्तक लेखकके तीक्ष्ण अध्ययन और सुस्पष्ट लेखनकी कलाका फल है। प्रस्तुत पुस्तकके लिए लेखकको १९२१ में प्रेरणा मिली थी और तबसे विचारोंको कार्यरूपमें परिणत करने में कोई पच्चीस वर्ष लग गये न्यायके समान असामान्य विषयकी पुस्तकका प्रकाशन भी एक समस्या माननी चाहिये। यही कारण है कि उसे प्रकाशित होने के भी बीस वर्षका समय लग गया । प्रसन्नता इस बात की है कि इसे भारतीय ज्ञानपीठ जैसी विश्रुत संस्थाने १९६६ में प्रकाशित किया जिससे यह अधिकाधिक पाठकोंकी दृष्टि और परखमें पहुँच सके। इस पुस्तकके पूरकके रूपमें दलसुख भाई मालवणियाका आगम युगका जैनदर्शन भी इसी वर्ष प्रकाशित हुआ जो प्रमाण व्यवस्था युगकी पूर्ववर्ती न्यायतन्त्रकी मान्यताओंको प्रस्तुत करता है । सामान्यतः जैनदर्शन के सम्बन्ध में अनेक ग्रन्थ हिन्दी और अंग्रेजीमें लिखे गये हैं जिनमें लोकव्यवस्था प्रमेयनिरूपण, कर्मसिद्धान्त के साथ-साथ प्रमाण - मीमांसा भी दी गई है । लेकिन ऐसे ग्रन्थोंमें प्रमाणोंका सामान्य विवरण ही मिल सकता है, पूर्ण शास्त्रीय विवरण नहीं । यह ५० - १९४ पृष्ठोंका सीमित रहे हैं। फलत जन प्रमाण-मीमांसाके सम्बन्धमें हिन्दी में एक विशिष्ट ग्रन्थकी आवश्यकता रही है। प्रस्तुत ग्रन्थने उस कमीको पूरा किया है, यह निःसन्देह कहा जा सकता है। इसका ३०० पृष्ठीय विवरण जैन प्रमाणशास्त्र की पृष्ट आधारशिलाका काम करता है। विषय-विवरण , ग्रन्थके विवरणको विषयवार सात अध्यायों में प्रस्तुत किया गया है। : १. पृष्ठभूमि २ प्रमाण, ३. प्रमाण के भेद ४ परोक्ष प्रमाण ५. श्रुतके दो उपयोग, ६ प्रमाणका फल और ७. प्रमाणाभास । इनमें प्रथम चार अध्याय ग्रन्थका ८५ प्रतिशत कलेवर बनाते हैं । यहाँ ग्रन्थके प्रमुख पाँच अध्यायोंकी विषय वस्तुपर विचार किया गया है। प्रथम अध्यायमें भारतीय और जैन न्यायका ऐतिहासिक विवरण देते हुए इसके प्रारम्भ व विकासमें आ० कुंदकुंद, उमास्वाति, स्वामी संगतभद्र, सिद्धसेन दिवाकर, पात्रकेसरी, भट्ट अकलंक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र वादिदेय, हेमचन्द्र और यशोविजय सूरि आदि प्रमुख आचार्यक योगदानका अनेक उद्धरणों सहित निरूपण किया गया है। यद्यपि उन्होंने जैन दर्शनके समान जैन न्यायके विकासको चार काल कोटियोंमें वर्गीकृत नहीं किया है, फिर भी उनके विवरण से ये काल कोटियां स्वतः स्पष्ट हो जाती हैं । आ० समन्तभद्र, अकलंक और विद्यानन्दके योगदानको विशेषतः निरूपित करते हुए प्रत्यक्ष परोक्षकी परिभाषा, प्रमाण लक्षण तथा प्रमाण फल आदिकी चर्चा करते हुए उनके न्याय साहित्यका संक्षिप्त परिचय भी दिया है । इस अध्याय में विभिन्न दर्शनोंके मूल ग्रन्थों तथा सम्बन्धित साहित्य के ३५ सन्दर्भ दिये गये हैं । इनके आधारपर लेखककी गहन अध्ययनशीलता अध्ययनको संक्षिप्त व रोचक रूपमें प्रस्तुत करनेकी क्षमता एवं तुलनात्मक अध्ययनकी प्रेरक प्रवृत्तिका सहज ही भान हो जाता है। द्वितीय अध्यायमें ७२ सन्दर्भों के माध्यम से प्रमाण और प्रामाण्यपर विचार किया गया है। जैन दार्शनिकों द्वारा ४-१२ वीं सदी तक दी गयी प्रमाणकी विभिन्न परिभाषाओंका विवेचेन करते हुए 'स्त्रापूर्वाव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' की विशेष चर्चा की गयी है। अनधिगत और अपूर्व पदोंके सम्बन्ध में विद्यमान मतवादोंकी शास्त्रीय विवेचना करते हुए यह बताया गया है कि जहाँ दिगम्बर परम्परामें धारावाहिक ज्ञानकी प्रमाणत के विषयमें विवाद है, वहीं श्वेताम्बर परम्परा उसे प्रमाण ही मानती है । - १०७ - Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह ग्रहीतग्राहीके समान अग्रहीतग्राहीको भी समान रूपसे प्रमाण मानती है। हेमचन्द्र की प्रमाण-मीमांसाका विवरण इसका प्रमाण है। निष्कर्षतः उन्होंने बताया कि 'स्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' का मत दोनों परम्पराओंमें स्वीकार्य है । संद्धान्तिक परिभाषाकी समीक्षाके उपरान्त अन्य दर्शनोंमें स्वीकृत प्रमाणकी परिभाषाकी भी शास्त्रीय समीक्षा की गयी है । इन्द्रियार्थ-संयोग स्वरूप संन्निकर्षको प्रमाण माननेवाले नैयायिकोंके मतकी समीक्षामें साधकतमत्वकी बात कहकर उसे शास्त्रीय अप्रमाणता दी गयी है। हाँ, सन्निकर्षको ज्ञानोत्पत्तिमें सहकारी कारण अवश्य स्वीकृत किया गया है । संन्निकर्षकी अप्रमाणिकताके विषयमें प्रभाचन्द्रके ग्रन्थोंके तर्कोको लेखकने व्यवस्थित कर रोचक बना दिया है। इसी सन्दर्भ में चक्षुकी अप्राप्यकारित्व सम्बन्धी मान्यताको शंका-समाधानके माध्यमसे निर्देशित किया गया है। इन प्रकरणोंको पढ़कर बीसवीं सदीका सामान्य शिक्षित व्यक्ति भी पदार्थके दर्शन और ज्ञानकी तत्कालीन प्रक्रियाको भलीभांति समझ सकता है। इसी प्रकार ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारकसाकल्य, इन्द्रियवृत्ति तथा ज्ञात व्यापारको साधकतमत्वताका प्रस्तुत अध्यायमें खण्डन किया गया है । ये सब साधक है, साधकतम नहीं। इसलिए इनको प्रमाणका मूल लक्षण नहीं माना जा सकता। ये ज्ञानकी प्रमाणतामें द्वितीयक साधकके रूप में ही रहते है। ज्ञानके प्रमाणको माननेवाले जैनोंके लिए ज्ञान शब्दसे सम्यक ज्ञान ही अभीष्ट होता है, मिथ्याज्ञान नहीं । मिथ्याज्ञानोंमें विपर्ययज्ञानको लेकर सात प्रकारके ख्यातिवाद प्रचलित हैं जिनके उत्तर में जैनोंने इसे विपरीतार्थख्यातिवादके रूपमें मान्यता दी है। विभिन्न ख्यातिवादोंके खण्डन-मण्डनको सामान्य जनको समझानेके लिए लेखकने शास्त्रीय मन्तव्योंको अत्यन्त ही सरल भाषामें प्रस्तुत कर यह प्रदर्शित किया है कि न्यायके समान जटिल विषयको भी सरल भाषाके माध्यमसे समझा जा सकता है। ज्ञानके प्रमाण माननेपर ज्ञानको अभिलक्षणित करना आवश्यक है। प्रमाण होनेके लिए ज्ञानको सर्वप्रथम सम्यग होना चाहिए। इसके अतिरिक्त वह निराकार होता है, बौद्धोंके समान अर्थाकार नहीं । यह प्रतिनियत सामर्थ्य के कारण प्रतिनियत अर्थको जानता है। इसी प्रकार ज्ञान स्वसंवेदी होता है, मीम.सक और नैयायिकोंके अनुसार परोक्ष या ज्ञानान्तरवेद्य नहीं। यह सांख्योंके समान जड़ भी नहीं होता, चेतन होता है । । ज्ञानमें प्रामाण्यकी उत्पत्ति परतः ही होती है । स्वतः नहीं । ज्ञानके इन अभिलक्षणोंसे सम्बन्धित तर्कोको भी सहज भाषामें प्रस्तुत किया गया है । तृतीय अध्यायमें ७५ सन्दर्भोके माध्यमसे प्रमाणके भेदों तथा सम्बन्धित प्रकरणोंके अतिरिक्त प्रत्यक्ष प्रमाणका शास्त्रीय विवरण दिया गया है। यद्यपि स्थानांग, अन्योगद्वार आदि ग्रन्थोंमें व्यवसाय, हेतु तथा प्रमाणको पर्यायवाची मानकर नैयायिकादि सम्मत तीन या चार प्रमाणोंका उल्लेख मिलता है, फिर भी पाँच ज्ञानोंको प्रमाण माननेकी प्रक्रियाका प्रारम्भ उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रसे ही मानना चाहिए। प्रमाणके भेदोंकी इस ऐतिहासिकताके परिप्रेक्ष्यमें लेखकके 'प्रमाणकी चर्चा दार्शनिक युगकी देन है', कथनमें कुछ संशोधन अपेक्षित है । यही नहीं उमास्वातिने अपनी स्वतंत्र बुद्धिका परिचय देते हुए पूर्वमें जैन ग्रन्थोंके वर्णित लौकिक परम्परामें परिभाषित प्रमाणोंकी आगमिक परिभाषा दी है तथा पांच ज्ञानोंको दो प्रमाणोंमें समाहित कर मति श्रुतको परोक्ष निरूपित किया। इससे दो प्रमुख समस्याएँ उठीं जिनका समाधान कुछ अंशोंमें सिद्धसेनने और पूर्ण अंशोंमें अकलंकदेवने किया। अकलंकने स्पष्टतः प्रत्यक्षको लौकिक और पारमार्थिक भेदोंमें विभाजित कर भारतीय न्यायकी पारिभाषिक शब्दावलीमें जहाँ एकरूपता स्थापित की, वहीं स्मृति आदिको शब्द-संसर्गपूर्वक होनेपर परोक्षमें और अन्यथा लौकिक अनिन्द्रिय प्रत्यक्षमें समाहित किया । श्रुत तो परोक्ष है ही। इन्द्रियजन्य ज्ञानको उन्होंने प्रत्यक्षमें ही समाहित कर दिया। यह पद्धति ही उत्तरवर्ती जैन न्यायविदोंने - १०८ - Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिवर्तित रूपसे अपनायी है। इस प्रकार ज्ञानको प्रमाण मानकर जैनोंने दो प्रमाणोंके अन्तर्गत प्रायः उन सभी प्रमुख प्रमाणोंको मान्यता दी जो अन्य दार्शनिकोंने माने हैं। इस प्रकार जैन दार्शनिकों द्वारा सात प्रत्यक्ष और पाँच परोक्ष कुल बारह प्रमाण माने गये हैं। यही नहीं, जैन दार्शनिकोंने उन दर्शनोंकी पर्याप्त समीक्षा की है जो इससे का प्रमाण मानते हैं। साथ ही ऐसे मतोंकी भी परीक्षा की है जो अर्थापत्ति, अभाव आदि अतिरिक्त प्रमाणोंको मानते हैं। इस परीक्षा और समीक्षाका लेखकने अच्छा विवरण प्रस्तुत किया है। इस अध्यायमें प्रसंगवश अन्य प्रकरण भी दिये गए हैं। उदाहरणार्थ, इन्द्रिय प्रकरणमें नैयायिक सम्मत इन्द्रियोंकी नितान्त पौद्गलिकताका खण्डन करते हुए भावन्द्रिय रूप योग्यतापूर्वक शक्तिको उद्भासन, सर्वज्ञताकी सिद्धि तथा ईश्वरवादका खण्डन इनमें प्रमुख हैं । इन प्रकरणोंका विवेचन मुख्यतः न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा अष्टसहस्रीपर आधारित है। ज्ञानके प्रमाण माननेपर ज्ञानोत्पत्तिमें कारणभूत इन्द्रिय और मनके अतिरिक्त कुछ लोग पदार्थ और प्रकाशको भी इसमें कारण मानते हैं। लेकिन जैन उसे स्वीकार नहीं करते । इसमें सम्बन्धित तर्कवादका संक्षेपण भी यहाँ दिया गया है । प्रत्यक्ष प्रमाणके विवरणमें सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके अन्तर्गत मतिज्ञानके भेदोंमें अवग्रहके विषयमें लेखकने दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यताओंका संक्षेपण और विभेद प्रदर्शित किया है । इसी प्रकार उन्होंने दर्शन और अवग्रहसे सम्बन्धित अकलंक और सिद्धसेनकी मान्यताओंकी भी विवेचना की है। ये प्रकरण लेखककी उदार और तीक्ष्ण दृष्टिके घोतक हैं । ऐसे सुक्ष्म विभेदोंका ज्ञान गहन अध्येता ही कर सकता है। यही नहीं, उन्होंने भावी अध्येताओंके लिए इन प्रकरणोंको गम्भीरतासे अध्ययन करनेका सुझाव भी दिया है क्योंकि दोनों मान्यताओंका अन्तर सूक्ष्म है। परोक्ष प्रमाणकी विशद विवेचना करने वाला चतुर्थ अध्याय जैन न्यायका सबसे बढ़ा अध्याय है जो ग्रन्थका लगभग एक तिहाई भाग है। इसके अन्तर्गत परोक्षके पाँच भेदोंका सांगोपांग शास्त्रीय विवेचन किया गया है। बौद्धोंके तर्कोका खण्डन करते हुए स्मृति और प्रत्यभिज्ञानकी प्रमाणताका पोषण, नैयायिकों एवं मीसांसकोंके उपमानका सादृश्य प्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव, साध्य-साधनके अभिनाभाव सम्बन्धरूप व्याप्ति ज्ञानात्मक तर्कशास्त्रको प्रमाणता तथा व्याप्तिकी प्रत्यक्षग्राहयता, पंचावयवी अनुमानकी प्रमाणता तथा हेतु भेदविषयक संक्षिप्त विवेचनके बाद दो तिहाई अध्यायमें आगम या श्रृत प्रमाणसे सम्बन्धित विविध प्रकारके विवरणों एवं समस्याओंका निरूपण है। श्रुतमें शब्दकी मुख्यता है । पर कुछ लोग शब्दको प्रमाण नहीं मानते, इसे अनुमानमें समाहित करते हैं। जैनोंका मत है कि शब्द और अनुमानमें विषयभेद, सामग्रीभेद, अन्वयवतिरेकाभाव, वक्तृइच्छा वाच्यताके कारण भेद स्पष्ट है। बौद्धोंके लिए जैनोंका उत्तर है कि शब्द और अर्थमें प्रतिनियत योग्यता सम्बन्ध है । यह चक्षुकी तरह अर्थमात्रको प्रकाशित करता है। यह अर्थज्ञानमें प्रत्यक्षादिकी तरह निमित है, अतः प्रमाण है। इसी प्रकार जैन मीमांसकोंकी तरह न तो शब्दार्थ-सम्बन्धको नित्य मानते हैं और न बौद्धोंकी तरह अन्यापोहात्मक मानते हैं। इस विषयमें लेखकने शास्त्रीय तर्क प्रतितर्कोको अत्यन्त दक्षतासे उपस्थित किया है । इसी प्रकार शब्दका विषय सामान्य है या विशेष ? इस प्रश्नके उत्तरमें जैन इसे सामान्यमात्र न मानकर सामान्य-विशिष्ट विशेष मानते हैं। मीमांसक शब्दके अर्थ प्रतिपादकत्व गुणकी व्याख्याके लिये अनेक प्रमाणोंसे शब्दकी नित्यता निरूपित करते हैं। इसके विपरीत, जैन शब्दमे सादृश्यमूलक प्रत्यभिज्ञानके अभाव तथा अन्य तर्कोसे उसे अनित्य सिद्ध करते हैं। शब्दकी अनित्यताके आधारपर जैनोंने वेदके अपौरुषेयवादका भी खण्डन किया है क्योंकि -१०९ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौकिक और वैदिक-दोनों ही प्रकारके शब्द स्वरूप, संकेतग्रहणकी दृष्टिसे एकसमान ही होते हैं। इसी तरह स्फोटवाद भी विचारसरणिमें उचित नहीं ठहरता। मीमांसक और वैयाकरणोंके मतके विरुद्ध, जैनोंकी मान्यता यह रही है कि संस्कृतके साथ-साथ प्राकृत और अन्य भाषाओंके शब्द भी वाचक होते हैं, क्योंकि ये सभी शब्द अनादिकालसे प्रयोग. धर्मसाधनत्व, विशिष्ट पुरुष वाचकत्व एवं विशिष्टार्थ गमकत्वके समान रूपसे शुद्ध हैं। इन्हीं शब्दोंके आधार पर श्रतज्ञान होता है। जो मन और श्रवणेन्द्रियका विषय है । इसके दो भेद हैं-अक्षरश्रत और अनक्षरश्रुत । इनकी परिभाषाओंके विषयमें पूज्यपाद और अकलंकके मतोंकी समीक्षासे लेखकने श्रुत ज्ञानोंको अक्षरात्मक ही बताया है। इस विषयमें लेखकने विद्यानन्दके अर्थकी भी चर्चा की है जिन्होंने प्रारम्भिक मतभेद प्रदर्शित कर अन्त में अकलंककी मान्यताको पुष्ट किया है। श्वेताम्बर मान्यता भी श्रुतज्ञानको शब्दज ही माना है। विशेषावश्यकभाष्यके प्रकरणके विवरणकी समीक्षा में लेखकने परोपदेश या ग्रन्थरूप शब्दको श्रुतज्ञान (द्रव्यश्रुत) मानते हुए भी एकेन्द्रियोंके भावश्रुत बतलाया है जो आगमिक मान्यताकी व्याख्या के लिए है। दोनों ही मान्यताएँ इस विषयमें एकमत हैं कि शब्दयोजना सहित ज्ञान श्रुतज्ञान ही होता है लेकिन इसमें मतभेद है कि शब्दयोजना सहित ज्ञान ही श्रुतज्ञान है । लेखक का मत है कि इस मतभेदमें विशेष तथ्य नहीं है। केवल दृष्टिभेदका ही अन्तर है। इस विषयमें श्वेताम्बर ग्रन्थोंके आलोड़नके अनुसार अक्षर संज्ञाक्षर, व्यञ्जनाक्षर (द्रव्यश्रत) और लब्ध्यक्षर (भावश्रुत) के भेदसे तीन प्रकारके होते हैं लेकिन दिगम्बर परम्परा लब्ध्यक्षरको अनाक्षरात्मक मानती है । श्रुतज्ञानके भेदोंकी चर्चा करते हुए लेखकने बताया है कि एक ओर जहाँ श्वेताम्बर परम्परामें श्रुतके चौदह भेद माने गये हैं, वहाँ दिगम्बर परम्परामें केवल चार भेदों (अक्षर, अनाक्षर, अंगबाह का ही उल्लेख है, लेकिन अन्य भेद इस परम्पराको मान्य हो सकते हैं। इस प्रकार ८६ सन्दर्भोके इस अध्यायमें लेखकने अनेक जटिल विषयोंका केवल विवरणात्मक अध्ययन ही नहीं, अपितु तुलनात्मक अध्ययन भी दिया है । कई स्थानों पर लेखकने अपने स्वतन्त्र चिन्तनको भी प्रकट किया है । पंचम अध्यायमें श्रुतके दो विशिष्ट प्रकारके उपयोगोंका ४९ सन्दर्भोके आधार पर शास्त्रीय विवरण दिया गया है स्याद्वाद और नयवाद । ये दोनों पद्धतियाँ हैं। इन सन्दर्भोमें समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानन्द और प्रभाचन्द्रके न्याय ग्रन्थ प्रमुख हैं । इन ग्रन्थोंका समय-परिसर हो अनेकान्त स्थापन युग कहा जाता है। मालवणियाजीने स्याद्वादके मूल अनेकान्तवादके अनेक रूपोंकी आगमकालीनता प्रदर्शित की है और प्रस्तुत ग्रन्थके लेखकने इसके आगेका संक्षेपण किया है। इन दोनों ही विषयों पर अनेक लेखकोंने अपने ग्रन्थोंमें व्यावहारिक दृष्टिसे प्रकाश डाला है पर न्यायशास्त्रीय दृष्टिसे इन्हें प्रकाशित करनेका श्रेय जैन न्याय के ही लेखकको है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकके विवरणसे ज्ञात होता है कि संशयके विषयभत वस्तुके धर्म सात ही प्रकारके हो सकते हैं। यही कारण है कि स्याद्वाद सप्तभंग-मय होता है। अकलंकके अनुसार अनेकधर्मात्मक वस्तुका बोध करानेके लिए प्रवर्तमान शब्की प्रवृत्ति दो रूपसे होती है : क्रमसे या यौगपद्यसे । यौगपद्य कथन प्रमाण होता है और क्रमिक कथन नय कहा जाता है। इन दोनों ही कथनभेदोंकी अपनीअपनी सप्तभंगी होती है। इन सप्तभंगोंमें दो सामान्य पदोंका उपयोग किया जा सकता है-स्यात् और एव । इससे कथनके दो भेद हो जाते हैं। स्यादस्ति जीवः, स्यादस्त्येव जीवः । कुछ आचार्योका कथन है कि इन दोनों कथनोंमें विशेष अन्तर नहीं है। लेकिन कुछ आचार्य 'स्यादस्ति जीवः' की शैलीको सकलादेशी स्याद्वादी प्रमाण मानते हैं और 'स्यादस्त्येव जीव:' की शैलीको एवकार होनेके कारण नय मानते हैं। -११० - Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय वाक्यमें एवकार अनिवार्य होता है, प्रमाणवाक्यमें नहीं। इन दोनों ही शैलियोंको दर्शनके क्षेत्रमें पर्याप्त स्थान मिला है और जैनदर्शनकी समन्वय दृष्टि सामने आई है। इन मूलभूत चर्चाओंके अतिरिक्त, स्याद्वादके सात भंगों एवं नयके सात भेदोंका भी संक्षेपण इस अध्यायमें है। इस विवरणमें अनेक स्थानों पर पुनरुक्ति दोष आया है जो सरलतासे दूर किया जा सकता था। फिर भी, इस विवरणसे लेखककी अपार संक्षेपण शक्तिका पता तो चलता ही है। उपसंहार विद्वान् लेखकने जैन न्यायके उपरोक्त प्रमुख विषयोंका विवरण विभिन्न दर्शनोंके ६७ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों तथा ३१७ सन्दर्भोके आधारपर दिया है। लेखकके अनुसार इस ग्रन्थका प्रणयन न्यायशास्त्रके ग्रन्थोंकी जटिलतासे उत्पन्न उदासीनताकी स्थितिको दूर करनेके लिए विद्यार्थियों तथा ज्ञानप्रेमी जिज्ञासुओंके हितको लक्ष्य में रखकर किया गया है। लेखकने यह स्पष्ट बताया है कि इसका आधार शास्त्रीय ग्रन्थ और मान्यतायें हैं। अतः इस ग्रन्थमें मौलिकताका विशेष प्रश्न ही नहीं उठता। हाँ, लेखकने जटिल विषयोंको हिन्दी भाषामें रोचक रूपसे प्रस्तुत करने में और न्यायशास्त्रके प्रति रुचि जगानेमें अवश्य ही सफलता प्राप्त की है। यही नहीं, ग्रन्थके अध्ययनसे यह भी स्पष्ट है कि न्यायशास्त्रका अध्ययन अन्य दर्शनोंके ज्ञानके विना संभव नहीं है, अतः अध्येताओंको विभिन्न दर्शनोंका अध्ययन कर अपनी बौद्धिक प्रतिभाका विकास करना चाहिये। इससे तुलनात्मक दृष्टिकी समीचीनताके लिये आवश्यक तीक्ष्ण एवं गहन अध्ययनकी प्रेरणा मिलती है । वस्तुतः गहन अध्ययन ही हमारे विचारोंको परिपक्वता एवं सरल अभिव्यंजनीयता प्रदान करता है। लेखकका यह ग्रन्थ इस तथ्यका स्वतः प्रमाण है। उपरोक्त विवरणके समय विभिन्न स्थानोंपर यह भी संकेत किया गया है कि लेखक जटिल विचारोंको सरल भाषामें प्रस्तुत करने तथा उनके संक्षेपणकी कलामें सिद्धहस्त है । यही नहीं, अनेक अवसरोंपर उसने अपने स्वतंत्र विचार प्रस्तुत किये हैं। ये उनकी मौलिक चिन्तनशीलताके प्रतीक हैं। प्रस्तुत समीक्षक न्यायशास्त्रको बौद्धिक परीक्षण, पद्धतिशास्त्र मानता है। इस शास्त्रके विभिन्न विवरणोंके अध्ययनसे उसे प्रतीत हुआ है कि आगमकालसे लेकर अठारहवीं सदी तक विभिन्न न्यायशास्त्रियोंने भिन्न-भिन्न विषयोंपर अपने पूर्ववर्ती विचारकोंके मतोंकी समीक्षा की और उनमें आवश्यकतानुसार संशोधन, परिवर्धन और परिवर्तन किया है। उन्होंने विचार और ज्ञानके प्रवाहको सदैव प्रवहमान रखा है । क्या बीसवीं सदीका विद्वद्वर्ग और प्रबुद्धवर्ग भी अपने इस दायित्वको निभा रहा है ? Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित कैलाशचन्द्रजीका वंशवृक्ष कूड़ेमलजी बहालसिंहजी मुसद्दीलालजी कैलाशचन्द्रजी सुपार्श्वकुमार 1 संजयकुमार शिखरचन्द्रजी पण्डितजीका विद्यावृक्ष गुरुवर गोपालदासजी बरैया देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री कैलाशचन्द्रजी शास्त्री डॉ० जगदीशचन्द्रजी जैन डॉ० दरबारीलालजी कोठिया उदयचन्द्र जैन डॉ० सुदर्शनलाल जैन - ११२ - Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड २:: Section 2 धर्म और दर्शन Religion & Philosophy Page #149 --------------------------------------------------------------------------  Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मशास्त्र : मनोविज्ञानकी भाषामें युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ दर्शनके क्षेत्रमें शाश्वत और अशाश्वत-दोनों चर्चनीय रहे हैं। इन दोनोंके तीन रूप उपलब्ध होते हैं-१. शाश्वतवाद, २. अशाश्वतवाद, ३. शाश्वत-अशाश्वतवाद । जैनदर्शनने तीसरा विकल्प मान्य किया। जगत्में जिसका अस्तित्व है, वह केवल शाश्वत नहीं है, केवल अशाश्वत नहीं है, शाश्वत और अशाश्वतदोनोंका सहज समन्वय है। तत्वकी दष्टिसे जो सिद्धान्त है. उसपर मैं काल-सापेक्ष विमर्श करना कर्म भारतीय दर्शनमें एक प्रतिष्ठित सिद्धान्त है। उस पर लगभग सभी पनर्जन्मवादी दर्शनोंमें विमर्श प्रस्तुत किया है। पूरी तटस्थताके साथ कहा जा सकता है कि इस विषयका सर्वाधिक विकास जैनदर्शनमें हुआ है। इस विषय पर विशाल साहित्यका निर्माण हुआ है। विषय बहत गंभीर और गणितकी जटिलतासे बहुत गुम्फित है। सामान्य व्यक्ति उसकी गहराई तक पहुँचने में काफी कठिनाई अनुभव करता है। कहा जाता है, आईस्टीनके सापेक्षवादके सिद्धान्तको समझनेवाले कुछ बिरले ही वैज्ञानिक है। यह कहना भी सत्यकी सीमासे परे नहीं होगा कि कर्मशास्त्रको समझनेवाले भी समूचे दार्शनिक जगत में कुछ विरले ही लोग हैं। कर्मशास्त्रमें शरीर-रचनासे लेकर आत्माके अस्तित्व तक, बन्धनसे लेकर मुक्ति तक सभी विषयों पर गहन चिन्तन और दर्शन मिलता है। यद्यपि कर्मशास्त्रके बड़े-बड़े ग्रन्थ उपलब्ध है, फिर भी हजारों वर्ष पुरानी पारिभाषिक शब्दावलीको समझना स्वयं एक समस्या है। और जब तक सूत्रात्मक परिभाषामें गुथे हुए विशाल चिन्तनको पकड़ा नहीं जाता, परिभाषासे मुक्त कर वर्तमानके चिन्तनके साथ पढ़ा नहीं जाता और वर्तमानकी शब्दावलीमें प्रस्तुत नहीं किया जाता, तब तक एक महान् सिद्धान्त भी अर्थशून्य जैसा हो जाता है। _ आजके मनोवैज्ञानिक मनकी हर समस्या पर अध्ययन और विचार कर रहे हैं। मनोविज्ञानको पढ़ने पर मुझे लगा कि जिन समस्याओं पर कर्मशास्त्रियोंने अध्ययन और विचार किया था, उन्हीं समस्याओं पर मनोवैज्ञानिक अध्ययन और विचार कर रहे हैं। यदि मनोविज्ञानके सन्दर्भ में कर्मशास्त्रको पढा जाए, तो उसकी अनेक गुत्थियाँ सुलझ सकती है, अनेक अस्पष्टताएं स्पष्ट हो सकती है। कर्मशास्त्रके सन्दर्भमें यदि मनोविज्ञानको पढ़ा जाए, तो उसकी अपूर्णताको भी समझा जा सकता है और अब तक अनुत्तरित प्रश्नोंके उत्तर खोजे जा सकते हैं। वैयक्तिक भिन्नता हमारे जगत में करोड़ों-करोड़ मनुष्य हैं। वे सब एक ही मनुष्य जातिसे संबद्ध है। उनमें जातिगत एकता होने पर भी वैयक्तिक भिन्नता होती है। कोई भी मनुष्य शारीरिक या मानसिक दृष्टिसे सर्वथा किसी दूसरे मनुष्य जैसा नहीं होता। कुछ मनुष्य लम्बे होते हैं, कुछ बौने होते हैं। कुछ मनुष्य गोरे होते है, कुछ काले होते है । कुछ मनुष्य सुडौल होते हैं, कुछ भद्दी आकृतिवाले होते हैं। कुछ मनुष्योंमें बौद्धिक मन्दता होती है, कुछमें विशिष्ट बौद्धिक क्षमता होती है। स्मृति और अधिगम क्षमता भी सबमें समान नहीं होती । स्वभाव भी सबका एक जैसा नहीं होता। कुछ शान्त होते हैं, कुछ बहुत क्रोधी होते हैं। कुछ प्रसन्न प्रकृतिके होते हैं, कुछ उदास रहनेवाले होते हैं। कुछ निःस्वार्थवृत्ति के लोग होते हैं, कुछ स्वार्थ १५ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परायण होते हैं। यह सब वैयक्तिक भिन्नता प्रत्यक्ष है। इस विषयमें कोई दो मत नहीं हो सकता। कर्मशास्त्रमें वैयक्तिक भिन्नताका चित्रण मिलता ही है। मनोविज्ञानने भी इसका विशद रूपमें चित्रण किया है । उसके अनुसार वैयक्तिक भिन्नताका प्रश्न मूल प्रेरणाओंके सम्बन्धमें उठता है । मूल प्रेरणाएँ (प्राइमरी मोटिव्स) सबमें होती हैं, किन्तु उनकी यात्रा सबमें एक समान नहीं होती। किसीमें कोई एक प्रधान होती है तो किसीमें कोई दूसरी प्रधान होती है। अधिगम क्षमता भी सबमें होती है, किसीमें अधिक होती है और किसीमें कम । वैयक्तिक भिन्नताका सिद्धान्त मनोविज्ञानके प्रत्येक नियमके साथ जुड़ा हुआ है। मनोविज्ञानमें वैयक्तिक भिन्नताका अध्ययन आनुवंशिकता (हेरिडिटी) और परिवेश (एन्वाइरनमेंट) के आधार पर किया जाता है। जीवनका प्रारम्भ माताके डिम्ब और पिताके शुक्राणुके संयोगसे होता है। व्यक्तिके आनुवंशिक गुणोंका निश्चय क्रोमोसोमके द्वारा होता है। कोमोसोम अनेक जीनों (जीन्स) का एक समुच्चय होता है । एक क्रोमोजोममें लगभग हजार जीन माने जाते हैं । ये जीन ही माता-पिताके आनुवंशिक गुणोंके वाहक होते हैं। इन्हीं में व्यक्तिके शारीरिक और मानसिक विकासकी क्षमताएँ (पोटेन्सिएलिटीज) निहीत होती है। व्यक्तिमें ऐसी कोई विलक्षणता प्रगट नहीं होती, जिसकी क्षमता उनके जीनमें निहीत न हो। मनोविज्ञानने शारीरिक और मानसिक विलक्षणताओंकी व्याख्या आनुवंशिकता और परिवेशके आधार परकी है, पर इससे विलक्षणताके संबंधों उठनेवाले प्रश्न समाहित नहीं होते । शारीरिक विलक्षणता पर आनुवंशिकताका प्रभाव प्रत्यक्ष ज्ञात होता है। मानसिक विलक्षणताओंके सम्बन्धमें आज भी अनेक प्रश्न अनुत्तरित हैं । क्या बुद्धि आनुवंशिक गुण है अथवा परिवेशका परिणाम है ? क्या बौद्धिक स्तरको विकसित किया जा सकता है ? इन प्रश्नोंका उत्तर प्रायोगिकताके आधार पर नहीं किया जा सकता। आनुवंशिकता और परिवेशसे संबद्ध प्रयोगात्मक अध्ययन केवल निम्न कोटिके जीवों पर ही किया गया है या संभव हुआ है । बौद्धिक विलक्षणताका सम्बन्ध मनुष्यसे है। इस विषयमें मनुष्य अभी भी पहेली बना हुआ है । कर्मशास्त्रीय दृष्टिसे जीवनका प्रारम्भ माता-पिताके डिम्ब और शुक्राणुके संयोगसे होता है, किन्तु जीवका प्रारम्भ उनसे नहीं होता। मनोविज्ञानके क्षेत्रमें जीवन और जीवका भेद अभी स्पष्ट नहीं है। इसलिए सारे प्रश्नोंके उत्तर जीवनके सन्दर्भमें ही खोजे जा सकते है। कर्मशास्त्रीय अध्यायमें जीव और जीवनका भेद बहुत स्पष्ट है, इसलिए मानवीय विलक्षणताके कुछ प्रश्नोंका उत्तर जीवनमें खोजा जाता है और कुछ प्रश्नोंका उत्तर जीवमें खोजा जाता है। आनवंशिकताका सम्बन्ध जीवनसे है, वैसे ही सम्बन्ध जीवसे है। उसमें अनेक जन्मोंके कर्म या प्रतिक्रियाएँ संचित होती हैं। इसलिए वैयक्तिक योग्यता या विलक्षणताका आधार केवल जीवनके आदि-बिन्दुमें ही नहीं खोजा जाता, उससे परे भी खोजा जाता है, जीवनके साथ प्रवहमान कर्म-संचय ( कर्मशरीर ) में भी खोजा जाता है। कर्मका मूल मोहनीय कर्म है। मोहके परमाणु जीवमें मूर्छा उत्पन्न करते हैं। दृष्टिकोण मूछित होता है और चरित्र भी मूछित हो जाता है। व्यक्तिके दृष्टिकोण, चरित्र और व्यवहारकी व्याख्या इस मू की तरतमताके आधारपर ही की जा सकती है। मेक्डूगलके अनुसार व्यक्तिमें चोदह मूल प्रवृत्तियाँ और उतने ही मूल संवेग होते हैं । मूल प्रवृत्तियाँ मूल संवेग १. पलायन वृत्ति भय २. संघर्ष वृत्ति क्रोध ३. जिज्ञासा वृत्ति कुतूहल भाव ४. आहारान्वेषण वृत्ति भूख -११४ - Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. पित्रीय वृत्ति वात्सल्य, सुकुमार भावना ६. यूथ वृत्ति एकाकीपन तथा सामूहिकताभाव ७. विकर्षण वृत्ति जुगुप्सा भाव, विकर्षण भाव ८. काम वृत्ति कामुकता ९. स्वाग्रह वृत्ति स्वाग्रहभाव, उत्कर्ष भावना १०. आत्मलधुता वृत्ति हीनता भाव ११. उपार्जन वृत्ति स्वामित्व भावना, अधिकार भावना १२. रचना वृत्ति सृजन भावना १३. याचना वृत्ति दुःख भाव १४. हास्य वृत्ति उल्लसित भाव कर्मशास्त्रके अनुसार मोहनीय कर्मकी अठाइस प्रकृतियाँ हैं और उसके अठाईस ही विपाक हैं । मूल प्रवृत्तियों और मूल संवेगोंके साथ इनकी तुलना की जा सकती है । मोहनीय कर्मके विपाक मूल संवेग १. भय भय २. क्रोध क्रोध ३. जगुप्सा जुगुप्सा भाव, विकर्षण भाव ४. स्त्री वेद ५. पुरुष वेद कामुकता ६. नपुंसक वेद ) ७. अभिमान स्वाग्रहभाव, उत्कर्ष भावना ८. लोभ स्वामित्व भावना, अधिकार भावना ९. रति उल्लसित भाव १०. अरति दुःखभाव ___ मनोविज्ञानका सिद्धान्त है कि संवेगके उद्दीपनसे व्यक्तिके व्यवहारमें परिवर्तन आ जाता है । कर्मशास्त्रके अनुसार मोहनीय कर्मके विपाकसे व्यक्तिका चरित्र और व्यवहार बदलता रहता है । प्राणी जगतकी व्याख्या करना सबसे जटिल है। अविकसित प्राणियोंकी व्याख्या करने में कुछ सरलता हो सकती है। मनुष्यकी व्याख्या सबसे जटिल है। वह सबसे विकसित प्राणी है। उसका नाड़ीसंस्थान सबसे अधिक विकसित है। उसमें क्षमताओंके अवतरणकी सबसे अधिक संभावनाएँ हैं। इसलिए उसकी व्याख्या करना सर्वाधिक दुरूह कार्य है। कर्मशास्त्र, योगशास्त्र, मानसशास्त्र (साइकोलोजी), शरीरशास्त्र (एनेटोमी) और शरीरक्रिया शास्त्र (फिजियोलाजी) के तुलनात्मक अध्ययनसे ही उसको कुछ सरल बनाया जा सकता है। मानसिक परिवर्तन केवल उद्दीपन और परिवेशके कारण ही नहीं होते। उनमें नाड़ी-संस्थान, जैविक सिद्युत्, जैविक रसायन और अन्तःस्रावी ग्रन्थियोंके स्रावका भी योग होता है। ये सब हमारे स्थूल शरीरके अवयव हैं। इनके पीछे सूक्ष्म शरीर क्रियाशील होता है और उसमें निरंतर होनेवाले कर्मके स्पंदन परिणमन या परिवर्तनकी प्रक्रियाको चल रखते हैं । परिवर्तनकी इस प्रक्रियामें कर्मके स्पंदन, मनकी चंचलता, -११५ - Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीरके संस्थान-ये सभी सहभागी होते हैं। इसलिए किसी एक शास्त्रके द्वारा हम परिवर्तनकी प्रक्रियाका सर्वांगीण अध्ययन नहीं कर सकते । ध्यानकी प्रक्रिया द्वारा मानसिक परिवर्तनों पर नियंत्रण किया जा सकता है, इसलिए योगशास्त्रको भी उपेक्षित नहीं किया जा सकता। अपृथक्त्व अनुयोगकी शिक्षाप्रणालीमें प्रत्येक विषय पर सभी नयोंसे अध्ययन किया जाता था, इसलिए अध्येताको सर्वांगीण ज्ञान हो जाता था। आज की पृथक्त्व अनुयोगकी शिक्षा प्रणाली में एक विषयके लिए मुख्यतः तद् विषयक शास्त्रका ही अध्ययन किया जाता है, इसलिए उस विषयको समझनेमें बहुत कठिनाई होती है। उदाहरणके लिए, मैं कर्मशास्त्रीय अध्ययनको प्रस्तुत करना चाहता हूँ। एक कर्मशास्त्री पाँच पर्याप्तिके सिद्धान्तको पढ़ता है और वह इसका हार्द नहीं पकड़ पाता । पर्याप्तियोंकी संख्या छह होती है । भाषा पर्याप्ति और मनःपर्याप्तिको एक माननेपर पर्याप्तियोंकी संख्या छह होती है। भाषा पर्याप्ति और मनःपर्याप्तिको एक माननेपर वे पाँच होती है । प्रश्न है भाषा और मनकी पर्याप्तिको एक क्यों माना जाए ? स्थल दष्टिकोणसे भाषा और मन दो प्रतीत होते हैं । भाषाके द्वारा विचार प्रकट किये जाते हैं और मनके द्वारा स्मृति, कल्पना और चिन्तन किया जाता है। सूक्ष्ममें प्रवेश करनेपर वह प्रतीति बदल जाती है। भाषा और मनकी इतनी निकटता सामने आती है कि उसमें भेदरेखा खींचना सहज नहीं होता। गौतम स्वामीके एक प्रश्नके उत्तरमें भगवान् महावीरने कहा-वचनगुप्तिके द्वारा मनुष्य निर्विचारताको उपलब्ध होता है। निर्विचार व्यक्ति अध्यात्मयोगध्यानसे ध्यानको उपलब्ध हो जाता है। विचारका सम्बन्ध जितना मनसे है, उतना है। जल्प दो प्रकारका होता है-अन्तर्जल्प और बहिर्जल्प । बहिर्जल्पको हम भाषा कहते हैं। अन्तर्जल्प और चिन्तनमें दूरी नहीं होती। चिन्तन भाषात्मक ही होता है। कोई भी चिन्तन अभाषात्मक नहीं हो सकता। स्मृति, कल्पना और चिन्तन-ये सब भाषात्मक होते है। व्यवहारवादके प्रवर्तक वॉटसनके अनुसार चिन्तन अव्यक्त शाब्दिक व्यवहार है। उनके अनुसार चिन्तन-व्यवहारको प्रतिक्रियाएँ वाक्-अंगोंमें होती हैं । व्यक्ति शब्दोंको अनुकूलनसे सीखता है । धीरे-धीरे शाब्दिक आदतें पक्को हो जाती हैं और वे शाब्दिक उद्दीपकोंसे उद्दीप्त होने लगती है। बच्चोंकी शाब्दिक प्रतिक्रियाएँ श्रव्य होती है। धीरे-धीरे सामाजिक परिवेषके प्रभावसे आवाजको दबाकर शब्दोंको कहना सीख जाता है। व्यक्त तथा अव्यक्त शिक्षा-दीक्षाके प्रभावसे शाब्दिक प्रतिक्रियाएँ मौन हो जाती हैं। वॉटसनके चिन्तनको अव्यक्त अथवा मौनवाणी कहा है। सत्यमें कोई द्वैत नहीं होता। किसी भी माध्यमसे सत्यकी खोज करनेवाला जब गहरेमें उतरता है और सत्यका स्पर्श करता है, तब मान्यताएँ पीछे रह जाती हैं और सत्य उभरकर सामने आ जाता है । बहुत लोगोंका एक स्वर है कि विज्ञानने धर्मको हानि पहुँचाई है, जनताको धर्मसे दूर किया है । बहुत सारे धर्म-गुरु भी इसी भाषामें बोलते हैं। किन्तु यह सत्य वास्तविकतासे दूर प्रतीत होता है। मेरी निश्चित धारणा है कि विज्ञानने धर्मकी बहुत सत्यस्पर्शी व्याख्या की है और वह कर रहा है। जो सूक्ष्म रहस्य धार्मिक व्याख्या ग्रन्थोंमें अ-व्याख्यात है, जिसकी व्याख्याके स्रोत आज उपलब्ध नहीं हैं, उनकी व्याख्या वैज्ञानिक शोधोंके सन्दर्भ में बहुत प्रामाणिकताके साथ की जा सकती है। कर्मशास्त्रकी अनेक गुत्थियोंको मनोवैज्ञानिक अध्ययनके सन्दर्भमें सुलझाया जा सकता है। आज केवल भारतीय दर्शनोंके तुलनात्मक अध्ययनकी प्रवृत्ति ही पर्याप्त नहीं है। दर्शन और विज्ञानकी सम्बन्धित शाखाओंका तुलनात्मक अध्ययन बहुत अपेक्षित है । ऐसा होनेपर दर्शनके अनेक नये आयाम उदघाटित हो सकते हैं । - ११६ - Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः आचार्य रामूर्ति त्रिपाठी, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन जैन चिन्ताधाराको विशेषताएँ चार्वाकको छोड़कर हिन्दू संस्कृति में ऐसी कोई चिन्ताधारा नहीं है जो जन्म-मरणकी श्रृंखला न मानती हो । ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन- तीनों हो धारायें इसे स्वीकार करती हैं । इन सबमें केवल मीमांसाधारा ही ऐसी ब्राह्मणवर्गीय चिन्ताधारा है जो श्रृंखलाका समुच्छेद नहीं मानती । अन्यथा और सभी धारायें जन्म-मरणकी श्रृंखला भी स्वीकार करती हैं और उसका समुच्छेद भी । यह दूसरी बात है कि इनमें से जहाँ हीनयानी बौद्ध धारा अनात्मवादी है, वहाँ शेष आत्मवादी । जैन चिन्ताधारा न तो चेतना और पदार्थ के विकल्प में पदार्थवादी है और न ही बौद्धोंकी भाँति अनात्मवादी । निष्कर्ष यह हैं कि वह आत्मवाद प्रति आस्थावान् है और जन्म-मरणकी श्रृंखला स्वीकार करती हुई उसका समुच्छेद भी मानती है । जैन चिन्ताधारा उन लोगोंसे सहमत नहीं है जो चरम पुरुषार्थके रूपमें समुच्छेद या आभावात्मक स्थितिकी घोषणा करते हैं । अतः यह न तो इस प्रश्न पर कि जीवनका चरम लक्ष्य मोक्ष क्या और कैसा है, अनात्मवादी हीनयानी बौद्धोंसे सहमत है और न ही आत्मवादी न्याय तथा वैशेषिकसे । क्योंकि जहाँ एक ओर अनात्मवादी हीनयानी समुच्छेदके अनन्तर शून्य ही शून्यकी घोषणा करता है, वहाँ आत्मवादी न्याय-वैशेषिक समुच्छेदके बाद भी आत्माकी स्थिति मानता हुआ उसे प्रस्तरवत् ज्ञानशून्य स्वीकार करता है । सांख्य पातञ्जलकी भाँति आत्मवादी होता हुआ भी समुच्छेदके अनन्तर निरानन्द स्वरूपावस्थिति मात्र भी उसे चरम पुरुषार्थ के रूपमें इष्ट नहीं है । वह वेदान्तियों और आगमिकोंकी भाँति चरमस्थितिको स्वरूपावस्थान तो मानता है, चिदानन्दमय स्वभावमें प्रतिष्ठित तो स्वीकार करता है परन्तु द्वैतवादियोंकी भाँति किसी अतिरिक्त परमेश्वरको नहीं मानता । अन्ततः अद्वैतवादियोंकी भाँति चिदानन्दमय स्वरूपावस्थानको ही पुरुषका चरम पुरुषार्थ मोक्ष स्वीकार करता हुआ भी अपनेको इस अर्थ में विशिष्ट कर लेता है कि वह आत्माको मध्यम परिमाण स्वीकार करता है, न अणु परिमाण, न ही महत् परिमाण । वह मानता है कि आत्मा अनादि परम्परायात आवरक कर्ममलसे आच्छन्न रहकर जन्म-मरणके दुःसह चक्रमें कष्ट भोगता रहता है । इसी चक्रसे मुक्त होनेके लिए जैन तीर्थंकरोंने मोक्षमार्गका विचार करते हुए जो कुछ कहा है, प्रस्तुत सूत्र उसीका निदर्शक है । मुक्तिका अर्थ 'स्वभाव' प्राप्ति दुःखसे मुक्ति सभी चाहते हैं पर यह मुक्ति क्षणिक भी हो सकती है और आत्यन्तिक भी । आत्यन्तिक मुक्ति इस चिन्ताधाराके अनुसार तभी सम्भव है जब साधक स्वभावमें स्थित हो जाय। इस धाराके अनुसार 'स्व' भावमें प्रतिष्ठित होने में बाधक है आवरण कर्म । यदि इनका क्षय हो जाय, तो आत्मा स्वरूपमें स्थित हो जाय, स्व भावमें आ जाय । उसका स्व भाव सच्चिदानन्दयता ही है । यही आत्यन्तिक सुख है क्योंकि इसके बाद कर्मोंकी उपाधि लगनेवाली नहीं है । कर्मोंका आत्यन्तिक अभाव ही तो मोक्ष है । दुःखका अनुभव इन्हीं कर्मोंके कारण तो होता है । जहाँ कर्मोंका क्षय हो गया, वहाँ दुःख - ११७ - Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहाँ ? इतना ही नहीं, वहाँ स्वभावका सुख, प्रतिबन्धकके निराकृत होनेसे, व्यक्त हो जाता है। अतः वस्तुतः मोक्ष अभावात्मक नहों, स्व-भावात्मक है। इसीलिए यह स्वाभाविक है, अजित नहीं। एक बात और समझनी चाहिये। यह मोक्ष या स्वभाव सुख नया पैदा नहीं होता जिससे उसमें नाश सम्भावित हो। सूर्य पर बादल आ जाय तो अन्धकार और हट जाय, तो प्रकाश पर बादल हटनेका अर्थ यह नहीं कि उस सूर्यमें नया प्रकाश उत्पन्न हो गया है जो पहले अविद्यमान था । बादलकी भाँति एक बार यदि कर्मा गया, तो यह वादलोपम कर्मावरण फिर आनेवाला नहीं है। साथ ही, स्वभावका सहज सुख व्यक्त हो गया, तो वह फिर जानेवाला नहीं है। साथ ही, तत्वतः वह कहीं और से नया आया हआ भी नहीं है, स्व-भाव सुख है। सुखात्मा स्वभावका उन्मेष है। यही मोक्ष है। इसके अस्तित्वमें तर्कसे अनुभव अधिक प्रमाण है। मोक्षमार्ग प्रतिपादक सूत्रकी व्याख्या : केवल ज्ञानमार्गसे मुक्ति नहीं ___ इसी मोक्षका मार्ग है-सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्चरित्र । पूर्व पूर्वसे उत्तरोत्तरका उन्मेष सम्भव है । पर उत्तरोत्तरसे पूर्व पूर्वका अस्तित्व निश्चय है। सूत्रकारने इन तीनोंको सम्मिलित रूपमें मोक्षमार्ग कहा है। सूत्रमें दो पद हैं-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि तथा मोक्षमार्ग, दोनों ही सामासिक पद हैं । दर्शनज्ञानचारित्राणि द्वन्द्व समास है, अतः समासघटक प्रत्येक पद प्रधान है। फलतः द्वन्दके आदिमें विद्यमान सम्यक शब्दसे सभीका स्वतन्त्र सम्बन्ध है। इस प्रकार सूत्रके एक अंशका अर्थ है-स सम्यकज्ञान तथा सम्यकचारित्र । मोक्षमार्गका अर्थ स्पट है---मोक्षका मार्ग । अभिप्राय यह कि ये तीनों सम्मिलित रूपमें मोक्ष मार्ग है। इस दृष्टिसे तीनों एक है। इसीलिए सूत्रमें विशेषणका बहुवचनान्त होना और विशेष्यका एक वचनान्त होना 'वेदाः प्रमाणम्'की भाँति साभिप्राय और सार्थक है। निष्कर्ष यह है कि मोक्षमार्गके प्रति तीनोंकी सम्मिलित कारणता है । कुछ लोगोंकी धारणा है कि अनुभव और शास्त्रीय प्रमाण यह बताते हैं कि बंध मात्र अज्ञानसे होता है और मोक्ष मात्र ज्ञानसे, अतः तीनोंकी सम्मिलित कारणता अविचारित-रमणीय है, विचारित सुस्थ नहीं । निःसन्देह ज्ञानसे अज्ञान निवृत होता है और अज्ञाननिवृत्ति से बन्ध दूर होता है । सांख्यदर्शन प्रकृति और पुरुष विषयक विपर्यय ज्ञानसे बन्ध तथा अन्यथाख्यातिसे मोक्ष मानता ही है। न्याय दर्शन भी तत्त्वज्ञानसे मिथ्या ज्ञानकी निवृत्ति होनेपर मोक्ष कहता है। मिष्थ्याज्ञानसे दोष, दोषसे प्रवृत्ति, प्रवृत्तिसे जन्म और जन्मसे दुखकी सन्तति प्रवहमान होती है। इसी सर्वमूल मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति ज्ञानसे होती है। वैशिषक भी मानते हैं कि इच्छा और द्वेषसे धर्माधर्म और उनसे सुखदुखात्मक संसार होता है । यहाँ छहों पदार्थोंका तत्त्वज्ञान होते ही मिथ्याज्ञान निवृत्त होता है। बौद्धोंका द्वादशांग प्रतीत्य समुत्पादवाद प्रसिद्ध है ही और इसका मूल अविद्या है, अन्यथा ज्ञान । तत्वज्ञानसे इसकी निवृत्ति होनेपर समस्त दुखचक्र समाप्त हो जाता है । इसी प्रकार जैन सिद्धान्त भी है। यहाँ मिथ्यादर्शन, अविरति आदि बन्ध हेतु हैं । इस प्रकार जब सर्वत्र ज्ञानमात्रको ही मोक्षका व्यंजक माना गया है, तब यहाँ भी केवलज्ञानको हेतु मानना चाहिए । ज्ञानके साथ दर्शन और चरित्रको नहीं। यह कहना कि समकालोत्पादके कारण दर्शन, ज्ञान और चरित्र भिन्न हैं ही नहीं, अमान्य है । अनुभव तथा प्रमाण और परिणाम भेदसे सिद्धभेदका निराकरण समकालोत्पाद मात्र हेतुसे संभव नहीं है । समकालोत्पादकता तो दो सीगोंमें भी है, क्या इसीलिए वे एक हो जायेंगे। अभिप्राय यह है कि दर्शन, ज्ञान तथा चरित्र तीन हैं, एक नहीं। अतः उक्त रीतिसे इन तीनोंकी सम्मिलित मोक्षमार्गता माननेकी जगह केवलज्ञानको ही मोक्ष मार्ग मानना चाहिए । वेदान्त भी कहता है 'ऋते ज्ञानान्न मक्तिः' । -११८ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन चिन्तक इसका उत्तर देते हुए यह कहते हैं कि यह ठीक है कि ज्ञानसे अज्ञानकी निवृत्ति होती है परन्तु जिस प्रकार सायनका श्रद्धापूर्वक ज्ञानकर उपयोग या सेवन किया जाय, तभी आरोग्यरूप पूराफल मिलता है, उसी प्रकार श्रद्धा और ज्ञान पूर्वक, निष्ठाके साथ किया गया आचरण ही अभीष्ट फल पैदा करता है। जिस प्रकार अज्ञानियोंकी क्रिया व्यर्थ है, उसी प्रकार क्रियाहीनका ज्ञान व्यर्थ है और उसके लिए दोनों ही व्यर्थ है, जिसमें निष्ठा या श्रद्धा नहीं है। इस प्रकार अभीष्ट फलकी प्राप्ति के निमित्त श्रद्धा ज्ञान तथा चरित्र - तीनों सम्मिलित कारणता है । तीनोंकी सम्मिलित कारणताका निश्चय हो जानेके बाद एक-एक पटकके स्वरूपपर विचार अब प्रसंग प्राप्त है । सम्यक्दर्शन सम्यक् एक निपात शब्द है जिसका अर्थ होता है प्रशंसा। कभी-कभी मिथ्या या असम्यक्के विरोधमें भी इसका प्रयोग होता है। इस प्रकार सम्यक् विशेषण विशेष्यों में सम्भावित मिथ्यात्वकी निवृत्ति फलतः उनकी प्रशस्तता अथवा अभ्यर्हताका भी योतक है। सम्यगिष्टार्थतस्ययोः' के अनुसार सम्पक शब्दका अर्थ, इष्टार्थ अथवा तत्त्व भी होता है । पर निपात शब्द अनेकार्थक होते हैं । अतः प्रसंगानुसार प्रशस्त अर्थ भी लिया जा सकता है । यों तत्त्व अर्थ भी लिया जा सकता है जिसका अभिप्राय तत्त्व दर्शन भी किया जा सकता है । 'दर्शन' शब्द दर्शन भाव या क्रियापरक तो हैं ही, दर्शन साधन-परक तथा दर्शनकर्ता-परक भी है। अर्थात् दर्शन क्रिया तो दर्शन है ही, वह आत्मशक्ति भी दर्शन है जिस रूपमें आत्मा परिणत होकर दर्शनका कारण बनाती है। स्वयं दर्शन आत्मस्वभाव है, अतः वह कर्त्ता आत्मासे भी अभिन्न है। अभिप्राय यह है कि तत्त्वतः दर्शन आत्मासे भिन्न नहीं है। तथापि, स्वभावकी उपलब्धिके निमित्त जब आत्मा और दर्शनमें थोड़ा भेद मानकर चलना पड़ता है तब उसे भाव और कारणरूप भी माना जाता है । 'दर्शन' शब्द दृशि धातुसे बना है । अतः यद्यपि इसे भाव परक माननेपर 'देखना' के ही अर्थमें मानना उचित प्रतीत होता है, तथापि चूँकि धातुयें अनेकार्थक होती हैं, अतः यहाँ उसका अर्थ श्रद्धान ही लिया गया है । इसीलिए सम्यक् दर्शनको स्पष्ट करते हुए श्री उमास्वातिने उसका अर्थ तत्वार्थ श्रद्धान ही किया है। यों दर्शनका अर्थ श्रद्धान ही है, पर कहीं कोई अतत्वार्थका भी श्रद्धानका विषय न बना ले, इसीलिए तवार्थका स्पष्ट प्रयोग किया गया है। तत्त्वार्थमें भी दो टुकड़े हैं, तत्त्व तथा अर्थ तत्वका अर्थ है— तत्का धर्म । भाव मात्र जिस धर्म या रूपके कारण है, वही रूप है तत्त्व प्रकार तत्वार्थका अर्थ है- जो पदार्थ जिस रूपमें है, उसका उसी रूपसे ग्रहण करण व्युत्पत्तिक है । निष्कर्ष यह है कि तत्त्व रूपसे प्रसिद्ध अर्थोका श्रद्धान ही तत्त्व श्रद्धान है । । अर्थका अर्थ है ज्ञेय । इस श्रद्धान भी भाव कर्म तथा यह सम्यक दर्शन सराग भी होता है और वीतराग भी । पहला साधन ही है और दूसरा साध्य भी है प्रथम, सवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यसे जिसका स्वरूप अभिव्यक्त होता है, वह सराग दर्शन है। तथा मोहनीयकी सात कर्म प्रकृतियोंका अत्यन्त निवास होनेपर आत्मविशुद्विरूप वीतराग सम्यकग्दर्शन होता है । उभयविध सम्यक् दर्शन स्वभावतः भी संभव है और परोपदेश वश भी। निसर्गज सम्यक् दर्शनके लिए अन्तरंगकारण है, दर्शन मोहका उपशम, क्षय या क्षयोपशम । यदि साधकमें दर्शन मोहका क्षयापशम हो, तो बिना उपदेश ही तत्त्वार्थ में श्रद्धा हो जाती है । जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जर, एवं मोक्ष सात तत्व हैं । अधिगमज सम्यक दर्शनके निमित दो हैं, प्रमाण तथा नय । अभिप्राय यह है कि तत्त्वार्थ - ११९ - Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयक श्रद्धा नैसर्गिक भी है और नैमित्तिक भी। एक अन्य दृष्टिसे सम्यक दर्शनके तीन भेद भी हैं। १. क्षायिक २. औपशामिक ३. क्षायोपशामिक । सम्यज्ञान ज्ञान पाँच प्रकारके है, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल । मत्यावरण कर्मके क्षयोपशम होनेपर इन्द्रिय और मनकी सहायतासे अर्थोंका मनन मति है। श्रुतावरण कर्मके क्षयोपशम होनेपर जो सुना जाय, वह श्रत है। ये दोनों ही ज्ञान परोक्ष माने जाते हैं। परोक्ष इसलिये कि इन ज्ञानोंमें ज्ञानस्वभाव आत्माको स्वेतर इन्द्रिय तथा मनकी अपेक्षा होती है। अतः ये दोनों पराधीन होनेसे परोक्ष हैं। अवधि, मनःपर्यय तथा केवल-ये तीनों प्रत्यक्ष हैं। प्रत्यक्षके भी दो भेद है-देश प्रत्यक्ष तथा सर्व प्रत्यक्ष । देश प्रत्यक्षके भी दो भेद है-अवधि और मनःपर्यय । सर्वप्रत्यक्ष एक ही है-केवल ज्ञान । व्यवहितका प्रत्यक्ष अवधि ज्ञान, दूसरोंके मनोगतका ज्ञान मनःपर्यय तथा सर्वावरणक्षय होनेपर केवल ज्ञान होता है। अनन्त धर्मात्मक वस्तुका पूर्ण स्वरूप प्रमाणसे अर्थात् सम्यक ज्ञानसे आता है और उसके एक-एक धर्मका ज्ञान कराने वाले ज्ञानांशको नय कहते हैं। वह नय द्रव्याथिक और पर्यायाथिकके भेदसे दो और फिर अनेक प्रकारका है। वस्तुतः प्रत्येक वस्तुमें अनन्त धर्म होते हैं। उन सब धर्मोंसे संयुक्त अखण्ड वस्तुको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको प्रमाण कहते हैं और उसके एक धर्मको जानने वाले ज्ञानको नय कहते हैं। इसी ज्ञानकी प्राप्ति करनेके लिये योगी जन तप करते हैं। ज्ञानपूर्वक आचरण करनेवालेको किसी भी कालमें कर्मबन्ध नहीं होता। निष्कर्ष यह है कि प्रमाण तथा नयों द्वारा जीवादितत्त्वोंका संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय रहित यथार्थबोध सम्यकज्ञान कहलाता है। सम्यक्चारित्र दर्शन तथा ज्ञानकी भाँति चारित्र भी भाव, करण तथा कर्म व्युत्पत्तिक शब्द है। सामान्यतः इसे कर्मव्युत्पत्तिक समझा जाता है चर्यत इति चारित्रम् । जो चर्यमाण हो, वही चरित्र है। आचरण ही चरित्र है। संस्मरणका मूलकारण है राग-द्वेष । इसकी निवृत्ति के लिये कृतसंकल्प विवेकी पुरुषका शारीरिक और वाचिक वाह्य क्रियायोंसे और अभ्यन्तर मानस क्रियासे विरक्त होकर स्वरूप स्थिति प्राप्त । सम्यक्चारित्र है। सिद्धावस्था तक पहुँचनेके लिए साधकको अपनी नैतिक उन्नति के अनुसार क्रमशः आगे बढ़ना पड़ता है । मोक्ष मार्गके इन सोपानोंको गुणस्थान कहते हैं। किसी न किसी रूपमें इन स्थानों या सोपानोंका उल्लेख सभी साधन धाराओंमें है। इन चौदह गुणस्थान या सोपानोंमें मिथ्यात्वसे सिद्धि तकका मार्ग है। ये चौदह सोपान हैं-मिथ्यात्व→ ग्रन्थिभेद-मिश्र→अविरत→सम्यक्दृष्टि (संशयनाश होनेपर सम्यक् श्रद्वाका उदय) →देशविरति, प्रमत्त → अप्रमत्त → अपूर्वकरण → अनिवृत्तिकरण → सूक्ष्मसाम्पराय → उपशान्तमोह→ क्षीणमोह (मोक्षावरणकर्मोके नाशसे उत्पन्न दशायें)-संप्रोग केवल (इस सोपानमें साधक अनन्तज्ञान तथा अनन्त सुखसे देदीप्यमान हो उठता है)-अयोग केवल (अन्तिमदशा)। यहाँ अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य, अनन्तश्रद्वा तथा अनन्तशान्ति उपलब्ध होती है। तत्वतः चारित्र आत्माका स्वरूप ही है, अतः उसकी अभिव्यक्ति दर्शन और ज्ञान गत सम्यक्वत्वसे ही होती है। इस चरित्र स्वभावकी अभिव्यक्तिके लिए अणव्रत तथा महाव्रत विहित है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह । राग-द्वेषके कारण पाँच महापाप होते हैं-हिंसा, असत्य, चौर्य, कुशील तथा परिग्रह । इनसे विरति साध्य है। इसी विरतिसे होनेवाला माध्यस्थभाव ही सम्यकचरित्र है। यह दो -१२० - Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकारका है-सर्वदेशविरति तथा एकदेशविरति । पाँचों पापोंका यावज्जीवन सर्वथा त्याग सकल चरित्र है और एक देशत्याग देशचरित्र है। सर्वदेशविरतिम यति या साध निरत होता है और एकदेशविरतिमें श्रावक या गृहस्थ । श्रावकोंके बारह व्रत है-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत । एकदेशविरतिसे सर्वदेशविरतिकी ओर बढ़ा जाता है, माध्यस्थभावकी ओर उठा जाता है, उसकी अभिव्यक्ति हो जाती है। इस स्थितिमें पाँचमहाव्रत होने लगते है, करने नहीं पड़ते । पाँचमहाव्रत पाँच महापापोंका निरोध है और वस्तुतः देखा जाय तो ये पाँच महापाप हिंसा ही हैं । अतः अहिंसा ही महाव्रतोंमें प्रमुख है। जैनधर्मका हृदय यही अहिंसा है । अहिंसा की नहीं जाती, हिंसा नहीं की जाती है । अहिंसा फलित होती है। हिंसा निवृत्त हो जाय तो जो शेष रह जायगा, वही अहिंसा होगी। अतः अहिंसा निषेधात्मक है, यह समझना ऐकान्तिक सत्य नहीं है । हिंसाका निषेध आचारमें ही नहीं होना चाहिये, विचारमें भी होना चाहिये। विचारगत हिंसा ही एकान्त दर्शन है और अहिंसा अनेकान्त दर्शन । इस प्रकार समूचा जैनधर्म अपने आचार और विचारमें अहिंसा ही है। हिंसाकी विवृत्ति राग-द्वेषकी निवृत्ति है। अतः रागद्वेषमें रहकर अहिंसा करनी अहिंसामें ही हिंसा करनी है। रागद्वेष हीनकी हिंसा भी अहिंसा है। अतः सर्वावरणमूल हिंसा ही है। रागद्वष ही है। इस पर विजय प्राप्त करने वाला जिन है । हिंसाके विषयमें ठीक ही कहा है : आत्मपरिणामहिंसनहेतु त्वात्सर्वहिंसतत् । अन्तवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥ आत्माके कुद्धोपयोग रूप परिणामोंके घात करनेके कारण असत्यवचनादि सभी पाप हिंसात्मक ही हैं । असत्यादि भेदोंका पापरूपमें कथन महज मन्दुबुद्धिवालों के लिये है। हिंसाको और स्पष्ट करते हुये कहा गया है : यत्खलु कसाययोगात् प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्यकरणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ।। अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्ति हसेतिजिनागमस्य संक्षेपः ।। जैनागमका संक्षेप और सार यही है कि रागादि भावोंका प्रकट होना ही हिंसा है और उनका अप्रकट, शान्त या उच्छिन्न हो जाना ही अहिंसा है । कषाय (रागादि) वश अपने और परके भावप्राण तथा द्रव्यप्राणका घात करना हिंसा है। इस हिंसाके चार रूप हैं-स्वभावहिंसा, परभावहिंसा, स्वद्रव्यहिंसा, परद्रव्यहिसा । अभिप्राय यह है कि मूल हिंसा रागद्वेष ही है। इसका प्रकाश वाह्य हिंसा है। साधकको दोनों पर ही बल देना है। भीतर अनासक्ति हो, तो बाहरी परिग्रह अवश्य अपरिग्रह है। पर अपरिपक्व कषायवालेको वाह्य परिग्रह प्रभावित करता है। अतः भीतर और वाह्य-दोनोंसे साधना करनी चाहिये, आचरण करना चाहिये। अतः साधकको चाहिये कि पहले वह असम्यक दष्टि बने । देशचरित्र धारण करने पर वह पंचम it हो जाता है। जब सकलचरित्र धारण करने लग जाता है, तब वह छठे गुणस्थान पर पहुँच जाता है। इन तीनों प्रथम, 'पञ्चम, षष्ठ गुणस्थानवाले जीव परिणामोंकी विशुद्धिसे च्युत होनेपर दूसरे तीसरे गुणस्थानको प्राप्त होते हैं और परिणामोंकी विशुद्धि तथा चारित्रकी वृद्धि होने पर सातवेंसे लेकर ऊपरके गुणस्थानोंकी ओर बढ़ते हैं। पहले, चौथे, पाँचवें और तेरहवें गुणस्थानका काल अधिक है, शेषका -१२१ - . Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम । इस सारी साधनाको अहिंसाकी साधना कह सकते हैं। आचारमें अहिंसाके दो रूप हैं-संयम और तप । संयमसे कर्म पुदगुलोंका संवरण तथा तपसे संचितका क्षय होता है। इस प्रकार आत्माके सारे आवरण नष्ट हो जाते हैं। निराकृत आत्मस्वरूप प्रतिष्ठित हो जाता है । उपसंहार निष्कर्ष यह है कि सबसे पहले सम्यकदर्शन अर्थात् जीवाजीवादि सात तत्त्वोंमें श्रद्धा रखे । यह श्रद्धा नैसर्गिक भी हो सकती है और अजित भी। जैसे भी हो, श्रद्धावान् होकर सातों तत्त्वोंका सम्यक्ज्ञान प्राप्त करें। अर्थात पहले श्रद्धावान् होना फिर श्रद्धागोचर तत्त्वोंका ज्ञान करना और तदनन्तर यथाशक्ति श्रावक व्रत या मुनिव्रत धारण करना चाहिये । जो व्यक्ति परिस्थितियोंसे विवश है, वह विरक्ति या अनासक्तिकी दृढ़ता के लिये विचार ही करता रहे। विचार करते-करते चारित्र धारण करनेकी क्षमता उत्पन्न हो जाती है। बिना पूर्ण चरित्रके ध्यान या समाधिकी सिद्धि सम्भव नहीं है। उत्पादित और बलानीत अनासक्ति को स्वभावगत करनेके लिए निरन्तर विचार करते रहना ही एक साधन है । मनन या सम्यक्ज्ञान ही मार्ग है। इस प्रकार साधक जितना ही विषयकी ओरसे विमुख होगा, आत्माकी ओर उतना ही उन्मुख होगा। ज्यों-ज्यों आत्मचिन्तन करता है, त्यों-त्यों आत्मानुभूति होने लगती है, त्यों-त्यों संसार उसे नीरस लगने लगता है । इस तरह आत्मिक शान्तिकी वृद्धि और तेजकी समृद्धि आने लगती है। इस ध्यान या समाधिमें जो सुख मिलता है, वह अनिर्वचनीय है। आनन्दावस्थामें प्रतिष्ठित योगी कोटि-कोटि भव सञ्चित कर्मोको क्षणमात्रमें भस्म कर देता है। आत्मासे परमात्मा बन जाता है। ___इस प्रकार आलोच्य सूत्रोक्त रत्नत्रय असिद्ध दशामें मार्ग है, साधन है, आत्माकी ही परिणति रूप है। यही वेदान्तियोंके श्रवण, मनन, निदिध्यासन है। गीतामें इसे प्रणिपात, परिप्रश्न तथा सेवाके रूपमें कहा गया है। भावना, विवेक तथा तन्मूलक आचारके सम्मिलित प्रयाससे ही व्यक्तिमें निहित परमात्मावधिक सम्भावनाओंका विकास होता है, आत्मा परमात्मा बन जाता है । वस्तुतः ये दर्शन, ज्ञान चरित्र आत्मस्वभाव ही हैं जो आत्माकी ही परिणत शक्तियाँ हैं, इन्होंसे स्वभाव खुलता है। ठीक ही हैस्वभावसे ही स्वभाव पाया जाता है, तभी तो वह स्वयं प्रकाश है। स्वभाव न कहीं जाता है और न कहींसे आता है, स्वभावके ही रूपान्तरित साधनात्मक रूपसे स्वभावका ही सहज रूप उपलब्ध हो जाता है। - १२२ - Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-परम्परामें सन्त और उनकी साधना-पद्धति डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच जैन सन्त : लक्षण तथा स्वरूप सामान्यतः भारतीय सन्त साधु, मुनि, तपस्वी या यतिके नामसे अभिहित किए जाते हैं। समयको गतिशील धारामें साध-सन्तोंके इतने नाम प्रचलित रहे हैं कि उन सबको गिनाना इस छोटेसे निबन्धमें सम्भव नहीं है। किन्तु यह निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि जैन-परम्परामें साधु, मुनि तथा श्रमण शब्द विशेष रूपसे प्रचलित रहे हैं । साधु चारित्रवाले सन्तोंके नाम हैं-श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, दन्त या यति । बौद्ध परम्पराके श्रमण, क्षपणक तथा भिक्षु शब्दोंका प्रयोग भी जैनवाङ्मयमें जैन साधुओंके लिए दृष्टिगत होता है। हमारी धारणा यह है कि साधु तथा श्रमण शब्द अत्यन्त प्राचीन हैं। शौरसेनी आगम ग्रन्थोंमें तथा नमस्कार-मन्त्र में 'साहू' शब्दका ही प्रयोग मिलता है। परवर्ती कालमें जैन आगम ग्रन्थोंमें तथा आचार्य कुन्दकुन्द आदिकी रचनाओंमें साह तथा समण दोनों शब्दोंके प्रयोग भली-भाँति लक्षित होते हैं । साधुका अर्थ है-अनन्त ज्ञानादि स्वरूप शुद्धात्माकी साधना करनेवाला । जो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्तसुख और क्षायिक सम्यवत्वादि गुणोंका साधक है, वह साधु कहा जाता है। 'सन्त' शब्दसे भी यही भाव ध्वनित होता है क्योंकि सत, चित् और आनन्दको उपलब्ध होनेवाला सन्त कहलाता है। इसी प्रकार जिसे शत्रु और बन्धु वर्ग, सुख-दुःख, प्रशंसा-निन्दा, मिट्टीके ढेले, स्वर्ण और जीवन-मरणके प्रति सदा समताका भाव बना रहता है, वह श्रमण है । दूसरे शब्दोंमें जिसके राग-द्वेषका द्वैत प्रकट नहीं होता, जो सतत विशुद्धदृष्टिज्ञप्ति-स्वभाव शुद्धात्म-तत्त्वका अनुभव करता है, वही सच्चा साधु किंवा सन्त है। इस प्रकार धर्मपरिणत स्वरूपवाला आत्मा शुद्धोपयोगमें लीन होने के कारण सच्चा सुख अथवा मोक्षसुख प्राप्त करता है । साधु-सन्तोंकी साधनाका यही एकमात्र लक्ष्य होता है। जो शुद्धोपयोगी श्रमण होते है, वे राग-द्वेषादिसे रहित धर्म-परिणति स्वरूप शद्ध साध्यको उपलब्ध करनेवाले होते हैं, उन्हें ही उत्तम मुनि कहते हैं। किन्तु प्रारम्भिक भूमिकामें उनके निकटवर्ती शुभोपयोगी साधु भी गौण रूपसे श्रमण कहे जाते हैं । वास्तवमें परम जिनको आराधना करनेमें सभी जैन सन्त-साधु स्व-शुद्धात्माके ही आराधक होते हैं क्योंकि निजात्माकी आराधना करके ही वे कर्म-शत्रुओंका विनाश करते हैं । साधुके अनेक गुण कहे गए हैं। किन्तु उनमें मूल गुणोंका होना अत्यन्त अनिवार्य है। मूलगुणके बिना कोई जैन साधु नहीं हो सकता। मूलगुण ही वे बाहरी लक्षण हैं जिनके आधारपर जैन सन्तकी १. समणोत्ति संजदोत्ति य रिसिमुणिसाधुत्ति वीदरागोत्ति । णामाणि सूविहिदाणं अणगार भदंत दंतोत्ति ।। मलाचार, गा० ८८६ "अनन्तज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः ।"-धवला टीका, १, १, १ ३. समसत्तुबन्धुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणि दसमो । समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो । प्रवचनसार, गा० २४१ -१२३ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक्षाकी जाती है। यथार्थमें निर्विकल्पतामें स्थित रहने वाले साम्य दशाको प्राप्त साधु ही उत्तम कहे जाते हैं। परन्तु अधिक समय तक कोई भी श्रमण-सन्त निर्विकल्प दशामें स्थित नहीं रह सकता। अतएव सम्यक् रूपसे व्यवहार चारित्रका पालन करते हुए अविच्छिन्न रूपसे सामायिकमें आरूढ़ होते हैं । चारित्रका उद्देश्य मूलमें समताभावकी उपासना है। क्या दिगम्बर और क्या श्वेताम्बर-दोनों परम्पराओंमें मुनियोंके चारित्रको महत्त्व दिया गया है । चारित्र दो प्रकारका कहा गया है-सम्यक्त्वाचरण चारित्र और संयमाचरण चारित्र । प्रथम सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट जिनागममें प्रतिपादित तत्त्वार्थके स्वरूपको यथार्थ जानकर श्रद्धान करना तथा शंकादि अतिचार मल-दोष रहित निर्मलता सहित निःशंकित आदि अष्टांग गुणोंका प्रकट होना सम्यक्त्वाचरण चारित्र है। द्वितीय महाव्रतादिसे युक्त अट्ठाईस मूलगुणोंका संयमाचरण है । परमार्थमें तो श्रमणके निर्विकल्प सामायिक संयम रूप एक ही प्रकारका अभेद चारित्र होता है। किन्तु उसमें विकल्प या भेदरूप होनेसे श्रमणोंके मूलगुण कहे जाते हैं। दिगम्बर परम्पराके अनुसार सभी कालके तीर्थकरोंके शासनमें सामायिक संयमका ही उपदेश दिया जाता रहता है । किन्तु अन्तिम तीर्थंकर महावीर तथा आदि तीर्थकर ऋषभदेवने छेदोपस्थापनाका उपदेश दिया था। इसका कारण मुख्य रूपसे घोर मिथ्यात्वी जीवोंका होना कहा जाता है। आदि तीर्थ में लोग सरल थे और अन्तिममें कुटिल बुद्धि वाले। अठाईस मूलगुण इस प्रकार कहे गए है : पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियोंका निरोध, छह आवश्यक, केशलोंच, नग्नत्व, अस्नान, भूमिशयन, दन्तधावन-वर्जन, खड़े होकर भोजन और एक बार आहार । श्वेताम्बर परम्परामें भी पाँच महाव्रतोंको अनिवार्य रूपसे माना गया है। पाँच महाव्रतों और पाँच समितियोंके बिना कोइ जैन मुनि नहीं हो सकता । 'स्थानांगसूत्र में दश प्रकारकी समाधियोंमें पाँच महाव्रत तथा पाँच समितिका उल्लेख किया गया है। पाँच महाव्रतोंमें सब प्रकारके परिग्रहका त्याग हो जाता है। जहाँ सम्पूर्ण परिग्रहका त्याग है, वहाँ सभी वस्त्रोंका भी त्याग है। कहा भी है--सम्पूर्ण वस्त्रोंका त्याग, अचेलकता या नग्नता, केशलोंच करना, शरीरादिसे ममत्व छोड़ना या कायोत्सर्ग करना और मयूरपिच्छिका धारण करना-यह चार प्रकारका औत्सगिक लिंग है। श्वेताम्बरोंके मान्य आगम ग्रन्थमें भी साधुके अठाईस मूलगुणोंमेंसे कई बातें समान मिलती हैं। "स्थानांगसूत्र में उल्लेख है-'आर्यो ।'..."मैने पाँच महाव्रतात्मक, सप्रतिक्रमण और अचेलधर्मका निरूपण किया है। आर्यो। "मैंने नग्नभावत्व, मुण्डभाव, अस्नान, दन्तप्रक्षालन-वर्जन, छत्र-वर्जन, पादुका-वर्जन, भूमि-शय्या, केशलोच आदिका निरूपण किया है । श्वेताम्बर-परम्परामें साधुके मूलगुणोंकी १. जिपणाणदिठिसुद्धं पढम सम्मत्तचरणचारित्तं । विदियं संजमचरणं जिणणासदेसियं तं पि । चारित्तपाइड, गा० ५ २. बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उवदिसंति ।। छेदुवट्ठावणियं पुण भयवं उसहो य वीरो य ।। मूलाचार, गा०५३३ वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतधावणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ।। एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता ॥ प्रवचनसार, गा० २०८-२०९ ४. ठाणांगसुत्त, स्था० १०, सूत्र ८ ५. अच्चलक्क लोचो वोसदसरीरदा य पडिलिहणं । एसोह लिंगकप्पो चदुविहो होदि उस्सग्गे ॥ भगवती आराधना, गा० ८२ ६. मनि नथमल : उत्तराध्ययन-एक समीक्षात्मक अध्ययन, कलकत्ता, १९६८, १० १२८ -१२४ - Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या सामान्यतः छह मानी गई है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने मूलगुणोंकी संख्या पाँच और छह दोनोंका उल्लेख किया है सम्यक्त्वसे सहित पाँच महाव्रतोंको उन्होंने पाँच मूलगुण कहा है। इन पाँच महावतोंके साथ रात्रिभोजन-विरमण मिलाकर मूलगणोंकी संख्या छह कही जाती है। ___ वास्तवमें जैन साधु-सन्तोंका सच्चा स्वरूप दिगम्बर मुद्रामें विराजित वीतरागतामें ही लक्षित होता है । अतएव सभी भारतीय सम्प्रदायोंमें समानान्तर रूपसे दिगम्बरत्वका महत्त्व किसी-न-किसी रूप में स्वीकार किया गया है। योगियोंमें परमहंस साधुओंका स्थान सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है । आजीवक श्रमण नग्न रूपमें ही विहार करते थे। इसी प्रकार हिन्दुओंके कापालिक साधु नागा ही होते हैं जो आज भी विद्यमान हैं । यह परम्परा अत्यन्त प्राचीन मानी जाती है । भारतीय सन्तोंकी परम्परा वैदिक और श्रमण-इन दो रूपोंमें अत्यन्त प्राचीन कालसे प्रवाहित रही है। इसे ही हम दूसरे शब्दोंमें ऋषि-परम्परा तथा मुनि-परम्परा कह सकते हैं । मुनि-परम्परा आध्यात्मिक रही है जिसका सभी प्रकारसे आर्हत संस्कृतिसे सम्बन्ध रहा है। ऋषि-परम्परा वेदोंको प्रमाण माननेवाली पूर्णतः बार्हत रही है। श्रमण मुनि वस्तु-स्वरूपके विज्ञानी तथा आत्म-धर्मके उपदेष्टा रहे हैं। आत्म-धर्मकी साधनाके बिना कोई सच्चा श्रमण नहीं हो सकता। श्रमणपरम्पराके कारण ब्राह्मण धर्ममें वानप्रस्थ और संन्यासको प्रश्रय मिला । जैनधर्ममें प्रारम्भसे ही वानप्रस्थके रूपमें ऐलक, क्षुल्लक (लंगोटी धारण करने वाले) साधकोंका वर्ग दिगम्बर-परम्परामें प्रचलित रहा है। संन्यासीके रूपमें पूर्ण नग्न साधु ही मान्य रहे हैं । केवल जैन साहित्यमें ही नहीं, वेद, उपनिषद्, पुराणादि साहित्यमें भी श्रमण-संस्कृतिके पुरस्कर्ता 'श्रमण'का उल्लेख तपस्वीके रूपमें परिलक्षित होता है। इन उल्लेखोंके आधारपर जैनधर्म के मतकी प्राचीनताका निश्चित होता है। इतना ही नहीं, इस काल-चक्रकी धारामें अभिमत प्रथम तीर्थकर ऋषभदेवका भी सादर उल्लेख वैदिक वाङ्मय तथा हिन्दू पुराणोंमें मिलता है । अतएव इनकी प्रामाणिकतामें कोई सन्देह नहीं है। पुराण-साहित्यके अध्ययनसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भिक्षुओंके पाँच महाव्रत या यम सर्वमान्य थे। 'जाबालोपनिषद्'का यह वर्णन भी ध्यान देने योग्य है कि निर्ग्रन्थ, निष्परिग्रही, नग्नदिगम्बर साधु ब्रह्म मार्गमें संलग्न है। उपनिषद्-साहित्यमें 'तुरीयातीत' अर्थात् सर्वत्यागी संन्यासियोंका १. विशेषावश्यक भाष्य, गा० १८२९ २. सम्मत्त समेयाई महव्वयाणुव्वयाई मूलगुणा । वही, गा. १२४४ ३. डा० वासुदेवशरण अग्रवाल : जैन साहित्यका इतिहास, पूर्व पीठिकासे उद्धृत, पृ० १३ ४. "तृदिला अतृदिलासो अद्रयो श्रमणा अशृथिता अमृत्यवः ।'-ऋग्वेद, १०, ९४, ११ "श्रमणो श्रमणस्तापतो तापसो...." बृहदारण्यक, ४, ३, २२ । "वातरशना ह वा ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनो बभूव"-तैत्तिरीय आरण्यक, २ प्रपाठक, ७ अनुवाक, १-२तथा-तैत्तरीयोपनिषद २, ७ "वातरशना य ऋषयः श्रमणा उर्ध्वमन्थिनः।"-श्रीमदभागवत ११, ६, ४७ "यत्र लोका न लोकाः....श्रमणो न श्रमणस्तापसो।"-ब्रह्मोपनिषद् "आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणाः जनाः ।"--श्रीमद्भागवत १२, ३, १८ ५. अस्तेयं ब्रह्मचर्यञ्च अलोभस्त्याग एव च । व्रतानि पंच भिक्षणामहिंसा परमात्विह ।। लिंगपराण. ८९. २४ ६. "यथाजातरूपधरो निर्ग्रन्थो निष्परिग्रहस्तत्तद् ब्रह्ममार्गे...."-जाबालोपनिषद्, पृ० २६० - १२५ - Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो वर्णन किया गया है, उनमें परमहंस साधकी भाँति अपनी उत्तम चर्या लिए हए आत्म-ज्ञान-ध्यानमें लीन दिगम्बर जैन साधु कहे जाते है । संन्यासीको भी अपने शुद्धरूपमें दिगम्बर बताया गया है । टीकाकारोंने 'अवधूत' का अर्थ दिगम्बर किया है। भर्तृहरिने दिगम्बर मुद्राका महत्त्व बताते हुए यह कामनाकी थी कि मैं इस अवस्थाको कब प्राप्त होऊँगा? क्योंकि दिगम्बरत्त्वके बिना कर्म-जंजालसे मुक्ति प्राप्त करना सम्भव नहीं है। साधना-पद्धति यथार्थमें स्वभावकी आराधनाको साधना कहते हैं। स्वभावकी आराधनाके समय समस्त लौकिक कर्म तथा व्यावहारिक प्रवृत्ति गौण हो जाती है, क्योंकि उसमें राग-द्वेषकी प्रवृत्ति होती है। वास्तवमें प्रवृत्तिका । मूल राग कहा गया है । अतः राग-द्वेषके त्यागका नाम निवृत्ति है। राग-द्वेषका सम्बन्ध बाहरी पर-पदार्थोंसे होनेके कारण उनका भी त्याग किया जाता है, किन्तु त्यागका मूल राग-द्वेष-मोहका अभाव है। जैसे-जैसे यह जीव आत्म-स्वभावमें लीन होता जाता है, वैसे-वैसे धार्मिक क्रिया प्रवृत्ति रूप व्रत-नियमादि सहज ही छूटते जाते हैं । साधक दशामें साधु जिन मूल गुणों तथा उत्तर गुणोंको साध्यके निमित्त समझकर पूर्वमें अंगीकार करता है, व्यवहारमें उनका पालन करता हुआ भी उनसे साक्षात् मोक्षकी प्राप्ति नही मानता । इसीलिए कहा गया है कि व्यवहारमें बन्ध होता है और स्वभावमें लीन होनेसे मोक्ष होता है। इसीलिए स्वभावकी आराधनाके समय व्यहारको गौण कर देना चाहिए। जिनकी व्यवहारकी ही एकान्त मान्यता है, वे सुखदुखादि कर्मोसे छूट कर कभी सच्चे सुखको उपलब्ध नहीं होते। क्योंकि व्यवहार पर-पदार्थोके आश्रयसे होता है और उनके ही आश्रयसे राग-द्वषके भाव होते हैं। परन्तु परमार्थ निज आत्माश्रित है, इसलिए कर्म-प्रवृत्ति छुड़ानेके लिए परमार्थका उपदेश दिया गया है। व्यवहारका आश्रय तो अभव्य जीव भी ग्रहण करते हैं। व्रत, समिति, गुप्ति, तप और शीलका पालन करते हुए भी वे सदा मोही, अज्ञानी बने रहते हैं । जो ऐसा मानते हैं कि पर-पदा जीवमें राग-द्वेष उत्पन्न करते हैं, तो यह अज्ञान है। क्योंकि आत्माके उत्पन्न होनेवाले रागद्वेषका कारण अपने ही अशुद्ध परिणाम हैं, अन्य द्रव्य तो निमित्तमात्र हैं। परमार्थमें अत्मा अनन्त शक्ति सम्पन्न चैतन्य निमित्त की अपेक्षा मात्र नित्य, अभेद एक रूप है। उसमें ऐसी स्वच्छता है कि दर्पणकी भाँति जब जैसा निमित्त मिलता है वैसा स्वयं परिणमन करता है, उसको अन्य कोई परिणमाता नहीं है। किन्तु जिनको आत्मस्वरूपका ज्ञान नहीं है, वे ऐसा मानते हैं कि आत्माको परद्रव्य जैसा यह परिणमन करता है । यह मान्यता अज्ञानपूर्ण है क्योंकि जिसे कार्य के पुरुषार्थका पता होगा, वही अन्य द्रव्यकी १. “संन्यासः षड्विधो भवति-कुटिचक्रं बहुदकहंस परमहंस तुरीयातीत अवधूश्रुति ।-संन्यासोपनिषद्,१३ तुरीयातीत–सर्वत्यागी तुरीयातीतो गोमुखवृत्या फलाहारी चेति गृहत्यागी देहमात्रावशिष्टो दिगम्बरः कुणपवच्छरीरवृत्तिकः । २. एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः । कदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मलनक्षमः ॥ वैराग्यशतक, ५८, वि० सं० १९८२ का संस्करण ३. ववहारादो बंधो मोक्खो जम्हा सहावसंजुत्तो। तम्हा कुरु तं गउणं सहावमाराहणाकाले । नयचक्र, गा० २४२ ४. वदसमिदीगुत्तिओ सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं । कुव्वतो वि अभव्वो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु ।। समयसार, गा०२७३ - १२६ - Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाको बदलकर उसे शक्तिहीन कर सकता है; परन्तु सभी द्रव्य अपने-अपने परिणमनमें स्वतन्त्र हैं । उनको मूलरूपसे बनाने और मिटानेका भाव करना कर्तु स्वरूप अहंकार है, घोर अज्ञान है'। जैनदर्शन कहता है कि एकान्तसे इंत या अद्वैत नहीं माना जा सकता है। किन्तु लोकमें पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ इहलोक-परलोक, अन्धकार-प्रकाश, ज्ञान अज्ञान, बन्ध-मोक्षका होना पाया जाता है, अतः व्यवहारसे मान लेना चाहिए। यह कथन भी उचित नहीं है कि कर्मद्वैत, लोकद्वैत आदिकी कल्पना अविद्या के निमित्त से होती है क्योंकि विद्या अविद्या और वन्य-मोक्षकी व्यवस्था अद्वैतमें नहीं हो सकती है। हेतुके द्वारा यदि अद्वैतकी सिद्धि की जाए, तो हेतु तथा साध्य के सद्भावमें इसकी भी सिद्धि हो जाती है। इसी प्रकार हेतुके बिना यदि अद्वैतकी सिद्धिकी जाये, तो वचन मात्रसे द्वैतकी सिद्धि हो जाती है । अतएव किसी अपेक्षासे हैतको और किसी अपेक्षासे अद्वैतको माना जा सकता है; किन्तु वस्तुस्थिति वैसी होनी चाहिए क्योंकि आत्मद्रव्य परमार्थसे बन्ध और मोक्षमें अतका अनुसरण करनेवाला है। इसी विचार- सरणिके अनुरूप परमार्थोन्मुखी होकर व्यवहारमार्ग में प्रवृत्तिका उपदेश किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्दका कथन है - साधु पुरुष सदा सम्यक दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका सेवन करें परमार्थमें इन तीनोंको आत्मस्वरूप ही जाने । परमार्थ या निश्चय अभेद रूप है और व्यवहार भेद रूप है। जिनागमका समस्त विवेचन परमार्थ और व्यवहार —- दोनों प्रकारसे किया गया है । येही दोनों अनेकान्तके मूल हैं । साधना : क्रम व भेद है जिस प्रकार ज्ञान, ज्ञप्ति ज्ञाता और शेयका प्रतिपादन किया जाता है, उसी प्रकारसे साधन, सापना, साधक और साध्यका भी विचार किया गया है। साधनसे ही सामनाका क्रम निश्चित होता है । साधनका निश्चय साध्य-साधक सम्बन्धसे किया जाता है । सम्बन्ध द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आधारपर निश्चित किया जाता है। जहाँ पर अभेद प्रधान होता और भेद गौण अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावकी प्रत्यासत्ति होती है, उसे सम्बन्ध कहते हैं स्वभाव मात्र स्वस्वामित्वमयी सम्बन्ध-यशक्ति कही जाती है । साधनाके मूलमें यही परिणमनशील लक्षित होती है। जैनदर्शनके अनुसार मनुष्यमात्रका साध्य कर्मक्लेश मुक्ति या आत्मोपलब्धि है। अपने असाधारण गुणसे युक्त स्व-परप्रकाश आत्मा स्वयं साधक है। दूसरे शब्दोंसे शुद्ध आत्माकी स्वतः उपलब्धि साध्य है और अशुद्ध आत्मा साधक है। आत्मद्रव्य निर्मल ज्ञानमय है जो परमात्मा रूप है । इस प्रकार साध्यको सिद्ध करनेके लिए जिन अन्तरंग और बहिरंग निमित्तोंका आलम्बन लिया जाता है, उनको साधन कहा जाता है और तद्रूप प्रवृत्तिको सामना १. अज्ञानतस्तु सतॄणाभ्यवहारकारी ज्ञानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः । पीत्वा ज्ञानं दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्धया गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसी रसालाम् ॥ २. कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं च नो भवेत् । विद्या विद्याद्वयं न स्याद् बन्धमोक्षद्वयं तथा ॥ तो रद्वैतसिद्धिश्चेद् द्वैतं स्यातुसाध्ययोः । , हेतुना चेद्विना सिद्धित वाङ्मात्रतो न किम् । आप्तमीमांसा प० २ का० २५-२६ ३. दंसणणाणचरिताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं । पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो । समयसार, गा० १६ ताणि ४. जेहउ णिम्मलु पाणमउ सिडिहि विसर देउ । तेहउ शिवसइ बंभु पर देहहं मं करि भेउ ॥ परमात्म प्रकाश १, २६ 1 - - १२७ - - समयसार कलश श्लो० ५७ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं । जैनधर्मकी मूलधुरी वीतरागता है । वीतरागताकी परिणतिमें जो निमित्त होता है, उसे ही लोकमें साधन या कारण कहा जाता है । वीतरागताकी प्राप्ति में सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र व तप साधन कहे जाते हैं । इनको ही जिनागममें आराधना नाम दिया गया है। आराधनाका मूल सूत्र है— वस्तु स्वरूपकी वास्तविक पहचान | जिसे आत्माकी पहचान नहीं है, वह वर्तमान तथा अनुभूयमान शुद्ध दशाका बोध नहीं कर सकता । अतएव सकर्मा तथा अबन्ध - दोनों ही दशाओंका वास्तविक परिज्ञान कर साधक भेद-विज्ञानके बलपर मुक्तिकी आराधनाके मार्गपर अग्रसर हो सकता है । जैनधर्मकी मूलधारा वीतरागतासे उपलक्षित वीतराग परिणति है । उसे लक्षकर जिस साधनापद्धतिका निर्वचन किया गया है, वह एकान्ततः न तो ज्ञानप्रधान है, न चारित्रप्रधान और न केवल मुक्तिप्रधान । वास्तवमें इसमें तीनोंका सम्यक् समन्वय है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यह सम्यक् दर्शन ज्ञानमूलक चारित्रप्रधान साधना पद्धति । यथार्थ में चारित्र पुरुषका दर्पण है । चारित्रके निर्मल दर्पण में ही पुरुषका व्यक्तित्व सम्यक् प्रकार प्रतिबिम्बित होता है । वास्तवमें चारित्र ही धर्म है । जो धर्म है वह साम्य है - ऐसा जिनागममें कहा गया है। मोह, राग-द्वेषसे रहित आत्माका परिणाम साम्य है । जिस गुणके निर्मल होनेपर अन्य द्रव्योंसे भिन्न सच्चिदानन्द विज्ञानघनस्वभावी कालिक ध्रुव आत्मचैतन्यकी प्रतीति हो, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । सम्यग्दर्शनके साथ अविनाभाव रूपसे भेद - विज्ञान युक्त जो है, वही सम्यग्ज्ञान है तथा राग-द्वेष व योगकी निवृत्ति पूर्वक स्वात्म-स्वभावमें संलीन होना सम्यक् चारित्र । ये तीनों साधन क्रमसे पूर्ण होते हैं । सर्वप्रथम सम्यग्दर्शनकी पूर्णता होती है, तदनन्तर सम्यग्ज्ञानकी और अन्तमें सम्यक् - चारित्रमें पूर्णता होती है । अतएव इन तीनोंकी पूर्णता होनेपर ही आत्मा विभाव-भावों तथा कर्म बन्धनों से मुक्त होकर पूर्ण विशुद्धताको उपलब्ध होता है । यही कारण है कि ये तीनों मिलकर मोक्षके साधन माने गए हैं। इनमें से किसी एकके भी अपूर्ण रहनेपर मोक्ष नहीं हो सकता । जैनधर्म विशुद्ध आध्यात्मिक है । अत: जैन साधु-सन्तोंकी चर्या भी आध्यात्मिक है । किन्तु अन्य सन्तोंसे इनकी विलक्षणता यह है कि इनका अध्यात्म चारित्रनिरपेक्ष नहीं है । जैन सन्तोंका जीवन अथसे इति तक परमार्थ चारित्रसे भरपूर है । उनकी सभी प्रवृत्तियाँ व्यवहार चारित्र सापेक्ष होती हैं । दूसरे शब्दोंमें जैन सन्त समन्वय और समताके आदर्श होते हैं । उनमें दर्शन, ज्ञान और चारित्रका समन्वय तथा सुख-दुःखादि परिस्थितियोंमें समताभाव लक्षित होता है । उनका चारित्र राग-द्वेष, मोहसे रहित होता है । इस प्रकार अन्तरंग और बहिरंग — दोनोंसे आराधना करते हुए जो वीतराग चारित्रके अविनाभूत निज शुद्धात्माकी भावना करते हैं, उन्हें साधु कहते है । उत्तम साधु स्वसंवेदनगम्य परमनिर्विकल्प समाधिमें निरत १. उज्जोवणमुज्जवणं णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं । दंसणणाणचरितं तवाणमाराहणा भणिदा ॥ भगवती आराधना, अ०१, गा० २ चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्तिणिद्दिट्ठो । मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥ प्रवचनसार, गा० ७ ३. " आभ्यन्तरनिश्चयचतु विधाराधनाबलेन च बाह्याभ्यन्तरमोक्षमार्गद्वितीयनामाभिधेयेन कृत्वा यः कर्ता वीतरागचारित्राविनाभूतं स्वशुद्धात्मानं साधयति भावयति स साधुर्भवति ।" - बृहद्द्रव्यसंग्रह, गा० ५४ की व्याख्या २. तथा दंसणणाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारितं । साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स ।। - द्रव्यसंग्रह, गा० ५४ - १२८ - Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहते हैं। ज्ञानानन्य स्वरूपका साधक साधु आत्मानन्दको प्राप्त करता ही है। अतः सर्वक्रियाओंसे रहित साधुको ज्ञानका आथय ही शरणभूत होता है। कहा भी है जो परमार्थ स्वरूप ज्ञानभाव में स्थित नहीं हैं, वे भले ही व्रत, संयम रूप तप आदिका आचरण करते रहें; किन्तु यथार्थ मोक्षमार्ग उनसे दूर है । क्योंकि पुण्य-पाप रूप शुभाशुभ क्रियाओंका निषेध कर देने पर कर्मरहित शुद्धोपयोग की प्रवृत्ति होने पर साधु आश्रयहोन नहीं होते । निष्कर्म अवस्था में भी स्वभाव रूप निर्विकल्प ज्ञान ही उनके लिए मात्र शरण है। अतः उस निर्विकल्प ज्ञानमें तल्लीन साधु सन्त स्वयं ही परम सुखका अनुभव करते हैं'। दुःखका कारण आकुलता है और सुखका कारण है— निराकुलता । प्रश्न यह है कि आकुलता क्यों होती है ? समाधान यह है कि उपयोगके निमित्तसे आकुलता निराकुलता होती है। उपयोग क्या है ? ज्ञान दर्शन रूप व्यापार उपयोग है। यह चेतनमें ही पाया जाता है, अचेतनमें नहीं क्योंकि चेतना शक्ति ही उपयोगका कारण है । अनादि काल से उपयोगके तीन प्रकारके परिमाण हो रहे हैं। यद्यपि परिणाम आत्माकी स्वच्छताका विकार है। किन्तु मोहके निमित्तसे यह जैसा जैसा परिणमन करती है, वैसी वैसी परिणति पाई जाती है। जिस प्रकार स्फटिक मणि श्वेत तथा स्वच्छ होती है, किन्तु उसके नीचे रखा हुआ कागज लाल या हरा होनेसे वह मणि भी लाल या हरी दिखलाई पड़ती है, इसी प्रकार आत्मा अपने स्वभाव में शुद्ध, निरञ्जन चैतन्यस्वरूप होनेपर भी मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अवत इन तीन उपयोग रूपोंमें अनादि कालसे परिणत हो रही है। ऐसा नहीं है कि पहले इसका स्वरूप शुद्ध था, कालान्तर में अशुद्ध हो गया हो। इस प्रकार मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति तीन प्रकारके परिणाम — विकार समझना चाहिए। इनसे युक्त होने पर जीव जिस-जिस भावको करता है, उस उस भावका कर्ता कहा जाता है। किन्तु प्रवृत्ति में चेतन-अचेतन भिन्न-भिन्न । हैं । इसलिये इन दोनोंको एक मानना या अपना मानना अज्ञान है और जो इन्हें ( पर पदार्थों को ) अपना मानते हैं, वे ही ममत्व वृद्धि कर अहंकार - ममकार करते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि कर्तत्व तथा अहंकारके मूलमें भोले प्राणियोंका अज्ञान हो है । इसलिये जो ज्ञानी है, वह यह जाने कि पर द्रव्यमें आपा मानना ही अज्ञान है । ऐसा निश्चय कर सर्व कर्तृत्वका त्याग कर दे । वास्तवमें जैन साधु किसीका भी, यहाँ तक कि भगवान्‌को भी अपना कर्ता नहीं मानता है। कर्मकी धाराको बदलनेवाला वह परम पुरुषार्थी होता है। सतत ज्ञान-धारामें लीन हो कर वह अपने आत्म-पुरुषार्थ के बल कर मुक्तिका मार्ग प्रशस्त करता स्वभावका वेदन करता हुआ जो अपनेमें ही अचल व स्थिर हो जाता है, अपने स्वभावसे हटता नहीं है, वही साधु मोक्ष को उपलब्ध होता है । जैन साधुका अर्थ है - इन्द्रियविजयी आत्म-ज्ञानी । ऐसे आत्मज्ञानीके दो ही प्रमुख कार्य बतलाये है-ध्यान और अध्ययन इस भरतक्षेत्र में वर्तमान कालमें साधुके धर्मध्यान होता है। यह धर्मध्यान उस १. निषिद्धं सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल प्रवृत्ते नैष्कर्म्ये न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः । तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणम् स्वयं विन्दग्ने परममृतं परममृतं तत्र विरत | समयसारकलश श्लोक १-४ । २. उवओगस्स अणाई परिणामा तिष्णि मोहजुत्तस्स । मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णायव्वो । समयसार, गा० ८९ ३. देश दुसो कता आदा णिच्छयविहि परिकहिदो । एवं खलु जो जागदि सो मुंचदि सव्वकलितं । वही गा० ९७ -- १७ - १२९ - Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिके होता है जो आत्मस्वभाव में स्थित है । जो ऐसा नहीं मानता है, वह अज्ञानी है, उसे धर्मध्यानके स्वरूपका ज्ञान नहीं है । जो व्यवहारको देखता है, वह अपने आपको नहीं लख सकता है । इसलिये योगी सभी प्रकारके व्यवहारको छोड़ कर परमात्माका ध्यान करता है । जो योगी ध्यानी मुनि व्यवहार में सोता है, वह आत्मस्वरूप-चर्यामें जागता है । किन्तु जो व्यवहारमें जागता है, वह आत्मचर्या में सोता रहता है । स्पष्ट है कि साधुके लौकिक व्यवहार नहीं है और यदि है, तो वह साधु नहीं है । धर्मका व्यवहार संघ में रहना, महाव्रतादिकका पालन करनेमें भी वह उस समय तत्पर नहीं होता । अतः सब प्रवृत्तियोंकी निवृत्ति करके आत्मध्यान करता है । अपने आत्मस्वरूपमें लीन हो कर वह देखता -- जानता है कि परमज्योति स्वरूप सच्चिदानन्दका जो अनुभव है, वही मैं हूँ, अन्य सबसे भिन्न हूँ । आचार्य कुन्दकुन्दका कथन है- जो मोहदलका क्षय करके विषयसे विरक्त हो कर मनका निरोध कर स्वभाव में समवस्थित है, वह आत्माका ध्यान करनेवाला है । जो आत्माश्रयी प्रवृत्तिका आश्रय ग्रहण करता है, उसके ही परद्रव्य-प्रवृत्तिका अभाव होने से विषयोंकी विरक्तता होती है । जैसे समुद्रमें एकाकी संचरणशील जहाज पर बैठे हुए पक्षीके लिए उस जहाज के अतिरिक्त अन्य कोई आश्रयभूत स्थान नहीं है, उसी प्रकार ज्ञान-ध्यानसे विषय विरक्त शुद्ध चित्तके लिए आत्माके सिवाय किसी द्रव्यका आधार नहीं रहता । आत्माके निर्विकल्प ध्यानसे ही मोह-ग्रन्थिका भेदन होता है । मोह—गाँठके टूटने पर फिर क्या होता है ? इसे ही समझाते हुए आचार्य कहते हैं - जो मोहग्रन्थिको नष्ट कर, राग-द्वेषका क्षय कर सुख-दुःखमें समान होता हुआ श्रामण्य या साधुत्वमें परिणमन करता है, वही अक्षय सुखको प्राप्त करता है । जिनागममें श्रमण या सन्त दो प्रकारके बताये गए हैं- शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी । जो अशुभ प्रवृत्तियोंसे राग तो नहीं करते, किन्तु जिनके व्रतादि रूप शुभ प्रवृत्तियोंमें राग विद्यमान है वे सराग चारित्रके धारक श्रमण कहे गए हैं । परन्तु जिनके किसी भी प्रकारका राग नहीं है, वे वीतराग श्रमण है । किन्तु यह निश्चित है कि समभाव और आत्मध्यानकी चर्या पूर्वक जो साधु वीतरागताको उपलब्ध होता है, वही कर्म-क्लेशोंका नाशकर सच्चा सुख या मोक्ष प्राप्त करता है, अन्य नहीं । इस सम्बन्धमें जिनागमका सूत्र यही है कि रागी आत्मा कर्म बाँधता है और राग रहित आत्मा कर्मोंसे मुक्त होता है । निश्चयसे जीवोंके बन्धका संक्षेप यही जानना चाहिए । इसका अर्थ यह है कि चाहे गृहस्थ हो या सन्त, सभी राग १. भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स । तं अप्पसहावठिदे णहु भण्णइ सो वि अण्णाणी ॥ -- मोक्षपाहुड, गा० ७६ २. जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जमि । जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ॥ - मोक्षपाहुड, गा० ३१ ३. जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरंभित्ता । समव दो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा ।। प्रवचनसार, गा० १९६ ४. जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे । होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अक्खयं लहदि । वही, गा० १९५ ५. असुहेण रायरहिओ वयाइरायेण जो हु संजुत्तो । सो इह भणिय सराओ मुक्को दोहणं पि खलु इयरो | नयचक्र, गा० ३३१ ६. रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहि रागरहिदप्पा | एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो । प्रवचनसार, गा० १७९ - १३० - Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वेषके कारण संसार-चक्रमें आवर्तन करते हैं और जब रागसे छूट जाते हैं, तभी मुक्तिके कगारपर पहुँचते हैं। केवल साधु-सन्तका भेष बना लेनेसे या बाहरसे दिखने वाली सन्तोचित क्रियाओंके पालन मात्रसे कोई सच्चा श्रमण-सन्त नहीं कहा जा सकता। जिनागम क्या है ? यह समझाते हुए जब यह कहा जाता है कि जो विशेष नहीं समझते हैं, उनको इतना ही समझना चाहिए कि जो वीतरागका आगम है उसमें रागादिक विषय-कषायका अभाव और सम्पूर्ण जीवोंकी दया-ये दो प्रधान है। फिर, हिंसाका वास्तविक स्वरूप ही यह बताया गया है कि जहाँ-जहाँ राग-द्वेष भाव हैं, वहाँ-वहाँ हिसा है और जहाँ हिंसा है वहाँ धर्म नहीं है। श्रमण-सन्त तो धर्मकी मूर्ति कहे गए हैं। वे पूज्य इसीलिए हैं कि उनमें धर्म है। धर्मका आविर्भाव की स्थितिमें ही होता है जो वीतराग चारित्रसे यक्त साक्षात केवलज्ञानको प्रकट करनेवाली होती है। यथार्थमें निश्चय ही साध्य स्वरूप है । यही कहा गया है कि बाह्य और अन्तः परमतत्त्वको जानकर ज्ञानका ज्ञानमें ही स्थिर होना निश्चयज्ञान है। यथार्थमें जिस कारणसे परद्रव्यमें राग है, वह संसारका ही कारण है। उस कारणसे ही मुनि नित्य आत्मामें भावना करते हैं, आत्मस्वभावमें लीन रहनेकी भावना भाते हैं। क्योंकि परद्रव्यसे राग करनेपर रागका संस्सार दृढ़ होता है और वह वासनाकी भाँति जन्मजन्मान्तरों तक संयुक्त रहता है। वीतरागताकी भावना उस संस्कारको शिथिल करती है, उसकी आसक्ति से चित्त परावृत्त होता है और आसक्तिसे हटनेपर ही जैन साधुकी साधना प्रशस्त होती है। आचार्य समन्तभद्रने अत्यन्त सरल शब्दोंमें जैन साधके चार विशेषणोंका निर्देश किया है-जो विषयोंकी वांछासे रहित, छह कायके जीवोंके घातके आरम्भसे रहित, अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहसे रहित तथा ज्ञान-ध्यानतपमें लीन रहते हैं, वे ही तपस्वी प्रशंसनीय है । इस प्रकार अध्यात्म और आगम-दोनोंकी परिपाटीमें जैन सन्तको ध्यान व अध्ययनशील बतलाया है। ध्यानसे ही मन, वचन और काय-इन तीनों योगोंका निरोध होकर मोहका विनाश हो जाता है । ___ जैन-परम्परामें संसारका मूल कारण मोह कहा गया है। मोहके दो भेद हैं-दर्शनमोह और चारित्रमोह । दर्शनमोहके कारण ही इस जीवकी मान्यता विपरीत हो रही है । सम्यक् मान्यताका नाम ही सम्यक्त्व है। मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयमके कारण ही यह जीव संसारमें अनादि कालसे भ्रमण कर रहा है । अतएव इनसे छूट जानेका नाम ही मुक्ति है। मुक्ति किसी स्थान या व्यक्तिका नाम नहीं है। यह वह स्थिति है जिसमें प्रतिबन्धक कारणोंके अभावसे व्यक्त हुई परमात्माकी शक्ति अपने सहज, स्वाभाविक रूपमें प्रकाशित होती है। दूसरे शब्दोंमें यह आत्मस्वभाव रूप ही है। इस अवस्थामें न तो आत्माका अभाव होता है और न उसके किसी गुणका नाश होता है और न संसारी जीवकी भांति इन्द्रिया १. बहिरंत परमतच्चं णच्चा णाणं खु जं ठियं णाणे । __ तं इह णिच्छयणाणं पुवं तं मुणह ववहारं ।।-नयचक्र, गा० ३२७ २. जेण रागो परे दव्वे संसारस्स हि कारणं । तेणावि जोइओ णिच्चं कुज्जा अप्पे समावणं ।।-मोक्षपाहुड, गा० ७१ ३. विषयाशावशातीतो निरारम्भो परिग्रहः । ___ ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥-रत्नकरण्डश्रावकाचार, १, १० ४. जं अप्पसहावो मूलोत्तरपयडिसंचियं मुयइ । तं मुक्खं अविरुद्धं दुविहं खलु दन्वभावगयं ॥–नयचक्र, गा० १५८ - १३१ - Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीन प्रवृत्ति होती है; किन्तु समस्त लौकिक सुखोंसे परे स्वाधीन तथा अनन्त चतुष्टययुक्त हो अक्षय, निरावास, सतत अवस्थित सच्चिदानन्द परब्रह्म की स्थिति बनी रहती है। . आध्यात्मिक उत्थानके विभिन्न चरण वर्तमानमें यह परम्परा दिगम्बर और श्वेताम्बर रूपसे दो मख्य सम्प्रदायोंमें प्रचलित है। दोनों ही सम्प्रदायोंके साधु-सन्त मूलगुणों तथा छह आवश्यकोंका नियमसे पालन करते हैं । दिगम्बर-परम्परामें मूलगुण अट्ठाईस माने गए हैं, किन्तु श्वेताम्बर-परम्परामें मूलगुणोंकी संख्या छह है। दोनों ही परम्पराएँ साधनाके प्रमुख चार अंगों (सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र और तप) को समान रूपसे महत्त्व देती है । इसी प्रकार दर्शनके आठ अंग, ज्ञानके पाँच अंग, चारित्रके पाँच अंग और तपकी साधनाके बारह अंग दोनोंमें समान हैं । तपके अन्तर्गत बाह्य और अन्तरंग-दोनों प्रकारके तपोंको दोनों स्वीकार करते हैं । बहिरंग तपके अन्तर्गत कायक्लेशको भी दोनों महत्त्वपूर्ण मानती हैं । दश प्रकारकी समाचारी भी दोनोंमें लगभग समान है । समाचार या समाचारीका अर्थ है-समताभाव । किन्तु दोनोंकी चर्याओंमें अन्तर है। परन्तु इतना स्पष्ट है कि श्रमण-सन्तोंके लिए प्रत्येक चर्या, समाचारी, आवश्यक कर्म तथा साधनाके मूलमें समता भाव बनाये रखना अनिवार्य है। इसी प्रकार मोह आदि कर्मके निवारणके लिए ध्यान-तप अनिवार्य माना गया है। यह निश्चित है कि भारतकी सभी धार्मिक परम्पराओंने साधु-सन्तोंके लिए परमतत्त्वके साक्षात्कार हेतु आध्यात्मिक उत्थानकी विभिन्न भमिकाओंका प्रतिपादन किया है। बौद्धदर्शनमें छह भमियोंका वर्णन किया गया है। उनके नाम हैं-अन्धपथग्जन, कल्याणपथग्जन, श्रोतापन्न, सकृदागामी, औपपातिक या अनागामी और अर्हत् । वैदिक परम्परामें महर्षि पतंजलिने योगदर्शनमें चित्त की पाँच भूमिकाओंका निरूपण किया है । वे इस प्रकार हैं-क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्न और निरुद्ध । वहीं एकाग्रके वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत चार भेदोंका वर्णन है। निरुद्ध के पश्चात् कैवल्य या मोक्षकी उपलब्धि हो जाती है । "योगवाशिष्ठ" में चित्त की चौदह भूमिकाएँ बताई गई है। आजीवक सम्प्रदायमें आठ पेड़ियोंके रूपमें उनका उल्लेख किया गया है, जिनमेंसे तीन अविकासको तथा पाँच विकासको अवस्थाकी द्योतक हैं । उनके नाम हैं-मन्दा, खिड्डा, पदवीमंसा, उजुगत, सेख, समण, जिन और पन्न । जैन-परम्परामें मुख्य रूपसे ज्ञानधाराका महत्त्व है-क्योंकि सत्यके साक्षात्कार हेतु उसकी सर्वतोमुखेन उपयोगिता है। जिनागमपरम्परामें ज्ञानको केन्द्रमें स्थान दिया है। अतः एक ओर ज्ञान सत्यकी मान्यतासे संयुक्त है और दूसरी ओर सत्यकी मूल प्रवृत्तिसे सम्बद्ध है । इसे ही आगममें सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय कहा गया है । दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी साधनामें विवेककी जागति आवश्यक है। आत्मानभतिसे लेकर स्वसंवेद्य निर्विकल्पक ज्ञानकी सतत धारा किस प्रकार केवलज्ञानकी स्थितिको उपलब्ध करा देती है-यही संक्षेपमें जैन श्रमण-सन्तोंकी उपलब्धि-कथा है। इसे ही गणित तथा तर्ककी भाषामें जिनागममें भावोंकी चौदह अवस्थाओंके आधार पर चौदह गुणस्थानोंके रूप में विशद एवं सूक्ष्म विवेचित किया है जो जैन गणितके आधार पर ही भली-भाँति समझा जा सकता है। इन सबका सारांश यही है कि चित्तके पूर्ण निरोध होते ही साधक एक ऐसी स्थितिमें पहुँच जाता है जहाँ साधन, साध्य और साधकमें कोई भेद नहीं रह जाता। इस स्थितिमें ध्यानकी सिद्धि के बल पर योगी अष्टकर्म रूप मायाका उच्छेद कर अद्वितीय परमब्रह्मको उपलब्ध हो जाता है जो स्वानुभूति रूप परमानन्द स्वरूप है। एक बार परमपदको प्राप्त करने के पश्चात् फिर यह कभी मायासे लिप्त नहीं होता और न इसे कभी अवतार ही लेना पड़ता है। अपनी शुद्धात्मपरिणतिको उपलब्ध हुआ श्रमण योगी स्वानुभूति रूप परमानन्द दशामें अनन्त काल तक निमज्जित रहता है। अतएव श्रमण-सन्तोंकी साधनाका उद्देश्य शुद्धात्म तत्त्व रूप परमानन्दकी स्थितिको उपलब्ध होना कहा जाता है। -१३२ - Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके लिए परमब्रह्म ही एक उपादेय होता है, शुद्धात्मतत्त्वरूप परमब्रह्मके सिवाय सब हेय है । इसलिये उपादेयताकी अपेक्षा परमब्रह्म अद्वितीय है । शक्ति रूपसे शुद्धात्मस्वरूप जीव और अनन्त शुद्धात्माओं के समूह रूप परब्रह्ममें अंश-अंशी सम्बन्ध है । परब्रह्मको उपलब्ध होते ही वे जीवन्मुक्त हो जाते हैं, उनमें और परब्रह्म में कोई अन्तर नहीं रहता है । यही इस साधनाका चरम लक्ष्य है । सन्तों को अविच्छिन्न परम्परा संक्षेप में, जैन श्रमण-सन्तोंकी परम्परा आत्मवादी तप त्यागकी अनाद्यनन्त प्रवहमान वह धारा है जो अतीत, अनागत और वर्तमानका भी अतिक्रान्तकर सतत त्रैकालिक विद्यमान है। भारतीय सन्तोंकी साधना-पद्धति में त्यागका उच्चतम आदर्श, अहिंसाका सूक्ष्मतम पालन, व्यक्तित्वका पूर्णतम विकास तथा संयम एवं तपकी पराकाष्ठा पाई जाती है । साधनाकी शुद्धता तथा कठोरता के कारण छठी शताब्दीके पश्चात् भलेही इसके अनुयायिओंकी संख्या कम हो गई हो, किन्तु आज भी इसकी गौरव गरिमा किसी भी प्रकार क्षीण नहीं हुई है । केवल इस देशमें ही नहीं, देशान्तरोंमें भी जैन सन्तोंके विहार करनेके उल्लेख मिलते हैं । पालि-ग्रन्थ "महावंश" के अनुसार लं कामें ईस्वीपूर्व चौथी शताब्दी में निर्ग्रन्थ साधु विद्यमान थे । सिंहलनरेश पाण्डुकामयने अनुरुद्धपुरमें जैनमन्दिरका निर्माण कराया था । तीर्थंकर महावीरके सम्बन्ध में कहा गया है कि उन्होंने धर्म प्रचार करते हुए वृकार्थक, वाह्लीक, यवन, गान्धार, क्वाथतोय, समुद्रवर्ती देशों एवं उत्तर दिशाके तार्ण, कार्ण एवं प्रच्छाल आदि देशोंमें विहार किया था। यह एक इतिहासप्रसिद्ध घटना मानी जाती है कि सिकन्दर महान् के साथ दिगम्बर मुनि कल्याण एवं एक अन्य दिगम्बर सन्तने यूनानके लिए विहार किया था। यूनानी लेखकोंके कथनसे बेक्ट्रिया और इथोपिया देशों में श्रमणोंके विहारका पता चलता है । मिश्रमें दिगम्बर मूर्तियोंका निर्माण हुआ था । वहाँकी कुमारी सेन्टमरी आर्यिकाके भेष में रहती थी । भृगुकच्छके श्रमणाचार्यने एथेन्स में पहुँचकर अहिंसाधर्मका प्रचार किया था । हुएनसाँगके वर्णनसे स्पष्ट रूपसे ज्ञात होता है कि सातवीं शताब्दी तक दिगम्बर मुनि अफगानिस्तानमें जैनधर्मका प्रचार करते रहे हैं । जी०एफ० मूरका कथन है कि ईसाकी जन्म शतीके पूर्व ईराक, शाम और फिलिस्तीन में जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु सैकड़ोंकी संख्यामें चारों ओर फैलकर अहिंसाका प्रचार करते थे । पश्चिमी एशिया, मिश्र, यूनान और इथोपियाके पहाड़ों व जंगलोंमें उन दिनों अगणित भारतीय साधु रहते थे । वे अपने आध्यात्मिक ज्ञान और त्यागके लिए प्रसिद्ध थे जो वस्त्र तक नहीं पहनते थे । मेजर जनरल जे० जी० आर० फर्लांगने भी अपनी खोज में बताया है कि ओकसियना केस्पिया एवं बल्ख तथा समरकन्दके नगरोंमें जैनधर्मके वर्तमान में भी मुनि सुशीलकुमार केन्द्र पाए गए हैं, जहाँसे अहिंसा धर्मका प्रचार एवं तथा भट्टारक चारुकीर्तिके समान सन्त इसे जीवित रखे प्रसार होता था " हैं । हुए विगत तीन सहस्र वर्षोंमें जैनधर्मका जो प्रचार व प्रसार हुआ, उसमें वैश्योंसे भी अधिक ब्राह्मणों तथा क्षत्रियोंका योगदान रहा है। भगवान महावीरके पट्टधर शिष्योंमें ग्यारह गणधर थे जो सभी ब्राह्मण । १. आचार्य जिनसेन : हरिवंशपुराण, ३, ३-७ २. डा० कामताप्रसाद जैन : दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि, द्वितीय संस्करण, पृ० २४३ ३. ठाकुरप्रसाद शर्मा हुएनसांगका भारतभ्रमण, इण्डियन प्रेस, प्रयाग, १९२९, पृ० ३७ ४. हुकमचन्द अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ३७४ ५. साइन्स आव कम्पेरेटिव रिलीजन्स, इन्ट्रोडक्शन, १९९७, पृ० ८ - १३३ - Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे। जैनधर्मकी परम्पराके प्रवर्तक जिन चौबीस तीर्थंकरोंका वर्णन मिलता है, उससे निश्चित है कि सभी तीर्थंकर क्षत्रिय थे। केवल तीर्थंकर ही नहीं, समस्त शलाका पुरुष क्षत्रिय कहे जाते हैं। प्रत्येक कल्पकालमें तिरेसठ शलाका के पुरुष होते हैं । इसी प्रकार जैनधर्मके परिपालक अनेक चक्रवर्ती महाराजा हुए। जहाँ बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजाओंने इस देशकी अखण्डताको स्थापित कर शान्तिकी दुन्दुभि बजाई थी, वहीं महाराजा बिम्बिसार (श्रेणिक ), सम्राट चन्द्रगुप्त, पगधनरेश सम्प्रति, कलिंगनरेश खारबेल, महाराजा आषाढ़सेन, अविनीत गंग, दुविनीत गंग, गंगनरेश मारसिंह, वीरमार्तण्ड चामुण्डराय, महारानी कुन्दब्बे, सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम, कोलुत्तुग चोल, साहसतुंग, त्रैलोक्यमल्ल, आह्वमल्ल, बोप्पदेव कदम्ब, सेनापति गंगराज, महारानी भीमादेवी, दण्डनायक बोप्प और राजा सुहेल आदिने भी इस धर्मका प्रचार व प्रसार किया है। पाँचवीं-छठी शताब्दीके अनेक कदम्बवंशी राजा जैनधर्मके अनुयायी थे। राष्ट्रकूट-कालमें राज्याश्रयके कारण इस धर्मका व्यापक प्रचार व प्रसार था । अनेक ब्राह्मण विद्वान जैनदर्शनकी विशेषताओंसे आकृष्ट होकर जैनधर्मावलम्बी हुए । मूलसंघके अनुयायी ब्रह्मसेन बहुत बड़े विद्वान् तथा तपस्वी थे। 'सन्मतिसूत्र' तथा 'द्वात्रिंशिकाओं' के रचयिता सिद्धसेन ब्राह्मणकूलमें उत्पन्न हए थे जो आगे चलकर प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए। वत्सगोत्री ब्रह्मशिवने सम्पूर्ण भारतीय दर्शनोंका तुलनात्मक अध्ययन कर 'समयपरीक्षा' ग्रन्थकी रचना की जो बारहवीं शताब्दीकी रचना है। भारद्वाज गोत्रीय आचण्ण 'वर्द्धमानपुराण'के रचयिता बारहवीं शताब्दीके कवि थे। दसवीं शताब्दीके अपभ्रंशके प्रसिद्ध कवि धवलका जन्म भी विप्रकुलमें हुआ था। कुतीर्थ और कुधर्मसे चित्त विरक्त होनेपर उन्होंने जैनधर्मका आश्रय लिया और 'हरिवंशपुराण' की रचना की। दिगम्बर परम्पराके प्रसिद्ध आचार्य कर्नाटकदेशीय पूज्यपादका जन्म भी ब्राह्मणकूल में हुआ था । इस प्रकारसे अनेक विप्र साधकोंने वस्तु-स्वरूपका ज्ञान कर जैन साधना-पद्धतिको अंगीकार किया था । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थकी दिगम्बर टीकाओं में आगम और निर्ग्रन्थताकी चर्चा दलसुख मालवणिया ला० द० भारतीय विद्यामन्दिर, अहमदाबाद तत्त्वार्थसूत्र ऐसा ग्रन्थ है जो प्राचीन है और उसकी टीकाएँ कालक्रमसे लिखी गई है । अतएव इस कालक्रममें आगम और निर्ग्रन्थताकी धारणाओंमें किस प्रकार परिवर्तन हुआ तथा इस आधार पर श्वेताम्बर दिगम्बर मतभेद किस प्रकार उत्तरोत्तर बढ़ता गया, इसके जाननेके लिये ये टीकायें उत्तम साधन हैं । यहाँ तत्त्वार्थ की पूज्यपाद से लेकर श्रुतसागर तककी दिगम्बर- टीकाओंके आधारसे इस प्रश्नकी चर्चाकी जाती है जिससे जैनागमोंके प्रामाण्य और उनके विच्छेदके प्रश्न के विषयमें प्रकाश मिलेगा और श्वेताम्बर - दिगम्बरसम्प्रदाय के विषय में अन्य जानकारी भी मिलेगी । यह सामग्री एकत्र करना इसलिये जरूरी है कि अब तक श्वेताम्बर-दिगम्बर-सम्प्रदायका पूरा इतिहास हमारे समक्ष आया नहीं है । यहाँ मैंने एकादशजिने (९-११) और ऐसे अन्य सूत्रोंकी व्याख्याकी चर्चा नहीं की । इस लेखका उद्देश्य सीमित है । अतएव सम्पूर्ण सामग्री देना अभिप्रेत नहीं । केवल साधक रूपसे दोनों सम्प्रदायोंके बीच की खाई किस तरह बढ़ी है, यह दिखाना अभिप्रेत है । केवलि कवलाहार यदि न माना जाय, तो तदनुसार अन्य मान्यता को भी संशोधित करना पड़ता है । उसी कोटिमें एकादश जिने जैसे सूत्र आते हैं । इन सब मतभेदकी चर्चा अन्य विद्वानोंने भी की है, अतएव उसे यहाँ दोहराना अभिप्रेत नहीं है । तत्त्वार्थ सूत्र १.२० में श्रुतं मतिपूर्वं द्वयं नैकद्वादगभेदम् - इतना ही कहा था । इससे स्पष्ट कि तत्त्वार्थ सूत्रकारको आगमके मूल दो भेद --अंग और अंगबाह्य मान्य थे । अंगके बारह और बाह्य के अनेक भेद संमत थे । स्पष्ट है कि उमास्वाति ( भी ) तक आगमकी यह स्थिति थी और उनके समय तक आगमके अस्तित्वकी या प्रामाण्यके विषय में कोई मतभेदकी सूचना हमें प्राप्त नहीं होती । उमास्वाति दिगम्बर हों या श्वेताम्बर, यह विवादका विषय हो सकता है किन्तु उनका तत्त्वार्थसूत्र उभयमान्य प्रमाण ग्रन्थ है, यह तो निश्चित है । यही कारण है कि दोनों परम्पराओंने इसपर टीकायें लिखी हैं और जहाँ परम्परा भेदसे मालूम हुआ, वहाँ टीकाकारोंने अपने मनकी पुष्टि करनेका प्रयत्न भी किया है । टीकाकारोंमें मतभेद हो सकता है किन्तु एक बात ध्यान देने योग्य है कि उक्त आगम-विषयक सूत्रकी व्याख्यामें कोई मतभेद नहीं है । इससे इतना तो सिद्ध होता ही है कि आगमके अंग-अंगबाह्य भेद और उसके सूत्र सूचित उपभेदके विषयमें दोनों परम्पराएँ एकमत हैं । तत्त्वार्थकी भाष्यटीकाके स्वोपज्ञ होने में विवाद है, फिर भी अनेक विद्वान् उसे सर्वार्थसिद्धिसे प्राचीन मानते हैं । उसमें अंगबाह्योंकी गिनती है । सामायिक, चतु विंशतिस्तवं वंदनं, प्रतिक्रमणं, कायव्युत्सर्ग, प्रत्याख्यानं, दशवैकालिक, उत्तराध्यायाः, दशाः, कल्पव्यवहारौ, निशीथं, ऋषिभाषितानि और अन्त में एवमादि लिखा है तो अन्य भी कुछ थे, यह फलित होता है । अंगप्रविष्ट में आचारको लेकर दृष्टिवाद तक बारह अंग गिनाये हैं । उसमें दृष्टिवादके विच्छेदकी कोई सूचना नहीं है । यह भी स्पष्टीकरण है कि - १३५ - Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान्ने जो प्रवचन किया, उसको आधार बनाकर गणधरोंने अंगोंकी रचना की। अंगबाह्य की रचना गणधरके बादके आचार्योने की। सर्वार्थसिद्धिमें बारह अंग नामतः गिनाये हैं और अंगबाह्यमें दशवकालिक और उत्तराध्ययनके नामतः गिनाकर आदि कह दिया है। वहाँ दृष्टिवादके पाँच भेद नामतः गिनाकर पूर्वतीके चौदहों भेदोंको नामतः गिनाया है । वक्ताके विषयमें वही बात कही है जो भाष्यमें निर्दिष्ट है और विशेषमें अंगके प्रामाण्यकी सूचना दी है--'तत् प्रमाणं, तत्प्रामाण्यात्' और दसवैकालिक आदिके भी प्रामाण्यको, 'तत् प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव' बताया है। इससे स्पष्ट है कि दशवकालिक आदिका भी प्रामाण्य पूज्यपादको मान्य है । आचार्य पूज्यपादने आगमविच्छेदकी कोई चर्चा नहीं की। लेकिन आगमोंमें प्रतिपादित विषयोंको लेकर परम्परा भेद हो गया था, यह आचार्य निम्न कथनसे स्पष्ट होता है : “कवलाभ्यवहारजीविनः केवलिनः, इत्येवमादिवचनं केवलि मांसभक्षणाद्यनवद्याभिधानं श्रुतावर्णवादः" । ६-१३ । स्पष्ट है कि श्वेताम्बरोंकी आगमवाचनामें केवलीके कवलाहारका प्रतिपादन है। उसे केवलीका अवर्णवाद पूज्यपादने बताया है और श्वेताम्बरोंकी आगमवाचनामें मांसाशनकी आपवादिक सम्मति दी गई है, उसे भी श्रुतावर्णवाद आचार्यने माना। इस प्रकार हमें आगमवाचनाके विषयमें मतभेद होनेकी सूचना तो पूज्यपादने दी है किन्तु दशवैकालिक आदि या आचारांग आदिके विच्छेदकी कोई सूचना नहीं दी। स्पष्ट है कि वाचनामें मतभेदका प्रारम्भ है, किन्तु उस मतभेदके कारण आगमको विच्छिन्न मानना अभी शुरू नहीं हुआ है। परिग्रहके कारण पुलाक आदि विरतोंकी निर्ग्रन्थ मानना या नहीं, इस प्रश्नके विषयमें भी पूज्यपाद स्पष्ट है-"त एते पंचापि निर्ग्रन्थाः चारित्रपरिणामस्य प्रकर्षाप्रकर्षभेदे सत्यपि नैगमसंग्रहादिनयापेक्षया सर्वेपि ते निर्ग्रन्था इत्युच्यन्ते" (९-४६) । स्पष्ट है कि आधुनिक कालमें श्वेताम्बर साधुको श्रवक-उपासक कोटिमें जो रखा जाता है, वेसा मत पूज्यपादका नहीं था । यह परिस्थिति बादमें घटित हुई है। इसकी प्रतीति हमें तत्वार्थके अग्रिम सूत्र (९-४७) की सर्वार्थसिद्धिसे भी होती है। वहाँ पुलाक और वकुशकी सामायिक और छेदोपस्थापन चारित्र पूज्यपादने भाष्यकी तरह ही माना है और पूज्यपादने भाष्यके समान ही "भावलिंगं प्रतीत्य सर्वे पंच निर्ग्रन्थाः लिंगिनो भवन्ति, द्रव्यलिंग प्रतीत्य भाज्या।" (९-४७) यह स्वीकार करके परिग्रहधारीको भी भावलिंगीश्रमण निग्रंथ तो माना ही है। स्पष्ट है कि अभी यह मतभेद तीव्र नहीं हुआ जिससे दो सम्प्रदाय स्पष्टरूपसे भिन्न ही माने जावें। आचार्य अकलंकने आचारांग आदि बारह अंगोंके क्या विषय है, इसका विस्तृत वर्णन किया है । उसे पढ़कर यह लगता है कि उनके सम्मुख जो आगम थे, उनकी वाचनामें आज उपलब्ध श्वेताम्बर आगमोंकी वाचनासे पर्याप्त मात्रामें भेद है। उससे यही कल्पना हो सकती है कि आगमोंकी सुरक्षाका और नई नई रचना करनेका जिस प्रकार श्वेताम्बर परम्परामें प्रयत्न हुआ, वैसे कई और भी प्रयत्न हुए होंगे । एक यह भी कल्पनाकी जा सकती है कि जिस प्रकार आधुनिक कालमें अनुपलब्ध दृष्टिवादके विषयोंकी चर्चा परम्परासे या तत्तत देशोंके नामकरणको लेकर प्रतिपाद्य विषयकी चर्चा की जाती है, वैसे ही आचार्य अकलंकने भी किया हो। लेकिन एक बात निश्चित है । अकलंकने भी राजवातिकमें आगमके विच्छेदकी कोई सूचना नहीं दी है। एक ध्यान देनेकी बात आचार्य अकलंकने कही है। यह अंगबाह्य के कालिक-उत्कालिक भेदकी है। ऐसे ही भेद श्वेताम्बर-परम्परामें भी प्रसिद्ध हैं और नंदी आदि सूत्रोंमें उल्लिखित हैं । सर्वार्थ सिद्धिमें इन Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेदोंका कोई उल्लेख नहीं, अतएव हो सकता है कि यह विभाजन पूज्यपाद और अकलंकके बीचके कालमें हुआ हो। श्वेताम्बरोंमें भी अंगबाह्य के ये भेद प्राचीन आगमोंमें दिखाई नहीं देते । नंदी (९२-९४), अनुयोग (४) और पाक्षिक सूत्रमें ये भेद किये गये है। इससे भी फलित होता है कि अंगबाह्य के ये भेद उमास्वामि तक तो विशेषरूपसे प्रसिद्ध नहीं थे। संभव यह है कि सामायिक आदिको मिलाकर जब तक स्वतंत्र एक आवश्यक सूत्र माना नहीं गया, तब तक ये भेद भी प्रसिद्धिको प्राप्त नहीं हुए। यही कारण है कि तत्त्वार्थभाष्यमें सामायिक आदि स्वतंत्र ग्रन्थ माने गये हैं और इसी परम्पराका अनुसरण दिगम्बर-मान्य धवला आदिमें भी देखा जाता है। स्पष्ट है कि अनुयोगद्वारकी रचनाके पूर्व ही कभी ये कालिक-उत्कालिक भेद प्रसिद्ध हुए और उन्हें सर्वप्रथम दिगम्बर परम्परामें अकलंकने अपनाया है । अंगबाह्य में आचार्य अकलंकने 'तभेदाः उत्तराध्ययनादयोऽनेकधा' कहकर चर्चाको समाप्त किया है। स्पष्ट है कि उनके सम्मुख अंगबाह्य में उत्तराध्ययनका विशेष महत्त्व है । अंग-अंगबाह्यके विच्छेदको भी कोई चर्चा अकलंकने नहीं की। इससे यह परिणाम तो निकल ही सकता है कि उन आगमोंकी कोई वाचनाको वे विद्यमान मानते थे चाहे वह वाचना आज उपलब्ध श्वेताम्बर वाचनासे भिन्न ही क्यों न हो। सर्वथा भिन्न होनेकी सम्भावना भी कम ही है। अधिकांश समान हो, तो कोई आश्चर्य नहीं । पूज्यपादने केवलि आदिके अवर्णवादकी जो चर्चा की है, उससे बादकी भूमिका आचार्य अकलंकमें देखी जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैन आगमके भाष्यादि टीका ग्रन्थ पूज्यपादके समक्ष नहीं आये किन्तु अकलंकने देखे हैं । यही कारण है कि उन्होंने अवर्णवादकी चर्चा में कुछ नई बातें भी जोड़ी हैं । तत्त्वार्थसूत्रकी (६-१३) व्याख्यामें आचार्य अकलंक कहते हैं, "पिण्डाभ्यवहारजीविनः केवलदशा निर्हरणाः अलाबूपात्रपरिग्रहाः कालभेदवृत्तज्ञानदर्शनः केवलिन इत्यादिवचनं केवलिष्ववर्णवादः ।" सर्वार्थसिद्धिमें तो केवलाहारका निर्देश कर आदि पद दे दिया था, तब यहाँ वस्त्र, पात्र और ज्ञानदर्शनके क्रमिक उपयोगको देकर आदि वचन दिया है। स्पष्ट है कि अब वस्त्र और पात्रको लेकर जो विवाद दिगम्बर-श्वेताम्बरोंमें हुआ है, वह भी निर्देशयोग्य माना गया और निर्यक्ति और भाष्यमें ज्ञानदर्शनके क्रमिक उपयोगकी जो सिद्धसेनके विरोधमें चर्चा है, वह भी उल्लेख योग्य हो गई । अब दोनों सम्प्रदायोंका मतभेद उभर आया है-ऐसा कहा जा सकता है। इसी प्रकार श्रतावर्णवाद प्रसंगमें भी अन्य बातें निर्देश योग्य हो गईं : "मांसमत्स्यभक्षणं मधुसुरापानं वेदनादितमैथुनोपसेवारात्रिभोजनमित्येवमादि ।" स्पष्ट है कि ये आक्षेप भाष्यको लेकर ही अर्थात् श्वेताम्बरों द्वारा मूलकी जो व्याख्या की जाने लगी, उससे असंमति बढ़ती गई। संघके अवर्णवादको पढ़कर वह अवर्णवाद जैनोंके द्वारा ही किया गया हो, ऐसा सर्वार्थसिद्धिसे फलित नहीं होता । सर्वार्थसिद्धि में लिखा है, “शूद्रत्वाशुचित्वाद्या विर्भावन,' इससे यह आक्षेप अजैनों द्वारा ही किया जा सकता है, यह स्पष्ट है। किन्तु आचार्य अकलंकने जो यह लिखा, "ऐते श्रमणाः शूद्राः अस्नानमलादिग्धांगाः अशुचयो दिगम्बरा निरपत्रपाः" उससे स्पष्ट होता है कि यह आक्षेप करनेमें श्वेताम्बर भी शामिल हैं । प्रतीत होता है कि दोनों सम्प्रदायोंकी खाई उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। फिर भी, इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि समग्रभावसे आगमविच्छेद या उसके अप्रामाण्यकी चर्चा अकलंकने की नहीं की। इससे इतना तो कहा जा सकता है कि मूल आगमोंको लेकर अभी विवाद खड़ा नहीं हुआ होगा। पुलाकादिके विषयमें पूज्यपादने (९-४६) उनको श्रावक नहीं माना जा सकता, निर्ग्रन्थ ही वे कहे जायेगें, यह स्पष्ट किया था और कहा था, "गुणभेदादन्योन्यविशेषेऽपि नैगमादिनयव्यापारात सर्वेपि हि भवन्ति", किन्तु आचार्य अकलंकने इस चर्चा को और स्पष्ट किया कि ये गुणहीन हैं, अतएव निश्चयनयसे -१३७ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्ग्रन्थ नहीं हैं किन्तु संग्रहविनय से हैं, " यद्यपि निश्चयनयापेक्षया गुणहीनेषु न प्रवर्तते तथापि संग्रहव्यवहारनयविवक्षावशात् सकलविशेषसंग्रहो भवति ।" जिस ग्रन्थकी टीका अकलंक कर रहे हैं, उसके विरुद्ध तो वे जा नहीं सकते थे, अतएव निर्ग्रन्थ कहने में उन्हें कोई बाधा नहीं किन्तु स्पष्ट किया कि ये नाम मात्रके निर्ग्रथ हैं । उनमें निर्ग्रन्थके गुण नहीं । सर्वार्थसिद्धिमें गुणका तारतम्य मानकर पुलाकादिको निर्ग्रन्थ माना जबकि यहाँ केवल नाममात्रसे माना हैं और भग्नव्रत निर्ग्रन्थके बाह्य रूपको भी लेकर उन्हें श्रावक शब्दवाच्य नहीं माना जा सकता, यह भी अकलंकने कहा है, "यदि भग्नव्रतेऽपि निर्ग्रन्थशब्दो वर्तते, श्रावकेपि स्यादिति अतिप्रसंग: 1 नैष दोषः । कुतः ? रूपाभावान् निर्ग्रन्थरूपाभावात्, निर्ग्रन्थरूपमत्र नः प्रमाणं, नच श्रावके तदस्ति, इति नातिप्रसंग: । " यहाँ एक बात और ध्यान देना जरूरी है । पूज्यपादने मात्र इतना ही कहा था कि पुलाकादि व्रतोंका पालन पूर्णरूपसे नहीं करते । इसी आधारपर अकलंकने भी पूज्यपादका अनुसरण ही किया है । आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में भी आगमके अंग-अंग बाह्य का प्रामाण्य स्वीकृत किया है। (१२० - ४) और “सत्यं श्रुतं सुनिर्णीतासंभवाद्बाधकत्वतः । " ( ९.२० - ६५ ) इस अनुमानसे भी प्रामाण्य सिद्ध किया है और अन्तमें कहा हैं : प्रोक्तभेदप्रभेदं तच्छ्रुतमेव हि तद्दृढम् । प्रामाण्यमात्मसात्कुर्यादिति नश्चितयात्र किम् ।। १.२०.८३ ।। तत्त्वार्थ के उक्त दिगम्बर टीकाकारोंके मतसे आगमके आचारादि अंग्रप्रविष्ट और दशवैकालिक आदि अंगाका प्रमाण्य है, इतना तो सिद्ध होता ही है और इन टीकाकारोंने आगमविच्छेदकी कोई चर्चा भी नहीं की। इससे यह भी सिद्ध होता है कि वे अपने काल तक उनके अस्तित्वके विषयमें भी संदिग्ध नहीं थे । अर्थात् ही जिनग्रन्थोंको वे नामतः स्वीकार करते हैं । उनका अस्तित्व भी उनके काल तक निश्चित रूपसे था ही, विच्छेदका प्रश्न ही नहीं उठता । आचार्य विद्यानन्दकी पुलाकादिकी चर्चामें स्पष्ट रूपसे वस्त्रादिकी चर्चाने स्थान पाया है । वहाँ मूर्च्छा और बाह्य वस्तुग्रहणके कार्यकारणकी चर्चा भी है और निर्ग्रन्थका बाह्यरूप यथाजात ही हो सकता है । अतएव वस्त्रधारी निर्ग्रन्थ नहीं कहे जा सकते । पुलाकादिको व्यवहारसे और निश्चयसे भी निर्ग्रन्थ कह सकते हैं किन्तु वस्त्रधारीको नहीं, यह स्पष्टीकरण श्वेताम्बर दिगम्बर के सम्प्रदायभेदको स्पष्ट रूपसे व्यक्त करता है । उन्होंने कहा है : पुलाकाद्या मताः पंच निर्ग्रन्था व्यवहारतः निश्चयाच्चापि नैर्ग्रन्थ्य सामान्यस्याविरोधतः । वस्त्रादिग्रन्थसंपन्ना ततोऽन्ये नेति गम्यते -- तत्त्वार्थश्लोक ९-४६, १ । “रत्नत्रयोपेतः श्रमणगणः संघ : " ( ६-१३) यह व्याख्या संघकी पूज्यपादने की थी । अकलंकने भी यही व्याख्या मानी है । साथ ही, दिगम्बर मुनि अकेले भी विचरण करते हैं, इस दृष्टिसे समाधान भी किया है कि एक व्यक्तिका भी संघ हो सकता है । इसके लिए आधार भगवती आराधना ( गा० ७१४ ) है | विद्यानंद भी यही कहते हैं । किन्तु श्रुतसागरने संघकी जो व्याख्या की है, वह है, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपात्राणां श्रमणानां परमदिगम्बराणां गणः समूहः संघ उच्यते ।' (६-१३) स्पष्ट है कि श्वेताम्बर मुनियोंके समुदायको संघ नहीं कहा जा सकता । केवलिके अवर्णवादके विषयमें श्रुतसागरने लिखा है, "केवलिनः किल केवलज्ञानिनः कवलाहारजीविनः तेषां च रोगो भवति, उपसर्गश्च संजायते, नग्ना भवन्त्येव परं वस्त्राभरणमण्डिता दृश्यन्ते ।" इत्यादि ६-१३ । इससे इनकी वेताम्बर शास्त्रकी विशेष जानकारी प्रगढ़ होती है । - १३८ - Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतके अवर्णवादके विषय में श्रुतसागरने लिखा है - "मांसभक्षणं, मद्यपानं, मातृस्वस्रादिमैथुनं जलगालने महापापमित्यादि" ६-१३ । इसमें मातृमैथुन और जलगालनमें महापापकी जो बात लिखी है, उसके मूलकी तलाश करना जरूरी है । बहनके साथ मैथुनकी बात संभवतः युगलिक चर्चा लेकर है और ऐसी चर्चाका निर्देश जिनसेन आदिके दिगम्बर पुराणोंमें वर्णित नहीं है । श्वेताम्बर आगमों और पुराणों में है । वस्त्र के विषय में भगवती आराधनाके अनुसार अपवाद मानकर भी श्रुतसागरने श्वेताम्ब रोके विषयमें यह लिखा है, “अमुमेवाधारं गृहीत्वा जैनाभासाः केचित् सचेलत्वं मुनीनां स्थापयन्ति तन्मिथ्या, साक्षान्मोक्षकारणं निर्ग्रन्थलिंगमितिवचनात् । अपवादव्याख्यानं तु उपकरणकुशीलापेक्षया कर्तव्यम्" (६-४९ ) । स्पष्ट है कि अब श्वेताम्बर जैन नहीं किन्तु जैनाभासकोटिमें गिने जाने लगे थे । यहाँ इस प्रश्न पर भी विचार करना जरूरी है कि पूज्यपादसे लेकर श्रुतसागर तक किसीने भी आगमविच्छेद की चर्चा क्यों नहीं की? मेरे विचारसे इसका कारण यह हो सकता कि इन सभीने यह चर्चा तो की ही है कि आगम अनादि निधन हैं । श्वेताम्बर भी इसे मानते ही हैं । जब अनादि निधनका समर्थन किया और तत्तत्समय में पुनः पुनः आगमोंका आविर्भाव स्वीकृत किया, तब आगमके विच्छेदको चर्चा अप्रासंगिक ही होगी । यह दिगम्बर- परंपरामें, आगम विच्छिन्न हुए, ऐसा न कहकर आगमघर नहीं रहे, ऐसी भावनाको बल दिया है । अतएव आगम विच्छेदकी चर्चा पूज्यपादादि आचार्योंने उठाई न हो, यह संभव है । नंदीचूर्ण में हम देखते हैं कि वहाँ इस विषय में दो मत हैं - एक है, दुष्कालके कारण आगम विप्रनष्ट हुए और दूसरा हैआगम के अनुयोगवर विनष्ट हुए । दिगम्बर ग्रन्थोंमें श्रुतावतारको चर्चामं आगमधरोंकी बात कही जाती है यह प्रमाण है कि उनके मत में आगमधरका विच्छेद मान्य हो, न कि आगमोंका । अतएव पूज्यपादादि आचार्य आगम विच्छेदकी चर्चा न करें, यह स्वाभाविक है । BOA CH Ho - १३९ - Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसारके भाष्य आत्मख्यातिकी मुद्रित प्रतियोंमें एक महत्त्वपूर्ण पाठमें एकरूपताको आवश्यकता पण्डित माणिकचन्द्र चवरे, का जा आचार्यश्री कुन्दकुन्दके समयप्राभृत परमागमके अद्भुत भाष्यकार आचार्यश्री अमृतचन्द्रके आत्मख्याति भाष्यके गाथा सप्तक क्रमांक ३९ का ३५५ जो भाष्य मुद्रित नाना प्रतियोंमें प्रकाशित हुआ है, वह लिपिकारोंके प्रमादसे अन्यान्य रूपमें प्रकाशित हुआ है। उस पाठमें एक धारा नहीं रह पायी। आ० अमृतचन्द्र भाववाही समर्पक रचना तथा शब्दरचनाके लिये पूर्ण समर्थ भावप्रभु और भाषाप्रभु रचनाकार हैं। कहीं भी रचनामें शिथिलता या यद्वातद्वा प्रबृत्ति नहीं है। विकल्पके लिये गुजायश ही नहीं है। इनका एकएक शब्द नपा तुला है। पदप्रयोगही नहीं, शब्दप्रयोग, शब्दोंमें अक्षर-प्रयोग तक सूत्ररचनाकी तरह यथास्थान औचित्यपूर्ण ही हैं । भाष्यका निम्नलिखित एक अंश है जिस पाठमें सुधार होकर भविष्यके प्रकाशनोंमें एक धारा और एकरूपता होना नितान्त आवश्यक है । आशा है विज्ञ प्रशस्त अध्यवसायी और पण्डितगण योग्य निर्णय करेंगे। बम्बईकी रायचन्द्र जैन शास्त्रमालासे प्रकाशित और महेन्द्रप्रिंटर्स, सराफा (जबलपुर) द्वारा मुद्रित प्रतिमें पृष्ठ ४३७ पर वह पाठ निम्न प्रकार है : "यथा च स एव शिल्पी चिकीर्षुश्चेष्टानुरूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टानुरूपं कर्मफलं भुंक्त च, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति, ततः परिणामपरिणामिभावेनतत्रैव कर्तृकर्म-भोक्तृभोग्यभोग्यत्वनिश्चयः ।" ___ "तथाऽत्मापि चिकीषुश्चेष्टानुरूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मक चेष्टानुरूपं कर्मफलं भुंक्ते च, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति, ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रव कर्तृकर्म-भोक्तभोग्यत्वनिश्चयः ।" बम्बई की इस प्रतिके पहले मुद्रित प्रतियोंमें तथा अनन्तर प्रकाशित प्रतियोंमें यह अंश भिन्न-भिन्न रूपसे मुद्रित होता गया । उन सब प्रकाशनोंकी तालिका पाठकोंके विचारार्थ संलग्न है। इसे पाठभेद कहनेके लिये हिम्मत नहीं होती। यह मूलमें लिपिकारके प्रमादवश ही यह मुद्रण गलत रूपसे चला आ रहा सा प्रतीत होता है। विचार पूर्वक भविष्यके लिये उसमें सुधारको अतीव आवश्यकता है। उसमें सुधार किये बिना अर्थमें पूर्णरूपेण यथार्थता नहीं आ सकती । ध्यान देने योग्य पद हैं : चेष्टारूपं "और चेष्टानुरूपं ।" यह प्रकरण कर्ताके सम्बन्धमें है। वह जो कर्म (क्रिया) करता है और जो जो कर्मफल भोगता है, प्रकारका होता है ? इसे व्यवहार दृष्टि और परमार्थ दृष्टिसे कैसा समझना चाहिये ? यहाँ इसका दृष्टान्तपूर्वक पूर्णरूपेण स्पष्टीकरण किया गया है। कर्ताके द्वारा किया जाने वाला कर्म (क्रिया-व्यापार) जो जो होता है, वह चेष्टारूप होता है या चेष्टानुरूप होता है, इसका सूक्ष्म विचार पूर्वक निर्णय होना आवश्यक है। विचार करनेपर यह स्पष्ट -१४० - Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १४१ – पुस्तिका मुद्रणस्थान बम्बई दिल्ली सोनगढ़ कलकत्ता कारजा मेरट ( मूलमात्र ) सम्भाव्य पाठ तालिका – १ समयसार गाथा ३४९ - ३५५ के भाष्यकी भिन्न-भिन्न रूपता दृष्टान्तः -- यथा दाष्टन्तिः -- तथा दृष्टान्तः - यथा दाष्टन्तिः दृष्टान्तः दाष्टन्तिः - तथा - -- यथा शिल्पी तथा आत्मा दृष्टान्तः - यथा दाष्टन्तिः तथा शिल्पी आत्मा - दृष्टान्तः यथा दाष्टन्तिः -- तथा दृष्टान्तः - यथा - दाष्टति:- यथा शिल्पी ―― • चेष्टारूपं • शिल्पी आत्मा - चेष्टारूपं शिल्पी आत्मा शिल्पी आत्मा www शिल्पी आत्मा --- पाठ - - चेष्टानुरूपं - कर्म करोति । दुःखलक्षणं चेष्टानुरूपं कर्म करोति । चेष्टानुरूपं चेष्टारूपं चेष्टारूपं चेष्टा रूपं चेष्टा रूपं - चेष्टारूपं - - कर्म करोति । - कर्म करोति । - ― कर्म करोति । • कर्म करोति । कर्म करोति । - कर्म करोति । — — चेष्टानुरूपं • कर्म करोति । चेष्टा रूपं कर्म करोति । ――― ― - कर्म करोति । कर्म करोति । "" "" 11 " 11 चेष्टानुरूपं कर्मफलं भुंक्ते । चेष्टानुरूपं कर्मफलं भुंक्ते । चेष्टारूपं कर्मफलं भुंक्ते । चेष्टरूपं कर्मफलं भुंक्ते । चेष्टानुरूपं कर्मफलं भुंक्ते । चेष्टारूपं कर्मफलं भुंक्ते । चेष्टारूपं कर्मफलं भुंक्ते । चेष्टारूपं कर्मफलं भुंक्ते । चेष्टानुरूपं कर्मफलं भुंक्ते । चेष्टानुरूपं कर्मफलं भुंक्ते । चेष्टानुरूपं कर्मफलं भुंक्ते । चेष्टानुरूपं कर्मफलं भुंक्ते । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि में आ सकता है कि जो जो क्रिया-व्यापार होता है, वह स्वयं चेष्टारूप ही होता है न कि चेष्टानुरूप । क्योंकि क्रिया-व्यापारसे भिन्न चेष्टा कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं होती। अतः दृष्टान्त और दान्ति दोनों जगह पर "चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति ।" ऐसा ही पाठ निर्दोष प्रतीत होता है। यहाँ रूपमात्मपरिणामात्मक कर्मकरोति' यह पाठ ठीक नहीं मालूम होता। आ० अमृतचन्द्रकी रचनाका अध्ययन और प्रकरणका मनन करनेके अनन्तर सहज ही यह ख्यालमें आवेगा। चेष्टा कोई अलग-पृथक हो और क्रिया-व्यापार रूप कर्म कोई स्वतंत्र हो, ऐसा नहीं है । अतः 'चेष्टाके अनुरूप इस अर्थमें शब्द प्रयोग कोई अर्थ नहीं रखता । इस प्रकार कर्म (क्रियाव्यापार रूप) का खुलासा करते समय 'चेष्टानुरूपमात्मपरिणामात्मकं कर्मफलं भुक्ते'-ऐसा पाठ होना चाहिये। क्योंकि सुख-दुख-रूप जो जो कर्मफल होता है, वह पूर्व में किये गये भले-बुरे (चेष्टारूप) कर्मके अनुरूप होता है। फल कोई चेष्टारूप नहीं होता। ऐसी मेरी धारणा है। यदि माना भी जावेगा, तो कर्मके स्वरूपमें और कर्मफलके स्वरूपमें अन्तर नहीं रहेगा। अतः कर्मको सुनिश्चित रूपसे चेष्टीरूपं और कर्मफलका स्वरूप स्पष्ट करते समय चेष्टानुरूपं ऐसा प्रयोग दृष्टान्त और दान्ति -दोनों जगहपर करना योग्य होता। और ऐसा पाठ बम्बई-दिल्ली तथा मेरठकी (सार्थ) नयी प्रतिमें मुद्रित भी है। तालिकाको सूक्ष्मतासे देखनेसे यह सहज स्पष्ट हो जावेगा कि मुद्रित प्रतियोंमें एकरूपता नहीं है । मैं आशा करता हूँ कि विज्ञ अध्यवसायी पण्डितगण इस विषयमें अपना अभिप्राय तथा मनन प्रगट करनेका अनुग्रह करेंगे और प्रकाशक सावधानी पूर्वक आगामी आवृत्तियोंमें सुधार अवश्य करेंगे । जिससे अर्थग्रहणमें निर्दोषता आवेगी। रसहानि तथा अर्थहानि भी नहीं होगी। क्या ही अच्छा होगा यदि आत्मख्याति के तालबद्ध-लयबद्ध अद्भुतगद्य अंशका भी प्राचीन शुद्ध प्रतियोंके आधारसे शद्ध संस्करण हो । HbON IN २56 -१४२ - Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहवृत्तिके असंग्रहवृत्तिकी ओर अगरचन्द्र नाहटा, बीकानेर विश्वके समस्त प्राणियोंमें मानव एक विचारशील और विशिष्ट प्राणी है। मनकी विशेष शक्तिके द्वारा उसने नये आविष्कार किये, अनेक प्रकारके चिन्तन और कार्यों द्वारा विष और अमत घोला । इसीलिये शास्त्रकारोंने मनुष्यको ही सबसे ऊँचे और नीचे पदोंका अधिकारी माना । फलतः वह सातवें नरक तक नीचे और ऊँचेसे ऊँचे मोक्ष तकको पा सकता है। मानसिक और शारीरिक शक्तिमें समय-समय पर बहुत अधिक उत्थान और पतन यानी क्रान्ति हुई और उस विकास परम्पराका इतिहास बहुत ही रोचक एवं ज्ञानवर्धक है। अन्य प्राणियोंकी अपेक्षा संग्रह और असंग्रह वृत्ति भी मनुष्योंमें ही अधिकसे अधिक परिमाणमें पाई जाती है। संग्रहके साधन और संरक्षणमें उपाय भी सबसे ज्यादा उसीको प्राप्त एवं ज्ञात हैं और उसीने संग्रहवृत्तिके लाभालाभका सबसे अधिक चिन्तन व अनुभव करके असंग्रह वृत्ति या त्यागकी ओर सबसे अधिक प्रगति की है। प्रस्तुत लेखमें मानवकी इन दोनों प्रकारकी वृत्तियोंके विकासका संक्षिप्त इतिहास जैन दृष्टिकोणसे उपस्थित किया जा रहा है, क्योंकि जैनधर्ममें अपरिग्रहको सबसे अधिक महत्त्वका स्थान मिला है। जैन तीर्थंकरों आदिने त्यागकी उच्चतमभूमिकाका स्पर्श किया और प्रत्येक जैनीके लिये परिग्रहका परिमाण तथा इच्छा व मच्छीका संकोच आवश्यक माना गया है। हिंसा आदिकी तरह ही परिग्रहको पाप और अपरिग्रहको धर्म माना गया । कोई भी प्राणी जन्म लेते समय शरीरके अतिरिक्त कोई भी वस्तु साथ लेकर नहीं आता। अतः स्वभावतः वह अपरिग्रही-सा है क्योंकि जाते समय भी संग्रहकी हुई कोई भी वस्तु साथ नहीं ले जाई जा सकती। संग्रहवृत्ति सप्रयोजन है। ज्यों-ज्यों मनुष्यकी आवश्यकतायें और इच्छायें बढ़ती हैं, वह अधिकाधिक संग्रहकी ओर प्रवृत्त होता है। और जब संग्रहीत या असंग्रहीत पदार्थों की मुछी या ममत्त्वका त्याग कर देता है, तब वह अपरिग्रही, निवृत्त या त्यागी कहलाता है । जैनधर्म निवृत्ति या त्याग प्रधान है। भोगोंसे हटकर त्यागकी और बढ़ना ही जैनधर्मका सन्देश है क्योंकि भोग व संग्रहवृत्ति चंचलता, विषमता, बन्ध और अशान्तिके कारण है और समत्वका अधिकाधिक विकास जैनधर्मकी साधनाका मुख्य ध्येय है। जैनग्रन्थोंके अनुसार, विश्वके उत्थान और पतनकी प्रधानताको लक्ष्यमें रखते हुए इन युगोंको अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नामोंसे विभाजित किया गया है। उत्सर्पिणी कालमें क्रमशः उत्थान और अवसर्पिणीमें क्रमशः अवनति होती जाती है। प्रत्येक कालके ६-६ चक्र याने आरे होते हैं। वर्तमानमें अवसर्पिणी याने अवनति काल चल रहा है। प्राणियोंका देह मान, आयु शक्ति आदिमें क्रमशः ह्रास होता जा रहा है। प्रथम तीन आरोके समय क्रमशः ह्रासमान होते हुए भी उनमें जीवन एक साँचेमें ढला हुआ था। वह य गलिक काल था अर्थात् स्त्री और पुरुष युग्मके रूपमें साथ ही जन्म लेते, वयस्क होने पर उनमें स्त्री और पुरुषका सम्बन्ध होता और फिर युगलिकको जन्म देकर ही वे मर जाते । ऐसा कहा गया है कि उस समय शरीर व आयुका परिमाण बहुत अधिक था पर उनकी इच्छाएँ, आवश्यकताएँ, आहार आदि बहत ही कम थे । कल्पवृक्षोंसे ही उनकी आवश्यकताओंकी पूर्ति हो जाती थी। खानेको फल और पहननेको -१४३ - Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपड़े, आभूषण इत्यादिकी पूर्ति दस प्रकारके वृक्षोंसे ही हो जाती थी, उन्हें संग्रह करने और संरक्षण करनेकी कोई आवश्यकता व चिन्ता न थी । जब जो, जितनी आवश्यकता हुई, उन वृक्षों द्वारा उनकी पूर्ति हो जाती । इस तरहका एक साँचे में ढला हुआ-सा जीवन व्यतीत होनेसे उसे भोग भूमिका काल कहा गया है । असि, मसि, कृषि आदि कर्मोकी उत्पत्ति होने पर उत्तरवर्ती समयको कर्मभूमि काल कहा गया है। ज्यों-ज्यों उन वृक्षोंकी फलदायी शक्ति कम हुई और युगलिकोंकी क्षुधा आदि आवश्यकतायें बढ़ीं, नो ईर्ष्या, कलह, द्वेष आदि बढ़ने के साथ चोरी और संग्रहवृत्ति भी बढ़ी। परम्परासे प्राप्त अपने वृक्षोंके फलोंसे जब उनकी इच्छाओं की पूर्ति न होती ( क्योंकि पहलेकी अपेक्षा वे फल काल कम देने लगे थे), तो दूसरोंके हिस्से के वृक्षोंसे भी लाभ उठानेकी वृत्ति जागी। सब समय एक समान उत्पादन नहीं होने से संग्रहकी आवश्यकता भी हो आई क्योंकि जिस समयमें आवश्यकता के अनुरूप सामग्री न मिले, उस समय के लिए कुछ कठिनाई व असुविधा प्रतीत होने लगी । इससे सभी प्रकारकी अनैतिकता व अपराध भी बढ़े । क्रमशः तीसरे आरेके अन्तमें ऐसी विषम और क्रान्तिकारी परिस्थिति में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवका जन्म हुआ । इन्होंने अपने युगमें एक अपूर्व क्रान्ति की, क्योंकि वह संक्रान्ति काल था । इधर मनुष्योंकी सन्तानोंकी अधिकता होनी प्रारम्भ हुई, तो उत्पादनके साधन भी बढ़ाने आवश्यक हो गये । " आवश्यकता ही अविष्कारकी जननी है' के सिद्धान्तानुसार भगवान ऋषभदेवने कृषि, असि, मसि आदि समस्त कर्म, कलाकौशल स्त्री-पुरुषों को सिखाये । उन्होंने पुरुषोंको बहत्तर और स्त्रियोंकी चौसठ कलाओंको पाठ पढ़ाया । उत्पादन और जनसंख्या - दोनों की अभिवृद्धि हुई । अपनी-अपनी शक्ति और बुद्धिके अनुपातसे उत्पादन आदिकी कमी - बेशी होनेसे लोगोंकी आर्थिक स्थिति में विषमता आई । किसीने अपनी मानसिक व शारीरिक शक्तियों का उपयोग कर आवश्यकताओं से अधिक उत्पादनकर बहुत बड़ा संग्रह कर लिया, तो कोई व्यक्तिइस क्षेत्र में पिछड़ गये । इस तरह संग्रहवृत्तिका सूत्रपात होकर क्रमशः आवश्यकतायें बढ़ीं और उनसे भी बहुत अधिक इच्छायें बढ़ों । आवश्यकताओंकी पूर्ति तो फिर भी हो सकती हैं क्योंकि जीवन सीमित है और शक्तियोंका विकास अपरिमित है । पर इच्छायें तो आकाश के समान अनन्त हैं । अतः उनकी पूर्ति होना असंभव है । एक इच्छाकी पूर्ति हुई तो दूसरी अनेक प्रकारकी इच्छायें जाग उठेंगी। अब संग्रह केवल अपने लिये ही नहीं, परिवार बढ़नेसे सारे परिवारके लिये भी बढ़ाना आवश्यक हो गया। फिर सभी व्यक्ति एक समान उत्पादन कर नहीं सकते, इसलिये जो उत्पादन करनेमें समर्थ हैं, उन्हें उनके लिए भी चिन्ता होनी स्वाभाविक है । फिर जब सन्तानके प्रति ममत्व या मोह बढ़ता गया, तो उन्हें व उनकी संतति के लिये इस तरह कई पीढ़ियोंके लिये संग्रह करनेकी प्रवृत्तिने जोर पकड़ा । मनीषी व्यक्तियोंने संग्रहीत धन या पदार्थों की तीन गतियाँ बतलायी हैं—दान, भोग और विनाश । भोगके लिये आय सीमित है और अधिक भोग रोग आदि दोषोंका कारण है, इसलिये दान धर्मको खूब महत्व दिया गया है, क्योंकि भोग और दानके रूपमें उपयोग न हुआ तो संग्रहका तीसरा मार्ग विनाश ही होगा, चाहे वह किसी भी तरहसे हो । स्वेच्छासे नहीं, तो अनिच्छासे भी संग्रहीत वस्तुओं को किसी भी तरह छोड़ना होगा ही । अतः उनका दान करके ही सदुपयोग क्यों न किया जाय ? ऋषभदेव के पहले जो युगलिक जीवन था, उसमें न अतिभोग था, न योग था, न उग्र पाप था, न धर्ममय जीवन था । अनैतिकता व पाप न होकर एक साँचे में ढला हुआ-सा जीवन था । मनकी कुलषित वृत्तियाँ न थीं । इसलिये उनके लिए देवगतिका ही विधान मिलता है। इधर जब पाप प्रवृत्तियाँ पनपीं, तो धर्मको आवश्यकता हो उठी, इसलिये नरक और मोक्षके द्वार खुल गये । कर्ममय जीवनके साथ धर्ममय - १४४ - Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनका सम्बन्ध लगा हआ है। उसी विकसित शक्तिकी दिशा मोड़कर उसे सत्कर्ममें लगा दिया जाय, तो जीवनोत्थान अवश्यम्भावी है। इसीलिये कहा गया है-'जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा' । जो अधिकसे अधिक संग्रह कर सकता है, वह अधिकसे अधिक त्याग भी कर सकता है, वृत्ति या शक्तिको दिशा भर बदलनेकी बात है। विश्वमें जो भी संघर्ष है, अनीति या अधर्म है, उसका प्रधान कारण संग्रह या ममत्व है। किसी वस्तुपर मैने अपनापन आरोपित कर दिया, तो उसे मैं दूसरोंको न लेने दूंगा, न दूंगा ही । उसके लिए युद्ध, द्वेष, कलह-सभी कुछ किये जाते है । जो वस्तु मेरी नहीं है, पर उसे प्राप्त करनेकी इच्छा हो गई, तो उसके प्रति मेरा ममत्व जगा और फिर जिस किसी भी प्रकारसे, दूसरेका विनाश करके भी, उसकी प्राप्तिका प्रयत्न मेरे द्वारा किया जायगा। सभी युद्ध द्वष, अशान्ति और अनैतिकता इसी परिग्रहपर आधारित हैं। शान्ति प्राप्तिका उपाय सीमित ममत्वका परित्याग है। जीवनोपयोगी किसी भी वस्तुपर व्यक्ति विशेष या देश विशेषका अधिकार न होकर यदि वह सबके लिए सुलभ हो जाय, व्यक्ति संयम, त्यागकी ओर बढ़ते हुए दूसरोंके लिए उन वस्तुओंको मुक्त कर दे, उनसे अपनापन हटा ले, तो अशान्ति स्वयं हट जावेगी। ममत्वको दूर करनेके दो तरीके है-ममत्वका परिहार और ममत्वका विस्तार । समत्वकी ओर बढ़नेके लिए ममत्वका परिहार तो करना ही होगा, पर यदि हम सीमित ममत्वको हटाकर उसका विस्तार करते हुये समस्त प्राणियोंको अपना परिवार ही मान लें, तो उसका परिणाम भी समत्वमें ही परिणत होगा। कोई वस्तु हमारी नहीं, सारे समाज, राष्ट्र व देशकी है और हम सब उसीके अंग हैं। या जो भी व्यक्ति हैं, वे अपने ही है, ऐसा मान लेनेसे अलगाव, विषमताका भाव हटकर अशान्तिके कारण नष्ट हो जायेगें । "त्याग करते हए भोग करो" इस उपनिषद वाक्यका सन्देश भी यही है कि त्यागका लक्ष्य भुलाया न जाय, भोगोंमें आसक्ति बढ़ाई न जाय, वस्तुओं व धनके हम ट्रस्टी बनकर रहें-गान्धीजीका यही सन्देश था। जैनधर्ममें मुनि जीवनके लिए असंग्रही जीवन बितानेके कठोर नियम हैं। कलके भोजनका भी मुनि आज संग्रह करके नहीं रख सकता। उसके लिए रुपये-पैसेका तो स्पर्श भी निषिद्ध है। उच्च जीवनमें तो दिगम्बरत्व ही अपनाया जाता है। शरीरके सिवा मयर-पिच्छी कमण्डलके समान धर्मोपकरणोंके अतिरिक्त और कोई चीज उसके पास नहीं रहती। वह भिक्षावृत्ति से आहार ग्रहण करता है, वह भी हाथमें ही। कोई पात्र भी नहीं रखा जाता। दसरं प्रकारके स्थविरकल्पी साधओंके आचारमें वस्त्र. पात्र आदि धर्मोपकरणोंकी कुछ छूट रहती है। गहस्थके लिए सर्व संग या संग्रहका परित्याग सम्भव नहीं, पर उसके लिए भी परिग्रहका परिमाण करना पाँचवाँ अणव्रत है। वह अपनी इच्छाओंको सीमित कर ले उन्हें आवश्यकताओंसे अधिक बढ़ने न दे । उनको और भी सीमित करनेके लिये अणुव्रतोंके साथ गणव्रत और शिक्षाव्रत जोड़े गये हैं, जिनमें सुबहसे शाम और शामसे सुबह तकके भोगोपभोगका परिमाण चौदह नियमोंके द्वारा किया जाता है। जैन मुनियोंने वस्तुओंपर जो व्यक्तिका ममत्व है उस ममत्वको हटानेका बहुत अधिक प्रयत्न किया है। उन्होंने देखा कि एक-एक इंच भमिके लिए एक ही माताकी कोखसे जन्मे हए भाई-भाई भी परस्परमें लड़ते हैं । राजा आदि अधिपति तो उसे अपनी ही बपौती मानते हुए बड़े-बड़े युद्ध तक करते हैं, जिनमें लाखों व्यक्तियोंके प्राणोंकी और लाखों करोड़ोंका धन व वस्तूओंका विनाश होता है और जल्दी राजगद्दी प्राप्त करनेके लिए पुत्र पिताको मार डालता है। इस तरहकी विध्वंसलीलाको देखकर उनका हृदय सिहर उठा और उन भूमिपतियोंको सम्बोधित करते हुए उन्होंने जो मंगलमय वाणी प्रसारित की, उसके दो नमूने Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ दिये जा रहे हैं । अठारहवीं शताब्दीके कविवर धसिंहने बहुत ही सुन्दर दृष्टान्तों द्वारा 'धरतीकी घणियाप' याने मालकीपन कैसा, इसको सुन्दर ढंगमें प्रचारित किया है : धरतीकी धणियाप किसी ? भोगती किते भू किता, भोगवसी, मांहरी मांहरी करइ मरे । एही तजि पातलां उपरि, ककर मिलि केई ध्रुवै ॥१॥ धप ही धरणी केतुइ धुसि धरि, अपणाइत केई धूवै । घोवी तणी शिला परि धोवी हूंपति, हूं-पति करै हुवै ।।२।। इण हल किया किता पति आग, परतिख किता किता पर पूठ । वसूधा प्रगट दीसती वेश्या झझे भूप भुजंगसू झठ ॥३॥ पातल सिला वेश्या पृथ्वी, इण च्यारां री रीति इसी । ममता करै मरै सो मूरख कह, चर्मसी धणियाप किसी ॥४।। एक दूसरे राजस्थानी कविने भी कहा है कि जिस भूमिके लिए तुम इस धन-जनका बेहद संहार करनेपर तुले हुए हो सोचो तो सही कि इस भूमिको कौन साथ लेकर गया है ? बड़े-बड़े राजाओंने इसे अपनामानकर महाभारत जैसे युद्ध किए, पर अन्तमें उन्हें भी जाना पड़ा, पर भूमि तो यहीं की यहीं पड़ी रही, कोई भी साथ न ले जा सका : कहो भोम कुण ले गया ? एण भोम उपरे राम रावण हिण अडीया, एण भोम उपरे बहु चक्र वै रण पडिया । एण भोम उपरे गये वाणंवली बारह, एण भोम उपरे खपे खोहण अठारेह । सौला सोवत सौ सूरिमा, दरजोधन संग्रहि दिया । एतला राजा होई गया, कहो भोम कूण ले गया ॥१॥ इसी तरह समस्त पौद्गलिक पदार्थों को, यथावत शरीर तककी ममताको हटानेके लिए, उन्होंने उनकी विनश्वरता व उनके संग्रह व ममत्व द्वारा होनेवाली खराबियोंके विरुद्ध खूब साहित्य लिखा व प्रचार किया और असंग्रह वृत्तिकी ओर बढ़नेके लिए प्रेरणादायक संदेश दिया। जरूरत उसके आचरण की ही है। विश्वकी अशान्तिका मूल कारण यह संग्रहवत्ति ही है। इसीके कारण हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार आदि सारे दुर्गुण, वैर-विरोध एवं युद्ध पनपते हैं। इसीलिए असंग्रहवृत्ति की ओर बढ़ना ही परम शान्तिका मार्ग है। संग्रह, परिग्रह व भोग ही भवभ्रमण हेतु हैं और असंग्रह, असंग, अपरिग्रह व आसक्ति त्याग ही शान्ति एवं कल्याणदायक है । सुधीजन इसपर स्वयं सोचें, समझें और श्रेयकी ओर बढ़ें। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णुसहस्रनाम और जिन सहस्त्रनाम लक्ष्मीचन्द्र सरोज, एम० ए०, जावरा, म० प्र० हिन्दु के विष्णुसहस्रनाम स्तोत्रके समान जैनों में भी सहस्रनाम स्तोत्र प्रसिद्ध है । प्रायः दोनों समाजों में भक्तजन प्रतिदिन सहस्रनाम स्तोत्र पढ़ते हैं । अन्तर केवल इतना है कि हिन्दू समाजमें यह स्तोत्र पूजनके पश्चात् पढ़ते हैं और जैन समाज में यह स्तोत्र पूजनकी प्रस्तावना में पढ़ते हैं । असुविधा या शीघ्रताके कारण जो जिनसहस्रनाम पढ़ नहीं पाते हैं, वे भी प्रतिदिन जिनस हस्र नामके लिये अर्ध्य तो चढ़ाते ही हैं । पर्युषण या दशलक्षण पर्व में तो प्रायः सभी स्थानों पर पूजनकी प्रस्तावना में जिनसहस्रनाम पढ़नेकी और उसके प्रत्येक भागकी समाप्ति पर अध्यं या पुष्प चढ़ाने की भी परम्परा है । यद्यपि जिनसहस्र नाममें जिन भगवानके और उनके गुणोंको व्यक्त करने वाले एकहजार आठ नाम हैं, तथापि इसकी ख्याति सहस्रनामके रूपमें वैसे ही है जैसे मालामें एक सो आठ मोती या दाने होने पर भी हिन्दू लोग उन्हें सौ ही गिनते हैं, अथवा उपलब्ध सतसइयों में सात सौ से अधिक छन्द होने पर भी उन्हें सात सौ ही गिनते हैं । प्रस्तुत प्रसँगमें उल्लेखनीय यह भी है कि हिन्दू धर्म में विष्णु सहस्रनामके समान शिवसहस्रनाम या गोपालसहस्रनाम और सीतासहस्रनाम भी मिलते हैं । इसी प्रकार जैनोंमें भी जिनवाणीमें संग्रहीत लघुसहस्रनाम भी पठनार्थ मिलता है । संज्ञा और रचयिता दोनों सहस्र नामों की संज्ञा सार्थक है । विष्णुसहस्र नाममें भगवान विष्णुके एक हजार नाम हैं और जिनसहस्र नाममें भागवान जिनके एक सहस्र नाम हैं । विष्णुसहस्र नामके रचयिता महर्षिवर वेदव्यास हैं । यह उनके अमर ग्रन्थ महाभारतके आत्मानुशासन पर्वमें भीष्म युधिष्ठिर सम्वादके अन्तर्गत है । जिनसहस्रनाम स्तोत्र के रचयिता आचार्य जिनसेन हैं, जो कीर्तिस्तम्भके सदृश अपने आदि पुराण के लिये सुप्रसिद्ध हैं । छन्द, प्रस्तावना और समापन दोनों सहस्रनाम स्तोत्र संस्कृत भाषाके उस अनुष्टुप् छन्दमें हैं जो आठ अक्षरोंके चार चरणोंसे बना है । दोनों सहस्रनाम स्तोत्रोंमें अपनी प्रस्तावना है और अपना समापन है । पर जहाँ विष्णुसहस्रनाम स्तोत्रकी प्रस्तावना में तेरह ओर समापन में बारह श्लोक हैं वहां जिनसहस्रनाम स्तोत्र की प्रस्तावनामें तेतीस और समापन में तेरह श्लोक हैं । विष्णुसहस्रनाममें कुल १४२ श्लोक हैं और जिन सहस्रनाम में कुल १६७ श्लोक हैं । दोनों सहस्र नाम अपने-अपने धर्म और देवताकी देन को सँजोये हैं । दोनों की अपनी शिक्षा और संस्कृति है, पर विष्णुसहस्रनाममें जहां लौकिक प्रवृत्ति भी लक्षित होती है, वहाँ जिनसहस्रनाममें अलौकिक निवृत्ति ही लक्षित हो रही है। जहां विष्णुसहस्रनाम में कर्तृत्वभाव मुखरित हो रहा है, वहाँ जिनसहस्रनाम प्रस्तुत प्रसंग में मौन है। उसमें आद्योपान्त वीतरागताका ही गुंजन हो रहा है । चूंकि दोनों स्तोत्र भक्तिमूलक हैं और भक्ति में भगवानका आश्रय लेना ही पड़ता है, अतएव विचारके धरातलमें दोनों ही सहस्रनाम भक्तिके प्रकाशस्तम्भ हैं । जहाँ विष्णुसहस्रनाम में एकमात्र विष्णु ही सर्वोपरि शीर्षस्थ हैं, वहाँ जिनसहस्रनाम में सभी जिनेन्द्रोंको पूर्णतया सर्वशक्तिसम्पन्न अनन्तदर्शन - ज्ञान-बल-सुखसम्पन्न समझने की १४७ - - Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्पष्ट स्वीकृति है । विष्णुसहस्रनाम में वर्णित एक हजार नाम भीष्म युधिष्ठिरको सुनाते हैं, जिन सहस्रनाम उल्लिखित एक हजार आठ नाम जिनसेन पाठकोंके लिये लिखते हैं, पर उन्होंने भी समापनके दसवें श्लोक में संकेत किया है कि इन नामोंके द्वारा इन्द्र ने भगवानकी स्तुति की थी । विष्णुसहस्रनामकी प्रस्तावनामें कहा गया है कि विष्णु जन्म, मृत्यु आदि छह विकारोंसे रहित है, सर्वव्यापक है, सम्पूर्ण लोक-महेश्वर है, लोकाध्यक्ष है । इनकी प्रतिदिन स्तुति करने से मनुष्य सभी दुखोंसे दूर हो जाता है : अनादिनिधनं विष्णुं सवलोकमहेश्वरम् । लोकाध्यक्षं स्तवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत् ॥ जिन सहस्रनामकी प्रस्तावना में कहा गया है कि जिनेन्द्र भगवान वीतराग, क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं । आप अजर और अमर, अजन्म और अचल तथा अविनाशी हैं, अतः आपके लिये नमस्कार है । आपके नाम का स्मरण करने मात्र से हम सभी परम शान्ति और अतीत सुख-सन्तोष तथा समृद्धि को प्राप्त होते हैं । आपके अनन्त गुण हैं: अजराय नमस्तुभ्यं नमस्ते अतीतजन्मने । अमृत्य नमस्तुभ्य अचलायाक्षरात्मने ॥ अलमास्तां गुणस्तोत्रमनन्तास्तावका गुणाः । त्वन्नाम स्मृतिमात्रेण परमं शं प्रशास्महे || विष्णुसहस्रनामके समापनमें कहा गया है कि जो पुरुष परम श्रेय और सुख पाना चाहता हो, वह भगवान् व्यास द्वारा कहे गये विष्णुसहस्रनाम स्तोत्रका प्रतिदिन पाठ करे : इमं स्तवं भगवतो विष्णोर्व्यासेन कीर्तितम् । पठेत् य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्रात्तुं सुखानि च ॥ जिन सहस्रनामके समापन में भी आचार्य जिनसेनने लिखा है कि इस स्तोत्रका प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक पाठ करने वाला भक्त पवित्र और कल्याणका पात्र होता है । विष्णुसहस्रनाम स्तोत्रका समापन अनुष्टुप् छन्दमें ही हुआ है पर जिनसहस्रनामस्तोत्रका समापन अनुष्टुप्से अन्य छन्दमें हुआ है । दोनों ही स्तोत्र सार्थ मिलते हैं, अतएव संस्कृतविद् सुधी पाठक ही नहीं, अपितु हिन्दी भाषी भी दोनों स्तोत्रोंका आनन्द ले सकते हैं । समानता, असमानता एवं कलात्मकता दोनों सहस्रनामोंमें जहाँ कुछ समानता और असमानता है, वहाँ कुछ कलात्मक न्यूनाधिकता भी है । यह उनके रचयिताओंकी अभिरुचि है, पर दोनोंकी भगवद्भक्ति अनन्य निष्ठाकी अभिव्यक्ति करती है । स्थविष्ठ, स्वयंभू, सम्भव, पुण्डरीकाक्ष, सुव्रत, हृषीकेश, शंकर, धाता, हिरण्यगर्भ, सहस्रशीर्ष, धर्मयूप जैसे शब्द दोनों स्तोत्रोंमें मिलते हैं । देवताओंकी नामावली में ऐसे शब्द आ जाना अस्वाभाविक नहीं है । कारण, एक तो प्रत्येक भाषाके अपने शब्दकोषकी सीमा है और दूसरे एक धर्म, एक व्यक्ति, एक साहित्य, एक संस्कृति अपने अन्य समीपस्थ धर्म, व्यक्ति, साहित्य और संस्कृति से प्रभावित हुये बिना रह नहीं सकती है । फिर यह तो भाषा है । नामावली की समानताके सूचक कतिपय उदाहरण यहाँ सतर्क, सजग होकर देखें । प्रत्येक उदाहरणमें प्रथम पंक्ति विष्णुसहस्रनामकी है और द्वितीय तृतीय पंक्ति जिनसहस्रनामकी है । भगवान्‌ के नामोंके आधार १४८ . Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर भक्तोंमें भावनात्मक एकताकी अभिवृद्धिकी बात भी देश और कालको दृष्टिमें रखते हुये निस्संकोच कही जा सकती है। (१) स्वयम्भू शम्भुरादित्यः पुष्पकराक्षो महास्वनः । श्रीमान् स्वयम्भू वृषभूः सम्भवः शम्भुरात्मनः ॥ (२) अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः । स्तवनारे हृषीकेशो जितेन्द्रियः कृतक्रियः ।। ( ३ ) अनिविण्णः स्थविष्ठोऽमूर्धमयूपो महामखः । धर्मयूपो दयारागो धर्मनेमिर्मुनीश्वरः ।। ( ४ ) अनन्तगुणोऽनन्तश्रीजितमन्युर्भयापहः जितक्रोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितान्तकः । मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुविदारणः ( ५ ) श्रीदः शीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः । श्रीनिवासश्चतुर्वक्त्रः चतुरास्यः चतुर्मखः ।। प्रबुद्ध पाठक देखेगें कि पांचवें उदाहरणकी प्रथम पंक्ति और चतुर्थ उदाहरणकी द्वितीय पंक्ति पढ़ते हुये लगता है कि एक ही पोशाकमें सड़क पर दो विद्यालयोंके विद्यार्थी जा रहे है और साहित्यकी दृष्टिसे अनुप्रास अलङ्कार तो सुस्पष्ट है ही। विष्णुसहस्रनामकी नामावलीमें विभाजन नहीं है, पर जिनसहस्रनामकी नामावली दस विभागोंमें विभाजित है। विष्णुसहस्रनामकारने शायद इसलिये विभाजन नहीं किया कि विष्णुके सभी नाम पृथक पृथक हैं ही, परन्तु जिन सहस्रनामकारने शायद इसलिये सौ-सौ नामोंका विभाजन कर दिया कि जिससे श्लोक पाठसे थकी जनताको जिह्वाको, वाणीको कुछ विश्राम मिले और अर्घ्य चढ़ानेमें भी यत्किंचित् सुखानुभूति हो। हिन्दू धर्मकी एक प्रमुख विशेषता समाहार शक्ति भी है। उसमें एक ईश्वरके तीन रूप-ब्रह्मा, विष्णु, महेशकी शक्तियोंमें हैं और विष्णु भगवान्के चौबीस अवतार भी हैं। इनमें ऋषभदेव और बुद्ध भी हैं । इसी उदात्त भावनाका सूचक विष्णुसहस्रनामका निम्नलिखित श्लोक है जिसमें अनेक लोगोंका एकत्रीकरण या पुण्यस्मरण किया गया है : . चतुर्मूतिश्चतुर्बाहुश्चतुव्यूहश्चतुर्गतिः । चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदः विवेकवान् ॥ इस श्लोकमें राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्धको जहाँ स्मरण किया, वहाँ सालोक, सामीप्य, सायुज्य, सारूप्य गतिके साथ मन, बुद्धि अहँकार और चित्तको भी दृष्टिमें रखा तथा धर्म, अर्थ काम और मोक्ष पुरुषार्थोके साथ ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेदको भी नहीं भुलाया । यह श्लोक अनुप्रास अलंकारका भी ज्वलन्त निदर्शन है। अणु बृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निगुणो महान् । अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ।। अणु, बृहत्, कृशः, स्थूल, गुणभृत, निर्गुण, अधृत, स्वधृत जैसे विरोधी सार्थक शब्दोंको अपनेमें समेटे हुये यह श्लोक विरोधाभास अलंकार प्रस्तुत कर रहा है, यह कौन नहीं कहेगा ? विष्णु सहस्रनाममें - १४९ - Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर, श्रमण, वृषभ, वर्धमान शब्दोंका प्रयोग हिन्दी और जैन विद्वानोंके लिये विशेषतया दर्शनीय, पठनीय और चिन्तनीय है : वृषाही वृषभो विष्णुवृषपर्वा वृषोदरः । वर्धनां वर्धमानश्चविविक्तः श्रुतिसागरः । मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ॥ जिनसहस्रनाम स्तोत्रमें स्थविष्ठादिशतकंका चतुर्थ श्लोक पुनः पुनः पठनीय है। इसमें भगवान जिनेन्द्रका गुणगान करते हुये कहा गया है कि जिनेन्द्रदेव पृथ्वीसे क्षमावान हैं, सलिल-से शीतल है, वायुसे अपरिग्रही हैं, और अग्निशिखा सदृश उर्ध्वधर्मको धारण करनेवाले हैं। सुप्रसिद्ध उपमानोंसे अपने आराध्य उपमेयकी अभिव्यक्तिकी यह विशिष्ट शैली किसके हृदयको स्पर्श नहीं करेगी ? क्षान्तिर्भाक् पृथ्वीमूर्तिः शान्तिर्भाक् सलिलात्मकः । वायुमूर्तिरसंगात्मा वह्णि मूर्तिरधर्मधृक् ॥ इसी प्रकार श्रीवृक्षादिशतंके आठवेसे ग्यारहवें श्लोकोंमें और महामुन्यादिशतके आरम्भिक छह श्लोकों कवि-कुल-भषण जिनसेनने 'म, वर्णके शब्दोंकी झड़ी लगाकर प्रबुद्ध पाठकोंको भी चमत्कृत कर दिया है। उदाहरणस्वरूप महामनि तीर्थकर विषयक निम्नलिखित श्लोक देखिये, जो अनुप्रास अलंकारका एक श्रेष्ठतम उदाहरण है : महामुनिर्महामौनी महा ध्यानी महादमः । महाक्षमो महाशीलो महायज्ञो महामखः ।। जिनसहस्रनाम स्तोत्रमें जितने भी श्लोक हैं, वे जिनके ही विषयमें हैं, उनमें योगमूलक निवृत्ति है, भोगमूलक वह लोक प्रवृत्ति नहीं है जो विष्णुसहस्रनामके पुष्पहंस, ब्राह्मणप्रिय जैसे शब्दोंके प्रयोगमें हैं। दिग्वासादिशतंका प्रथम श्लोक जिनचर्याका एक उत्कृष्ट उदाहरण है : दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थो निरम्बरः । निष्किचनो निराशंसो ज्ञानचक्षुरमोमुहः ।। दिशायें जिनके वस्त्र हैं और जिनका हवा भोजन है, जो बाहर भीतरकी ग्रन्थियों (मनोविकारों) से रहित हैं, स्वयं आत्माके वैभव सम्पन्न होनेसे ईश्वर है और वस्त्रविहीन हैं, अभिलाषाओं और आकांक्षाओंसे रहित है, ज्ञानरूपी नयनवाले हैं और अमावस्याके अन्धकार सदृश अज्ञान-मिथ्यात्व-दुराचारसे दूर है, ऐसे जिन ज्ञानाब्धि, शीलसागर, अमलज्योति तथा मोहान्धकारभेदक भी हैं । जिन सहस्रनाममें ब्रह्मा, शिव, बुद्ध, ब्रह्मयोनि, प्रभविष्णु, अच्युत, हिरण्यगर्भ, श्रीगर्भ, पद्मयोनि जैसे नाम भी जिन ( जितेन्द्रिय ) के बतलाये गये हैं। जिनसहस्रनाममें जिनको प्रणवः, प्रणयः, प्राणः, प्राणदः, प्रणतेश्वरः" कहा गया है। इसके अनुरूप ही विष्णु सहस्रनाममें "वैकण्ठः, पुरुषः, प्राणः, प्राणदः, प्रणवः, पथः.. कहा गया है। जिनसहस्रनाम में जहाँ “प्रधानमात्मा प्रकृतिः, परमः, परमोदयः,, कहा गया है, वहाँ विष्णुसहस्रनाम स्तोत्रमें “योगायोगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः' कहा गया है। जिनसहस्रनाममें "सदागतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्यपरायणः" कहा गया । "सदायोगः सदाभोगः सदातृप्तः सदाशिवः,, भी कहा गया है । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार दोनों स्तोत्रोंके शब्दों, अर्थों और भावोंमें पर्याप्त साम्य उपलब्ध होता है और यह संकुचित स्वार्थ पर आधारित साम्प्रदायिक व्यामोहसे ऊपर उठकर भावनात्मक एकता और धार्मिक सहिष्णुताकी ओर इंगित करता है । धर्मकी धरा पर जातिका नहीं, गुण और कर्मका ही महत्त्व है । जैनधर्मके प्रचारक तीर्थंकर जैन ( वैश्य) नहीं, अपितु क्षत्रिय ही थे । अनन्यभक्तिनिष्ठा यह श्लोक विष्णुसहस्रनामका आमुख ही है पर यह उसमें नहीं है । इसमें जैसे भक्तकी भगवान विषयक अनन्य निष्ठाकी अभिव्यक्ति हुई है, वैसे ही जिनसहस्रनामके निम्नलिखित श्लोक में भी जिनसेन या जिनकी अनन्यनिष्ठा प्रगट हुई है : १ रचयिता २ श्लोक संख्या संक्षेपमें दोनों ही सहस्रनाम अपनेमें अनन्य निष्ठाको आत्मसात् किये हैं और भगवानके एक नहीं, अनेक नामोंके लिये स्वीकृति दे रहे हैं । दोनों ही प्रतिदिन पढ़े जाने पर भक्तोंके लिये लोक-परलोकके कल्याणकी बात कह रहे हैं । सारणी १ में उपरोक्त विवेचनका संक्षेपण किया गया है । त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव || ३ प्रस्तावना में श्लोक ४ समापनमें श्लोक ५ छन्द ६ अलंकार ७ नाम ८ उद्देश्य ९ विभाजन १० अभिव्यक्ति त्वमतोऽसि जगद्बन्धुः, त्वमतोऽसि जगद्भिषक् । त्वमतोऽसि जगद्धाताः त्वमतोऽसि जद्धितः ॥ सारणी १. जिनसहस्रनाम और विष्णुसहस्रनाम जिनस ० विष्णुस ० जिनसेन वेदव्यास १६७ १४२ ३३ १३ १२ १३ अनुष्टुप् उपमा, अनुप्रास बहुल १००८ परमश्रेय, अलौकिक निवृत्ति दश अध्याय वीतरागता 1 १५१ अनुष्टुप् उपमा अनुप्रास बहुल १००८ परमश्रेय, किंचित् शुभ लौकिक प्रवृत्ति ईश्वरके प्रति कर्तव्यभाव Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Psychology Prof. T.G. Kalaghatgi, Dharwar (Karnataka) The Jain psychology may be considered to be academic and rational psychology. It did not use the method of experiment. It relied on introspection and the insight of the seers. The problems of modern psychology have developed in a more exact and measurable direction. However, it is only possible to show a few similar developments in the psychological investigations in the Jainas, ancient Indian and western thought. Jainism is a realistic philosophy. It gives a dichotomous division of categories into soul and non-soul, the living and the non-living. From the noumenal point of view, the soul is pure and perfect. It is pure consciousness, it is characterised by Upayoga,1 Upayoga is that by which a function is served. It is also described as that by which a subject is grasped, a It is the source of experience. All the three aspects-cognitive, conative and effective, spring from it. Upayoga is of two types-formless, anakär and possessed of form or säkär. This distinction is analogeus to the indefinite and definie cognition, which may in turn, be characterised as 'Darshana' and 'jnina'. Attempts have been made to interpret Upayoga as a resultant of consciousness and an inclination arising from it. It would be after to state that upayoga is the conative drive which gives rise to experience. This may be likened to the 'horne' of the modern psychologists.3 The hormic force determines experience and behaviour. The conscious experience takes the form of perception and understanding. It operates even in the unconscious level of animal behaviour. But the horme expressed and presented by the Jain philosophers could not be presented in terms of modern psychology, because their problems were mainly epistemological tempered with metaphysical speculation, However, they were aware of the fact that there is a purposive force which actuates and determines experience. This is clear from the distinction between jñana' and 'darshana' as sakar and anakar upayoga. Cetana is a fundamental quality of soul. It is pure consciousness, a kind of flame without smoke. It is eternal, although it gets manifested in the course of evolutionary process of life in the empirical sence. Jainas recognise various forms of consciousness. They make distinction in consciousness as knowing, as feeling and as experiencing the fruits of 'karma' and willing.4 Conation and feeling are closely allied. As a rule, we have first feelling, next conation and then knowledge. The Unconscious :-The idea of the unconscious has been popoularised by Froudians. It has developed in two aspects-the psychological and metaphysical. The Jainas were aware of the uncoscious. The Nandisütras gives a picture of the unconscious in 152 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the example of earthenpet. The Budhists also recognised the unconsious life. It is called 'vidhimutta' while 'vidhichitta' is the waking consciousness. The concept of karma presented by the Jainas may aptly be compared to the collective or the arche types of the collective unconscious, although karma theory has a metaphysical flavour. Jung says that it is possible to find the karma aspect in the arche-types of the collective unconscious, Sense Experience :-In the Prumāṇa Mimamsa, 'pratyaksha' has been defined as that which is immediate and lucid. 'Indriya Pratyaksha' is the cognition which is immediate and direct and arised out of sense organs. There are five types of sensing organs-visual, auditory, tactual, elfactory and gustatory. But the experience that does not need the sense organs and is immediate, is 'anindriya pratyaksha'. It is the real pratyaksha". It is of three types 'awadhi, manaḥparyaya and keval'. Sense organs are conditions of sense perception. They are instruments in which we get sense experience like the carpenter's axe, Perception of a particular object is, in fact, due to the destruction and subsidence of the knowledge obsuring karmas. It also depends on the competency of the appropriate psychical factor. The psychic factor is the selective attention which may be referred to as mental set. This is possible when all psychic impediments are partially and wholly removed through the destruction and subsidence of knowledge obscuring karmas. Stages of Sense Perception :-The Jainas have made a significant contribution to the analysis of the stages of sense perception. There are four stages in it avagraha, ha, avaya and dharans. The earlier stage like avagraha, develops into subsequent stages and all of them partake of the same essential nature. Avagraha is the first simples stage in sense experience. It is the stage of sensation. Iha, cognition of objects in empirical experience is not complete with more awareness at the sensational stage. It is the tendency towards organising the specific features of the object. If may be referred to as associative integration of sensory elemenys experienced in the stage of sensation. Avaya leads from the stage of associative integration to the stage of interpretation. Perception is the interpretation of the sensation. The interpretation of sensory experience is through avaya which may be called perceptual judgement as 'this is Jar'. It may be compared to the a perception involved in the perceptual experience. Dharpa as the stage perception is important in that it forms the final determination of the object, retention of the object thus formed and recognition of the object in future occasions, 10 However, sense perception is concrete psychosis involving these processes which are combined and used to give a coherent experience. Supersense Experience :-The Jainas say that empirical experience is not direct as it is acquired indirectly through the sense organs and mind. It is 'indriya pratyaksha. But the soul in its real nature, is pure, perfect and coincident. The knowledge of the soul is vitiated by the veil of karma. Once the veil is removed, it gets perfect knowledge directly without the help of sense organs and the mind. That is supernormal 153 20 - Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ perception. This censists of three types : avadhi, manahparyaya and kevala. In avadhi, we apprhend objects which are beyond the reach of the sense organs. However, in avadhi, we perceive only such things as have form and shape. 11 Things without shape or form like soul and dharma cannot be perceived by it. This can be compared with clairvoyance. Modern psychical researches have provided examples of this type of experiences. Prof. Rhime carried out experiments with a pack of zener cards and arrived at astonishing results. The psychic phenomenon called French sensitiveness, sometimes called psychometry, may be included as a form of avadhi although in psychometry, sense organs and mind to play a part. Avashyaka Niryukti gives a description of Manahparyaya as cognition of the mental states of others without the instrumentality of the sense organs and mind. This type of cognition is not common and not possible for all. The homeless ascetics acquire this capacity through merit and by the practice of physical and mental discipline only in this karma bhūmi. Even the Gods are not competent to get it. In the west, Prof. Oliver Lotze carried out experiments on telepathy when he was professer of physics. The Duke University has been foremost in the study of these problems. At present, extra sensory perception like claivoyance and telepathy is accepted as a fact. Jainas declare that the soul in pure form is pure consciousness and knowledge. But it is obscured by the veil of karma just as one is obscured by the clouds. When such a veil is removed, omniscience dawns that is ‘kevala Jñāna', a stage of perfect knowledge and of kaivalya'. It is gained by the total destruction of four types of karmas. The total description of mohaniya karma is followed by a short interval of time called 'muhūrta', which is about 48 minutes. Then the other karmas are also destroyed. The soul shines in all its splendour and attains omniscience. It intuits all substances with all their modes. Nothing remains unknown in omniscience. It is the perfect manifestation of the pure and the real nature of the soul when the obstructive and obscuring veils of karma are removed. 1 2 References 1. Tattwärthadhigama Sūtra : 2.9 and Bhāshya on the same Panchāstikāya Sār, 27; Dravyasamgraha : Jivo Upayogamae, 2. Gommatsār Jivkāņda, chapter xx, 672 3. Kalaghatgi, T.G. : Some Problems in Jaina Psychology, 1961 4. Panchāstikāya Sar, 38 5. Nandisātra, 34 6. Jung, G.C. : Two Essays in Analytical Psychology; page 76, see footnote. 7. Pramāņa Mimāmsā : 1,1,29 and commentary 8. ibid, 1,1,21 and commentary 9. ibid : 1,1,29 and commentary 10. Tattwärtha Sutra Bhashya : 1,15 11. Nandi Sūtra, 46 12. Avashyaka Niryukti, 77. = 154 - Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखसार जैन मनोविज्ञान प्रो० टी० जी० कालाघाटगी, धारवाड़ (कर्नाटक) जैन मनोविज्ञान को बौद्धिक एवं तार्किक मनोविज्ञान माना जा सकता है। इसका विकास प्रयोगों पर आधारित नहीं है, इसके परिणाम आज के मनोविज्ञान की तुलना में अधिक यथाय तथा मापनीय भले ही न लगें, फिर भी इससे प्राच्य और पाश्चात्य अनेक मनोवैज्ञानिक विचारधाराओं का कुछ साम्य प्रदर्शित किया जा सकता है । जैन मनोविज्ञान का विकास जैन मनीषियों की सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि का परिणाम हैं । 'तवादी जैन दर्शन में जीव को उपयोगमयी बताया गया है। यह ज्ञान-दर्शनात्मक है और अनुभूति का साधन है । यह आधुनिक मनोविज्ञानियों के प्रयोजनवादी 'होम' के समकक्ष है। यह एक शक्ति है जो अनुभव और व्यवहार को निर्धारित करती है। लेकिन उपयोग तो बौद्धिक और आध्यात्मिक प्रक्रिया है। जैन अनुभूति क्रियावृत्ति एवं ज्ञान की श्रृंखला मानते हैं। जीवके अतिरिक्त, जैन अचेतनको भी मानते हैं, जिसका विकास आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक दोनों रूपों में हुआ है। कर्म सिद्धान्त इसका एक रूप है जिसमें कुछ आध्यात्मिकता भी है । हमारे लिए ज्ञान के दो स्रोत है : इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष । शरीर के पाँच संवेदनशील अवयवों के माध्यम से हमें तत्काल साक्षात् ज्ञान होता है। यह ज्ञानावरणी कर्म के क्षय से होता है। इसमें कुछ मानसिक घटक भी कार्यकारी होता है। यह इन्द्रियजन्य ज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के रूप में चार चरणों में होता है। हमारे अनुभवों को संगत बनाने में इन चारों चरणों का संयुक्त योगदान रहता है। जैन का कथन है कि इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान सीधा नहीं होता। शुद्ध आत्मा या जीव को ही कर्मपट पूर्णतः दूर होने पर इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही सीधा ज्ञान होता है क्योंकि शुद्ध जीव ज्ञानदर्शनमय है। शुद्ध जीव के ज्ञान को 'अधिसामान्य अवगम' कहते हैं । यह अवधि, मनःपर्यय और केवल के रूप में तीन प्रकार का होता है। अतीन्द्रिय ज्ञान एवं दूरबोध के रूप में अवधि और मनःपर्ययको आज की भाषा में समझा जा सकता है। आठों कर्मों के निराकरण के बाद केवल ज्ञान या सर्वज्ञता प्राप्त होती है। इसके अन्तर्गत सभी पदार्थों की सभी पर्यायों का अन्तान होता है। वर्तमान मनोविज्ञान में इस अन्तान के समकक्ष अभी कोई तथ्य सामने नहीं आया है। - 155 - Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधकथा कहां तक आपका शासन व अधिकार ? नेमीचंद्र पगेरया, बंबई उन दिनों मिथिलामें राजा जनकका राज्य था । राजा जनक अपनी न्याय प्रियता और धर्म प्रमके लिये दूर दूर तक प्रसिद्ध थे। वे वैराग्य और निस्पृहिताके आदर्श माने जाते थे। अपनी देह तकको वे पर जानते थे और उसके प्रति भी उदासीन रहते थे। इसी कारण विद्वान उन्हें विदेह सम्बोधित कर बहुसम्मान किया करते थे । वास्तवमें, वे घरमें ही वैरागकी जीवित मूर्ति थे। उनके राज्यमें चार विद्यापीठ व अनेक गुरुकुल थे। एक समय दो गुरुकुलोंके ब्रह्मचारियोंमें आपसमें वाद-विवाद हुआ, फिर हाथापाई और मारपीट होने लगी। अन्तमें एक गुरुकुलके स्थानको क्षति करनेकी शिकायत राज-अधिकारियों तक पहुँची । फलतः उनके एक प्रमुख नेता वटुको आरक्षणने कैदकर राजा जनकके सामने प्रस्तुत किया। जब उस नयुवक निर्भीक वटुने कथित आरोप स्वीकार किया, तो राजा जनकने उसे अपने राज्यसे बाहर निकालनेका कड़ा दण्ड सुना दिया। वटु शास्त्रज्ञ भी था। वह विनम्रतासे बोला, "हे राजन्, मुझे पहिले बताइये कि आपका शासन व अधिकार कहाँ तक है जिससे कि मैं उस शासनकी सीमासे परे चला जाऊँ।" दरबारियोंकी दृष्टिमें यह प्रश्न साधारण था, किन्तु राजा जनक असाधारण विद्वान थे और वे सोच समझकर ही उत्तर दिया करते थे। उन्होंने सोचा, तो पाया कि प्रकृतिके जल, थल, नभ, सूर्य, चन्द्र आदि अनेक उनके शासन व अधिकारसे परे हैं । वे सब ए कदम स्वतन्त्र है। फिर सोचा, तो पाया कि उनके भवन, उपवन व कोष धन भी पर है जिसका वर्तन व परिवर्तन उनके अधिकारमें नहीं है। फिर पुरजन, परिजन व स्वजन की बात ही क्या ? वे तो स्पष्ट पर हैं। फिर और भी गहराईमें उतरे, तो पाया कि उनका स्वयंका तन, यौवन और जीवनक्षण भी उनके शासन व अधिकारके घरेमें नहीं है। यह तथ्य जानकर उनका मुखमण्डल गम्भीर हो गया। फिर वटुसे धीरे बोले, "हे विद्वान् वटु, तुमने ऐसा प्रश्न पूछा है कि मैं निरुत्तर-सा हो गया हूँ। सच पूछो, तो मेरे शासन और अधिकारमें न कोई भू-कण है और न तुत्छ तृण और न स्वल्प क्षण ही है । इन्हें अपना व अपने शासनका मानना केवल अज्ञान और अहंकार है।" वह वटु विनय पूर्वक बोला, "हे धर्मज्ञ राजन्, आपके प्रत्येक शब्द परमार्थमें डूबे खरे सत्य है, किन्तु मैं तो आपकी दण्ड व्यवस्थाकी प्रतीक्षा में हूँ।" राजा जनक धीरे और गम्भीर वाणी में बोले, "तो सुनो, वटु, तुम अपने गुरुकुल जावो और पठनपाठनमें चित्त दो । बस, याद रखो कि आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् । तुम शान्तिसे अध्ययन चाहते हो, तो दूसरोंके प्रति भी उसके प्रतिकूल आचरण न होने दो।" ___ वह वटु विनयपूर्वक बोला, “हे महाभाग, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि आपकी आज्ञाका जीवन पर्यंत अक्षरशः पालन करूँगा।" और वह राजाको योग्य नमस्कार कर अपने गुरुकुलकी ओर गया। राजाके ज्ञान-चक्षु वटु के निमित्तसे खुले और वटुकी आचरण दृष्टि राजाके निमित्तसे खुली। सच है-परस्परोपग्रहो जोवानाम् । वही बटु एक दिन मिथिलाका परम विद्वान व राजपुरोहित हुआ। - १५६ - Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डश्रावकाचारमें प्रोषधोपवास चर्चा रतनलाल कटारिया, केकड़ी राजस्थान परीक्षाप्रधानी आचार्य समन्तभद्र का रत्नकरण्डश्रावकाचार नामक ग्रन्थ जैनाचार विषयक एक महत्वपूर्ण कृति है जिसे प्रायः आगमके समान कोटिका माना जाता है । इसकी विषयवस्तु 'चारित्तं खलु धम्मो' पर आधारित है। यह अनेक स्थानोंसे अनेक रूपमें प्रकाशित हुआ है, पर हम यहाँ वोर सेवा मन्दिर, दिल्लीसे प्रकाशित प्रतिके आधार पर ही उसमें वर्णित प्रोषधोपवास सम्बन्धी कुछ चर्चा करेंगे । इसका १०९ वा श्लोक, पृष्ठ १४६ निम्न प्रकार है : चतुराहारविसर्जनमुपवासः प्रोषधः सकृद् भुक्तिः । सः प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारंभमाचरति ॥ १०९ ।। "चार प्रकार का आहार त्याग उपवास है, एक बार का भोजन प्रोषध है और उपवास करके आरम्भ का आचरण करना प्रोषधोपवास है।" इस इलोकार्थ के आधार पर टीकाकारने अपनी प्रस्तावनामें इस श्लोकके क्षेपक होने का सन्देह किया है । उनके मतानुसार ग्रन्थमें प्रोषधोपवास को कथन १०६ वें श्लोकमें किया है : __ पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्यारख्यानं सदिच्छाभिः ।। १०६ ।। इसमें बताया गया है कि पर्वणी (चतुर्दशी) तथा अष्टमी में सदिच्छासे जो चार आहार का त्याग किया जाता है, उसे प्रोषधोपवास समझना चाहिये। टीकामें भी निम्न वाक्यके द्वारा इसे लक्षण ही सूचित किया है-अथेदानी प्रोषधोपवासलक्षणं शिक्षाव्रतं व्याचक्षाणः प्राह-। इसके बाद चतुरा र विसर्जन श्लोकमें भी प्रोषतोपवास का लक्षण बतलाया गया है। इसकी उत्थानिकामें टीकाकारने लिखा है अधुना प्रोषधोपवासस्तल्लक्षणं कुर्वन्नाह । परन्तु प्रोषधोपवासका लक्षण तो पहिले ही किया जा चुका है, फिरसे उसकी क्या जरूरत हुई, इसका कोई स्पटीकरण टीकामें नहीं है। इसके सिवा, धारणक और पारणकके दिनोंमें एक भुक्तिकी जो कल्पना टीकाकारने की है, वह उसकी अतिरिक्त कल्पना है। प्रोषध का अर्थ सकृद् भुक्ति और प्रोषधोपवासका अर्थ सकृद् भक्ति पूर्वक उपवास-किसी अन्य ग्रन्थमें देखने में नहीं आया। यह अर्थ प्रोषध १. मुख्तार सा० ने जो सदिच्छामिः पाठ माना है, वह ठीक नहीं है। सदेच्छाभिः पाठ देकर यह बताया है कि किसी मास विशेषकी अष्टमी-चतुर्दशीको ही उपवास करनेका नियम नहीं है, प्रत्युत जीवन पर्यतकी अष्टमी-चतुर्दशीको उपवास करनेका नियम है। इच्छाभिः का विशेष अर्थ है-कोरा चार आहारोंका त्याग ही उपवासमें पर्याप्त नहीं है, किन्तु आहारादिकी इच्छा, विषय कषायोंका त्याग प्रत्याख्यानके साथमें आवश्यक है। मुख्तार सा० ने सत् इच्छाका विधान किया है किन्तु ग्रन्थाकार सत् और असत-सभी प्रकारकी इच्छाओंका यहाँ परित्याग करवा रहे है। अन्य ग्रन्थकारोंने भी इस प्रसंगमें सदा पाठ ही माना है। अतः यहाँ सदेच्छाभिः पाठ ही होना चाहिये। - १५७ - Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमाके श्लोक १४० के भी विरुद्ध है । अतः यह चतुराहार विसर्जन श्लोक आश्चर्य नहीं, जो ग्रन्थमें किसी तरह प्रक्षिप्त हो गया हो और टीकाकार को उसका ध्यान भी न रहा हो । इस श्लोक पर और भी कुछ विद्वान इसी तरहके क्षेपक होने का आरोप करते हैं, किन्तु मेरे विचार में यह सब ठीक नहीं है । यह श्लोक मूल का ही अंग है और स्वामी समन्तभद्रकृत ही हैं । किसी भी प्राचीन अर्वाचीन प्रतिमें इस श्लोक का अभाव नहीं पाया जाता । अगर यह क्षेपक हैं, तो यह दूसरे किस ग्रन्थका मूल श्लोक है और कौन इसका कर्ता है, यह स्पष्ट होना चाहिये । अन्यथा किसी श्लोकको क्षेपक कह देना अतिसाहस है । इस श्लोक की रचना शैली एक विशेषता को लिये है जो इसे समन्तभद्र की ही कृति सिद्ध करती है । 'इसमें जो लक्षण बांधने का ढंग है, वह रत्नकरण्ड श्रावकाचार के सिवा अन्य किसी भी श्रावकाचार में नहीं पाया जाता । इसकी अद्वितीयता निम्न है: - इसमें यदु के साथ 'आचरण' शब्द न देकर 'आचरति' क्रिया दी है और यद् की जोड़का सः शब्द देकर लक्षण बांधा है । यह शैली रत्नकरण्ड श्रावकाचार में अन्यत्र भी पाई जाती है; यथा, सा (१) न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । परदारनिवृतिः, स्वदार सन्तोषनामापि ॥ ५९ ॥ (२) निहितं वा पतितं वा, सुविस्तृतं वा परस्वमविसृष्टं । न हरति यन्न च दत्ते तद्द्दृशचौर्यादुपारमणम् ।। ५७ ।। (३) स्थूलमलीकं न वदति न परान्वादयति सत्यमपि विपदे । यत्तद् वदन्ति सन्तः, स्थूलमृषावादवैरमणम् ।। ५५ ।। (४) संकल्पात्कृतकारितमननाद् योगत्रयस्य चरसत्वात् । न हिनस्ति यत् तदाहुः, स्थूलबधाद्विरमणं निपुणाः ॥ ५३ ॥ (५) अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः 11 8R 11 (६) स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य, यत्प्रमार्जन्ति, वाच्यता बालाशक्त जनाश्रयाम् । तद्वदन्त्युपगूहनम् ।। १५ ।। इसतरह यह सुतरां सिद्ध है कि यह श्लोक क्रमांक १०९ रत्नकरण्ड श्रावकाचार का ही अंग है और स्वामी समन्तभद्रकृत हो है ! अब जो आपत्तियाँ की गई हैं, उनका भी निरसन निम्न प्रकार किया जा सकता है: (१) टीकाकारने जो श्लोक १०६ की उत्था निकामें 'प्रोषधोपवासलक्षणं शिक्षाव्रतं प्राह' लिखा है, वह ठीक है । उसका अर्थ यह है कि प्रोषधोपवास नामके शिक्षाव्रत का कथन करते हैं । शिक्षाव्रतके चार भेद हैं । उनमें से यहाँ प्रोषधोपवास नामके शिक्षाव्रत का कथन किया है। अतः नाम या भेद अर्थ में यहाँ लक्षण शब्द का प्रयोग किया गया है । यही शैली आगेके वैयावृत्त शिक्षाव्रत की उत्थानिकामें इस प्रकार दी है " इदानीं वैयावृत्यलक्षणशिक्षाव्रतस्य स्वरूपं प्ररूपयन्नाह । " श्लोक १०९ की टीकामें चतुराहार पदकी व्याख्या इस प्रकार की है— चत्वारश्च ते अहाराश्चाशन-पान- स्वाद्य लेह्यलक्षणाः । इसमें भी लक्षण शब्द भेद अर्थमें ही दिया है । - १५८ - Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक न० १०९ की उत्थानिकामें जो "प्रोषधोपवासस्तल्लक्षणं कुर्वन्नाह" लिखा है, उसका अर्थ है कि "प्रोषधोपवास" ऐसा जो पद है उसका लक्षण कहते हैं।" इस तरह दोनों उत्थानिका वाक्य अपनी जगह सही है । दोनोंका अर्थ जुदा जुदा है, अतः पुनरुक्तिका आरोप मिथ्या है। (२) श्लोक न० १०६ में 'पर्वण्यष्टम्यांच' पदमें पर्वणी मूल शब्द बताया गया है, यह गलत है । मूल शब्द पर्वन् (नपुंसक लिंग) है उसका सप्तमी विभक्तिके एक वचनमें पर्वणि रूप बनता है जबकि पर्वणी शब्दमें ईकार बड़ा है और वह स्त्रीलिंग शब्द है तथा यह प्रथमा विभक्तिका द्वि वचन है। अगर वह यहाँ होता, तो 'पर्वण्यामष्टम्यां च' ऐसा पद बनता । इसमें छन्दोंभंग ही होता । अतः यह ठीक नहीं है । टीकाकार ने भी मूल शब्द पर्वन् ही माना है और उसी का अर्थ चतुर्दशी किया है। उसी का सप्तमीके एक वचनमें पर्वणि रूप दिया है । (३) श्लोक न० १०९ में जो प्रोपधका अर्थ सकृद्भुक्ति दिया है, उसीके आधारसे टीकाकारने धारणक और पारणकके दिन एकाशन की बात कही है । उनकी यह कोई निजी कल्पना नहीं है । प्रोषधका अर्थ सकृद्भुक्ति अन्य ग्रन्थोंमें नहीं पाये जानेसे ही वह आपत्तिके योग्य नहीं हो सकता । समन्तभद्रके ऐसे बहुतसे प्रयोग है जो अन्य ग्रन्थोंमें नहीं पाये जाते । जैसे : . चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रतिभवति ॥ ७९ ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचारके इस श्लोक में अवधि शब्द शास्त्र अर्थमें प्रयुक्त किया गया है, यह अनूठा है। (आ) चौथा शिक्षाव्रत वैयावृत्य बताया है और उसीमें अर्हतपूजा को गर्भित किया है (श्लोक ११९)। यह निराला है। (इ) श्लोक क्रमांक ९७ के आसमयमुक्तिमुक्तं पदमें आये समय शब्दकी जो व्याख्या श्लोक ९८, "मूर्धरुहमु ष्टिवासो बन्धं पर्यंकबन्धनं चापि। स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः," में की गई है,। वैसी अन्यत्र नहीं पाई जाती। (ई) श्लोक न० २४ में गुरुमढ़ताके लिये पाखण्डिमोहनम् शब्द का प्रयोग भी अद्वितीय है। (उ) श्लोक नं० १४७ में मुनिवन, भैक्ष्याशन, चेल, खण्डधर आदि कथन भी अनुपम हैं। (ऊ) स्वयंभूस्तोत्रमें चारित्रके लिये उपेक्षा शब्दका प्रयोग श्लोक ९० में किया गया है । (ऋ) आज सामायिक शब्दका ही प्रचार है, किन्तु इस अर्थमें रत्नकरण्डश्रावकाचारमें सर्वत्र सामयिक शब्दका ही प्रयोग किया गया है, कहीं भी सामायिक शब्दका नहीं । यह भी एक विशेषता है । ( ४ ) श्लोक १०९ प्रौषधप्रतिमाके श्लोक १४० के विरुद्ध बताया जाता है, यह भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रोषधप्रतिमाके श्लोकमें जो प्रोषधनियम विधायी पद दिया है, उसके नियम शब्दके अन्तर्गत श्लोक १०६ से ११० तकका सारा प्रोषधोपवास का कथन आ जाता है। अतः यह श्लोक १०९ किसी तरह विरुद्ध नहीं पड़ता, अपितु उसका पूरक ठहरता है । अब मैं श्लोक १०९ के अर्थ पर आता है। आज तक इस श्लोकका पूरा वास्तविक अर्थ सामने न आ पानेसे यह श्लोक लोगोंको कुछ अटपटा सा लगता है । मैंने इस पूरे श्लोकका जो अर्थ निश्चित किया है, वह इस प्रकार है, विद्वान् इस पर गम्भीरतासे विचार करें : इस श्लोकमें कोई भी पाठान्तर नहीं पाया गया है। सिर्फ कार्तिकेयानुप्रक्षा की संस्कृत टीकामें शुभचन्द्राचार्यने इसके चतुराहारविसर्जन पदकी जगह चतराहारविवर्जन पद दिया है, जो सामान्य शब्द भेदको लिये हये हैं, किसी अर्थ भेदको लिये हुए नहीं । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखके प्रारम्भमें जो इस श्लोकका अर्थ दिया गया है, उसमें पूर्वाद्ध का अर्थ तो ठीक है, किन्तु उत्तराद्ध का अर्थ ठीक नहीं है। क्योंकि उत्तराद्ध के अर्थमें जो उपवास करके आरम्भका आचरण करना प्रोषधोपवास है, ऐसा बताया है, उसके अनुसार कोई ग्रन्थकार आरम्भ करनेका उपदेश नहीं दे सकता और न ऐसा प्रोषधोपवासका लक्षण कहा जा सकता है । मेरे विचारमें 'सः प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचारति' इस उत्तराद्ध के उपोष्यारम्भ पदका अर्थ उपवास-सम्बन्धी आरम्भ-अनुष्ठान लेना चाहिये। योगसारप्राभूत ( अमितगति प्रथम कृत ) के श्लोक १९ अधिकार ८ में आरम्भ शब्दका अर्थ धर्मानुष्ठान दिया है। उपवाससे सम्बद्ध हो जाने पर आरम्भ अपने आप धर्मानुष्ठान हो जाता है। यहाँ उपवास विषयक आरम्भके आचरणको प्रोषधोपवासका लक्षण बताया है । ग्रन्थकारने इस श्लोकमें और इससे पूर्व के तीन श्लोकोंमें जो उपवासविषयक कर्तव्य बताये हैं, वे सब इस उपोष्यारम्भ पदमें आ जाते हैं । इस छोटेसे पदमें उपवास सम्बन्धी सारे क्रियानुष्ठान गभित कर लिये गये हैं, इसीसे इस लक्षणात्मक श्लोकको अन्तमें रखा है। उपोष्यारम्भ पदके द्वारा प्रकारान्तरसे ग्रन्थकारने यह भी सूचित किया है कि यहाँ अन्य सब गार्हस्थिक आरम्भ त्याज्य हैं। सिर्फ आहारका त्याग करना ही उपवास नहीं है, किन्तु लौकिक आरम्भोंका त्याग करना भी साथमें आवश्यक है । ऐसा अन्य ग्रन्थकारोंने भी इस प्रसंगमें लिखा है: ( क ) पुरुषार्थसिद्धयुपाय-मुक्तसमस्तारम्भं ( श्लोक १५२) ( ख ) अमितगति श्रावकाचार-विहाय सर्वमारम्भमसंयमविर्वधकं ( १२।१३० ) सदोपवासं परकर्म मुक्त्वा ( ७७० ), सदनारम्भनिवृत्तैराहारचतुष्टयं सदा हित्वा ( ६-८८ ) (ग) सकलकीर्तिकृत सुदर्शन चरित-त्यक्त्वार भगृहोद्भवं ( २०७२ ) (घ ) रइधू विरचित पासणाह चरिउ-संवरु किज्जइ आरम्भकम्मि ( ५७ ) (ङ) जयसेनृकत धर्मरत्नाकर-आरम्भजलपानाम्यां मुक्तोऽनाहार उच्यते ( १३०८ ) ( च ) रत्नकरण्डश्रावकाचारके श्लोक १०७ में भी उपवासमें आरम्भका त्याग बताया है । उपोष ( उप + उष् ) शब्द उपवासका पर्यायवाची है, इसके आगे योग्य अर्थमें यत् प्रत्यय करने पर उपोष्य बना है। वही यहाँ उपोष्यारम्भ पदमें समझना चाहिये । "उपवास करके" इस अर्थका वाची शब्द यहाँ ग्रहण नहीं करना चाहिये । चचित श्लोकके पूर्वाद्ध में जो प्रोषधका अर्थ ग्रन्थकारने सकृद् मुक्ति दिया है, उसका समर्थन इसी ग्रन्थके 'सामयिकं बहनीयाद् उपवासं' चैक भुक्ते वा' से भी होता है । इसमें बताया है कि एक भुक्ति और उपवास अर्थात प्रोषधोपवासके दिनोंमें सामायिकको दृढ़ करना चाहिये । श्लोकमें जो वा शब्द दिया है, उसका तात्पर्य यह है कि सामायिकको अन्य विशेष दिनोंमें भी दृढ़ किया जाना चाहिये। इस श्लोकमें जो उपवास और एक भुक्ति अलग-अलग पद दिये हैं, वे उपवास और प्रोषध अर्थात् प्रोषधोपवासके वाची हैं। इससे प्रोषधः सकृद् भुक्ति: इस पदका अच्छी तरह समर्थन होता है और यह श्लोक समन्तभद्रकुत ही है, यह सम्यक् सिद्ध होता है । जिन्होंने प्रोषधका अर्थ पर्व किया है, वे ग्रन्थकार प्रोषधोपवास शब्दसे आठ प्रहारका ही उपवास अभिव्यक्त कर सके हैं। १२ और १६ प्रहरके उपवासके लिये उन्हें अतिरिक्त श्लोकोंकी रचना करनी पड़ी है। इसके विपरीत, स्वामी समन्तभद्रने प्रोषधका सकृदभुक्ति अर्थ करके इसके बल पर प्रोषधो - १६० - Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवास शब्द मात्रसे ही १२ और १६ प्रहरके उपवासका कथन अभिव्यक्त कर दिया है। यह उन जैसे प्रवचनपटु अद्वितीय रचनाकारका ही काम है। इस प्रसंग में संस्कृत टीकाकारने जो आरम्भका अर्थ सकृद्भुक्ति किया है, वह भी अनोखा है और शब्दशास्त्रादिक से किसी तरह संगत नहीं है । पं० आशाधरजी ने सागारधर्मामृत के अध्याय ७ श्लोक ५ तथा उसके स्वोपज्ञभाष्यमें प्रोषधोपवास के चार भेद किये हैं-आहारत्याग, अंग संस्कारत्याग, सावद्यारंभत्याग, और ब्रह्मचर्य ( आत्मलीनताका पालन )। इसी प्रकारका कथन श्रावक प्रज्ञप्ति और प्रशमरतिप्रकरणादिकी टीका श्वेताम्बराचार्योने भी किया है। इस दृष्टि से जब मैंने रत्नकरण्डश्रावकाचारका अध्ययन किया, तो उसके प्रोषधोपवास विषयक श्लोक १०६ से १०८ में मुझे ये चारों भेद परिलक्षित हुये हैं । जिसका खुलासा इसप्रकार है: पर्वण्यष्टम्यांच ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः ॥१०६ ।। इस श्लोकमें आहारत्यागका कथन है ।। पंचानां पापानामलं क्रियारंभगंधपुष्पाणाम् । स्नानांजन-नस्यानामुपवासे परिहृति कुर्यात् ।। १०७ ।। इस श्लोक में अंगसंस्कारत्याग तथा सावद्यारंभत्याग का कथन है । धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान् । ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालूः ।। १०८ ।। इस श्लोक में ब्रह्मचर्य ( आत्मलीनता, ध्यान ) का कथन है । सम्भवतः इसीके आधार पर उत्तरवर्ती दिगम्बर तथा श्वेताम्बर ग्रन्थकारों ने उक्त चार भेदों की परिकल्पना की है । वस्तुतः इस १५० श्लोक परिणाम छोटे से ग्रन्थमें स्वामी समान्तभद्रने गागरमें सागर भर दिया है । इस ग्रन्थ को जितनी वार पढो उतनी ही वार कुछ नया ज्ञातव्य पाठकको अवश्य मिलता है । इसकी यह विशेषता अन्य श्रावकाचारों में प्रायः नहीं पाई जाती । इस ग्रन्थ के अन्य कुछ श्लोकों पर भी कतिपय विद्वान क्षपकत्वका सन्देह करते हैं । प्रसंगोपात्त यहाँ उनकी भी चर्चा उपयुक्त होगी: मातंगो धनदेवश्री वारिषेणस्ततः परः । नीलो जयश्च सम्प्राप्ताः पूजातिशयमुत्तमम् ।।६४।। धनथ सत्यघोषौ च तापसारकावपि । उपाख्येयास्तथाश्मश्रुनवनीतो यथाक्रमम् ।।६५।। मद्यमांसमधुत्यागः सहाणुव्रतपंचकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमाः ॥७६॥ इन श्लोकों पर छन्दभिन्नत्वके कारण क्षेपकत्वका आरोप किया जाता है । यह ठीक नहीं है । छन्दभिन्नत्व तो प्रथम परिच्छेद और अन्तिम परिच्छेदके अन्तिम इलोकोंमें भी पाया जाता है, अतः यह हेतु अकार्यकारी है । कवि लोग कभी-कभी परिच्छेदके अन्त में छन्द भिन्नता कर देते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि जहाँ-जहाँ छन्द भिन्नत्व हो, वहाँ प्रायः परिच्छेदकी समाप्ति समझना चाहिये । यही बात यहाँ के २१ - १६१ - Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन श्लोकोंके लिये है। पहिले श्लोकमें अहिंसादि पाँच व्रतोंमें प्रसिद्ध होनेवाले पुरुषोंके क्रमशः नाम दिये हैं। उसी विषयमें दूसरे श्लोकमें बदनाम होनेवालोंके नाम दिये हैं। बदनामीका वाचक दूसरे श्लोकमें कोई शब्द न होनेसे और बिना उसके संगति न बैठनेसे समीचीन धर्मशास्त्रकी प्रस्तावना पृष्ठ ७१ पर यथाक्रमं पाठकी जगह अन्यथासमं पाठकी परिकल्पना की गई है किन्तु यह ठीक नहीं है। मेरे विचारमें यहाँ उपाख्येया की जगह अपाख्यया पाठ होना चाहिये जो बदनामीका वाचक है। इस सामान्य शब्द परिवर्तनके द्वारा ही इष्टार्थकी प्राप्ति होती है। प्रतिलिपिकारों के प्रमादसे अप का उप हो जाना बहत कुछ सम्भव है । इससे यथाक्रमम् पाठका लोप भी नहीं करना पड़ेगा। अब रहा मूल गुणोंका वाची तीसरा श्लोक, वह तो बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि उसके आगेके श्लोकमें जो यह बताया है कि "अनुबृहणात् गुणानामाख्यान्ति गुणव्रतान्यार्याः ।।६७।। इसलिये अगर गुणोंका ही वर्णन करनेवाला श्लोक नहीं होगा, तो गुणोंकी वृद्धि और गुणवतका कथन ही कदापि सम्भव नहीं होगा । जिस तरह बिना पिताके पुत्र नहीं होता, उसी तरह बिना गुणोंके गुणवत सम्भव नहीं। अतः यह श्लोक ग्रन्थका नितान्त आवश्यक अंग है । किसी तरह भी क्षेपक नहीं है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष महलकी परथम सीढ़ी समकित नीरज जैन, सतना अनादि कालीन संसार परिभ्रमणके घनघोर अन्धकारमें भटकते हए भव्य जीवके लिए, सम्यग्दर्शन प्रकाशकी प्रथम किरण है। यह भव-भ्रमण के अपार-पारावारमें निमग्न, निराश्रित और निराश पथिकके लिए दिशा-सूचक ज्योति स्तम्भ है । ऐसा अति दुर्लभ सम्यग्दर्शन जिन्हें उपलब्ध हो गया है वे प्रणम्य है । "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः"के विख्यात सूत्र द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनोंकी एकताको ही मोक्ष मार्ग कहा गया है । इनके विपरीत, समन्तभद्रने मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रको संसारका मार्ग निरूपित किया है (रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक ३)। तथापि मोक्ष मार्गकी प्राप्तिके लिए इन तीनोंमें भी सम्यग्दर्शनकी विशेषता आचार्योने स्वीकार की है । स्वामी समन्तभद्रने सम्यग्दर्शनको मोक्ष मार्गमें कर्णधार घोषित किया (श्लोक ३१) । इसी प्रकार कुन्दकुन्द आगमके प्रवक्ता टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्रने अपने ग्रन्थ 'पुरुषार्थसिद्धियुपाय' (श्लोक २१) में सम्यग्दर्शनकी महिमा स्थापित करते हये लिखा है कि इन तीनोंमें प्रथम, समस्त प्रकारके उपायोंसे सम्यग्दर्शन भले प्रकार अंगीकार करना चाहिये, क्योंकि इसके होते हुए ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होता है । ___ संसार सागरसे मोक्ष के लिए ऐसे खेवटिया सम्यग्दर्शनकी महिमा अनेक ग्रन्थोंमें गाई गई है । रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी टीका की प्रस्तावनाके रूपमें श्रीमान् पंडित पन्नालाल जी साहित्याचार्यने सम्यग्दर्शनके सम्बन्धमें बहुविध विचार किया है। संस्कृत साहित्यकी बात मैं नहीं जानता, परन्तु हिन्दीमें इसके पूर्व, सम्यग्दर्शन पर इतना विश्लेषणात्मक लेखन एक साथ कहीं देखनेको नहीं मिला था। इसमें पण्डितजीने चारों अनुयोगोंकी कथनकी अपेक्षा भी सम्यग्दर्शन पर विचार किया है। दिगम्बर जैन प्रबुद्ध समाजमें 'सम्यग्दर्शन' ही आज सबसे अधिक चर्चित विषय है। सम्यग्दृष्टि जीवकी उपलब्धियाँ क्या-क्या हैं ? उसके कौन-कौनसे विकार दूर हो गये हैं ? उसे अपनी यह स्थिति बनाये रखनेके लिए क्या-क्या करणीय है ? आदि आदि प्रश्नों पर समाजमें और समाचार पत्रोंमें प्रायः चर्चा चलती रहती है । सम्यग्दृष्टि जीवकी वीतरागता, उसका चारित्र, उसकी अबन्धक दशा और उसकी आत्मानुभतिके प्रश्नको लेकर प्रायः खोंचतान भी होती रहती है। इस निबन्ध में इन्हीं बातों पर विचार किया जायेगा । विचार करनेके लिए यदि हम शास्त्रोंका वर्गीकरण करें, तो हमें पता लगता है कि सम्यग्दृष्टि जीव और उसकी उपलब्धियोंको लेकर एक तो हमारे पास निर्ग्रन्थ मुनिराजों और आचार्यों द्वारा प्रणीत परम्परा है । इस परम्परामें, निम्रन्थ अवस्थासे पहिले तक, सम्यग्दृष्टि को, न तो शुद्धात्मानुभूतिसे युक्त मानते हैं, न शुद्धोपयोगी मानते हैं, न ही उसमें रत्नत्रयका प्रारम्भ मानते हैं, और न ही उसे सिद्धके समान अबन्धक कहते है। आचार्यांकी इस परम्परामें भगवान् कुन्दकुन्द, आचार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद, अमृतचन्द्र, जयसेन, जिनसेन आदिके नाम गिनाये जा सकते है । - १६३ - Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दृष्टि जीवके गुणगानमें दूसरी परम्परा, गृहस्थ ग्रन्थकारों की है । इस परम्परामें पञ्चाध्यायी प्रणेता पण्डित राजमलजी ( ई० १५४६-१६०४), आचार्यकल्प पण्डित टोडरमल जी, गुरुवर्य पण्डित गोपालदासजी वरैया, कविवर बनारसीदासजी आदि हैं । इन ग्रन्थकारोंने सम्यग्दृष्टिको वीतराग परिणति संयुक्त शुद्धोपयोगी, अबन्धक और रत्नत्रय-धारी भी किसी अपेक्षासे माना है । यह 'छोटे मुँह बड़ी बात' हो सकती है, परन्तु जितना ही मैं आज समाज में प्रचलित, एकांगी और विवक्षा-रहित धारणाओंको सुनने-समझने की कोशिश करता हूँ, उतना ही मुझे ग्रन्थकारोंका यह वर्गीकरण विचारणीय और महत्वपूर्ण लगता है । यद्यपि पण्डित दौलतरामजी और बाबा गणेशप्रसाद जी वर्णी जैसे विचारकोंकी संख्या भी कम नहीं है जिन्होंने आचार्य प्रणीत, आर्ष और चारों अनुयोगोंसे समर्थित परम्परा को ही अपनी लेखनी द्वारा प्रतिपादित किया, और इस प्रकार उचित अपेक्षा पूर्वक वस्तुस्वरूपका कथन करके स्याद्वादकी प्रतिष्ठा की है । मेरा यह मन्तव्य कदापि नहीं है कि उपरोक्त गृहस्थ ग्रन्थकारोंने शास्त्र - विरुद्ध या अवास्तविक प्ररूपणा की है, परन्तु ऐसा लगता है कि या तो उन्होंने हमारी बुद्धिपर भरोसा करके, हर जगह अपनी विवक्षा को स्पष्ट करनेकी आवश्यकता नहीं समझी या फिर कहीं कहीं हम ही उनकी विवक्षाको पकड़ने में चूक कर रहे हैं । उपरोक्त गृहस्थ ग्रन्थकारोंके 'पञ्चाध्यायी' और 'मोक्ष मार्ग प्रकाशक' ये दो ही प्रमुख ग्रन्थ हैं । एक दुर्भाग्य यह भी रहा है कि ये दोनों ही ग्रन्थ अधूरे एवं अपूर्ण हैं । दोनों ग्रन्थकार जिनवाणीकी पावन धारा में आकण्ठ अवगाह कर रहे थे। दोनोंने अपनी अद्भुत कथन क्षमता और अगाध ज्ञान लेकर, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र पर संकल्प पूर्वक लेखनी उठाई थी और उनका बहुत समृद्ध, सांगोपांग वर्णन करनेका प्रयास प्रारम्भ किया था, परन्तु दोनोंका कार्य ऐसी मझधारमें अधूरा छूट गया कि अकेले सम्यग्दर्शनका भी पूरा गुणगान उनकी लेखनीसे प्रसूत न पाया। फिर भी, सम्यकत्वके विषयमें दोनों ही विद्वानोंने जितनी सूक्ष्मतासे, जैसी विलक्षणता पूर्वक, विपुल सामग्री प्रस्तुत की है, इससे अनुमान किया जा सकता है कि यदि उनकी लेखनी ज्ञान और चरित्र पर भी चल पाती तो हमें रत्नत्रयकी अत्यन्त सुगम, अत्यन्त सरल और अत्यन्त सांगोपांग, तर्क-पूर्ण व्याख्या प्राप्त हो गई होती । हमारा दुर्भाग्य था कि ऐसा नहीं हो पाया । कई बार ऐसा लगता है कि इन गृहस्थ ग्रन्थकारोंने सम्यग्दर्शनका महत्व प्रतिपादन करते हुए, अपनी श्रेणी अवती सम्यग्दृष्टियोंके प्रति कुछ अधिक ही उदारता दिखाई है । इस समझका प्रतिफल यह हुआ है। कि आज सम्यग्दर्शनकी तथाकथित महिमाके ऐसे-ऐसे अर्थ लगाये जा रहे हैं, जिनके सामने ज्ञान और चारित्र की महिमाका सर्वथा लोप-सा होता दिखाई देता है । शुद्धात्मानुभूति और शुद्ध उपयोगकी लुभावनी, अबन्धक दशाका आश्वासन, जिन्हें गृहस्थी पालते हुये, व्यापार चलाते हुये और लड़ते-झगड़ते तथा विषय- कषायोंका आनन्द लेते हुये भी प्राप्त है, वे लोग व्रतादिक की शुभ परिणतिको साक्षात् बन्ध कराने वाली और हेय मान बैठे हैं । सैकड़ों, और शायद हजारों लोगोंने धारण किये हुए व्रत और ली हुई प्रतिज्ञायें तक, बन्ध तत्व समझकर, त्याग दी हैं । त्यागके त्यागकी यह हवा संक्रामक रोगकी तरह एकान्त शास्त्राभ्यासी, नवजिज्ञासुओंमें फैल रही है । अब साधकको जैसे ही सम्यग्दर्शन होकर आत्मा झलक मारना शुरू करती है, वैसे ही वह, जहाँ रमा है वहीं, अपनी उन्हीं प्रवृत्तियों के बीच, अपने आपको 'जिनेश्वरका लघुनन्दन' समझने लगता है । राज, रमा, वनितादिक जेरस, तेरस, बेरस लागे' वाली स्थिति की उसे आवश्यकता ही नहीं प्रतीत होती । खेदकी बात यह है कि तब उसे अपनी रागद्वेष रूप वर्तमान विकारी परिणति पर जरा भी खेद नहीं होता, उल्टे उसे अव्रती होनेकी एक महिमा सी लगती है । उसीका गौरव लगता है । · १६४ - Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्रती सम्यग्दृष्टिका वैभव और उपलब्धियाँ गिनाते समय कई बार तो हम यह भी भूल जाते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव चारों ही गतियोंमें पाये जाते हैं, तब पशुमें अथवा नारकी जीवमें वह सारी महत्ता कैसे संगत बैठेगी, जिसे चतुर्थ गणस्थान पर बिना विवक्षा विचारे, हम थोपते चले जा रहे हैं । इस दृष्टिसे भी प्रकृत विषय पर विचार किया जाना आवश्यक है । सम्यक्त्वके आठ अंग प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य--ये चार भाव सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति में कारण होते हैं । इन्हें हम समकितकी जड भी कह सकते हैं। वास्तवमें, इन्हीं चार भावोंके उत्तरोत्तर विकासका नाम ही सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शनके जो आठ गण या अंग,-निःशंकित, नि:कांक्षित, निविचिकित्सा, अमढदृष्टित्व, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना कहे गए हैं, वे भी इन्हीं चार भावोंसे प्रगट और पुष्ट होते हैं । इनका परस्परमें ऐसा ही सम्बन्ध है। १-'प्रशम' गुण हमारी कषायगत तीव्रताको हटाकर हमारे भीतर समता भाव उत्पन्न करता है। समताकी मृदु भ मिमें ही स्वके अस्तित्वका बोध होता है। अपने ही अस्तित्वके प्रति हमारी अनादिकालीन शंकाओं या भ्रान्त धारणाओंका निराकरण होकर हमारे भीतर निःशंकित नामका पहला गुण प्रगट होता है । यही गुण, आगे चलकर एक ओर तो उत्तरोत्तर बढ़ते हुए प्रशम भावसे पोषण प्राप्त करता रहता है, और दूसरी ओर यह अपने प्रसादसे पाँचवें उपगूहन अगको पोषित करता रहता है । २-'संवेग भाव' संसार परिभ्रमण से भयभीत होकर उसकी परिपाटीको तोड़नेकी छटपटाहटका नाम है। संवेगके आते ही समस्त सांसारिक उपलब्धियाँ और उपाधियाँ असुहावनी और कष्टकर लगने लगती है। उनके प्रति आकर्षण या उनकी प्राप्तिकी आकांक्षा हमारे भीतर शेष न रह जाय, सम्यक्त्वका यह निःकांक्षित नामका दूसरा गण है । यह गुण आगे जाकर एक ओर तो निरंतर बढ़ते हए प्रशम भावसे पोषित होता चलता है, दूसरी ओर यह स्थितिकरण नामके छठे गुणको पोषण प्रदान करता है। जितना दृढ़ संवेग भाव होगा, उतनी ही दृढ़ता हमारे निःकांक्षित गुणमें होगी, और यह जितना दृढ़ होगा, उतना ही हम अपने आपको यश, ख्याति, लाभ पूजादि चाहसे बचाकर रख सकेंगे । इनसे बचे बिना 'स्व' के अथवा 'पर' के स्थितिकरणकी कल्पना भी नहींकी जा सकती। ३---'अनुकम्पा' तृतीय भाव है जो मिथ्यात्वके नाशमें सहायक होता है । अनन्तानन्त संसारी जीवोंके अनादिकालीन दुःख समुदायका विचार करके, उनकी पीडासे द्रवित होकर, सर्वके दुःख निवारणकी कामना, अनुकम्पा है । दया भावमें, पर दुःख कातरता जोड़ देने पर, इस भावकी सही परिभाषा घटित होती है। अनुकम्पा प्रगट होते ही समस्त जीवों, और विशेषकर दुखियों-पीड़ितोंमें, हमारे निर्वि चिकित्सा नामका तीसरा गुण प्रगट होता है। ग्लानि, घणा, जुगुप्सा आदिका भाव हमारे मनसे निकल जाता है। यह गुण इधर तो निरन्तर अनुकम्पासे पोषण पाकर वद्धिंगत होता है और उधर अपने प्रसादसे वात्सल्य नामके सातवें गुणको बढ़ाता और दृढ़ करता है । ४-'आस्तिक्य' चौथा सबसे महत्वपूर्ण भाव है । इसीकी दृढ़ताके सहारे कुदेव, कुश्रुत और कुगुरुकी अनादि मान्यताके हमारे अनुबन्ध खण्डित होते हैं, हमें 'अमूढ़-दृष्टित्व' नामका सम्यग्दर्शनका चौथा गुण प्राप्त होता है। स्व और परकी यथार्थ मान्यता के बिना यह आस्तिक्य गुण उत्पन्न हो ही नहीं सकता । आस्तिक्यकी दृढ़ताके बिना, मूढ़-दृष्टियाँ मिथ्याकल्पनाएँ कभी नष्ट नहीं हो सकतीं । हमारे भीतर आस्तिक्य की नींव जितनी गहरी होगी, हमारा अमढ़दृष्टित्व भी उतना ही सबल और पुष्ट होगा। -१६५ -- Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह अमूढदृष्टित्व एक ओर तो सदैव आस्तिक्यसे शक्ति ग्रहण करके सबलता प्राप्त करता है, और दसरी ओर 'प्रभावना' नामके आठवें गणको आधार प्रदान करता है। आस्तिक्यके अनुरूप अमढ़-दृष्टित्व, और अमूढ़-दृष्टित्वके अनुरूप ही प्रभावना हमारे भीतर प्रतिष्ठित हो सकते हैं। इस प्रका सम्यक्त्व उपजानेमें कारणभूत ये चार भाव ही सम्यक्त्वके आठ गुणोंको शक्ति प्रदान करके निर्मलता और सम्पूर्णता प्रदान करते हैं। इसका यह अर्थ हुआ कि सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाने पर इन चारोंकी उपयोगिता समाप्त नहीं हो जाती, वरन् वह उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है और समकितवान जीवके जीवनमें इनका समावेश और महत्व निरन्तर बना रहता है । इन निशंकित आदि आठ गुणोंसे ही समकितका अस्तित्व है । जैसे शरीरके आठ अंग ही शरीरको पूर्णता प्रदान करते हैं, वैसे ही ये आठ गुण सम्यग्दृष्टि जीवका वैचारिक व्यक्तित्व बनाते हैं। निःशंकित और निःकांक्षितकी स्थिति दोनों पैरों जैसी है। इनके बिना व्यक्ति न टिक सकता है और न एक पग चल ही सकता है। निविचिकित्सा और अमूढदृष्टित्व हमारे दोनों हाथोंकी तरह है, जो मलशुद्धिसे लेकर चन्दनतिलक तक सारी क्रियायें करते हुए भी शरीरकी शुचिताको बनाये रखते हैं। स्थितिकरण अंग पृष्ठ भागपीठकी तरह है। शरीरमें मेरुदण्डकी तरह समकितमें यह अंग भी पूरे व्यक्तित्वको स्थिरता और आधार प्रदान करता है। उपगहन अंगकी स्थिति नितम्ब भागकी तरह है। जमकर बैठ जानेमें अत्यन्त उपयोगी होकर भी यह अंग प्रच्छन्न रहकर ही शोभा पाता है । हमारा वक्ष वात्सल्यका प्रतीक है। वात्सल्यकी उत्पत्ति, स्थिति और विकास सब कुछ हृदयमें ही होता है । वह तर्कसे, ज्ञानसे या बुद्धिसे बहुत ज्यादा संचालित नहीं होता। शाब्दिक वात्सल्यके बजाय लोकमें भी हार्दिक भावनाएँ या छातीसे लगाकर वत्सलता जताना ही सच्चे वात्सल्यका प्रतीक है। प्रभावनाका स्थान मस्तिष्कके समान निरर्थक है, उसी प्रकार मार्गप्रभावनाको आधार बनाए बिना, न समकित सच्चा समकित हो सकता है, न धर्म यथार्थ धर्म हो सकता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शनके अविनाभावी ये आठ गुण ही समकितवान जीवको एक अभूतपूर्व व्यक्तित्व प्रदान करते हैं । इनमेंसे कोई एक गुण भी यदि विकसित न हो पाये, तो वह अंग-हीन सम्यग्दर्शन, अनादि संसार परिपाटीका छेद करनेमें उसी प्रकार असमर्थ होता है जैसे कम अक्षरोंवाला मंत्र वांछित कार्यकी सिद्धि में अकार्यकारी होता है । निःशंकित गुण हमारी मनोभूमिको मृदुता प्रदान करता है । निःकांक्षित और निर्विचिकित्सा उसमेंसे राग द्वेषका उन्मूलन करते हैं, अमूढ़-दृष्टित्वसे मोहका परिहार होता है। शेष चार गुण हमारे व्यक्तित्वको शचिता, संस्कार और आत्म-संयमकी ओर ले जाते हैं। तभी हमारा जीवन शल्य रहित हो जाता है, भय रहित हो जाता है। संक्लेश मुक्त हो जाता है। मिथ्या शल्य जानेसे भूतकालका अनादिसे लगा हुआ मल विसर्जित हो जाता है, माया शल्यके अभावमें वर्तमान जीवन प्रामाणिक और पवित्रता युक्त हो जाता है और निदान शल्य जानेसे भविष्यके अनुबन्ध तथा आसक्तियाँ टूटती हैं। इस प्रकार समकितकी निधि प्राप्त होते ही जीवके भूत, भविष्य और वर्तमान-तीनोंमें पवित्रता आ जाती है। सम्यग्दृष्टि जीवकी प्रवृत्ति समकितके उत्पादक भावों और गुणोंकी उपरोक्त चर्चासे, यह बात स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन प्राप्त होते ही जीवको, एक साथ अनेक ऐसी अनुपम निधियाँ प्राप्त हो जाती हैं, जिनके आधार पर उसकी बाह्य और अभ्यंतर. दोनों प्रकारकी प्रवृत्तियोंमें बड़े परिवर्तन प्रारम्भ हो जाते हैं। संयमरूप चारित्र भले ही अभी उसने धारण नहीं किया हो, परन्तु अब तककी सारी यद्वा-तद्वा प्रवृत्तियों और चपलताओंको त्यागकर. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह अविलम्ब ही एक विवेकपूर्ण जीवन शैलीसे बँध जाता है । उसकी मानसिक स्थिति इस संसार में कुछ ऐसी हो जाती है, जैसी स्थिति वाग्दान् या सगाईके बाद कन्या की अपने पितृगृहमें हो जाती है । सगाई दिनसे बिदाके क्षणों तक वह कन्या, अपने जन्म गृहमें रहती है, हर्ष-विषाद, प्यार- प्रीति भोजन-पान, धरा-उठाईसब करती है, पर सगाईका सगुन चढ़ते ही, उसे अपने वर्तमान परिकरमें एक परायेपनका बोध होने लगता है । अब उसे अपना घर कहीं और दिखाई देता है । कल और आजकी उसकी प्रवृत्ति में स्पष्ट अंतर है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीवकी प्रवृत्ति भी भिन्न ही हो जाती है । संसार, शरीर और भोगों में परायेपनकी, और स्वसम्पदाओंमें अपनेपनकी धारणा, उसमें बड़े परिवर्तन ला देती है । करणानुयोगकी कसौटीपर परखें, तो समकित प्राप्त होते ही, इस जीवको अनादिकालसे निरन्तर बँधने वाली, कर्म प्रकृतियोंमेंसे इकतालीस प्रकृतियोंका बन्ध रुक जाता है । इसका हेतु यही है कि इन्हें बाँधने वाले परिणाम और क्रिया-कलाप उस जीवकी परिणतिमेंसे तिरोहित हो जाते हैं । इसे निकषपर परखकर यदि हम देखें तो हमें स्पष्ट पता लग जाता है कि असंयम दशाके रहते हुए भी, समकितवान जीवक प्रवृत्ति में बहुत परिष्कार हो जाता है । उसके मन, वचन, कार्यकी परिणति, पहिलेसे एकदम भिन्न हो जाती है । उदाहरण के लिए, नीच - गोत्र कर्मका बन्ध सम्यग्दृष्टि जीवको नहीं होता । इसका अर्थ हुआ कि परनिन्दा, आत्मप्रशंसा तथा दूसरोंके सद्गुणोंका आच्छादन और असका उद्भावन और अपने असद्का आच्छादन व सका उद्भावन उसके द्वारा नहीं होगा । विचारनेकी बात है कि इतने सूक्ष्म और संवेदनात्मक परिष्कार उसकी विचार पद्धतिका अंग बन जाते हैं, तब उसकी प्रवृत्ति में संकल्पी हिंसा, क्रूरता और दुष्ट अभिप्रायकी बात शेष रह जाये, यह कहाँ तक स भव है ? ऐसा ही आकलन अन्य कर्म - प्रकृतियोंके सम्बन्ध में करनेपर हमें सम्यग्दृष्टि जीवकी परिवर्तित परिणतिका सही अनुमान हो सकता है । सम्यग्दर्शनके प्रकार स्वामित्वकी अपेक्षासे, अथवा सहचारी अन्य गुणोंके परिणमनकी अपेक्षासे, सम्यग्दृष्टि जीवोंकी अनेक श्रेणियाँ होती हैं । मोटे रूपमें इन्हें चौथेसे लेकर दशमें गुणस्थान तक सात श्रेणियोंमें बाँटा गया हैं । भगवान कुन्दकुन्द समयसार में द्रव्यानुयोगकी मुख्यतासे व्याख्या कर रहे थे, उनका श्रोता समुदाय, रत्नत्रय - धारी साधु समुदाय ही था, इसलिए वहाँ उन्होंने प्रायः उन्हीं उत्तम पात्रोंके अनुसार बातकी है । सम्यग्दृष्टि या ज्ञानीके लिए कुन्दकुन्द द्वारा प्रयुक्त महानतापूर्ण विशेषणोंके प्रभामण्डलमें, जब हम अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं, तब अपनी वर्तमान दशाका परिष्कार करके, तदनुरूप उत्कर्षकी ओर अग्रसर होनेकी बजाय, हम अपनी वर्तमान उदयाभिभूत, विकारी परिणतिमें ही, उन सारी महानताओंका स्वामित्व अपने में देखने लगते हैं । उस प्रभामण्डलको अपने चहुँ ओर ढूँढ़ने लगते हैं, देखने लगते हैं या समझने लगते हैं । बस, यही भ्रम हमारे भीतर बहुत सी खुश-फफमीको उत्पन्न कर देता है । भगवान कुन्दकुन्दका उपदेश तो चक्रवर्तीका लड्डू है । जिसमें इसके पचानेकी क्षमता नहीं होगी, खाते ही उसके बौरा जानेमें कोई शंका नहीं है । कविवर बनारसीदासजीके साथ यही हुआ । वे जन्मतः श्वेताम्बर थे । उन्होंने जब बिना किसी प्रारम्भिक अध्ययन-मननके समयसार उठा लिया, जैसा उसमें लिखा है, वैसा ही एकान्त रूपसे समझ लिया, तो जो दशा उनकी हुई, सो अर्द्धकथानकमें दर्ज है । आज भी हममें से अनेकोंके साथ यही हो रहा है । अन्तर केवल इतना है कि स्वीकार कर सकें, इतनी सरलता और इसका परिमार्जन कर सकें इतना विवेक ऐसा साहस, बनारसीदासजी के पास था, हमारे पास नहीं है । 1 १६७ - Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान कुन्दकुन्दने तो प्रायः सौ टंचका कुन्दन ही अपनी दृष्टि में रखकर हर जगह बात की है। उनका ज्ञानी तो पूर्व निराश्रव, वीतरागी, अवंचक और निष्कम्प परिणति वाला है (समयसार गया १६६) इनके हार्दको प्रगट करनेके लिए जयसेन आचार्यने सम्यग्दर्शनको 'सराग' और 'वीतराग'-इन दो प्रकारोंमें विभक्त करके चौथेसे छठवें गणस्थानके जीवोंको-जो बुद्धिपूर्वक रागादि रूप परिणतिमें प्रवृत्त हैं-सराग सम्यग्दृष्टि कहा । और सातवें तथा उससे उपरके गुणस्थानोंके जीवोंको, जहाँ बुद्धिपूर्वक रागादिरूप परिणतिका सर्वथा अभाव है-वीतराग सम्यग्दष्टि कहा। इस प्रसंगमें उन्होंने एक मार्गदर्शन और हमें दिया कि समयसार पढ़ते समय सम्यम्दृष्टि या ज्ञानीका अर्थ मुख्यतः वीतराग सम्य दृष्टि ही करना चाहिये । पूज्यपाद स्वामीने प्रशम संवेगादिककी अभिव्यक्ति लक्षणवाला 'सराग सम्यग्दर्शन' और आत्माकी विशुद्धि मात्रको 'वीतराग सम्यग्दर्शन' कहा है। राजवार्तिकमें अकलंक देवने, सातों प्रकृतियोंके आत्यंतिक क्षय होने पर प्रगट होनेवाली, आत्मविशुद्धिको 'वीतराग सम्यग्दर्शन' माना है। समयसारके टीकाकार त्रिगुप्तिरूप अवस्थाको ही वीतराग सम्यग्दर्शनकी संज्ञा देते हैं। समयसार तात्पर्यवृत्तिमें, जयसेनाचार्यने अशभ कर्मके कत्तपिनेको छोड़नेवालेको 'सराग सम्यग्दष्टि' तथा शुभ और सब प्रकारके कर्मोके कत्तपिनेको छोड़कर निश्चय चारित्रकी अविनाभूत दशाको 'वीतराग सम्यग्दर्शन' कहा है (गाथा ९७) । दूसरी ओर, पंचाध्यायीकार ग्रन्थके दूसरे अध्याय (श्लोक ८२५-३१) में कहते हैं कि 'सम्यक्दर्शनमें जो 'सराग' 'वीतराग' आदि भेद देखता है, वह मिथ्यादृष्टि है, परन्तु उन्होंने ग्रन्थमें सम्यक्त्वका विशद विवेचन करते हुए नाना अपेक्षाओंसे अपनी बात समझाई है। ___ सम्यग्दर्शनके विविध लक्षणोंका समन्वय करते हुए डा० पन्नालाल साहित्याचार्यने रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी भूमिकामें उसके पाँच लक्षण माने हैं : १. परमार्थ देव-शास्त्र-गुरुकी प्रतीति, २. तत्त्वार्थ श्रद्धान, ३. स्व-पर श्रद्धान । ४. आत्माका भद्धान ५. सात प्रकृतियोंके उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षयसे प्राप्त श्रद्धागुणकी निर्मल परिणति । उनका यह कथन विशेष मननीय है कि-इन पाँच लक्षणोंमेंसे पाँचवाँ लक्षण जो करणानुयोगका सम्यग्दर्शन है, वही साध्य है । शेष चार उसके साधन हैं । जहाँ इन चारोंको सम्यग्दर्शन कहा है, वहाँ कारणमें कार्यका उपचार ही समझना चाहिये । सम्यक्त्वके साथ चारित्रकी व्याप्ति आचार्योंकी स्थापित परम्परामें सम्यग्दर्शनकी चारित्रके साथ विषम व्याप्ति स्वीकार की गई है। इसी कारण चौथे गुणस्थानवर्ती, अविरत सम्यग्दृष्टि जीवको, न तो रत्नत्रयधारी माना गया है, और न ही उसे मोक्षमार्गकी उपलब्धि मानी गई है। आचार्योने संयमाचरण चारित्रके तीन भेद किये हैं-देश चारित्र, सकलचारित्र और यथाख्यातचारित्र । पाँचवाँ गुणस्थान ही चारित्रका प्रथम सोपान कहा गया है । वहींसे जीवको मोक्षमार्गका एकदेश प्रारम्भ होता है । कुन्दकुन्दकी चारित्रपाहुडकी आठवीं गाथाके सहारेसे, स्वरूपाचरण चारित्रकी संगति, चौथे गुणस्थानमें बैठानेका प्रयत्न, कुछ विद्वानोंने किया है, परन्तु भगवानकी मूल शब्दावलीमें 'सम्यक्त्वचरण चारित्र' शब्द आया है, स्वरूपाचरण नहीं । संस्कृत टीकाकार श्रुतसागर सूरिने 'यच्चरति यत्प्रतिपालयति यतिः' लिखकर, उस सम्यक्त्वचरण चारित्रको मुनियोंके लिए साध्य बताकर, स्पष्ट ही चौथे गुणस्थानमें उसकी संभावनाका निषेध कर दिया है। अगली गाथाकी टीकामें भी उन्होंने 'ये सूरयः' शब्द रखकर Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी बात स्पष्ट कर दी है। पण्डित राजमलजीके पूर्व, अर्थात् आजसे चारसौ वर्ष पहिले तक, स्वरूपाचरण नामका जैन आगममें कहीं कोई उल्लेख भी नहीं था। पंचाध्यायीकार पं० राजमलजीने अनन्तानुबन्धीके अभावमें, चतुर्थ गुणस्थानवः सम्यग्दष्टिको भी, चारों गतियोंमें पाये जाने वाले स्वरूपाचरण चारित्रका सर्वप्रथम विधान किया है। उन्होंने प्रारम्भसे ही दर्शन-ज्ञान-चारित्रको अविनाभावी होनेसे अखण्ड ही स्वीकार किया है। इसीके ही सहारेसे पण्डित टोडरमलजीने चौथे गुणस्थानमें स्वरूपाचरण चारित्रकी व्यवस्था दी है। एक जगह उनका कथन है-'तहाँ जिनका उदय ते आत्मा के सम्यक्त्व न होय, स्वरूपाचरण चारित्र न होय सके, ते अनन्तानुबन्धी कषाय है'२ । तथा अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है'बहरी इस मिथ्याचारित्र बिषै स्वरूपाचरण रूप चारित्रका अभाव है।' पं० गोपालदासजी बरैयाने चारित्रगुणके मूलतः स्वरूपाचरण और संयमाचरण-ऐसे दो भेद करके, फिर संयमाचरणके तीन भेद किये हैं। उन्होंने पर मैं इष्टानिष्ट निवृत्तिपूर्वक निज स्वरूपमें प्रवृत्ति हो इसका लक्षण बताया है । इस प्रकार उन्होंने चारित्रको तीनकी जगह चार भेदोंमें बाँटा है। पण्डित दौलतरामजीने छहढालामें देश-चारित्रके साथ भी स्वरूपाचरणका विधान नहीं किया, वरन सकल-चारित्रके वर्णनके बाद, निर्विकल्प दशामें ही उसका विधान मुनियोंके वर्णनमें किया है। यह स्वरूपाचरण चारित्र जो भी हो, पर यह वह तत्त्व नहीं है जिसे हम रत्नत्रयका एक अंग कह सकें। भले ही यह चौथे गुणस्थानमें सम्यक्त्वके साथ ही उत्पन्न होकर, अविनाभाव रूपसे रहता है, । पर चारित्र गुणकी निर्मलतासे आत्माको जो विशिष्ट उपलब्धियाँ होती हैं, उनका शतांश भी प्रकट करानेकी शक्ति इस स्वरूपाचरणमें नहीं है । यह तो सम्यक्त्वकी ही एक विशेषतारूप विकास है । पण्डित मक्खनलाल जीने भी इस स्थितिको स्पष्ट करते हुए लिखा है : 'सम्यग्ज्ञान होने पर यह नियम नहीं है कि चारित्र भी हो। चौथे गुणस्थानमें सम्यग्ज्ञान भी हो जाता है परन्तु सम्यक्चारित्ररूप संयम वहाँ नहीं हैं । अर्थात् सम्यग्ज्ञानके होनेपर सम्यक्चारित्र हो भी, अथवा नहीं भी हो, नियम नहीं है । पण्डित टोडरमलजीने भी स्वरूपाचरणकी असमर्थता और मोक्षमार्गमें संयमाचरणकी अनिवार्यता स्वीकार करते हुए लिखा है, 'तातै अनन्तानुबंधीके गएँ किछू कषायनिकी मंदता तो हो है, परन्तु ऐसी मन्दता न होय जा करि कोई चारित्र नाम पावै । यद्यपि परमार्थ ते कषायका घटना चारित्रका अंश है, तथापि व्यवहार तैं जहाँ ऐसा कषायनिका घटना होय जाकरि श्रावकधर्म वा मुनिधर्मका अंगीकार होय, तहाँ ही चारित्र नाम पावै है। इतना ही नहीं, पण्डितजीने यह भी स्पष्टतया निर्देशित कर दिया है कि संयमरूप चारित्रकी साधना किये बिना जीवको मोक्षमार्ग बनता ही नहीं है। उन्होंने स्वतः प्रश्न उठाया-"जो असंयत सम्यग्दष्टि के तौ चारित्र नाहीं, वाकै मोक्षमार्ग भया है कि न भया है। ताका समाधान-- १. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक ७६४, ६७ । २. मोक्षमार्ग प्रकाशक (हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, प्रथमावृत्ति सन् १९११), अध्याय २, पृष्ठ ५५ । ३. मोक्षमार्ग प्रकाशक, वही, अध्याय ४, पृष्ठ १९९ । ४. गुरु गोपालदास बरैया स्मतिग्रन्थ, पृष्ठ १३९ । ५. छहढाला, दौलतराम । ६. पंचाध्यायी, अध्याय २ श्लाक ७६७ का भावार्थ । ७. मोक्षमार्ग प्रकाशक; वही, अध्याय ९ पृष्ठ ४८४ । २२ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मोक्षमार्ग वाकै होसी, यह तो नियम भया । तातै उपचार ते वाकै मोक्षमार्ग भया भी कहिये । परमार्थ तैं सम्यक् चारित्र भएँ ही मोक्षमार्ग हो है। असंयत सम्यग्दृष्टि के वीतराग भावरूप मोक्षमार्गका श्रद्धान भया, तातै वाकौं उपचार ते मोक्षमार्गो कहिये, परमार्थ ते वीतराग भावरूप परिणमें ही मोक्षमार्ग होसी । बहुरि प्रवचनसार विर्षे भी तीनोंकी एकाग्रता भएँ ही मोक्षमार्ग कहा है। तातै यह जानना तत्त्व श्रद्धान बिना तौ रागादि घटाएँ मोक्षमार्ग नाहीं, अर रागादि घटाए बिना तत्त्व-श्रद्धान-ज्ञान तें भी मोक्षमार्ग नाहीं । तीनों मिलै साक्षात् मोक्षमार्ग हो है। इस प्रकार सम्यग्दर्शनके साथमे स्वरूपाचरण चारित्र और संयमाचरण चारित्रकी संगतिको दृष्टिमें रखनेसे विरोध या विवादका निराकरण हो जाता है । शुद्धोपयोग उपयोगके अशुभ, शुभ और शुद्ध, ऐसे तीन भेद करते समय, आचार्योने सातवें गणस्थानसे ही शुद्धोपयोगका अस्तित्व माना है। छठवें गणस्थान तक शुभ और चौथेमे नीचे, मिथ्यात्वके सदभावमें, अशुभ उपयोगकी ही चर्चा है । आचार्य जयसेनने प्रवचनसारको तात्पर्यवत्ति में पहिले, दूसरे तथा तीसरे गुणस्थानोंमें तारतम्यसे घटता हुआ अशुभ उपयोग बताया है। चौथे, पाँचवे तथा छठवें गुणस्थानोंमें तारतम्यसे बढ़ता हुआ शभ उपयोग कहा है, और सातवेंसे लेकर बारहवें तक छह गुणस्थानोंमें तारतम्यसे बढ़ता हुआ शुद्ध उपयोग लिखा है । तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थानोंको शुद्धोपयोगका फल निरूपित किया है। अमृतचन्द आचार्यने भी प्रवचनसारकी टीकामें, परद्रव्य संयोग कारणसे होनेवाले जीवके समस्त उपयोगको, अशुद्ध कोटिमें लेकर, विशुद्धि-संक्लेश रूप उपरागके वशीभूत, उसे शुभ और अशुभ नाम दिया है। उन्होंने दर्शनमोह और चारित्रमोह, इस प्रकार समस्त मोहनीय कर्मकी उदय दशामें, जीवको अशुभ उपयोगी और क्षयोपशम दशामें शुभोपयोगी कहा है। आचार्यने शुद्धोपयोगका विधान परद्रव्यानुवृत्तिके अभावमें, अशुद्ध उपयोगसे विमुक्त होकर, मात्र स्वद्र व्यके आश्रय रूप अवस्थामें किया है । गुणस्थान परिपाटीसे बिठाने पर अमृतचन्द्र चार्य और जिनसेनाचार्यकी उपरोक्त दोनों व्यवस्थायें एक रूप ही विधान प्रस्तुत करती पाई जाती है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवकी बृहद्रव्यसंग्रहकी टीकामें ब्रह्मदेवने भी इसी प्रकार प्रथम तीन गुणस्थानोंमें परम्परासे शुद्धोपयोगका साधक रूप शुभोपयोग और अनन्तर जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदसे युक्त एकदेश शुद्धनय के आलम्बन रूप शुद्धोपयोग निरूपित किया है। इस प्रकार गुणस्थान परिपाटीमें मिथ्यादृष्टि जीवको शुभ उपयोगका और सम्यग्दृष्टिको सातवें गुणस्थानसे पूर्व शुद्धोपयोगका विधान आचार्योंने कहीं भी नहीं किया। पं० टोडरमलजीने मिथ्यादृष्टि जीवको भी शुभ उपयोगका विधान करते हुए एक जगह लिखा है'शुभोपयोग तै स्वर्गादि होय, वा भली वासना ते वा भला निमित्त ते कर्मका स्थिति अनुभाग घटि जाय, १. वही, अध्याय ९, पृष्ठ ४४८ । २. प्रवचनसार, अध्याय, । गाथा ९ (तात्पर्यवृत्ति टीका)। ३, प्रवचनसार, अध्याय, २ गाथा ६४-६७ (आत्मख्याति टीका)। ४. बृहद द्रव्य-संग्रह, गाथा ३४ की संस्कृत टीका । -१७० -- Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तौ सम्यक्त्वादिकी भी प्राप्ति हो जाय'।' इसी बातको एक अन्य प्रसंगमें वे लिखते हैं-तात का शुभोपयोग तौ शुद्धोपयोगको कारण नाहीं'। सातवें गुणस्थानसे नीचे चौथे आदिमें शुद्धोपयोगका विधान पण्डितजीके कुछेक स्थलोंसे प्रगट माना जाता है । जैसे उन्होंने कहा-'ऐसें यह बात सिद्ध भई-जहाँ शुद्धोपयोग होता जानै, तहाँ तो शुभ कार्यका निषेध ही है, अर जहाँ अशुभोपयोग होता जान' तहाँ शुभ की उपाय करि अंगीकार करना युक्त है । परन्तु पं० टोडरमलजी भी उपयोगको आचार्य प्रणीत, उपरोक्त करणानुयोग सम्मत शास्त्रोक्त व्यवस्थाका ही विधान वास्तवमें करना चाहते थे। ऊपरके उद्धरणोंमें जो कुछ भी उन्होंने कहा है. वह उपयोगकी नहीं, योगकी स्थिति है। यहाँ उनका तात्पर्य जीवके परिणामोसे नहीं, वरन् उनके मन-वचन कायकी प्रवृत्तिसे है । त्रियोगकी ऐसी शुभ प्रवृत्ति उनका लक्ष्य है, जिसके बलपर अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव भी स्वर्गमें नवमें ग्रैवेयक तककी पात्रता प्राप्त कर लेता है। अपनी विवक्षाको पण्डितजी ग्रन्थमें आगे चलकर स्पष्ट करना चाहते थे। एक जगह उन्होंने लिखा है-“करणानयोग विर्षे तौ रागादि रहित शुद्धोपयोग, यथाख्यात चारित्र भएँ होय, सो मोहका नाश भएँ स्वयमेव होगा।" नीचली अवस्थावाला शुद्धोपयोग साधन कैसे करें। अर द्रव्यान योग विर्षे शुद्धोपयोग करने ही का मुख्य उपदेश है, तातै यहाँ छद्मस्थ जिस काल विर्षे बुद्धि-गोचर भक्ति आदि व हिंसा आदि कार्य रूप परिणामनिकों छुड़ाय, आत्मानुभवनादि कार्यनि विषै प्रवर्ते, तिसकाल ताको शुद्ध उपयोगी कहिये । यद्यपि यहाँ केवल-ज्ञान गोचर सूक्ष्म रागादिक हैं तथापि ताकी विवक्षा यहाँ न कही, अपनी बुद्धि-गोचर रागादि छोड़े, तिस अपेक्षा याकों शुद्धोपयोगी कह्या है । ऐसे ही स्व-पर श्रद्धानादिक भयें सम्यक्त्वादि कहे, सो बुद्धि-गोचर अपेक्षा निरूपण है । सूक्ष्म भावनिकी अपेक्षा, गुणस्थानादि विर्षे सम्यक्त्वादिका निरूपण करणानुयोग विर्षे पाइये हैं । इस प्रकार पण्डितजीके कथनका निराकरण स्वयं उनके ही कथनसे हो जाता है। वास्तवमें निचली दशामें शुद्धोपयोगका विधान पण्डितजीने कहीं किया ही नहीं है । सर्वत्र उनका कथन योगोंपर ही घटित होता है । भक्ति आदि शुभ तथा हिंसादिक अशुभ कार्यों परसे ही उन्होंने शुभ-अशुभ उपयोगका विधान किया है। उदयगत परिणामोंकी अपेक्षा उनका निरूपण है ही नहीं। पण्डित जगन्मोहनलालजीने, अपने ग्रन्थ 'अध्यात्म अमृतकलश' में शुद्धोपयोगकी व्युत्पत्ति-मूलक व्याख्या तीन प्रकारसे करके आगमसे उसकी विधिपूर्वक संगति बिठाई है। १–'शुद्ध आत्मनि यः उपयोगः स शुद्धोपयोगः' ऐसा शुद्धोपयोग चौथे गुणस्थानसे आत्म-चिन्तनके क्षणोंमें माना जा सकता है। २-'शुद्धश्चासौ उपयोगः रागादिविरहितः स शुद्धोपयोगः' ऐसे शुद्धोपयोगकी स्थिति, सातवें गुणस्थानसे ही प्रारम्भ हो सकेगी। १. मोक्षमार्ग प्रकाशक : हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय (प्रथमावृत्ति-१९११), अध्याय-सात, पृष्ठ २९० । २. वही, अध्याय-सात, पृष्ठ ३६२ । ३. वही, अध्याय-सात, पृष्ठ २९१ । ४. मोक्षमार्ग प्रकाशक, बही, अध्याय-८, पृष्ठ ४०५ । ५. अध्यात्मकलश, जगन्मोहनलाल शास्त्री। - १७१ - Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३–'शुद्धः पूर्णज्ञानरूपः उपयोगः स शुद्धोपयोगः' जीवका शुद्ध, पूर्णज्ञानरूप उपयोग, सो शुद्धोपयोग है । यह परिभाषा ग्यारहवें-बारवें गुणस्थानमें ही सार्थक होगी, उसके पूर्व नहीं। इस प्रकार विचार कर देखा जाये तो आचार्य प्रणीत आगमिक व्यवस्था ही सर्वत्र ठीक बैठती है । उसके विपरीत जहाँ, जो कहा गया है, वह किसी न किसी विशेष विवक्षाकी दृष्टिसे ही कहा गया है । उस विशेष विवक्षाको दृष्टिमें लाये बिना उस कथनका सही अर्थ समझ नेमें भ्रम हो सकता है । स्वानुभूति हमारे पास 'स्व' का या 'पर' का, जो भी ज्ञान है, उसे हम चार कोटियोंमें बाँट सकते हैं-सूचना, ज्ञान, विश्वास और अनुभव (इन्फार्मेशन, नालेज, बिलीफ एवं एक्सपीरियेन्स)। (अ) साधारण, ऊपरी सतही या काम चलाऊ ज्ञान, चाहे वह कितना ही पुष्कल और चारुवाक् सुशोभित क्यों न हो, सूचना, या 'इन्फार्मेशन' की कोटिमें आता है । (ब) गहरे स्तरका, तुलनात्मक अध्ययन और मननसे युक्त, पूर्वापर सम्बन्ध और कार्य-कारण विवेककी निकष पर कसा हआ, अतिव्याप्ति, अव्याप्ति, असम्भव आदि सभी दूषणोंसे रहित यही ज्ञान तलस्पर्शी होता हुआ, विधि-निषेधोंकी खराद पर चढ़कर आभा प्राप्त करेगा, तब उसे ज्ञान या 'नालेज' की संज्ञा मिलेगी। (स) अभीप्सित वस्तु यही है, ऐसी ही है, इतनी ही है और इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है, इससे 'कमो-वेश' भी नहीं है तथा इसके विपरीत भी नहीं हैं, ऐसी अडिग-आस्था अपने ज्ञान पर जब हमारे मनमें स्थापित हो जाये, तब उसी आस्थाका नाम विश्वास या 'बिलीफ' है। (द) ज्ञानसे जानी हुई वस्तुकी प्रक्रियाको स्वयं प्रयोग द्वारा देखना, उसके रसका आस्वादन करना या एक बार उसमेंसे होकर गुजरना ही अनुभव है। इसी दशाको ‘एक्सपीरिएन्स' भी कहते हैं । यहाँ ध्यान रखने की बात है कि यह अनुभव भी स्वानुभूति नहीं है । मात्र हमारे ज्ञानकी प्रयोग-सिद्ध अनुमोदनाका ही नाम यहाँ अनुभव है। उदाहरणके लिए, सुनीता एक लेडी डाक्टर है। प्रसव और प्रसव-सम्बन्धी निदान-चिकित्साकी विशेष योग्यता और डिग्री विदेशसे लेकर आई है। उसकी डिग्रियोंसे हमारे मन पर उसकी सचना ज्ञान और विश्वासकी छाप तो पड़ सकती है परन्तु जहाँ तक उसके अनुभवकी बात है वहाँ हमारा मन उसकी योग्यताको स्वीकार करनेके लिए तैयार नहीं होगा। दो चार वर्ष अस्पतालमें काम करके जब डा० सुनीता अपनी देख-रेखमें सौ-पचास प्रसव कराकर दस-बीस आपरेशन करके और दो-चार सौ महिलाओंकी निदानचिकित्सा आदि करके अपनी विज्ञता एवं कुशलताका प्रभाव अजित कर लेगी तभी हम उसे अनुभवी लेडी डाक्टरके रूपमें स्वीकार करेंगे । मजेकी बात यह है कि डा० सुनीताका यह प्रसव-अनुभव भी ज्ञानका उपरोक्त चौथा प्रकार ही है । हम उसे अनुभव या एक्सपीरियेन्स कहेंगे परन्तु स्वानुभव या स्वानुभूति नहीं कह सकते । प्रसवका स्वानुभव डा० सुनीताको उसी दिन प्राप्त होगा जिस दिन वह भी माँ बनकर स्वतः प्रसव की वेदना और मातृत्वकी गरिमाका अनुभव करेगी। ___ इसी प्रकार ज्ञान आराधन करता हुआ साधक भी, पंचास्तिकाय, षट् द्रव्य, सप्त तत्व और नौ पदार्थों के सम्बन्धमें पढ़ता है, सुनता है, जानता है, उस पर विश्वास करता है और कई बार प्रयोगके द्वारा उसका अनुभव भी करता है। विशेषकर स्व-आत्माको लेकर वह अपने अजित ज्ञानके नाना विकल्पों द्वारा -१७२ - Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने आपको शरीरादिसे पथक, और कषायादि विकारोंसे भी पृथक, देखने जाननेका प्रयत्न करता है । इसे ही सामान्यतः अनुभव कहा जाता है। इस प्रक्रिया में कभी तो अपनी वर्तमान, कषाय-सम्पक्त, उदयाभिभूत, आत्मपरिणतिको देखकर-"इसमें जिज्ञासा करने वाला, जानने देखने वाला जो तत्त्व है, वही मैं हूँ; ऐसे विधिपरक विकल्पों द्वारा तथा कभी यह उपजने-विनशने वाला शरीर मैं नही हैं। ये रागादि विकारी भाव मेरी परिणति होते हुए भी पर निमित्तजन्य और उत्पन्नध्वंसी होनेके कारण पर ही है, मैं नहीं हूं" ऐसे निषेधपरक विकल्पोंके द्वारा साधक अपनी आत्माका अनुभव करता है। यहाँ मजेकीब इस निचली दशामें साधकका यह अनुभव भी ज्ञानकी उपरोक्त चौथी स्थिति मात्र ही है। शास्त्रोक्त शुद्वात्मानुभूति अथवा स्वानुभूतिके साथ 'अनुभव' की कोई संगति नहीं है। आत्मा-अनात्माका ज्ञान चाहे जितना पुष्कल हो जाये उसके चिन्तनमें नाना विकल्पोंका सहारा लेकर चाहे हम जितना गहरे डूब जायें किन्तु हमारी यह सारी प्रक्रिया जानने, देखने और अनुभव करनेके पर्यायवाची नामोंसे जानी जाने वाली ज्ञानको विकल्पात्मक परिणति ही होगी। परन्तु शुद्धात्मानुभूति विलल्पोंके द्वारा उपलब्ध हो जाय ऐसा कोई उपाय है नहीं। ऐसी 'स्वानुभति' की सही परिभाषा तो तभी घटित होगी जब मन, वचन, काव्यके व्यापारों पर अंकुश लगाकर त्रिगुप्तिपूर्वक तीन कषायोंके झंझावातसे सुरक्षित हमारी ज्ञान-ज्योति नयों और विकल्पोंसे ऊपर उठकर ज्ञानमें प्रतिष्ठित होती हुई निष्कम्प होकर प्रकाशित हो । यह स्थिति अध्यात्म भाषाके अनुसार समस्त क्रियाओंको तिरोहित करके जब हम अकेली ज्ञप्तिक्रियामें संलग्न होंगे तब बनेगी। आगम भाषाके अनुसार तीन कषायोंके अभावमें संज्वलनके मंदोदयके समय त्रिगुप्तिपूर्वक तीनों योगोंकी सम्यक् संयोजना करते हए कषायोंका बुद्धिपूर्वक व्यापार एकदम रोक कर जब हम निर्विकल्प समाधिको उपलब्ध होंगे तब ही हमारी आत्मामें स्वानुभूति प्रत्यक्ष होगी । इस प्रकार, इस स्वानुभूतिका सम्यग्दर्शनके साथ अन्वय-व्यतिरेक पूर्वक अविनाभावी सम्बन्ध नहीं बैठता । सम्यग्दृष्टि जीव स्वानुभूतिसे युक्त और स्वानुभूतिसे रहित भी पाया जा सकता है । स्वानुभूतिकी उपलब्धि होगी, तो सम्यग्दृष्टिको ही, पर यह भी निर्धारित है कि किसी जीवको किसी भी समय अन्तमुहूर्तसे अधिक कालके लिए इसकी उपलब्धि कभी हो नहीं सकेगी। यह स्वानुभूति मोक्षमार्गी जीवको ही होती है । मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रको एकताका नाम है । 'सम्यक् चारित्र' त्यगरूप अवस्था बननेपर वको ही प्राप्त होता है। चौथे गुणस्थानमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवको भी सम्यकचारित्रसे रहित ही कहा गया है। वह वहाँ असंयमी ही है। वीतराग भावके बिना शद्धात्मानभतिकी उत्पत्ति असम्भव है। वस्तुमें शक्ति रूपसे विहित भावी पर्यायका, ज्ञानके द्वारा जान लेना अलग बात है, और उस पर्यायके प्रकट हो जानेपर उसका साक्षात्कार करना एक बिलकुल अलग बात है । एक अनगढ़ पाषाणखण्डको देखकर शिल्पी उसमें भगवान की प्रतिमा बनानेकी सम्भावनाओंका आकलन कर लेता है। वह वास्तवमें उस चट्टानमें अपनी कल्पित कलाकृतिका, जिसे उसने अभी गढ़ा नहीं है, दर्शन ही कर लेता है। वह तो यह भी कह सकता है कि प्रतिमा तो इस पाषाणमें है ही, मुझे प्रतिमाका निर्माण नहीं करना है। मुझे तो केवल उस प्रतिमाके अंगप्रत्यंगोंपरसे अनावश्यक पत्थर छीलकर हटा देना है, ताकि आप भी उस मनोहारी छविका दर्शन कर सकें। शिल्पीकी यह बात एक दृष्टिसे ठीक भी है, परन्तु चट्टानके भीतर प्रतिमाके दर्शनकी उसकी यह कल्पना; शिल्पीके ज्ञानका ही ताना-बाना है, अनुभवका नहीं। इसका कारण बहुत आसान है। भूत, भविष्यत् और वर्तमानकी पर्यायोंको जाननेकी क्षमता, ज्ञानमें तो है, अनुभवमें नहीं। अनुभवकी सीमा रेखा तो वर्तमान प्रगट पर्यायके साथ बँधी है। अनगड़ चट्टानके भीतर प्रतिमाकी छविका दर्शन करता हआ भी शिल्पी A A . .. -१७३ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या चट्टानकी पूजा-अर्चना करके प्रभु-पूजनका आनन्द और सन्तोष प्राप्त कर सकता है ? इसी प्रकार वस्तुस्वरूपको ठीक-ठीक समझता हुआ भी सम्यग्दृष्टि जीव, अपनी विकाररूप परिणति और उदयाभिभूत आत्मामें, अपने भीतर शक्ति रूपसे पड़े हुये, सिद्ध समान शुद्ध, बुद्ध, निर्मल, निराकार, निरंजन आत्माका दर्शन करता है, परन्तु यह उसके विलक्षण ज्ञान हो का फल है, अनुभवका नहीं। उसकी आस्थामें यह बात अडिग रूपसे पड़ी हुई है कि मेरा स्वरूप, मेरा शुद्ध द्रव्य ऐसा ही है, परन्तु अभी वर्तमानमें उसका अशुद्ध तथा विकारी परिणमन हो रहा है। विकारोंको हटा देनेपर मेरी भी ऐसी ही शुद्ध-पर्याय प्रगट हो जायेगी, जैसी सिद्ध भगवान्की हो गई है। समयसारके टीकाकार जयसेनाचार्यने इसी प्रकार स्वानुभतिको निश्चय, अभेद-रत्नत्रयके साथ ही स्वीकार किया है । अतः उसकी उपलब्धि सप्तम गुणस्थानमें और उसके ऊपर ही उन्होंने स्वीकार की है। उनके शब्द है-'शुद्धात्मसुखानुभू तिरूपं स्वसंवेदनज्ञानं वीतरागमिति । इदं व्याख्यानं स्वसंवेदनव्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यम् ।' पण्डित राजमलजीने पञ्चाध्यायीमें स्वानुभूतिको मतिज्ञानके भेदमें लिया है। उन्होंने सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके साथ ही, स्वानुभू त्यावरण कर्मके क्षयोपशमपूर्वक ही, सम्यग्ज्ञानका अस्तित्व माना है । उसका स्पष्ट निर्देश है कि--वह आत्मानुभूति, आत्माका ज्ञान विशेष है, और वह ज्ञान विशेष, सभ्यग्दर्शनके साथ अन्वय और व्यतिरेक दोनोंसे अविनाभाव रखता है । सम्यक्त्व और स्वानुभूतिका सहभावीपना है, तो यह कहा जा सकता है कि स्वानुभूति ही सम्यक्त्व है, परन्तु वहां स्वानुभूतिको ही सम्यक्त्व कह दिया गया है। पण्डितजीने चूँकि स्वानुभूतिको स्वानुभूत्यावरण के क्षयोपशमसे प्रकट होने वाली ज्ञानकी पर्याय माना है, इसीलिए उन्होंने सम्यग्दृष्टि जीवमें, निरन्तर, सदाकाल, स्वानुभूतिका अस्तित्व मानते हुए भी उसे लब्धिउपयोगात्मक स्वीकार किया है। उनकी व्याख्याके अनसार स्वानभतिको सम्यकत्वके साथ ल व्याप्ति होते हुए भी; स्वानुभूतिको उपयोगात्मक दशाके साथ सम्यक्त्वकी विषम व्याप्ति ही बनती है । स्वानुभूति उपयोगमें निरन्तर नहीं रहती । वास्तवमें, बुद्धिपूर्वक रागद्वषकी परिणति और शुद्धात्मानुभूति एक साथ किसी जीवको हो जाय, बात समझमें नहीं आती। पंचाध्यायीकारने भी चतुर्थ आदि गुणस्थानोंको जघन्य पद लिखा है। आचार्य ज्ञानसागर महाराजने तो आत्मोपलब्धिके तीन भेद बताये हैं-(१) आगमिक आत्मोपलब्धि, (२) मानसिक आत्मोपलब्धि, (३) केबलात्मोपब्धि । जहाँ आगमिक आत्मोपलब्धि होती है, वहाँ शुद्धात्माके विषयका श्रद्धान होता है, पर तदनुकूल आचरण नहीं रहता । अध्यात्म शैलीमें उसे सम्यग्दृष्टि नहीं कहते तथापि आगमिक उसे शुद्धात्माके श्रद्धानसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं । "शुद्धात्मा तो उसे भी जागी है, अतः वह भी सम्यग्दृष्टि है ।' अप्रमत्त साधके मानसिक स्वात्मोपब्धि स्वीकार की गई है। केवल ज्ञान हो जाने पर प्रत्यक्षरूपसे आत्माकी प्राप्ति केवल आत्मोपलब्धि है।४ आत्मानुभूतिका सीधा सम्बन्ध संवर और निर्जरासे जोड़ा जाना चाहिये । वही उसका अभीष्ट है। निर्जरा राग-व्यापार घटने पर ही प्राप्त होती है। पण्डित टोडरमलजीने इस सम्बन्धमें लिखा है-"बहरि १. समयसार, गाथा ९५ की तात्पर्यवत्ति टीका । २. पञ्चाध्यायी, अ-२, श्लोक ४०२-३ । ३. वही, श्लोक ४०४ ।। ४. समयसार, गाथा २८९, तात्पर्यवृत्तिकी हिन्दी टीका, पृ० २४२ । - १७४ - Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा गुणस्थानविर्षे कोई अपने स्वरूपका चितवन करै है, ताकै भी आश्रव बंध अधिक है, वा गुण श्रेणी निर्जरा नाहीं है । पंचम षष्ठम गुणस्थानविर्षे आहार-विहारादि क्रिया होते, पर द्रव्य चितवनत भी, आश्रव बंध थोरा हो है वा गुणश्रेणी निर्जरा हुआ करै है। तातै स्वद्रव्य परद्रव्यका चितवन तै निर्जरा बंध नाहों। रागादिघटें निर्जरा है, रागादिक भयें बंध है।' _ यही निराधव संवर-निर्जरा सम्यग्दर्शनका फल है। ग्रंथों और ग्रंथकारोंके कथन देख-सुनकर, उनपर समतापूर्वक, युक्ति, आगम और अनुमानका सहारा लेकर, उनकी विवक्षाएँ समझनेका प्रयत्न करना चाहिए । विवेकके साथ अपने भीतर समताभाव जगानका प्रयास करना चाहिए । इसी पुरुषार्थको 'मोक्षमार्ग' बताते हुये पण्डितजीने बड़े सरल शब्दोंमें उसकी संक्षिप्त व्याख्या की है। 'तातें बहुत कहा कहिये, जैसे रागादि मिटावनेका श्रद्धान होय, सो ही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । बहुरि जैसैं रागादि मिटावनेका जानना होय, सो ही जानना सम्यग्ज्ञान है । बहुरि जैसैं रागादि मिटै, सो ही आचरण सम्यक चारित्र है । ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है ।२ १. मोक्षमार्ग प्रकाशक, वही, अ-७, पृ० २९७ । २. वही, पृ० ३० । -१७५ - . Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Refutation of Western Materialism on the Basis of Jaina Philosophy Muni Mahendra Kumar B.Sc. (Hons) Materialism is found expounded in the Western philosophy right from the period of the ancient Greek philosophers upto the present age. Here we do not intend to go into discussion of its historical evolution and the minor differences in its various forms. We shall only try to discuss it in general and compare it with the Jaina view. Definition of Matter :--Lenin gives the following difinition of matter : "We ask; is a man given objective reality when he sees something red or feels something hard etc. or not ?... If you hold that it is given, a philosophical concept is needed for this objective reality, and this concept has been worked out long, long ago. This concept is matter. Matter is a philosophical category designating the objective reality which is given to man by his sensations, and which is copied, photographed and reflected by our sensations, while existing independently of them. This definition of matter comes very close to the Jaina definition of pudgala viz. "pudgala is that which possessess in itself the qualities of touch, taste, odour and colour." Even though the Jaina philosophy denies the possibility of perception of the ultimate atoms (parmāņu) of matter through sensory means, it accepts the quality of mūrtatoa, being objectively existent even in a paramānu. Also both the materialism and the Jaina philosophy recognise matter as an objective reality. In the words of Lenin,"...the sole property of matter, with whose recognition Philosophical Materialism is bound up, is the property of being an objective reality, of existing outside our mind. 3 Reality of Soul :- Whereas materialism and the Jaina philosophy hold similar views regarding the reality of matter, they differ from each other regarding the reality of soul. According to the Jaina metaphysical veiw, all the five astikayas including soul are ultimate realities, whereas according to materialism, only the matter is the ultimate reality, while reality of soul is denied. There is, however, a difference between the old materialism and the modern dialectical or scientific materialism. Whereas the former considers soul or consciousness to be identical with matter, 4 the latter holds an opposite view. Dialectical materialism as well as epiphenomenalison consider mind to be different from matter; all the same mind is not attributed a status of an ultimate reality. In contrast to this, the Jaina philosophy asserts an independent existence of soul. Refutation of Materialism :-There are three important arguments adduced in proof of materialism : (i) The Methodological Argument, (ii) The Mechanical Argument, (iii) The Cosmological Argument 5 We shall try to examine critically these arguments one by one, - 176 - Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Methodological Argument Bahm6 says that the assumption of an immaterial psychical substance which is persistent, independent and distinct from the body is prescientific and unscientific. Whoever holds such view is still on the level of the nature-people, who conceive every process as the act of an invisible demon. Experience reveals nothing more than the body and its organs. Everything which this organism does, and which transpires within it, must be conceived as the functions of its organs. The assumption of a psychical substance is a metaphysical dogma which is at once superfluous and untenable and which exact science must eliminate entirely. This argument readi!y wilts upon examining from epistemological and psychological points of view. For the assertion that knowledge is essentially a characteristic of soul (or a psychical reality) is not a metaphysical dogma but an epistemological fact. That only "living beings” are capable of "knowing' is an empirical fact and at once serves as a criterion for distinguishing "life" from "matter". The whole process of "knowledge" cannot be fully explained merely on physiological basis. Hence, a "psychical reality' is an empirical necessity. Also, all the psychical processes such as thinking, experiencing, remembering, feeling and willing are unexplainable on mere physiological or material definitions. Thus, we have to assume a phychical substance distinct from the body, and as such, this assumption is neither unscientific nor contradictory to experience, as alleged by the above argument. The materialists try to endorse the methodological argument on the following line of reasoning : "At any rate experience never reveals any psychical substance distinct from the psychical processes, which must be regarded as substrate of our thinking, feelings, and willing. It is charactristic of psychical processes that they always appear to us only as occurrences, as effects in which there is no room for a substantial substrate. If. however, inspite of this fact we speak of a soul or mind, our authority for this mode of speech really lies in what we have previously described fundamental apperception. The function of judgement, once evolved, can only appropriate a thoughtcontent in the form of subject and predicate. So long as psychology uses this soulconcept in the same manner as the physicist speaks of magnetism and electricity, where magnetic and electric phenomena are most certainly all that is really given, so long as the soul is only regarded as the subject of psychical processes and is not considered as a self existant substance, this form of expression cannot be called unscientific. As soon, however, as we assume a psychical substance apart from the body, having independent existence and even continuity of existence after death, we are then going beyond evidence given in psychical experience. Every substance, however, no matter how thoroughly everything materialises, is eliminated from it, is stiil always represented to the mind under a material aspect. Everything which persists must, by the very necessity of our ways of thinking, occupy space and hence be material. The assumption of a soul-substance, which materialism so strenuously and indeed so justly rejects, therefore, finally leads to materialism."? 23 - 177 - Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ This reasoning is, however, erroneous in itself. It follows from the above statement that the materialist is at least ready to recon the existence of psychical processes. Now it is as simple as anything to deduce the existence of a psychical reality from the psychical processes. For, the modern physics has shown that experience never reveals any physical substances distinct from the physical processes, and still it is only these processes which give the materialists (and other realists) a clue to the objectively real existence of matter. In the same way, if psychical reality is deduced from the phychical processes, which are otherwise unexplainable, how it becomes unscientific and contrary to experience ? There is another flaw in the above reasoning. It is argued that everything which persists must, by the very necessity of our ways of thinking, occupy space and hence be material. This statement can be divided into two parts : (a). that, which persists must occupy space, and (b). that which occupies space is material. Deduction of (a) is based on the very necessity of our ways of thinking. This is acceptable. But how (b) is deduced ? Extension in space does not necessarily mean materiality. Hence it would be wrong to conclude that psychical reality is material. The fact is that psychical reality does occupy space, but it is not material. Further, materialism is, in the words of W. Jerusalem, proved to be unscientific thus : "Strict scientific method, which aims to confine itself to the description of facts, teaches us that there is something given in our ordinary experiences as well as in our most profound emotions, which is essentially distinct from everything perceivable by sense, from everything material. 9 Again it may be added here that materialism is insufficient to explain the phenomena of extra-sensory perception, clairvoyance, telepathy, memory of previous births, etc. Numerous instances of such pehnomena have certainly been known to have taken place and the parapsychologists all over the world are busy now-a-days with their investigations on these events. Especially the cases of memory of previous lives which is termed as extra-cerebral-memory avowedly confirm the existence of the psychical reality distinct from body having independent existence and even continuing to exist after death. 10 Thus the methodological argument completetly falls to the grounds. 2. The Mechanical Argument :--The main argument put forward by the materalists to sustain their view is based on the law of the conservation of matter and energy (or mattergy).11 According to this law, the total amount of matter and energy (or mattergy) always remains constant; it can neither be increased nor diminished. All becoming consists only of the transmutation of energy into different forms. Now, the materialists contend that if we assume a psychical substance (mind or consciousness) as something distinct from body and non-physical, the above law gets violated. For, if the life-energy, which is found to get increased as a result of the reactions of the physical substance (such as food, water, heat) is different from the physical energy, it - 178 - Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ would mean that the energy in the form of increased life-energy is newly created (for it being non-physical it cannot be considered to be the transmutation of physical energy). Again if the non--physical mind causes the physiological motion, (such as contraction of muscles) through its own initiative, it would mean that new energy is created in the form of the physiological motion (for the resultant energy being physical, it cannot be considered as the transmutation of non-physical energy.) Thus, the above assumption contradicts the principle of the conservation of mattergy and it is therefore to be rejected as unscientific. 1 2 Now this argument of the materialists can be disproved thus. 18 The application and validity of the principle of the conservation of mattergy is limited to physical and chemical processes. But this law is utterly inadequate for the explanation of vital processess. The centralized organisation of all organic being, the remarkable adaptation of all parts to a common purpose, all this cannot be explained in physico-chemical terms. As a matter of fact, the mechanical argument is not an argument, but merely a presupposition. It is only by assuming from the start that every process i.e., vital as well as physical can be explained and described according to the physicochemical laws, that this protest of the materialists against the violation of the principle of the conservation of mattergy can have any meaning. But if we are guided by the facts, rather than by a definite theory, we must concede that the principle of the constancy of energy contributes absolutely nothing toward simplifying and explaining what really takes place in the sphere of the organic and psychical. The facts which have been established at this point, as well as the present stage of mental evolution, much rather reqire an entirely different principle of explanation. As a matter of fact, this is conceded by noted scientists. As Wundt 14 has shown, there is kind of creative synthesis active here, whose nature and governing principles still require more careful investigation. The mechanical argument loses its force the moment we relinquish the materialist presupposition and abide by the most unassailable facts of our own experience. Further, when we examine the above argument in the light of the Jaina Philosophy, we at once get convinced of the former's futility. It may be recalled here that according to the Jaina view : (a) Each of the five astikayas constituting the universe is an independent reality. (b) The principle of conservation is contained in the very definition of reality, 15 according to which it is created and destroyed with respect to its modes while it reamjans constant with respect to its substance. It follows, then, the pudgala (mattergy) ever remains pudgala and soul ever persists as soul, in spite of the incessant changes nodes; that is to say, soul never transforms into matter nor matter transforms into soul. - 179 - Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (c) Consequently, there are two independent principles of conservation : The principle of the conversation of Pudgala and that of the conservation of soul. According to the former, the total amount of pudgala (which would include both matter and all kinds of material energy) remains constant, while according to the later, the spiritual reality (which would include the soul and its energy) never perishes. The former one is the same as the scientific law of the conservation of mattergy. Now on the basis of these facts, the above contention of the materialists can easily be refuted. It can be seen that the vital processes are governed by both the soul's energy as well as physiological (physical) energy. The former is inherent in the soul itself while the latter is obtained through transmutation of physical substances (food, water, et..) into the basic elements of the body (blood, chyme, semen etc.) which subsequently get transformed into the form of physiological energy. Now, in the above argument the term "life-energy” is used in the transmutation of food, etc; but it is clear that the processes involving such a transmutation are essentially paudgalika (or we may say inattergic). Hence the energy created thus cannot be considered to be different from physical energy. In other words, the soul's energy cannot be created through the transformation of food etc. It is, in fact, inherent in the soul itself. When the vital energy of the body is said to get increased, it means that the physiological processes transmute food, etc. into the basic elements of the body which serve as the sources of the physiological (physical) energy for carrying on the life-processes. Thus, there is no question of creation of new energy and hence, the law of the conservation is not at all contradicted. Further, in the reverse process, when it is said that the soul causes the physiological movements through its own initiative, it does not mean that new energy is created in the form of physiological motion. Actually the physiological motion is produced through the transmutation of the physiological energy already stored in the body. The soul's energy (or the will-power) inherent in the soul acting as a governing agent causes the transmutation to take place without itself being diminished. Hence, in this case also, there is no contradiction of the law of the conservation and consequently, the materialist's argument becomes untenable. 3. The Cosmological Argument:- The materialists claim to base this argument on purely seientific facts. The modern scientific theories, according to them, have proved that there was a time when our earth was a glowing gaseous nabulae. At that time, organic life could not have existed upon it, there could have been no human beings and hence no mental activity. It was only after the earth had sufficiently cooled off, and the conditions for the origin of organic life were given, that plant and animallife cane into being from which man also was evolved at a later stage. Hence mental life came into existence with organic life and is limited to the presence of its physiological conditions. There is no meaning, therefore, in assuming mind as something distinct from the organism because its origin is connected with the organism and they will certainly perish together". 16 - 180 - Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The modern materialists, on the basis of this theory of earth's formation, conclude that 4000 million years 17 ago, when the earth came into existence there was no life, and hence there was no existence of anything like soul or consciousness of mind. It was 2900 millions years after the birth of the earth that life came into existence. The existence of mammals and birds extend over only to 60 million years while that of man only 1.5 million years. Thus mind is only a very late production. It should. therefore be considered only as a qualitative transformation of matter itself, and not as an ultimate reality, Now the cosmological argument can be shown to be invalid not only on logical basis but on scientific basis too. Modern scientific investigations have made it clear that neither the universe nor "life" is merely confined to the earth 18 Not only this, but the recent researches tend to show that "life" is older than the "earth". The scientists of Bradford University have found in the meteorites some material identical to the one found in the living cells. Commenting on this recent development, the critic of The Times of IndiaTo observes: Is there life elsewhere in the universe and was there life before the earth was formed? Sceptics and legend-lovers continue to say 'no' and would want a flying saucer with extra-terresterials in it taken to their door-step before they would believe any such thing. But they have to think again: new evidence has been gathered which shows that life did evolve independently of what happend on the earth. Chemical analysis made at Bradford University shows that material identical with sporopollenin, which can only be formed insids living cell, has been found in meteorites. The usual argument advanced here is that it is a contaminant. But since the chemical forms four percent of the meteorites weight, the local contamination theory fails". "Sporopollenin is the biological material that forms the outer coating of pollen grains. Ordinary physical processes could not have created it on the planet's surface because in such conditions it is unstable and quickly decomposes. It is also felt that the theory that life on the earth evolved by natural processes out of a prebiotte soup of inorganic chemicals is not necessarily tenable. 1 The Bradford Researchers think that the earth wss seeded with life from outside from another world or worlds". Thus it can be seen that the cosmological argument has got subverted on the scientific basis. Now we shall try to clinch the cosmological argument on logical basis. It is a matter of common experience that living objects essentially differ from material objects in that former possess "consciousness" where as the latter does not. Now the law of material cause, which is accepted as a fundamental law in logic, states that the quality which is intrinsically non-existent in a substance cannot be created by any kind of transformation. But the above hypothesis of the qualitative transformation assumes the production of "life" from "matter" which essentially lacks "consciousness". Thus, it is inconsistant with the above law, and hence, it must be rejected as illogical. - 181 - Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Also the materialists leave unanswered the important question such as how and why consciousness was created from matter. 20 The eminent writer on the history of the universe, J. G. Bennett, in his conclusive remarks on the 'Origin" of Life" expresses this thus. 21 "The conclusion that we are bound to draw from all these considerations is that the fortuitous origin and evolution of life and human culture on the earth must be rejected as contrary to the well-established laws of probability and thermodynamics. "This is, as is well recognised even by mechanistic biologist, not the only serious difficulty. Inert matter is insensitive, life is sensitive. When and how did sensitivity arise from insensitivity ? Again, man is conscious and entertains ideas of value and purpose. Inert matter is unconscious and the whole argument in favour of mechanistic theories is that they do not require any assumptions as to conscious purposes at origin of life, How then could consciousness and purposefulness have arisen in a world from which they were previously totally absent." Further he writes 22 : "The obvious difficulty of believing that sensitivity and consciousness could be produced by chemical reactions of inert matter, has led materialistic and mechanistic scientists to make the assumption that these properties must be associated with all matter and make themselves apparent when living bodies having a high degree of organisation, have evolved. Such hypotheses are unsatisfactory inasmuch as they do not account for the transition from the 'atomic' to the organic' state of consciousness." Thus the cosmological argument is untenable on logical grounds too. Lastly, let us consider the argument in the light of the Jaina view. The Jaina philosophy asserts that all substances including soul and matter have been existent in the universe since ever and will continue to exist till eternity.28 No new soul is ever created in the universe. Infinite number of souls go on transmigrating from one life to another. Thus birth of a new organism is nothing but transmigration of a soul from its previous life. It is also asserted by the Jaina theory that a suitable structure or matter is required to serve as a nucleus (or birth place for the soul to take birth in. The nucleus is called as Yoni. There are different kinds of Yonis for different species. The yonis may be composed of totally lifeless matter or of bodies of living organisms or of a combination of both. 24 Formation of yonis takes place by the suitable combination of the ultimate atoms (puramanus) or the molecules (skandhas) which continually. undergo the processes of "fusion" aud "fission" throughout the universe. Now the fact ascertained by the scientists that no life existed on the earth for a long time (nearly 3000 million years) after formation of the earth can be explained on the basis of the Jain a view as follows: It is highly probable that at the time of formation of the planet earth, the yonis were wanting and this condition might have prevailed over for a period of 3000 million years. Also it is unlikely that during this period the environment could have been - 182 - Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ congenial for sustenance and growth of living organisms. Hence, the earth would have remained devoid of living beings. Later on, when as a result of the natural precesses, the yonis would have been formed and also, the environment would have become amicable for sustaining life, the souls (already existing in other parts of the universe) would have started to take birth in the yonis and thus would have begun "life" on the earth. Thus it can be said that the assertion of the Jaina philosophy that soul and matter are two Independent susstances having beginningless existence in the universe convincingly explain the origin of life on the earth without either contradictting the scientifie facts or contravening the logical principles. Thus, all the three arguments adduced in proof of materialism are shown to be fallacious as well as inconclusive. Reference 1, Materialism and Empirio-criticism, p. 84. 2. Sparsa-Rasa-Gandha-Varnavan Pudgalah; Jain Siddhanta Dipika I 11. 3. Op. cit., p. 184, 4. Arch J. Bahm : Philosophy-An Introduction; Asia Publishing House, Bombay, 1964, pp. 192. 5. W. Jerusalem : An Introduction to Philosophy; Macmillan, New York, 1926. p. 142 6. Ibid; p. 142 7. Ibid., pp. 143-144. 8. The Jain philosophy, in fact, asserts that extension in space is an inherent quality of all the realities except the space itself (i.e., the ethers, matter and soul.) 9. Op. cit. p. 145. 10. The discussion of parapsychological researches in itself is an independent subject and is beyond the scope of the present art.cle. The reader however is referred to various books and journals published on the subject by different institutes of parapsychology. 11. In modern science after the discovery of theory of relativity, the two separate laws of the conservation of mass and the conservation of energy have been cong- lomerated into a single law of the conservation of mass and energy (or mattergy). 12. W. Jerusalem, op. cit. pp. 142-143. 13. ibid; pp. 146-147. 14. Willhelm Max Wundt (1832-1920), the founder of experimental psychology and author of Grundzugeder Physiologischen Psychologie, 15. Umaswati : Tattwarthsūtra, chapter 5. 16. W. Jarusalem, op. cit. p. 143. . - 183 - - Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. J.G. Benkett : The Dramatic Universc Vol. IV; Hodder Stoughton, London, 1966, pp. 120-21 18. Coronet, Vol. XXVI, No. V. p. 30. 19. Dated, 30th. August, 1969, Bombay. 20. Cf. Bahm, op. cit., p. 203. 21. The Dramatic Universe, Vol. IV, pp. 113-114. 22. ibid, pp. 123. 23. Many of the cosmological questions cannot be answered without accepting begining less and endless existence of the fundamental substances. 24. Umāswāti, Tattwărthsütra, 2-32. लेखसार जैनदर्शन के आधार पर पाश्चात्य भौतिकवाद का निराकरण मुनिश्री महेन्द्रकुमार, बी० एस्सी० (ऑनर्स) पाश्चात्य विचारधारा में यूनानी दार्शनिकों के युग से लेकर आजतक जगत् और जीवन के संबंध में भौतिकवाद का ही मुख्यतः आश्रय लिया गया है। इसके अनुसार आत्मा या चेतनत्व की प्रक्रिया भौतिक तत्त्वों या क्रियाओं का ही एक विकसित रूप माना जाता है। इस सिद्धान्त में तार्किक, यांत्रिक तथा लोकवादी आधार पर शरीर और आत्मा की अभिन्नता प्रतिपादित की जाती है। विद्वान् लेखक ने इस लेख में भौतिकवादियों के इन तीनों ही प्रकार के तर्कों को नवीन वैज्ञानिक परामनोविज्ञानी तथा अन्य ग्रहों की संरचना से संबंधित तथ्यों के आधार पर तथा विशिष्ट बौद्धिक तर्कों के सहारे सारहीन प्रमाणित किया है। उन्होंने बताया है कि द्रव्यमान तथा ऊर्जा के संरक्षण के नियम के समान आत्मोर्जा के संरक्षण का नियम भी होना चाहिये क्योंकि शरीर और आत्मा स्वतन्त्र एवं एक-दूसरे में अपरिवर्तनशील द्रव्य है । उमास्वाति के द्वारा प्रस्तावित योनियों के आधार पर उन्होंने 'विश्व के उद्भव' के सिद्धान्त को भी जैन दर्शन सम्मत सिद्ध किया है तथा आत्मा के पृथक अस्तित्व के विरोध मे दिये गये तर्कों को अपूर्ण बताया है। - 184 - Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Uttam Satya Dr. B. S. Kulkarni, Dharwar Real aim of man in Jain Religion: Jain religion is one of the ancient religions of the world which explains systematically, logically, scientifically the existance of the universe and the working of "Jiva & Ajiva" "Matters". Jain philosophy can be explained in a simple sentence-the systematic working of "Saptatattwa" and "Saddrawya" and this is the peculiarity and speciality of Jaina Philosophy. The "Soul" having "Ananta Jnana", "Ananta Virya", "Ananta Darśana", and "Ananta Sukha" is immortal and indestructible. In its pure form, the soul is without the bondage of births and deaths and rests in the "Siddha Stla" which is at the top of Universe where there is no existance of "Ajeeva Matters" etc., in the form, as the Jaina Acaryas put it, of "knowledge", To be in the "Siddha Sila" is the main motto of Jivätmä. But because of unavoidable nature of the "Jivatma" through "Yoga", the "Atma" has become "Jivätma" having come in contact with the 'Ajiva Matters'. Being 'Jivātmā', the soul wanders for inumerable years in this 'Samsara' and for thousands of years it might have spent without any organs. After this stage and getting organs whether it is one or five, it might have taken births in the four forms and taking these forms the soul might have or might be wandering talking births and deaths in this Universe, but this is not the real nature of the soul. The real aim and object of the soul is, through its manly efforts to cut off the bondage of the 'Karma' and to achieve its original form and to rest in 'Siddhasila' being 'Parmatma', as 'Siddha' or 'Paramatma having the above said 'Ananta Catuştaya'. To achieve this goal, the only convenient form is human form. In other forms, the soul only enjoys or suffers mechanically the fruits of 'Subha Karma' or 'Asubha Karma' and after completion of the 'Ayukarma', it automatically goes to another form which it deserves, according to its own 'Karma'. In these forms, there is no chance for the soul for human efforts. The human form is achieved by the soul because of its lot of 'Subhakarma' and it is only in this form the soul has the power of thinking. Because of this thinking power, the soul can think of good and evil and can see the things critically and can come to a conclusion that the only means to lift him towards the path of liberation or solvation is only 'Dharma'. Definition of Dharma: When we say 'Dharma', it has become routine to believe that 'Dharma' means to follow some 'Vrata' (Vows), 'Niyamas' and worship of God and to give alms etc. From practical point of view, the Jaina religion has encouraged this aspect but to attach one-self to the outword 'Vratas' only, the soul cannot lift 185 - 24 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ itself towards its real goal. Having understood the secret of this, the Jain Acharyas have tried to preach the common people to enable them to uplift their souls. Revered Umaswam in his 'Tattwärthasūtra' has pointed out that the real 'Dharma' is one, which is having all the ten aspects told in the verse and following this 'Dharma' the 'Jivātma' can become 'Paramatma'. This is the sum and substance of the verse. The soul in pure form is without any attachment and is in eternal or permanent pleasure. But the man, through his five organs and four 'Kaşayas' forgets his real goal and does not remember the real things to do and takes it for granted that real 'He' means his outward body. He is caught in the illusion and believes that his youth, his wife and children and his property are permanent and will give him plea. sure for ever. This means he believes in the things which are not permanent, which do not give him pleasures forever and also which will not lift his soul towards the real goal. This means the man forgets the right and believes the 'False' and being in this condition he suffers in this 'Sansara. For the sake of his physical pleasures, to achieve his selfish mottoes, he does not hesitate to decieve, to abuse, to beat, to kill other people or any being and with ego that he is the only hero or the best person, he follows the wrong path to achieve his ends, following the wrong paths. He does not care to tell lies and he becomes a cruel man through anger. All this means that the soul being caught in this 'Sa lisära' becomes a victim to 'Kashayas', untruth and forgets the above said real 'Dharma' having ten aspects. Following this wrong path, this 'Jivatma' goes round and round in the cycle of births and deaths through the four forms. But the soul wishing for its welfare, it should put itself in the right path and should go on trying to follow the 'Dharma' having ten aspects. This means the man should try to live without giving scope to hurt other beings and follow the non-injurious 'Dharma' If this effort is continuous, such souls can achieve a place in 'Siddhasila' though after a long long period and taking good number of births and deaths. Now we can deal only with one aspect, out of the ten aspects of 'Dharma' viz., 'Uttama Satya' (Best Truth). Uttama Satya: When talking about truth, the very first question will be the problem of talking that is the capacity of talking. Those beings which cannot talk, there is no problem of truth or untruth. This problem comes only in the beings which are capable of talking. Though the birds and beasts have all the five organs like man and though they understand what we talk, they have no capacity or the fortune to express their thinking or views in terms of words just like man. They do produce voice but that voice does not change into the form of speech. The Jaina Acaryas' have divided the 'Karmanus' into twenty divisions and have explained their action and effect etc. Out of these 'Karmanus'. 'Vacanarüpakarmapu' is also one 'Karmaņu dravya'. It should be remembered here that 'Karmaņu-dravya' is matter, Because of this effect of 'Vacanarupa Karmapu', the voice is produced. The voice thus produced is turned into 186 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ words or speech only in the case of human beings. The voice is produced from the bottom of noval on account of 'Vacana Karmaņu', because of the special arrangement in the throat of the human beings, comes out in the form of speech or words. In this context, a verse of a Jain poet-Ke-hiraja, is worthy of mention, a The meaning of these verse is that from rhe 'Praṇa vayu' which works as per the desire of the 'Jivatma', at the bottom of noval organ, the voice is produced, like a voice from the trumpet (of a long tapering shape of a horn like shape) and its colour is white and its action is speech or word. The fact that the poet has called the voice as matter having white colour is clear proof that poet and grammarian Kesirāja is a pure Jain and has taken this idea from the works of the Jaina Acaryas. It should be remembered that the speech itself has become the main important medium for the development and progress of human civilization and culture. 'Sabda' or speech-when taken in view of the nature of the soul, is pure and straight. That is why Truth is described as one of the 'Dharma' of the soul by the Jain Acaryas. In this context, divine voice produced by the Tirthankaras may be remembered or mentioned here. To explain this fact, a common experience may be given here. If we observe the innocent children who have not under. stood the deceit, crookedness, selfishness etc., of the world, we see that those children always speak the truth, not only the truth but the naked truth, whatever that they have felt or whatever they have seen. As we all know, children usually are described as Gods or on par with Gods in this world. As one English author has said 'The heaven is full of children'. In one word, we may say that 'God is Truth, Truth is God'. In following the Truth, which is 'Dharma' of the 'Atma', lies the welfare of soul, but as explained above, the mundane soul being after the 'Kaşayas' and having become a victim to selfishness, lust etc., looses the right path and right knowledge and turns to the other ways to fulfil his physical pleasures and falls into the ocean of sin. To gain his ends, to fulfil his desires, the man diverts himself from the Truth and would be caught in the clutches of untruth or falsehood and thus he teases others and destroys them and also destroys himself. As we all know, that we become victims to the bad habits easily and we find it defficult to cultivate good habits. This is what we see and experience in the day to day life. When a bad habit is continued, it becomes very difficult to escape from its bondage. In the same manner, when once a man starts telling lies, it becomes his habit and he goes on telling lies without any discrimination between his own people or otherwise. He starts without any sense of shame to insult elders or youngsters and goes on using loose talks without caring for the person or situation. He starts telling lies which create shocks and starts moving with ego and boasting himself as if, he were an unparalled man and for his little benefit, he does not mind to tell lies which may destroy the lives of others. Thus speaking lies in various ways, he becomes a nuisance and due to his harsh and disagreeable talks, he becomes a means to harm a good number of human beings and beings in general. But he does not succeed for a long time. At last, - 187 - Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ he is exposed and becomes a disgraceful and not worthy of belief in the society and his position becomes precarious. We all know the proverb that to tell lies is a painful thing and does not bring pleasure. The Jain Acharyas, who have studied minutely the various aspects of human mind have described the various ways of telling lies. When we study this, we will be surprised at the vast knowledge of the 'Ācāryas' in knowing the human mind. On knowing the bad side of the untruth, our minds tremble and automatically we will intend to come to the right path. After seeing the bad result of telling lies, now we can try to see the effect of telling the Truth. The famous story of king 'Hariscandra', who tried his best to maintain his truthfullness, though he had not only to suffer a lot of misery but also had to sell his wife, son and himself. He proved that 'Truth is God, God is Truth'. The truthful person achieves his own welfare as well as the welfare of others and becomes worthy of belief and he is loved and almost worshipped by the people. Mahatma Gandhiji, who is rightly called the Farher of the Nation and who brought Independance to our Motherland, was an ardent follower of 'Truth' and 'Nonviolence'. One should speak truth, but sometimes speaking truth may bring some danger in certain cases. That is why, we should try to speak truth, in such a way that it should not bring any violence, trouble and shock. That is why it is said 'Satyam brüyāt priyam brüyat' We can see a small example here. A Doctor examines a patient and finds that the patient is on the verge of breathing his last. Should the doctor, who understands this fact, tell the patient the naked truth that he would die within a short period ? If the doctor tells the truth, the patient might die on the spot. Under such circumstances, a doctor should treat the patient without telling lies to make money but at the same time with patience, he should give treatment to the patient leaving the patient to his own fate. Another example-suppose a hunter is chasing a deer, when he is running after the deer, he looses the sight of the deer and asks a man about the deer. The man knows in which direction the deer has gone. In this case, what that man should do ? If he tells the truth, he will be responsible for the a death of the deer. If he tells the wrong direction, he will be responsible for having told a lie. Then what that man should do ? There are people who argue that there is no sin, if a lie is told to save a life. But by telling a lie there will be the flow of bad Karma in the soul. Under such circumstances, the only way left for an intelligent man is to keep mum, though he might get abuse from the hunter. There is a proverb in Kannada that 'A marriage should be performed even telling Ten lies". There is no harm to perform a marriage. But the marriage performed based on the falsehood, if it brings misery to the two souls, what is the benefit of such a marriage and who is responsible for this misery and sin? So. it is always better to tell the truth and even telling the truth should be with caution and should bring pleasure to other beings. The words of the person who speaks - 188 - Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ truth are lovable and are like nector. The persons who listen to such words of a truthful person, not only they enjoy but also get inspiration in their lives. A story occuring in the 'literature' may be described here in short in this context. Once a Jain monk was preachiog 'Dharma' to laymen. A thief who listened to the preaching requested the monk to give him also a vow. The monk said, 'You leave your business of stealing. The thief said that it was the only means for his livelhood. and denied to leave it. Then the monk said, 'you take the vow of talking the Truth.' The thief agreed. One day, the thief started to steal in the palace. On the way, the guard asked him 'Who are you and where are you going?' 'I am thief, I am going to the palace to steal', the theif said. A person who is enter.ng the palace to steal, how can he tell this with such a courage ?He might be related to the king. Thinking in this line, the guard allowed the thief to enter the palace. The thief stole the ornaments in the palace and left it. Next day, when a search was made to find out the thief, this very thief was caught in a forest with all the ornaments. When he was questioned, he told with courage, that the ornaments belonged to the palace and he had stolen them. Looking at the courage and the manner in which the thief told the truth, the soldiers of the palace, with a notion that he must be a relative of the palace, did not arrest him. Looking at himself, the thief thought his escape was only due to the Truth. So, he knew the importance of the truth and afterwards, not only he left his wrong path but also he took up to the right path and in due course become a liberated soul. Lastly, we conclude this article, quoting the ideas of the famous Kannada poet Ranna (10th Century) in this behalf as described in his 'Ajitapatha Purana.'s Ranna says that there are four categaries of people. First one-They talk lovable words and the result of them is also lovable. Second category-Their talk is harsh, but the result is lovable. Third cotery is their talk is lovable but the result is poisonous. Fourth-category is-Their talk is harsh and the result is also harsh and shocking. Out of these four categories, there is lot of danger to the society from the people belonging to the third and fourth categories. So, poet Ranna has cautioned to be careful about such people, People belonging to the second category may be all right but what we should try to achieve is to belong to the first category. Their lies the usefullness of the life. The proverb in Kannada 'The person who knows how to talk and what to talk brings the Jewels and the person who does not know how to talk and what to talk brings the quarrel.' Remembering this proverb, we should try to 'Talk' with full control over the tongue, words which bring pleasure to the people and thus try to mak our lives useful and pleasant both in this world and in, the so called, the other world. The truth being the one aspect of the soul, the persons who follow up 'Satya Dharma', such souls do become 'Suddhātmā' and ultimately 'Paramātmā'. There seems no doubt in believing this principle which is preached by the 'Paramätmäs' themselves. "Satya Vada, Dharmam Cara'. - 189 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ References 1. Umaswati : Tattwasthsutra, Chapter 9. 2. Keshiraj : Sabdamani darpana Pithika Sandhi, Mangalore, poem 1. "अनुकूल पवननिन् जी। वनिष्टदिम् नाभिमूलदोल रुट्ठलेय पां ।। गिनवोल शब्दद्रव्यं । जनयिसुगम् श्बेतमदर कार्य शब्दम् ॥" 3. Ranna : Ajitanathpurana. (ed. Ramanayacharya), Mysore, 1910, pp. 162 सारांश उत्तम सत्य डॉ० बी० एस. कुलकर्णी, कन्नड़ शोध संस्थान, धारवाड़ जैनधर्म एक प्राचीन धर्म है । इसमें छह द्रव्य और सात तत्वोंकी प्रक्रियासे लोककी व्याख्या की गई है। इसमें आत्माको अनन्तचतुष्टयी बताया गया है । यही आत्मा लोकान्त में सिद्धशिला पर विराजता है । लेकिन संसारी आत्माकी गति विचित्र है। वह अनादि कालसे चारों गतियोंमें भटक रहा है। उसका उद्देश्य यह है कि वह अपने शुभ प्रयत्नों से कर्म-बन्धोंसे विलग होकर अनन्तचतुष्टयी रूपको प्राप्तकर परम सुखको प्राप्त करे और सिद्धशिला पर विराजे। अपनी बुद्धि के कारण मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है और वही अपने प्रयत्नोंसे यह लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। उसकी लक्ष्य प्राप्ति केवल धर्मसे ही हो सकती है। सामान्यतः धर्मको ब्रतों और नियमोंके रूपमें माना जाता है। लेकिन केवल इन वाह्य रूपोंसे ही कर्मबंध दूर नहीं होता। इसके लिए धर्मके मन-वचन-काय परिमार्जक उत्तम क्षमादिक दश रूपोंका पालन आवश्यक है । इसमें उत्तम सत्य भी एक है । सत्यका सम्बन्ध विचारों और वचनों या भाषासे संबंधित है। फलतः यह प्रक्रिया केवल मनुष्य जातिसे सम्बन्धित है। मानवकी भाषा वचनरूप कर्माणुओंके कारण होती है। ये वचन कर्माणु द्रव्य होते हैं और सफेद (नीरंग) होते हैं। सत्यको आत्माका धर्म बताया गया है । भगवान्की वाणी 'दिव्य ध्वनि' कही गयी है। इन प्रकरणोंमें शब्द शुद्ध और सरल होते हैं। ये बच्चोंके समान सत्य होते हैं । लेकिन संसारी मनुष्यके शब्दोंमें यह शुद्धता कहाँ ? वह तो कषायोंके चक्रमें सत्य शब्द भल गया है । सत्यको इस इस प्रकार बोलना चाहिये जिससे दूसरोंको कष्ट न हो। विषम परिस्थितियोंमें मौन ही श्रेयस्कर है । लेखकने महापुराणकी कथासे इस तथ्यको प्रमाणित किया है। लेखकने रन्न कविके अनुसार चार प्रकारके मनुष्योंका भी निरूपण किया है : प्रिय-प्रिय, कटु-प्रिय, प्रिय-कट, कटु-कटु । हमें अन्तिम दो कोटियों के मनुष्योंसे सावधान रहना चाहिये और स्वयंको प्रथम कोटिका बननेका यत्न करना चाहिये । इसके लिए शुद्ध सत्य बोलनेका अभ्यास करना चाहिये । सत्य ही धर्म है, यह 'सत्यं वद, धर्म चर' से भी प्रकट होता है । सत्यसे आत्मा परमात्मा बनता है । - 190 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मका उद्गम क्षेत्र-मगध प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी, सागर (म०प्र०) भारतके आद्यतिहासिक कालमें मगध क्षेत्रकी प्रायः अवमानना दृष्टिगोचरु होती है। वैदिक आर्योने मगधकी अपेक्षा पञ्चनन्द देश तथा उसके आगे मध्यदेशको वरीयता प्रदान की। वैदिक सक्तोंमें उन क्षेत्रों के विषयमें सम्मानका भाव प्राप्त होता है। वहाँके पर्वतों, नदियों, जनपदों तथा नगरोंके उल्लेख इस बातको सूचित करते हैं कि ई० पू० सातवीं शतीतक भारतका उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र तथा मध्यदेश पण्यभमिके रूपमें मान्य थे। वैदिक विचार परम्परा मगध क्षेत्रमें वैदिक कालके पश्चात् पहुँची। काशी तथा अङ्गके पूर्ववाले भू-भागमें स्थानीय स्वतन्त्र परम्परायें विकसित थीं। यह क्षेत्र मध्यप्रदेशमें अमरकण्टकसे लेकर वस्तरतकके भू-भागकी अपेक्षा सांस्कृतिक दृष्टिसे अधिक उन्नत था। स्वतन्त्र चिन्तनके फलस्वरूप वहाँ आर्य परम्पराके प्रतिकल अनेक विचार पल्लवित हो चुके थे। परवर्ती वैदिक साहित्यमें मगधके निवासियोंको कीकट, व्रात्य आदि शब्दोंसे सम्बोधित किया गया। मगधका एक प्रसिद्ध आद्य ऐतिहासिक शासक जरासंध हआ। महाभारत तथा कतिपय पुराणों में इस प्रतापी शासकके बारेमें विस्तृत विवरण उपलब्ध है। आर्य संस्कृतिके अनुयायी राजाओंसे जरासंधकी विचारधारा अलग थी। राजनीतिक क्षेत्रसे जरासंधकी यह विद्रोही परम्परा ऐतिहासिक कालमें भी देखनेको मिली है। ई०पू० सातवीं शतीके बाद मगध क्षेत्रका आर्थिक एवं राजनीतिक विकास हुआ। व्यवसाय तथा व्यापारकी वृद्धिके फलस्वरूप मगधके अनेक नगर समृद्ध हो गये। इसका प्रभाव प्रशासन तथा अनेक सांस्कृतिक क्षेत्रोंपर पड़ा । शाक्य, लिच्छवि, मल्ल आदि गणोंने शक्तिशाली गणतन्त्र शासन व्यवस्था चलायी। जनक, याज्ञवल्क्य, मैत्रेयी आदि प्रसिद्ध स्वतन्त्रचेता उनके पहले हो चुके थे। उनकी विचार परम्परा ऐतिहासिक कालमें भी मगध क्षेत्रपर व्याप्त रही। ई०पू० छठी शतीमें भगवान महावीर तथा गौतम बुद्धका आविर्भाव हुआ । उनका मुख्य कार्यक्षेत्र मगध ही रहा। इन दोनों महानुभावोंके अतिरिक्त अन्य स्वतन्त्र विचारशील व्यक्तियोंमें पुराण कश्यप, अजित केशकंबली, प्रबुद्ध कात्यायन, आलारकालाम, रुद्र करामपुत्र, मक्खलि गोशाल आदिके नाम उल्लेखनीय है । इन सभीने अपनी बुद्धि और ज्ञानके अनुसार पृथक्-पृथक् मतोंकी स्थापना की । मक्खलिगोशाल, आजीवक सम्प्रदायके जन्मदाता हुए। गया तथा उसके आसपासका क्षेत्र स्वतन्त्र तार्किक विचारोंका मुख्य केन्द्र बना । सिद्धार्थको वहीं सम्यक्ज्ञानकी प्राप्ति हुई। फिर गौतम बुद्धके रूपमें उन्होंने एक नये धर्मको प्रारम्भ किया। महावीर स्वामोके पहलेके अनेक जैन तीर्थकरोंके जन्म, ज्ञान प्राप्ति तथा निर्वाण स्थल मगध क्षेत्रमें ही हैं । इस भू-भागमें विहारोंके अत्यधिक संख्यामें हो जानेसे यह क्षेत्र बिहार कहलाया। बौद्धोंके अतिरिक्त, जैनोंके भी संघाराम राजगृह, पाटलिपुत्र, गया तथा अन्य अनेक स्थलोंमें प्रतिष्ठित हुए। महावीर स्वामीने मगधकी प्रचलित लोक भाषामें अपने प्रवचन दिये । यह मागधी भाषा धीरे-धीरे अधिकांश भारतकी राजभाषा बन गयी। मौर्य सम्राट अशोकने इसी भाषामें अपनी राजाज्ञायें लिखायीं। परवर्ती लेखोंमें एक दीर्घ कालतक इसी भाषाका उपयोग होता रहा । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटिल्यके अर्थशास्त्रसे विदित होता है कि उसके पहले सत्रह प्रमुख आचार्य हो चुके थे जिन्होंने धर्म तथा राजनय आदि विषयों पर अपने स्वतन्त्र मत स्थापित किये गये थे। प्रतीत होता है कि इनमेंसे अधिकांश आचार्य मगधके ही थे। महावीर स्वामीके सन्देशका प्रचार जैन आचार्य परम्पराने विशुद्ध रूपमें किया । गुप्त शासन कालमें मुख्य राजधानी मगधके पाटलिपुत्र नगरमें रही। गुप्तकालके शासकोंने प्राकृतके स्थान पर संस्कृतको राजभाषा बनाया। जैनाचार्यों तथा अन्य लेखकोंने समयकी माँगके अनुरूप अपनी रचनाओंका माध्यम संस्कृतको बनाया। इसी प्रकार, ब्राह्मी लिपिको देशकी मुख्य लिपि बनानेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। जैनाचार्योंके अलावा मगध क्षेत्रके समृद्ध जैन श्रेष्ठियोंने जैन धर्मके विस्तारमें महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । अनेक श्रेष्ठि महोदधि (बंगालकी खाड़ी)के मार्गसे दक्षिण-पूर्व एशियाके देशोंमें व्यापारके लिए जाने लगे । विदेशोंसे अजित धनका विनियोग उन्होंने देशके विभिन्न भागों में जैनधर्मके प्रसार हेतु किया। उन जैन व्यापारियोंका दृष्टिकोण राष्ट्रवादी था। राष्ट्रकी राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक उन्नतिको उन्होंने अपने धर्मका अङ्ग मान लिया था । - १९२ - Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ३:: Section 3 साहित्य Literature rsonalod Page #231 --------------------------------------------------------------------------  Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम साहित्य साध्वी कनकश्री जैन साहित्य आगम और आगमेतर- इन दो भागोंमें विभक्त है। जैन वाङमय का प्राचीन भाग आगम कहलाता है। आगम साहित्य चार विभागोंमें विभक्त है- १. अंग २. उपांग ३. छेद और ४. मूल । आगमसाहित्यका यह वर्गीकरण प्राचीन नहीं है। इसका प्राचीन वर्गीकरण अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्यके रूपमें उपलब्ध होता है। __ अंग-प्रविष्ट साहित्य महावीरके प्रमुख-शिष्य गणधरों द्वारा रचित होनेके कारण सर्वाधिक मौलिक और प्रामाणिक माना जाता है अहंत अपने अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शनके आलोकमें विश्व-दर्शन कर सत्य को उभासित करते है और गणधर शासन-हितके लिए उसे सूत्र रूपमें गूंथते हैं । वह विशाल ग्रन्थ-राशि सूत्र या आगमके नामसे पुकारी जाती है।' अमितज्ञानी केवली तप, नियम और ज्ञानके वृक्ष पर आरूढ़ होकर भव्य जनोंको प्रबोध देने हेतु ज्ञान की वर्षा करते हैं और गणधर अपने बुद्धिमय पटमें उस सम्पूर्ण ज्ञान-वर्षाको ग्रहण कर लेते हैं । इस प्रकार वे तीर्थ-हितकी दृष्टिसे तीर्थंकरकी वाणीको सूत्ररूपमें गूंथते हैं । यही गणधर सन्दृब्ध साहित्य-राशि अंग प्रविष्ट कहलाती है । स्थविरोंने जिस साहित्यकी रचना की वह अनंग-प्रविष्ट है। द्वादशांगी अंग-प्रविष्ट है। उसके अतिरिक्त सम्पूर्ण साहित्य अनंग-प्रविष्ट है। ऐसा भी माना जाता है कि गणधरोंके प्रश्न पर भगवान्ने त्रिपदी-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का उपदेश दिया। उसके आधार पर जो साहित्य रचा गया, वह अंग-प्रविष्ट कहलाया और भगवान्के मुक्त व्याकरणके आधार पर जो साहित्य रचा गया, वह अनंगप्रविष्ट कहलाया। दिगम्बर साहित्यमें आगमोंके ये दो ही विभाग उपलब्ध होते हैं-अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य । अनंग प्रविष्ट के नामोंमें अवश्य अन्तर है। १. आ. नि. ९२- अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स दियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तई ॥ २. आ० नि० ८९-९० - तव नियमणाणरुक्खं आरूढो केवली अमियनाणी। तो मुयइ नाणवुट्टि भवियजण विवोहणट्ठाए । तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिहिउं निरवसेस । तित्थयर भासियाई गथन्ति तओपवयणट्ठा ॥ ३. विशेषावश्यक भाष्य, ५५०-गणहर थेरककंवा आएसा मुक्क वागरणतो वा । धुव चल विसेसतो वा अंगाणंगेसु नाणत्तं ।। ४. तत्त्वार्थसूत्र, १-२० ( श्रुतसागरीय वृत्ति ) Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परामें भी प्राचीन विभाग यही रहा है। स्थानांग, नन्दी आदिमें यही उल्लेख है । आगम विच्छेद कालमें पूर्वो और अंगोंके जो नि!हण या शेषांश बाकी रहे उन्हें पृथक् संज्ञाएँ मिली। अंग-प्रविष्ट अंग प्रविष्ट का स्वरूप सदा सब तीर्थंकरोंके समय में नियत होता है। इसे द्वादशांगी या गणिपिटक भी कहते है। जैसा कि द्वादशांगी नामसे ही स्पष्ट है। अंग-साहित्य बारह विभागों या ग्रन्थोंमें विभक्त है, जो इस प्रकार है१. आचारांग २. सूत्रकृतांग ३. स्थानांग ४. समवायांग ५. भगवती ६. ज्ञाताधर्मकथा ७. उपासकदशा ८. अन्तकृद्दशा ९. अनुत्तरोपपातिकदशा १०. प्रश्न-व्याकरण ११. विपाकश्रुत १२. दृष्टिवाद दृष्टिवाद वर्तमानमें अनुपलब्ध है । अनंग-प्रविष्ट अनंग-प्रविष्ट साहित्य तीन भागों विभक्त है-उपांग,मूल, और छेद-सूत्र । अनंग-प्रविष्ट साहित्य नियत नहीं होता। उपांग उपांग साहित्य का पल्लवन स्थविर-आचार्योंने अंग-साहित्यके आधार पर ही किया था, ऐसा उसके नाम और संख्या-साम्यसे प्रतीत होता है। उपांग बारह हैं१. औपपातिक २. राजप्रश्नीय ३. जीवाभिगम ४. प्रज्ञापना ५. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ६. सूर्यप्रज्ञप्ति ७. चन्द्रप्रज्ञप्ति ८. निरयावलिका ९. कल्पवतँसिका १०. पुष्पिका ११. पुष्पचूलिका १२. वृष्णि-दशा अंग-प्रविष्टके बारहवे अंग-दृष्टिवादके लुप्त हो जाने पर भी उसका उपांग "वृष्णिदशा कैसे सुरक्षित रह गया, यह भी शोध-विद्वानोंके लिए विचारणीय प्रश्न है। मूल चार हैं दशवकालिक, उत्तराध्ययन, अनुयोगद्वार और नन्दी। छेद सूत्र चार हैं निशीथ, व्यवहार, बृहत्कल्प और दशाश्रुतस्कन्ध । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृत्व जैन-परम्परामें अर्हत् प्रोक्त, गणधर-सूत्रित, प्रत्येक बुद्ध मूत्रित, और स्थावर रचित वांगमयको प्रमाणभूत माना है। अतः आगम-वाङ्गमयकी कर्तृताका श्रेय उन्हीं महनीय व्यक्तित्वों को उपलब्ध होता है । ___ अङ्ग-साहित्यके अर्थके उद्गाता स्वयं तीर्थंकर हैं और उसके सूत्रयिता है प्रज्ञापुरूष गणधर । शेष साहित्य प्रवाहित हुआ है चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी और प्रत्येक बुद्ध आचार्यों और मुनियोंके मनीषा हिमालयसे । आचार्य वट्ट करने भी गणधर कथित, प्रत्येकबुद्ध कथित, श्रुतकेवली कथित और अभिन्नदशपूर्वी कथित सूत्रों को प्रमाण माना है । इस दृष्टिसे हम इस तथ्य तक पहुँचते हैं कि वर्तमान अंग प्रविष्ट साहित्य के उद्गाता है, स्वयं भगवान् महावीर और रचयिता है उनके अनन्तर शिष्य आचार्य सुधर्मा । अनंग-प्रविष्ट साहित्य कर्तृत्वकी दृष्टिसे दो भागोंमें बँट जाता है-कुछेक आगम स्थविरों द्वारा रचित है और कुछ द्वादशांगोंसे निर्मूढ़-उद्धृत हैं । रचनाकाल जैसाकि पहले बताया जा चुका है, अंग-साहित्यकी रचना गणधर करते हैं और उपलब्ध अंग गणधर सुधर्माकी वाचनाके हैं। सुधर्मा स्वामी भगवान महावीरके अनन्तर शिष्य होनेके कारण उनके समकालीन थे। इसलिए वर्तमान अङ्ग साहित्यका रचनाकाल ई० पू० छठी शताब्दी सिद्ध होता है। अंग-बाह्य साहित्य भी एक कर्तृक नहीं है, इसलिए उनकी एक सामयिकताकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। फिर भी आगमोंके काल-निर्णयकी दृष्टिसे हमारे पास एक ठोस आधार है। वह यह है कि श्वेताम्बर परम्परामें सर्वमान्य बत्तीस सूत्रोंका व्यवस्थित संकलन आचार्य देवद्धिगणीके सान्निध्यमें सम्पन्न हुआ था। उनका समय है ईसाकी चौथी शताब्दी । अतः आगम-संकलनकी दृष्टिसे आगमोंका रचनाकाल यही उपयुक्त ठहरता है। वैसे ईस्वी पूर्व छठी शताब्दीसे ईस्वी चौथी शताब्दी तकका समय आगम रचनाकाल माना का सकता है। दिगम्बर परम्पराके अनुसार वीर निर्वाणके ६८३ वर्षके पश्चात आगमोंका मौलिक-स्वरूप नष्ट हो गया । अतः उसे वर्तमानमें उपलब्ध आगम साहित्यकी प्रामाणिकता मान्य नहीं हैं। दिगम्बर आम्नायमें आगम लोपके पश्चात् जो साहित्य रचा गया उसमें सर्वोपरि महत्त्व षट् खण्डागम और कषायप्राभूतका है। जब पूर्वो और अंगोंके बचे-खुचे अंशोंकी भी लुप्त होनेकी सम्भावना स्पष्ट दिखाई देने लगी तब आचार्य धरसेन ( विक्रम दूसरी शताब्दी ) ने अपने दो प्राज्ञ शिष्यों-भूतबली और पुष्पदन्तको श्रुताभ्यास कराया। इन दोनोंने षट्खण्डागमकी रचनाकी। लगभग इसी समयमें आचार्य गुणधरने कषाय-प्राभृतको रचनाकी । ये पूर्वोके शेषांश हैं, इसलिए इन्हें पूर्वोसे उद्धृत माना जाता है । ये ही दिगम्बर परम्पराके आधारभूत ग्रन्थ हैं। १. अर्हत्प्रोक्तं गणधरदृब्धं प्रत्येकबुद्धदृब्धं च । __ स्थविरग्रथितंच तथा, प्रमाणभूतं त्रिधा सूत्रम् ।। २. द्रोणसूरि, ओ. नि. पृ. ३ ३. मूलाचार, ५.८०-सुत्तं गणधरकथिदं, तहेव पत्तय बुद्धकथिदं च । सुदकेवलिणा कथिदं अभिण्णदशपविकथिदं च ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार तीव्र गतिसे ह्रासकी ओर बहती श्रुतस्रोतस्विनीको समय-समय पर होनेवाली आगम-वाचनाओंके माध्यमसे बचा लिया गया। फलतः नाना परिवर्तनोंके बावजूद भी वर्तमानमें उपलब्ध श्रुतांशकी मौलिकता असंदिध है। इसी विश्वासके आधार पर श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा ४५ आगम-सूत्रोंको प्रमाणभूत मानती है तथा स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराएँ ३२ सूत्रों को। प्रकीर्णकोंके अतिरिक्त ३२ सूत्रोंकी प्रामाणिकतामें तीनों ही परम्पराएँ एक मत हैं। प्रस्तुत निबन्धके माध्यमसे हमें श्वेताम्बर-परम्परा सम्मत इन्हीं ३२ आगम ग्रन्थोंको आधार मानकर कुछ चर्चा करनी है । मैं एक-एक आगम-ग्रन्थका औपचारिक परिचय देनेका प्रयत्न न कर सीधे तथ्योंके प्रांगणमें उतर जाना चाहती हूँ। ताकि हम आगम-साहित्यकी प्रदेय-भूमिकाओं पर समग्रतासे विचार कर सकें। आगमोंकी भाषा दूसरोंके साथ सम्पर्क स्थापित करनेका सशक्त माध्यम है भाषा । भाषाका प्रयोजन है, अपने भीतरके जगत्को दूसरोंके भीतरी जगत्में उतार देना। इस दृष्टिसे भाषा एक उपयोगिता है। किन्तु उस समय भाषा मात्र उपयोगिता न रहकर अलङ्करण और बड़प्पनका मानदण्ड बन गई। विद्वान् लोग उस संस्कृत भाषामें बोलने लगे, जो जनसाधारणके लिए अगम भाषा थी। - महावीरका लक्ष्य था-सबको जगाना। सबको जगानेके लिए सबके साथ सम्पर्क साधना आवश्यक होता है । मात्र आभिजात्य भाषा या पण्डितोंकी भाषा जन-सामान्यके साथ सम्पर्क स्थापित करनेमें सहयोगी नहीं बन सकती। अतः महावीरने जन भाषाको ही जन-सम्पर्कका माध्यम बनाया। वह थी उस समयकी लोक भाषा-प्राकृत । वह भाषा मगधके आधे भागमें बोली जाती थी, अतः वह अर्द्ध मागाधी भी कहलाती थी । अर्धमागधी उस समयकी प्रतिष्ठित भाषा थी। वह आर्य-भाषा मानी जाती थी। उस भाषाका प्रयोग करनेवाले भाषा-आर्य कहलाते थे । प्राकृतका अर्थ है-प्रकृति-जनताकी भाषा। भगवान् महावीर जनताके लिए, जनताकी भाषामें बोले थे, अतः वे जनताके बन गए। प्राकृत भाषामें निबद्ध होते हुए भी जैन आगम साहित्यको भाषाकी दृष्टिसे दो युगोंमें बाँट सकते हैं । ई० पू० ४०० से ई० १०० तकका पहला युग है। इसमें रचित अङ्गोंकी भाषा अर्ध-मागधी है । दूसरा युग ई० १०० से ई० ५०० तकका है । इसमें रचित या नियूढ़ आगमोंको भाषा जैन-महाराष्ट्री प्राकृत है। वैसे समकालीन ग्रन्थोंकी प्राकृत भाषामें भी परस्पर पर्याप्त भिन्नता है। जैसे सूत्रकृतांगकी भाषा दूसरे ग्रन्थोंकी भाषासे भिन्न ही पड़ जाती है। उसमें ऐसे अनेक शब्द प्रयुक्त हुए हैं, जो व्याकरणके नियमोंसे सिद्ध नहीं होते। इससे सूत्रकृतांगकी प्राचीनता सिद्ध होती है। आचारांग प्रथम और द्वितीयकी भाषाका प्रवाह तो एकदम बदल गया है । शैली आगम ग्रन्थोंमें गद्य, पद्य और चम्पू-इन तीनों ही शैलियोंका प्रयोग हुआ है। आचारांग (प्रथम) चम्पू-शैलीका उत्कृष्ट उदाहरण है। फिर भी किसी ग्रन्थमें आदिसे लेकर अन्त तक एक ही शैलीका निर्वाह १. समवाओ, ३४.१ भगनं चणं अद्धमागदीए भासाए धम्म माइक्खइ। २. पन्नवणा ११६२ भासारिया जे णं अद्धमागहाए भासाए भासंति । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ हो ऐसा नहीं लगता । यहाँ तक कि एक ही ग्रन्थकी शैली में विभिन्न स्थलों पर पर्याप्त अन्तर आ गयीं है । ज्ञाताधर्मकथाके प्रथम अध्ययनको पढ़नेसे लगता है, हम 'कादम्बरी' की गहराईमें गोता लगा रहे हैं । आठवें नौवें और सोलहवें अध्ययनमें आजकी उपन्यास शैलीके बीज प्रस्फुटित होते प्रतीत होते हैं । अन्यत्र एकदम साधारण शैली भी अपनायी गयी है । गद्य भागके बीच या अन्तमें गद्योक्त अर्थको पद्य-संग्रहमें गूंथा गया है। ऐसी शैली उपनिषदोंकी रही है । जैसे प्रश्नोपनिषद्में लिखा है-स एषोऽकलोऽमृतो भवति, तदेष श्लोकः अरा इव रथनाभौ कला यस्मिन् प्रतिष्ठिता। तं वेद्यं पुरुषं वेद (यथा) मा वो मृत्युः परिव्यथाः ।। (प्रश्नो० ६।५।६ ) तुलना करें चउत्थं पयं भवइ, भवइ य इत्थ सिलोगो-पेदेइ हियाणुसासणं सुस्सूसइ तं च पुणो अहिए । नयमाणं--भएणं मज्जइ, विणयसमाही आययट्ठीए ।' अनुष्टुभ या अन्य वत्तों वाले अध्ययनोंके अन्तमें भिन्न छन्द वाले श्लोकोंका प्रयोग कर आगमसाहित्यमें महाकाव्य शैलीका भी संस्पर्श हुआ है। आगम ग्रन्थों छन्दकी दृष्टि से "चरण' में अक्षरोंकी न्यूनाधिकता भी उपलब्ध होती है। वैदिक युगमें भी ऐसा होता था। वहाँ जिस चरणमें एक अक्षर कम अधिक हो उसे क्रमशः निचित और भूरिक कहा जाता है तथा जिस चरणमें दो अक्षर कम या अधिक हो उसे क्रमशः विराज और स्वराज्य कहा जाता है । विषय-वस्तु और व्याख्या आचार्य आर्यरक्षितने व्याख्याकी सुविधाके लिये आगम-ग्रन्थोंको चार अनुयोगोंमें विभक्त कर दिया। जैसे-द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग और धर्मकथानुयोग'। इस वर्गीकरणके पश्चात् अमुकअमुक आगमोंकी व्याख्या अमुक-अमुक दृष्टिकी प्रधानतासे की जाने लगी। वैसे सम्पूर्ण आगम-वाङ्गमय विशद्ध अध्यात्म-धाराका प्रतिनिधित्व और प्रतिपादन करता है फिर भी उसमें अनेकानेक विषयोंकी पूर्ण स्पष्टता और उन्मुक्तताके साथ प्रस्तुति हुई है । आयुर्वेद, ज्योतिष, भूगोल, खगोल, शिल्प, संगीत, स्वप्नविद्या, वाद्य-यन्त्र, युद्ध-सामग्री आदि समग्न विषयोंकी पर्याप्त जानकारी हमें आगमोंसे प्राप्त हो सकती है । एक ही स्थानांगमें कम-से-कम १२०० विषयोंका वर्गीकरण हुआ है। भगवतीसूत्र तो मानों प्राच्यविद्याओंका आकर ग्रन्थ है। विषय वैविध्यकी दष्टिसे विद्वानोंने स्थानांग और भगवतीको विश्वकोष जैसा महत्त्व दिया है। __आगमोंमें ऐसे सार्वभौम सिद्धान्तोंका प्रतिपादन हुआ है, जो आधुनिक विज्ञान-जगत्में मूलभूत सिद्धान्तोंके रूप में स्वीकृत है। जहाँ तक मैंने पढ़ा और जाना है, स्थानांग या भगवती जैसे एक ही अंगका १. दशवकालिक ९।४।२१ २. ऋक् प्रातिशाख्य, पाताल १; "एतन्न्यूनाधिका सैव निवृदूनाधिका भूरिक ।" ३. शौनक ऋक् प्रातिशाख्य, पाताल १७१२ ___ विराजस्तूत्तरस्याहुभ्यां या विषये स्थिताः । स्वराज्यं एवं पूर्वस्य याः काश्चैनं गता ऋच ।। ४. आवश्यककथा, श्लोक १७४ - १९७ - Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांगोपांग परिशीलन कर लेनेसे हजारों विविध प्रतिपाद्योंके भेद-प्रभेदोंका गम्भीर ज्ञान तथा साथ ही भारतीय ज्ञान-गरिमा और सौष्ठवका अन्तरंग परिचय प्राप्त हो सकता है । क्या आगम साहित्य नीरस है ? जर्मन विद्वान् डॉ. विन्टरनित्जने लिखा है - "कुछ अपवादोंके सिवाय जैनों के पवित्र ग्रन्थ धूलकी तरह नीरस, सामान्य और उपदेशात्मक हैं । सामान्य मनुष्योंकी हम उनमें आज तक भी बहुत कम रुचि पाते हैं । इसलिये वे विशेषज्ञोंके लिये ही महत्त्वपूर्ण हैं । वे सामान्य पाठकोंकी रुचिका दावा नहीं कर सकते । डॉ. विन्टरनित्जके इस कथनमें आंशिक सचाई हो सकती है, पर उनके इन विचारोंसे मैं सर्वथा सहमत नहीं हूं । क्योंकि वे विशेषज्ञोंके लिये ही महत्त्वपूर्ण हैं- इन विचारोंका निरसन स्वयं डॉ. विन्टर - निजकी अग्रिम पंक्तियोंसे हो जाता है । आगे उन्होंने लिखा है— जैनोंने हमेशा यह ध्यान रखा है कि उनका साहित्य जनता तक पहुंचे, इसीलिये उन्होंने सैद्धान्तिक ग्रन्थ व प्राचीन साहित्य प्राकृत भाषा में लिखा । अतः वे मात्र विशेषज्ञोंके लिये ही उपयोगी हों, ऐसा नहीं लगता । हाँ प्राकृत भाषाके अध्ययन-अध्यापनकी परम्परा छूट जाने या उसकी लोक भाषाके रूपमें प्रतिष्ठा न रहनेके कारण सामान्य जनताके लिये वे सुगम या सुज्ञेय नहीं रह सके। लेकिन हर युगके मनीषी आचार्यों और विद्वानोंने विशाल आगम-ग्रन्थोंके प्रतिपाद्यको युग भाषामें प्रस्तुत करनेका सदा प्रयत्न किया है । युगप्रधान आचार्य श्री तुलसीके वाचना प्रमुखत्वमें चल रहे आगम- सम्पादनका उपक्रम उसी श्रृङ्खलाकी एक सुदृढ़ कड़ी है । दूसरी बात है नीरसताकी, लेकिन वस्तु स्थिति यह है कि विषयोंकी विविधताके कारण इन्हें पढ़ने में रुचि और ज्ञान- दोनों परिपुष्ट होते हैं । जैन आगम - साहित्य उपमाओं और दृष्टान्तोंसे भरा पड़ा है । देश, काल, क्षेत्र, सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप अनेक उपमाएँ व दृष्टान्त प्रचलित होते हैं । इनके प्रयोगसे प्रतिपाद्यमें प्राण भर जाते हैं । वह सहज ही हृदयंगम हो जाता है । आगम-साहित्य में गम्भीर अर्थ भी सुबोध और सरस शैलीमें प्रकट हुआ है। इसमें उपमाओं और दृष्टान्तोंका अनन्य योग रहा है । उत्तराध्ययन एक पवित्र धर्मग्रन्थ है । पर उसमें प्रयुक्त उपमाओंकी बहुलताके कारण ऐसा लगता है, यह कोई काव्य-ग्रन्थ हैं । सम्भव है इसी लिये स्वयं विद्वान् विन्टरनित्जने इसे श्रमण-काव्य कहा है । वे आगे लिखते हैं - जैन आगमों में उदाहरणों और उपमाओंके माध्यमसे सिद्धान्तोंकी बात कहनेका अद्वितीय तरीका दृष्टिगत होता है। उनके इस कथनमें पर्याप्त यथार्थताके दर्शन होते हैं। क्योंकि अनेक स्थलों पर ऐसी व्यावहारिक उपमाओंका प्रयोग हुआ है, जिनके माध्यम से वर्ण्य विषय में सजीवता आ गई है । जैसे—''णाइणं सरइ बाले, इत्थी वा बुद्धगामिणी । " 3 समुद्र तीव्र गति से दौड़ती हुई जहाजको जिसके विशाल पाल बन्धे हैं, कैसी सजीव और विरल उपमासे उपमित किया गया है 1. A History of Indian Literature P. 466 2. P. 443 " ३. सूयगड़ो — ३१।१।१६ " "" " - १९८ - Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वितत पक्खा इव गरुड़ जुवई ।' -जैसे कोई गरुड़-युवती पंख फैलाए भागी जा रही हो । दोनों कानोंमें झूलते चमकीले कुण्डल युगलके मध्य स्थित दिव्य आकृतिको वर्णित करते हुए लिखा है-मानो पूनमकी रातमें शनि और मङ्गल नक्षत्रोंके बीच नयनानन्द शारदीय चन्द्र उग आया हो । समुद्री तूफानसे प्रताड़ित उछलती-गिरती और डूबती-तैरती नौकाका उत्प्रेक्षाओंके माध्यमसे कितना सजीव चित्र खींचा गया है "ज्ञाता" के नौवें अध्ययनमें "भयंकर समुद्री तूफानके कारण नौका ऊपर उछलती है और एक झटकेके साथ पुनः नीचे गिरती है; जैसे करतलसे आहत गेंद बार-बार पत्थरके आंगनमें उछलती-गिरती है। ऊपर उछलती हुई वह ऐसी लगती है जैसे विद्या-सिद्ध कोई विद्याधर-कन्या हो और नीचे गिरती हुई वह ऐसी लगती है, जैसे भ्रष्ट कोई विद्याधर बाला आकाशसे गिर रही हो। तेजी से इधर-उधर दौड़ती हुई वह ऐसी लग रही है, मानो गरुड़की तेज गतिसे भयभीत कोई नाग-कन्या इधर-उधर दौड़ रही हो। तीव्र-गतिसे आगे बढ़ती वह ऐसी लगती है; मानो जनताके कोलाहलसे घबराकर कोई अश्व-किशोरी स्थान-भ्रष्ट हो; भागी जा रही हो। ....गांठोंसे टपकते जल कणोंसे वह ऐसी लगती है मानो कोई नवोढ़ा पतिके वियोगमें आंसू बहा रही हो । क्षणभरकी स्थिरतासे वह ऐसी लगती है, मानो कोई योग-परिव्राजिका दूसरोंको ठगनेके लिये कपटपूर्ण ध्यान कर रही हो । अस्तु, जहाँ तक मैं सोचती हूँ आगम-साहित्यके प्रति यदि हमारा दृष्टिकोण सम्यक् हो जाता है तो कोई कारण नहीं, उसकी रसात्मकता और लयात्मकतामें भी हमें नीरसता या विसंगतियोंकी प्रतीति हो। जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है, जैन-आगम विशुद्ध अध्यात्म-शास्त्र है। अध्यात्मकी यात्रा पर यानायित व्यक्ति इनका अनुशीलन कर चैतन्य जागरण-सम्यक्त्वसे लेकर मोक्षप्राप्ति तककी समग्र प्रक्रिया जान-समझ सकता है। फिर भी वर्तमानके सन्दर्भमें यदि हम पूर्व मान्यताओं और प्रतिबद्धताओं से ऊपर उठकर व्यापक दृष्टिसे आगमों का अध्ययन-अनुशीलन करें तो पाएंगे कि आधुनिक युगको सर्वाधिक चर्चित और मान्य सभी ज्ञान-शाखाओं का विकसित और प्रामाणिक आधार हमें यहां उपलब्ध होता है। शरीर विज्ञान (( Physics) गतिविज्ञान ( Dynamics) रसायन-शास्त्र ( Chemistry ) fora ( Mathematics ) चिकित्सा-विज्ञान ( Biology ) मनोविज्ञान ( Psychology ) परामनोविज्ञान ( Parapsychology ) इन समग्र विषयोंसे सम्बन्धित प्रचुर-सामग्री आगमोंमें बिखरी पड़ी है। १. ज्ञाताधर्मकथा-८४० २. , , ११५६ ३. ९।१० - १९९ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य के शरीर-निर्माण और व्यक्तित्व निर्माणकी दृष्टिसे माता-पिता का क्या अनुदान रहता है, इस दृष्टिसे ठाण (३-४९४-४९५) द्रष्टव्य है । आगम-ग्रन्थोंमें निर्दिष्ट गर्भाधान कृत्रिम गर्भाधान और गर्भसंक्रमणकी प्रक्रियाको जानने वाला व्यक्ति वैज्ञानिक उपलब्धि “परखनली शिशु" पर आश्चर्यचकित नहीं होता। यह निर्विवाद है कि न्यूटन द्वारा उद्घोषित पृथ्वीके गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्तकी प्रस्थापनासे पूरा वैज्ञानिक जगत् उपकृत हुआ है, लेकिन परम वैज्ञानिक भगवान् महावीरने विभिन्न पृथिवियोंके गुरुत्वाकर्षणके प्रभाव क्षेत्रका तथा अन्य पृथिवियोंके निवासियों पर होने वाले उसके प्रभावका प्रतिपादन आज से २५०० वर्ष पहले ही कर दिया था। (देखें-अङ्गसुत्ताणि भाग २ भगवती सू २।११९) इसका अध्ययन अन्तरिक्ष अनुसंधान कार्यमें अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है। जीव विज्ञान, गणित और ज्योतिष शास्त्र की सामग्री तो आगमों में भरी पड़ी। साथ ही उस समय का भारतीय रसायन-शास्त्र और चिकित्सा विज्ञान कितनासमृद्ध और विकसित था इसकी भी भरपूर सामग्री उपलब्ध होती है। मनोविज्ञान और परामनोविज्ञानके बीज तो यत्र-तत्र बिखरे पड़े ही है पर अनेकत्र उन पल्लवित और पुष्पित रूप भी देखने में आता है वहां तात्त्विक विषयोंके विश्लेषणके साथ-साथ साहित्यिक और मनोवैज्ञानिक तथ्य भी गम्भीरताके साथ विश्लेषित हुए हैं । इस क्रमसे मनुष्य की शाश्वत मनोभूमिकाओं, मानवीय वृत्तियों तथा वस्तु सत्यों का मार्मिक उद्घाटन हुआ है।' वृक्ष, फल, वस्त्र आदि व्यावहारिक वस्तुओंके माध्यमसे मनुष्यकी मनः स्थितियोंका जैसा सूक्ष्म विश्लेषण आगमोंमें हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । स्वर-विज्ञान और स्वप्न-विज्ञानकी प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है । जैसे आज मनोविज्ञान व्यक्तिकी आकृति, लिपि और बोलीके आधार पर उसके व्यक्तित्वका अङ्कन और विश्लेषण करता है, वैसे ही आगमों में व्यक्तिके रङ्गके आधार पर उसके स्वरकी पहचान बताई है । जैसे श्यामा स्त्री मधर गाती है। काली स्त्री परुष और रूखी गाती है । केशी स्त्री रूखा गीत गाती है। काणी स्त्री विलम्बित गीत गाती है। अन्धी स्त्री द्रुत गीत गाती है। पिंगला स्त्री विस्वर गीत गाती है। अनयोगद्वारमें भी व्यक्तिकी ध्वनि और उसके घोषके आधार पर उसके व्यक्तित्वका बहुत ही सुन्दर विश्लेषण किया गया है। शब्द विज्ञानकी दृष्टिसे ठाणं ( १० के २,३,४,५) सूत्र विशेष मननीय है। जिनमें दस प्रकारके शब्द, दस प्रकारके अतीतके इन्द्रिय-विषय, दस प्रकारके वर्तमानके इन्द्रिय-विषय तथा दस प्रकारके अनागत इन्द्रिय-विषयोंका वर्णन है । ये इस बातकी ओर सङ्केत करते हैं कि जो भी शब्द बोला जाता है, उसकी तरङ्गे आकाशीय रिकार्ड में अङ्कित हो जाती है । इसके आधार पर भविष्यमें उन तरङ्गोंके माध्यमसे उच्चारित शब्दोंका सङ्कलन किया जा सकता है। जैन-आगमोंका कथा-साहित्य भी समृद्ध है। ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपा तिकदशा और विपाकश्रुत-ये अङ्ग तो विशेषतः कथाओंके माध्यमसे ही अपने कथ्यको प्रस्तुत करते हैं । उत्तराध्ययन, राजप्रश्नीय, भगवती आदिमें भी तत्त्व प्रतिपादनके लिए कथाओंका आलम्बन लिया गया है। १. ठाणं ३२२५, २६७ २. ठाणं ४।१२. ३४. १०१. १०७ ३. ठाणं ७/४८ - २०० - Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोंकी ये कथाएँ वस्तुतः मनोविज्ञान और परामनोविज्ञानके खोजियोंके लिए एक अमूल्य खजाना सिद्ध हो सकती हैं। यद्यपि आगमिक कथाएँ एक-सी शैली, वर्ण्य विषयकी समानता तथा कल्पना और कलात्मकता के अभाव में पाठकको प्रथम दृष्टिमें बाँध नहीं सकतीं। उनमें अतिप्राकृतिक तत्त्वोंकी भी भरमार -सी प्रतीत होती हैं । फिर भी जब-जब तथ्योंकी गहराईमें उतरकर रहस्यकी एक-एक परतको उतारनेका प्रयास होता है तो वे गहरे अर्थों और भावोंका प्रकटन करती हैं । अन्वेषणकी नयी राहें उद्घाटित होती हैं । यद्यपि इनको पढ़नेसे सामान्यतः कोई हृदयस्पर्शी मानवीय संवेदनाएँ उभरती हों, ऐसा नहीं लगता, पर इनमें जो पूर्वजन्म और पुनर्जन्म सम्बन्धी तथ्य उभरते हैं, वे निश्चित ही आजकी मनोविश्लेषणकी प्रक्रियाको पुनर्व्याख्यायित करते हैं । आगमोंकी जन्मान्तरीय कथाएँ मनोवैज्ञानिक अन्वेषणकी दृष्टिसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं । आजके वैज्ञानिक युगमें, जबकि प्रत्येक चिन्तन या तत्त्व प्रयोग और परीक्षणकी कसौटी पर चढ़कर अपनी मूल्यवत्ता सिद्ध करता है, नयी प्रतिष्ठा अर्जित करता है, वैसी स्थिति भी अतिप्राकृतिक तत्त्वको मात्र पौराणिक या काल्पनिक मानकर उपेक्षित नहीं किया जा सकता है । अति प्राकृतिक Phenomenon को टालना आजके to-date ज्ञान-विज्ञानके परिप्रेक्ष्य में अवैज्ञानिक ही प्रतीत होता है। क्योंकि आज भौतिकविज्ञान और मनोविज्ञानके क्षेत्रमें अतिप्राकृतिक घटनाएँ और अतीन्द्रिय अनुभव भी प्रयोग और अनुसंधानके विषय बन चुके हैं । अन्तश्चेतनाके मूल उसकी खोज में ये अप्राकृतिकसे प्रतीत होनेवाले तत्त्व भी अनिवार्य "डाटा " के रूपमें वैज्ञानिक स्वीकृति प्राप्त कर चुके हैं । जैनकथा - साहित्य विशेषतः भवान्तर कथाओंमें मनोवैज्ञानिक अन्वेषणकी भारी सम्पदा और सम्भावनाएँ सन्निहित हैं । उनकी शैली और शिल्पनकी ओर ध्यान न देकर एक बार मात्र उनके कथ्यका गहराई से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि जैन आगमोंकी कथाएँ चैतन्य जागरणकी जन्मान्तरगामिनी यात्रामें सार्थक कड़ियोंके रूपमें ग्राह्य हैं । उल्लिखित समग्र दृष्टियोंसे जैन आगम - साहित्यका अनुशीलन करनेसे विदित होता है कि भारतीय संस्कृतिक संरचना और भारतीय प्राच्य विद्याओंके विकसनमें आर्हत् वाङ्मयका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । आगम साहित्यने जिस तरह उत्तरवर्ती साहित्य और संस्कृतिको समृद्ध और संपुष्ट किया है, उसकी कहानी बहुआयामी और बहुसोपानी है । विषय वैविध्यकी धाराओं - प्रधाराओंमें स्रोतस्वित आगम वाङ्मयने भारतीय साहित्यको प्राणवन्त बनाया है और अपनी मौलिक विशेषताओंसे उत्तरवर्ती समग्र साहित्यकी धारा को सुपुष्ट किया है । भगवान् महावीरके उत्तरवर्ती मनीषी आचार्योंने प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंशके माध्यम से भारतीय साहित्यकी जो अद्वितीय व्यक्तित्व - रचनाकी उसका आधारभूत तत्त्व आगम- साहित्य ही रहा है । वस्तुतः भारतीय संस्कृतिके सर्वाङ्गीण अध्ययनके लिए जैन आगम साहित्यकी सामग्री उपयोगी ही नहीं, अनिवार्य भी है। जैन आगमोंके अध्ययन तथा जैन परम्परा का पूर्ण परिचय प्राप्त किए बिना हिन्दी साहित्यका प्रामाणिक इतिहास भी नहीं लिखा जा सकता । अस्तु, शोध विद्वानोंसे यह अपेक्षा है कि जैन आगम साहित्यके बारेमें अपने पूर्व दृष्टिकोणको बदलकर नयी दृष्टि निर्मित करें। वर्तमान को समग्र ज्ञान-विज्ञानकी विधाओंके साथ उनका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर आगम- साहित्यका पुनर्मूल्यांकन करें । युगप्रधान आचार्यश्री तुलसीकी वा चनाप्रमुखतामें युवाचार्य श्री महाप्रज्ञजी द्वारा सम्पादित और जैन विश्व - भारती लाडनूँ द्वारा प्रकाशित या प्रकाश्यमान आगम साहित्य निश्चित ही इस दिशामें हमारा पथदर्शन कर सकता है । २६ २०१ - Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेत भिक्षु भोगीलाल जे० सांडेसरा; बड़ौदा (गुजरात) बम्बई संस्कृत सीरीजसे प्रकाशित पश्चिम भारतीय पंचतन्त्रके तन्त्र ३ का श्लोक ७६ निम्न है : नराणां नापितो धूर्तः, पक्षिणां वायसस्तथा । दंष्ट्रीनां च श्रृगालस्तु, श्वेतभिक्षुस्तपस्विनाम् ॥३-७६।। अर्थात् मनुष्यों में नाई, पक्षियोंमें कौआ, दाढ़वाले प्राणियोंमें शृगाल, तथा तपस्वियोंमें श्वेतभिक्षु धूर्त होता है। पञ्चतन्त्रके प्रायः सभी अनुवादकोंने श्वेत भिक्षुका अर्थ श्वेताम्बर जैन साधु किया है । कुछ वर्ष पूर्व गुजराती साहित्य परिषद्ने पञ्चतन्त्रकी सभी उपलब्ध प्रतियोंके पाठोंके आधार पर उसका एक उपोद्धात और तुलनात्मक टिप्पणी सहित गुजराती अनुवाद प्रकाशित किया था। उस समय भी मुझे लगा था कि श्वेत भिक्षका यह अर्थ ठीक नहीं लगता। पश्चिम भारतीय पञ्चतन्त्र प्रायः जैन पाठ-परम्परा पर आधारित है, यह बात उपोद्घात (पृ० २६-२९) में बताई गई है। इसीलिए इसमें श्वेताम्बर जैन साधुका उल्लेख आना कठिन ही था। हार्वर्ड ओरियन्टल सीरीज द्वारा प्रकाशित पूर्णचन्द्र कृत पंचाख्यानके तन्त्र ३ श्लोक ६६ में भी इसीके अनुरूप पाठ दिया गया है : नराणां नापितो धूर्तः पक्षिणां चैव वायसः । चतुष्पदां शृगालस्तु, श्वेतभिक्षुस्तपस्विताम् ॥३-७७॥ यह पूर्णभद्र खरतरगच्छीय जैन साधु जिनपति सूरिके शिष्य थे। इन्होंने पञ्चतन्त्रका ११९९ में पञ्चाख्यानके रूपमें रूपान्तर किया था । अब प्रश्न यह है कि श्वेतभिक्षु शब्दका क्या अर्थ है ? पंचाख्यानकी शब्दसूचीमें उसके सम्पादक डा० हर्टले टांकेलाने बताया है कि याकोबीके मतानुसार श्वेतभिक्षु वह है जिसका उल्लेख हरिभद्रसूरिकृत गद्य कथा समराइच्चकहा (आठवीं सदी) में पंडरभिक्षु (सं०, पांडुर भिक्ष)के रूपमें किया गया है। अपने व्यक्तिगतपत्र व्यवहारमें डा० हर्टलेने डॉ० याकोबीका यही मत पुष्ट किया है। यद्यपि उन्होंने 'समराइच्चकहा में इस शब्दके उपयोगका निश्चित स्थान नहीं बताया है क्योंकि पञ्चाख्यानका प्रकाशन १९०८ में हुआ था जबकि याकोबी सम्पादित समराइच्चकहा (बिम्बिलयोथेका इण्डिका ग्रन्थांक १६९) का प्रकाशन १९२६ में हआ। इससे स्पष्ट है कि श्वेत भिक्ष और पंडरभिक्खु-दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । 'समराइच्चकहा में पंडरभिक्खुका उल्लेख निम्न प्रकारसे किया गया है : दिठ्ठो या णण पियवयंसओ नागदेवो नाम पंडरभिक्खू वन्दिओ सविणयं । कहवि पञ्चभिन्नाओ भिक्खुणा (पृ० ५५२) -२०२ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rose fragrh विषयमें इसके आगे और भी विवरण मिलता है । "नागदेवेण भणियं । वच्छ, इमं भिक्खुत्तणं । डिस्सुयमणेण । साहिओसे गोरसपरिवज्जणाइओ नियय किरियाकलावो । परिणओ य एयस्स । अइक्कंत कइवि दियहा । दिन्ना य से दिक्खा करेइ विहिया गुठ्ठाणं" ( पृ० ५५३) । यहाँ प्रथम अवतरणमें उल्लिखित जिस नागदेवने पण्डरभिक्खुके रूपमें दीक्षा ली, उसीके विषयमें यह बताया गया है कि वह इसके पूर्व अपनी वाग्दत्तासे मिलने गया था। इसके बाद उसका आगेका विवरण निम्न है : "वियलिओ झाणासओ उल्लसिओ सिगेहो, 'समासम समाससत्ति अन्भुक्खिया कमंडलु पाणिएअ" ( पृ० ५५४) । इन अवतरणोंमें यह पता सम्मिलित था और ये भिक्षु अपने नहीं खाता । जैन छेदसूत्र निशीथसूत्रकी चूर्णि में (सातवीं सदी) इस बातका स्पष्ट निर्देश है कि पण्डरभिक्षु गोशालक के शिष्य थे । ये महावीरके समकालीन आचार्य गोशालक द्वारा संस्थापित आजीवक सम्प्रदाय के थे : आजीवगा गोसालसिस्सा पंडरभिक्खुआ वि भणति । ( विजय प्रेमसूरिजी की आवृत्ति, ग्रन्थ ४, पृ० ८६५ ) जैन आगम साहित्य में पण्डरभिक्खुके पर्यायवाचीके रूपमें पण्ड रङ्ग (संस्कृत - पाण्डुरागं श्वेतवस्त्र ) शब्दका प्रयोग मिलता है । महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित अनुयोग द्वार सूत्रके सूत्र क्रमांक २२८ में निम्न उद्धरण मिलता है : चलता है कि इन भिक्षुओंके क्रियाकलापमें गोरस आदिका परित्याग साथ कमंडलु रखते थे । यह वर्णन श्वेताम्बर साधुओंकी चर्चासे मेल से किं ते पासण्डनामे ? पंचविहे पण्णत्ते | तं जहा समणये पंडरंगए भिक्खू, कावलियए तावसये ॥ इस सूत्र की चूर्णि पण्डरङ्गका पर्यायवाची ससरक्ख ( सरजस्क धूलियुक्त) आता है । मुनिश्री कल्याण विजयजी ने अपनी श्रमण भगवान महावीर नामक पुस्तकमें पृ० २८१ पर यह अनुमान लगाया हैं कि सम्भवतः आजीवक नग्न भिक्षु होते थे । वे सम्भवतः अपने शरीर पर कोई भस्म या श्वेतधूलि लगाया करते थे । इसीलिए इन्हें पण्डरङ्ग या ससरक्ख कहा गया है । अनुयोगद्वार सूत्रके टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र ने उपरोक्त विवरणकी व्याख्या में लिखा है कि आजीवक साधु श्रमण ही होते थे और पांडुरङ्ग आदि अनेक प्रकारके भिक्षु पाखण्ड या अजैन मतके अनुयायी होते थे । इन्होंने अपनी यह टीका बारहवीं सदी में लिखी थी । ऐसा प्रतीत होता है कि पाखण्ड विषयक अनेक परम्परायें उनके समय तक समाप्त हो चुकी होंगी । लेकिन गोशालकके अनुयायी आजीवक भाग्यसे कहीं दृष्टिगोचर होते होंगे। यह भी सम्भव कि पण्डरङ्ग शब्दकी व्याख्याके सम्बन्धमें मलधारी हेमचन्द्रके मनमें कुछ भ्रान्ति रही हो । लेकिन यहाँ हमारे लिए महत्वकी बात यह है कि उन्होंने पण्डरङ्ग को पाखण्ड या अजैन माना है । जैन आगम ग्रन्थोंके ओघनिर्युक्ति के भाष्य में भी पण्डुरङ्ग शब्दका उपयोग मिलता । जब कोई जैन साधु चातुर्मासके लिए किसी ग्राम-नगरमें प्रवेश करता है, तब उस समयके अपशकुनोंके सम्बन्ध में ग्रन्थकारने लिखा है : चक्कयरम्मि भमाडो, भुक्कामारो य पंडुरंगमि । तच्चिन्नअ रुहिरपडनं, बोडिअमसिये धुवं मरणं ॥ - २०३ - Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् यदि ग्राम प्रवेशके समय कोई चक्रधर भिक्षु सामने मिले, तो चातुर्मासमें भ्रमण करना पड़ेगा, पांडुरङ्ग भिक्षु मिले, तो भुखमरी भोगनी पड़ेगी, बौद्ध भिक्षु मिले तो रक्तपात सहन करना पड़ेगा और दिगम्बर या अश्वेत भिक्षु मिलने पर निश्चित रूपसे मरण होगा। इसी प्रकार यह भी महत्त्वपूर्ण है कि पालि साहित्यमें भी पण्डरङ्ग परिव्राजकका उल्लेख मिलता है। इस तथ्यकी ओर मेरा ध्यान प्रो० पी० वी० वापटने आकृष्ट किया है। इससे भी यह स्पष्ट होता है कि श्वेत भिक्ष श्वेताम्बर जैन साध नहीं है । इसके समर्थन में अनेक प्रमाण दिये जा सकते हैं । उदाहरणा दीपवंसमें बताया गया है कि सच्चे बौद्ध भिक्षुओंका तो सत्कार किया जाता है जबकि पण्डरङ्ग भिक्षुओंके सत्कारमें क्षीणता आई है : पहीन-लाभ-संकारा तित्थिया पुथुलद्धिका । पंडरंगा जटिला च निगंठाऽचेलकादिका ॥ अर्थात् जिन विविध विचारधाराओंके तीर्थंकरोंके सरकारमे क्षीणता आई है, उनमें पण्डरङ्ग, जटाजूटधारी, निर्ग्रन्थ या अचेलक तीर्थंकर आदि समाहित हैं। विनयपिटककी टीका समन्तपासादिकामें यह स्पष्ट लिखा है कि पण्डरङ्ग परिव्राजक ब्राह्मणपरम्पराके थे। समन्तपासादिकाकी एक टीका, सारत्थदीपनीमें इस विषयकी व्याख्यामें लिखा है कि पंडरंग परिव्राजक ब्राह्मण जातिके होते हैं। यह दर्शानेके लिए ही ब्राह्मण जातीय पासडांन नामसे उनका उल्लेख किया गया है । यहाँ पण्डरङ्ग आदिको ही पाखण्ड कहा गया है क्योंकि ये सब पाखण्डका जाल फैलाते हैं । धम्मपद अट्ठकथामें 'पंडरंग पव्वज्ज पव्वजित्वा' पद आया है। इसका अर्थ ही यह है कि पण्डरङ्ग भिक्षुको बौद्ध भिक्षुकी दीक्षा दी जाती थी। उपरोक्त चर्चासे यह स्पष्ट है कि पञ्चतन्त्रके ३.७६ श्लोकोंमें श्वेतभिक्षु शब्दका अर्थ श्वेताम्बर साधु नहीं है । ये श्वेत भिक्षु अजैन सम्प्रदायके भिक्षु होते थे जिन्हें पण्डरभिक्षु , पण्डरङ्ग, पण्डुरङ्ग और पण्डरङ्ग परिव्राजक कहा जाता था। पालि साहित्यमें पडरङ्गको ब्राह्मण जातीय पाखण्ड कहा गया है जबकि निशीथचूणिके समान प्राचीन जैन ग्रन्थोंमें पण्डरङ्गको आजीवक बताया गया है। इसमें क्या सत्य है, यह एक पृथक् अनुसन्धानका विषय है। पण्डरङ्ग श्वेतभिक्षु आजीवक थे या ब्राह्मण जातीय थे, इसके निर्णयके लिए विशेष प्रमाणोंकी आवश्यकता है। - - २०४ - Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पद्मपुराण' और 'मानस' के राम डा० लक्ष्मीनारायण दुबे जैनाचार्य रविषेण कृत 'पद्मपुराण'का जैन साहित्यमें वही स्थान है जो कि हिन्दी साहित्यमें 'रामचरितमानस'का । 'पद्मपुराण' सन ६७८ ई० में लिखा गया जब कि 'रामचरितमानस' सन् १५७४-७७ के मध्य । सम्राट हर्ष तथा हर्षोत्तरकालीन परिस्थितियाँ ही रविषेणके समयके परिवेशका निर्माण करती है। हर्षने ४० वर्ष तक शासन किया था। उनकी मृत्यु सन् ६४८ में हुई थी। रविषणके समयमें ह्य आनचुआंग एवं इत्सिग नामक यात्रियोंने हमारे देशकी यात्रा की थी और अपने महत्वपूर्ण वृत्तांत लिखे थे। तुलसीदास ( सन् १५३२-१६२३ ) के समयमें अकबर और जहाँगीर सम्राट थे। आचार्य रविषण तथा गोस्वामी तुलसीदास दोनों ही रामचरितकी गरिमाका गायन करते हैं। दोनोंने रामकथाकारोंको अपनी प्रणति प्रेषित की है । दोनों ही रामाख्यानको प्रश्न अथवा शंकासे स्थापित करते हैं। दोनोंकी महत्त्वपूर्ण कृतियोंमें साम्यकी अपेक्षा वैषम्यके प्रावधानोंका आधिक्य है। दोनों आदिकवि वाल्मीकि के प्रति ऋणी है। दोनों रचनाकारोंका दर्शन एक-दूसरेका विरोधी है । एक वेदनिंदक है तो दूसरा वेदोंके प्रति परम निष्ठावान् । रविषेण जहाँ रामको महापुरुष मानते हुए अपने कर्मके द्वारा मोक्ष प्राप्त करनेवाले भव्य प्राणीके रूपमें निरूपित करते हैं, तुलसी वहाँ उन्हें मर्यादापुरुषोत्तमके साथ ही साथ परब्रह्म निरूपित करते हैं जिन्होंने धर्मके रक्षार्थ अवतार ग्रहण किया। दोनोंके दृष्टिकोणोंमें मूलभूत अन्तर होनेके कारण दोनोंको कथाओंमें भी पर्याप्त अन्तर आ गया है। रविषेण अष्टम बलभद्र रामके चरित्रको वर्णित करके जैनधर्मको चेतनाको पाठकों तक सम्प्रेषित करना चाहते हैं परन्तु तुलसी 'विधि हरि सम्भु नचावन हारे' पर ब्रह्मरूप श्रीरामका चरित्र-गायन करके राम-भक्तिका परमोन्नयन करते हैं। रामकथाको जो उदात्त स्थिति तथा गरिमा तुलसीने दी, वह रविषेणसे सम्भव नहीं हो सकी। तुलसीने मर्यादाका पालन किया है परन्तु रविषण कहीं-कहीं कामोद्दीपन स्थितिको जन्म देते हैं। दोनों कृतियोंके नायक श्रीराम हैं । ‘पद्मपुराण' में उनका नाम पद्म भी है । रविषेणके राम नौहजार रानियोंके स्वामी तथा मोहाभिभत हैं परन्तु तुलसीके राम एक पत्नीव्रतधारी, तपस्वी और मोहभंजक है । दोनोंने रामके व्यक्तित्वको अत्यन्त आकर्षक, मार्मिक तथा प्रभावोत्पादक रूपमें उपस्थित किया है। दोनोंने रामको शक्तिके भण्डार और शीलके अतुलनीय निधानके रूपमें प्रस्तुत तथा चित्रित किया है । ‘पद्मपुराण' में तपोवनकी स्त्रियाँ राम-लक्ष्मणको देखकर मतवाली हो जाती हैं परन्तु 'मानस'की ग्रामवनिताएँ मुग्धावस्थाका वरण करती हैं। 'पद्मपुराण' या 'पद्मचरित' में रावणका वध रामके हाथों न होकर लक्ष्मणके द्वारा होता है क्योंकि जैन मान्यतानुसार नारायणके हाथों प्रतिनारायणका वध होता है, बलदेवके हाथों नहीं। राम बलदेव हैं, लक्ष्मण नारायण और रावण प्रतिनारायण । इसी कारणसे 'पद्मपुराण में रामका चरित्र लक्ष्मण के समक्ष दबा-सा प्रतीत होता है। शूर्पणखाकी नाक काटना, बालिको छिपकर मारना आदि कार्य 'मानस के राम करते हैं परन्तु 'पद्मपुराण'के राम इनसे स्पष्टतया बचे रहनेके कारण, परवर्ती आलोचनाके पात्र नहीं बन सके । 'पद्मपुराण'की - २०५ - Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाँति 'मानस' में सीताकी अग्नि परीक्षाका परवर्ती प्रसङ्ग आगे नहीं बढ़ पाया । रविषेणके राम अन्त में केवली होते हैं जब कि तुलसीके रामका अन्त आख्यान में समाविष्ट नहीं हो पाया । तुलसीको रामकथा कतिपय पात्र यथा मंथरा, शवरी, अनसूया, सम्पाति, वसिष्ठ, विश्वामित्र, शिव, निषाद, काकभुशुण्डि और सुलोचनाको रविषेणने नगण्य स्थिति प्रदान कर दी है। दोनोंने ही श्रेष्ठ तथा साहित्यिक संस्कृत तथा अवधी भाषाकी निदर्शना की है । वीर रसके वर्णनमें रविषेण तुलसीसे आगे हैं । 'पद्मपुराण' में 'मानस' से दुगुने से भी अधिक छन्दोंका उपयोग हुआ है । रविषेणने कतिपय छन्दोंको स्वयं निर्मित किया है । दोनों 'मानव हितार्थ धर्मका विधान करते | 'पद्मपुराण' में भारत के सुख-शांति - वैभवकी समन्वित संस्कृतिका वास्तविक चित्र है और 'मानस' में आदर्शनिष्ठ संस्कृतिका । 'नानापुराण निगमागम सम्मतं यद्रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि के आधारपर यह अनुमान है कि शायद तुलसीने 'पद्मपुराण' को भी देखा हो । यह तो नहीं कहा जा सकता कि रविषेणने तुलसीको प्रभावित किया था परन्तु, चूँकि, जैन कवि बनारसीदास उनके परिचित मित्र थे, अतएव, उनके माध्यम से तुलसीने 'पद्मपुराण' की कतिपय उक्तियाँ सुनी या पढ़ी हों । तुलसीपर जैनधर्मका कोई प्रभाव नहीं पड़ा । - २०६ - Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धार्मिक साहित्यमें उपमान और उपमेय ____ डॉ० अमिताभकुमार, खिमलासा, सागर, म० प्र० स्थूल जगत्के पदार्थोके उदाहरणोंके माध्यमसे गम्भीर, गूढ़ या आध्यात्मिक जगत्के तथ्योंको बोधगम्य बनानेकी परम्परा अति प्राचीन है। साहित्य जगत्के लिए यह प्रक्रिया जहाँ साहित्यकारके गम्भीर अनुभव, परीक्षण और चिन्तनका भान कराती है, वहीं यह साहित्यमें रोचकता और लालित्य भी उत्पन्न करती है । इस प्रक्रियाको साहित्यका अलङ्करण माना जाता है । अलङ्कारपूर्ण साहित्यमें कालिदासका नाम अग्रणी माना जाता है, 'उपमा कालिदासस्य'। साहित्यके क्षेत्रमें इस आलङ्कारिकताकी पर्याप्त विवेचना और समीक्षा होती रही है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे भाषा और भावोंका अलङ्करण साहित्यके क्षेत्रमें ही सीमित मान लिया गया हो। वस्तुतः यह तथ्य नहीं है। विभिन्न धर्मग्रन्थोंके अवलोकनसे यह पता चलता है कि उनमें भी अध्यात्मके सिद्धान्तों और तत्त्वोंकी रोचक व्याख्या इसी माध्यमसे की जाती है। सामान्यतः यहाँ गृढ़ सिद्धान्त या तथ्य उपमेय कहा जाता है और जिस उदाहरणसे उसका विवरण समझाया जाता है उसकी तुलना की जाती है, वह उपमान या उपमा कहा जाता है। धार्मिक तत्त्वोंके व्याख्यानमें प्रायः उपमाका ही उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त भी अन्य अनेक साहित्यिक अलङ्कार होते हैं पर उनका उपयोग धार्मिक साहित्यमें विरल ही होता है। इस लघु लेखमें मैंने जैनोंके एक प्राचीन धार्मिक ग्रन्थके उपमानउपमेयोंका संक्षिप्त विवरण देनेका प्रयत्न किया है जिसमें यह भी बताया गया है कि विभिन्न उपमानोंके आधारपर उपमेयोंके किन गुणोंका अनुमान लगता है और ये उपमान आध्यात्मिक तत्त्वोंको समझानेके लिये कितने उपयुक्त हैं। धार्मिक साहित्यमें इनके विस्तार व विकासकी प्रक्रियाका अध्ययन और विवेचन एक रोचक अध्ययन क्षेत्र प्रमाणित हो सकता है। धार्मिक ग्रन्थका चयन : अष्ट पाहुड़ जैन ग्रन्थोंमें आचार्य कुन्दकुन्दके ग्रन्थ पर्याप्त प्राचीन माने जाते हैं । ये ईसाकी पहली सदीमें लिखे गये थे। यह कहा जाता है कि उत्तम पद चाहनेवालोंको इन ग्रन्थोंका सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन करना ज्य वर्णी जी प्रायः समयसार पर ही प्रवचन करते थे। पिछले कुछ वर्षोंसे समयसारने भिन्नभिन्न मतवादोंको जन्म दिया है और प्रत्यक्षतः समाजके विशृङ्कलित करना प्रारम्भ किया है। यह कितने दुर्भाग्यकी बात है कि जिस ग्रन्थमें आत्माको परमात्मा बनानेकी प्रक्रियाको तत्त्वस्पर्शी निरूपण किया गया हो, वही आत्मधारियों के विशृङ्खलनका कारण बन रहा है। समाजके धर्मगुरुओंको समयसारकी इस व्यथाको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये। 'समयसार' की इस दयनीय स्थितिके कारण मैंने उसे अपने इस लेखका विषय बनाना उचित नहीं समझा। इसके बदले, उसीके समकक्ष आ० कुन्दकुन्दके एक अन्य ग्रन्थ अष्टपाहड़को मैंने अपने अध्ययनके लिये चुना है। इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी है कि यह अध्यात्मसे सम्बन्धित विभिन्न क्षेत्रोंको समाहित करता है। इसमें निरूपित उपमान-उपमेयोंका विवरण प्रायः सभी धार्मिक एवं आध्यात्मिक मन्तव्योंका समाहरण करता है। सोलहवीं सदीके टीकाकार श्रुतसागर सूरिके समयमें इसके छह प्राभूत ही - २०७ - Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलब्ध रहे होंगे। पर बादमें दो प्राभृत (लिंग और शील प्राभृत ) और उपलब्ध हो गये, फलतः यह अष्टप्राभृत अष्ट पाहुड़ हो गया । इसीलिये अन्तिम दो प्राभृतों पर श्रुतसागरने टीका नहीं लिखी । इस टीकाके पर्याप्त उत्तरवर्ती होनेके कारण यह प्रायः समस्त उपमेयों ओर उपमानोंका समाहार करते हुए लिखो गई है। इसलिये यह हमारे अध्ययनकी दृष्टिसे अत्यन्त उपयोगी है। इन उपमानों और उपमेयोंका उपयोग अन्य अनेक ग्रन्थोंमें भी मिलता है । इस टीकायुक्त अष्ट पाहुड़का हिन्दीमें अनूदित एक संस्करण महावीरजी संस्थानसे प्रकाशित किया गया है। यही संस्करण इस लेखका आधार है। विभिन्न प्रकारके उपमेय धार्मिक तथ्योंके वर्णनमें प्रायः चार दर्जनसे अधिक उपमेयोंका उपयोग होता है। इनका विवरण सारणी १ में दिया गया है। इन उपमेयोंके अन्तर्गत धर्म-कर्म, सम्यक्त्व, ज्ञान, आत्मा और जीव, स मोक्ष, राग, तप, विषय और पाप आदि समाहित होते हैं। सारणीसे यह भी प्रकट है कि कर्म, सम्यक्त्व, ज्ञान, संसार, शरीर, विषय, राग, मुनि और तप जैसे महत्त्वपूर्ण उपमेयोंके लिये अनेक उपमानोंका उपयोग किया गया है। यही नहीं, अनेक उपमेयोंके लिये भी एक ही उपमानका उपयोग किया गया है। उदाहरणार्थ, आत्मा और कर्म-दोनोंका उपमान राजा है । इसी प्रकार धर्म, मोह, संसार, पुनर्जन्म, रत्नत्रयके लिये वृक्षको उपमान बनाया गया है। इससे यह प्रकट होता है कि अनेक उपमेयोंके लिये एक उपमानका उपयोग विशेष विशेष गणोंके महत्त्वको प्रदर्शित करता है। यही नहीं, इस तथ्य को सामान्य ही मानना चाहिये कि प्रत्येक उपमेयके लिये प्रयुक्त उपमानका विशिष्ट गुण ही समीचीन अर्थका द्योतन करता है। उपमानके सभी गण उपमेय पर अनुप्रयुक्त नहीं होते । फिर भी, अनेक उपमानोंके कारण सामान्य भ्रान्ति, द्विविधा तथा विपर्यास होता है । क्योंकि वे तथ्योंके तत्त्वको उतनी सूक्ष्मता तक ग्रहण नहीं करा पाते जितना अभीष्ट है । विविध प्रकारके उपमान सारणी २ में प्रदर्शित अनेक उपमानोंकी सूचीको देखने पर प्रकट होता है कि प्रायः पाँचसे अधिक दर्जन उपमान धार्मिक तत्त्वोंको समझानेके लिए प्रयुक्त किये गये हैं। समग्रतः इन्हें पाँच कोटियोंमें वर्गीकृत किया जाता है। इनमें अनेक उपमान प्राकृतिक वस्तुयं और घटनायें हैं । अनेक उपमान सामान्य वस्तुओंके रूपमें हैं । ग्रह और धातुतत्त्वोंने भी कुछ उपमानोंका रूप लिया है । कुछ उपमान भावात्मक अनुभूतियाँ भी हैं। इन उपमानोंके आधार पर विभिन्न धार्मिक उपमेयोंका विवरण सजाना वास्तवमें एक मनोरंजक बौद्धिक व्यायाम होगा। इन उपमानोंकी विविधतासे एक तथ्य तो स्पष्ट होता ही है कि जैनाचार्य उत्कृष्ट कोटिके प्रकृति निरीक्षक थे। वे अनेक प्रकारको प्राकृतिक घटनाओं एवं वस्तुओंके विशेष विशेष गुणोंका ज्ञान रखते थे। सारणी ३ में इन्हें संक्षेपित किया गया है । इनके माध्यमसे मनोवैज्ञानिक रूपसे आध्यात्मिक तत्त्वोंकी गृढताको सहज बोधगम्य बनानेकी कलामें पारङ्गत थे। इस विवरणमें हम केवल तीन बह-उपमानी उपमेयों पर विचार कर कुछ उपपत्तियाँ प्रस्तुत करेंगे। संसारके उपमान जैन दर्शनमें दो प्रकारके जीव बताये गये हैं-संसारी, दृश्य जगत्के निवासी और मुक्त-अदृश्य लोकके निवासी । संसारी जीवोंके जीवनका चरम लक्ष्य दृश्य लोकको छोड़कर अदृश्य लोकमें पहुँचना बताया गया है। इसीलिये अदृश्य लोकको लक्ष्मी, प्रिया या राजमहलके उपमानोंसे निरूपित किया गया है। निश्चित ही, ये तीनों उपमान सांसारिक जगत्के लिये आकर्षण हैं । ये अतिभ्रम, अर्थोपार्जन एवं प्राकृतिक विशिष्टताओंके कारण प्राप्त होते हैं । संसारी जीवका सामान्य जीवन ही इनके चारों - २०८ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओर घूमता है । इनकी प्राप्ति जीवनमें एक विशेष प्रकार की सार्थकताका आभास करती है । इन्हें पुण्य और पूर्वजन्मका फल बताया जाता है । जब ये वस्तुयें संसारमें ही मिल सकती हैं, तब अदृश्य लोककी क्या आवश्यकता ? इसलिये अदृश्य लोकको संसारसे विलक्षण होना ही चाहिये । यह बताया गया है कि इस लोक चिरस्थायित्व है, जबकि संसार अपने जन्म-मृत्युके कारण क्षणस्थायी है । यद्यपि ये उपमान भी चिरस्थायी नहीं, पर इनके स्थायी रूपसे मिलनेकी कल्पनामें एक विशेष सन्तोष व सुखको अनुभूति सहज ही हो । इसका कारण यह है कि इस जीवनमें इन वस्तुओंसे प्राप्त होनेवाले क्षणिक सुखोंसे हम परिचित हैं । ये हमें सदैव क्रियाशील एवं गतिशील बनाये रखते हैं । फलतः अदृश्य लोक या मुक्तिके इन उपमानोंसे हमें उनके भौतिक अस्थायित्वके गुणकी ओर नहीं, अपितु उनके सौन्दर्य, उनके प्रति अनुरक्ति और उनसे प्राप्त होने वाले सहज एवं महिमामण्डित सुखके गुणकी ओर विशेष ध्यान देना चाहिये । इसलिये मुक्तिकी तुलना में संसारके लिये ऐसे उपमान दिये गये हैं जिनमें सुखानुभूति नहीं होती । इन उपमानोंकी संख्या सात है । संसार संताप है । संताप शब्द सुनते ही दुःखका भान होता है । संसारको समुद्र भी बताया गया है । यह अगाध होता है, गहन होता है और असीम होता है । उसको पार करना कठिन होता है । केवलज्ञानी जन ही इस समुद्रको पार कर सकते हैं । यह उपमान संसारकी असीमता, गहनता और उससे पार होनेकी जटिलताका बोध कराता है । यहाँ समुद्रसे रत्नोंकी प्राप्तिको कोई महत्त्व नहीं दिया गया है क्योंकि यह सुखकर प्रतीतिका मूल है । फलतः समुद्रका नाम सुनते ही जो एक विशेष प्रकारकी अरुचिकर अनुभूति होती है, वह संसारका प्रतीक है। समुद्र में भँवर, तूफान आदि भी उठते हैं । ये भी कष्टकर होते हैं । शान्त समुद्रसे तो एक बार बचा भी जा सकता है पर भँवर व तूफानोंसे निकलना और भी दुष्कर हैं । भँवर और तूफानोंकी विकरालता एवं जटिलताकी कल्पना ही की जा सकती है । भँवरके उपमानसे संसारकी विकरालता प्रकट होती है । संसारके लिये वन, वृक्ष, लता और अङ्कुर उपमानोंका भी उपयोग किया गया है । वस्तुतः ये प्राकृ तिक पदार्थ हैं । इनकी हरियाली एवं नवजीवन देखते ही बनते हैं । बहुतेरे महापुरुषोंने अनेक वनों और वृक्षों को अपने विहारसे पवित्र किया है और उनके तले बोधि प्राप्त की है। वृक्ष और वन संन्यास के आयतन हैं । ये हमारे जीवनके रक्षक हैं । ये हमें बरसात लाते हैं । औषधियाँ, खाद्य और आवास देते हैं । इस प्रकार वन और वृक्ष हमारे लिये पर्याप्त सुखकर अनुभूतिके साधन हैं । सम्भवतः, संसार भी हमें अनेक प्रकार से ऐसी अनुभूति करता है । लेकिन इस अनुभूति के साथ वनमें विकरालता भी होती है । उसमें जङ्गली जानवर, अत्यन्त कटीले वृक्ष और लताएँ होती हैं । इसमें शत्रुओं और डाकुओंकी भी सम्भावना है । एक बार वनमें प्रविष्ट होने पर उससे निकलना बड़ा कठिन होता है क्योंकि वहाँ प्रशस्त पथ नहीं होता । अनेक पगडण्डियाँ होती हैं और मनुष्य भूलभुलैयामें फँस जाता है । वनोंका यह कुरूप ही संसारके उपमानके रूपमें प्रकट किया गया है । बाह्य आकर्षण और किंचित् बाह्य सुखानुभूतिकी कामनासे उसके अन्दर प्रवेश करना एक ऐसे चक्र में फँसना है जहाँ दिशाबोध न हो । वस्तुतः ये प्राकृतिक और सघन वन हैं जहाँ यह स्थिति स्वाभाविक हो सकती है । आजके मानव निर्मित वनोंमें ऐसी स्थिति नहीं होती। लेकिन संसाररूपी वनमें तो कर्मरूपी शत्रु सदैव रहते हैं । इन्हें जीतने के लिये ज्ञान, भावना, क्षमा, ध्यान एवं चरित्ररूपी शस्त्रों का उपयोग करना पड़ता है । संसारको वृक्षकी उपमा भी दी गई । वृक्षकी जड़ें तो सूक्ष्म, अदृश्य और दूर-दूर तक फैली रहती हैं । वे उसकी भीतरी शक्तिकी प्रतीक हैं । वृक्षका तना भी मजबूतीका द्योतक है । वृक्षका ऊपरी रूप उसके विस्तार और शोभाका द्योतक है । इसी प्रकार संसारके आकर्षणकी शक्ति प्रचण्ड होती हैं और उसमें २७ - २०९ - Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकर्षण भी असीम होता है । इस संसाररूपी वृक्षको ध्यानरूपी कुठारसे ही छेदा जा सकता है । संसाररूपी वृक्षकी छाया सामान्य एवं थके हुये मनुष्यको जो शान्ति देती हैं, वह यहीं अभिप्रेत नहीं हैं । वस्तुतः यह शान्ति ही इसका आकर्षण है । अदृश्य लोकमें इससे अधिक एवं चिरस्थायी शान्ति होती है । अतः उसे ही जीवनका लक्ष्य माना गया है । संसारको अङ्कुर और लताकी उपमा भी दी गई है । वास्तवमें, ये दोनों ही जीवनकी मधुरताके प्रतीक हैं । लेकिन ऐसा माना जाता है कि संसारमें बने रहनेके दो कारण होते हैं— कर्म और मोह । कर्म - बीजसे संसार अङ्कर उत्पन्न होता है और मोहबीजसे संसार लता उत्पन्न होती है। ऐसा भी माना जाता है कि कर्मबीज और मोहबीजके नष्ट होने पर संसाररूपी अङ्कुर और लता उत्पन्न ही न हो सकेगी । पर यदि ये उत्पन्न हो ही गये, तो इन्हें भावनारूप कुदाली या ध्यानरूपी अग्निसे नष्ट करनेका यत्न करना चाहिये । यदि जैनधर्म भावप्रधान है, तो अङ्कुरों और लताओंको नष्ट करनेका उपदेश अहिंसक दृष्टिके विपरीत जाता है । सम्भवतः यही कारण है कि इन अङ्करों और लताओंको मूलतः नष्ट करने का साहस एक लाखमेंसे लगभग पन्द्रह व्यक्ति ही जुटा पाते हैं । ये अपने उद्देश्यमें कितने सफल होते हैं, यह इसलिये नहीं कहा जा सकता कि पञ्चम और पष्ठ कालमें मुक्ति योग्य क्षमता आगम निषिद्ध है । फिर भी, यह मानना चाहिये कि संसारके इन उपमानोंसे इसकी ऐसी दुखमयता व्यक्त नहीं होती जैसी अनेक प्रवचनों और ग्रन्थोंकी व्याख्याओं में पाई जाती है । लेकिन संसारको उत्तम सुखका स्थान भी कैसे कहा जा सकता हैं ? शरीरके उपमान आत्मिक उत्थानकी प्रक्रियाको विकसित करनेके लिये यह आवश्यक है कि वर्तमान जीवन और उसके आधारभूत शरीरके प्रति घृणा उत्पन्न की जावे । इस दृष्टिसे शास्त्रोंमें शरीरके विवरण में अत्यन्त अरुचिकर भाषाका उपयोग किया गया है। इसे अनेक मल पदार्थोंसे भरा तथा अशुचि बताया है । इसे घट, कुटी और झोपड़ीकी उपमा देते हुए बताया है कि इसमें रुचिकर वस्तुओं की अपेक्षा घृणा योग्य वस्तुयें भरी हुई हैं । इसकी उत्पत्ति हिंसक माध्यमोंसे हुई है। इसके एक-एक अङ्गुल में ९६ रोग होते हैं और मृत्युरूपी हाथी इस पर सदैव वार करता रहता है। शरीरके माध्यम से मनुष्य महादुखमय विषय सुख में फँसा रहता है । सामान्य शरीर जीवित अवस्थामें शव के समान गर्हणीय है । यह हमारे सारे कष्टोंका मूल है । अतः इसे परिग्रह के समान छोड़ देना चाहिये । एक ओर जहाँ शरीरको घृणास्पद बताया गया है, वहीं दूसरी ओर उसे धर्म साधनका अङ्ग भी बताया गया है। वस्तुतः, शरीरकी जितनी निन्दा की गई है, उतना वह है नहीं, इसलिये सदियोंसे मुखरित होने वाली महापुरुषोंकी पवित्र वाणियाँ सामान्य जनके कान छूती हुई चली आ रही हैं और हमारा जीवन तथा संसार सुखमय बननेके बदले दुखबहुल बनता-सा दीखता है । यदि शरीरके प्रति इतनी गर्हणीयताका उपदेश न दिया गया होता और उसे व्यक्ति और समाजकी प्रगति करनेकी क्षमता के माध्यमसे वर्णित किया गया होता, तो शायद हमारा समाज अधिक उन्नत नैतिक धरातल पर होता । शरीर सम्बन्धी उपमानोंसे तो यहां निष्कर्ष निकलता है कि जिस प्रकार घट, झोपड़ी, कुटी और परिग्रह हमारे जीवनमें अनेक प्रकारसे उपकारी होते हैं, उसी प्रकार हमारा शरीर भी हमारे लिये तथा मानव जाति के लिये अनेक प्रकारके सुखमय विकासमें सहायक है । इसमें भरी अपवित्र वस्तुयें तो प्रकृति स्वयं निकालती रहती है और इसे शुद्ध जीवनदायी रुधिरसे भरती रहती है । स्वस्थ शरीरमें ही स्वस्थ विचार और प्रवृत्तियाँ सम्भव हैं । इसलिये हमें इन उपमानोंके आधार पर २१० --- Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीरके विषयमें कुछ उदार दृष्टिसे विचार कर अपना जीवन उन्नत करना चाहिये । तपके उपमान आध्यात्मिक जीवनके विकासके लिये सामान्य जीवनमें तपका बड़ा महत्त्व है। तप एक अग्नि है जो हमारे बाहरी और भीतरी तंत्रको सोनेके समान शुद्ध बनाती है। उपवास आदि बाह्य तप हमारे शरीर तन्त्रको स्वस्थ एवं स्वच्छ बनाये रखते हैं। आलोचना, प्रतिक्रमण आदि हमारे अंतरंगमें ऐसे गुणोंका विकास करते हैं जो स्वस्थ और विकासशील समाजकी सुखमयताको बढ़ाते हैं। इन दोनों ही प्रकारकी प्रक्रियाओंसे जीवन में एक विशेष प्रकारकी स्फति, सजीवता एवं आनन्दकी अनुभूति होती है । ऐसे आनन्दकारक तत्त्वको रत्न कहा जाना उपयुक्त ही है। तपस्वी जीवन व्यक्ति-शोधक तो है ही, यह हमारे सामाजिक वातावरणको भी शुद्धि करता है । इसे सूपा और धौकन्नी भी बताया गया है । इसका अर्थ यही है कि जैसे ये उपकरण अशुद्ध वस्तुओंको शुद्ध करनेमें काम आती हैं ( सूपासे धान्यसे तुष दूर किया जाता है, धौकनीसे अशुद्ध लोहेसे किट्टिम निकालकर शुद्ध लोहा प्राप्त किया जाता है ), उसी प्रकार तप भी एक साधन है जो हमारी अशुद्ध प्रवृत्तियोंको नियंत्रित करता है और हमें शुभ प्रवृत्तियोंको ओर प्रेरित करता है । यदि हम मानवकी विभिन्न प्रवृत्तियोंको कर्मसिद्धान्तके आधार पर कर्म कण माने, तो हमारी तपस्वी वृत्ति हमारे अरुचिकर कर्म कणोंको धोंकनीके समान जला सकती है अथवा सूपाके समान उड़ा सकती है। इस आधार पर तपके चारों ही उपमान उसके गुणोंकी व्याख्या करते हैं। इसके विपरीत, संसार और शरीरके उपमान हमें दोनोंसे ही घृणा करने की प्रेरणा देते हैं। वस्तुतः यदि संसार और शरीर न रहे, तो तपका अस्तित्त्व ही कहाँ होगा? इस प्रकार विभिन्न उपमेयोंके लिये प्रयुक्त उपमानोंको समीक्षित करने पर यह ज्ञात होता है कि सांसारिक क्षेत्रसे सम्बन्धित सभी उपमेयोंके उपमानोंमें एक विशिष्ट प्रकारको वृत्तिका आभास होता है । इसलिये समाजने इनको स्वीकार नहीं कर पाया है । कबीरने इस स्थितिको देखकर ही कहा था कि मेरी बात कोई नहीं सुनता । वास्तवमें, बहुतेरे उपमान तो बीसवों सदीके विवेकी समाजमें अत्यन्त ही उपेक्षणीय लगते है। स्त्रीको नागिन, राग और स्नेहको पिशाच, युवावस्थाको गहन ताल, गृहस्थको तपे हए लोहेका गोला, अभव्यको उल्लू इत्यादि कहना सम्बन्धित उपमेयोंकी उपयोगिताके प्रति उपेक्षावृत्ति जगाना है। यह समाजके विकासके लिये हितकर वृत्ति नहीं है। इसके विपरीत, धर्म और मुक्तिको वल्लभा, सम्यक्त्वको रत्न, वैराग्य आदिको सम्पदा, रत्नत्रयको बोधिवृक्ष, वैयावृत्यको सरोवर, ज्ञानको सूर्य आदिके उपमान अनेक प्रकारसे उपयुक्त हैं पर चूँकि सामान्य जन तो दृश्य जगतसे ही प्रभावित रहता है, अतः उसने उपमेयोंके बदले उपमानोंकी ही आराधना प्रारम्भ कर दी है । वह जीवन मूल्योंको प्रस्फुटित करने वाले उपमेयोंको भूल ही गया। यह वर्तमान समाज के लिये कितनी विडम्बना स्थिति है कि जहाँ हमें रहना है, उसे उपेक्षणीय बना लें और जहां हमें रहनेकी कल्पनात्मक लालसा जगाई जा रही है, उसे सब कुछ मान लें। इस स्थितिसे ही मानव सदासे द्विविधामें रहा है । बीसवीं सदीके धर्मगुरुओं तथा तत्त्वज्ञानियोंसे यह आशा की जाती है कि वे इस द्विविधाजनक स्थितिमें समुचित मार्ग दर्शन करेंगे । सारणी १. धार्मिक उपमेय और उपमान उपमेय उपमान १. धर्म वृक्ष, महल, लक्ष्मी , चक्र - २११ - Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. आत्मा ३. जीव ४. कर्म ५. सम्यक्त्व ६. सम्यकग्ज्ञान ७. ज्ञानी ८. संसार ९. शरीर १०. पुण्य ११. मोक्ष १२. कषाय १३. पाप १४. स्त्री १५. यौवन १६. विषय १७. बुद्धि १८. जरा, मरण १९. ध्यान २०. माया २१. मोह २२. राग २३. रोग २४. पुनर्जन्म २५. भक्ति २६. मृत्यु २७. वैराग्य २८. चरित्र २९. भावना ३०. संयम ३१. मुनि ३२. गृहस्थ ३३. अज्ञानी ३४. मिथ्यात्व ३५. तप राजा, स्फटिकमणि, नमककी डली, ऊर्जा तिलमें तेल, दूधमें घी, काष्ठमें अग्नि चाक, शिल्पिक, लोहा कीट, विष, चक्र, बीज, शत्रु मल, वज्र, ईंधन, रज, जंजीर, राजा रत्न, जल, कोरा घड़ा, सूर्योदय, लक्ष्मी, चिन्तामणिमाणिक्य किरण, मेरुपर्वत, हाथ, जड़, नींव जल, घन, सूर्य, शस्त्र, रथ, कुदाली, स्वर्ण, कीचड़ में सोना, श्वेतशंख वन, लता, अंकुर, सागर, संताप, भंवर, वृक्ष घट, परिग्रह, शव, झोपड़ी, कुटी पैर महल, प्रिया योद्धा शत्र कलंक, धूलि, अन्धकार वृक्षोंका सचनवन, नागिन गहन ताल सुख, विष, विषपुष्प, समुद्र, गन्नेका छिलका नौका व्याधि, वेदना दीपक, कुठार महालता महावृक्ष वायु, झञ्झावात, पिशाच अग्नि वृक्ष तैल हाथी, संपदा अग्नि जल, खङ्ग, अग्नि कुदाली संग्राम चन्द्र, भ्रमर, कुलपर्वत, समुद्र, आकाश तपे हुए लोहे का गोला । कीचड़ में पड़ा हुआ लोहा कन्दमूल, मल, अन्धकार मलिन वस्त्र अग्नि, सूपा, जीवन, समुद्रके रत्न, चौंकनी २१२ - Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वार तलवार ३७. वैयावृत्य सरोवर ३८. रत्नत्रय . बोधिवृक्ष ३९. आस्रव तैल ४०. जिन वचन औषध ४१. कर्मबन्ध तरुणी स्त्री-पुरुषसंयोग ४२. कर्मके विविध रूप आहारके विविध पाक ४३. कर्म बन्ध पाक पके फलका गिरना ४४. इन्द्रिय ४५. अभव्य जीव उल्लू ४६. समता सुख मछलियाँ ४७. कोमलता मालती पुष्प ४८. ओष्ठ बिंबफल ४९. नेत्र कमल ५०. चरण कमल ५१. मुख चन्द्र ५२. शास्त्र, जिनवचन औषधि, अमृत, महासागर सारणी २. विभिन्न उपमानोंका वर्गीकरण १. प्राकृतिक वस्तुएँ और घटनाएँ २. सामान्य वस्तुएँ सरोवर, गहन ताल मल शिल्पिक वृक्ष, बोधिवृक्ष, महावृक्ष झंझावात कीच, कीट चाक लता, महालता भंवर इधन सूपा समुद्र तैल धौंकनी कमल रत्न महल दीपक वन, सघनवन स्फटिकमणि लक्ष्मी, प्रिया चक विषपुष्प कुटी, झोपड़ी धन, सम्पत्ति कन्दमूल मेरुपर्वत विषकुम्भ नागिन विष श्वेतशंख राजा कुठार अन्धकार शास्त्र, कुदाली नौका ३. धातुएं ४. भावात्मक उपमान ५. ग्रह छिलका व्याधि घट वङ्ग वेदना चन्द्र विविधमणि सुख पिशाच नमक, क्रिस्टल लोह जल योद्धा, शत्र नाग सूर्य सुवर्ण - २१३ - Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपमान १. जल २. वृक्ष वन, सघन वन लता, महालता ३. समुद्र ४. रत्न ५. स्फटिकमणि, माणिक्य, नमक ६. शत्रु ७. महल ८. लक्ष्मी, प्रिया ९. राजा १०. शस्त्र कुदाली 1 तलवार, लङ्ग ११. विष, विषपुष्प १२. धूलि, मल, रज, कलक १३. अन्धकार १४. अग्नि १५. ईधन १६. तेल सारणी ३. धार्मिक तत्वोंके लिये उपमान गुण प्रवाह व प्रक्षालन गुण प्राकृतिक आकर्षण, विशालता प्राकृतिक आकर्षण, भुलभुलैया परजीविता कीट अनन्त विस्तार, गहराई, रत्न शोभा, बहुमूल्यता, कठोरता चिन्तामणि, शुद्धता, क्रिस्टल युद्ध करना, जीतना निवास स्थान, विस्तार, सौन्दर्य चाहनेकी इच्छा, सौन्दर्य, सौन्दर्य, अनुरक्ति सामर्थ्य छेदन, भेदन, शत्रु-दलन विषाक्तता, बाधक सूक्ष्मता, चिपकनेकी क्षमता निराकरणीयता अदृश्यता जलाना, जलना, सर्वभक्षण जलानेका गुण स्निग्धता ऊर्जा २१४ - उपमेय सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र धर्म, मोह, पुनर्जन्म, संसार संसार, स्त्री संसार, माया संसार, मूनि विषय , तप, सम्यक्त्व बहुमूल्यता कर्म, धर्म, मोक्ष कषाय धर्म, मोज कर्म आत्मा ज्ञान, भावना, क्षमा, ध्यान चरित्र कर्म, विषय कर्म, मिथ्यात्व, पाप मिथ्यात्व पाप रोग, मृत्यु, चरित्र, तप कर्म भक्ति, आस्रव Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि पद्मानन्दका वैराग्य-शतक डा० प्रभुदयालु अग्निहोत्री, भोपाल, म० प्र० पद्मानन्द श्रेष्ठ जैन कवि थे । उनका वैराग्यशतक सुप्रसिद्ध न होते हुए भी संस्कृतके मुक्तक शतककाव्योंकी परम्परामें उत्कृष्ट स्थान रखता है । प्राचीन वैदिक लोगोंका लगाव सप्त और शत इन दो संख्याओं की ओर अधिक था । संहिताओं में सप्तच्छन्दोसि सप्तर्षयः, सप्तरश्मि, सप्तहोतारः, सप्त परिधि जैसे बहुतसे सप्तपूर्व पदवाले नामोंके साथ शतक्रतु, शतकाण्ड, शतपथ और शतशारद जैसे ढेरसे शतपूर्वक संज्ञा-शब्द प्राप्त होते । ऐसा लगता है कि ये संख्यायें साहित्य में समादृत हो गयी थीं और समाज में भी उनको विशेषता दी जाती थी । विवाहकी सप्तपदी, मैत्रीकी सप्तपदीनता, लोकोंकी सप्त संख्या, धृतराष्ट्र के सौ पुत्रोंकी कल्पना, 'शतं वद मालिख' जैसी कहावतें ये सब इसी बात की पोषक हैं। आधुनिक हिन्दी भाषा तक में यह बात कहावतोंके रूपमें देखी जा सकती है। इसीलिये भगवद्गीता, दुर्गासप्तशती, गाहासत्तसई और आर्यासप्तशतीमें यदि इन दोनों संख्याओं का समुच्चय मिलता है तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं । इनके अनुकरण पर हिन्दीमें बिहारी सतसई और मतिराम सतसई जैसी उत्तम कृतियां प्रकाशमें आयों । सप्त और शतके बाद यदि कोई अन्य संख्या अधिक लोकप्रिय थी तो वह थी त्रि ( तीन ) । वैदिक संहिताओं में ही नहीं, धर्म और दर्शनके क्षेत्र में भी यह संख्या बहुत प्रिय हुई | साहित्यकी त्रिशतियाँ इसीका परिणाम हैं। भर्तृहरिकी शतकत्रयी, पण्डितराजकी विलासत्रयी (भामिनी - विलास ) आदि इसके उदाहरण हैं । काव्यके क्षेत्र में शतकोंका प्रारम्भ अमरुशतक के साथ हुआ। बादमें तो शृंगार - शतकोंकी परम्परा ही चल निकली। बहुतसे दूत-काव्य भी वस्तुतः शतक काव्य ही हैं । इस पद्धतिकी रचनाओंमें कुसुमदेवका दृष्टांत - कलिका- शतक; कामराज दीक्षितकी श्रृंगारकलिका त्रिशती, मूक कविके शतक - पंचक; वीरेश्वरका अन्योक्तिशतक; नरहरि, जनार्दन भट्ट, धनराज एवं रुद्रभट्टादिके शृंगार-शतकोंके अतिरिक्त स्तोत्र, भाव, नीति, उपदेश, अन्योक्ति और काव्यभूषण जैसे विषयों पर दर्जनों मुक्तक शतक काव्य मिलते हैं, यहाँ तक कि खड्ग - शतक भी । शतक काव्योंकी परम्परामें वैराग्य शतकों का विशिष्ट स्थान है । अप्पय दीक्षित, धनद एवं जनार्दन भट्ट जैसे अनेक कवियोंने वैराग्य शतककी रचना की । यों तो सोमप्रभाचार्यकी सूक्तिमुक्तावली, जम्बू गुरुका जिनशतक, गुमानी कविका उपदेशशतक आदि भी इसी कोटिकी रचनायें हैं। फिर भी वैराग्यशतक नामसे जो संस्कृत काव्य उपलब्ध होते हैं उनमें पद्मानन्दका वैराग्यशतक शुद्ध साहित्यिक दृष्टिसे भी महत्त्वपूर्ण रचना है । वैराग्यपरक काव्योंमें जैन कवियोंकी देनका यों भी विशिष्ट स्थान है । वैदिक पौराणिक परम्परा कवि प्रायः नीति, श्रृंगार और वैराग्यकी त्रयीको साथ लेकर चले हैं । उनकी दृष्टिमें कुमार, युवा और जरठ वयके लिये पृथक् रुचिके काव्यकी आवश्यकता थी । ये कवि गृहस्थ थे और जैसा कि वैदिक परम्परामें रहा है, गृहस्थाश्रमको जीवनका केन्द्र बिन्दु मानकर चले हैं । इसलिये वैराग्य-काव्य लिखते हुए भी वे नीति और शृंगार में अधिक डूबते दिखायी देते हैं । भर्तृहरि इसके अपवाद हैं। इन कवियोंने वैराग्यपरक रचनायें प्रायः अन्तिम वय में की जो वैराग्यपरक कम और भक्तिपरक अधिक हैं । जैन कवियोंका पथ इससे भिन्न रहा २१५ - — Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। जैन कवि सामान्यतया साधु या मुनि थे, घरबारसे विमुक्त उनका संघर्ष मानसिक था। वे मार, मन और इन्द्रियोंके लौल्यके विरुद्ध सक्रिय संघर्ष में रत थे। इसीलिये उनकी वैराग्योक्तियोंमें अधिक तन्मयता और ईमानदारी परिलक्षित होती है । जैन कवियोंका वैराग्यवर्णन कोरा बौद्धिक विलास नहीं है । यह उनकी साधनाका एक प्रमुख अंग है और पद्मानन्द इसी साधनाके कवि हैं । कवि पद्मानन्द नागपुर या उसके समीपस्थ किसी स्थानके रहने वाले थे । इनके पिता श्रेष्ठी श्री धनदेव ने अपने गुरु श्री जिनवल्लभके उपदेशोंसे प्रेरित होकर नागपुर में श्री नेमिनाथका मन्दिर बनवाया था । निश्चित ही ये श्रेष्ठ विद्वान् भी रहे होंगे । स्वयं उन्होंने कहा है सिक्तः श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः शान्तोपदेशामृतैः, श्रीमन्नागपुरे चकार सदनं श्रीनेमिनाथस्य यः । श्रेष्ठी श्रीधनदेव इत्यभिधया ख्यातश्च यस्याङ्गज: पद्यानन्दशतं व्यधत्त सुधियामानन्द-संपत्तये । उनका काल १७वों शती ईसवीके बादका जान पड़ता है । वे शाकिनी आदि तांत्रिक शब्दोंसे परिचित है । उन्होंने जयदेव, भर्तृहरि और पण्डितराजको पढ़ा था और इन पर उक्त कवियों की यत्र-तत्र छाया भी है । शतकके अन्तमें वे कहते हैं कि जो आनन्द मेरे शतकको सुनने में है, वह न तो पूर्णेन्दुमुखीके मुख में है, न चन्द्रबिम्बके उदय में है, न चन्दनके लेप में है और न अंगूरका रस पीने में है : संपूर्णेन्दुमुखीमुखे न च न च श्वेतांशुबिम्बोदये, श्रीखण्डद्रवलेपने न च न च द्राक्षारसास्वादने । आनन्दः स सखे न च क्वचिदसौ किंभरिभिर्भाषितः, पद्मानन्दशते श्रुते किल मया यः स्वादितः स्वेच्छया । पण्डितराज जगन्नाथने कृष्णभक्तिके विषयमें भी यही बात कही थी मद्वीका रसिता सिता समशिता स्फीतं निपीतं पयः, स्वर्या तेन सुधाप्यधायि कतिधा रम्भाधरः खण्डितः । सत्यं ब्रूहि मदीय जीव भवता भूयो भवे भ्राम्यता, कृष्णेत्यक्षरयोरयं मधुरिमोद्गारः क्वचिल्लक्षितः । शा० वि० ७ पण्डितराज बड़े काव्यशिल्पी थे। इसलिये उनके रचनास्तरका ऊँचा होना स्वाभाविक है। फिर भी एक अन्तर तो स्पष्ट है कि पद्मानन्दकी 'रम्भाधर' में रुचि नहीं है। यह अन्तर, जैसा कि ऊपर कहा है, वैष्णव और जैन कवियोंमें सर्वत्र मिलेगा। शतकके प्रारम्भमें पद्मानन्दने जिनपतिकी स्तुति की है जिनके लिए त्रिलोकी करतल पर लुठित मुक्ताके समान तो हैं ही, वे हास, विलास और त्राससे तीनोंके रभसोंसे मुक्त हैं। वह उन योगियोंकी वन्दना करते हैं जिन्होंने अपने विवेकके वज्रसे कोपादि पर्वतोंको चूर-चूर कर डाला है, योगाभ्यासके परशुसे मोहके वृक्षोंको काट दिया है, और संयमके सिद्ध-मंत्रसे तीव्र कामज्वरको बाँध दिया है। वह उन साधुओंके सम्मुख प्रणत हैं जिन्होंने अतुल प्रेमांचित प्रेयसीको शाकिनीके समान एवं प्राण-समा लक्ष्मीको सर्पिणीके सदृश छोड़ दिया है और जो चित्रागवाक्षराजि वाले महलका उपभोग वल्मीकके समान करते हैं। वह उस महापुरुषको बड़ा मानते हैं जो पर-निन्दामें मूक, पर नारीके देखने में अंध, और परधनके हरणमें पंगु हैं। इनके मतमें माध्यस्थ्य वृत्तिसे रहनेवाला ही योगी और प्रणम्य है और यह माध्यस्थ्य वृत्ति है-आक्रोशसे पीड़ित न Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होना, चाटुकारितासे प्रसन्न न होना, दुगन्धसे बाधित न होना, सुगन्ध पर मुग्ध न होना, स्त्री रूपसे आनन्दित न होना ओर मरे श्वानसे भी वृणा न करना । नडे सुन्दर ढगसे उन्होंने योगीकी पहचान स्पष्ट की है : मित्र रज्यति नैव, नैव पिशुने वैरातु रो जायते , भोगे लुभ्यति नैव, नैव तपसि क्लेशं समालम्बते । रत्ने रज्यति नैव, नैव दृषदि प्रदूषमापद्यते, येषां शुद्धहृदां सदैव हृदयं, ते योगिनो योगिनः ।। अर्थात् सच्चे योगी वे हैं जिनका शुद्ध हृदय मित्रको पाकर उल्लसित और पिशुनको पाकर वैरातुर नहीं होता । भोगमें लुब्ध और तपमें कलेषित नहीं होता और जो रत्नमें अनु रक्ति और पत्थरमें द्वष भाव नहीं प्रदर्शित करता। पद्मानन्दने प्रारम्भके श्लोकोंमें जो उपर्युक्त बातें कहीं हैं, वे प्रायः बे ही हैं जिन्हें सभी भारतीय साधक कहते आ रहे थे। फिर भी, पद्मानन्दके कहनेके ढंगमें नवीनता है। उसमें उनका अपनापन झलकता है और जहाँ उन्होंने रूपकका आश्रय लिया है, वहाँ मौलिकताका भी । 'न च न च', 'नैव नैव' 'मम मम' के प्रयोगका उन्हें शोक है। उन्होंने एक अर्थको व्यक्ति के लिए भिन्न-भिन्न क्रियाओंका आश्रय लिया है और आवृत्तिसे बचनेको चेष्टा की है । यथा- दूयते, वाध्यते, विद्वष्यते, वैरातु रो जायते, क्लेशं सभालम्बते एवं प्रदुषमापद्यते और इसी प्रकार-समानन्द्यते, सम्प्रीयते, रज्यते, नन्दति, लभ्यति आदि। प्राचीन मुनियों, साधुओं और विरागियोंने-चाहे वे किसी पन्थके अनुयायी रहे हों-समान रूपसे नारीकी निन्दा की है । भाषाके कवियोंमें कबोर तो सबसे आगे हैं । किन्तु इसका कारण नारीके प्रति हेय दृष्टि नहीं है। किसी भी मनि या कविने माता, बहिन और पत्रीके प्रति अश्रद्ध भाव नहीं व्यक्त किया। बात यह है कि साधन पथ पर अग्रसर होते हुए व्यक्तिको दो ही आन्तरिक शत्रुओंसे सर्वाधिक जूझना पड़ता है और वे हैं अर्थ और काम । अर्थ तृष्णा और ले भको अर्थात् परिग्रहको जन्म देता है। धर छोड़कर वनमें कुटी बनानेवाले वहाँ भी गहस्थकी तरह सम्पत्ति जोड़ने लग जाते हैं । इसीलिए कविने कहा था जोगी दुखिया जंगम दुखिया तापस के दुख दूना । आशा तृष्णा सब घर व्यापै कोइ महल नहिं सूना ।। __ और काम तो किसीको नहीं छोड़ता । स्वयं अनंग रहकर भी वह साधकके अंग-अंगको मथित करता है चाहे जितना बड़ा विद्वान् हो और प्रयत्नशील भी हो, तो भी इन्द्रियाँ मनको खींच ही ले जाती हैं. ऐसा गीतामें कहा है । पुरुषके लिए नारी एवं नारीके लिए पुरुष परस्पर कामके उद्दीपक होते हैं । इसलिए पुरुष कवियोंने कामके आकर्षणसे बचनेके लिए नारीके आकर्षक अंगों, हावों-भावों एवं चेष्टाओंके प्रति अपने मनमें विरक्ति जाग्रत करनेकी चेष्टा की है । नारी कवि ऐसा नहीं करती क्योंकि पुरुष के प्रति नारीके आकर्षणकी प्रक्रिया भिन्न होती है। अतः वैराग्यके ग्रन्थों में नारीकी जो निन्दा प्राप्त होती है, वह आपाततः निन्दा दिखती है । वस्तुतः वह अपने दुर्बल मनको वशमें करने एवं कामके प्रति विरक्ति जाग्रत, करनेके लिए एक साधन मात्र है। वह काम-प्रवृत्ति और उसके उद्दीपकोंकी निन्दा है किन्तु आश्रयाश्रयि-भावसे नारी-निन्दा प्रतीत होती है । पद्मानन्दने भी सबसे पहले दस-पन्द्रह श्लोकोंमें यही किया है। वे कहते है मध्ये स्वां कृशतां कुरङ्गक-दृशो भूनेत्रयोर्वक्रतां, कौटिल्वं चिकुरेषु रागमधरे मान्द्यं गति-प्रक्रमे । काठिन्यं कुचमण्डले तरलतामक्ष्णोनिरीक्ष्य स्फुट, वैराग्यं न भजन्ति मन्दमतयः कामातुरा ही नराः ।। २८ -२१७ - . Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य में कृशता, नेत्रों और भृकुटियोंमें वक्रता, बालोंमें कुटिलता, ओठमें रक्तता, गति में मन्दता, कुचमण्डलमें कठोरता, दृष्टि में तरलता इतनी सारी अस्वाभाविक बातें स्त्रीमें स्पष्ट दिखती हैं, फिर भी लोगोंका मन उनकी ओरसे नहीं हटता । शंकराचार्यने कहा थाअंग गलितं पलितं मुण्ड, दशन-विहीनं जातं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुंचत्याशापिण्डम् । और इसी सरल बातको पद्मानन्द साहित्यिक शैलीमें कहते हैंपाण्डुत्वं गमितान् कचान् प्रतिहतां तारुण्य-पुण्य- श्रियम्, चक्षुः क्षीणबलं कृतं श्रवणयोर्वाधिर्यमुत्पादितम् । स्थानभ्रंशमवापिताश्च जरया दन्तास्थिमांस-त्वचः, पश्यन्तोऽपि जडा हा हृदि सदा ध्यायन्ति तां प्रेयसीम् ॥ केश सफेद हो गये, जवानीकी चमक-दमक नष्ट हो गयी, आँखोंकी शक्ति दुर्बल पड़ गयी, कानोंमें बहरापन आ गया, बुढ़ापेके कारण दाँत, मांस और त्वचा सब अपना स्थान छोड़ गये । फिर भी ये मूर्ख हैं कि अपना ध्यान प्रेयसीकी ओरसे नहीं हटाते । और पद्मानन्दकी यह धिक्कृति उन कवियोंके लिये भी है। जो जीवन भर आपादमस्तक श्रृंगारमें ही डूबे रहते हैं । एक हाथी है महामिथ्यात्व का । चारों क्रोधादि कषाय उसके पाँव हैं । व्यामोह उसकी सूँड है । राग और द्वेष ये दो उसके बड़े-बड़े दाँत हैं । दुर्वार मार उसका मद है । जो इस मत्त हाथीको तत्त्व ज्ञानके अंकुशकी सहायतासे अपने चातुर्य के द्वारा वशमें कर लेता है, वह तीनों लोकोंको जीत लेता है । कितने सुन्दर और सर्वांगपूर्ण रूपकके द्वारा कविने अपनी बातको प्रस्तुत किया है क्रोधाद्युग्रचतुष्कषायचरणो व्यामोहहस्तः सखे, रागद्वेषनिशात दीर्घदशनो दुर्वारमारोद्धुरः । सज्ज्ञानांकुशकोशलेन स महामिथ्यात्वदुष्टद्विपो नीतो येन वशं वशीकृतमिदं तेनैव विश्वत्रयम् ।। एक दूसरा परम्परित रूपक देखिये सज्ज्ञानमूलशाली दर्शनशाखश्च येन वृत्ततरुः । श्रद्धाजलेन सिक्तो मुक्ति फलं तस्य स ददाति ॥ किसी वृक्षको रोपें तो पहले उसकी जड़ों भूमिमें लगती हैं । शाखायें फूटती हैं और तब फल लगते हैं । सच्चारित्र्य भी एक वृक्ष है। उसकी शाखायें हैं । श्रद्धाका जल उसे सींचता हूँ तब कहीं कष्ट मुक्तिका फल उसमें लगता है । सांसारिक विषयोंकी ओरसे मन हटानेके लिये शरीरकी चरम परिणतिको देखना-समझना आवश्यक है । इससे जीवनकी यथार्थताका भान होता है और मोह दूर होकर निःसंगताकी प्राप्ति होती है । इसीलिये सारे सन्तोंने मृत्युके भयावह दृश्य भक्तोंके सामने प्रस्तुत किये हैं । पद्मानन्दने भी कहा भार्येयं मधुराकृतिर्मम मम प्रीत्यन्वितोऽयं सुतः, स्वर्णस्यैव महानिधिर्मम ममासौ बन्धुरो बन्धवः । रम्यं हर्म्यमिदं ममेत्थमनया व्यामोहितो मायया, मृत्युं पश्यति नैव दैवहतकः कुद्धं पुरश्चारिणम् ।। यह मेरी सुन्दर स्त्री है । यह मेरा प्यारा बेटा है। सोनेकी बड़ी राशि मेरे पास है । मेरा भातृस्नेही भाई है । यह शानदार महल मेरा अपना है । अभागा व्यक्ति इसी मायामें खोया रहता है और सामने = २१८ - उसे जलसे सींचते हैं । तब उसमें सत् ज्ञान उसका मूल है । दर्शन Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आते हुए क्रुद्ध काल (मृत्यु) को नहीं देखता । और जब मृत्यु पकड़ ले जाती है तो सन्तान, धन, महल कोई साथ नहीं जाता। साथ जाते हैं केवल पुण्य और पाप : नापत्यानि न वित्तानि न सौधानि भवन्त्यहो। मृत्युना नीयमानस्य पुण्यपापे परं पुनः ।। मत्यसे कौन बच सकता है ? रावणने बुढ़ापेको अपनी खाटके पायेमें बाँध रखा था, वह भी चला गया। हनुमान जो अपनी भुजाओं पर द्रोण पर्वत ही उखाड़ कर ले आये थे. वे भी चले गये। जिन रामने त्रिलोकीके सबसे बड़े वीर रावणको मार डाला था, वे भी चले गये। फिर औरोंकी तो बात ही क्या ? बद्धा येन दशाननेन नितरां खट्वैकदेशे जरा, द्रोणाद्रिश्च समुद्ध तो हनुमता येन स्वदोर्लीलया, श्रीरामेण च येन राक्षसपतिस्त्रलोक्यवीरो हतः, ते सर्वेऽपि गताः क्षयं विधिवशात् कान्येषु तद्भोः कथा । बालक भोजने भी मंजदेवके प्रति ऐसी बात कही थी। शंकराचार्य ने भी बात सीधी-सादी भाषामें कही थी बालस्तावत् क्रीडासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणीरक्तः, वद्धस्तावच्चिन्ता-मग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः । कि बचपन खेलमें बीत लाता है, यौवन तरुणीके प्रेममें चला जाता है और बुढ़ापेमें तरह-तरहकी चिन्तायें ओ घेरती हैं। आत्मचिन्तनके लिये समय ही नहीं मिल पाता । यह तथ्य कैसी प्रभावकारी भाषामें प्रस्तुत किया है पद्मानन्द ने : बाल्ये मोहमहान्धकार-गहने मग्नेन मूढ़ात्मना, तारुण्ये तरुणी - समाहृत-हृदा भोगैकसंगेच्छुना, वृद्धत्वेऽपि जराभिभूतकरणग्रामेण निःश क्तिना, मानुष्यं किल दैवतः कथमपि प्राप्तं हतं हा मया । जैसे शीतलता और सुगन्धके पूर्ण होनेपर भी सर्पोके संसर्गके कारण चन्दन वृक्ष पान्थके लिए व्यर्थ होता है ऐसे ही कुटिल आचारवाले दुमहे लोगोंके संगसे जीवन निष्फल हो जाता है श्रीखण्डपादपेनेव कृतं स्व जन्म निष्फलम् । जिह्मगानां द्विजिह्वानां सम्बन्धमनुरुन्धता ।। यहाँ निष्फलम्, जिह्मगानां और द्विजिह्वानां इन श्लिष्ट शब्दोंके प्रयोगने श्लोकमें चार चाँद लगा दिये हैं। किसीको सुन्दरीसे प्यार ही करना हो, तो पद्मानन्द द्वारा प्रस्तावित प्रियासे प्यार करे : औचित्यांशुकशालिनी हृदय हे शीलांगरागोज्ज्वला श्रद्धा-ध्यानविवेक-मण्डनवतीं कारुण्यहारांकितां । सबोधांजनरञ्जिनीं परिलसच्चारित्रपत्रांकुरां निर्वाणं यदि वांछसीह परमक्षान्तिप्रियां तदभज ॥ यदि तुम्हें निर्वाण (शान्ति या मुक्ति) चाहिये तो उस क्षान्तिरूपिणी प्रियासे प्यार करो जो औचित्य की साड़ी या चादर धारण करती हैं, शीलका अङ्गराग लगाती है, श्रद्धा, ध्यान और विवेकके आभूषण पहनती है, कारुण्यका हार धारण करती है, सद्ज्ञानका अञ्जन लगाती है और श्रेष्ठ चरित्रके पत्रांकुरोंसे Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनेको सजाती है । पद्मानन्दकी कल्पनासे प्रसूत यह परम्परित रूपक सर्वथा अनूठा है। यों भी सांगरूपक प्रस्तुत करने में यह कवि सिद्धहस्त है ।। पद्मानन्दके मतमें दान और तप यदि वैराग्य-युक्त मनसे किये जायें तभी सार्थक होते हैं। यदि अङ्गनामें लावण्य ही न हुआ तो केवल विभ्रमों या हाव-भावोंकी उछलकूद कितना आकर्षण उत्पन्न कर सकेगी ? इसी प्रकार यदि अन्तविवेक उत्पन्न न हुआ तो सारे शास्त्र, जप, तप व्यर्थ हैं क्योंकि ये सब तो साधनमात्र है-साध्य है तत्त्वज्ञान, विवेकख्याति । इसीलिए वे कहते हैं कि सारी कलायें जान लीं तो क्या हुआ ? उग्र तप भी तप लिया तो क्या? यदि कलङ्क रहित यश भी कमा लिया तो क्या ? यदि विवेककी कली न खिली ? विवेक ही तो है जो मनुष्य-मनुष्यमें अन्तर स्पष्ट करता है अन्यथा हंस और बगुले, कोकिल और काक तथा सुवर्ण और हल्दीमें क्या अन्तर ? रङ्ग तो दोनोंका एक ही है । किन्तु चाल, बोली और मूल्य क्रमशः इनके महत्त्वमें अन्तर स्पष्ट करते हैं। इसी प्रकार मनुष्योंकी गरिमा और महत्तामें न्यूनाधिक्य उनके गुणोंके कारण होता है शौक्ल्ये हंस-बकोटयोः सति समेयद्वद्गतावन्तरं, काष्ण्ये कोकिलकाकयोः किल यथा भेदो भृशं भाषिते, पैत्ये हेमहरिद्रयोरपि यथा मूल्ये विभिन्नार्घता, मानुष्ये सदृशे तथार्य खलयोर्दूरं विभेदो गुणैः ।। और जब विवेक ज्ञान या तत्त्वार्थबोध हो जाता है तो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि कषाय चतुष्क कुछ नहीं बिगाड़ पाते । यही साधना की चरम उपलब्धि है । पद्यानन्दने पूर विश्वास के साथ कहा है ता एवैताः कुवलयदृशः, सैष कालो बसन्तस्, ता एवान्तः शुचिवनभुवस्ते वयं, ते वयस्याः । कि तूझतः स खलु हृदये तत्त्व दीपप्रकाशो, येनेदानी हसति हृदयं यौवनोन्मादलीलाः ।। कमलनेत्री सुन्दरियाँ अब भी वे ही हैं, वसन्त काल वही है, सुन्दर वन प्रदेश भी वे ही हैं, हम भी वे ही हैं और मित्रगण भी वे ही हैं किन्तु तत्त्वदीपका प्रकाश हो जानेसे अब हृदय यौवनको उन्मत्त लीलाओं में डूबता नहीं अपितु उन पर हँसता है । सम्भवतः यह श्लोल “यः कोमारहरः स एव हि वरः" आदि सुप्रसिद्ध शृंगारी श्लोकका प्रत्युत्तर है । वाणीके विष यमें तो कविका कथन प्रत्येक कवि, वक्ता या लेखकको अपने सामने बड़े अक्षरोंमें लिख कर टाँग लेना चाहिये ललितं सत्य-संयुक्तं, सुव्यक्तं सततं मितम् । ये वदन्ति सदा तेषां, स्वयं सिद्धव भारती ।। जो लोक सत्य, मधुर, स्पष्ट (जिसे सब समझ सके), परस्पर सम्बद्ध और नपी-तुली बात बोलते हैं, उन्हें वाणी सिद्ध हो जाती है। वे जो बोलते हैं. वह व्यर्थ नहीं जाता। और पद्मानन्द निश्चय ही सिद्धवाक् कवि थे। -२२० - Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नाकरकी हंसकला जी० ब्रह्मप्पा, कोल्लेगाल, मैसूर रत्नाकर कन्नड़के अग्रणी कवि है। उनका भरतेश-वैभव कन्नड़ साहित्यका एक अमूल्य रत्न है । यह भारतकी कई भाषाओंमें अन दित हो चका है और कविका कीर्तिस्तम्भ है। रत्नाकरकी साहित्यसृष्टि जितनी अद्भुत है, उनका जीवन भी उतना ही रोमांचकारी है। बाल्यकालमें ही वे असाधारण प्रतिभाके धनी थे और वे भैरवराजके दरबारमें सम्मानित हुए । वे 'शृंगार कवि' बने और वहाँकी राजकुमारी उनके मोहमें पड़ गई । इसी समय उन्होंने अपना भरतेश-वैभव नामक अमर काव्य लिखा । रत्नाकर महान् क्रान्तिकारी कवि थे। उनके विचारोंको तत्कालीन जैन समाज सहन नहीं कर सका । फलतः वे अजैनवीरशिव बन गये। कालान्तरमें समाजने उनके विचारोंका मूल्य समझा और उसने उन्हें अपनी समाजका पुनः अग्रणी बनाया। रत्नाकर सोलहवीं शताब्दीके ज्ञातनाम कन्नड़ कवि हैं। वे महाकवि ही नहीं, महायोगी भी थे । भरतेश वैभवके अतिरिक्त उन्होंने रत्नाकरशतक, अपराजितेश्वरशतक, त्रिलोकशतक तथा अनेक स्फुट गीत-काव्य लिखे हैं। उनके 'भरतेश-वैभव' मे जहां उनकी साहित्यिक प्रतिभाके दर्शन होते हैं, वहीं उसमें उनके दार्शनिक तथ्योंको साहित्यिक रूपमें सँजोनेकी कलाकी अप्रतिभाका भान भी होता है। इस लेख में मैं भरतेश वैभवके दार्शनिक पक्ष सकलाका किंचित् विवरण देनेका प्रयत्न करूँगा। उसके माध्यमसे रत्नाकरकी साहित्यिक काव्यकलाके भी रूप प्रकट होंगे । हंसकला क्या है ? रत्नाकरके दर्शनके लिए भेद-विज्ञान ही बुनियाद है, हंसकला ही कलश है । भरतेश-वैभवका बाहरी आवरण भोग हो, तो इसका आन्तरिक शरीर योग है। जैसे शीतल महासागरमें भी गरम पानीका झरना होना एक अनुपम प्रकृति वैचित्र्य है, वैसे ही भरतेश-वैभवके भोगकी अनेक भंगिमाओंके बीच हंसयोगका संसर्ग भी एक ध्यान देने योग्य चमत्कार है। यदि यह कहें कि रत्नाकरका श्वासनाल भेद-विज्ञान है पर इसका अन्ननाल तो हंसकला ही है, तो अत्युक्ति न होगी। साधक कवि जब उपासना करके थक जाता है, तब वह अपनी थकावट मिटानेके लिए काव्य-रचनामें हाथ लगाता है। काव्यांगनासे संलाप करता है। पर चाहे उपासना हो या काव्य हो, रत्नाकरका मूलोद्देश्य तो हंसकला ही है। रत्नाकरकी दृष्टिमें छन्द, अलंकार और अन्त में रस-ये सब काव्यका बाह्य शरीर है। उसका आन्तरिक शरीर तो आत्मतत्त्व ही है। हंसका अर्थ आत्मस्वरूप ही है। अतः हंसकला आत्मानुसन्धानको कला है। अपने स्वरूपका साक्षात्कार कर लेना ही हंसकला है । इसको ध्यान कहें, तपस्या कहें या योग कहें, सब समानार्थी हैं। आत्मानुसन्धानमें लगनेवाले चेतनको ध्यानी, तपस्वी और योगी कहेंगे । हंसकलोपासकको पहले चित्तवृत्तिका निरोध करना चाहिये। मन बार-बार राग-दूषोंके साथ विनोद करते हुए राह चलनेवाले शैतानको घरमें बुलानेकी तरह कर्मासुरको बुलाता है । मन, बचन और काय हो कर्मासुरके बार करनेके लिए खुले महाद्वार हैं। इन तीनों महाद्वारोंको हंसकलाके लिए जब सुरक्षित रखते है, तभी कर्मासुरको दिग्बन्ध करके रोक सकते हैं। पहलेसे - २२१ - Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जमी हुई कर्मराशिको जपसे झाड़ सकते हैं। जब सारे कर्म चले जायेंगे, तब हमारा हंस साम्राज्य अजेय होकर सहजानन्द बनेगा । रत्नाकरने भरतेशकी पूरी जीवनीको हंसकलाका मुलम्मा लगाया है । इसका भरतेश बहिरात्मा नहीं है । यह अन्तरात्मा और रसानन्दमयी है । रत्नाकर एक ऐसा विश्वकवि है जो सभी कलाओंका चित्रण इस प्रकार कर सकता है जैसे सभी कलाएँ आँखोंके सामने ही नर्तन कर रही हों । गूँगेके देखे स्वप्न के समान रहनेवाली आत्मकलाका साहित्यिक वर्णन करके कविने जौहरीसाजी प्रदर्शित की है । आत्मस्वरूप को अपनी प्रतिभामयी मानस संगोत्री के संसर्गसे कल्पना किरणोंसे सजाकर कवि हंसकलोपासनाका उत्स ( शिरोभूषण ) बना है । यह भावलिंगी है । मानसिक संस्कार ही इसकी दृष्टिमें प्रधान है । यह मननके लिए आवश्यक मानसिक परिणाम ही है। इसके बिना केवल शून्य भी नहीं, अरण्य भी नहीं है । रत्नाकरने निराकार आत्माको ज्ञान, प्रकाश व अहंकार प्रदान करके काव्यमय रूपमें निरूपित किया है । प्रारम्भ में यह रेखाचित्र मात्र है । पर उसके आगे वर्णचित्र है । निराकार आत्मस्वरूपके लिए यह उद्गार एक सागर हैं । ज्ञान और ज्योति ये दोनों आत्मविज्ञानके पिछले तथा सामनेके मुखोंके समान हैं । एकको छोड़ दूसरा नहीं रह सकेगा। रत्नाकरके समान हंसकलोपासकको विविध अवस्थाओंका चित्रण करनेवाले विरले ही हैं । आध्यात्म अनिर्वचनीय है । मगर रत्नाकर अनुभवी है, वह साथ-साथ प्रतिभावान भी है। वह कल्पना विलासी भी है । अलौकिक तथा अनिर्वचनीय अनुभवको भी यह काव्यका कवच पहना सकता है । उस पर विमल कलाका रंग चढ़ा सकता है। हंस कलोपासकको भी प्रारम्भ में कल्पना विलास से ही रोमांचित होकर उत्साह पाना होता है। कल्पना घनीभूत होकर रस बनती है। यदि किसीको योगी बनना हो तो पहले उसे रसयोगी बनना पड़ता है। कल्पना पक्षको बढ़ाकर प्रतिभा क्षेत्रको विकसित कर लेना पड़ता है । इसीलिये भरतेश कुसुमाजीके साथ सुरतकेलि खेलनेके उपरान्त आध्यात्मिक विश्राम प्राप्त करनेके लिये कैवल्यांगना को हाथ पसार कर बुलाता है । भरतेश अभी साधक है। वह अपने प्रतिभाने से आत्मसाक्षात्कार कर लेनेको आतुर है। वह अपने कल्पनाहस्तसे सुपारसको सींच-खींच कर अंतरात्माको ढालता है। वह रसलोकविहारी होकर ब्रह्मलोकमें उड़नेको सन्नद्ध हो रहा है। भरतेश अपनी रमणियोंको भी हंसकलोपासनामें प्रेरित करता है । विषयवासनाको रसानन्दसे धो लेना चाहिये । ब्रह्मानन्दको भी यदि रोचक बनना हो, तो उसे साधक के पास रसानन्दका वेष धारण करके आना चाहिये। विषय भूमिकासे साधकको रस भूमिका पर चढ़ना चाहिये । उसके बाद ब्रह्मानन्दकी माताका हृदय बनकर थोड़ा झुक कर साधकको सहारा देकर ऊपरकी ओर खींच लेना चाहिये। जब भरतेशने अपनी आत्मा हो को परमात्मा मानकर निर्भेद भक्तिसे हंसकलोपासना प्रारम्भ की, तब उसके आनन्दका पारावार ही नहीं रहा। आत्मस्वरूप प्रकाश बनकर, सुज्ञान बन कर एवं दर्शन बनकर सुखसे टिमटिमाता है । जैसे बच्चा घुटनो के बल चलते समय उठते-गिरते उत्साहित होता है, ऐसे ही साधक भी इस प्रक्रियामें उत्साहित होगा, विस्मित होगा । कविने हंसकलोपासनाकी इस आँखमिचौनीका भी अपने काव्यमें निरूपण किया है । यह हंसकलोपासना की पहली सीढ़ी है । जब कविका साधक निर्भेद भक्ति में स्थिर होता है, अद्वैत होकर सुशोभित होता है, तब चौंधियानेवाले ब्रह्मानन्दका इन्द्रधनुष देखते ही बनता है। रत्नाकरने ब्रह्मानन्दके अनिर्वचनीय होने पर कलारूपी - २२२ - Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाल फैलाकर उसे बंधित किया है। रसानन्दके पारेको ब्रह्मानन्दके सीनेकी धूलि लगनी ही चाहिये न ? महाकविने शन्यको रंग लगाया है। भक्तके आध्यात्मिक साहसका विवरण करते समय श्री बसवण्णाजीने भी यों कहा है :-'निराकार आत्माको पहले साकार बना लेना चाहिये। इसके लिये प्रतिभा चाहिये। कल्पना विलास चाहिये । आत्माका निकट परिचय होने तक इस कवि कर्मको निरन्तर चलना चाहिये। यह हंसकलोपासनाकी पहली मंजिल है। साधकको रसानन्दमें सराबोर होना चाहिए। खुले आम चित्रको खींचना होगा। यह बात नहीं कि शून्यको रूप देने पर सब कुछ खत्म हो गया। दिये हुए रूपको फिरसे शून्य बनाना चाहिये । इन दोनों कलाओंमें भी हंसकलोपासकको प्रवीण बनना चाहिये । जैसे-जैसे आत्मसाक्षात्कार होता जायेगा, वैसे-वैसे कर्मके कण झड़ते जायेंगे। अप्रत्याशित आक्रमणसे भयभीत होकर कर्मका आवरण ढीला पड़ेगा। छत्तको धुआँ दें, तो जैसे मधुमक्खियाँ लाचार होकर तितरबितर हो जाती हैं, ऐसे ही कर्माणु भी आश्रयहीन हो तड़पने लगेंगे। ___ शून्यके निर्वलय नर्तनको हंसकलोपासकके अन्तरंगमें देखिये । शून्यको आकार देना, दिये हुए आकारको दुबारा शून्य बनाना--ये दोनों हंसकलाके दो मुख हैं। कविको निर्विकल्प समाधिके अनुभवका विवरण ऐसे लोगोंको देना है जिनको सविकल्प समाधिका भी अनुभव नहीं है। बातोंके इन्द्रजालकी शैलीकी टीमटाममें रत्नाकरने हंसकलाकी कई भाव भंगिमाओंको हमारे सामने रक्खा है। जब वह निर्विकल्प समाधिकी चरम सीमा पर पहुँचते हैं, तब कैसा ब्रह्मानन्द होता है ? इसे भी कविने चित्रित किया है। 'बिना सम्पत्ति के बड़ा साहूकार' कहते समय हमारा रोमांच हए बिना नहीं रहता। अपने कल्पना विलाससे दिव्यानुभवके निरुपाधिक सुखको सहृदयियोंके हृदयंगम होनेकी तरह विश्वकविने वणित किया है। जो रसर्षि है, वह विषयसुखको पैरोंसे कूचता हुआ दूसरी तरफ अपना हाथ पसार कर ब्रह्मानन्दको बटोरनेका प्रयत्न करेगा। ध्यानमें निमग्न भरतेशको रत्नाकरने एडीसे चोटी तक चाँदनीसे अलंकृत किया विने मुक्त्यंगनाके बाहुपाशमें चक्रेशको सुखी बनाकर हंसकलाको काव्यकलाकी किरणें पहनायी हैं। कविने ऐसा निरूपित किया है मानों काव्यकला ब्रह्मकलाका बरामदा ही बनी हो । हंसकलाके विविध चरण जब आदिदेव जिनेन्द्रावस्थाको त्याग कर सिद्ध बननेके लिए सनद्ध हआ, तब अन्तिम तपस्या करने लगा। तीनों दोहोंको उतारकर परमात्मा बनने लगा। क्या परमं परंज्योति कोटिचन्द्रादित्य सुज्ञानप्रकाश आदिदेवकी हंसकलोपासना साधारण है ? ज्योतिके योगके जलप्रपातको महाकवि यहाँ निर्माण करेगा । अपने कर्मरूपी संसारको ध्वंस करने, जड़हीन बनानेके पहले आध्यात्मिक तांडवलीलामें लगनेके अद्भुत रम्य दृश्यको चित्रित करनेके लिए कवि रत्नाकरको ही आना पड़ा। परमात्मा लम्बे कदमें व्याप्त होगा। विश्वके नीचेसे ऊपर तक फैलेगा। यह इसके कर्मसम्बन्धी तथा तेज सम्बन्धी शरीरके विश्वव्यापी होते समय दिखाई देनेवाला पहला चरण है। इसको दण्ड कहेंगे। अगला चरण ही कवाटलीला है। भगवान् खुश हुआ मानो सारे विश्वके बीचको दीवार समाप्त की गयी है। वह (परमात्मा) फला अंग न समाया । कार्मण-तैजस शरीरोंको धुनक-धुनक कर आड़ा-आड़ा खींचा। कवाटलीलाको खतम कर तीसरा चरण प्रतरलीलाका प्रारम्भ होता है। वायुको छोड़कर भगवान्के सारे विश्वमें व्याप्त होनेको प्रतर कहते हैं । इसके बाद चौथा चरण पूरणलीला है। समाधिस्थ आदिदेव विश्वव्यापी बनते हैं। वायको भी मिलाकर सारे विश्वको अपने में विलीन कर लेते हैं। सबमें स्वयं रहकर सबको अपने में रखकर सुशोभित होनेवाला विश्वरूप ही समुद्घातोच्चलत्कला है। इस अवसर पर जो आध्यात्मिक रासायनिक क्रिया चलती है, उसका विश्वकविने आँखोंके सामने बीता-सा चित्रण किया है। -- २२३ - Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंसकलोपासनाका अन्तिम लक्ष्य तो परमं परंज्योति बनना है । सुखोज्वल किरण बनना है और froपाधिक सुखी बनना है । दूसरोंके हाथोंमें पारिभाषिक पद पुञ्जोंको बहुत बड़ा अरण्य बनानेवाली यह हंसकला कविरत्नाकरके हाथोंमें कला बनी है। जहाँ अन्य लोग ब्रह्मकलाको पाण्डित्यके प्रदर्शनका क्षेत्र बनाते हैं, वहीं रत्नाकर ब्रह्मकलाके इस नीरस विषयको लेकर इसमें अपनी रसीली प्रतिभाका प्रभा-पुंज विकसित किया है, कल्पनाका कल्पवृक्ष संजोया है और रसका मानस सरोवर उद्घाटित किया है। उन्होंने इसमें अपनी कलाके इन्द्रधनुषी रूपको चित्रित किया है। धर्मध्यान (निर्विकल्प समाधि) तो रत्नाकरके हाथों में प्रकाशकी नदी बना जिसमें काव्य रस रूपी जल प्रवाहित हुआ है। बारबार सिद्धान्तको लाने पर भी रत्नाकरने कहीं काव्यको किनारे पर नहीं स्टाया। सिद्ध बनने के पहले जिनेन्द्रके विरचित दण्ड-कवाट प्रतर-पूरण ध्यान तो रत्नाकरके हाथोंमें प्रचण्ड कला बनकर शून्यके तांडवके रूपमें सुशोभित हुआ है । यहाँ यदि धर्म ध्यानका वर्णन लास्य हो, तो समुद्रातोच्चलत्कलाएँ कविने गगनचुम्बी होकर दिगंत तक हाथ फैलाने के समान बृहत् दृश्योंको निर्मित कर ब्रह्मलीलाके अद्भुत व्यापारको चित्रित किया है । रत्नाकर कवि चिदम्बरके रहस्यको आत्मसात् किये हुए हैं। वे काव्यके नन्दनवनमें सिद्धान्त के स्थानको निर्दिष्ट रूप से निर्देशित करनेवाले निरंजन कवि है। वह योगीकी समाधि स्थितिको साक्षात् सा चित्रित करनेवाला एक मात्र कवि है । रसिकता ही रत्नाकरका जीवन है । यदि उसके भरतेशवैभवका भोग राग रसिकता हो, तो यहाँका योग तो वीतराग रसिकता है । रत्नाकर महाकवियोंमें महायोगी है। उसने योगी बनकर हंसाका अनुभव किया है। अपने इस अनुभवको ही इसने कवि बनकर रसीले काव्यके रूपमें चित्रित किया है । | २२४ - Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिसंधानकाव्य प्राचार्य कुन्दनलाल जैन, विश्वासनगर, दिल्ली आदरणीय श्री अगरचन्दजी नाहटाने कादम्बिनीके मार्च ७२ के मङ्कमें 'सप्तसन्धान' नामक एक अद्भूत काव्यकी चर्चा की है। यहाँ मैं उसी प्रकारके एक अन्य काव्यकी सूचना प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसमें एक श्लोकके चौबीस अर्थ निकाले गये हैं। यह अद्भुत काव्य है-'चतुर्विंशतिसंधानकाव्य'। इसके रचयिता पं० जगन्नाथ (सं० १७११) हैं जो भट्टारक नरेन्द्रकीतिके शिष्य थे। पं० जगन्नाथने इस प्रतिभाशील विलक्षण काव्यके अर्थकी प्रामाणिकता एवं स्पष्टता हेतु स्वयं ही 'स्वोपज्ञ' नामसे टोका भी रची थी, जिसमें कविचक्रवर्ती श्री जगन्नाथने प्रत्येक श्लोकके चौबीस अर्थ निकाले हैं, जो वृषभादि महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकरोंके पक्षमें अलग-अलग निकलते हैं। यह अद्भुत काव्य सन् १९२१ में रावजी सखारामजी दोशी, शोलापुरसे प्रकाशित हो चुका है। उदाहरणके लिये, निम्न श्लोक प्रस्तुत है : श्रेयान् श्रीवासुपूज्यो वृषभजिनपतिः श्रीमांकोऽथधर्मो, हर्यकः पुष्पदन्तो मुनिसुब्रतजिनोऽनंतवाक् श्रीसुर्वः । शान्तिपद्मप्रभोऽरो विमलविभरसौ वर्धमानोप्यजांको, मल्लिमिर्मिमा सुमति खलु सच्छ्रीजगन्नाथ धीरम् ॥ उपर्युक्त स्रग्धरा छन्दको २४ बार लिखकर इस विचक्षण कविने अलग-अलग सभी तीर्थंकरोंकी स्तुति-परक टीका लिखी है। पं० जगन्नाथको यद्यपि संस्कृत भाषा तथा उसके अनेकार्थवाची शब्दों के महान सामर्थ्यपर पूर्णाधिकार प्राप्त था, फिर भी लोगोंके पल्लवग्राही पाण्डित्यके कारण उनकी रचना की आलोचना प्रत्यालोचना न होने लगे और लोग इस काव्यकी प्रामाणिकता एवं श्रेष्ठताके विषयमें शङ्कालु न हो उठे, इसीलिये उन्होंने एकाक्षरकोषकी सहायता लेनेका स्पष्ट उल्लेख किया है । एक दूसरे श्लोकके बाद वे आगे लिखते हैं : चतुर्विशतिजिनानामेकपद्यम् कृत्वा तस्य चतुर्विशतिभिरर्थैर्जगन्नाथस्तान् स्तौति, तावदादिजिनस्य, वृषभस्य स्तुतिः प्रारभ्यते । इति चतुर्विशतिजिनस्तुतावेकाक्षरप्रकाशिकायां भट्टारकनरेन्द्रकीर्तिमुख्यशिष्यपं० जगन्नाथविरचितायां प्रथमतीर्थंकरश्रीवृषभनाथस्य स्तुतिः समाप्ता। कविने प्रस्तुत रचना वैसाख सुदी ५ सं० १६९९ रविवारको अम्बावत्पुर ( राजस्थान ) में समाप्त की थी। यह नगर तक्षकपुर ( टोड़ा राज० ) के आस-पास कहीं होगा। तक्षकपुर जैन ग्रन्थोंके पुनर्लेखन एवं निर्माणका प्रमुख केन्द्र था । यहीं भट्टारक नरेन्द्रकीर्तिकी प्रसिद्ध पाठशाला भी थी । कविका जन्म खण्डेलवालवंशोद्भव सोगानी गोत्रिय शाह पोमराज श्रेष्ठिके घर हुआ था। इनके अनुज कवि वादिराज ( १७२९ सं० ) भी संस्कृतके प्रकाण्ड विद्वान थे जिन्होंने वाग्भट्टालङ्कारकी 'काव्यचन्द्रिका' टीका तथा 'ज्ञानलोचनस्तोत्र' की रचना की थी।। कविका जन्म सं० १६६० के लगभग किसी समय होना चाहिये । कविके अनुज श्री वादिराज महाराज जयसिंहके राज्यमें किसी शीर्षस्थ पद पर विराजमान थे और अपनी श्रेष्ठताके लिये प्रसिद्ध थे । इनके रामचन्द्र, लालजी, नेमिदास तथा विमलदास नामक चार पुत्र थे। २९ - २२५ - Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि जगन्नाथकी छह रचनायें उपलब्ध हैं । प्रथम चतुर्विंशतिसंधानकाव्य स्वोपज्ञटीका, द्वितीय "सुखनिधान" जो तमालपुर नामक नगरमें सं० १७०० में रची गई थी । इसकी प्रतिमें कविको कविचक्रवर्तीको उपाधि से सम्बोधित किया गया है । तृतीय, श्रृंगारसमुद्रकाव्य जिसका उल्लेख सुखनिधान नामक रचना हुआ है । चतुर्थ, श्वेताम्बर पराजय ( केवलिमुक्तिनिराकरण ) जिसमें केवली केवलाहारित्वका संयुक्तिक निराकरण किया गया है। इसकी रचना सं० १७०३ में दीपावली के दिन हुई थी । पञ्चम, नेमिनरेन्द्रस्तोत्र- स्वोपज्ञटीका है जिसका उल्लेख श्वेतांबरपराजय नामक ग्रन्थ में मिलता है । इनकी षष्ठम रचना है सुषेणचरित्र जिसकी प्रतिलिपि सं० १८४२ में हुई थी और यह आमेरके मठ, महेन्द्रकीर्ति भण्डार में सुरक्षित है । कवि जगन्नाथने चतु विंशतिसंधान काव्यकी रचना करते हुए स्पष्ट लिखा है : पद्येऽस्मिन् मयकाकृतांनुतिमिमां श्रीमच्चतुर्विंशतिः । तीर्थेषां कलुषापहां च नितरां तावद्भिरथैर्वरैः ॥ प्रत्येकं किल वाच्यवाचक, रवैर्बोध्यांबुधैर्वृत्तितः । पूर्वाह्नादिषु यो ब्रबीति, लभते स्थानं जगन्नाथतः ॥ उपर्युक्त श्लोकसे स्पष्ट ज्ञात होता चौबोस तीर्थंकरोंके स्तुति स्वरूप हैं । संस्कृत साहित्यके ऐसे ग्रन्थरत्नोंका विशेष रूपसे प्रचार-प्रसार होना चाहिये और इनसे विदेशी विद्वानोंको भी अवगत कराना चाहिये । कि प्रत्येक श्लोकसे चौबीस अर्थ निकलते हैं जो वृषभादि २२६ - Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विबुध श्रीधर एवं उनका पासणाहचरिउ डा. राजाराम जैन, जैन कालेज, आरा ( बिहार ) स्रोत संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओंके कवियोंमें भगवान पार्श्वनाथका जीवन चरित बड़ा ही लोकप्रिय रहा है। आगम साहित्य एवं विविध महापुराणोंमें उनके अनेक प्रासंगिक कथानक तो उपलब्ध होते ही हैं, उनके अतिरिक्त स्वतन्त्र, सर्व प्रथम एवं महाकाव्य शैलीमें लिखित जिनसेन (प्रथम) कृत पाश्र्वाभ्युदय-काव्य (वि० सं० ९ वीं सदी) एवं वादिराजकृत पार्श्वनाथचरितम् ( वि० सं० १०८२), संस्कृत भाषामें, देवभद्र कृत पासणाहचरियं (वि० सं० ११६८ ) प्राकृत भाषामें तथा कवि पद्मकीति कृत पासणाहचरिउँ ( वि० सं० ११८१ ) अपभ्रंश भाषामें उपलब्ध है। इन काव्य रचनाओंसे परवर्ती कवियोंको बड़ी प्रेरणा मिली और उन्होंने भी विविध कालों एवं विविध भाषाओंमें एतद्विषयक अनेक रचनाएँ लिखीं, जिनमेंसे माणिक्यचन्द्र५ (१३ वीं सदी), भावदेवसूरि ( वि० सं० १३५५ ), असवाल ( १५ वीं सदी), भट्टारक सकलकीर्ति , ( वि० सं० १५ वीं सदी), कवि रइधू , ( वि० सं० १५-१६ वीं सदी ), कवि पद्मसुन्दर एवं हेमविजय", ( १६ वीं सदी ) एवं पण्डित भूधरदास'२ (१८ वीं सदी ) प्रमुख है। पार्श्वनाथचरित सम्बन्धी उक्त रचनाओंकी परम्परामें हरयाणाके महाकवि विबुध श्रीधर कृत 'पासणाहचरिउ' का भी विशेष महत्व है किन्तु अद्यावधि वह अप्रकाशित रही है। प्रस्तुत निबन्धमें उसी पर कुछ प्रकाश डालनेका प्रयास किया जा रहा है। इसका कथानक यद्यपि परम्परा प्राप्त ही है किन्तु कथावस्तु गठन, भाषा, शैली, वर्णन-प्रसंग, समकालीन संस्कृति एवं इतिहास सम्बन्धी सामग्रीकी दृष्टिसे यह रचना अद्वितीय सिद्ध होती है। उक्त 'पासणाहचरिउ' की एक प्रति आमेर-शास्त्रभण्डार, जयपुरमें सुरक्षित है, जिसमें कुल ९९ पत्र है । इन पत्रोंकी लम्बाई एवं चौड़ाई १०"x४३" है । उसके प्रत्येक पत्रमें १२ पक्तियोंमें ३५-४० वर्ण है । इनका प्रतिलिपि काल वि० सं० १५७७ है । यह प्रति शुद्ध एवं स्पष्ट है। कवि नाम निर्णय जैन साहित्यमें लगभग आठ विबुध श्रीधरोंके नाम एवं उनकी लगभग उतनी ही कृतियाँ उपलब्ध होती हैं । यथा : १. पासणाहचरिउ, २. वढ्ढमाणचरिउ, ३. सुकुमालचरिउ, ४. भविसयत्तकहा, ५. भविसयत्तपंचमीचरिउ, ६. भविष्यदतपंचमीकथा, ७. विश्वलोचनकोश एवं ८. श्रुतावतारकथा। इनमेंसे १. निर्णयसागर प्रेस, बम्बईसे प्रकाशित, १९०९ २. माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला, बम्बईसे प्रकाशित, १९०९ ३. भारतीय संस्कृतिमें जैन धर्मका योगदान, पृ० १३५ ४. प्राकृत थैक्स्ट सोसायटी, वाराणसीसे प्रकाशित, १९६५ ५-१२. रइधू साहित्यका आलोचनात्मक परिशीलन, वैशाली, १९७४ १३. आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुरकी ग्रन्थ सूचियाँ, भाग २ -२२७ - Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम तीन रचनाएँ संस्कृत भाषामें तथा पाँचवीं रचना अपभ्रंश भाषामें निबद्ध है । अन्तर्वाह्य साक्ष्योंके आधार पर तथा उनके रचनाकालोंको ध्यानमें रखते हुए यहाँ स्पष्ट विदित हो जाता है कि उन चारों कृतियोंके लेखक भिन्न-भिन्न विबुध श्रीधर है, क्योंकि उनका रचनाकाल वि० सं० १४ वीं सदी से १७ वीं सदीके मध्य है जो कि प्रस्तुत पासणाहचरिउके रचनाकाल (वि० सं० ११८९ ) से लगभग २०० वर्षों के बाद की है । अतः कालकी दृष्टिसे उनके कर्तृत्वका परस्परमें किसी भी प्रकारका मेल नहीं बैठता । अवशिष्ट प्रथम चार रचनाएँ अपभ्रंश की हैं। उनकी प्रशस्तियोंसे ज्ञात होता है कि वे चारों रचनाएं एक ही कवि विबुध श्रीधर की हैं जो विविध आश्रयदाताओंके आश्रयमें लिखी गईं। कविपरिचय एवं कालनिर्णय सन्दर्भित 'पासणाहचरिउ' की प्रशस्तिमें विबुध श्रीधरने अपने पिताका नाम गोल्ह एवं माताका नाम वील्ह बताया है । इसके अतिरिक्त, उन्होंने अपना अन्य किसी भी प्रकारका पारिवारिक परिचय नहीं दिया । पासणाहचरिउ की समाप्तिके एक वर्ष बाद प्रणीत अपने वढ्ढमाणचरिउमें भी उन्होंने अपना मात्र उक्त परिचय ही प्रस्तुत किया है । वह गृहस्थ था अथवा गृह-विरत त्यागी, इसकी भी कोई चर्चा उन्होंने नहीं की। कविकी 'विबुध' नामक उपाधिसे यह तो अवश्य ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अपनी काव्य प्रतिभा के कारण उसे सर्वत्र सम्मान प्राप्त रहा होगा, किन्तु इससे उसके पारिवारिक जीवन पर कोई भी प्रकाश नहीं पड़ता। 'पासणाहचरिउ' एवं 'वड्ढमाणचरिउ' की प्रशस्तिके उल्लेखानुसार कविने चंद्रप्पहचरिउ एवं संतिजिणेसरचरिउ नामक दो रचनाएँ और भी लिखी थीं किन्तु ये दोनों अभी तक उपलब्ध नहीं हैं। हो सकता है कि कविने अपनी इन प्रारम्भिक रचनाओंकी प्रशस्तियोंमें स्व-विषयक कुछ विशेष परिचय दिया हो, किन्तु यह तो उन रचनाओंकी प्राप्तिके बाद ही कहा जा सकेगा। विबुध श्रीधरका जन्म अथवा अवसान सम्बन्धी तिथियाँ भी अज्ञात हैं। उनकी जानकारीके लिए सन्दर्भ सामग्रीका सर्वथा अभाव है। इतना अवश्य है कि कविकी अद्यावधि उपलब्ध चार रचनाओंकी प्रशस्तियोंमें उनका रचना समाप्ति-काल अंकित है। उनके अनुसार पासणाहचरिउ तथा वडढमाणचरिउका रचना समाप्ति-काल क्रमशः वि० सं० ११८९ एवं ११९० तथा सुकुमालचरिउ एवं 'भविसयत्त कहा' का रचना-समाप्ति काल क्रमशः वि० सं० १२०८ और १२३० है। जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है 'पासणाहचरिउ' एवं वड्ढमाणचरिउमें जिन पूर्वोक्त 'चंदप्पहचरिउ' एवं संतिजिणेसरचरिउ नामक अपनी पूर्व रचित रचनाओंके उल्लेख कविने किये हैं वे अद्यावधि अनुपलब्ध ही हैं। उन्हें छोड़कर बाकी उपलब्ध चारों रचनाओंका रचनाकाल वि० सं० ११८९ से १२३० तकका सुनिश्चित है। अब यदि यह मान लिया जाय कि कविको उक्त प्रारम्भिक रचनाओंके प्रणयनमें १० वर्ष लगे हों तथा उसने २० वर्षकी आयुसे साहित्य-लेखनका कार्यारम्भ किया हो, तब अनुमानतः कविकी आयु लगभग ७१ वर्षकी सिद्ध होती है और जब तक अन्य ठोस सन्दर्भ-सामग्री प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक मेरो दृष्टिसे कविका कुल जीवन काल वि० सं० ११५९ से १२३० तक माना जा सकता है। निवास स्थान एवं समकालीन नरेश पासणाहचरिउकी प्रशस्तिमें कविने अपनेको हरयाणा देशका निवासी बताया है और कहा है कि वह कहासे चंदप्पहचरिउकी रचना-समाप्तिके बाद यमुना नदी पार करके ढिल्ली आया था। उस समय वहाँ राजा अनंगपाल तोमरका राज्य था जिसने हम्मीर जैसे वीर राजाको भी पराजित किया था। अठारहवीं सदीके अज्ञातकर्तक “इन्द्रप्रस्थप्रबन्ध' नामक ग्रन्थमें उपलब्ध तोमरवंशी बीस राजाओंमेंसे उक्त अनंगपाल १. राजस्थान पुरातत्त्व विद्यामन्दिर, जोधपुरसे प्रकाशित, १९६३ -२२८ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम बीसवाँ राजा था। इन्द्रप्रस्थमें अनंगपाल नामके तीन राजा हए जिनमेंसे प्रस्तुत अनंगपाल तीसरा था। इससे जिस हम्मीर वीरको पराजित किया था, प्रतीत होता है कि वह कांगड़ा नरेश हाहुलिराव हम्मीर रहा होगा, जो एकबार हुंका भरकर अरिदलमें जा घुसता था और उसे रौंद डालता था। इसी कारण हम्मीरको हाहुलिरावकी संज्ञा प्रदान की गयी थी जैसा कि पृथिवीराजरासोमें एक उल्लेख मिलता है : "हां कहते ढीलन करिय हलकारिय अरि मध्य । ताथें विरद हम्मीरको “हाहुलिराव' सुकथ्य ।। सम्भवतः इसी हम्मीरको राजा अनंगपालने हराया होगा । युद्ध में उसके पराजित होते ही उसके अन्य साथी-राजा भी भाग खड़े हुए थे जैसा पासणाहचरिउमें कहा है : सेंधव सोण कीर हम्मीर संगरू मेल्लि चल्लिया ।।छ। (पास०, ४।१३।२) अर्थात् सिन्धु, सोन एवं कीर नरेशोंके साथ राजा हम्मीर भी संग्राम छोड़कर भाग गया।' डिल्ली-दिल्ली-विबुध श्रीधरने पासणाहचरिउमें जिस “ढिल्लो" नगरकी चर्चा की है, वह आधनिक "दिल्ली"का ही तत्कालीन नाम है। कविके समयमें वह हरयाणा प्रदेशका एक प्रमुख नगर था। पृथिवीराजरासोमें पृथिवीराज चौहानके प्रसंगोंमें दिल्लीके लिए 'ढिल्ली' शब्दका ही प्रयोग हुआ है । उसमें इस नामकरणकी एक मनोरंजक कथा भी कही गयी है, जिसे तोमरवंशी राजा अनंगपालकी पुत्री । पथवीराज चौहानकी माताने स्वयं पथवीराजको सुनायी है। उसके अनुसार राज्यकी स्थिरताके लिए एक ज्योतिषी के आदेशानुसार जिस स्थानपर कीली गाड़ी गई थी, वह स्थान प्रारम्भमें "किल्ली"के नामसे प्रसिद्ध हुआ, किन्तु उस कीलको ढीला कर देनेसे उस स्थानका नाम ढिल्ली पड़ गया, जो कालान्तरमें दिल्लीके नामसे जाना जाने लगा। अठारहवीं सदी तक दिल्लीके ग्यारह नामोंमेंसे “ढिल्ली" भी एक नाम माना जाता रहा, जैसा कि इन्द्रप्रस्थप्रबन्धमें एक उल्लेख मिलता है : शक्रपन्था इन्द्रप्रस्था शुभकृत् योगिनीपुरः । दिल्ली ढिल्ली महापुया जिहानावाद इष्यते ॥ सुषेणा महिमायुक्ता शुभाशुभकरा इति । एकादस मित नामा दिल्ली पुरा च वर्तते ॥ (पद्य १४-१५) इस प्रकार पासणाहचरिउमें राजा अनंगपाल, राजा हम्मीर वीर एवं ढिल्लीके उल्लेख ऐतिहासिक दृष्टिसे बड़े महत्वपूर्ण हैं । इन सन्दर्भो तथा समकालीन साहित्य एवं इतिहासके तुलनात्मक अध्ययनसे मध्यकालीन भारतीय इतिहासके कई प्रच्छन्न अथवा जटिल रहस्योंका उद्घाटन सम्भव है। __ हरयाणा एवं ढिल्लीकी भौगोलिक स्थिति तथा कविकी साहू आल्हण तथा साहू नट्टलके साथ मर्मस्पर्शी भेंट-प्रस्तुत रचनाकी आद्यप्रशस्तिके अनुसार कवि अपनी 'चंदप्पहचरिउ'की रचना समाप्तिके बाद कार्य-व्यस्त असंख्य ग्रामोंवाले हरयाणा प्रदेशको छोडकर यमना नदी पार कर ढिल्ल था। वहाँ सर्वप्रथम राजा अनंगपालके एक मन्त्री साह अल्हणसे उसकी भेंट हई। साह उसके 'चंदप्पहचरिउ'का पाठ सुनकर इतना प्रभावित हुआ कि उसने कविको नगरके महान साहित्यरसिक एवं प्रमुख सार्थवाह साहू नट्टलसे भेंट करनेका आग्रह किया। किन्तु कवि बड़ा संकोची था। अतः उसने उससे भेंट १. विशेषके लिए देखिये, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित तथा लेखक द्वारा सम्पादित वडढमाणचरिउ की भूमिका, पृ० ७० - २२९ - Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनेकी अनिच्छा प्रकट करते हुए कहा कि “हे साहू, संसारमें दुर्जनोंकी कमी नहीं। वे कूट कपटको ही विद्वत्ता मानते हैं, सज्जनोंसे ईर्ष्या एवं विद्वष रखते हैं तथा उनके सद्गुणोंको असह मानकर उनसे दुर्व्यवहार करते हैं। वे उन्हें कभी तो मारते हैं और कभी टेढ़ी-मेढ़ी, भौंहें दिखाते हैं अथवा कभी उनका हाथ, पैर अथवा सिर ही तोड़ देते हैं। मैं तो ठहरा सीधा-सादा, सरल स्वभावी, अतः मैं किसीके घर जाकर उससे नहीं मिलना चाहता।" . किन्तु अल्हण साहूके पूर्ण विश्वास दिलाने एवं बार-बार आग्रह करनेपर कवि साहू नट्टलके घर पहुँचा, तो वह उसके मधुर व्यवहारसे बड़ा सन्तुष्ट हुआ। नट्टलने प्रमुदित होकर कविको स्वयं ही आसनपर बिठाया और सम्मान सूचक ताम्बूल प्रदान किया। उस समय नल एवं श्रीधर-दोनोंके मनमें एक साथ एक ही जैसी भावना उदित हुई । वे परस्परमें सोचने लगे, "जं पुन्व जन्मि पविरइउ किंपि । इह विहवसरेण परिणवइ तंपि ॥" अर्थात् हमने पूर्वभवमें ऐसा कोई सुकृत अवश्य किया था जिसका आज साक्षात् ही यह मधुर फल हमें मिल रहा है। साहू नट्ट लके द्वारा आगमन प्रयोजन पूछे जाने पर कविने उत्तर में कहा "मैं अल्हण साह के अनुरोधसे आपके पास आया हूँ। उन्होंने मुझसे आपके गुणोंकी चर्चा की है और बताया है कि आपने एक 'आदिनाथ मन्दिर'का निर्माण कराकर उसपर 'पचरंगे' झण्डेको फहराया है । आपने जिस प्रकार उस भव्य मन्दिरकी प्रतिष्ठा कराई है, उसी प्रकार आप एक पार्श्वनाथचरित' की रचना कराकर उसे भी प्रतिष्ठित कराइये जिससे आपको पूर्ण सुख-समृद्धि प्राप्त हो सके तथा जो कालान्तरमें मोक्षप्राप्तिका भी कारण बन सके । इसके साथ-साथ स्वामीकी एक मूर्ति भी अपने पिताके नामसे उस मन्दिरमें प्रतिष्ठित करा दीजिये।" कविके कथनको सुनकर साहू नट्टलने तत्काल ही अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। प्रचलित इतिहास सम्बन्धी भ्रांन्तियोंके निराकरणमें पासणाहचरिउका योगदान कुछ विद्वानोंने 'पासणाहचरिउके प्रमाण देते हुये नट्टल साहू द्वारा दिल्लीमें पार्श्वनाथ मन्दिरके निर्माण कराए जानेका उल्लेख किया है और विद्वज्जगतमें अब लगभग यही धारणा बनती जा रही है कि साह नदलने दिल्लीमें पार्श्वनाथका मन्दिर बनवाया था जबकि वस्तुस्थिति सर्वथा उससे भिन्न है । यथार्थतः नट्टलने दिल्ली में पार्श्वनाथ मन्दिर नहीं, आदिनाथ जिन मन्दिरका निर्माण कराया था जैसा कि आद्य प्रशस्तिमें स्पष्ट उल्लेख मिलता है (१।९।१-२) । उक्त वार्तालाप कवि श्रीधर एवं नट्टल साहू के बीचका है। उस कथनमें 'पार्श्वनाथचरित्र' नामक ग्रन्थके निर्माण एवं उसके प्रतिष्ठित किए जानेकी चर्चा तो अवश्य आई है किन्तु पार्श्वनाथ मन्दिरके निर्माणकी कोई चर्चा नहीं और कुतुबुद्दीन ऐबकने नट्टल साहू द्वारा निर्मित जिस विशाल जैन मन्दिरको ध्वस्त करके उसपर 'कुन्वत-उल-इस्लाम' नामकी मस्जिदका निर्माण कराया था,२ वह मन्दिर निश्चित ही पार्श्वनाथका नहीं, आदिनाथका ही था । 'पार्श्वनाथ मन्दिर के निर्माण कराये जानेके समर्थनमें विद्वानोंने जो भी सन्दर्भ प्रस्तुत किये हैं, उनमेंसे किसी एकसे भी उक्त तथ्यका समर्थन नहीं होता। प्रतीत होता है कि उक्त पार्श्वचरित'को ही भूलसे 'पार्श्वनाथ मन्दिर' मान लिया गया, जो सर्वथा भ्रमात्मक है। १-२. दिल्ली जैन डायरेक्टरी, पृ०, ४ -२३० - : Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार, साहू नट्टलको अल्हण साहूका पुत्र मान लिया गया जो वास्तविक तथ्यके सर्वथ विपरीत है। मूल ग्रन्थका विधिवत् अध्ययन न करने अथवा उसकी भाषाको न समझने या आनुमानिक आधारोंपर प्रायः ऐसी ही भ्रमपूर्ण बातें कह दी जाती हैं जिनसे यथार्थ तथ्योंका कम ही लड़खड़ा जाता हचरिउकी प्रशस्तिके अनुसार अल्हण एवं नट्टल-दोनों घनिष्ट मित्र तो थे, किन्तु पिता-पुत्र नहीं । अल्हण राजगन्त्री था, जबकि नट्टल साहू ढिल्ली नगरका एक सर्वश्रेष्ठ, सार्थवाह, साहित्यरसिक, उदार, दानी एवं कुशल राजनीतिज्ञ था। वह अपने व्यापारके कारण अंग-वंग, कलिंग, गोड़, केरल, कर्नाटक, चोल, द्रविड, पांचाल, सिन्ध, खश, मालवा, लाट, जट्ट, नेपाल, टक्क, कोंकण महाराष्ट्र, भादानक, हरयाणा, मगध, गुर्जर एवं सौराष्ट्र जैसे देशोंमें प्रसिद्ध था तथा वहाँके राजदरबारोंमें उसे सम्मान प्राप्त था। कविने इसी नट्टल साहूके आश्रयमें रहकर पासणाहचरिउकी रचना की थी। इसी रचनाको आदि एवं अन्तकी प्रशस्तियों एवं पुष्पिकाओंमे साहू नट्टलके कृतित्व एवं व्यक्तित्वका अच्छा परिचय प्रस्तुत किया है। वर्ण्य विषय प्रस्तुत 'पासणाहचरिउ' में कुल मिलाकर १२ सन्धियाँ एवं २४७ कडवक हैं। कविने इसे २५०० ग्रन्थान प्रमाण कहा है । उसके वर्ण्यविषयका वर्गीकरण निम्न प्रकार है : सन्धि १-आद्य प्रशस्तिके बाद वैजयन्त विमानसे कनकप्रभदेवका चयकर वामा देवीके गर्भमें आना । सन्धि २-राजा हयसेनके यहाँ पार्श्वनाथका जन्म एवं बाललीलाएँ। सन्धि ३-हयसेनके दरबारमें यवन नरेन्द्रके राजदूतका आगमन एवं उसके द्वारा हयसेनके सम्मुख यवन-नरेन्द्र की प्रशंसा । सन्धि ४-राजकुमार पार्श्वका यवन-नरेन्द्रसे युद्ध तथा मामा रविकीर्ति द्वारा उसके पराक्रमकी प्रशंसा। सन्धि ५-रविकीर्ति द्वारा पावसे अपनी पुत्रीके साथ विवाह कर लेनेका प्रस्ताव । इसी बीचमें वनमें जाकर जलते हुये नाग-नागिनीको अन्तिम वेलामें मन्त्र प्रदान एवं वैराग्य । सन्धि ६-हयसेनका शोक सन्तप्त होना । पावकी घोर तपस्याका वर्णन । सन्धि ७-पार्श्व तपस्या एवं उनपर कमठ द्वारा किया गया घोर उपसर्ग । सन्धि ८,९-कैवल्य प्राप्ति, समवशरण-रचना एवं धर्मोपदेश । सन्धि १०-रविकीति द्वारा दीक्षाग्रहण । सन्धि ११-धर्मोपदेश । सिन्ध १२- पावके भवान्तर तथा हयसेन द्वारा दीक्षाग्रहण । अन्त्य प्रशस्ति । पासणाहरिउमें समकालीन राजनीतिक घटनाओंकी झलक 'पासणाहचरिउ' एक पौराणिक महाकाव्य है, अतः उसमें पौराणिक इतिवृत्त तथा दैवी चमत्कार आदि प्रसंगोंकी कमी नहीं । इसका मूल कारण यह है कि कवि विबुध श्रीधरका युग संक्रमणकालीन युग था। कामिनी एवं काञ्चनके लालची मुहम्मद गोरीके आक्रमण प्रारम्भ हो चुके थे, उसकी विनाशकारी लूटपाटने उत्तर भारतको थर्रा दिया था। हिन्दू राजाओंमें भी फूटके कारण परस्परमें बड़ी कलह मची हुई थी। ढिल्लीके तोमर राजा अनङ्गपालको अपनी सुरक्षा हेतु कई युद्ध करने पड़े थे। कविने जिस हम्मीर वीरके अनङ्गपाल द्वारा पराजित किए जानेकी चर्चा की है, सम्भवतः वह घटना कविकी आँखों देखी रही होगी। कविने कुमार पावके अभयराजके साथ तथा त्रिपृष्ठके हयग्रीवके साथ जैसे क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित युद्ध वर्णन किये हैं, वे वस्तुतः कल्पना प्रसूत नहीं, किन्तु हिन्दू-मुसलमानों अथवा हिन्दू राजाओंके पारस्परिक युद्धोके आँखों देखे १. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा, पृ० ४११३८ - २३१ - Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा विश्वस्त गुप्तचरों द्वारा सुने गये यथार्थ वर्णन जैसे प्रतीत होते हैं । उसने उन युद्धोंमें प्रयुक्त जिन शस्त्रास्त्रोंकी चर्चाकी है, वे पौराणिक, ऐन्द्रजालिक अथवा दैवी नहीं, अपितु खुरपा. कृपाण, तलवार, धनुषबाण जैसे वे ही अस्त्र-शस्त्र हैं जो कविके समयमें लोक प्रचलित थे। आज भी वे हरयाणा एवं दिल्ली प्रदेशोंमें उपलब्ध हैं और उन्हीं नामोंसे जाने जाते हैं। ये युद्ध इतने भयङ्कर थे कि लाखों-लाखों विधवा नारियों एवं अनाथ बच्चोंके करुण क्रन्दनको सुनकर संवेदनशील कविको लिखना पड़ा था : दुक्कर होई रणंगणु । रिउ वाणावलि पिहिय जहंगण । संगरणामु जि होई भयंकरु । दुरय-दुरय रह सुहड खयंकरु ।। पा० २।१४।३,५ कुछ मनोवैज्ञानिक वर्णन एवं नवीन मौलिक उपमाएँ कवि श्रीधर भावोंके अश्रुत चितेरे हैं । यात्रा-मार्गोंमें चलने वाले चाहे सैनिक हो अथवा अटवियोंमें उछल-कूद करने वाले बन्दर, वन विहारोंमें क्रीड़ाएँ करने वाले प्रेमी-प्रेमिकाएँ हों अथवा आश्रमोंमें तपस्या करने वाले तापस, राज दरबारोंके सूर सामन्त हों अथवा साधारण प्रजाजन, उन सभीके मनोवैज्ञानिक वर्णनोंमें कविकी लेखनीने अद्भुत चमत्कार दिखलाया है। इस प्रकारके वर्णनोंमें कविकी भाषा भावानुगामिनी एवं विविध रस तथा अलंकार उनका अनुकरण करते हुए दिखाई देते हैं । पार्श्व प्रभु विहार करते हुए तथा कर्वट, खेड, मंडव आदि पार करते हुए जब एक भयानक अटवीमें पहुँचते हैं, तब वहाँ उन्हे मदोन्मत्त गजाधिप, द्रुतगामी हरिण, भयानक सिंह, घुरघुराते हुए मार्जार एवं उछल-कूद करते हुए लंगूरोंके झुण्ड दिखाई पड़ते हैं । इस प्रसङ्गमें कवि द्वारा प्रस्तुत लंगूरोंका वर्णन बड़ा स्वाभाविक बन पड़ा है ( ७।१४।४-१६) । अन्य वर्णन प्रसङ्गोंमें भी कविका कवित्व चमत्कारपूर्ण बन पड़ता है। इनमें कल्पनाओंकी उर्वरता, अलङ्कारकी छटा एवं रसोंके अमृतमय प्रवाह दर्शनीय हैं। इस प्रकारके वर्णनोंमें ऋतु-वर्णन, अटवी, वर्णन, सन्ध्या, रात्रि एवं प्रभात-वर्णन तथा आश्रम-वर्णन आदि प्रमुख हैं। कविकी दृष्टि में सन्ध्या किसीके जीवन में हर्ष उत्पन्न करती है, तो किसीके जीवनमें विषाद । वस्तुतः वह हर्ष एवं विषादका विचित्र सङ्गमकाल है । जहाँ कामीजनों, चोरों, उल्लुओं एवं राक्षसोंके लिए वह श्रेष्ठ वरदान है, वहीं नलिनीदलके लिए घोर विषादका काल । वह उसी प्रकार मुरझा जाता है जिस प्रकार इष्टजनके वियोगमें बन्धुबान्धवगण । सूर्यके डूबते ही उसकी समस्त किरणें अस्ताचलमें तिरोहित हो गई हैं । इस प्रसङ्गमें कवि उत्प्रेक्षा करते हुये कहता है कि विपत्तिकालमें अपने कर्मोंको छोड़कर और कौन किसका साथ दे सकता है ? सूर्यके अस्त होते ही अस्ताचल पर लालिमा छा रही है जो ऐसी प्रतीत हो रही है मानो अन्धकारके गुपठा ललाहपर किसीने सिन्दूरका तिलक ही जड़ दिया हो। अन्धकारके गुफा ललाटपर किसीने सिन्दूरका तिलक जड़ ही दिया हो । यह कवि-कल्पना सचमुच ही अद्भुत एवं नवीन है। कविका रात्रि-वर्णन प्रसङ्ग भी कम चमत्कारपूर्ण नहीं है। वह कहता है कि समस्त संसार घोर अन्धकारकी गहराईमें डूबने लगा है । इस कारण विलासिनियोंके कपोल रक्ताभ हो उठे हैं तथा उनके नीवीबन्ध शिथिल होने लगे हैं। महाकवि सूर एवं जायसी पर प्रभाव कवि श्रीधरने शिशुकी लीलाओंका भी बड़ा सुन्दर वर्णन किया है । उनकी वाल एवं किशोर-लीलाओं तथा उनके असाधारण सौन्दर्य एवं अङ्ग-प्रत्यङ्गकी भाव-भङ्गिमाओंके चित्रणोंमें कविकी कविता मानो -२३२ - Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरलताका स्रोत बनकर उमड़ रही है । वहाँ कवि कहता है, “शिशु पार्श्व कभी तो माताके अमृतमय दुग्धका पान करते, कभी अँगूठा चूसते, कभी मणि जटित चमचमाती गेंद खेलते, तो कभी तुतली बोलीमें कुछ बोलनेका प्रयास करते । कभी तो वे स्वयं रेंग-रेंगकर चलते और कभी परिवारके लोगोंकी अँगुली पकड़कर चलते। जब वे माता-पिताको देखते, तो अपनेको छिपाने के लिए हथेलियोंसे अपनी ही आँखें ढंक लेते। चन्द्रमाको देखकर वे हँस देते थे। उनका जटाजूटधारी शरीर निरन्तर धूलि-धूसरित रहता था। खेलते समय उनकी करधनीकी शब्दायमान किकिणियाँ सभीको मोहती रहती थीं।" कविके इस बाल-लीला वर्गनने हिन्दीके भक्त कवि सूरदासको सम्भवतः सर्वाधिक प्रभावित किया है। पावकी बाल-लीलाओंके वर्णनोंका प्रभाव कृष्णके बाल्य वर्णनमें स्पष्ट रूपेण दृष्टिगोचर होता है। कहीं-कहीं तो अर्धालियोंमें भी यत्किञ्चित हेर-फेरके साथ उनका सर द्वारा उपयोग कर लिया गया प्रतीत होता है । यथा : श्रीधर-अविरल धूलि धूसरिय गत्त, २।१५।५ सूर-धूरि धूसरित गात, १०।१००।३ श्रीधर होहल्लरु (ध्वन्यात्मक ), २।१४।८ सूर-हलरावे ( ध्वन्यात्मक ), १०।१२८।८ श्रीधर-खलियक्खर वयणिहि वज्जरन्तु, २।१४।३ सुर-बोलत श्याम तोतरी बतियाँ, १०११४७ श्रीधर-परिवारंगुलि वग्गउ सरन्तु , २।१४।४ सूर-हरिकौं लाइ अंगुरी चलन सिखावत, १०।१२८८ इस प्रकार दोनों कवियोंके वर्णनोंकी सदशताओंको देखते हए यदि संक्षेपमें कहना चाहें तो कह सकते हैं कि श्रीधरका संक्षिप्त बाल-वर्णन सूरदास कृत कृष्णकी बाल-लीलाओंके वर्णनके रूपमें पर्याप्त परिष्कृत एवं विकसित हुआ है। मध्यकालीन उत्तरभारतीय वनस्पति जगत् कवि श्रीधर द्वारा वणित विविध वनस्पतियाँ भी कम आश्चर्यजनक नहीं। अटवी वर्णनके प्रसङ्गमें विविध प्रकारके वृक्ष, पौधे, लतायें, जिमीकन्द आदिके वर्णनोंमें कविने मानों सारे प्रकृति जगत्को ही साक्षात् उपस्थित कर दिया है। आयुर्वेद एवं वनस्पतिशास्त्रके मध्यकालीन इतिहासकी दृष्टिसे कविको यह सामग्री बड़ी महत्त्वपूर्ण है। कवि द्वारा वर्णित वनस्पतियोंका वर्गीकरण निम्न प्रकार किया जा सकता है। शोभावृक्ष-हिंताल, तालूर, साल, तमाल, मालूर, धर, धम्मण, बंस, खदिर, तिलक, अगस्त्य प्लक्ष, चन्दन । फलवृक्ष-आम्र, कदम्ब, नींबू, जम्बीर, जामुन, मातुलिंग, नारंगी, अरलू, कोरंटक, अंकोल्ल, फणिस, प्रियंगु, खजूर, तिन्दुक, कैंथ, ऊमर, कठूमर, चिचिणी (चिलगोजा), नारिकेल, वट, सेंवल, ताल । पुष्पवृक्ष-चम्पक, कचनार, कणवीर (कनेर), टउह, कउह, बबूल, जासवण्ण (जाति ?) शिरीष, पलाश, बकूल, मुचकुन्द, अर्क, मधुवार । फल एवं पुष्प लताएँ-लवंग, पूगफल, विरिहिल्ल, भल्लु, केतकी, कुरव, कर्णिकार, पाटलि, सिन्दूरी, दाक्षा, पुनर्नवा, वाण, वोर, कच्चूर । कंद-जिमीकन्द, पीलू, मदन एवं गंगेरी । -- २३३ - Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विबुध श्रीधरके उक्त वनस्पति वर्णनने परवर्ती कवियोंमें सूफी कवि जायसीको सम्भवतः बहुत अधिक प्रभावित किया है। इस प्रसंगमें जायसी कृत पद्मावत' (२।१०-१३ एवं २०।१-१६) के सिंहलद्वीप वर्णन एवं बसन्तखण्डके अंश पासणाहचरिउके उक्त अंशसे तुलनीय है। दोनोंके अध्ययनसे यह प्रतीत होता है कि जायसीका वनस्पति-वर्णन श्रीधरके वनस्पति-वर्णनका पल्लवित एवं परिष्कृत रूप है। समकालीन लौकिक शिक्षा-पद्धति “पासणाहचरिउ" में कुमार पावके लिए जिन शिक्षाओंको प्रदान किये जानेकी चर्चा आई है, वे प्रायः समकालीन प्रचलित एवं क्षत्रिय राजकुमारों तथा अमीर उमराओंको दी जानेवाली लौकिक शिक्षायें ही हैं। कविने इस प्रसंगमें किसी प्रकारका साम्प्रदायिक व्यामोह न दिखाकर विशुद्ध यथार्थ, लौकिक एवं राष्ट्रीय रूपको प्रदर्शित किया है । इन शिक्षाओंका विभाजन निम्न चार वर्गोंमें किया जा सकता है : १. आत्मविकास एवं जीवनको अलंकृत करनेवाली विद्यायें (साहित्य) श्रुतांग, वेद, पुराण, आचार शास्त्र, व्याकरण, सप्तभंगीन्याय, लिपिशास्त्र, लेखनक्रिया (चित्रनिर्माणविधि), सामुद्रिक शास्त्र, कोमल काव्यरचना, देशभाषा कथन, नवरस, छन्द, अलंकार, शब्दशास्त्र एवं न्यायदर्शन। २. राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु आवश्यक विद्यायें (कलाएँ) __ गज एवं अश्व विद्या, शर-शस्त्रादि संचालन, व्यूह-संरचना, असि एवं कुन्त संचालन, मुष्टि एवं मल्लयुद्ध, असि-बन्धन, शत्रनगर-रोधन, रणमुखमें ही शत्ररोधन, अग्नि एवं जल बन्धन, वज्र-शिलावेधन, अश्व, धेनु एवं गजचक्रका मूल बन्धन । ३. व्यावहारिक विद्याएँ (कलाएँ) अंजन-लेपन, नर-नारी-प्रसाधन, अंग-मर्दन, सूर-भवन (मन्दिर) आदिमें लेपन (चित्रकारी) का ज्ञान, नर-नारी वशीकरण, पाँच प्रकारके घण्टोंका वादन, चित्रोपल, स्वर्णतरुके तागोंका निर्माण, कृषि एवं वाणिज्य विद्यायें, काल परिवंचण (अर्थात अचूक ओषधि शास्त्रका ज्ञान एवं औषधि निर्माण विद्या), सर्प विद्याका ज्ञान, नवरसयुक्त भोजन निर्माण विधि एवं रति विस्तार (कामशास्त्र) ४. संगीत एवं वाद्य सम्बन्धी विद्याएँ (ललित कलाएँ) मन्दल, टिविल, ताल, कंसाल, भंमा, भेरी, झल्लरी, काटल, करड़, कंबु, डमरू, डक्क, हुडुक्क एवं टट्टरीका ज्ञान। उपर्यक्त विद्याओंकी सची में एक भी अलौकिक विद्याका उल्लेख नहीं। कविने युगानुकूल उन्हीं समकालीन लोकप्रचलित विद्याओंका वर्णन किया है जो एक उत्तरदायित्वपूर्ण मध्यकालीन राष्ट्राध्यक्षको सामाजिक विकासके लिए अत्यावश्यक, उन्नत, प्रभावपूर्ण तथा सर्वांगीण व्यक्तित्वके विकासके लिए अनिवार्य थीं। इसीलिए कविका नायक पाश्र्व जैन होकर भी चारों वेदों एवं अष्टादश पुराणोंका अध्येता बताया गया है क्योंकि उसके राज्यमें विविध धर्मानुयायियोंका निवास था। संगीतमें भी जिन वाद्योंकी चर्चा कविने की है, वे भी देवकृत अथवा पौराणिक वाद्य नहीं, अपितु वे वाद्य हैं जो हरयाणा एवं दिल्ली तथा उनके आसपासके प्रदेशोंमें प्रचलित थे। अधिकांश वाद्य पंजाब एवं हरयाणामें आज भी उन्हीं नामोंसे जाने जाते हैं तथा भांगड़ा या अन्य नत्योंमें प्रायः उन्हींका अधिक प्रयोग होता है। १. साहित्य-सदन, चिरगाँव, झाँसीसे प्रकाशित । -२३४ - Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचुर भौगोलिक सामग्री afa श्रीधर मात्र भावनाओंके ही चितेरे नहीं, अपितु उन्होंने जिस भूखण्ड पर जन्म लिया था, उसके कण-कण के अध्ययनका भी प्रयास किया था। यही कारण है कि पासणाहचरिउमें विविध नगर एवं देशवर्णन, नदी, पहाड़, सरोवर, वनस्पतियाँ, विविध मनुष्य जातियाँ, उनके विविध व्यापार, भारत भूमिका तत्कालीन राजनीतिक विभाजन, विविध देशोंके प्रमुख उत्पादन तथा उनके आयात-निर्यात सम्बन्धी अनेक भौगोलिक सामग्रियोंके चित्रण भी कविने किये हैं । उदाहरणार्थ कुछ सामग्री यहाँ प्रस्तुत की जाती है । कुमार पार्श्व जिस समय काशी राज्यके युवराज पदपर प्रतिष्ठित किए जाते हैं, उस समय निम्न छब्बीस देशोंके नरेश उन्हें सम्मान प्रदर्शन हेतु तलवार हाथमें लेकर उनके राज दरबार में पधारते हैं । उक्त देशोंके वर्गीकृत नाम इस प्रकार हैं : पूर्व भारत - वज्रभूमि, अंग, बंग, कलिंग, मगध, पापा, खश एवं गौड़ । उत्तर भारत - हरयाणा, टक्क, चौहान, जालन्धर, हाण एवं हूण | पश्चिम भारत गुर्जर, कच्छ और सिन्धु । दक्षिण भारत कर्नाटक, महाराष्ट्र, चोड़ एवं राष्ट्रकूट । मध्य भारत-मालवा, अवध, चन्दिल्ल, भादानक एवं कलचुरी । युवराज पार्श्व जब यवनराजके साथ युद्ध करने हेतु प्रस्थान करने लगते हैं, तब निम्न नरेशोंने अपने-अपने देशोंमें निर्मित निम्न सुप्रसिद्ध वस्तुएँ युवराज पार्श्वकी सेवामें भेंट स्वरूप भेजीं । मणिमेखलाएँ एवं हारलताएँ —–कीर देश, पाञ्चाल एवं टक्क देश, पालम्ब एवं जालन्धर । बाणों द्वारा अभेद्य मुकुट — सोन देश । केयूर — सिन्ध देश । कंकण - हम्मीर राजा द्वारा प्रेषित । कुण्डल - मालव । निवसन वस्त्र ---- खश । चूड़ारत्न - नेपाल । ऐसा प्रतीत होता है कि ग्यारहवीं-बारहवीं सदीमें उक्त देशोंमें इन वस्तुओं का विशेष रूपसे निर्माण किया जाता था तथा उनका दूसरे देशों में निर्यात भी किया जाता रहा होगा । असम्भव नहीं कि इन व्यापारोंसे कवि श्रीधरके आश्रयदाता साहू नट्टलका भी सम्बन्ध रहा हो क्योंकि कविने साहू नट्टलका जिन-जिन देशोंसे सम्बन्ध बतलाया है, इस सूचीमें उक्त देशोंका भी नाम आता है । मध्यकालीन भारतकी आर्थिक एवं व्यापारिक दृष्टिसे तो ये उल्लेख महत्त्वपूर्ण हैं ही, तत्कालीन कला, सामाजिक अभिरुचि एवं विविध निर्माण सामग्री के उपलब्धि स्थलोंकी दृष्टिसे भी उनका अपना विशेष महत्व है । काशी देशकी ओरसे यवनराजके साथ लोहा लेनेवाले राज्योंसे नेपाल, जालन्धर, कीरट्ठ एवं हमीरने हाथियोंके समान चिघाड़ते हुए, सिन्ध, सोन एवं पाञ्चालने भीमके समान मुखवाले बाण छोड़ते हुए तथा मालव, टक्क एवं खशने दुर्दम यवनराजके साथ विषम युद्ध करके काशी नरेशका साथ दिया । प्रतीत होता हैं कि उक्त राज्योंने अपना महासंघ बनाकर काशी नरेशका साथ दिया होगा, जिसमें कर्नाटक, लाट, कोंकण, वराट, विकट, द्राविड़, भृगुकच्छ, कच्छ, अति विकट वत्स, डिंडीर, अत्यन्त दुःसाध्य विन्ध्य, कोशल, - - २३५ - Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरट्र एवं धृष्ट सौराष्ट्रने भी उक्त महासंघका पूरा पूरा साथ दिया था और इनकी सम्मिलित शक्तिने ही यवनराजको बार-बार पीछे हटा दिया था। इतने देशोंके नामोंके एक साथ उल्लेख अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। यवराज सुबुक्तगीन एवं उसके उत्तराधिकारियों तथा मुहम्मद गोरीके आक्रमणोंसे जब धन, जन, सामाजिक एवं राष्ट्रीय प्रतिष्ठाकी हामि एवं देवालयोंका विनाश किया जा रहा था, तब प्रतीत होता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा एवं समान स्वार्थों को ध्यानमें रखते हुए पड़ोसी एवं सुदूरवर्ती राज्योंने उक्त यवन राजाओंके आक्रमणोंके प्रतिरोधमें सम्भवतः तोमरवंशी राजा अनंगपाल ततीयके साथ अथवा अपना कोई स्वतन्त्र महासंघ बनाया होगा। कविने सम्भवतः उसीकी चर्चा पार्श्व एवं यवनराजके माध्यमसे प्रस्तुत की है। यथार्थतः यह बड़ा रोचक एवं गम्भीर शोधका विषय है। शोधकर्ताओं एवं इतिहासकारोंको इस दिशामें तुलनात्मक गम्भीर अनुसन्धान करनेकी आवश्यकता है। - कविने प्रसंगवश हरयाणा, दिल्ली, कुशस्थल, कालिन्दी, वाराणसी एवं मगध आदिके भी सुन्दर वर्णन किये है तथा छोटी-छोटी भौगोलिक इकाइयों (कर्वट, खेड, मडम्ब, आराम, द्रोणमुख, संवाहन, गाम, पट्टन, पुर, नगर आदि) के भी उल्लेख किये हैं। समकालीन दिल्लीका आँखों देखा हाल इस कविने जितने प्रामाणिक ढंगसे किया है, इतिहासकी दृष्टिसे वह अनूठा है। पूर्वोक्त वर्णनों एवं इन उल्लेखोंको देखकर यह स्पष्ट है कि कविको मध्यकालीन भारतका आर्थिक, व्यापारिक, प्राकृतिक, मानवीय एवं राजनीतिक भूगोलका अच्छा ज्ञान था। कवि द्वारा प्रस्तुत सन्दर्भ सामग्री निश्चय ही तत्कालीन प्रामाणिक इतिहास तैयार करने में सहायक सिद्ध हो सकती है । रस-संयोजन पासणाहचरिउका अंगी रस शान्त है, किन्तु शृंगार, वीर और रौद्ररसोंका भी उसमें सम्यक परिपाक हुआ है। कविने युद्धके लिए प्रस्थान, संग्राममें चमचमाती तलवारें, लड़ते हुए वीरोंकी हुंकारों एवं योद्धाओंके शौर्य-वीर्य आदिके वर्णनोंमें वीर-रसकी सुन्दर उद्भावना की है। पार्श्वकुमारको उसके पिता अश्वसेन जब युद्धकी भयंकरता समझाकर उन्हें युद्ध में न जानेकी सलाह देते हैं, तब पार्श्व अत्यन्त वीरतापूर्ण उत्तर देते हैं (पा० च०, ३।१२) । राजा अरविन्द कमठके दुराचारसे खिन्न होकर क्रोधातुर हो जाता है और उसे नाना प्रकारके दुर्वचनों द्वारा अपमानित करता है, तब राजाके रौद्र रूपका कविने चित्रण कर रौद्र-रसकी अच्छी उद्भावना की है। इसी प्रकार पावके वैराग्यके समय परिवार एवं पुरवासियोंके वियोगके अवसरपर करुण रस तथा जब पार्श्व वनमें जाकर दीक्षित हो जाते हैं, उस सन्दर्भमें शान्त-रसका सुन्दर परिपाक हुआ है। श्रृंगार रसके भी जहाँ-तहाँ उदाहरण मिलते हैं। कविने नगर, वन, पर्वत, नर एवं नारियोंके सौन्दर्यका मोहक चित्रण किया है, किन्तु यह श्रृंगार रतिभावको पुष्ट न कर विरक्तिको ही पुष्ट करता है। माता वामादेवीके सौन्दर्यका वर्णन इसका उदाहरण है। समकालीन लोक-शब्दावली पासणाहचरिउ एक प्रौढ़ अपभ्रंश रचना है, किन्तु उसमें कविने जहाँ-तहाँ अपभ्रंशके साथ-साथ तत्कालीन लोक-प्रचलित कुछ ऐसे शब्दोंके भी प्रयोग किये हैं जो आधुनिक बोलियोंके समकक्ष हैं। इनमेंसे कुछ शब्द तो आज भी हूबहू उसी रूपमें प्रचलित हैं। इस प्रकारकी शब्दावलीसे कविकी कवितामें प्राणवत्ता, वर्णन प्रसंगोंमें रोचकता एवं गतिशीलता आई है। उदाहरणार्थ कुछ शब्द यहाँ प्रस्तुत हैं : वार-वार -२३६ - Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (बारम्बार ३।८।१), हल्ला (शोरगुल, ४।१८।४), फाड़ना (४।९।१), थोड़ा (१०।५।३), अज्जकल्ल (१०।१४।७), डमरु (३।१०।११, ३।११।५), पतला (१।१३।१०), हौले-हौलें (धीरे-धीरे, ३।१७।२), चप्प (चापना, ५।७।८), चांपना (७।११।४), चुल्ली (चूल्हा, ४।१।१४), लक्कड़ (६।८।१२), पण्ही (जूता, ४।९।४), कुमलाना (मुरझाना ३।१८।८), खुरुप्प (खुरपा, ४।१९।१३, ५।११।९), धोवन (धोन ३।१८।२), लट्टी (लाठी, ३।११।३), मुट्ठि (३।११।४), शट्ट (भीड़, ३।६।१२), चिंध, (धज्जी ४।९।१), तोड (तोड़ना, ४।९।८), धुत्त (नशेमें चूर, ३।१३।२), चोजु (आश्चर्य १।१३।९), अन्धार (अन्धेरा, ३।१९।७), रेल्ल (धक्का, मुक्की, ७।१३।१४), पेल्ल (३।८।४), बोल्लाविय (बुलाना, ३।८।४), उट्ठिउ (उठा, ३।८।१), झाडन्त (झाड़कर, ४।९।८), ढुक्क (दूंकना, झांकना, ३।१८।११, ४।१९।७), बुड (डूबना, ३।१८।३), पाण्डत (७।९।२), टालन्त (टालना, ७।९।९), कढ्ड (निकालना, ४।२०।१८), चिक्कार (ध्वन्यात्मक, ५।११५, ५।३।१४)। शब्दावलीमसे अधिकांश शब्द हरयाणवी, राजस्थानी, बुन्देली एवं बघेलीमें आज भी उसी प्रकार अथवा यत्किचित् हेरफेरके साथ प्रयुक्त होते हैं । कवि श्रीधर अपभ्रंशके साथ-साथ संस्कृत भाषाके भी समानाधिकारी विद्वान् थे, यह उनकी अन्त्य प्रशस्तिमें लिखित संस्कृत श्लोकोंसे स्पष्ट ज्ञात होता है। कविने शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका एवं आर्या छन्दोंमें अपने आश्रयदाता नट्टल साहूको आशीर्वाद देते हुए उसकी वंशावली प्रस्तुत की है । नट्टलका परिचय देते हुए कवि लिखता है : पश्चाद् बभूव शशिमण्डलभासमानः ख्यातः क्षितीश्वरजनादपि लब्धमानः । सद्दर्शनामृतरसायनपानपुष्टः श्रीनट्टलः शुभमना क्षपितारिदुष्टः ।। उक्त सन्दर्भ सामग्रियोंके आधारपर पासणाहचरिउ अपभ्रंश साहित्यकी एक महनीय कृति सिद्ध होती है। स्थानाभावके कारण उक्त रचनाके सर्वांगीण अध्ययनसे जो सन्दर्भ सामग्री एकत्रित हई, उसे अनेक सीमाओंमें बँधे रहनेके कारण पूरा विस्तार नहीं दिया जा सका है। फिर भी, जो संक्षिप्त अध्ययन यहाँ प्रस्तुत किया गया, उससे स्पष्ट है कि वस्तुतः यह ग्रन्थ समकालीन विविध परिस्थितियोंका एक सुन्दर प्रामाणिक आकर ग्रन्थ है जिसके विधिवत अध्ययनसे अनेक गूढ़ तथ्य प्रकाशित हो सकते हैं। -२३७ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनगीतिकाव्यमें भक्ति-विवेचन प्रो० श्रीचन्द्र जैन, उज्जैन, म०प्र० भक्तिकी महिमा सन्तप्त जीवके लिये भक्ति एक अद्भुत रसायन है जिसके सहारे वह अपनी आकूलताको सुगमतासे मिटा सकता है। यह अथाह सागरको गोपदके रूपमें परिणत करने वाली तथा स्यामल मेघों की डरावनी अनुभतिको सुखद भावनामें बदलने वाली है । असाध्य रोगोंके शमनार्थ भक्ति ही एक अलौकिक औषधि मानी गई है। विषधरको मणिमालामें, कांटोंको फूलोंमें, लोहेको स्वर्णमें एवं विषको अमृतमें बदलने वाली यह विनयरूपिणी भक्ति है जो चिरकालसे प्राणीको आकर्षित कर रही है। __ सब ओरसे निराश अबलाको सांत्वना देने वाली भक्ति सर्वमान्य है । ग्राहके मुखमें विह्वल गजराज का संरक्षण इसो भक्ति भावनाने किया था। अंजन तस्करकी आत्मशुद्धि भक्तिसे ही हई थी। अड़तालिस बन्द ताले एक सन्तके भजनसे ही क्षणमरमें खुल गये थे । कोढ़ जैसा भयावह रोग भक्तिसे सिंचित जल सिंचन से नष्ट हो गया था, यह आश्चर्य आज भी हमें चकित कर देता है । सतीत्वके परीक्षण कालमें भक्ति भावना ने जो अद्भुत परिणाम प्रदर्शित किये हैं, वे सर्वविदित हैं । पाषाण मूर्तिका विलीन होना, शुष्क वृक्षका पल्लवित होना, सूखे सरोवरका कमलोंसे परिपूर्ण होना, भूधरका एक निमिष में धूलि बन जाना, क्रुद्ध मृगराजका विनम्र बनकर श्वान-शिशुकी भांति पैर चाटना एवं तूफानका सुरभित पवनके रूपमें पूर्ण वातावरणको सुगन्धित कर देना-ये सब भक्तिके ही चमत्कार हैं। मुक्ति साधनाका मार्ग भक्ति, ज्ञान और कर्म-ये तीन साधनाके बड़े मार्ग हैं । ज्ञान मानव जीवनको किसी शद्ध अद्वैत तत्त्व की ओर खींचता है, कर्म उसे व्यवहारकी ओर प्रवृत्त करता है, किन्तु भक्ति या उपासनाका मार्ग ही ऐसा है जिसमें संसार और परमार्थ-दोनोंकी एक साथ मधुर साधना करना आवश्यक है । मायुर्य ही भक्ति है। देवतत्त्वके प्रति रसपूर्ण आकर्षण जब सिद्ध होता है, तभी सहज भक्तिकी भूमिका प्राप्त होती है । यों तो बाह्य उपचार भी भक्तिके अंग कहे गये हैं और नवधा भक्ति एवं षोडशोपचार पूजाको ही भक्ति सिद्धान्तके अन्तर्गत रखा जाता है, किन्तु वास्तविक भक्ति मनकी वह दशा है जिसमें देवत्वका माधुर्य मानवी मनको प्रबल रूपसे अपनी ओर खींच लेता है । यह तो अनुभव सिद्ध स्थिति है। जब यह प्राप्त होती है, तब मनुष्यका जीवन, उसके विचार और कर्मकी उच्च भूमिकामें मनुष्य इस प्रकारके मानस परिवर्तनका अनुभव नहीं करता क्योंकि साधनाका कोई भो मार्ग अपनाया जाय, उसका अन्तिम फल देवतत्त्वकी उपलब्धि ही है। देवतत्त्वकी उपलब्धिका फल है आन्तरिक आनन्दको अनुभुति । अतएव किसी भी साधना पथको तारतम्य की दष्टिसे ऊँचा या नीचा न कहकर हमें यहो भाव अपनाना चाहिये कि रुचिभेदसे मानवको इनमेंसे किसी एक को चुन लेना होता है। तभी मन अनुकूल परिस्थिति पाकर उस मार्गमें ठहरता है । वास्तविक साधना वह है जिसमें मनका अन्तर्द्वन्द्व मिट सके और अपने भीतर ही होने वाले तनाव या संधर्षकी स्थिति बचकर मनकी सारी शक्ति एक ओर ही लग सके। जिस प्रकार बालक माताके दूधके लिये व्याकुल होता है और जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अन्नके लिये क्षधित होकर सर्वात्मना उसीकी आराधना करता है, वैसे ही अमत -२३८ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवतत्त्वके लिये जब हमारी भावना जाग्रत हो, तभी भक्तिको विपुल सूख समझाना चाहिये । भक्तिका सत्रार्थ है-भागधेय प्राप्त करना।' हिन्दू, बौद्ध, जैन-सभी धर्मोंने भक्ति पदको स्वीकार किया है । यह एक प्राचीन साधना मार्ग रहा है। भक्तिसे मनके विकार नष्ट होते हैं और उदात्त भावोंकी सृष्टिके साथ इंसान एक ऐसे पुनीत वातावरणमें अपने आपको परिवेष्टित करता है कि उसे समस्त अशभ संकल्प-विकल्प तिरोहित हो जाते हैं। वैष्णव सन्तोंने इस भक्तिमार्गको राजपथके रूपमें स्वीकार किया है। भक्तिका व्युत्पत्त्यर्थ 'भक्ति' शब्द ‘भज' धातुमें स्त्रीलिंग क्तिन् प्रत्यय जोड़कर बनता है । ऐसा अभिघान राजेन्द्र कोशमें माना गया है । मुनि पाणिनिने 'स्त्रियां क्तिन्' से धातुओंमें स्त्रीवाची क्तिन् प्रत्यय लगानेका विधान किया है। क्तिन् प्रत्यय भाव अर्थमें होता है किन्तु वैयाकरणोंके यहाँ कृदन्तीय प्रत्ययोंके अर्थ परिवर्तन एक प्रक्रियाके अङ्ग हैं । अतः वहीं क्तिन् प्रत्यय अर्थान्तरमें भी हो सकता है। इस प्रकार भक्ति शब्दकी भजनं भक्तिः, भज्यते अनया इति भक्तिः, भजन्ति अनया इति भक्तिः, इत्यादि व्युत्पत्तियां की जा सकती हैं। 'भज सेवायम' से 'भज' धात सेवा अर्थमें आती है। पाइअ-सह-महण्णवमें भी भक्तिको सेवा कहा है। राजेन्द्रकोशमें सेवायां भक्तिविनयः सेवा कहकर भक्तिको सेवा तो माना ही है, सेवाका अर्थ भी विनय किया है। विनयके चार भेद हैं जिनमें उपचार विनय का सेवासे मुख्य सम्बन्ध है। आचार्य पूज्यपादने आचार्योंके पीछे-पीछे चलने, सामने आने पर खड़े हो जाने, अञ्जलिबद्ध होकर सामने नमस्कार करने आदि को उपचार विनय कहा है। निशीथर्णिमें भी 'अभट्टाणदण्डगहणपायपुंछणासणप्पदाणगहणादीहि सेवा जा सा भक्ति' लिखा है । आचार्य वसुनन्दीने उपचारविनयके भी तीन भेद किये हैं जिनमें कायिक उपचार विनयका सेवासे सीधा सम्बन्ध है । उन्होंने लिखा है कि साधुओंकी वन्दना करना, देखते ही उठकर खड़े हो जाना, अञ्जलि जोड़ना, आसन देना, पीछे-पीछे चलना, शरीरके अनुकूल मर्दन करना और संस्तर आदि करना कायिक विनय है । आचार्य शान्तिसूरिने एक प्राचीन गाथाकी व्याख्या करते हुए कहा है कि सुर और सुरपति भक्तिवशाद् अजलिबद्ध होकर भगवान् महावीरको नमस्कार करते हैं । वह भी सेवा है। आचार्य श्रुतसागर सूरिने भी आचार्य, उपाध्याय आदिको देखकर खड़े होने, नमस्कार करने, परोक्षमें परोक्ष विनय करने और गुणोंका स्मरण करनेको भगवान्की सेवा कहा है । ____ व्यापक अर्थमें भक्तिके जो भिन्न-भिन्न अर्थ प्रतिपादित किये गये हैं, वे सब इसकी व्यापकताको सिद्ध करते हैं। जिस प्रकार चातक श्यामले मेघोंके प्रति आकृष्ट होता हुआ स्वातिबूंदके लिये लालायित रहता है, चकोर चन्द्रमाकी शीतल किरणोंका पान करने हेतु उत्सुक रहता है एवं मयूर पावसकालीन जलदोंको देखकर विमुग्ध हो उठता है, उसी प्रकारको तितिक्षा भक्तके मानसमें आराध्यकी शान्त मुद्रा देखनेके लिये प्रतिक्षण उमड़ती रहती है। यही आतुरता, यही विह्वलता और वही तत्परता भक्तिकी आधारशिला है। आत्मसमर्पण, एकाग्रता, निश्चलता, तीव्र उत्कण्ठा एवं दृढ़ श्रद्धा ही भक्तिको पल्लवित एवं पुष्पित करती है । वस्तुतः अपने आराध्यके प्रति अनुराग ही सच्ची भक्ति है। १. डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, जैन भक्ति काव्यकी पृष्ठभूमि, प्राक्कथन पृ० ३ । २. डॉ० प्रेमसागर जैन, जैनभक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि, पृ० १-२ । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ति और अनुराग शांडिल्य, नारद आदि भक्ति आचार्योंने भगवान्के प्रति परम अनुरक्ति को भक्ति कहा है । तुलसीके मतानुसार भी भक्ति प्रेम स्वरूप है। रामके प्रति प्रीति ही भक्ति है: प्रीति राम सों नीति पथ, चलिय रागरिस जीति । तुलसी हंसनके मते इहै भगतिकी रीति ।। उन्होंने अन्यत्र भी कहा है : बिनु छल विस्वनाथ पदनेहू । राम भगत कर लच्छन एहू ॥ भगवान्के प्रति प्रेमकी अतिशयता पर बल देनेके लिए ही तुलसीने उनसे प्रार्थना की है : कामिहि नारि पिआरि जिमि, लोभिन्हि प्रिय जिमि दाम । तिमि रघुनाथ निरन्तर, प्रिय लागहं मोहि राम ॥ चातक आदि उपमानों द्वारा भी उन्होंने भक्तिकी निष्कामता और अनन्य शारणागतिका निदर्शन किया है। भक्तिके निरूपणमें प्रयुक्त अनुराग शब्द कुछ विचारकोंको अप्रिय सा लगा है लेकिन हमें यह समझना चाहिये कि जिससे अनुराग किया जाता है, उसके अनुरूप बननेका भी अनुरागी प्रयास अवश्य ही करता है । जैन संस्कृतिमें भक्त भगवान्के प्रति पूर्ण अनुराग प्रदर्शित करता है। ये भगवान् वीतरागी होते हैं, अतः भक्त शनैः शनैः अनुराग करता हुआ एक दिन वीतरागी बन जाता है तथा जीवनके चरम लक्ष्यको पाकर अपने आपको कृतकृत्य मानता है। आचार्य पूज्यपादने भक्तिकी परिभाषा लिखते समय कहा है कि अरहंत. आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचनके भावविशुद्धियुक्त अनुराग ही भक्ति है। आचार्य सोमदेवका कथन है कि जिन, जिनागम और तप तथा श्रुतमें परायण आचार्यमें सद्भाव विशुद्धिसे सम्पन्न अनुराग भक्ति कहलाता है। हरिभक्तिरसामृतसिन्धुमें भी लिखा है कि इष्टमें उत्पन्न हुए स्वाभाविक अनुरागको ही भक्ति कहते हैं । महात्मा तुलसी दासके मतमें भी यही सत्य है । इसी की व्याख्या करते हुए डा. वासुदेवशरण अग्रवालका कथन है कि जब अनुराग स्त्रीविशेषके लिये न रहकर, प्रेम, रूप और तप्तिकी समष्टि किसी दिव्य तत्त्व या रामके लिये हो जायँ, तो वही भक्तिकी सर्वोत्तम मनोदशा है। अनुरागमें जैसी तल्लीनता और रुचि एकनिष्ठता सम्भव है, अन्यत्र नहीं। जैन कवि आनन्दघनने भक्ति पर लिखते हुए कहा है कि जिस प्रकार उदर भरणके लिये गौयें बनमें जाती है, घास चरती हैं, चारों ओर फिरती हैं, पर उनका मन अपने बछड़े में लगा रहता है, वैसे ही संसारके कामोंको करते हए भी भक्त का मन भगवान्के चरणोंमें लगा रहता है । जैनोंका भगवान् वीतरागी है। वह सब प्रकारके रागोंसे उन्मुक्त होनेका उपदेश देता है। राग कैसा ही हो, कर्मोंके आस्रव (आगमन) का कारण है। फिर उस भगवान्में, जो स्वयं वीतरागी है, राग कैसे सम्भव है ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य समन्तभद्रका कथन है कि भगवानसे अनुरागके कारण जो पाप होता है, वह उससे उत्पन्न बहुपुण्य राशिकी तुलनामें अत्यल्प होता है। यह बहुपुण्य राशि भी उसी प्रकार दोषका कारण नहीं बनती जिस प्रकार कि विषयकी एक कणिका, शीतशिवाम्बुराशि समुद्रको दूषित ३. तुलसी, सम्पादक उदयभानुसिंह, पृ० १९३ । -२४० - Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनेमें समर्थ नहीं होती। आचार्य कुन्दकुन्दने वीतरागियोंमें अनुराग करने वाले को सच्चा योगी कहा हैं । उनका यह भी कथन है कि आचार्य, उपाध्याय और साधुओंमें प्रीति करने वाला सम्यग्दृष्टि हो जाता है । उसकी दृष्टिमें वीतरागीमें किया गया अनुराग यत्किञ्चित् भी पापका कारण नहीं है। परमें होने वाला राग ही बन्धका हेतु है। वीतरागी परमात्मा पर नहीं, अपितु स्व आत्मा ही है। श्रीयोगीन्दुका कथन है कि मोक्षमें रहने वाले सिद्ध और देहमें तिष्ठने वाले आत्मामें कोई भेद नहीं है। जिनेन्द्र में अनुराग करना अपनी आत्मामें ही प्रेम करना है। वीतरागगें किया गया अनुराग निष्काम ही है। उनमें किसी प्रकारको कामना सन्निहित नहीं है। वह भगवानसे अपने ऊपर न दया चाहता है, न अनुग्रह और न प्रेम । जैन भक्तिका ऐसा निष्काम अनुराग गीताके अतिरिक्त अन्यत्र देखनेको नहीं मिलता है। ज्ञान और भक्ति-ये दोनों एक दूसरेके पूरक कहे गये हैं-ज्ञान भक्तिकी परिपुष्टि करता हुआ, इसका जनक भी कहा गया है । इसके अभावमें भक्ति अपनी सार्थकतासे विहीन कही गई है। जिस प्रकार सम्यग्दर्शनके बिना सम्यग ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार ज्ञान की उपलब्धि न होने पर भक्तिकी प्राप्ति भी असम्भाव्य मानी गई है। गम्भीरतासे विचार करने पर जो भक्तिका फल है, वही ज्ञानका भी है । ज्ञान सुगम न होकर कष्टसाध्य है और भक्ति अपेक्षाकृत सरल एवं सलभ्य है। ज्ञान मार्गमें बद्धिका प्राबल्य देखा जाता है जबकि भक्तिमें भावका । गोस्वामी तुलसीदासने भी इसी तथ्यको स्वीकार किया है । गोस्वामीजी ज्ञान और भक्तिके समन्वयमें विशेषतः विश्वास करते हैं। जिस प्रकार ज्ञान और भक्ति एक-दूसरेके पूरक हैं, उसी प्रकार ध्यान और भक्तिकी एकरूपता भी सर्वमान्य है। इन दोनोंमें आत्मचिंतन और एकाग्रता विद्यमान है जो आत्मस्वरूपके लिये परमावश्यक है। इस प्रकार भक्तिका स्वरूप बड़ा मनोरम तथा मानस विशुद्धिका उत्कृष्ट साधन है। इस परम साधनाके बारह भेद स्वीकार किये गये हैं। वे इस प्रकार है : सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चरित्रभक्ति, योगभक्ति, आचार्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति, तीर्थंकरभक्ति, शान्तिभक्ति, समाधिभक्ति, निर्वाणभक्ति, नन्दीश्वरभक्ति और चैत्यभक्ति । तीर्थंकर और समाधिभक्तिका पाठन एक-दो अवसरों पर ही होता है। अतः उनका अन्य भक्तियोंमें अन्तर्भाव मान लिया गया है। इस भाँति दश भक्तियोंकी ही मान्यता है ।। विभिन्न भक्तियोंके विविध साधन हैं जिनसे भक्तके हृदयमें भक्तिदीपक प्रज्वलित होता है और क्षण-प्रतिक्षण इस पुनीत आलोकमें उसका कर्म जनित तम विलीन हो जाता है । वे साधन व्यक्तिकी विवेकपूर्ण अभिव्यक्तियाँ भी हैं। भागवतमें भक्ति-भागवतमें भक्तिके साध्य और साधन-दोनों ही पक्षोंका विवेचन हुआ है । साधना रूपा भक्तिको नवधा भक्ति, वैधी भक्ति अथवा मर्यादा भक्ति कहते हैं और साध्यरूपा भक्तिको प्रेमाभक्ति तथा रागानुगा अथवा रासात्मिका भक्तिके नामसे अभिहित किया जाता है। साधना रूपा भक्तिके पाँच अंग माने गये हैं : उपासक, उपास्य, पूजाद्रव्य, पूजाविधि और मन्त्र-जप । श्री भागवतमें भक्तिके कई प्रकारसे भेद गिनाये हैं। तृतीय स्कन्धमें भक्तिके चार प्रकार माने हैं : सात्त्विकी, राजसी, तामसी तथा निर्गण । फिर सप्तम स्कन्धमें नौ भेद बतलाये है : श्रवण कीर्तन. विष्णस्मरण. पादसेवन. अर्चन. दास्य, सख्य और आत्म-निवेदन । १. २. डा० प्रेमसागर जैन : जैनभक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि, पृष्ठ ८-१० और ६४ ३. श्रीमद्भागवत सप्तम स्कन्ध, ५।२३ ३१ -२४१ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन भेदोंके तीन भाग किये जा सकते हैं । श्रवण, कीर्तन और स्मरण, श्रद्धा और विश्वासको वृत्तिके सहायक हैं। पदसेवा, अर्चन और वन्दन वैधी भक्तिके विशेष अंग हैं तथा दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रागात्मिका भक्तिसे सम्बन्ध रखते हैं। श्रीमद्भागवतमें इन तीनों ही अंगोंका बड़े विस्तारसे विवेचन हुआ है : आगे चलकर दास्य, सख्य और आत्म-निवेदनको ही गोस्वामीजीने भक्ति रसका उत्पादक माना है। इनमें भी आत्म-निवेदनका विशेष महत्व है क्योंकि आत्म-निवेदनमें साधन और साध्य एक हो जाते हैं।' जैन गीतकाव्योंमें भक्तिके साधन-व्यापक रूपसे विचार किया जाय, तो भक्तिके ये सभी साधन जैन गीतकाव्यमें पाये जाते हैं। इस काव्यके उन्नायकोमें कविवर द्यानतराय, बधजन, भानुमल, दौसतराम, वीरचन्द, भूधरदास, आनन्दघन, भागचन्द्र और भैया बनारसीदास आदि कवि प्रसिद्ध हैं । इन्हीं ने भक्तिके उपरोक्त साधनोंको अपने गीतोंके माध्यमसे अभिव्यक्त किया है तथा हम यहाँ विभिन्न साधनोंके द्योतक कुछ गीत दे रहे हैं । १. द्यानतरायका कोर्तन प्रभु मैं किहि विधि थुति करौं तेरी। गणधर कहत पार नहिं पावै, कहा बुद्धि है मेरी ।। शक्र जनम भरि सहस जीभ धरि, तुम जस होत न पूरा। एक जीभ कैसे गुण गावै, उलू कहै किमि सूरा ॥ चमर छत्र सिंहासन वरनौ, ये गुण तुमते न्यारे । तुम गुण कहन वचन बल नाहीं, नैन गिने किमि तारे ।। २. द्यानतरायका स्मरण अथवा ध्यान तुम शिवसुखमय प्रगट करत प्रभु चिंतन तेरो । मैं भगवान समान भाव यों वरत। मेरो । यदपि झूठ है तदपि तप्ति निश्चल उपजावै । तुव प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावै ॥ ३. दौलतरामका दर्शन महात्म्य निरख सुख पायो, जिन मुखचन्द मोह महातम नाश भयो है उर अम्बुज प्रफुलायो । ताप नस्यो, तब बढयो उदधि आनन्द ॥ निरख० ॥ चकवी कुमति विछुरि अतिविलखे आतम सुधा सुवायो । शिथिल भये सब, विधि गणफन्द ।। निरख० ॥ विकट भवोदधि को तट निकट्यो, अघ तक मूल नसायो । दोल लह्यो, अब सुपद स्वच्छन्द ।। निरख० ॥ ४. बुधजनका पद वन्दन तुम चरनन की शरन, आय सुख पायो । अबलो चिर भववन में डोल्यों, जन्म जन्म दुख पायो ।। तुम० । ऐसो सुख सुरपति के नाही, सौ मुख जात न गायों। अब सब सम्पति मो उर आई आज परम पद लायो ॥ तुम० ।। १. डा. हरवंशलाल शर्मा, सूर और उनका साहित्य, पृ० २२५ -२४२ - Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन वच तन ते दृढ़ करि राखो, कवहं न ज्या विसरायो। वारम्वार वीनवै बुधजन, कीजे मनको भावौ ॥ तुम० ॥ ५. भानुमलका अर्चन ( पूजन) द्रव्य आठों जु लोना है अर्घ कर में नवीना है। पूजते पाप छीना है, भानुमल जोर कीना है। दीप अढ़ाई सरस राजै, क्षेत्र दश ता विष छाजै । सात शत बीस जिन राजे, पूजनां पाप सब भाजै ।। भानुमल, दैनिक पूजा-पाठ गुटका पृ० २२ अर्चनाका एक अन्य गीत भी देखिये : नाथ तोरी पूजा को फल पायो, मेरे यो निश्चय अब आयो मेंढक कमल पांखुरी, मुख में वीर जिनेश्वर धायो । श्रेणिक गज के पगतल मूवो, तूरत स्वर्गपद पायो । नाथ० ।। मैना सुन्दरी शुभमन सेती, सिद्धचक्र गुण गायो । अपने पति को कोढ़ गमायो, गंधोदक फल पाये ।। नाथ० ।। अष्टापद में भरत नरेश्वर, आदिनाथ मन लायो। अष्टद्रव्य से पूजा प्रभुजी, अवधिज्ञान दरसायो । नाथ० ।। अञ्जनसे सब पापी तारे, मेरो मन हुलसायो । महिमा मोटी नाथ तुमारी, मुक्ति पुरी सुख पायो ।। नाथ० ॥ थकीथकी हारे सुर नरपति, आगम सीख जितायो। देवेंद्रकीर्ति गुरु ज्ञान मनोहर, पूजा ज्ञान बतायो । नाथ, तोरी पूजाको फल पायो, मेरे यो निश्चय अब आयो । दैनिक पूजा-पाठ गुटका, पृ० ८४ ६. द्यानतराय का दास्य भाव तुम प्रभु, कहिगत दीन दयाल, अपन जाय मुकुति में बैठे, हम जु रुलत जग जाल । तुम प्रभु, कहियत दीन दयाल । तमरो नाम जपै हम नीके, मन बच तीनौं काल । तम तो हमको कछ देत नहि. हमरो कौन हवाल ।। भले बुरे हम दास तिहारे, जानत हो हम चाल । और कछु नहि हम चाहत हैं, राग दोषको टाल ।। तुम, प्रभु कहयित दीन दयाल ।। हम सौं चूक परी सो बकसो, तुम तो कृपा विसाल । द्यानत एक बार प्रभु जगतै, हमको लेहु निकाल । तुम प्रभु कहियत दीन दयाल । द्यानतराय, अध्यात्मपदावली, पृ० २६६ -२४३ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. दौलतरामका शरणागत भाव जाऊँ कहाँ तज शरन तिहारे । चूक अनादितनी या हमरी माफ करो करुणा गुन धारे। डूबत हों भवसागरमें अब तुम बिन को महं वार निकारे। तुम सम देव अवर नहिं कोई, तातें हम यह हाथ पसारे । मौसम अधम अनेक उधारे, वरनत है श्रुत शास्त्र अपारे । दौलत को भव पार करो, अब आया है शरनागत प्यारे । ८. दौलतरामका आराध्य के स्वरूपका ध्यान 1 1 नेमि प्रभूकी श्याम वरन छवि नैनन छाय रही। टेक । मणिमय तीन पीठ पर अम्बुज ता पर अधर हठी || नेमि० ।। मार-मार तप पार जार विधि केवल ऋद्धि लही । , चार तीस अतिशय दुति मण्डित, नव दुर्गा दोष नहीं || नेमि० ॥ जाहि सुरासुर नमत सतत मस्तक में परस मही सुर गुरु उर अम्बुज प्रफुलावन, अद्भुत भान सही || नेमि० ॥ घर अनुराग विलोकत जाको, दुरित नसे सबही । दौलत महिमा अतुल जासकी, का पै जात कही । नेमि प्रभू की श्याम बरन छवि नैनन छाय रही ॥ भक्ति और सत्संगति सत्संगति भक्ति के लिये अधिक प्रेरक मानी गई है। इसीलिये सन्तोंने इसकी अधिक महिमा गाई है। कविवर वीरचन्दका निम्न पद इस विषयमें उल्लेख है : कुरंग । भुरंग ।। १ ।। न गंग । करो रे मन, सज्जन जनकी संग टेक | नीचकी संगति नीच कहावे, धेनु न होत हंसन देख्यो बगुला कहता, भेरुण्ड न होत चन्दन को कोई नीम न कहवत, सागर होत अमृतको नहि विष उच्चारत, खरको कहे न तुरंग ॥ २ ॥ कोयलको कोई काम न कहवत, महिषी न होत मतंग नहीं सितारको कहत सारंगी, नहीं मृदंगको चंग ।। ३ ।। दिन को रैन नहीं कोई कहयत, रवि को कहे न पतंग | वीरचन्द नहिं श्वेत दूध को कहे न कारो रंग ॥ ४ ॥ कवि भूषरवासने भी भगवान्से प्रार्थना करते हुए सहधर्मी जनकी सङ्गतिके लिए अभिलाषा प्रकट की है : भजन संग्रह, पृ० ११६ "आगम अभ्यास होहु सेवा सर्वज्ञ तेरी, सङ्गति समीप मिलो साघरमी जनकी ।" २४४ - Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि आनन्दघनके अनुसार साधु सङ्गतिके बिना परममहारस धामका पाना सम्भव नहीं है : साधु संगति बिन कैसे पैये, परम महारस धाम री । कोटि उपाय करे जो बौरो, अनुभव कथा विसराम री ॥ सीतल सफल सन्त सुर पादप, सेवे सदा सुछां री । वंछित फले, टले अनवंछित, भव सन्ताप बुजाइ री ॥ चतुर विरंचि विरंजन चाहे, चरण कमल मकरंद री । को हरि भरम बिहार दिखावे, शुद्ध, निरंजन चांद री ॥ देव असुर इन्द्र पद चाहूं न, राज न काज समाज री । सङ्गति साधु निरन्तर पावूं, आनन्दघन महाराजजी ॥ गोस्वामी तुलसीदासने भी साधु सङ्गतिको आनन्द और मङ्गलका मूल बताते हुए तुलसी दोहावलीमें इसे कोटि अपराध विनाशक कहा है : एक घड़ी, आधी घड़ी, आधी में पुन आध । तुलसी सङ्गति साधु की, हरे कोटि अपराध ॥ स्तुति और स्तोत्र : सामान्यतया ये पर्यायवाची कहे जाते हैं । इन दोनोंका भी भक्ति में महत्त्वपूर्ण स्थान है । आराधक अपने आराध्यकी स्तुति करके उनके गुणोंकी प्रशंसा करता है तथा अपने पापोंको अस्तित्वहीन बनाता है। जैन कवियोंने विविध रूपोंमें अपने उपास्यकी वन्दना की है । इस सम्बन्धमें कविवर भूधरदास की सिद्ध स्तुति एवं जिन-वाणी स्तवन विशेष लोकप्रिय हैं : सिद्ध स्तुति जिनवाणी स्तुति विश्वनाथ प्रसाद मिश्र सं० आनन्दघन, पृ० ६१ शोक हर्यो भविलोकन को लोक अलोक विलोक भये, सिद्धन थोक बसे शिवलोक, ध्यान हुतासन में अरि ईंधन, झोंक दियो रिपुलोक निवारी । वर केवल ज्ञान मयूर अधारी ॥ शुभ जन्म जरामृत पंक परवारी । तिन्हे पग धोक त्रिकाल हमारी ॥ X X X तीरथ नाथ प्रनाम करें, तिनके गुन वर्नन में बुधि हारी । मोम गयी गल सूस मंझार रही तहं व्योम तदाकृत धारी ॥ लोक गहीर नदीपति नीर, भये तिरतीर तहां अविकारी | सिद्धन थोक बसे शिवलोक, तिन्हे पग धोक त्रिकाल हमारी ॥ वीर हिमाचल तें निकसी, गुरु गौतम के मुख कुण्ड डरो है । मोह महाचल भेद चली, जग की जड़ता-तप दूर करी है ।। ज्ञान पयोनिधि मांहि रली, बहुभंग तरंगनि सों उधरी है । ता शुचि शारद गंगनदी, प्रति में अंजली निज शीश धरी है । या जगमन्दिरमें अनिवार अज्ञान अन्धेर छयो अतिभारी । श्रीजिनकी धुनि दीप शिखा सम, जो नहि होत प्रकाशन हारी ॥ - २४५ - जैनशतक, पृ० ११ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो कहें भांति पदारथ पांति कहां या विधि संत कहैं धनि हैं धनि लहते रहते अविचारी । जिन बैन बड़े उपकारी || जैन शतक्, पृ० १३ पूजा और भक्ति पूजा भक्तिका एक प्रमुख साधन है । भगवान् की पूजा करके सामान्य मानव भी असामान्य बन जाता है । भाव दृष्टिसे पूजा एवं स्तोत्र - दोनों समान हैं । इनमें केवल शैलीगत भेद ही है । किन्तु कुछ लोग परि णामकी दृष्टि से भी दोनोंमें महदन्तर स्वीकार करते हैं । वे पूजाकोटिसमं स्तोत्रं मानते हैं । यहाँ कहने वालेका पूजासे तात्पर्य केवल द्रव्य पूजासे है क्योंकि भावमें तो स्तोत्र भी शामिल है। पूजकका ध्यान पूजन की बाह्य सामग्री, स्वच्छता आदि पर ही रहता है जबकि स्तुति करने वाले भक्तका ध्यान एकमात्र स्तुत्य व्यक्ति के विशिष्ट गुणों पर टिकता है । वह एकाग्रचित्त होकर अपने स्तुत्यके एक-एक गुणको मनोहर शब्दोंके द्वारा व्यक्त करनेमें निमग्न रहता है। पूजा एक ऐसा व्यापक शब्द है कि इसमें स्तुति, स्तोत्र, भजन आदि सब समाविष्ट होता हैं । पूजाके सम्पादन में ध्यान, जप, तपादि किसी न किसी रूपमें आ ही जाते हैं । पूजाकी जयमालामें आराध्य की पूर्ण प्रशस्ति रहती है । एवं पूजा करने वालेकी विशुद्ध कामना भी इसमें व्यक्त हो जाती है । पूजाके दोनों ही रूप - द्रव्य और भाव पूजा आत्म-विशुद्धिके लिये परम आवश्यक हैं । इन दोनों पूजाओंमें इतना ही अन्तर है कि द्रव्यपूजामें द्रव्योंके द्वारा भगवान्‌ के विम्ब अथवा किसी अन्य चिन्हकी पूजा होती है तथा भाव पूजामें जिनेन्द्र देवको मानसके अन्तस्थल में स्थापित किया जाता है। आचार्य वसुनन्दिने पूजाके छः भेद स्वीकार किये हैं: नाम, स्थापना, द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव । * यहाँ पूजा शब्दके सम्बन्धमें डा० सुनीतिकुमार चाटुर्ज्याने अपनी पुस्तक भारतमें आर्य और अनार्य में लिखा है कि होम और पूजा – इन दोनोंकी जड़ अलग-अलग है पर आर्य भाषी तथा द्राविड़ भाषी मित्र आर्यानार्य हिन्दूने इन्हें विरासत या पितृपितामहागत रिक्थके रूपमें प्राप्त किया है । पूजामें फूलका उवयोग हुआ करता है । बगैर फूलसे पूजा नहीं हो सकती । फूलके विकल्पमें ही जलादिका व्यवहार होता है । पूजा शब्द वस्तुतः आर्य भाषाका शब्द नहीं है । मार्क कालिन्सके मतके अनुसार इस शब्दका मौलिक अर्थ फूलोंसे धर्मकार्य करना है । इस शब्दका उद्गम द्रविड़ भाषा में हैं । पूजाके अतिरिक्त भजन, आरती, पाठ, विनती, सामायिक पाठ, स्तुतियाँ आदि भी भक्तिके विविध आयाम हैं जिनको अपनाना भक्तके लिये आवश्यक है । भक्तिकी उपलब्धियाँ पूर्व में संकेत किया जा चुका है कि भक्तिकी उपलब्धियाँ अनेक हैं, जो सेवकके मानसको समुज्ज्वल करती हैं तथा उसे स्व-पर-भेदके हेतु कई रूपोंमें प्रबुद्ध करती हैं । संसारसे विमुख होकर वह साधक विषय वासनाको भुजङ्ग मानने लगता है, स्वयं जागरूक बनकर सांसारिक वैभवको त्याज्य मानता है एवं धर्म साधना में लीन होकर अपने आपको सम्मार्गका पथिक बनाता है । इन उपलब्धियोंमें आत्मप्रबोधन, जगनिस्सारता, पश्चात्तापको अभिव्यक्ति, आत्मविश्वासकी जागृति तथा ब्रह्मैक्य प्रमुख हैं । जैन गीतकारोंने इन उपलब्धियोंको भी गीतबद्ध किया है । इनके कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं । १. प्रेमसागर जैन, जैन भक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि (२) पं० हीरालाल जैन, पूजा, स्तोत्र, जप, ध्यान और अनेकांत, वर्ष १४, किरण ७, १० १९४ लय, २. प्रेमसागर जैन, जैनभक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि, पृ० २५ । - २४६ - Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) भूधरका आत्मप्रबोधन गीत भगवन्त भजन क्यों भूला रे? यह संसार रैन का सुपना, तन-धन वारि-बबूला रे । भगवन्त भजन क्यों भूला रे ? इस जीवनका कौन भरोसा, पावक में तृण पूला रे । काल कुदार लिये सिर ठाँडा, क्या समझै मन फूला रे । भगवन्त भजन क्यों भूला रे? स्वारथ साधै पाँच पाँव तू, परमारथको लूला रे । कहु कैसे सुख पैहैं प्रानी, काम करै दुखभूला रे । भगवन्त भजन क्यों भूला रे? मोह पिशाच छल्यों मति मारै, निज कर कन्ध बसूला रे । भज श्रीराजमतीवर भूधर, दो दुरमति सिर धूला रे । भगवन्त भजन क्यों भूला रे ? भूधरदास, अध्यात्मपदावली, पृ० २४३ दौलतरामका जगनिस्सारता द्योतक गीत छाँड़ि दे बुधि भोरी वृथा तन से रति जोरी ॥ टेक ॥ यह पर है न रहै थिर पोषत, सकल कुमल की झोरी या मों ममता करि अनादिसे, बन्धो करम की डोरी ।। सहै दुख जलधि हिलोरी ॥ छाँडि० ।। ये जड़ हैं तू चेतन यों ही, अपनावत बरजोरी । सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन निधि, ये हैं सम्पति तोरी ।। सदा विलसो शिवगोरी ॥ छाँड़ि ।।। सुखिया भये सदीप जीव जिन, या सों ममता तोरी । दौल सीख यह लीजै पीजै, ज्ञान पियूष बटोरी ।। मिटे पर चाह कठोरी ।। छाँड़ि०॥ (३) भागचन्द्र कविका पश्चात्तापकी अभिव्यक्ति परक पद मो सम कौन कुटिल खल कामी । तुम सम कलिमल दलन न नामी । हिंसक झूठ वाद मति विचरत, परधन हर परवनिता गामी । लोभी चित नित चाहत धावत, दशदिश करत न खामी। रागी देव बहुत हम जाँचे, राँचे नहि तुम साँचे स्वामी । बाँचे श्रुत कामादिक पोषक, सेये कुगुरुसहित धन धामी । भाग उदय से मैं प्रभु पाये, वीतराग तुम अन्तरयामी । तुम धुनि सुनि परजय में परगुण जाने निज गुण चित विसरामी । तुमने पशु-पक्षी सब तारे, तारे अंजन चोर सुनामी । -२४७ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागचन्द करुणाकर सुख कर, हरना यह भव सन्तति लामो । मो सम कौन कुटिल खल कामी, तुम सम कलिमल दलन न नामी ॥ (४) भूधरदासका मायाके प्रति विद्रोह परक पद । सुन ठगनी माया, तें सब जग ठग खाया। टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पछिताया ।। सुन० ॥ आया तनक दिखाय बीज ज्यों, मूढ़मती ललचाया। करि मद अन्ध धर्म हरि लीनौ, अन्त नरक पहुँचाया ।। सुन० ॥ केते कन्थ किये तै कुलटा, तो भी मन न अघाया । किसही सौ नहिं प्रीति निबाही, वह तजि और लुभाया ।। सुन ॥ भूधर ठगन फिरै यह सबकौं, भौ, करि जग पाया। जो इस ठगनी को ठग बैठे, मैं तिसकों सिर नाया ।। सुन० ।। इसी प्रकार आनन्दघन एक गीतमें पूजासे आत्मविश्वासकी जागृति करते हैं और दौलतराम एक प्रार्थनागीतमें अपने अवगुणोंके लिये क्षमायाचना करते हैं। इस प्रकरणमें आनन्दघनका निम्न सर्व धर्म समाक्षरी गीत उल्लेखनीय है : आनन्दघनका ब्रह्मकता सूचक पद राम कहो रहमान कहो, कोउ, कान कहो महादेव री पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री । भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री। तैसे खण्ड कल्पनारोपित, आप अखण्ड स्वरूप री। निज पद रमे राम सो कहिये, रहिम करे रहमान री। कर ते करम कान सो कहिये महादेव निर्वाण री। परसे रूप पारस को कहिये ब्रह्म चिन्हें सो, ब्रह्म री । इह विध साथो आप आनन्दघन चेतनमय निःकर्म री। आनन्दघन, जैन कवि, पृ० ६०-६७ भक्ति और भावना यह हमें स्मरण रखना चाहिये कि भक्ति क्षेत्रमें जाति-वर्ग आदिके कल्पित भेदभाव नगण्य हैं । साधु सन्तोंकी भाँति जैन कवियोंने भी इस सम्बन्धमें जाति मान्यता आदिके विरोधको तीव्र स्वरों में व्यापक बनाया है। इस जाति-वर्णादिकी निस्सारताको घोषित करने में जैन कवियोंने ऐसी कथाओंको चर्चा की है जो जैनाम्नायमें पूर्णरूपेण स्वीकृत हो चुकी है । आचार्य रविषेण पद्मचरितमें कहते हैं : न जातिर्गर्हिता काचित्, गुणाः कल्याणकारणम् । व्रतस्थमपि चाण्डालं, तं देवाः ब्राह्मणं विदुः ।। तात्पर्य यह है कि जैनधर्ममें धर्म रूपसे प्रतिपादित चरित्र धर्म है वर्णाश्रम नहीं है किन्तु मोक्षकी इच्छासे आर्य या म्लेक्ष जो भी इसे स्वीकार करते हैं, वे सभी इसके अधिकारी होते हैं। यह हमारी ही कोई कल्पना नहीं है क्योंकि जैनधर्म तो इसे स्वीकार करता ही है, मनुस्मृति भी इस तथ्यको स्वीकार करती है: -२४८ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा सत्यमस्तेयशौचमिन्द्रियनिग्रहः । एतं सामासिक धर्म चातुर्वण्येऽब्रवीन्मनुः ।। याज्ञवल्क्य स्मृतिमें यह सामान्य धर्म नौ भेदोंमें विभक्त किया गया है। इसमें पाँच पूर्वोक्त धर्मोके अतिरिक्त दान, दम, दया और शान्ति भी समाहित किये गये हैं : अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । दानं दमो दया क्षान्तिः सर्वेषां धर्मसाधनम् ॥ ५-१२३ ॥ इस श्लोकमें आये हुये सर्वेषां पदकी व्याख्या करते हुए वहाँ टीकामें कहा है कि ये अहिंसा आदि नौ धर्म ब्राह्मणसे लेकर चण्डाल तक सब पुरुषोंके साधन है ।' जैनधर्म किसी जाति विशेषका धर्म नहीं है। उसका पालन प्रत्येक मानव कर सकता है । श्रावकधर्म दोहाके कर्ताने श्रावक-धर्मका उपसंहार करते हुए इस सत्यको बड़े ही मार्मिक शब्दोंमें व्यक्त किया है : एहु धम्म जो आयरइ बभणु सुदु वि कोइ । सो सावउ किं सावयहं अण्ण कि सिरि मणि होइ ।। ७६ ॥ धर्मके माहात्म्यकी चर्चा स्वामी समन्तभद्रने भी रत्नकरण्डश्रावकाचारमें की है। उन्होंने बताया है कि धर्मके माहात्म्यसे कुत्ता भी मरकर देव हो जाता है और पापके कारण दैव भी मरकर कुत्ता हो जाता है। धर्म के माहात्म्यसे जीवधारियोंको कोई ऐसी अनिर्वचनीय सम्पत्ति प्राप्त होती है जिसकी कल्पना करना शक्तिके बाहर है उनके अनुसार जो मनुष्य सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न हैं, वह चाण्डालके शरीरसे उत्पन्न होकर भी देव अर्थात् ब्राह्मण या उत्कृष्ट है, ऐसा जिनदेव कहते हैं। उनकी दशा उस अंगारेके समान हैं जो भस्म से आच्छादित होकर भी भीतरी तेजसे प्रकाशमान है। हिन्दीके भक्ति कालके सर्वोच्च महाकवि गोस्वामी तुलसीदासने भी भक्ति विवेचनमें नीच-ऊँच जातिकी सर्वथा उपेक्षा की है। उनकी दृष्टि में तो मानसकी पावनता तथा रामके प्रति अगाध श्रद्धा ही सब कुछ है। ___जैन कवि आनन्दधनने भी आत्मनिरूपणके अन्तर्गत जाति-पांतिकी पूर्ण अवहेलना की है। उनका निम्न गीत देखिये: अवधू नाम हमारा राखे, सोई परम महारस चाखै । ना हम पुरुष नहीं हम नारी, वरन न भांति हमारी ॥ जाति न पांति न साधन साधक, ना हम लघु नहिं भारी । ना हम ताते ना हम सीरे, ना हम दीर्घ न छोटा । ना हम भाई ना हम भगिनी, ना हम बाप न धोटा। ना हम मनसा न हम सबदा, ना हम तन की धरणी ।। ना हम भेख भेखधर नाहीं, ना हम करता करणी ॥ ना हम दसरन ना हम परसन, रस न गंध कछु नाहीं । आनन्दघन चेतनमय मरति, सेवनक जन बलि जाहीं। आनन्दघन, ( सं० विश्वनाथप्रसाद मिश्र ), पृ० ४१ १. फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री, वर्ण, जाति और धर्म, पृ० ४९ । ३२ -२४९ - Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पदमें चित्रित आत्मानुभूति जिनभक्तिकी चरम उपलब्धि है जिसे पाकर सच्चा भक्त अपने आपको गौरवान्वित मानता है। शनैः-शनैः इस भक्ति समन्वित आराधककी अनुभूतियां विषयोंसे विरक्त हीती हुई आत्मचिन्तनमें लीन हो जाती हैं और वह दौलतरामकी तरह गुनगुनाते लगता है : हम तो कबहं न निज घर आये। पर घर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये । हम तो कबहुँ न निज घर आये। पर पद निज पद मानि मगन है, पर परनति लपटाये । शुद्ध बुद्ध मुखकन्द मनोहर, चेतन भाव न भाये । हम तो कबहुँ न निज घर आये। नर, पशु, देव, नरक निज जान्यो, परजय बुद्धि लहाये। अमल, अखण्ड, अतुल, अविनाशी, आतम गुन नहिं गाये । हम तो कबहुं न निज घर आये। यह बहु भूल गई हमरी फिर, कहा काज पछताये । दोल तजो अजहूँ विषयन को, सतगुरु वचन सुहाये । हम तो कबहुँ न निज घर आये । इस प्रकार दिन बीतते जाते हैं और आराध्यके प्रति बढ़ती हई भक्ति भावना नित नये उन्मेषोंसे परिपुष्ट होती है। अपने कर्तव्योंको निभाता हआ साधक उस क्षणकी स्मृति करने लगता है जब वह परम तपस्वीके रूपमें दिगम्बर बनकर आत्म सन्तुष्टिसे विभोर हो उठेगा। इस प्रकार प्रत्येक जीवके जीवनको सफल बनाने वाली भगवानकी यह भक्ति पूर्ण आनन्ददायिनी है एवं समस्त सुख प्रदात्री है। मानवको चाहिये कि वह यथासमय सजग होकर अपना आत्मकल्याण करे तथा पर्याप्त ज्ञान अजित करे । कविवर भूधरदासका यह कवित्त इस सम्बन्धमें कितना प्रेरणादायक है। जौलों देह तेरी काहू रोग सों न घेरी, जौलों जरा नहिं घेरी जासों पराधीन परिहै । जौलों जमनामा वेरी देय न दमामा, जौलों माने कान रामा बुद्धि जाइ न बिगरिहै । तौलों मित्र मेरे, निज कारज सवार ले रे, पौरुष थकेंगे फेर, पीछे कहा करिहै । अहो आग लागे जब झोपरी जरन लागी, कुआँके खुदाये तब कौन काज सरिहै । इस प्रकार निराकुलता जन्य अमर शान्तिकी प्राप्तिके लिये भगवान्की भक्ति ही उत्कृष्ट साधन है। जैन गीत साहित्यमें उसके विविध रूपोंके उपरोक्त विवरणसे भक्तिके सार्वजनिक एवं काव्यमय रूपकी पर्याप्त आकर्षक झाँकी प्राप्त होती है । - २५० - Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय और शाकटायनव्याकरण : तुलनात्मक विवेचन डॉ० वागीश शास्त्री, निदेशक, अनुसन्धान संस्थान, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी लोकमें पाणिनीय व्याकरणकी प्रतिष्ठा उसको संक्षिप्त शैली तथा सर्वाङ्गपूर्णताके कारण हुई । पूर्ववर्ती अतिविस्तृत ऐन्द्र इत्यादि व्याकरणोंको अल्प मेधावी छात्र कण्ठस्थ नहीं कर पाते थे । कुछ ऐसे व्याकरण थे, जो केवल विशिष्ट प्रकरणोंके ही नियम बताते थे। अतः सर्वाङ्गपूर्णताके न होनेके कारण केवल उनके अध्ययनसे छात्र व्याकरणके सम्पूर्ण नियमोंको नहीं जान पाते थे। ऐसी स्थितिमें ईसापूर्व पाँचवों शताब्दीके लगभग पाणिनिने पूर्ववर्ती सम्पूर्ण व्याकरणोंका अनुशीलन करके संक्षिप्त, साङ्गोपाङ्ग ( वेदलोकोभयात्मक) सन्देहरहित व्याकरण बनाया और उसे ३७७९ सूत्रोंमें बाँध दिया। धातूपाठ, गणपाठ, उणादि, नामालिङ्गानुशासन, शिक्षा इत्यादि उसके खिलपाठ हैं । किन्तु सम्प्रति उपलब्ध उणादि पाणिनिका नहीं है। पाणिनिने भूत, भविष्य, वर्तमान इत्यादि कालोंकी कोई परिभाषा नहीं बनाई । उनसे लोक परिचित था। अतः उनकी परिभाषाएँ देकर व्याकरणका कलेवर बढ़ाना पाणिनिने उचित नहीं समझा । 'लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वात, कह कर पाणिनिने लिङ्गका अनशासन करना भी उचित नहीं समझा। अतः उनके नाम पर प्राप्त लिङ्गानुशासन विचारणीय है । इतनी सूक्ष्मेक्षिका रखने पर भी पाणिनिकी केवल अष्टाध्यायी संस्कृत व्याकरणके सम्पूर्ण नियमोंका बोध कराने में समर्थ नहीं हो सकी। तदर्थ कात्यायनको अष्टाध्यायीके सूत्रों पर वात्तिक लिखने पड़े ताकि उसमें छूटे नियमोंका ज्ञान हो सके। किन्तु जब पाणिनीय सूत्रों पर केवल कात्यायनीय वात्तिकोंके रचे जाने मात्रसे उसकी लोकोपयोगिता सिद्ध नहीं हई, तब पतञ्जलिको अपना महाभाष्य लिखना पड़ा। पाणिनिने सूत्रोंकी संक्षिप्तताका आश्रय इसलिए लिया था कि जिज्ञासु जन अल्प समयमें संस्कृत व्याकरणका ज्ञान कर सकें। किन्तु यह 'त्रिमुनिव्याकरणम्' इतना पृथुल हो गया कि बारह वर्षों में अध्ययन कर पाता था, जो विशाल संस्कृत वाङ्मयमें प्रवेश करनेके लिए साधनमात्र था। चन्द्रगोमीके अनन्तर जैन सम्प्रदायका इस ओर ध्यान गया और सर्वतः प्रथम पूज्यपाद जैनेन्द्रने छठी शताब्दीमें 'त्रिमनिव्याकरण के आधारपर जैनेन्द्र व्याकरणकी रचना की। यद्यपि इसमें पाणिनीय व्याकरणसे भी प्राचीन व्याकरणोंके तत्त्व सुरक्षित हैं, तथापि सम्पूर्ण रचना पर पाणिनीय व्याकरणका प्रभाव स्पष्ट है । जिस उद्देश्यको लेकर जैनेन्द्र व्याकरण की रचना की गयी थी, वह सिद्ध नहीं हुआ। संस्कृत भाषाको सरल प्रक्रियासे सिखा देनेवाले व्याकरणकी प्रतीक्षा जिज्ञासू तब भी कर रहे थे। यद्यपि शर्ववर्भाने प्रथम शताब्दीमें प्रक्रियात्मक पद्धति पर आश्रित व्याकरणकी रचना कर मार्ग दिखा दिया था, तथापि 'त्रिमुनिव्याकरण' की कसौटी पर लोकने उसे खरा नहीं पाया था। फलतः वह सर्वत्र एकच्छत्र रूपमें प्रचार नहीं पा सका। तीन सौ वर्षों के अनन्तर श्वेताम्बरीय जैन विद्वान महाश्रमण-संघाधिपति पाल्यकीर्ति शाकटायनने 'शाकटायनव्याकरण' की रचना कर पूर्ववर्ती लौकिक व्याकरणोंकी न्यूनताओंको दूर करनेका प्रयत्न किया -२५१ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा उसे सर्वाङ्गपूर्ण बनानेका स्तुत्य कार्य किया। लौकिक संस्कृतके नियमोंको संक्षेप, सरलता और सम्पूर्णताकी दृष्टिसे बतानेके लिए उन्होंने इसकी रचना की थी। सरलताकी दृष्टिसे शाकटायनने अपने व्याकरणमें पाणिनीय अष्टाध्यायीके दो सूत्रोंसे लेकर नौ सूत्रों तकके स्थान पर केवल एक सूत्रकी रचना बड़ी ही कुशलतासे कर दी है । उनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है : १. दो सूत्रोंके स्थानपर एक सूत्र । यथापाणिनि-'वृद्धस्य च पूजायाम्' (४।१।१६६), 'यूनश्च कुत्सायाम्' (४।१।१६७) शाकटायन-'युवं वृद्धं कुत्सार्थे' (१।१।१६) पाणिनि-'पुरोऽव्ययम्' (१।४।६७), 'अस्तं च' (१।४।६८) शाकटायन-'अस्तं पुरोऽव्ययम्' (१।१।२९) पाणिनि-'षष्ठी स्थानेयोगा' (१।१।४९), 'अलोऽन्त्यस्य' (१।१।५२) शाकटायन-'षष्ट्याः स्थानेऽन्ते लः' (१।१।४७) पाणिनि-'ढो ढे लोपः' (८।३।१३), 'रो रि' (८।३।१४) शाकटायन-'द्रो ढि' (१।१।१३१) २. दो सूत्रोंके स्थान पर दो मिश्रित सूत्र । यथापाणिनि-'पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्यसमानाधिकरणेन' (२।२।११), ___ 'तेन च पूजायाम्' (२।२।१२) शाकटायन-'तृप्तार्थाव्ययनिर्धार्यडच्छवानश्मतिपूजाधारक्तः' (२।१।५०) 'गुणैरस्वस्थैः' (२।१।५१) पाणिनि- 'घरूपकल्पचेल वगोत्रमतहतेषु ङ्योऽनेकाचो ह्रस्वः' (६।३।४३), 'उगितश्च' (६।३।४५) शाकटायन-रूपकल्पङ्गोत्रमतहतचेलड्ब्रु वे ह्रस्वश्च वोगितः' (२।२।५२), 'ङ्योऽनेकाचः' (२।२।५३) ३. तीन सूत्रोंके स्थान पर एक सूत्र । यथापाणिनि-'मनः' (४।१।११), अनो बहुव्रीहेः' (४।१।१२), 'डाबुभाभ्यामन्यरस्याम्' (४।१।१३) शाकटायन-'मन्नन्बहुव्रीहेन्न च' (१।३।१२) पाणिनि-'सम्बोधने च' (२।३।४७), 'सामन्त्रितम्' (२।३।४८), एकवचनं सम्बुद्धिः' (२।३।४९) शाकटायन-'आमन्त्र्ये' (१।३।९९) पाणिनि-'नदीपौर्णमास्याग्रहायणीभ्यः' (५।४।११०), 'झयः (५।४।१११), 'गिरेश्च सेनकस्य' (५।४।११२) शाकटायन-'गिरिनदीपौर्णमास्याग्रहायणीजयः' (२।१।१५५) - २५२ - Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. तीन सूत्रोंके स्थान पर दो सूत्र । यथापाणिनि-'तस्मै प्रभवति संतापादिभ्यः' (५।१११०१). 'योगाद्यच्च' (५।१।१०२), 'कर्मण उकन (५।१११०३) शाकटायन–'योगादये शक्ते' (३।२।९१), 'योग्यकार्मुके' (३।२।९२) ५. चार सूत्रोंके स्थान पर एक सूत्र । यथापाणिनि-'शूलोखाद्यत्' (४।२।१७), 'दध्नष्ठक्' (४।२।१८), 'उदश्वितोऽन्यतरस्याम्' (४।२।१९), 'क्षीराड्ढञ् (४।२।२०) शाकटायन-'शल्योख्यक्षरेयदाधिकौदश्वित्कौदश्वितम्' (२।४।२३८) ६. पाँच सूत्रोंके स्थान पर एक सूत्र । यथापाणिनि-'इदमोहिल' (५।३।१६), 'अधुना' (५।३।१७), 'दानी च' (५।३।१८) 'सद्यः' (५।३।२२), समानस्य सभावः (वा.) शाकटायन-सदैतीधुनेदानीन्तदानीं सद्यः (३।४।१९) पाणिनि-'समयाच्च यापनायाम्'(५।४।६०), 'दुःखात् प्रातिलोम्ये'(५।४।६४), 'निष्कुलान्निष्कोषणे' (६२), ‘शूलात् पाके' (५।४।६५), सत्यादशपथे (५।४।६६)।। शाकटायन–'दुःखनिष्कूलशूलसमयसत्यात् प्रातिकूल्यनिष्कोषपाकयापनाशपथे' (३।४।५३) ७. छः सूत्रोंके स्थान पर एक सूत्र । यथापाणिनि-'मूर्ती धनः' (३।३।७७), 'उद्धनोऽत्याधानम्' (३।३।८०), 'जपधनोऽङ्गम्' (३।३।८१), 'उपघ्न आश्रये' (३।३।८५), 'संघोद्धौ गणप्रशंसयोः' (३।३।८६), 'निघो निमित्तम्' (३।३।८७) शाकटायन-'घनोद्धनापधनोपध्ननिघोद्धसंघा मूर्त्यत्याधानाङ्गासन्ननिमित्तप्रशस्तगणाः' (४।४।२०) । ८. आठ सूत्रोंके स्थान पर एक सूत्र । यथापाणिनि-वेः शालच्छङ्कटचौ' (५।२।२८), 'सम्प्रोदश्च कटच' (५।२।२९), 'अवात् कुटारच्च' (३०), 'नते नासिकायाः संज्ञायां टीटलनाटभ्रटचः' (५।२।३१), 'नेविडज्विरीसचौ' (३२), 'इनच् पिटच्चिकचि च' (३३), क्लिन्नस्य चिल पिल (वा.), उपाधिभ्यां त्यक न्नासन्नारूढयोः (३४) शाकटायन-'विशालविशङकटविकटसंकटोत्कटप्रकटनिकटावकटावकटारावटीटावनाटावभ्रटनिबिडनि बिरीसचिक्कचिकिनचिपिटचिल्लपिल्लचुल्लोपत्यकाधित्यकाः' (३।३।१०६) ९. नौ सूत्रोंके स्थान पर एक सूत्र । यथापाणिनि-वशं गतः' (४।३।८६), 'धर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते' (४।४।९२), 'मूलमस्याबहि' (८८), 'संज्ञायां घेनुष्या' (४।४।८९), 'संज्ञायां जन्याः ' (४।४।८२), 'गृहपतिना संयुक्त ज्य' (९०), 'नौवयोधर्मविषमूलमूलसीतातुलाभ्यस्तार्यतुल्यप्राप्यवध्यानाम्यसमसमितसंमितेषु' (९१), 'हृदयस्य प्रियः' (४।४।९५), 'बन्धने चर्षों' (४।४।९६) शा कटायन-'वश्यपथ्यवयस्यधेनुष्यगार्हपत्यजन्यधर्म्यहृद्यमूल्यम्' (३।२।१९५) । - २५३ - Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक ओर जहाँ शाकटायनने पाणिनिके एक नियमवाले छोटे-छोटे कई सूत्रोंके स्थान पर अपने लम्बेलम्बे सूत्र बनाकर सरलता ला दी है, वहीं दूसरी ओर उन्होंने पाणिनिके लम्बे सूत्रोंको तोड़कर उनके स्थान पर कई छोटे-छोटे सूत्र बना दिये हैं । उनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है १. एक सूत्रके स्थान पर दो सूत्र । यथा पाणिनि-~~‘राजाहः सखिभ्यष्टच्' (५/४१९१ ) शाकटायन-'राजन् सखे : ' (२।१।१६९), 'अह्नः ' (२।१।१७९ ) पाणिनि - 'नित्यमसिच् प्रजामेधयो:' ( ५|४|१२२) शाकटायन-'अस्प्रजाया: ' (२।१।१९७), 'अल्पाच्च मेधायाः ' (२|१|१९८ ) पाणिनि--' पूतिकुक्षिकलशिवस्त्यस्त्यहेर्द्वज्' (४४३५६) शाकटायन - 'दृतिकुक्षिकलशिवस्त्यहेण्' (३|१|११८), 'आस्तेयम्' ( ३।१।११९) पाणिनि-'यत्तदेतेभ्यः परिमाणे वतुप् ' ( ५।२।३९ ) शाकटायन - 'एतदो वो घः' ( ३।३।६९), 'यत्तदः ' ( ३ | ३|७० ) पाणिनि - 'बहुगणवतुडति संख्या' (१।१।२३) शाकटायन - 'घड्डति संख्या (१1१1९), 'बहुगणं भेदे' (१।१।१० ) हाणिनि - 'आद्यन्तौ टकितौ' (१|१|४६) शाकटायन -- 'टिदादिः ' (१।१।५३), 'किदन्तः ' (१।१।५४ ) पाणिनि --- 'नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः' (२०४८३ ) शाकटायन - 'नातः' (१।२।१५६), 'अमपञ्चम्याः ' (१।२।१५७ ) पाणिनि- 'तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्' (२०४३८४) शाकटायन-' - 'तृतीया वा' (१।२१५८), 'सप्तम्याः ' (१।२।१५९) पाणिनि--' पृथग्विनानानाभिस्तृतीयाऽन्यतरस्याम्' (२।३।३२ ) शाकटायन -' पृथग्नाना तृतीया च' (१।३।१९२), विनेमास्तिस्रः ' (१।३।१९३ ) पाणिनि - 'निसमुपविभ्यो ह्न : ' (१।३।३० ) शाकटायन — 'सन्निवेः' (१।४।३०), 'उपात्' (१।४।३१ ) पाणिनि - 'ऋक्पूरब्धूः पथामानक्षे' (५।४।७४ ) शाकटायन-'ऋक्पूःपथ्यपोत्' (२।१।१३९), 'घुरो नक्षस्य ' (२।१।१४० ) २. एक सूत्रके स्थान पर तीन सूत्र । यथा - पाणिनि -- ' विभाषा वृक्षमृगतृणधान्यव्यञ्जनपशुशकुन्यश्ववडव पूर्वापराधरोत्तराणाम् ' (२।४।१२ ) शाकटायन - ' अश्ववडवपूर्वापराधरोत्तराः' (२०१1९५ ), ( पशुव्यञ्जनानि ( २।१।९६), 'तरुतृणधान्यमृगपक्षिबह्वर्थांश:' ( २।१।९७ ) पाणिनि - ' दाण्डिनायनहास्तिनायनाथर्वणिकजैह्माशिनेयवाशिनायनिभ्रौणहत्यधैवत्यसारवक्ष्वाकमैत्रेयहिरण्मयानि' (६।४।१७४) शाकटायन - 'दण्डिहस्तिन: फे' (२|३|५९), 'वाशिजिह्याश्यध्वाथर्वयूनः फिढखठाके ( २।३।६०), ‘भ्रौणहत्यधैवत्यसारवैक्ष्वाक मैत्रेय हिरण्मयम्' (२।३।११२) २५४ - Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. एक सूत्रके स्थान पर चार सूत्र । यथापाणिनि-'अचतुरविचतुरसुचतुरस्त्रीपुंसधेन्वनडुहमिवाङमनसाक्षिभुवदारगवो र्वष्ठीवपदष्ठीवनक्त न्दिवरात्रिन्दिवाहदिवसरजसनिःश्रेयसपुरुषायुषव्यायुषत्र्यायुषय॑जुषजातोक्षवृद्धोक्षोपशुनगो ष्ठश्वाः ' (५।४।७७) शाकटायन-'जातमहवृद्धादुक्ष्णः कर्मधारयात्' (२।१।१५९), 'स्त्रियाः पुंसो द्वन्द्वाच्च' (१५९), 'धेन्वनडुहर्ग्यजुषाहोरात्रनक्तन्दिवरात्रिन्दिवाहदिवोर्वष्ठीवपदष्ठीवाक्षि ध्रुवदारगवम्'(१६०) ४. दो सूत्रोंके स्थान पर पाँच सूत्र । यथापाणिनि- 'शमित्यष्टाभ्यो घिनुण्' (३।२।१४१), 'सम्पृचानुरुघाङ्यमाङ्यसपरिसृसंसृजपरिदेवि संज्वरपरिक्षिपपरिसृपखिदपरिदहपरिमुहदुषद्विषहदुहयुजाक्रीडविविचत्यजरजभजातिचरा पचरामुषाभ्याहनश्च' (३।२।१४२) शाकटायन-'शमष्टकदुषद्विषद्रुहदुहयुजत्यजरजभजाभ्याहनानुरुधो घिनन्' (४।३।२४२), 'आङः क्रीड्यं यस्मुषः' (४।३।२४३), 'समः पृच्सृजज्वरोऽकर्मकात्' (४।३।२४४), 'चरोऽतौ च, (४।३।२४७), 'परेः सृवद्दहमुहः' (४।३।२४९) अनुवृत्ति, विकल्पों, अर्थविशेषों तथा निपातनोंकी दृष्टिसे शाकटायनके इन प्रयासोंका विस्तृत अध्ययन अत्यावश्यक है। शाक्टायन व्याकरणमें एक सौ साठ सूत्र ऐसे हैं जो पाणिनीय सूत्रोंके तुल्यवर्तनीक हैं। उनमें कुछ लम्बे सूत्र भी है । इस प्रकारके सूत्रोंके विषयमें भी यह अध्येतव्य है कि शाकटायनने जिस प्रक्रियासे पाणिनीय सूत्रोंको तोड़कर कई सूत्र बनाये हैं क्या उस प्रक्रियासे इन समानवर्तनीक सूत्रोंके लम्बे सूत्रोंका योगविभाग किया जा सकता है ? ___अपने व्याकरणको पृथुलतासे बचानेके लिये शाकटायनने पाणिनीय व्याकरणकी भाँति वार्तिकोंको अलग नहीं पढा । कात्यायन रचित वात्तिकोंमें बिखरे सभी नियमोंको शाकटायनने सत्रोंमें निबद्ध कर लिया ताकि अध्येताओंको पथक्शः वात्तिकोंके स्मरणकी आवश्यकता न पड़े। वात्ति कोंके इन नियमोंके लिये शाकटायनने स्वतन्त्र सूत्रोंकी रचना नहीं की। किन्तु सम्बद्ध सूत्रोंमें ही वात्ति कोंके नियम पचा लिये हैं। लगभग तीन सौ सूत्र ऐसे हैं जो केवल वार्तिकोंके स्थान पर बनाये गये हैं । शाकटायन व्याकरण में अधिक संख्या ऐसे सूत्रोंकी है, जिनमें पाणिनीय सूत्रोंको बड़ी सूझ-बूझके साथ संक्षिप्त कर दिया गया है। ऐसा करने पर विषयवस्तु में कोई अन्तर नहीं आ पाया है। ऐसे सूत्रोंकी संख्या लगभग पन्द्रह सौ है । पाणिनीय व्याकरणका सम्पूर्ण तत्त्व पातञ्जल महाभाष्यमें निहित है । शाकटायन व्याकरणका अनुशीलन करनेसे ज्ञात होता है कि पाल्यकीर्तिने महाभाष्यका कितना तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था और वे उसमें कितने नदीष्ण हो गये थे। उन्होंने अपने सत्रोंमें महाभाष्यकी इष्टियां तथा उसके सभी वचन या पचा लिये हैं । इष्टियोंकी संख्या अधिक नहीं मिलती, पर भाष्यवचनोंकी संख्या लगभग पैंतीस है । शाकटायन ने उन्हें छाँटकर सूत्रबद्ध कर दिया है । पाणिनीय व्याकरणमें गणसूत्र भी विद्यमान हैं, जिनका अध्ययन अध्येताको सूत्रों तथा वार्तिकोंसे अलग करना पड़ता है । शाकटायनने उनके नियमोंको भी यथास्थान सूत्रबद्ध कर लिया है । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसप्रकार पाणिनिने पूर्व प्रचलित सम्पूर्ण व्याकरणोंका परिशीलन कर अपना स्वोपज्ञ व्याकरण बनाया था, उसी प्रकार काशिकाकारने अपने कालमें प्रचलित सम्पूर्ण वृत्तियोंका अनुशीलन कर काशिकावृत्ति की रचना की थी। अतः महाभाष्यके अनन्तर काशिकावृत्तिका अधिक महत्त्व है । व्याकरण-नियमोंकी पूर्तिके लिए वह व्याकरण शृंखलाकी एक कड़ी है । इसके महत्त्वको समझ कर पाल्यकीर्तिने काशिकावृत्तिके लगभग चालीस महत्त्वपूर्ण वचनोंके भी सूत्र बना दिये हैं । पाणिनीय व्याकरणकी अपेक्षा शाकटायनने धातूपाठमें भी वैशिष्टय रखा है। ( कृदन्त प्रकरणमें ) पाणिनीय साधित शब्दोंके अतिरिक्त शब्दोंकी सिद्धियाँ शाकटायन व्याकरणमें दृष्टिगोचर होती है ( द्रष्ट०'गोचरसंचर०' सूत्रमें 'खल' 'भग' शब्द )। इतनी अधिक सामग्रीको शाकटायन व्याकरणमें कल ३२३६ सत्रोंमें ही सन्निविष्ट कर देनेका चमत्कारी प्रयत्न हआ है । यक्षवर्माने अपनी व्याख्यामें ठीक ही लिखा है-'यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्' । एक दिनमें ९ सूत्रोंका स्मरण करने पर एक वर्ष में सम्पूर्ण व्याक रणका ज्ञान शक्य है । लक्ष्य-लक्षण मिलकर व्याकरण बनता है । पाणिनि, कात्यायन, पतञ्जलि तथा काशिकाकारके अनन्तर पाल्यकीर्तिके समयकी संस्कृत भाषामें महत्त्वपूर्ण परिवर्तन अवश्य हुए थे। बोद्धों और जैनों द्वारा रचे गये ग्रन्थोंकी संस्कृत भाषा अपना व्यक्तित्व लिये हुए थी। इसके अतिरिक्त शिष्ट समुदायमें बोली जाने वाली संस्कृतमें भी पर्याप्त परिवर्तन हुए होंगे । शाकटायनके आमूलचूल परिशीलनसे इनका पता चलता है । इस प्रकार हमने देखा कि शाकटायन व्याकरणने संस्कृत भाषाके अध्ययनमें बहत बड़ा सहयोग प्रदान किया है । अपने परवर्ती वैयाकरणोंको प्रेरणा प्रदान की है । हेमचन्द्रने अपने व्याकरणमें शाकटयनव्याकरण के कतिपय सूत्रोंको अविकल गृहीत कर लिया है । सूत्रानुसारी व्याकरणोंमें प्रक्रिया-पद्धतिकी नींव डालने का श्रेय शाकटायनको ही है। यद्यपि अध्यायोंमें विभक्त होनेके कारण यह व्याकरण अध्यायानुसारी ही है, तथापि अध्यायोंकी व्यवस्था विषयानुसारिणी है । समासान्त सूत्रोंको तत्पुरुषसमासके नियमोंके अनन्तर पढ़ा गया है। प्रकियाकौमुदी के रचयिता रामचन्द्र तथा वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीके रचयिता भट्टोजिदीक्षितने अपने ग्रन्थोमें इसी प्रक्रियाका अनुसरण किया है। 'अन्तिकबाढयार्नेदसाधौं इत्यादि सत्रोंके उदाहरणोंकी परीक्षासे इसका और भी निश्चय हो जाता है। इतने उपयोगी व्याकरणका लोकमें भूयिष्ठ प्रचार प्राप्त न कर सकनेका कारण है-दार्शनिक पृष्ठभूमिका अभाव । उसके लिए भर्तृहरि जैसे दार्शनिककी अपेक्षा थी । 4 SODA - २५६ - Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Contribution of Karnataka To Jaina Literature & Culture Dr K. Krishnamoorthy, Dharwad The early historians of Indian literature and culture have more often than not neglected the substantial contribution of the Jainas. Even when the contribution is surveyed, sketchily though, by scholars like M. Winternitz, no attempt is made to assess the magnitude of the contribution of the Jainas regionwise. Though many of the Jaina Tirthankaras were born in the North, it is an indisputed fact that Jainism in the historical period was patronised by kings of Karnataka in the South, more than any other region. Most of the prominent rules of the Ganga, Calukya, Răstrakūta, Western Cälukya, and Hoysala dynasties were active promoters of Jainism. For no less than eight centuries, (400 to 1200 A.D.) Karnataka saw the development of Jaina literature and culture not only in the medium of Sanskrit, but also Prakrit, Apabhrajnsa and old Kannada. It is no wonder then that like the colossal statue of Bahubali which makes Sravana-Belgola a holy place of pilgrimage in Karnataka to the Jainas up to date, the equally impressive achievements of eminent Jaina Ācāryas in several literary and cultural fields-like literature, grammar, religion, philosophy, poetics, lexicography, porosody, architecture, sculpture, painting, music etc. await yet to be studied closely. In the space of this short paper, what is attempted is only a very broad indication of some of the most outstanding works, especially in Sanskrit, which might be deemed as the signal contribution of Karnataka to Jaina literature and culture. Even such a short survey is rendered possible now, thanks to the new publications brought out in the last two or three decades by premier learned bodies like the Bharatiya Jnanapith. Among the Jaina pontiffs who receive first and foremost mention by almost all Jaina writers in Karnataka is Samantabhadra who is the author of several works including Apta-mīmāṁsa. His field of activity lay mainly in the South, round about Kanchi (according fifth) to legendary accounts) and his date is generally regarded as the fifth century after the Christian era. It is because of his irresistible influence that the Digambara tradition of the Jainas took deep root in Karnataka. According to a constantly repeated epigraphic tradition, the kings of the Ganga dynasty starting from Madhava held the ascetic Simhanandi in the highest regard as the carver of their royal fortune. It is virtually certain that Pujyapada or Devanandin was the religious preceptor of these kings in the period 450 to 500 A.D. He systematised for the first time the tenets of Jaina philosophy by writing his celebrated commentary, Survārthasiddhi on Umāsvāti's Tattvarthadhigama-sūtra, It begins with the oft-quoted prayer to Jina, 33 - 257 - Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ 'I bow down to Jina, the Leader in the Pathway to salvation, The Destroyer of mountains of Karma, the Knower of all so that I might imbibe his virtues.' He cannot be much earlier because he is seen quoting from Dinnāga, the Buddhist logician (A.D. 345-425) and Iśvarkrşna, the Sankhya philosopher (A.D, 450). Among his most celebrated works is the Jainendra Vyakarana which successfully attempts to achieve a greater measure of brevity than Pāṇini himself in presenting methodically all the rules of Sanskrit grammar. He is also credited with a gloss on the Paninian grammar, termed Sabdavatara which has been unfortunately lost. न्यासं जैनेन्द्रसंज्ञं सकलबुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा । यस्तत्त्वार्थस्य टीकां व्यरचयदिह तां भात्यसौ पूज्यपादः, स्वामी भूपालवन्द्यः स्वपरहितः पूर्णदृम्बोधवृत्तः ।। [Epigraphia Carnatica, Nagar Taluk, No. 6] 'Pujyapada, the eminent pontiff, commanded reverence from kings, did good to one and all, was omniscient and led an exemplary life. He wrote the extensive grammar, known as Jainendra' praised by all scholars as well as an extensive gloss on Paņini's grammar known as Sabdavatara. Further, he composed a treatise on medicine conducive to the weal of people at large, and an authoritative commentary on the text of the 'Tattvartha'. Similarly, in the history of Indian poetics, the first ever mention of 'Prasanta' or tranquillity as 'Kavya-rasa' or poetic sentiment is traced in the Jaina canonical text Anuyogadvara-sutta (in Ardhamāgadhi ) whose date, according to its recent editors, cannot be later than 300 A.D. (See Muni Punyavijayaji, Dalsukh Malvania and Amritlal Mohanlal's edition, Mahavira Jaina Maha Vidyalaya, Bombay, 1968, Introduction). No doudt, we have the expression "Vyupasanti' or detachment in a general sense used by the Buddhist poet Asvaghosa in his ornate epic-Saundarananda in the concluding portion; but it does not carry the technical sense of a poetic sentiment as understood in Loetics. But here, in the Anuyogadvära text 'Kavva-rasas' (Kavyarasas) are specifically enumerated as nine, including "Prasanta' (or santa) and substituting 'Vrīdanaka' ('sense of shame') in place of bhayanaka ('fearful'). णव कन्वरसा पण्णत्ता-वीरो सिंगारो अब्बुओ अ रोहो । अहोइ बोद्धब्बो वेलणओ बीभच्छो हासो कलुणो पसन्तो अ॥ [Op. cit. p. 121] The nine rasas are also illustrated with examples. The example given for 'Prasanta-rasa' or tranquillity is - 258 - Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब्भावनिन्विकारं उवसन्त-पसन्त-सोमदिट्रीणम् । हो जह मुणिणो सोहति मुहकमलं पीवरसिरीयम् ।। [Op. cit. p. 124] Glorious is the lotus-face of the ascetic, unperturbed by any emotion, with a calm, tranquil and sweet look! In the light of this incontestable evidence, one would not be wrong to think that the redaction in Bharata's Natyuśastra including śānta as a minth rasa may have been inspired by the influence of Jaina thought. The inost celebrated lanmark in the history of Belles lettres is Ravikīrti's ornate eulogy (Prusistikavya) of the Calukya king, Pulakesin II, dated 634 A. D. He regards himself as a poet on a par with celebrities like Kālidása and Bhāravi, At Aihole (Taluka-Badami, Dist, Bijapur), he religiously got a temple of Jina built in hard stone : येनायोजि नवेऽश्मस्थिरमर्थविधौ सुमतिना जिनवेश्म । स जयतां रविकीर्तिः कविताश्रितकालिदासभारविकीतिः ।। [Epigraphia Indica, VI. No. 1] The pun (śleşa) and rhyming repetition (Yamaka) even in this single stanza is enough to show his great command over the Sanskrit tradition of ornate poetry. If his contemporary in the North viz. Bāna Bhatta, the courtpoet of Emperor Harsa was singing his patron's glory in hyperbolic fashion (by writing the akhyayika or biography, namely, the Hașracarita, Ravikirti, the court-poet of Pulakesin II in Karnataka could resoundingly poke fun at the defeated Northern ruler :***** farfsaagt 1 Taft 01 [Loc. cit. ] Possibly, he was also the author of a Karnațeśvara-katha eulogising the hero Pulakesin; this work is alluded to in Jayakirti's Chandonuśasana; but it is unfortunately lost. To the same period belongs Ravişeņa, the author of the Padmacarila or Jaina Rāmāyaṇa in Sanskrit consisting of 18000 verses divided into 123 Parvans or books based on the earlier Paumacaria in Prakrit by Vimalasäri. Like Vālmīki, Ravişeņa too became a poet's poet very soon and we have a number of later Rāmāyaṇa works in several languages following this Jaina version. Equally important in the history of Sanskrit ornate poetry is Jatāsimha-mandin's Varāngacarita which is a religious and didactic epic couched in the ornate style of the mahakāvya. As Dr. A.N. Upadhye has shown in his learned introduction to this poem edited by him. His other names were Jațila or Jatācārya' and a number of Jaina - 259 - Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ poets in Sanskrit, Apabhraínsa and old Kannada have referred to him with respect. A memorial in stone is preserved upto to this day at Koppal. It became the model: for carita-kavyas or poems centred around religious heroes which were compose large numbers by later Jaina poets. (For further details, see A.N. Upadhye's article in ABORI, XIVI-2) Kavi Parameśvara or Paramesthi is another ancient poet whose work Vágarthasangraha' in no longer extant. The heyday of Jaina literary activity and philosophical systematisation, is reached in this period because latest researches show that Akalanka, the great Ācārya, must have enjoyed the patronage of the Cālukyas of Badami. Epigraphs mention that Akalanka was honoured at the court of king Sàhasa-tunga, who has been identified with Calukya Vikramaditya I, son and successor of Pulakesin II, who ruled from 642 to 681 A.D. (See Dr. Jyoti Prasad Jain, The Jaina Sources of the History of Ancient Ingia, Delhi, 1964, p. 179). The epigraphic evidence relevant here is : राजन् साहसतुङ्ग सन्ति बहवः श्वेतातपत्रा नृपाः, किंतु त्वत्सदृशा रणे विजयिनस्त्यागोन्नता दुर्लभाः । तद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादीश्वरा वाग्मिनो, नानाशास्त्रविचारचातुरधियः काले कलौ मद्विधाः ।। [Mallisent Prasasti, Jain Lekha Sangraha, II, No. 290] 'O king, Sāhasatunga ! Indeed many kings there are with royal emblems of white parasoles. But rare are kings as victorious as yourself in battles and as generous as yourself in gifts. So too there are scholars galore on earth. But in this iron age, scholars are rare who, like me, can claim the highest proficiency in poetry, debate, polemical skill and expertness in discussions involving all branches of knowledge ! Another epigraph at Sravanabelagola states that he defeated the Buddhists in a great scholastic debate in the year 643 A.D. : विक्रमाङ्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि । कालेऽकलङ्कयतिनोर्बोद्धैर्वादो महानभूत् ।। (R. Narasimhachar, Inscriptions at Sravanabelgola, 2nd Ed. Introduction. ) According to Mallisena Prasasti the court of King Himaśītala was the place of this historic debate. This Himaśítala has been recently identified with the Trikalingadhipati mentioned by Hiuen Tsang (Dr. J.P. Jain, Journal of the U.P. Historical Society, Vol. III (New Series), Pt. 2, pp. 108-125). Akalanka has written outstanding works on Jaina Logic and epistemology like Tattvartha-raja-varttika, Aşgasati, Siddhivinis caya and Pramana-sangraha, refuting the arguments of Buddhist logicians like Dinnāga. Among earlier writers on Jaina metaphysics and logic, referred to by Akalarka are Mallavādin, author of Nayacakra, and Siddhasena Divākara. The latter also is the author of the popular devotional hymn (stotra) known as Kalyanamandirastotra (See Kāvyamala, VII, Bombay, 1907, pp. 10-17). Similarly, Gunanandin's Jainendraprakriya, which is sometimes alluded to by later writers, appears to have been composed under the Cālukyas of Badami. The Jaina version of Brhatkatha of Guņādhya - 260 - Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wherein the supernatural and romantic episodes of Naravāhanadatta are transferred to Vasudeva, with slight variations is Vasudevahindi of Sanghadāsagani and it is ascribed again to this period. It illustrates the pithy observation of Dhanapāla that all tales in Indian literature are more or less mere variations of the original theme contained in the Bșhatkatha itself : सत्यं बृहत्कथाम्बोधेबिन्दुमादाय संस्कृताः । तेनंतरकथाकन्थाः प्रतिभान्ति तदग्रतः ।। This was also the period which saw the foundation of the Daviba-sangha dy the pontiff Vajranandin at Madurai; its branches were spread over Karnataka also as evidenced by epigraphs. It is again a Jaina poet from Karnataka, viz. Dhananjaya who added a new dimension to the domain of Sanskrit Kavya by composing the first Dvisandhāna-kavya or equivocal poem in which the same verses yield simultaneously the story of the Rāmāyaṇa as well as the Mahābhārata. It is indeed a rare feat exploring the inexhaustible elasticity of the Sanskrit language. The same poet has also written a lexiconNamamala and devotional hymn Vişāpahara-stotra. As he is quoted by Virasena in his Dhavala (completed in 780 A.D.), he might be a century earlier. In the Namamāla, Dhananjaya's treatment of synonyms and homonyms marks an advance over that of even Amarasimha. For example, he first enumerates twentyseven synonyms of earth such as 'Bhumi', 'Pșthui' etc. and adds crisply : तत्पर्यायधरः शैलः तत्पर्यायपतिर्नुपः । तत्पर्यायरहो वृक्षः शब्दमन्यत्र योजयेत् ॥ Mathematically, we get here a record of 27X3 – 81 vocables. To each of the twentyseven names of af we can and when it would mean ‘mountain', or -fa' when it would mean 'king' or '-' when it would mean 'tree' : +43-448 = Mountain qeat + T = qatti = Mountain + ufa = Hafa = King qeat + fa = geatafa = King T + F = 455 = Tree qeat + s = quate = Tree Dhananjaya's Vişāpahara-stotra is as lucid and charged with devotion as his Dvisandhana is difficult. Here is an example at random विषापहारं मणिमौषधानि मन्त्रं समुद्दिश्य रसायनं च ।। भ्राम्यन्त्यहो न त्वमिति स्मरन्ति पर्यायनामानि तवैव तानि ।। [Kävyamalā, VII, Bombay, 1907, P. 23, verse-14] - 261 - Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ People foolishly pursue the acquisition of poison-cures like gems, herbs, spells, drugs and so on because they do not know that all of them are really identical with Thy grace, though they recite all the time Thine own synonyms ! Dhanañjaya's Namamalá records in one of its concluding verses the greatness attained by three works of the masters Pujyapāda, Akalanka and Dhananjaya himself because they were mentioned together by scholars as the veritable 'Ratna-traya' or triple gems of Jainism: प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । धनञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ।। A contemporary of Dandin and Dhananjaya seems to have been Śrīvardhadeva who wrote the glorious poem 'Cudamani' according to an inscription. He is said to have won the following tribute from the masterpoet Dandin : जह्रोः कन्यां जटाग्रेण बभार परमेश्वरः । श्रीवर्धदेव संधत्से जिह्वाग्रेण सरस्वतीम् ॥ [Epigraphia Carnatica, II, No. 67] 'If Lord Siva bore Ganga on the top of his matted locks of hair, O Śrīvardhadeva, You bear Sarasvati at the tip of your tongue ! Unfortunately, the work is no longer extant. The regime of the Rāştrakūta kings was equally favourable to the promotion of Jaina religion. As a result we see the rise of encyclopaedic commentaries ont he old canonical texts in this period. We also the creative boom in the composition of eligious poems (Purānas) eulogising all the great figures held sacred by Jainas. Virasena and Jinasena II were teacher and disciple who jointly completed the gigantic project of commentaries in the manipravāla, or 'gem-coral' style mixing both Sanskrit and Prakrit : प्रायः संस्कृतभारत्या क्वचित् संस्कृतमिश्रया। मणिप्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽयं ग्रन्थविस्तरः ।। [टीकाकार-प्रशस्ति] Their extent exceeds some 100,000 ślokas. Their only Manuscript copy in plamleaf has been preserved up to date in the Jaina dāna-śálā-matha at Mūdabidre in Karnatak. From the colophons of the work we learn that the Dhavala of Virasena was completed in 780 A.D. and that the Jayadhavala of Jinasena II was completed in 837 A.D. While the Dhaqala on Satkhandagamu is published by Dr. H.L. Jain from Amroyti, the Jayadhavala portions (Kaşaya-pahudas) are published by the Jnanapith, Kashi (1947). (For fuller details see J. P. Jain, The Predecessors of Swami Virasena, Jaina Autiquary, XII, i-pp. 1-6). The Harivaņģa-purāna by Jinasena I was completed in 783 A.D. It is also a very extensive religious poem, giving for the first time the Jaina version of Harivansa. - 262 - Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinasena II was also a great poet who wrote the magnificent Adipurāna dealing mainly with the epic story of Bharata and Bahubali. It is as much a refined poem as a religious scripture. The work, though very voluminous, remained incomplete till it was completed by his gifted pupil Gunabhadra whose supplementary work is known as Uttarapuräna, The importance of these works will be realised only if we see how Jinasena's work set the tradition to be followed by all old Kannada campū-writers for several centuries. Gunabhadra states that this Jinasena was the guru of king Amoghavarşa-I : यस्य प्रांशुनखांशुजालविसरद्धारान्तराविर्भवत्पादाम्भोजरजः - पिशङ्ग मुकुटप्रत्यग्ररत्नद्यतिः । संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पूतोऽहमोत्यलं स श्रीमान् जिनसेन-पूज्यभगवत्पादो जगन्मङ्गलम् ।। Another literary work of this jinasena is equally significant becase it sketches the life-history of Pārsvanātha-tįrthankara by a very ingenious device of Samasyapürana (a part of a stanza added to another to complete the sense in a different way) and incidentally incoproates the entire text of Kālidāsa's Meghaduta. In the Parsvabhyudaya Jinasena adds to every single or double line of Kālidāsa three or two lines of his own and achieves the intended meaning referring to Pärávanātha. This work has proved most useful in deciding Kalidasa's original text and readings. In the colophon of this poem too, we are told that Jinasena was the esteemed preceptor of king Amoghavarşa I : इत्यमोघवर्षपरमेश्वरपरमगुरु-श्रीजिनसेनाचार्यविरचितमेघदूतवेष्टिते पाश्र्वाभ्युदये। This King himself has written the short and beautiful string of epigrams in question and answer form known as Prašnottara-ratnamalika. Though some of the published versions of this poem assign it sometimes to Vimala and sometimes to Sankarācārya, the early Tibetan translation as well as Karnataka commentorial tradition of the Jainas testify to its composition by Amoghavarșa himself. The twenty and odd verses in the āryā metre are at once pithy and profound. One example may be cited here : कि जीवितमनवयं कि जाड्यं पाटवेऽप्यनभ्यासः । को जाति विवेकी का निद्रा मूढता जन्तोः ॥ [Verse II, Kävyamāla edn. VII, Bombay, 1907, p. 122] Q. What is life ?' Ans : 'Only that which is inpeccable'. Q. What is dullness?' Ans: 'Avoidance of study even when there is intelligence'. Q. Who is awake ? Ans: 'A wise man'. Q. What is sleep ?' Ans : 'One's foolishness ! It is recently established that even Haribhadra, the compiler of the very popular philosophical treatise, Şaddarśana-samuccaya belongs to this period because a citation from the Hindu logician Jayantabhatta's Nyāyamañjarı (9th century A.D.) has been traced therein (Cf. tittfarten etc.) as well as another citation from the Buddhist śāntirakṣita's Tattvasangraha (C.800 A.D.). - 263 - Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ One of the epigraphs of this period mentions Kaumāra or Katantra system of grammar in which specialists were available. The famous gloss (Vștti) on the KatantraSūtras was written by Durgasimha belonging to this period. Similarly, a Jaina grammarian sākatāyana (or Pälyakīrti) in the court of Amoghavarşa-I founded, like Pujyapāda, another new system of grammar known as the Sakatāyana school. He not only subjects Pāṇini and Pajyapāda to a further compression, but also anticipates in his arrangement the example followed later by authors of Kaumudi-texts. The Sūtras or aphorisms are arranged topic-wise and make for easy comprehension. Besides being the author of sūtras, entitled Sabdanuśasana, Sakatayana himself has also added an auto-coinmentary thereon, called Amoghavștti in honour of his patron-king. Again, the Jaina mathematician Mahavirācārya who wrote the Ganita-sara-sangraha was a protege of king Amoghavarşa. The patronage of the Gangas of Talkad, further South, to Jaina writers continued unabated throughout this period and later also. Perhaps the last great creative thinker in Syädväda is Vidyänanda (Vidyanandin) who mentions the Ganga kings Śivamára (785-800 A.D.) and Rācamalla Satyavākya I (815-850 A.D.). His monumental works are ślokwärttika, Asta-sahasri, Yuktyanusasana, Āpta-parikṣā, Pramānaparikṣā etc. His place in Jaina metaphysics in comparable to that of Dharmakīrti in Buddhist thought. Karnataka also saw the rise of well-known commentators on philosophical texts like Prabhācandra (980-1065 A.D.) and Anantavīrya (850 A.D.) Judging by the fact that Camundarāya, the minister of the Ganga king Rocamalla IV was erecting the colossal image of Bahubali in the 10th century, we can imagine a similar spurt in the all-round literary activity of the Jainas of that period. Thus we see a Jaina writer Jayakirti composing an authoritative work on Sanskrit and Kannada prosody called Chandonus asana (1000 A.D.) This has been critically edited by H.D. Velankar (Jayadaman, Bombay, 1949, p. 37 f.). It is composed throughout in verse and refers to less known Jaina poets like Asaga, the author of the Vardhamanapurāņa. The seventh chapter is specially interesting as it throws sidelights on indigenous Kannada metres. It is called fufcfa Fifat and sums up the indigenous Kannada metres in one verse as follows : वक्ष्येऽक्षरत्रिपद्येलाक्षरिकाषट्पदीचतुष्पदिकाः । छन्दोऽवतंससंज्ञा मदनवतीगीतिकादिमपि कर्णाटे । [Ibid. VII. 1] Both Puspadanta, author of Mahāpurāņa and Somadevasūri, author of the celebrated campū work Yasastilaka, were patronised by the Răstrakūta king Krişnarāja III, The colophon of the Yaśastilaka states : पाण्ड्यसिंहलचोलचेरमप्रभृतीन् महीपतीन् प्रसाध्य मेल्पाटीप्रवर्धमानराज्यप्रभावे श्रीकृष्णराजदेवे TGETTRI. - 264 - Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ and the Prasasti of the Mahapurāna reads : दीनानाथधनं सदा बहुजनं प्रोत्फुल्लवल्लीवनं मान्याखेटपुरं पुरन्दरपुरीलीलाहरं सुन्दरम् । धारानाथनरेन्द्रकोपशिखिना दग्धं विदग्धप्रियम, क्वेदानी वसतिं करिष्यति पुनः श्रीपुष्पदन्तः कविः ।। It speaks of the lovely capital Manyakheta of Raștrakütas ravaged by the king of Dhäră. The Yaśastilaka represents a lively picture of India a time when the Buddhist, Jaina and Brahmanical religions were still engaged in a contest that drew towards it the attention, and well-nigh absorbed the intellectual energies of all thinking men'. The story is of Yasodhara's different births and sufferings, popular among Jainas; but in the treatment of the same, Somadeva has shown such an encyclopaedic genius that a scholar today (like Dr. Handiqui) could reconstruct all shades of Vedic, Agamic, Tantric, and popular wisdom current at the time by research in this single work. He could truly say : मया वागर्थसंभारे भक्त सारस्वते रसे । कवयोऽन्ये भविष्यन्ति ननमच्छिष्टभोजनाः ॥ "As I have sumptuously quaffed the nectar essence of all literary ingredients, the poets hereafter to come will have to content themselves with only my leavings !'. Somadeva's second work which compels attention is his treatise on politics, viz. the Nitivakyamšta. It is modelled on Kautilya's Arthasastra in concise style as well tent and has been recently translated into Italian. It is one of the very few books on the subject and has 32 chapters dealing, among other things, with the value of life, the sciences, the minister, preceptor, general, envoy, spy, saptaringas of state, judiciary, diplomacy, war and peace. The patronage extended to Sanskrit writers by the Western Calukya kings of Kalyāṇa was almost unprecedented in the history of Karnatak. It appears as if there were a healthy competition between Bhoja of Dhärā and these kings in respect of patronage to poets. The Jaina Vădirāja in the court of Jayasimha II [Jagadekamalla (1015-1042 A.D.) was indeed a star deserving a place in the company of Samantabhadra and Akalanka. Mallişena-praśusti (E.I., III, P. 18) speaks of him in hyperbolis terms : त्रैलोक्यदीपिका वाणी द्वाभ्यामेवोदजायत । जिनराजत एकस्मादपरस्माद्वादिराजतः ।। "A speech which illumined the three worlds has issued only from two persons on earth : one (was) the king of Jinas, the other-Vadiraja. The present writer has given a exhaustive study of Vadiraja's Yasodharacarita in his edition of that work published with the commentary of Laksamana by the Karnatak University, Dharwar in 1963. It need not be repeated here. He philoso 34 - 265 - Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ phical work Siddhiviniscaya published by the Bharatiya Jnanapith, is equally outstanding. A careful study of it will show how Vădirāja eminently deserved such high titles as 'sat-tarka-Şanmukha', 'Syadvada-vidyāp tti' and 'Jagadeka-mallivādin'. He gives here elaborate critiques of all the systems of Indian philosophy from the Jaina perspective, refuting the arguments of masters of rival schools like the Buddhist Dharmakirti as interpreted by Arcața and Dharmottara, Mimāinsaka Kumārila Bhatta and Vedāntin Sankarācārya. Another religious poem by Vădirāja is Pārsvanathucarita, and his popular devotional hymn-Ekibhāvastotra. Dayāpāla, a fellow-student of Vădiraja wrote Rūpasiddhi, a revised commentary on Sakațayana-vyakurana. A protege of King Somesvara III (1127-1138 A.D.) was Parsvadeva who wrote a work on musicology, named Sangitasamayasāra. It is a very important work to understand the evolution of Indian music. Mention should also be made here of Vadībhasimha who wrote the Gadyacintamani in ornate prose and Kşatracūdāmaņi in lucid verse. He is said to have been a pupil of Somadeva. But since the present writer has given a detailed study of these else where (Journal of the Karnataka University, Humanities, 1978), they are not elaborated here. So also a detailed study of Ajitasena's Alankaracintamani has been made in the present writer's Essays in Sanskrit Criticism (2nd Edn. Karnatak University, Dharwar, 1976). लेखसार कर्नाटकका जैन साहित्य और संस्कृतिके क्षेत्रमें योगदान डॉ० के० कृष्णमूर्ति, संस्कृत विभाग, धारवाड़ ___कर्नाटक ४००-१२०० के बीच आठ सौ वर्षों तक संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं कन्नड़के माध्यमसे जैन साहित्य एवं संस्कृतिके विकासमें योगदान करता है। यह योगदान बाहबलीकी प्रतिमाके समान ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है । इस लेखमें कर्नाटकने संस्कृतके माध्यमसे इस दिशामें जो काम किया है, उसका संक्षिप्त वर्णन किया गया है। इसी क्षेत्रमें पांचवीं सदीके लगभग समन्तभद्र और पूज्यपाद हए जिन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथोंके निर्माण द्वारा जैन सिद्धान्तोंको इस क्षेत्रसे प्रतिष्ठित किया। संभवतः तीसरी सदीमें रचित अनुयोगद्वारसूत्र में ही सर्वप्रथम काव्यके क्षेत्रमें वर्णित नव रसोंमें प्रशान्त रसका समाहरण हआ और भयानक रसके बदले, 'वृदानक' रसका नामोल्लेख हआ। संभवतः भरतके नाट्यशास्त्र में 'शान्त रस' के रूपमें नवमे रसका उल्लेख इसी से प्रभावित है। प्रशस्ति-काव्योंके क्षेत्रमें सन ७३४ में शासन करने वाले चालक्यराज पुलकेशी द्वितीयका रविकीर्ति द्वारा लिखित प्रशस्तिकाव्य काव्यकी कोटिका उत्तम उदाहरण है। इन्होंने कर्नाटेश्वर कथा भी लिखी थी। इसका उल्लेख जयकीर्तिके 'छन्दोनुशासन' में पाया जाता है। इसी समय रविषणने भी जैन रामायण के रूपमें पद्मचरित लिखा जो पूर्ववर्ती विमलसरि लिखित 'पउमचरिय' पर आधारित है । जयसिंहनन्दिका -266 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वरांगचरित' तथा परमेश्वर का 'वागर्थसंग्रह' भी अतुलनीय रचनाएँ हैं । इसी प्रकार अकलंक, मल्लवादी, सिद्धसेन दिवाकर, गुणनन्दि, गुणाढ्य आदिने भी धर्म तथा साहित्यके ग्रंथोंका निर्माण कर अपनी यशोध्वजा फहरायी । संस्कृत काव्यों में सर्वप्रथम द्विसंधान-कोटिका काव्य कर्नाटकके धनंजयने ही रचा जिन्होंने नाममाला नामक शब्दकोश भी बनाया । इन्हींके समकालीन श्रीवर्धदेव ने 'चूड़ामणि' काव्य भी लिखा । राष्ट्रकूट युग भी जैनधर्म के संवर्धन के लिये महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ । इस युग में आगमग्रंथों पर बृहत् टीकाएँ लिखी गईं, पुराण लिखे गये । धवला, जयधवला, हरिवंशपुराण आदि इसी काल की रचनाएँ हैं । जिनसेन आदिपुराण और पाश्र्वाभ्युदयको कौन भूल सकता है ? ये अमोघवर्ष के राज्यकालमें हुए हैं जिनकी 'प्रश्नोत्तर - रत्नमालिका' प्रसिद्ध है । इसी युगमें कातंत्रव्याकरणके रचयिता कौमार, शाकटायन व्याकरण के रचयिता पाल्य कीर्ति और गणितसारसंग्रहके रचयिता महावीराचार्य भी हुए। उत्तरवर्ती गंगराज शिवमार के समय में प्रसिद्ध तार्किक विद्यानन्द हुए जिन्होंने तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिकके समान अनेक ग्रंथोंकी रचना की । कर्नाटक में आगे चलकर प्रभाचंड और अनंतवीर्यके समान उत्कट जैन दार्शनिक हुए । यहीं राष्ट्रकूट राज कृष्णराज तृतीयने पुष्पदन्त और सोमदेवसूरिका संवर्धन किया । सोमदेवने यशस्तिलकचम्पूके अतिरिक्त राजनीति-विषयक नीतिवाक्यामृत भी लिखा जो कौटिल्य के अर्थशास्त्रका संक्षिप्त रूप है । इसका इतालवी भाषामें अनुवाद किया गया है । कर्नाटक इतिहासको देखनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि धाराके भोज और कर्नाटकके चालुक्य राजाओं में कवियोंके संरक्षणके लिए प्रतिस्पर्धा रही । जयसिंह द्वितीयके शासन कालमें यशोधरचरित तथा सिद्धिविनिश्चयके रचयिता वादिराज निश्चय ही अत्यन्त प्रशंसनीय आचार्य हुए हैं । इन्होंने चरित और स्तोत्रके अतिरिक्त रूपसिद्धि' नामक व्याकरण ग्रंथ भी लिखा है । बारहवीं सदीके जैन लेखकों में संगीतसमयसार के रचयिता पर्वदेव, गद्यचिन्तामणि के रचयिता वादीभ सिंह तथा अलंकारचिन्तामणि के रचयिता अजितसेनके नाम प्रमुख हैं । इन पर लेखकने विस्तृत अध्ययन कर टिप्पण लिखे हैं । - 267 - Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kannada and Jainagara Sahitya Prof. M. D. Vasantharaj, Mysore University, Mysore Whenever the subject of contribution of Jainas to Kannada is spoken of, usually the poetry aspect of the contribution is taken note of and the other aspects are ignored, if not unnoticed. The fact is, that by Jaina, contributions Kannada have been ranked to the level of Prākta and Samisksta. Available evidences point out, that just as Präkịta and Sa i.skệta languages, Kannada also was used for the cultivation of Jaināgama literature and again in time factor it is equally coextensive with that of Sanskrit, if not more. The History of the composition of Satkhandagama and its commentaries reveals that Kannada was used along with Prākṣta with equal propensity. Unless there should be some strong reason or urge an adoption of Kannada in composing commentaries on revered Siddhänta work shall not have taken place. In this regard we are to take note of some of the factors related to the composition of Satkhandăgama. It is well known that the scheme of the composition of Şațkhandagama was planned and also was initiated by Puspadantācārya, who had definitely a regional affinity for Karnäļaka, and in particular to the region around Banavāsi. It is here at Banavāsi that Puspadantzīcārya initiated the composition of Şatkhaņdāgama which has been looked upon with great veneration being considered as the essence of the entire angaśruta. 1 In fact it shall not be out of tune if it should be said here that for Digambara Jains Banavāsi is an Atiśayakşetra being the "Śrutapravartana Tirthasthāna'-. The first commentary on this Siddhānta grantha Rāja was composed by Acārya Kunda who is looked upon as one of saviours of the Jaina Digambara sect. Next to his commentary, is by Syāmakunda, commentary of the type of 'Paddhati' where in Kannada had its place in addition to Prākṣta and Sanuskrta.2 The commentary "Cūdāmani' mentioned next to that of Syámakunda is by Tumbulāru Ācārya. This commentary on the first five Khandās of Satkhandagama was of the extent of eignty four thousand granthas was composed in Karnāļa Bhāṣā i. e., Kannda alone. In addition to this a Pancikä type of commentary on the sixth Khaāļa is said to have been composed by this same Acārya.3 But the name of the language, in which this was composed, is not mentioned. Any how this statement appears as though it is a continuity of the preceeding one and so even this commentary probably must have been composed in Kannada. Depending on the authenticity of the available traditional accounts it can be said confidently that the commentary 'Cūdāmaai' happens to be the earliest independent literary composition in Kannada. The date of composition of this work cannot be later than 5th century A.D. as Samantabhadra whose date is decided to be the - 268 - Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of Sidduch prophe sido later part of 5th century A. D., is mentioned to be the next to that of Tumbuturu Ācārya. There must have been some kind of strong urge for the adoption of Kannada for composing the commentary on a work of Siddhānta or Āgama type, the grasp of which was limited to only a very few, and one such probable urge must have been there because of the need for easy and correct grasping of the Siddhanta by the Munsi who came from Karnā taka area and were in good number in the Munisangha. Any how those commentaries composed in Kannada have not come down to us and even then the authenticity of the tradition cannot be doubted because the authenticity of other statements of Srutāvatāra has been proved beyond any doubt. Since the day of the completion of Satkhandagama an account of the history of its composition and of its commentaries as they were composed was handed down and this incidentally we have the account of the composition of "Cūdāmaņi' commentary in Kannada. With the exception of this traditional account we have nothing else as evidence to say whether, such of the commentaries or any other type of literary compositions were composed or not. But any how it shall not be irrational if we should say that works in Kannada used to be composed and they are lost just as many Sanskrit and Prakrit works, composed by such eminent Ācāryas Samantabhadra Swāmį and Pādalipta Sūri, are lost. In the field of Kavya literature, the available earliest Kävyas are Jaina Kavyas. Just as Kālidāsa, Bharavi, Magha, Sri Harsa are the well known and venerated names in Sanskrit literature, Pampa, Ranna, Ponna, Janna, Abhinava Pampa-Nāgacandra are the well known venerated names in the Kannada literature and it is needless to say that all the later are the names of Jaina Poets. Usually these poets have chousen Purăņic story for the theme of their Kavyas and there in they have invariably incorporated the elements of Jaina metaphysics and ethics. It appears that during the period of the rule of śātavāhanas and of their fudatories and their successors, in the major part of Karnataka, Präkşta and Kannada had a place of estimation being favoured by the rulers and elites as well. But with the commencement of the rule of Kadambas of Brahmanical leneage Sanskrit could gain the favour of the rulers. More over it is at this same period that under the rule of the Guptas revival of Sanskrit took place and its sway extended through out the North India, and also South India could not remain free from its impact and influence. Thus with these favourable conditions Sanskrit gained supremacy and held its dominance upto 10th century A. D. in Karnataka. Thus because of this domination of Sanskrit, Kannada had a severe set back with the result that no Kannada literary work of this period has survived to reach us. Not that literary activity was completely a blank, but that as said earlier no work of this period has survived to reach us. Any how available materials clearly point out that there was cultivation of Kannada literature throughout this period. - 269 - Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tenth Century happens to be a golden period in the history of Kannada literature not only from the view point of highly elegant Kāvyas but also from the view point of the assertainment of Kannada of its due place of honour in its homeland. Innumerable works pertaining to Jaina Āgama which are composed from Ilth Century on words are lying in our Bhandars. Some of them are independent-Original works and others are commentaries on Prāksta and Sanusksta works. The study of these works is a desideratum; very often they reveal such facts which are very important and are not found in other sources of Prāk’ta or Sariskpta. In this regard independent-original works 'Śrāvakácāras' in good number are worth mentioning. In fact some of them had gained local popularity and influenced very much the lay mans life. These works in addition to the normal duties and vows of a Sravaka expound the importance and essentiality of Jina Paja and etc., which are not found in some of the well known works like Ratnakarandaka Śrāvakācāra. 'Suvicăra Carita' is one such work which' appears to have been very popular. There are a good number of original independent works on other branches of Āgama literature such as on the theory of Karma, tattva, loka and etc., some of which are worthy of being brought to light. There are innumerable works of the type of commentaries which are lying hidden and uncared for in the Bhandārs. Particularly commentaries or tikās on the works of such eminent Acāryas as Kundakunda and others are very useful in many respects. If not the publication of all the works at least a discriptive catalogue pertaining to their works is very essential. Writing of either the origi dependent works or of translation type of works is not 'A Past'. Many works wit.. ulscussions, on modern lines, touching the subject of Agama particularly pertaining to the field of Philosophy have been published. Translations of Ratnakarandaka Srävakācāra, Dravya Sangraha, Anyayoga Vyavaechedikā, Samaya Sara and many others have been published. This translation is not limited to the Sanskrit or Prakrit works alone. Translations of the works in Hindi and other languages also have been published and one such work worth mentioning here, being very popular, is Pandit Kailäsacandra Sastrīji's Jaina Dharma'. Likewise it is very much necessary to have the selected Kannada works translated into Hindi and thus maintain good conduct between North and South. References: 1. 'Śrutāvatāra' of Indranandi : Stzs 147. 2. Ibid : Stzn. 162-164 3. Ibid : Stzn. 165-167 270 - Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखसार कन्नड और जैनागम साहित्य प्रो० एम-डो० वसन्तराज, मैसूर विश्वविद्यालय, मैसूर जब भी कभी जैनोंके कन्नड़ भाषाके विकासमें योगदानकी चर्चा होती है, तब प्रायः इसे काव्य या कविताके क्षेत्रमें प्रधानतः सीमित मान लिया जाता है। लेकिन सत्य यह है कि कन्नड़ भाषाके लिए जैनोंका योगदान संस्कृत और प्राकृत भाषाके समकक्ष ही माना गया है । संस्कृत और प्राकृतके समान कन्नड़ भाषाको भी जैनागम साहित्यके विकासके लिए प्रयुक्त किया गया है। षटखंडागम और उसकी टीकाओंके लिए कन्नड़के उपयोगसे यह भलीभाँति ध्वनित होता है कि कन्नड़में कोई-न-कोई विशेषता है जिससे इसका उपयोग आगम साहित्य निर्माणके लिए किया गया । अंगश्रुतके सारभूत षट्खंडागमके रचयिता पुष्पदन्ताचार्य कन्नड़ वासी ही थे । यहाँके वनवासी स्थानको हम श्रुत प्रवर्तनका अतिशय क्षेत्र मान सकते हैं । इसपर कुन्दकुन्द, श्यामकुन्द, तुबुलुरु आचार्यने इसपर टीकाएँ लिखी हैं । तुम्बुलुरु आचार्यने षट्खंडागमके पाँच खण्डों पर ८४००० गाथा-प्रमाण चूडामणि नामक कन्नड़ टीका लिखी है। इसके छठे खण्डपर इन्होंने पंचिका कोटिकी टीका भी सम्भवतः कन्नड़में लिखी। यह समन्तभद्रकी पूर्ववर्ती टीका है जो सम्भवतः पाँचवीं सदीमें लिखी गयी थी। इसके अतिरिक्त भी अन्य आगम टीकाएँ कन्नड़में लिखी गईं, इस विषयमें अनुसंधानकी आवश्यकता है। साहित्यके क्षेत्रमें भी पंप, रन्न, पोन्न, जन्न, अभिनव पंप-नागचन्द्रने कन्नड़ भाषामें अनेक काव्य लिखे हैं। इन कवियोंने पौराणिक कथाओंके माध्यमसे जननीतिशास्त्र और अध्यात्मविद्याका भी वर्णन किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि सातवाहन और उनके उत्तराधिकारियोंके युगमें कर्नाटकमें संस्कृत और कन्नड़ दोनों भाषाओंमें साहित्य लिखा गया। पर कदम्बोंके युगमें संस्कृत लेखनकी प्रधानता रहो। गुप्त साम्राज्यके प्राधान्यसे संस्कृतकी यह स्थिति दशवीं शताब्दीके पूर्व तक कर्नाटकमें बनी रही। इसी कारण इस युगका कोई महत्त्वपूर्ण कन्नड़ साहित्य हमें उपलब्ध नहीं होता। दसवीं शताब्दी कन्नड़ साहित्यके निर्माणका स्वर्णयुग कही जा सकती है। इस समयके रचित अनेक जनागम कन्नड़ ग्रन्थ भंडारोंमें प्राप्त होते हैं, जिनमें कुछ मौलिक हैं और कुछ टीका ग्रन्थ हैं। इस दिशामें श्रावकाचारोंपर लिखित ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं । 'सुविचारचरित' इसी कोटिका एक उत्तम ग्रन्थ है । इसी प्रकार कर्म, तत्त्व, लोक आदि अनेक सैद्धान्तिक विषयोंपर भी कन्नड़ ग्रन्थ लिखे गये। कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंपर कन्नड़में लिखे अनेक टीका ग्रन्थ भी भण्डारोंमें पाये जाते हैं । यदि इनका प्रकाशन सम्भव न हो, तो भी वर्णनात्मक ग्रन्थ सूचीका प्रकाशन अत्यन्त आवश्यक है । कन्नड़में जैनागम और साहित्य लेखनकी प्रक्रिया आज भी चाल है । रत्नकरण्डश्रावकाचार, द्रव्यसंग्रह, अनुयोगव्यवच्छेदिका, समयसार तथा अन्य संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थोंके कन्नड़ अनुवाद किये गये हैं। इस कोटिकी हिन्दी भाषाकी पुस्तकें भी कन्नड़ में अनूदित हुई हैं, जिनमें कैलासचन्द्र शास्त्रीकी जैनधर्म नामक पुस्तक प्रमुख है। उत्तर और दक्षिणके मध्य सांस्कृतिक सेतुबन्धकी दृढ़ताके लिए यह आवश्यक है कि कन्नड़ के ग्रन्थोंका भी हिन्दी भाषामें अनुवाद किया जाए। -271 - Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूडामणिसूक्तयः वादीसिंहसूरिकी संस्कृत गद्यपद्यमें समान गति थी। वे सुधावर्णी अप्रतिम सुधी थे। गद्यसंसारमें उनका गद्य चिन्तामणि प्रख्यात है । यहाँ उनके काव्यग्रन्थ क्षत्रचूड़ामणिके अमृत निस्पन्दबिन्दु परिवेष्ठित हैं विषयासक्तचित्तानां गुणः को वा न नश्यति । न वैदुष्यं न मानुष्यं नाभिजात्यं न सत्यवाक् ॥ परस्परविरोधेन त्रिवर्गो यदि सेव्यते । अनर्गलमतः सौख्यमपवर्गोऽप्यनुक्रमात् ॥ पुत्रमित्रकलत्रादौ सत्यामपि च संपदि । आत्मीयापायशङ्का हि शङ्कः प्राणभृतां हृदि । विपदः परिहाराय शोकः किं कल्पते नृणाम् । पावके नहि पातः स्यादातपक्लेशशान्तये ।। जीवितात्त पराधीनाज्जीवानां भरणं वरम् । मगेन्द्रस्य मगेन्द्रत्वं वितीर्ण केन कानने । कोऽहं कीदृग्गुणः कृत्यः किंप्राप्यः किंनिमित्तकः । इत्यूहः प्रत्यहं नो चेदस्थाने हि मतिर्भवेत् ॥ धार्मिकाणां शरण्यं हि धार्मिका एव नापरे । अहेर्नकुलवत्तेषां प्रकृत्यान्ये हि विद्विषः ।। गुरुद्रहो न हि क्वापि विश्वास्यो विश्वघातिनः । अविभ्यतां गुरुद्रोहादन्यद्रोहात्कुतो भयम् ।। यौवनं सत्त्वमैश्वर्यमेकैकं च विकारवत् । कुर्यादविकारोऽस्तु तैरपि । दारिद्रादपरं नास्ति जन्तूनामप्यरुन्तुदम् । अत्यक्तं मरणं प्राणैः प्राणिनां हि दरिद्रता ॥ गुणाधिक्यं च जीवानामाधेरेव हि कारणम् । नीचत्वं नाम किं नु स्यादस्ति चेद्गुणरागिता ॥ उपकारोऽपि नीचानामपकाराय कल्पते । पन्नगेन पयः पीतं विषस्यैव हि वर्धनम् ।। धर्मो नाम कृपामूलः सा तु जीवानुक म्पनम् । अशरण्यशरण्यत्वमतो धार्मिकलक्षणम् ॥ दैवतेनापि पूज्यन्ते धार्मिकाः किं पुनः परैः । अतो धर्मरताः सन्तुः शर्मणे स्पृहयालवः ।। -२७२ - Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ lon Mremational खण्ड ४ :: Section 4 इतिहास और History पुरातत्त्व & Archeology Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ alin Education International www.jainelibrary Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य सम्बर्द्धनमें राष्ट्रकूटयुगका योगदान डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ देश कालकी राजनीतिक परिस्थिति पर तत्तद् सांस्कृतिक एवं साहित्यिक प्रगति एक बहुत बड़ी सीमा तक निर्भर करती है। यदि किसी पर्याप्त विस्तत भखण्ड पर किसी एक शक्तिशाली राज्यसत्ताका सुव्यवस्थित शासन लगभग एक सौ वर्ष पर्यन्त भी निरन्तर चलता रहता है, तो उसकी जनता सुख, शान्ति और समृद्धिका प्रभूत उपभोग करती है। ऐसी स्थितिमें धार्मिक भावनाओं, सांस्कृतिक प्रवृत्तियों और साहित्यिक एवं कलाके सृजनको भी विशेष प्रेरणा मिलती है। यदि शासनवर्ग नीतिपरायण, प्रबुद्ध, विद्यारसिक और कलाप्रेमी भी हुआ, तो सोनेमें सुगन्धकी उक्ति चरितार्थ होती है। सामान्यतया जन साधारण भी राजन्यवर्ग तथा नेताओंका ही अनुसरण करते हैं । अब यदि शासकवर्ग किसी एक धर्म, परम्परा या सम्प्रदायका ही विशेष अथवा एकान्त पक्षपाती हआ, तब उसी परम्परासे सम्बन्धित साहित्यिक एवं कलाका विशेष उत्कर्ष होता है। किन्तु वह उदार, सहिष्णु एवं सर्व-धर्म-समभावी हआ, तो राज्य में प्रचलित प्रायः सभी सांस्कृतिक परम्परायें अपनी-अपनी प्राणवत्ता एवं क्षमताओं के अनुरूप फलती-फलती है और विभिन्न परम्पराओंके अनुयायियोंमें परस्पर आदान-प्रदान, सहयोग ओर सद्भाव भी ना रहता है। विवक्षित राष्ट्रके सर्वतोमुखी उत्कर्षकी यह सुखद भूमिका होती है। यही कारण है कि गुप्तकाल ब्राह्मण संस्कृत साहित्य एवं कलाका स्वर्णयुग कहलाया, बंगाल-विहारके पालगने बौद्ध संस्कृतिका उत्कर्ष देखा, गुजरातके सोलंकियों ( चौलुक्यों ) के शासनकालमें श्वेताम्बर परम्पराके जैन साहित्यका सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वाधिक भाग रचा गया, विद्याप्रेमी परमारोंके मालवामें विपुल जैन तथा ब्राह्मणीय साहित्यका सृजन हुआ ओर दक्षिणापथके राष्ष्ट्रकूटयुगमें दिगम्बर-परम्पराके विविध विषयक जैन साहित्यके सर्वश्रेष्ठ बहुसंख्यक ग्रन्थोंका प्रणयन हुआ। आगे, मध्यकालमें भी विजयनगर और मुगल साम्राज्योंके स्वर्णयुग उनकी कला और साहित्यके भी स्वर्णयुग रहे हैं। विश्वके प्रायः देशके इतिहास में यही तथ्य दृष्टिगोचर होता है। यह एक सुखद संयोग रहा कि दक्षिणापथके जिस भूभागको केन्द्र बनाकर आठवीं शती ई० में राष्ट्रकूटोंका अभ्युदय हुआ, वहीं दूसरीसे पांचवीं शतो पर्यन्त वनवासी (वैजयन्ती)के कटुम्ब नरेशोंकी सत्ता बनी रही और उसके प्रार भकालमें ही कदम्बनरेश शिवकोटिके परमगुरु स्वामिसमन्तभद्र (ल० १२०१८५ ई०) जैसे दिग्गज दार्शनिक साहित्यकार एवं महान् प्रभावक दिगम्बराचार्य हुए थे। यों, उसके पूर्व भी, प्रथम शताब्दी ई० में ही भगवान् कुन्दकुन्द, पुष्पदन्त, भूतबलि प्रभृति कई शीर्षस्थानीय आचार्यपंगव अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व द्वारा सम्पूर्ण दक्षिण भारतको भली-भाँति अतुप्राणित कर चुके थे ।२ कदम्बोंके समसामयिक उदयमें आने वाले गंगवाडि के शक्तिशाली जिनधर्मो गंगरायकी सर्वोत्तम देन गंगनरेश विनीतके गुरु आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि (४६४-५२४ ई०) थे। इसी प्रकार उक्त कदम्बोंके उत्तराधिकारी, वातापीके १. ज्योतिप्रसाद जैन, जैनसोर्सेज आफ दि हिस्ट्री आफ एन्शन्ट इण्डिया, पृ० १४३-१४९ । २. वही, पृ० १०७-१२८ । ३. वही, पृ० १५३-१६२ । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी चालुक्य (५वीं-८वों शती ई०) साम्राज्यकी अद्वितीय देन पूज्यपाद भट्टाकलङ्कदेव (ल० ६४०७२० ई० ) थे। इस बीच दक्षिण देशमें अन्य भी कई छोटे-बड़े जैन साहित्यकार हए। ७२०-२५ ई० के लगभग राष्ट्रकूटोंकी लट्ट लूर शाखाके इन्द्र द्वितीयके पुत्र दन्तिदुर्ग खण्डावलोक वैरमेबने जो एक चालक्य राजकुमारीसे उत्पन्न था, एलडर (एलोरा) प्रदेशमें अपने पैर जमाये, ७३३ में स्वयं को स्वतन्त्र राजा घोषित किया, ७४२ ई० में एलडरको विधिवत राजधानी बना लिया और ७५२ ई० में चालक्य नरेश कीर्तिवर्मनको पूर्णतया पराजित करके वह महाराजाधिराज बन गया। उसके उत्तराधिकारी कृष्ण प्रथम शुभतुंग (७५७-७३ ई०) ने राज्यकी सीमाओं और शक्तिका और अधिक विस्तार किया। उसने गंगनरेश श्रीपुरुष मुत्तरस 'शत्रुभयंकर' के गुरु विमलचन्द्राचार्यके प्रशिष्य महान् तार्किक परवादिमल्लको अपनी राजसभामें मम्मानित किया था। एलोराके विश्वप्रसिद्ध कलापूर्ण शैव एवं जैन गुहामन्दिरोंका उत्खनन भी इसी नरेशके समयमें प्रारम्भ हुआ। उसका ज्येष्ठ पुत्र गोविन्द द्वि० (७७३७९ ई०) अयोग्य था किन्तु कनिष्ठ पुत्र ध्रुव धारावर्ष निरुपम वल्लभराय धवलश्य (७७९-९३ ई०) बड़ा पराक्रमी, विजेता एवं विद्वानोंका प्रश्रयदाता था। वस्तुतः राष्ट्रकूटोंने अपने पूर्ववर्ती, कदम्बों और चालुक्यों की ही सर्वधर्मसमभावी उदार नीतिका अनुसरण किया, फलस्वरूप उनके प्रश्रयमें अनेक जैनाचार्योंने भारती के भण्डारको अमूल्य ग्रन्थरत्नोंसे अलंकृत किया। पञ्चस्तुपान्वयी चन्द्रसेनाचार्यके प्रशिष्य और आर्यनन्दिगरुके शिष्य, लक्षाधिक श्लोक परिमाण शास्त्रके रचयिता, सर्वमहान आगमिक टीकाकार स्वामी वीरसेन (७५०-७९० ई०) ने अपनी जन्मभूमि चित्रकूटपुर (चित्तौड़) से विद्यागुरु एलाचार्यके सान्निध्यमें सिद्धान्तोंका गहन अध्ययन करनेके उपरान्त, राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्गके शासन कालमें ही उसके राज्यके केन्द्रसे नातिदूर, नासिक देशके वाटग्रामपुरमें अपना केन्द्र स्थापित कर लिया था, जहाँ वह निद्वन्द्व होकर साहित्य-साधनामें जुट गये। इस ज्ञानपीठमें उन्होंने एक विशाल ग्रन्थागार बना लिया, अनेक विद्वान शिष्योंका समदाय प्राप्त कर लिया और विश्वविद्यालयका रूप दे दिया जो लगभग डेढ़ सौ वर्ष तक फलता-फूलता रहा । स्वामी वीरसेनके शिष्योंमें प्रमुख थे-दशरथगुरु, विनयसेन, पदमसेन, कुमारसेन, देवसेन और जिनसेन स्वामी और समकालीन दक्षिणात्य जैन साहित्यकारों एवं प्रभावक आचार्योंमें विमलचन्द्र, प्रभाचन्द्र, बहनन्दवीर्य, परवादिमल्ल, अनन्तकीर्ति, बुद्धकुमारसेन, स्वामी विद्यानन्द, जिनसेन सूरि (पुन्नाटसंघी), अपभ्रंश महाकवि स्वयंभू आदि प्रसिद्ध है। ध्र व धारावर्षके प्रतापी पुत्र एव उत्तराधिकारी गोविन्द तृतीय जगत्तुंग प्रभूतवर्ष (७९३-८१४ ई०) के समयमें साम्राज्यके विस्तार वैभव एवं शक्तिमें और अधिक वद्धि हई तथा राजधानीके रूपमे मनोरम मान्यखेट महानगरीका निर्माण हुआ। उसके समयमें स्वामि वीरसेनके पट्टशिष्य स्वामि जिनसेन व उनके सधर्याओंने तथा श्रीपाल मुनि, एलकाचार्य, वर्द्धमानगुरु, विजयकीति, अर्ककीर्ति, कवि त्रिभुवन स्वयम्भू (स्वयम्भूके पुत्र) आदि सन्तोंने साहित्य-साधना ओर धर्मप्रभावना की। गोविन्द तृतीयका पुत्र एवं उत्तराधिकारी नृपतुंग-शर्ववर्म-श्रीवल्लभ-महाराजशण्ड-अतिशय-धवलवीरनारायण-वल्लभराज आदि विरुदधारी सम्नाट अमोघवर्ष प्रथम (८१५-८७६ ई०) तत्कालीन भारतवर्षके १. वही, पृ० १७१-१८० । २. राष्ट्रकूट इतिहास के लिए देखें-एस० एस० आल्तेकर कृत राष्ट्रकूटाज एण्ड देयर टाइम्स तथा ज्योतिप्रसाद जैन कृत भारतीय इतिहास, एकदृष्टि, द्वितीय सं०, पृ० २९२-३१० ।। -२७४ - Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वाधिक विस्तृत, शक्तिशाली एवं समृद्ध साम्राज्यका एकच्छत्र स्वामी था। देशमें सुख, शान्ति और सुव्यवस्था थी। उसके पूर्वज जैनधर्मके अनुयायी नहीं थे, किन्तु उसके प्रति पूर्णतः सहिष्णु और उसके अच्छे प्रश्रयदाता थे। अमोघवर्ष सुनिश्चित रूपसे जैनधर्मका अनुयायी था, स्वामी जिनसेन उसके विद्यागुरु, धर्मगुरु एवं राजगुरु थे, राज्य परिवारके कई अन्य स्त्री-पुरुष सदस्य तथा वीर वंकेयरस प्रभृति अनेक सामन्त सरदार जिनधर्म भक्त थे । साम्राज्यमें दर्जनों जैन सांस्कृतिक संस्थान एवं ज्ञानकेन्द्र भली प्रकार फल-फूल रहे थे। इसी नरेशके शासन-कालमें स्वामी विद्यानन्दने अपने अन्तिम ग्रन्थ रचे, कवि त्रिभुवन स्वयम्भने अपने पिता महाकवि स्वयम्भूके महाकाव्योंका संवर्द्धन-सम्पादन किया, कल्याणकारकके रचयिता उग्रादित्याचार्यने सम्राट्की प्रेरणा पर अपने ग्रन्थके परिशिष्टके रूपमें मांस-निषेध प्रकरण या हिताहिताध्याय रचा, महावीराचार्यने गणितसार-संग्रह आदि रचे, शाकटायन पाल्यकीर्तिने शब्दानुशासन एवं उसकी स्वोपज्ञ अमोघवृत्तिका प्रणयन किया, महाकवि असगने महावीरचरित्र आदि कई पौराणिक चरित्र रचे और स्वामी जिनसेनने गुरुकी अधूरी टीका जयधवलको पूर्ण किया, पार्वाभ्युदय जैसा अप्रतिम काव्य रचा और महापुराण का प्रारम्भ किया, जिसे उनके शिष्य गुणभद्राचार्यने आदिपुराणके अवशिष्ट भाग तथा उत्तरपुराणकी रचना करके पूर्ण किया । गुणभद्रकी अन्य कई रचधाएँ हैं वह युवराज कृष्ण द्वितीयके विद्यागुरु भी थे। स्वयं सम्राट श्रेष्ठ विद्वान, विविध भाषाविज्ञ, कवि और लेखक था। कविराजमार्ग और प्रश्नोत्तर रत्नमलिका उसकी कृतियाँ हैं। अन्य भी साहित्य प्रणयन उस युगमें हुआ तथा कान्ययोगी, देवेन्द्र मुनीश्वर, नागविन्द, देवसेन, कुमारसेन आदि अनेक प्रभावक आचार्य हए । सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ० रापकृष्ण गोपाल भण्डारकरके शब्दोंमें "राष्ट्रकट नरेशोंमें अमोघवर्ष जैनधर्मका सर्वमहान संरक्षक था। यह बात सत्य प्रतीत होती है कि उसने स्वयं जैनधर्म धारण कर लिया था।" अमोघवर्षके पुत्र एवं उत्तराधिकारी कृष्ण द्वितीय शुभतुंग अकालवर्ष (८७८-९१४ ई०) के गुणभद्राचार्य तो गुरु ही थे, उनके शिष्य लोकसेन, हुमच्चके मौनी सिद्धान्त भट्टारक, पेरियकुडिके अशिष्ट नेमिभट्टारक, कोप्पणतीर्थके चटगुदुभट्टारक व उनके शिष्य सर्वनन्दि, चन्दिकावाटके वीरसेन एवं कनकसेन मुनि आदि अनेक दिगम्बराचार्य साम्राज्यमें विचरते थे। कन्नड एवं संस्कृतमें साहित्यसृजन भी हुआ। कृष्ण द्वि०के पौत्र एवं उत्तराधिकारी इन्द्र तृ० (९१४--९२२ ई०) ने भी लोक भद्र आदि गुरुओंका सम्मान किया, जिनालय निर्माण कराए, वसदियों आदिको पुष्कल दान दिये। उसके उपरान्त, अमोधवर्ष द्वि० (९२२--२५ ई०), गोविन्द चतुर्थ (९२५--३६ ई०) और अमोधवर्ष तृतीय वद्दिग (९३६--९३९ ई०) क्रमशः राष्ट्रकूट सिंहासन पर बैठे, जो अपेक्षाकृत निर्बल एवं साधारण नरेश थे, किन्तु जैनधर्मके लिए राज्याश्रय पूर्ववत बना रहा। तदनन्तर, कृष्णराज तृ० अकालवर्ष (९३९--९६७ ई०) राष्ट्रकूट वंशका अन्तिम महान सम्नाट था, जो बड़ा प्रतापी एवं उदार भी था और जिसके समयमें भी जिनधर्मने प्रभत उत्कर्ष प्राप्त किया तथा विपल जैन साहित्य रचा गया। नन्न और भरत जैसे जैन महामन्त्री, भारसिंह और राजमल्ल जैसे साम्राज्यके स्तम्भ जिनधर्मी गंगनरेश, और केशरी चालुक्य जैसे सामन्त, वीर मार्तण्ड चामुण्डराय जैसे प्रचण्ड जैन सेनानी, महाकवि पुष्पदन्त, पम्प, सोमेदवसूरि, इन्द्रनन्दि, वीरनन्दि, कनकनन्दि, अजित सेनाचार्य, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती प्रभृति अनेक कवि, साहित्यकार एवं प्रभावक आचार्य उस युगमें दक्षिण भारतमें हए । द हिस्टी आफ डेकन-अमोघवर्ष व उसके सामन्त वीर वंकेय आदि की विस्तत जानकारीके लिए. देखिए ज्योतिप्रसाद जैन कृत "प्रमुख जैन ऐतिहासिक पुरुष और महिलायें", पृ० १०१-१०६ । - २७५ - Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण त० के पश्चात राष्ट्रकट शक्तिका 'हास दुतवेगसे प्रारम्भ हो गया, जिसका निवारण करने में उसके उत्ताधिकारी खोद्रिग नित्यवर्ष (९६५-७२ ई०), कर्क द्वि० (९७२-७३ ई०) और इन्द्र चतुर्थ (९७३८२ ई०) सर्वथा असमर्थ रहे। सन ९७२ में सीयक परमारने राजधानी मान्यखेटको जी भरकर लूटा और उसके दो वर्षके भीतर ही तेलपदेव चालु क्या राष्ट्रकूटोंकी सत्ता हस्तगत करके कल्याणीके पश्चिमी चालुक्य साम्राज्यकी नींव रख दी। वीर इन्द्र चतुर्थ ७-८ वर्ष अपने राज्यके लिए भीषण संघर्ष, एवं युद्ध करता रहा। अन्ततः वह संसारसे विरक्त हो गया और ९०२ ई० में उसने सल्लेखनापूर्वक देहत्याग कर दिया । इसके एक वर्ष पूर्व ही ९८१ ई० में श्रवणवेलगोलकी विन्ध्यगिरि पर विश्वविश्रुत गोम्मटेश बाहुबलिकी महाकाय प्रतिमा प्रतिष्ठित हो चुकी थी। इस प्रकार लगभग अढ़ाई शताब्दी व्यापी राष्ट्रकूट युगमें जैनधर्म दक्षिणापथका सर्वप्रधान धर्म था, साम्राज्यको लगभग दो तिहाई जनता, कई सम्राट. अनेक राजपुरुष, रानियाँ, राजकुमार, राजकुमारियाँ, अधीनस्थ राजे, सामन्त सरदार, सेठ-महाजन, शिल्पी-कर्मकार, सभी वर्गों एवं वर्गों में जिनधर्मकी प्रवृत्ति थी। लोकशिक्षा भी जैन गुरुओं, जैन वसिदयों एवं विद्यापीठोंके माध्यमसे संचालित थी। विभिन्न धर्मोमें पारस्परिक सद्भावना थी। अपने इस उत्कर्षकालमें जैन संस्कृतिने भारतीय संस्कृतिका सर्वतोमुखी विकास किया, जैन कालाकारोंने मनोरम कलाकृतियोंसे देशको अलंकृत किया और जैन कवियों एवं साहित्यकारोंने भारतीके भण्डारको महy ग्रन्थरत्नोंसे भरा। राष्ट्रकूट नरेशोंकी छत्रछायामें उक्त राष्ट्रकूट युगमें लगभग एक सौ जैन ग्रन्थकारों द्वारा, जो प्रायः सब ही दिगम्बर आम्नायसे सम्बन्धित रहे, लगभग दो सौ ग्रन्थरत्नोंके रचे जानेका पता चलता है। इन रचनाओंमें लगभग ११० संस्कृत, ३५ प्राकृत, २० कन्नड़, १५ अपभ्रश और ६ तमिल भाषाकी हैं। धवल-जयधवल जैसी अतिविशालकाय आगामिक टीकाओंके अतिरिक्त, सैद्धान्तिक, तात्त्विक, आध्यात्मिक, दार्शनिक नैयायिक, तार्किक, पौराणिक, कथा साहित्य, आचारशास्त्र, भक्तिस्तोत्रादि, मन्त्रशास्त्र इत्यादि जैन धार्मिक साहित्यके द्रव्यानुयोग-करणानुयोग-चरणानुयोग-प्रथमानुयोग, चारों ही अनुयोगोंके प्रायः सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा बहुधा आधारभूत साहित्यका सर्जन हुआ। इसके अतिरिक्त, व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, चिकित्साशास्त्र, प्राणिविज्ञान, राजनीति आदि ज्ञान-विज्ञान विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंका भी प्रणयन हुआ। इस अदभुत साहित्यिक उपलब्धिका श्रेय उक्त देशकालकी अनु कूल परिस्थितियोंको ही है। इसी यगमें अन्यत्र, राष्ट्रकूट साम्राज्यके बाहर, राजस्थान आदिमे भी आचार्य सिद्धसेन (भाष्यकार), हरिभद्रसुरि, सिद्धसेनगणी, उद्योतनसूरि, जयसिंहसूरि, शीलाचार्य, शिलांकदेव, सिद्धर्षि विजयसिंहसरि, महेश्वरसूरि, शोभक धनपाल जैसे लगभग एक दर्जन श्वेताम्बराचार्योंन भी विपुल एवं महत्त्वपूर्ण साहित्यकी संस्कृत एवं प्राकृतमें रचना की। किन्तु उनके कृतित्वमें राष्ट्रकूटोंका कोई योगदान प्रतीत नहीं होता। विभिन्न स्रोतोंसे ज्ञात राष्ट्रकूट युगके पूर्वोक्त ग्रन्थकारों तथा उनकी ज्ञात रचनाओंकी एक सूची नीचे सारणीमें दी जा रती है । सूचीगत कई रचनायें ऐसी भी हैं जो अधुना अनुपलब्ध हैं, कुछ-एकके विषयमें अनिश्चिय भी हो सकता है । ग्रन्थकारके नामके सामने कोष्टकमें उसका निश्चित या अनुमानित समय ईस्वी सन्में दिया है, रचनाके सामने भाषा (स-संस्कृत, प्रा०-प्राकृत, अप-अपभ्रंश, क-कन्नड़, १. भारतीय इतिहास, एक दृष्टि, पृ० ३०९-३१० । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त-तमिल) का सूचन है, जहाँ सम्भव हुआ, ग्रन्थ परिभाषा (श्लोक संख्या) का संकेत कर दिया गया है । यदि किसी ग्रन्थकी रचनातिथि सुनिश्चित ज्ञात है, तो वह भी विक्रम सम्वत् (वि० स०) या शकसम्वत् (शक) में दी गई है लः अक्षर लगभगका सूचक है ।। सारणी-राष्ट्रकूटयुगके जैन ग्रन्थकार और उनके ग्रन्थ बृहद् अनन्तवीर्य (ल०७२५ ई०)- अकलंकके सर्वप्रथम टीकाकार सम्भवतया सिद्धिविनिश्चयकी टीका (सं०) भवनन्दि नन्नूल (त० व्याकरण) वादि सिंह (ल० ७२५-७५० ई०) आप्तमीमांसालंकार (सं०) प्रमाणनौका (सं०) अज्ञात तर्कदीपिका (सं०) वर्द्धमानपुराण (सं०) वीरसेन स्वामी (ल० ७२५-७९०) षटखण्डागम सिद्धान्तकी धवला टीका (प्रा० सं० ७२०००) (वि० स० ८३८-७८१ ई०), कसायपाहडकी जयधवल टीका (प्रा० सं०, २००००, अपूर्ण), महाधवल (महाबन्ध) (प्रा०, ४००००) (सं०) सिद्धभूपद्धति (सं० गणित विषयक), तिलोयपण्णत्तिका संस्कार (सम्पादन) प्रभाचन्द्रकवि (ल० ७५० ई०) चन्द्रोदय काव्य (सं०) सगुणचन्द्र , अकलंकके ग्रन्थकी टीका (?) अनन्तकीर्ति प्र० , प्रामाण्य भंग (सं०) मारुतदेव , अपभ्रंश काव्य (?) इन्द्रनन्दि योगी , छेदपिण्ड-प्रायश्चित्तशास्त्र (प्रा०, ३३३) परवादिमल्ल (ल० ७७०-८००) धर्मकीतिके न्यायविन्दुकी धर्मोत्तरकृत टीकाका टिप्पण (सं०) कुमारसेन वैद्यक शास्त्र (सं०), कर्मप्राभृत (सं०) विद्यानन्दिकी अष्ट सहस्रीमें योगदान । विद्यानन्द स्त्रामि (ल० ७७५-८२५ ई०) तत्वर्थश्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री, युक्त्यानुशासनालंकार, विद्यानन्द महोदय, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, तर्कपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, नयविवरणम्, प्रमाणमीमांसा, प्रमाण निर्णय, श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र (सब सं०), अन्तिमके अतिरिक्त सब दार्शनिक, प्रथम तीन टीकायें हैं, शेष मौलिक हैं। दशरथगुरु (ल० ७७५-८३५ ई०) कायचिकित्सा (सं०) उग्रादित्याचार्य कल्याणकारक (सं०, ५०००, वैद्यक) हिताहिताध्याय (सं०, मांसनिराकरण प्रकरण )। शिवमार सगीत गंगनरेश (७७७-८०० ई०) गजशास्त्र या हस्त्यायुर्वेद, गजाष्टक, शिवमारत–तीनों क० स्वयंभूमहाकवि (ल० ७८०-७९६) पउमचरिउ या रामायण (१२०००), रिट्ठनेमिचरिउ या हरिवंशपुराण, पंचमी चरियउ, (नागकुमारचरित), स्वयंभूछन्द (सब-अप०) - २७७ - Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसेनसूरि पुन्नाट-(७८३ ई०) हरिवंशपुराण (सं०, १०००० शक ७०५) जिनसेन स्वामि (ल० ७९०-८५०) जयधवलटीका (प्रा० सं० शेष, ४०००० शक ७५९), लोकानुयोग (सं०), पाश्वम्युिदयकाव्य (सं०), आदिपुराण (सं०, १०३८०) अपूर्ण । श्रीधराचार्य (७९९ ई०) ज्योति निविधि (सं०), गाणितसार (सं०) श्रीपाल (ल० ८०० ई०) जयधवलका संपालन-सम्पादन हेलाचार्य , ज्वालिनीकल्प (प्रा०) कोट्याचार्य , वड्डाराढने (वृहत् आराधनाकथा (क०) पेराशिरियर , तोलकपियम व्याकरणकी टीका (त०) मणरुनेय्यार अरैयनार (ल० ८०० ई०) पलमोलि (त०) सूक्तिसंग्रह इन्द्रनन्दि संहिता (प्रा०), पूजाविधि (प्रा.) आर्यदेव राद्धान्त (सं०) कन्नमय्य मालतिमाधवकाव्य (क०) पद्मसेन पाश्र्वचरित्र (सं०) त्रिभुवन स्वयंम् (ल० ८००-८२०) स्वयंभके काव्योंका सम्बर्द्धन-सम्पादन अनन्तवीर्य (रविभद्रशिष्य) (ल० ८००-८४०) सिद्धिविनिश्चयटीका (सं०), प्रमाणसंग्रह टीका (सं०) अमोघवर्ष नृपतुंग (८१५-७६ ई०) प्रश्नोत्तररत्नमालिका (सं०), कविराजमार्ग (क०) गुणनन्दि (ल० ८२५-५० ई०) जैनेन्द्रका शब्दार्णव सूत्रपाठ (सं० चन्द्रकीति , श्रुतविन्दु (सं०) अनन्तकीति (ल० ८५० ई०) बृहत्सर्वज्ञसिद्धि, (धर्मसिद्धि),जीवसिद्धि,प्रमाणनिर्णय,(सब सं.) देवसेन (वीरसेन शिष्य) (ल० ८५० ई०) धर्मसंग्रह (प्रा.) विजया (बंकेय पत्नी काव्य (सं० (?) महावीराचार्य (ल० ८५०-७५ ई०) गणितसारसंग्रह, क्षेत्रगणित, ज्योतिषपटल, छतोसुपूर्वा प्रति उत्तर प्रतिसह, (सब सं०)। शाकटायन पाल्यकीर्ति ,, शब्दानुशासन, स्वपज्ञ, अमोघवृत्तिसहित, स्त्रीमुक्तिप्रकरण (सब सं०) गुणभद्राचार्य (ल० ८५०-८५ है०) जिनसेनीय आदिपुराणका शेष भाग, उत्तर पुराण, जिनदत्त चरित, आत्मानुशासन, (सब सं०) वीरपण्डित (वीराचार्य) , प्रतिष्ठापाठ (सं०), शकुनदीपक (सं०) असगकवि (८५३ ई०) वर्द्धमान या सन्मतिचरित (सं०, वि० सं० ९१०), शान्तिपुराण (सं०), चन्द्रप्रभपुराण (सं०) आदि, कई कन्नड़ग्रन्थ भी बताये जाते हैं। कौमारसेन (८७१ ई०) अर्हतत्प्रतिष्ठासार (सं०) सिंहसूरि मुनि (ल० ८७५ ई०) वट्टाराधनकथाकोश (प्रा०, ४०००) गुणवर्म (८८६-९१३ ई०) हरिवंश या नेमिनाथपुराण (क०), शूद्रकपद्य (क०) लोकसेन (८९८ ई०) गुणभद्रीय महापुराणका सम्पादन-विमोचन (पूरक ८२०) -२७८ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत सेन (ल० ९०० ई०) पद्मनन्दिमुनि दिनकरसेन , गोविन्दकवि सेढुकवि कुन्दकुन्दमणि वप्पनन्दि जयराम अमितगति वीतराग (ल० ९०० ई०) अज्ञात हरिचन्द्रकवि अमृतचन्द्राचार्य (ल० ९०५-९४० ई०) अभयनन्दि (९०५-९४० ई०) हरिषेण (९३२ ई०) इन्द्रनन्दि योगीन्द्र (९३९ ई०) काव्य ग्रन्थ सं०) (?) धम्मरसायणम् (प्रा०, १९३) चरणसार (प्रा०) कन्दर्पचरित्र (सं०) कथारत्नसमुद्र (क० ?) पउमचरिउ (अप०) सुलोयणाचरिउ (प्रा०), वैद्यगाहा (प्रा०, ४०००) वृषभनाथपुराण (सं०) धर्मपरीक्षा (प्रा.) योगसार प्राभृत (सं०) अकलंक चरित (सं०) धर्मशर्माभ्युदय (सं०), जीवन्धरचम्पू (सं०) समयसारकी आत्मख्याति टीका तथा कलश, प्रवचनसार की तत्त्वदीपिका टीका, पंचास्तिकाय टीका, तत्त्वार्थसार, परुषार्थसिद्धयुपाय, (सब सं०) ढाढसीगाथा (प्रा०),श्रावकाचार (प्रा०) जैनेन्द्र की महावृत्ति-मूल सूत्रपाठ पर (सं०, १२०००) बृहत्कथाकोश (सं०, १५७ कथाएँ) वि० सं० ९८९ ज्वालामालिनीकल्प (सं०, शक ८६१), वज्रपंजराधना (सं०), श्रुतावतारकथा (सं०) आदिपुराण चम्पू (क०, शक ८६३) विक्रमार्जुनविजय या पंपभारत (क०) विक्रमार्जुनविजय या पंपभारत (क०) प्राकृत कथाकौमुदी (प्रा०) यशस्तिलकचम्पू (सं०, शक ८८८२), उपासकाध्ययन ( सं०), पार्श्वनाथचरित्र, अध्यात्मतरंगिणी या योगप्रदीप, योगमार्ग, ध्यानपद्धति, (४०) स्याद्वादोपनिषद्, युक्तिचिन्तामणि, न्यायविनिश्चयटीका, षण्णवतिप्रकरण, नीतिवाक्यामृत, त्रिवर्गमहेन्द्र-मातलि संजल्प, सुभाषितसंग्रह, (सब सं०) । योगीन्द्रगाथा (प्रा०, २०५) द्रव्यस्वभावप्रकाश नयचक्र (प्रा०, ४२३) षड्दर्शन प्रमाण-प्रमेयानुप्रवेश (सं०) मूलाराधना टिप्पण (सं०) तत्त्वविचार (प्रा०, ९५) चन्द्रप्रभाचरित्र काव्य (सं०) सत्वस्थान (विस्तर सत्वत्रिभंगी या विशेष सत्ता त्रिभंगी (प्रा०, ४१), कर्मप्रकृति (प्रा०, ३७), पंचपरुवणा (प्रा०, ३७) पंप (आदिपंप) (९४१ ई०) श्रीचन्द्रमुनि (९४१-८६६ ई०) श्रीचन्द्रमुनि (९४१-८६ ई० सोमदेवसूरि (९४५-९७५ ई०) देवेन्द्र (ल० ९५० ई०) माइल्ल धवल , शुभचक्र जयनन्दि वसुनन्दियोगी (ल० ९५० ई०) वीरनन्दि आचार्य कनकनन्दि -२७९ - Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृषभनन्दि (ल० ९५०-७५ ई०) कर्मप्रकृति (प्रा.), कर्मस्तवन (सं०), कर्मस्वरूप वर्णन (क०) गुणभद्र गुणभद्रसंहिता (सं०) सिद्धसेन नीतिसारपुराण (सं०, १५६३०) सिंहनन्दि अनुप्रेक्षा कथा (अप०) आत्मसम्बोधन (प्रा.) वीरभद्र (६५२ ई०) आराधना पताका (प्र० ९९०, वि० सं० १००८) नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (९५५-८५ ई०) गोम्मटसार जीवकाण्ड (७३३), कर्मकाण्ड (९७२), लब्धिसार, त्रिलोकसार, कर्मप्रकृति, आस्रवत्रिभंगी, उदम्यत्रिभंगी, भाव त्रिभंगी, प्रकृतिसमुत्कीर्तन, पंचसंसार, (सब-प्रा०) चामुण्डराय वीरमार्तण्ड वीरमार्तण्डी टीका (क०), त्रिषष्टिलक्षण महापुराण या चामुण्डरायपुराण (क०), चारित्रसार (सं०), भावनासारसंग्रह (सं०) पुष्पदन्त महाकवि (९५९-७४ ई०) तिसट्ठिमहापुरिसुणालंकारु-महापुराण (अप०, २००००), णायकुमारचरिउ (अप०), जसहरचरिउ (अप०), कथामकरंद (अप०), कोशग्रन्थ (?), शिवमहिम्नस्तोत्र (सं०) पोन्न (९६०-९० ई०) शान्तिनाथपुराण (क०), जिनाक्षरमाले (क०) रन्न (९६०-९५ ई०) अजितनाथपुराण या पुराणतिलक (क०), साहसभीमविजय या गदायुद्ध (क०) चाणिक्यनन्दि महापंडित (९६५-१००० ई०) परीक्षामुखसूत्रम् (सं०) जयदेव (९६८ ई०) नागकुमारकथा, छन्दशास्त्र, चन्द्रलोकालंकार (१६२४), सब सं०। धनपाल धक्कड़, (ल० ९७० ई०) भविसयत्तकहा (अप०) वीरनन्दि (ल० ९७५ ई०) सुकुमालचरित्र (प्रा.) मतिसागर , विद्यानुवाद मन्त्रशास्त्र (सं०) भूपालकवि गोल्लाचार्य (ल० ९७५ ई०) भूपालचतुर्विंशतिस्तोत्र (सं०) सिद्धसेन मुनि चौबीस (तीर्थकर) ठाणा (प्रा०) भावसेन त्रैविद्य शाकटायन शब्दानुशासनकी टीका, कातन्त्ररूपमाला या कातन्त्र, लघुवृत्ति (३०००), विश्वतत्त्व प्रकाश, प्रमाप्रमेय-सब सं० माधवचन्द्र वैविध (ल० ९७५-१००० ई०) त्रिलोकसारकी टीका (सं०), क्षपणासार (सं.) नागवर्म कर्णाटक कादम्बरी, नागवर्मनिघण्टु या अभिधानरत्नमाला, भाषाभूषण, छन्दाम्बुधि (शक ९१२), (सब क०) कणिभेदय्यार एलाति (त० ,नीतिकाव्य), तिर्णमालेनू रैम्बुतु (त०,शृंगारकाव्य) अमृतसागर याप्परुंगलकारिक-वृत्तिसहित छन्दशास्त्र (त) -२८० - Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिहार में जैनधर्म To उपेन्द्र ठाकुर, बोधगया यह ठीक ही कहा गया है कि जैनधर्म कभी किसी संकुचित दृष्टिका शिकार नहीं बना और उसका दृष्टिकोणशब्दके सही अर्थमें उदार और उदात्त रहा है। साथ ही, जैनियोंने देशके किसी एक भाग तक ही अपने कार्यकलापोंको सीमित नहीं रखा, प्रायः देशके प्रत्येक कोने में वे फैले हुए हैं। उनके अंतिम तीर्थंकर यदि उत्तर बिहार (विदेह अथवा मिथिला) में उत्पन्न हुए थे, तो उन्हें मगध ( दक्षिण बिहार ) में निर्वाण प्राप्ति हुआ, जो मुख्यतया उनका कार्य क्षेत्र भी रहा था । उनके पहले पार्श्वनाथ यद्यपि वाराणसीमें उत्पन्न हुए थे फिर भी तपस्या करने वह मगधके सम्मेद शिखर (पार्श्वनाथ पर्वत) पर ही आये। उनसे भी पूर्वके तीर्थंकर नेमिनाथने भारतके पश्चिमी क्षेत्र काठियावाड़को अपनी तपस्या, उपदेश एवं निर्वाणका क्षेत्र बनाया था । प्रथम तीर्थंकर आदिनाथने अयोध्या में जन्म लेकर भी कैलाश पर्वत पर तपस्या की । तात्पर्य यह है कि उत्तर में हिमालयसे लेकर पूर्व में मगध और पश्चिममें काठियावाड़ तक इन जैन मुनियों एवं आचार्यका कार्यक्षेत्र था जो इनकी निरन्तर साधना एवं निर्वाणसे दिगदिगन्त में मुखर हो चुका था [ १ ] atait भांति जैनधर्मके इतिहास में भी बिहारकी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है । अन्य क्षेत्रोंकी अपेक्षा बौद्ध धर्म तथा जैनधर्मके विकास एवं प्रचारमे बिहारका अधिक योगदान रहा है । भगवान् महावीरका जन्म वैशाली में हुआ था जहाँ उन्होंने बाल्यावस्था तथा जीवनका प्रारम्भिक समय व्यतीत किया था । इस तरह वैशालीकी महत्ता जैनियोंके लिए वही है जो सारनाथ तथा अन्य बौद्ध स्थानोंको चीन, वर्मा तथा अन्य बौद्ध देशोंके लिए है । किन्तु, सबसे दुःखद बात तो यह है कि ब्राह्मण-ग्रन्थोंमें वैशाली एवं उससे सभी कार्य-कलापोंकी घोर उपेक्षा की गयी है । ७ वीं सदीमें जब ह्वेनसांगने इस भूभागकी यात्रा की तो एक ओर हिंदू देवी-देवताओंके मन्दिर मिले, वहीं दूसरी ओर अधिकांश बौद्ध विहारके मात्र भग्नावशेष । कुछ जैन मंदिर अवश्य थे जहाँ काफी संख्या में निर्ग्रन्थ मुनि वास कर रहे थे । किन्तु, पटना जिला-स्थित पावापुरी (जहाँ महावीरको निर्वाण प्राप्त हुआ था) तथा चम्पापुरी (भागलपुर) की भाँति जैनियोंकी दृष्टिमें भी इस स्थानका वह महत्व अभी हाल तक नहीं था और न ही इस भूभाग में किसीने जैन अवशेषोंकी खोजका प्रयास किया । कुछ वर्ष पूर्व इस ओर विद्वानोंका ध्यान आकर्षित हुआ है जिसके फलस्वरूप एकबार नये सिरे से इसके सम्बन्धमें गवेषणा - कार्य प्रारम्भ हुए हैं ।" भगवान् महावीरके पिता वैशालीके नागरिक थे और माता विदेह अथवा मिथिलाकी कन्या । महावीरके ओजस्वी व्यक्तित्व एवं उपदेशोंके फलस्वरूप वैशाली उस समय जैनमतका सर्वाधिक महत्वपूर्ण केन्द्र बन गयी थी जहाँ देश के कोने-कोनेसे श्रमणमुनि आकर साधना करते थे । बारहवें तीर्थंकर वधुपूज्यको चम्पापुर (भागलपुर) में निर्वाण प्राप्त हुआ था और इक्सीसवें तीर्थंकर नेमिनाथका जन्म मिथिलामें ही हुआ था । स्वयं महावीरने भी वैशाली में बारह तथा मिथिलामें ६ वर्षाऋतुएँ बितायी थीं । १. विस्तृत विवरणके लिये देखिये, लेखककी पुस्तक " स्टडीज इन जैनिज्म एण्ड बुद्धिज्म इन मिथिला", अध्याय ३ । ३६ - २८१ - Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रन्थों एवं तत्कालीन अन्य साक्ष्योंके आधार पर यह स्पष्ट है कि अंग (भागलपुर), मगध, बज्जि, लिच्छवि क्षेत्र (जिसमें विदेह भी सम्मिलित था) तथा काशी-कोशल साम्राज्य महावीर के कार्य-क्षेत्र थे जहाँ निर्ग्रन्थ अनुयायी भगवानके उपदेशोंके प्रचार-प्रसारमें लगे थे। बौद्ध-ग्रन्थोंसे ज्ञात होता है कि राजगीर, नालन्दा, वैशाली, पावापुरी तथा सावत्थी (श्रावस्ती) में ही महावीर तथा उनके अनुयायियोंकी धार्मिक गतिविधि अधिकांशतः सीमित थी और लिच्छवियों तथा विदेह-निवासियोंका एक बहत बड़ा समूह उनका कट्टर अनुयायी बन चुका था। उनके कुछ समर्थकोंका तो तत्कालीन समाजमें बहुत महत्वपूर्ण स्थान था जैसे लिच्छवि सेनाध्यक्ष सिह अथवा सिंह, सच्चक आदिका । तात्पर्य यह कि अपने युगमें वैशाली तथा विदेहमें समाजके सभी वर्गों-छोटे अथवा बड़े-पर उनका अद्भुत प्रभाव था जिसके फलस्वरूप जैन 'आर्य देशों में मिथिला अथवा विदेहकी भी गणना होती थी। इस प्रकार भारतीय संस्कृतिके उ वैशाली और विदेहको धर्म तथा दर्शनके क्षेत्रमें पर्याप्त ख्याति प्राप्त हो चुकी थी और वहाँके धर्मोपदेशक भगवान् मनावीर द्वारा निर्देशित धर्म-मार्ग पर चलनेके फलस्वरूप बौद्धधर्मके अभ्युदयके पूर्व ही समस्त देशमें अपना एक विशेष स्थान बना चुके थे। अधिकांश विद्वानोंका ऐसा मत है कि बौद्धधर्मकी भाँति जैन मत भी ब्राह्मण धर्मके विरुद्ध प्रतिक्रिया एवं असंतोषका परिणाम था, किन्तु तत्कालीन साक्ष्योंका अनुशीलन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सामान्यत: ब्राह्मण दार्शनिक जैनियों अथवा जैनमतसे उतनी ईर्ष्या नहीं रखते थे जितनी बौद्धोंसे । यह सही है कि जैनधर्म तथा दर्शनका जो वर्तमान स्वरूप है उसके स्रष्टा एवं प्रवर्तक भगवान् महावीर थे, किन्तु यह मत उनके अभ्युदयके पूर्व भी मौजूद था और उनसे पहले २३ तीर्थकर हो चुके थे। ब्राह्मण दार्शनिक इन तीर्थंकरोंके उपदेशोंसे परिचित थे और बहधा आपसमें उन लोगोंमें विचारोंका आदान-प्रदान भी होता रहता था। इसलिये, शब्दके वास्तविक अर्थमें यह नहीं कहा जा सकता कि जैनमत ब्राह्मण धर्मके विरुद्ध एक विद्रोहके रूपमें पुष्पित एवं पल्लवित हुआ। जैनमतका बीजारोपण तो बहुत पहले ही हो चुका था, किन्तु महावीरके अभ्युदयके बाद इसका पर्याप्त विकास हआ। यह सही है कि ब्राह्मण दार्शनिकोंने जैन सिद्धान्तोंकी आलोचना की किन्तु उस उग्रता एवं कटतासे नहीं जो उनके द्वारा की गयी बौद्धमतकी आलोचनामें लक्षित होती है। साथ ही महावीरने भी वेदोंकी सत्ताकी आलोचना अवश्य की थी किन्तु उस रूपमें नहीं जिस तरह बुद्धने की थी। तात्पर्य यह है कि बौद्धोंने धर्मके नाम पर जो आक्रामक नीति अपनायी थी, जैनी उससे अलग रहे । वास्तविकता तो यह है कि 'त्रिवर्ण'-ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वेश्यको मान्यता प्रदान कर महावीरने अपरोक्ष रूपसे समाजमें परम्परागत जाति-व्यवस्थाको स्वीकार कर ब्राह्मण दार्शनिकोंकी वाग्धाराको कुंठित कर दिया था। महावीर एवं बुद्धके समय समस्त उत्तर भारतमें एक ही तरहकी आथिक-धार्मिक स्थिति थी। जाति-व्यवस्था एवं तज्जन्य कुरीतियोंसे तत्कालीन समाजग्रस्त था। परीहितवाद समाजके ढाँचेको खोखला किये जा रहा था। अपनेको 'भदेव' कहने वाले ब्राह्मण परोहित धर्मके नाम पर समाजके निर्धन वर्गको तबाह किये हये थे। धर्मके क्षेत्रमें कुरीतियाँ इस हद तक बढ गयी थीं कि जनक तथा याज्ञवल्क्य-जैसे ऋषियोंको भी इसके विरुद्ध आवाज उठानी पड़ी जो उपनिषद ग्रन्थोंसे स्पष्ट है। समाजके अधिकांश वर्ग इससे त्राण पानेके लिये किसी नये मार्गकी प्रतीक्षा कर रहे थे और ठीक ऐसे ही समय मानवताकी दो १. विनयपिटक । २. मज्झिमनिकाय । - २८२ - Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमर विभूतियों-महावीर और बुद्ध-का भारतीय रंगमंच पर आविर्भाव हुआ, और यह स्वाभाविक ही था कि पुरोहितवादसे त्रस्त जनसाधारण इनकी ओर आकर्षित हों और इनके बताये मार्गों पर उत्साहपूर्वक चलें। इस मौकसे लाभ उठाकर महावीरने कूछ संशोधनोंके साथ पावके धर्मको लोगोंके समक्ष ल्पकालमें ही अपने 'समानता एवं अहिंसाके सिद्धान्तों के कारण काफी लोकप्रिय हो चला। नके उपदेश इतने प्रभावोत्पादक थे कि ब्राह्मणोंका एक वर्ग भी प्रव्रजित होकर उनका अनुयायी बन गया । इन ब्राह्मणोंमें अधिकांशतः बुद्धिजीवी थे जिनके अथक प्रयाससे यह और भी आगे बढ़ा। महावीरकी दृष्टि में ब्राह्मण हो अथवा शूद्र , श्रेष्ठ हो अथवा नीच-सभी बराबर थे । वह ब्राह्मणको 'जन्मना' नहीं, 'कर्मणा' मान्यता देते थे और उनके अनुसार समाजके सबसे निम्न वर्ग में जन्म लेकर भी एक चांडाल अपनी योग्यतासे समाजमें सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर सकता था। ब्राह्मणधर्मकी भाँति ही जैन - पुनर्जन्मके अनन्त चक्रोंसे मुक्ति पानेके सिद्धान्तोंमें विश्वास करता है।' किन्तु, इसकी प्राप्तिके लिए ब्राह्मणों द्वारा बताये गये मार्गोंको वह नहीं मानता। इसका लक्ष्य निर्वाणप्राप्ति है, न कि सार्वभौम आत्मासे तादात्म्य स्थापित करना। दोनोंमें अन्तर बहुत कम है जो जातिगत विभेदके कारण है। महावीरने न तो उनका विरोध किया और न ही उनकी सभी वस्तुओंको माना। उनके अनुसार यद्यपि पूर्व जन्मके कृत्योंसे ही मनुष्यका पुनर्जन्म-ऊंची अथवा नीची जाति-निर्धारित होती है, फिर भी इस जन्ममें पवित्र एवं धार्मिक आचरण द्वारा कोई भी व्यक्ति निर्वाण अथवा मोक्षके उच्च शिखर तक पहुँच सकता है। तात्पर्य यह कि तीर्थंकर महावीरके लिए जातिका कोई महत्त्व नहीं था, वह तो चांडाल में भी देवात्माको खोजते थे। [३] संसारमें सभी दुःख और विपत्तिसे घिरे हैं, उनसे मक्तिकी कतई सम्भावना नहीं। इसीलिए उन्होंने समस्त प्राणियोंके उत्थानका मार्ग बताया। जाति-व्यवस्था तो मात्र परिस्थितिगत है और कोई भी धार्मिक पुरुष उचित मार्ग पर चलकर इन बन्धनोंको आसानीसे तोड़ सकता है। मुक्ति किसी वर्ग-विशेष अथवा जाति-विशेषकी धरोहर नहीं है। महावीरने मनुष्य और मनुष्य तथा नर और नारीके बीच जरा भी अन्तर नहीं माना । जैनियोंका ऐसा विश्वास रहा है कि 'जिन' क्षत्रिय वर्ग अथवा किसी उदात्त परिवार में ही पैदा होते हैं । दूसरे शब्दोंमें, महावीरने यग-युगान्तरसे चली आ रही जाति-व्यवस्था पर परोक्ष रूपसे प्रहार कर भी अपरोक्ष रूपसे उसे मान्यता दी जिसके फलस्वरूप ब्राह्मण-दार्शनिकोंसे उनकी ऐसी भिड़न्त नहीं हुई जो बौद्ध दार्शनिकोंसे और, यही कारण है कि जैनमत आज भी अपने पूर्व रूपमे जीवित है जबकि हिन्दूदर्शनने १२वीं सदी तक आते-आते बौद्धमतको पूर्णतया आत्मसात कर लिया। यह उल्लेखनीय है कि जैनधर्मकी रक्षा बहुत कुछ जैनियोंके अनुशासित जीवन एवं सिद्धान्तोंका तत्परतापूर्वक पालनके कारण हई । ईसासे तीन सौ वर्ष पूर्व भद्रबाहके समय जैनसंघमें जो विभाजन हुआ, उसके बादसे लेकर अब तक उनके प्रायः सभी मूल सिद्धान्त अपरिवर्तित रहे और आज भी जैन सम्पदायके अनुयायियोंका धार्मिक जीवन दो हजार वर्ष पूर्व जैसा ही है। किसी भी प्रकारका परिवर्तन स्वीकार न करना जैनियोंकी एक खास विशेषता रही है। बहतसे तुफान आये और गुजर गये लेकिन यह विशाल वटवृक्ष अपने स्थान पर अडिग रहा । महावीर एक अद्वितीय व्यक्तित्व थे जो मनुष्यकी आत्मपूर्णताके लक्ष्य पर १. सेकेड बुक्स आफ दी ट्रस्ट, भाग ३२, पृ० २१३ । २. बी० सी० लॉ०, महावीर, पृ० ४४ । - २८३ - . Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष जोर देते थे। उन्होंने कभी भी वैसी बातोंका उपदेश नहीं दिया जिन पर उन्होंने स्वयं व्यवहार नहीं किया हो। अपनी अन्तरात्माकी ज्योतिसे दूसरोंके हृदयमें ज्योति जगाना ही उनका लक्ष्य था । अभूतपूर्व सहिष्णुता, सर्वस्व त्याग, क्षमाशीलता, मानवता, संवेदनशीलता, पीड़ा और त्याग, प्रेम और दयाके मानो वह जीवित प्रतीक थे । 'कैवल्य' की प्राप्तिके पश्चात् वह एक चिरंतन सार्वभौम व्यक्तित्वके रूपमें मानवताके समक्ष आये-वह व्यक्तित्व जो विश्व मानवता पर सदाके लिए अपनी अमर छाप छोड़ जाता है। उच्चतम जीवनका मूलभूत सिद्धान्त अहिंसा है जिसका व्यावहारिक रूप उन्होंने अपने शिष्यों एवं अनुयायियोंके समक्ष रखा। मनुष्य हो अथवा जीव-जन्तु सबके प्रति प्रेम और अहिंसाकी भावना आवश्यक है बडी हो अथवा छोटो-मनष्यको नीचे गिराती है और उससे जीवनकी सार्थकता नष्ट हो जाती है। नैतिकता, निर्वाण अथवा मुक्ति, क्रियावाद (कर्मका सिद्धान्त) तथा स्यावाद जैनमतके कुछ ऐसे मूलभूत सिद्धान्त हैं जो सार्वभौम एवं सार्वजनीन हैं और इनके अभावमें मानवता कभी नहीं पनप सकती है। यह ठीक है कि बौद्ध मतकी भाँति जैनमत देशके बाहर लोकप्रिय नहीं हो सका, किन्तु इसके साहित्य, दर्शन, स्थापत्य कला, चित्र-कला तथा मूर्तिकला भारतकी ऐसी धरोहर हैं जो सदा-सर्वदा विश्वमानवका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती रहेंगी। भारतीय दर्शनको जैन दार्शनिकों एवं नैयायियोंकी देन किसीसे कम नहीं। यह ठीक है कि किसी अशोक अथवा हर्ष जैसे सम्राट का संरक्षण इस धर्मको प्राप्त नहीं हो सका, फिर भी काशी, मगध, वैशाली, अंग, अवन्ति, मल्ल, शुङ्ग, शक-कुषाण तथा कुछ गुप्त शासकोंका प्रश्रय इसे अवश्य मिला जो इनकी प्रगतिमें काफी सहायक हुआ। राजकीय संरक्षणके अभावकी पूत्ति उस युगके कुछ मूर्धन्य जैन दार्शनिकों द्वारा हुई, जिसमें सिद्धसेन दिवाकर (५३३ ई० : जैन न्यायके प्रवर्तक), समन्तभद्र (६०० ई०), अलंकदेव (७५० ई०), पाटलिपुत्रके विद्यानन्द (८०० ई०), प्रभाचन्द्र (८२५ ई०), मल्लवादिन (८२७ ई०), अभयदेवसूरि (१००० ई०), देवसूरि, चन्द्रप्रभ सूरि (११०२ ई०), हेमचन्द्र सूरि (१०८८-११७२ ई०), आनन्द सूरि तथा अमरचन्द्र सूरि (११९३-११५० ई०), हरिभद्र सूरि (११६८ ई०), मल्लिसेन सूरि (१२९२ ई०) आदिके नाम विशेष रूपसे उल्लेखनीय हैं। इनमेंसे अधिकांश मगध अथवा बिहारके थे जिन्होंने अपनी अमर कृतियों से जैन साहित्य एवं दर्शनकी सभी शाखाओंको पुष्पित एवं पल्लवित किया और बौद्ध नैयायिक जैसे दिङ्नाग एवं धर्मकीर्ति तथा अक्षपाद, उद्योतकर, वाचस्पति और उदयन जैसे दुर्द्धर्ष मैथिल दार्शनिकों और मनीषियोंके तर्कोका खण्डन कर जैनमतको प्रतिपादित किया। उस समय बौद्ध, जैन तथा मैथिल दार्शनिकोंके बीच अक्सर शास्त्रार्थ एवं एक दूसरेके मतोंका खण्डन-मण्डन हुआ करता था, किन्तु यह विवाद बौद्ध एवं हिन्दू नैयायिकोंके बीच जितना उग्र हुआ करता था, उतना हिन्दू और जैन मनीषियोंके बोच नहीं। वास्तविकता तो यह है कि श्रमणमुनि (जैन) तथा वैदिक ऋषि भारतीय इतिहासके प्रारम्भसे ही साथ-साथ चिन्तनमनन करते आ रहे थे और जन साधारणमें उनका एक-सा सम्मान था, यद्यपि उनके आदर्शों एवं मार्गों में काफी अन्तर था। कभी-कभी अपने-अपने आदर्शोकी रक्षाके लिए उनके बीच भी कटु विवाद हुआ करते थे, फिर भी ये ऋषि और मुनि सामान्य जनोंकी दृष्टिमें इतने सम्मानित थे कि धीरे-धीरे इनके बीच कोई भी साम्प्रदायिक अन्तर नहीं रह पाया और कालक्रमसे इन श्रमणोंने यह भी दावा किया कि वे वास्तवमें सच्चे ब्राह्मण थे। जो भी हो, यह तो मानना पड़ेगा कि इन दार्शनिकोंका आपसी विवाद भारतीय न्याय दर्शनके लिए वरदान बन गया। १. जर्नल ऑफ दी बिहार रिसर्च सोसाइटी, १९५८, पृ० २, तथा बुद्ध जयन्ती विशेषांक, खंड २ । २. वही, १९५८, पृ० २-३ । - २८४ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] साहित्यिक साक्ष्य के अतिरिक्त बिहार में जनमत के सम्बन्ध में हमें पुरातात्विक साक्ष्यों -- जैसे जैन कला तथा स्थापत्य जिसके अवशेष समस्त उत्तर भारतमें आज भी पाये जाते हैं—से भी पर्याप्त सहायता मिलती है । वास्तव में भारतीय कलाको जैनियोंकी देन किसीसे कम नहीं है । स्थापत्यकलाके क्षेत्रमें जैन कलाकारोंने जो पूर्णता प्राप्त की, उसका दृष्टान्त अन्यत्र कहीं भी मिलना कठिन है । यद्यपि बिहार में जैन कलाके बहुत से अवशेष प्राप्त हैं, फिर भी यह बड़े खेदकी बात है कि भगवान् महावीरकी जन्मभूमि वैशाली में कोई ऐसा अवशेष नहीं मिलता जो जैन संघसे सम्बन्धित हो । हाँ, जैन साहित्य में वैशाली तथा उसके पार्श्ववर्ती क्षेत्रों में तत्कालीन जैन मन्दिरोंके कई उल्लेख मिलते हैं । 'उवासगदसाओ" में ऐसा कहा गया है कि ज्ञात्रिकोंने अपनी निवास - भूमि कोल्लागके निकट एक जैन मन्दिरका निर्माण करवाया था जो 'दुइपलास चिय' (चैत्य ) के नामसे विख्यात था । बौद्ध परम्पराकी भाँति ही जैनियोंमें भी अपने तीर्थंकरोंकी समाधिके ऊपर स्तूपनिर्माणकी परम्परा थी और वैशालीमें जैन मुनि सुव्रतकी समाधि पर उस प्रकारके एक स्तूपका वर्णन मिलता है । इसी प्रकारके एक दूसरे स्तूपका उल्लेख मथुरामें मिलता है जो जैन मुनि सुपार्श्वनाथ की समाधि पर निर्मित हुआ था । वैशालीके स्तूपकी चर्चा ' आवश्यकचूर्णि ' 3 में की गयी है जिसमें इस प्रकार के कई प्रसंग आये हैं । अभी हाल में कौशाम्बी तथा वैशालीमें जो उत्खनन हुए हैं उनमें विभिन्न रंगों एवं 'चित्रित उत्तरी कृष्ण मृद्भाण्ड' (एन० बी० पी० वेयर) के कई नमूने मिले हैं, जिससे यह स्पष्ट है कि इसी शैलीका जन्म मगध में ही हुआ था । 'औपपातिक सूत्र' में 'वम्पा नगरके उत्तर-पूर्व स्थित आम्रशालवन में जिस पूर्णभद्र चैत्यका उल्लेख मिलता है वह अत्यन्त प्राचीन तथा अपने ढंगका निराला था जिसके वर्णनसे जैन कलाकारोंकी स्थापत्य कला सम्बन्धी दक्षता पर पूर्ण प्रकाश पड़ता है। अभी हाल में वैशाली में भगवान् महावीरकी एक पालकाली मूर्ति मिली है जो वैशाली गढ़के पश्चिम स्थित एक मन्दिर में प्रतिष्ठापित है जहाँ भारतके कोनेकोनेसे जैनी श्रद्धावनत हो अपने 'जैनेन्द्र' की पूजा करने बड़ी संख्यामें प्रत्येक वर्ष, विशेषकर भगवान् महावीरकी जयन्तीके अवसर पर वहाँ जाते हैं । यह स्थान एक पवित्र जैन तीर्थ स्थल हो चला है। बेगूसरायका जयमंगलगढ़ भी जैनियोंका एक प्राचीन स्थान माना जाता है, यद्यपि इसकी पुष्टिमें अभी तक कोई ठोस पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त नहीं हो सका है। कहा जाता है कि मौर्य शासक सम्प्रतिने बहुतसे जैन मंदिरोंका निर्माण करवाया था, किन्तु खेद है कि अभी तक उसके कोई भी अवशेष प्राप्त नहीं हो सके हैं । अंगदेश (आधुनिक भागलपुर ) का मंदार पर्वत जैनियोंका एक पवित्र स्थान माना जाता है, कारण यहीं पर बारहवें तीर्थंकर वसुपूज्यनाथने निर्वाण प्राप्त किया था । इस पर्वतका शिखर अत्यन्य पवित्र माना जाता है और लोगों का ऐसा विश्वास है कि यह भवन श्रावकोंके लिये निर्मित किया गया था जिसके एक प्रकोष्ठ में आज भी एक 'चरण' रखा हुआ है । यहाँ पर कुछ और जैन अवशेष मिले हैं । भागलपुरके निकट कर्णगढ़ में भी जैनधर्मसे सम्बन्धित अवशेष मिले हैं और यहाँके प्राचीन दुर्गके उत्तर एक जैन विहारका भी उल्लेख मिलता है । दक्षिण बिहार की अपेक्षा उत्तर बिहार (मिथिला) में जैन पुरातात्विक अवशेष, जिनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है, बहुत कम मिलते हैं । किन्तु यदि विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों पर उत्खनन किये जायें तो १. गुएरिनोत, ल रिलिजन जैन, पृ० २७९ । २. होएर्नले, भाग १, पृ० २ । ३. जिनदास कृत 'आवश्यकचूर्ण' (६७६ ई०), पृ० २२३-२७, ५६७ । - २८५ - Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस भूभागमें भी अनेक जैन स्थल मिलेंगे, इसमें जरा भी सन्देह नहीं। मध्य भारत, उत्तर प्रदेश तथा बिहारमें अनेक जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं और हजारों कांस्य मूर्तियाँ पश्चिमी भारतको स्थानीय कलाशैलीमें मिली हैं जिनके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि राजस्थानकी भाँति ही बिहार तथा बंगालमें भी जैनियोंकी अपनी उत्कृष्ट कला-शैली थी। उत्तर बिहारके विपरीत दक्षिण बिहारमें जैन कलाके कुछ उत्कृष्ट नमूने मिलते हैं। प्रसिद्ध कलामर्मज्ञ पर्सी ब्राउनने यह ठीक ही कहा है कि जैन कलाकारोंने कुछ विशेष पर्वतों ('Mountains of Immortality') का चयन कर उनके शिखरों पर मन्दिरों तथा स्तुपोंका निर्माण कर उन्हें कला जगत में अमर कर दिया। इन पर्वतीय प्रदेशोंको 'मंदिर नगर' कहना कोई अत्युक्ति नहीं होगी। इनमें से प्रत्येक मंदिर अथवा 'तीर्थ' सदियोंके श्रद्धापूर्ण अध्यवसायके जीवित प्रतीक है जो किसी भी दृष्टिसे विलक्षण और बेजोड़ कहे जा सकते हैं । चाहे पार्श्वनाथ पर्वतके मंदिर हों अथवा राजगीरके, ये अपने आप में एक पवित्र नगर हैं जो भवनोंके दृश्यको प्रथम दृष्टिमें ही श्रद्धासे परिपूरित कर देते हैं । शाहाबाद जिले में तो 'धर्मचक्र' भी पाये गये हैं। ठीक यही बात हजारीबागके कुलुहा पर्वतके साथ भी है । यहाँ जैन तीर्थकर शीतलनाथका जन्म हुआ था और यहाँ दिगम्बर सम्प्रदायकी काफी मूर्तियाँ मिली हैं। यहाँ पर पत्थरोंको तराश कर जो दस दिगम्बरी मूर्तियाँ गढ़ी गयी हैं उन्हें लोग पाँचो पांडव तथा उनके दासोंकी मूर्तियाँ भी मानते हैं, जो तर्कसंगत नहीं अँचता। इसी प्रकार छोटा नागपुरका मानभूमि जिला भी किसी समय जैनधर्मका एक महान केन्द्र था । जैन पुरातत्वके जितने अवशेष यहाँ प्राप्त हुए हैं, संभवतः भारतके किसी भी स्थानमें अभी तक इतने नहीं मिले है। प्राचीन कालमें बंगाल अथवा बिहारसे उड़ीसा जानेके लिये मानभूम होकर ही लोगोंको जाना पड़ता था। उड़ीसा-स्थित खंडगिरि पर्वतकी गुफाओंमें जैनियोंके विलक्षण पुरातात्विक अवशेष मिले हैं । उड़ीसाका प्रसिद्ध सम्राट खारवेल गया-स्थित बराबर पहाड़ियों तक आया था और मानभमके माध्यमसे ही बिहार और उड़ीसाके बीच उस समय सम्पर्क स्थापित था। मानभमसे इतनी प्रचर मात्रामें जैन अवशेषोंकी प्राप्तिके पीछे यह भी एक कारण हो सकता है। ह्वेनसांगके अनुसार यहाँके बाराभुम परगनाके 'बड़ा बाजार' नामक स्थान तक भगवान महावीर भ्रमण करने आये थे। बलरामपुर, बोराम, चंदनकिआरी, पकबीरा, बुधपुर, दारिका, चर्रा, दुल्मी, देवली, भवानीपुर, अनई, कटरासगढ़, चेचगाँवगढ़ आदि छोटापुरके अनेक स्थानोंमें जैन अवशेष भरे पड़े हैं जिनका जैनधर्मके इतिहासमें अपना एक खास महत्व है। ठीक इसी प्रकार गया, शाहाबाद, भागलपुर, पटना, मुजफ्फरपुर आदि स्थानोंमें भी जैन अवशेष पाये जाते हैं जिनकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है और जिनका सम्यक अध्ययन, बिहारमें जैनधर्मके वास्तविक स्वरूप एवं उसके प्रचार-प्रसारको जाननेके लिये अत्यन्त आवश्यक है। इस दिशामें अभी हालमें डा० राजाराम जैनने अपने लघुग्रन्थ 'श्रमण साहित्यमें वर्णित बिहारकी कुछ जैन तीर्थ भूमियां' द्वारा स्तुल्य प्रयास किया है। किन्तु यह तो विशाल सागरमें मात्र एक बिन्दुकी भाँति है। १. पर्सी ब्राउन, 'इंडियन आर्किटेक्चर' (दी टेम्पुल सीटीज आफ दी जैन्स)। २. विशेष विवरणके लिये देखिये, पी०सी० रायचौधरी, 'जैनिज्म इन बिहार' । ३' गया जिला भगवान महावीर २५०० वाँ निर्वाण-महोत्सव संगोष्ठी संचालन समिति द्वारा १९७५ ई० ' में प्रकाशित । २. इस सम्बन्धमें विशेष विवरणके लिये देखिये, हीरालाल जैन-कृत 'भारतीय संस्कृतिमें जैनधर्मका योगदान ।' - २८६ - Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] इस प्रकार हम देखते हैं कि इस धर्म की आधार भूमि उतनी ही प्राचीन है जितनी वैदिक परम्परा, जिसका सबसे बड़ा प्रमाण ऋग्वेदमें उल्लिखित केशी जैसे वातारशा मुनियोंकी साधना है जिससे यह स्पष्ट है कि वे वैदिक ऋषियोंसे तो पृथक् थे, किन्तु श्रमण मुनियोंसे अभिन्न थे। इसके अतिरिक्त केशी तथा तीर्थकर ऋषभदेवका एकत्व भी हिन्दु और जैन पुराणोंसे सिद्ध होता है। वैशाली तथा विदेहसे प्रारंभ होकर मगध, कोशल, तक्षशिला और सौराष्ट्र तक यह श्रमण धर्म फैला और इसके अंतिम तीर्थंकर महावीरने छठी सदी ई० पू० में इसे सुव्यवस्थित रूप देकर देश-व्यापी बना दिया। साथ ही उसने उत्तर और दक्षिण भारतके विभिन्न राजवंशों तथा तत्कालीन समाजको प्रभावित किया और अपने आंतरिक गुणोंके कारण समस्त देशमें आज भी अपना अस्तित्व उसी प्रकार सुरक्षित रखे हुए है। साहित्यके अतिरिक्त इस धर्मने गुफाओं, स्तूपों, मंदिरों, मूत्तियों, चित्रों एवं ललितकलाके माध्यमसे न केवल लोकका नैतिक व आध्यात्मिक स्तर उठाने का प्रयास किया है, बल्कि देशके विभिन्न भागोंको इसने अपने सौन्दर्यसे सजाया है और, इस सांस्कृतिक योगदानमें बिहारका अपना विशेष स्थान रहा है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, २४ तीर्थंकरोंमेंसे २२ तीर्थंकरोंने इसी भमिमें निर्वाण-प्राप्ति की जिनमेंसे २० तीर्थंकरोंने हजारीबाग जिलेके सम्मेदशिखर ( पारसनाथ पर्वत ), १२ वें तीर्थकर वसुपूज्यने चम्पापुरी तथा अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीरने नालान्दा जिला-स्थित पावापुरीमें निर्वाण प्राप्त किया। इनके अतिरिक्त १९ वें तीर्थकर मल्लिनाथ तथा २१ वें तीर्थकर नेमिनाथका जन्म विदेह अथवा मिथिलामें हुआ था जबकि २० वें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ राजगिरिमें तथा २४ वें तीर्थंकर महावीर वैशालीके कुण्डग्राममें पैदा हुए थे। सुप्रसिद्ध जैन ग्रंथ "तत्त्वार्थसूत्र" का प्रणयन स्वनामधन्य जैन सारस्वत उमास्वाति द्वारा पाटलिपुत्र में ही हआ था। जैन धर्म तथा दर्शनके क्षेत्रमें इसका महत्व इसी बातसे आंका जा सकता है कि इस पर अब तक पाँच-छ टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं । यह ठीक ही कहा गया है कि गीता, बाइबिल, कुरानशरीफ एवं गुरुग्रन्थ साहिबका जो महत्व हिन्दुओं, ईसाइयों, मुसलमानों और सिक्खोंके लिए है, वही "तत्त्वार्थसूत्र" का जैनियोंके लिए है । साथ ही पाटलिपुत्रमें हो जैन-परम्पराके अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहुका निवास स्थान था। भारतके प्रथम ऐतिहासिक राजवंशके संस्थापक चन्द्र गुप्त जैनधर्ममें दीक्षित हुए कि नहीं, यह विवादास्पद है, किन्तु यह तो निर्विवाद है कि पाटलिपुत्रके शासक नन्दराज (लगभग चौथी सदी ई० पू०) आदि तीर्थकर ऋषभदेवके महान् उपासक थे जो कलिंग-सम्राट खारवेलके हाथीगुफा अभिलेखसे स्पष्ट है । बौद्ध मतके प्रति अधिक झुकाव होते हुए भी सम्राट अशोकने बराबरकी पहाड़ियों पर आजीविकों एवं निर्ग्रन्थ (दिगम्बर जैन) साधुओंके लिए गुफाओंका निर्माण कर उन्हें हर प्रकारका संरक्षण प्रदान किया । वास्तवमें विहारके इतिहास में यह एक गौरवोज्ज्वल, स्वणिम अध्याय है। जैन संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य के अनुशीलनसे पता चलता है कि किस प्रकार उसमें विगत २५०० वर्षोंके बिहारके जन-जीवनका सर्वांगीण चित्र मिलता है। "स्थानांगसूत्र के अध्ययनसे एक बहुत ही मनोरंजक बात सामने आती है कि देशके अन्य भागोंके निवासियोंकी अपेक्षा "मगध देशके निवासी अधिक चतुर एवं बुद्धिमान हुआ करते थे। वे किसी भी विषयको संकेत मात्र से समझ लेते थे जबकि कोशलके निवासी इसे देखकर ही समझ पाते थे और पांचाल देशवासी उसे आधा सुनकर तथा दक्षिण देशवासी उसे पूरापूरा समझ पाते थे। (३।१५२)।" एक ओर जहाँ जैन साहित्यमें मगध-निवासियोंकी प्रशंसा की गयी है, वहीं दूसरी ओर ब्राह्मणोंने मगध देशको पाप-भूमि बताकर वहाँ यात्रा करना भी निषिद्ध बताया है ! स्पष्ट है कि तयुगीन धर्म सम्बन्धी सैद्धान्तिक मतभेद ही इसके पीछे काम कर रहा था। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यप्रदेशमें जैनाचार्योंका विहार डा० विद्याधर जोहरापुरकर, जबलपुर मध्यप्रदेशमें जैनधर्म वर्तमान मध्यप्रदेश नवम्बर १९५६ में अस्तित्व में आया और इसमें ब्रिटिशयुगके मध्यप्रान्त व बरार क्षेत्र के महाकोशल एवं छतीसगढ़-क्षेत्र, विन्ध्य-क्षेत्रके छत्तीस राज्य, भोपाल राज्य तथा मालव और ग्वालियर क्षेत्रके अनेक राज्य समाहित हुये हैं । यह क्षेत्रफलकी दृष्टिसे भारतका सबसे बड़ा राज्य है और वस्तुतः ही भारतका मध्य हृदय स्थल है। भारतीय राजनीति और सांस्कृतिक इतिहासमें इस क्षेत्रका मौलिक तथा अमूल्य योगदान है। इस क्षेत्रके प्रत्येक महत्त्वपूर्ण भागमें जैनधर्म के अनुयायी पाये जाते हैं । इससे इस क्षेत्रके जैन संस्कृतिसे प्रभावित होनेका अनुमान लगाया जाता है । यह अनुमान तब पुष्ट हो जाता है जब हम यह देखते हैं कि इसके मालव, विदिशा, सोनागिर, दशपुर, ग्वालियर, पपौरा, अहार, खजुराहो, छतरपुर, दमोह, आदि क्षेत्रोंमें अनेक पुरातात्त्विक महत्त्वके जैन अवशेष मिलते हैं जिनका अनेक विद्वानोंने अधिकृत अध्ययन किया है। इस क्षेत्रमें जैनधर्मके प्रचार-प्रसार और प्रभावके कार्यमें अनेक श्रेष्ठियों एवं राजाओंके अतिरिक्त अगणित जैनाचार्योने भी योगदान किया है। इस योगदानका स्फुट विवरण ही अनेक स्थलों पर मिलता है । इस योगदानके महत्त्वको दृष्टिमें रखते हुये मैं इस लेखमें इन क्षेत्रोंमें ५०० ई० पू० से उन्नीसवीं सदीके बीचके चौबीस वर्षों में विचरण करने वाले या विकास करने वाले कुछ आचार्योंकी विवरणिका दे रहा है जिससे भावी शोधार्थी इस क्षेत्रमें काम करनेके लिये प्रेरणा प्राप्त करें और मध्यप्रदेशमें जैन संस्कृतिके विकास मूल्यांकित करें। अपनी सीमाको देखते हुये मैंने यहाँ कुछ प्रमुख क्षेत्रोंका विवरण ही दिया है, अन्य क्षेत्रोंके विषयमें सामग्री एकत्रकी जा रही है। महावीर-निर्वाणके एक हजार वर्ष भगवान महावीरके निर्वाणके बाद प्रथम दो शताब्दियोंमें मध्यप्रदेशमें जैन आचार्योंके विहारका कोई स्पष्ट वर्णन प्राप्त नहीं होता। तदनन्तर आचार्य भद्रबाहुने उज्जयिनीमें विहार किया, वहाँ राजा चन्द्रगुप्त ने उन सभीका सम्मान किया और बादमें उनके संघने दक्षिणमें विहार किया। ऐसा वर्णन हरिषेणाचार्यके बहत्कथाकोशमें उपलब्ध है । आचार्य भद्रबाहके प्रशिष्य आचार्य सुहस्तिके उज्जयिनीमें विहारका और वहाँके श्रेष्ठी अवन्ति सुकुमार द्वारा उनसे दीक्षाग्रहणका वृत्तान्त राजशेखर सूरिके प्रबन्धकोशमें मिलता है। आचार्य कालकके उज्जयिनीमें विहारका और वहाँ अत्याचारी राजा गर्दभिल्लके विनाशका वृत्तान्त प्रभाचन्द्राचार्यके प्रभावकचरित में तथा अन्यत्र भी प्राप्त होता है । इस ग्रन्थके अनुसार आचार्य व्रजका जन्म भी अवन्ती प्रदेशमें हआ था तथा उन्होंने उज्जयिनीमें आचार्य भद्रगप्तके दशपूर्व ग्रंथोंका अध्ययन किया था। इस बातका भी १. जैनशिलालेखसंग्रह, भा० १ प्रस्तावना, पृ० ५७ २. प्रबन्धकोश (फोर्वस सभा संस्करण), पृ० ३८ ३. प्रभावकचरित (निर्णयसागर संस्करण), पृ० ३८, पृ०८, पृ० ११४ -२८८ - Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लेख पाया जाता है कि आचार्य वज्रके शिष्य आचार्य रक्षितका जन्म दशपुर (मंदसौर) में हुआ था तथा विद्याध्ययन उज्जयिनीमें हुआ था। आचार्य समंतभा ने भी मालवा और विदिशा क्षेत्रमें विहार किया था, ऐसा वर्णन श्रवणवेलगोलके मल्लिषेणप्रशस्ति' नामक शिलालेख में है। आचार्य सिद्धसेनके भी उज्जयिनीमें विहार, राजा विक्रमादित्य द्वारा उनके सम्मान और द्वात्रिंशिका रचनाकी कथाएँ प्रभावकचरित्र, प्रबंधकोश आदिमें प्राप्त हैं। विदिशाके निकट उदयगिरिकी एक पार्श्वनाथ मूर्तिकी प्रतिष्ठापना आचार्य भद्र की परम्पराके आचार्य गोशर्माके शिष्य शंकर मुनि ने सन् ४२६ में की थी, ऐसा वहाँके शिलालेख से ज्ञात होता है। विदिशासे ही प्राप्त एक अन्य जिन मूर्तिकी प्रतिष्ठापना रामगुप्तके राज्यकालमें आचार्य सर्वसेन की थी, ऐसा उसके पादपीठके लेखसे ज्ञात होता है। आठवींसे दसवीं सदी-गोपाचल (ग्वालियर) में राजा आम (नागभट) द्वारा निर्मित जिन मंदिर की प्रतिष्ठा आचार्य वप्पभट्टिने की थी, ऐसा प्रबंधकोशसे ज्ञात होता है। आमके पौत्र भोजके आमंत्रण पर वप्पभट्टिके गुरुबंधु नन्नसूरि गोपाचल पधारे थे । यह भी इस सन्दर्भ में उल्लिखित है। सन् ७८४ में आचार्य जिनसेनने हरिवंशपुराणकी रचना वर्धमानपुरमें की थी। एक मतके अनुसार उज्जयनीके निकटवर्ती नगर बदनावरका ही पुराना नाम वर्धमानपुर था। हरिषेणाचार्यके बृहत्कथाकोशकी रचना भी इसी नगरमें सन् ९३२ में हुई थी। आचार्य देवसेन ने धारा नगरमें सम्बत् ९९० में दर्शनसारकी रचना की। इसी अन्तिम गाथाओंमें स्थल-कालका उल्लेख है। खजराहोके शान्तिनाथ मंदिरके स्थापनालेखमें जो सन् ९४४ का है राजा धंग द्वारा सम्मानित श्रेष्ठी पाहिलके साथ महाराजगुरु वासवचन्द्रका भी उल्लेख है। आचार्य अभिमतगतिने सुभाषितरत्नसंदोहकी रचना सन् ९९३ में राजा मुंजके राज्यमें की थी। इनके सन् १०१६ में रचित पंचसंग्रहका रचनास्थान मसूतिकापुर (धारके पास मसोद ग्राम) उल्लिखित है । ग्यारहवीं शताब्दी-प्रभावकचरितमें बताया गया है कि आचार्य महासेनने सिन्धुराजके मंत्री पर्पटके आग्रहसे प्रद्युम्नचरित महाकाव्यकी रचना की। इसीके अनुसार आचार्य वर्धमानने धारा नगरमें विहार करते हुये जिनेश्वरको सूरिपद प्रदान किया था। जिनेश्वरके शिष्य अभयदेवसूरिका जन्म भी धारामें ही कहा गया है। इनकी परम्परा खरतरगच्छके नामसे प्रसिद्ध हई। उत्तराध्ययन टीकाकर्ता वादिवताल शान्तिसूरि, महाकवि धनपालने गुरु महेन्द्रसूरि तथा नाभेयनेमिद्विसन्धान काव्यके रचयिता सूराचार्यका धारा नगरमें विहार और राजा भोज द्वारा उनके सम्मानका वृत्तान्त भी प्रभावकचरितमें मिलता है। अपभ्रंश कथाकोश के रचयिता श्रीचन्द्रके कथनानुसार उनके गुरुके प्रगुरु आचार्य श्रुतकीर्ति राजा भोज द्वारा सम्मानित हुये थे। उन्हें गांगेय राजा द्वारा भी सम्मान प्राप्त हुआ था इससे प्रतीत होता है कि १. जैनशिलालेखसंग्रह, भा० १, प्रस्तावना, पृ० १४१ २. जैनशिलालेखसंग्रह, भा॰ २, पृ० ५७ ३. जैनसाहित्य और इतिहास, (प्रेमीजी), पृ० ११७ ४. प्रबन्धकोष, पृ० ८४ (८-) जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १४७, २७९, ४१२ ५. जैनशिलालेखसंग्रह, भा॰ २, पृ० १९० ६. प्रभावकचरित, पृ० २६३, २६७, २१८, २२४ ७. जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह (परमानन्दजी), भा० २, पृ० ७ ३७ -२८९ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाल (जबलपुर) क्षेत्रमें भी उनका विहार हुआ होगा । इसी प्रकार ग्वालियर के समीप दूबकुण्डसे प्राप्त एक शिलालेख सन् १०८८ का है जिसमें वहाँके जिन मंदिरकी प्रतिष्ठापना आचार्य विजयकीर्ति द्वारा हुई बताई गई है । लेखके अनुसार विजयकीर्तिके गुरु आचार्य शान्तिषेणने राजा भोजकी सभा में सम्मान प्राप्त किया था ।२ आचार्य प्रभाचन्द्रने राजा भोज और उनके उत्तराधिकारी जयसिंहके राज्य में न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथोंकी रचना की । आचार्य नयनरिन्दने राजा भोजक राज्यकालमें धारा नगरमें सन् १०४४ में अपभ्रंश काव्य सुदर्शनचरितकी रचना की । इनकी दूसरी रचना सकलविधिविधान काव्य भी भोजके ही राज्यमें पूर्ण हुई थी । सन् १०१३ में श्रीचन्द्र आचार्यने धारामें आचार्य सागरसेनसे अध्ययन कर पुराणसारकी रचना की तथा यहीं दस वर्ष बाद उत्तरपुराण टिप्पणकी रचना की। इनका पद्मपुराण टिप्पण भी भोजके ही राज्यकालमें सन् १०३० में लिखा गया । ४ विदिशा के समीप बडोहके जिन मन्दिरके द्वार पर प्राप्त सन् १०५७ के लेखमें आचार्य उभयचन्द्र का तथा सन् १०७८ के लेखमें मंत्रवादी आचार्य देवचन्द्रका नाम उल्लिखित है । 4 इसी प्रकार श्रवणवेलगोल के सन् १११५ के एक शिलालेखसे गोलाचार्यका परिचय मिलता है। ये चंदेल वंशके राजकुमार तथा गोल्ल प्रदेशके स्वामी थे तथा किसी कारणसे विरक्त होकर मुनि हुये थे । इनका मूलस्थान बुन्देलखण्ड का उत्तरी क्षेत्र प्रतीत होता है । लेखमें इनके प्रशिष्यके प्रशिष्य मेघचन्द्र के समाधिमरणका वर्णन है । जबलपुर से ४० मील दूर बहुरीवन्दमें एक भव्य शान्तिनाथ मूर्तिकी स्थापना आचार्य सुभद्रने सन् ११३० में लगभग राजा गयाकर्णके राज्यकालमें की थी, ऐसा उसके पादपीठलेखसे ज्ञात होता है । ७ बारहवींसे चौदहवीं शताब्दी - बड़वानी के समीप चूलिगिरि पर्वत पर प्राप्त सन् १९६६ के दो लेखोंमें आचार्य रामचन्द्रका वर्णन है । इन्होंने वहाँ इन्द्रजित् केवलीका मन्दिर बनवाया था प्रबन्धकोश में आचार्य विशालकीर्ति और उनके अनेक वादोंमें विजय प्राप्त करने वाले शिष्य मदनकीर्तिके उज्जयिनीमें विहारका वर्णन प्राप्त होता है । मदनकीर्तिकी शासनचतुस्त्रिशिकामें मालवाके तीन स्थान-धाराके नवखंड पार्श्वनाथ, मंगलपुर के अभिनन्दन और बृहत्पुर ( बड़वानी) के बड़े देव ( बावनगजा ) का वर्णन भी है । खजुराहोंके दो मूर्तिलेखोंमें, जिनका समय बारहवीं सदीमें अनुमानित है, भट्टारक आम्रनन्दिका नाम उल्लिखित है । यहींके एक अन्य मूर्तिलेख में दुर्लभ मन्दिर - रविचन्द्र - सर्वनन्दिकी आचार्य परम्परा भी उल्लिखित । यहीं के सन् १९५८ के एक मूर्तिलेखमें आचार्य राजनन्दिके शिष्य भानुकीर्तिका नाम भी उल्लिखित है ।' विशालकीर्ति और मदनकीर्तिका वर्णन धाराके समीपवर्ती नलकच्छापुर ( नालछा ) के महापण्डित १. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग २, पृ० ३४५ २. जैनसाहित्य और इतिहास, पृ० २९० २८७ ३. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, भा० २, पृ० ३ ४. जैनशिलालेख संग्रह, भा० १ १४२ ५. जैनशिलालेख संग्रह, भा० ४, पृ० १४७ ६. जैनशिलालेख संग्रह, भा० ३, पृ० १४३ ७. प्रबन्धकोश, पृ० १३१ ८. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३४७ ९. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ४, पृ० ४०, ४७ - २९० Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशाधरकी ग्रंथप्रशस्तियोंमें भी मिलता है। मदनकीर्तिने उनकी प्रशंसा की थी और विशालकीतिने उनसे न्यायशास्त्र पढ़ा था। आशाधरने आचार्य महावीरसे धारामें प्रमाणशास्त्र और व्याकरणशास्त्र पढ़ा था । आचार्य सागरचन्द्र के शिष्य विनयचन्द्रके आग्रहसे उन्होंने इष्टोपदेशटीका लिखी थी। उनके प्रशंसकोंमें मुनि उदयसेनका नाम भी उल्लिखित है।' तपागच्छकी गुर्वावलियोंसे ज्ञात होता है कि नव्य कर्मग्रन्थोंके रचयिता देवेन्द्रसूरि (स्वर्गवास सन् १२७०) और उनके शिष्य विद्यानन्दका विहार उज्जयिनीमें हुआ था। विद्यानन्दके गुरुबन्धु धर्मघोषसूरिके उज्जयिनी और मण्डपदूर्ग (माण्डव)में विहारका वर्णन भी इनमें मिलता है। पावागिरि (ऊन)के सन् १२०१ के एक मूर्तिलेखमें प्रतिष्ठापक आचार्य देशनन्दिका नाम उल्लिखित है। इसी प्रकार सोनागिरिके सन् १२१५ के एक मूर्तिलेखमें प्रतिष्ठापक आचार्य धर्मचन्द्रका नाम उल्लिखित है। प्रशस्तियोंके अनुसार जब आचार्य कमलभद्र मालवामें सलखणपुरमें विहार कर रहे थे, तब सन् १२३० में दामोदर कविने उनके सान्निध्यमें नेमिनाथचरितकी रचना की थी। बडवानीके निकट चूलगिरि पर्वतकी एक जिनमूर्तिके सन् १३१२ में लेखमें प्रतिष्ठापक आचार्य शुभकीर्तिका नाम प्राप्त होता है । धनपाल कविके बाहुबलिचरित (सन् १३९८) के अनुसार उनके गुरु आचार्य प्रभाचन्द्रने अन्य अनेक नगरोंके साथ धारा नगरमें भी विहार किया था। पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी-आचार्य गुणकीर्तिके उपदेशसे ग्वालियरमें कवि पद्मनाभ कायस्थने सन् १४०५ के करीब यशोधरचरितकी रचना की थी। यहीं आचार्य यशःकीर्तिने सन् १४३० में भविष्यदत्त कथा और सूकूमारचरितकी प्रतियाँ लिखवाई थीं। यहीं पर उन्होंने स्वयंभविरचित अरिष्टनेमिचरितका जीर्णोद्धधार भी किया था। ग्वालियरमें ही आचार्य गुणभद्रने सन् १४५० के करीब अनन्तव्रतकथा आदि पन्द्रह कथाओंकी रचना की थी। इसी प्रकार आचार्य जिनचन्द्र द्वारा सन् १४५७ में और आचार्य सिंहकीर्ति द्वारा सन् १४७४ में ग्वालियरमें जिनमूर्तिप्रतिष्ठामहोत्सव सम्पन्न कराये गये थे। आचार्य श्रतकीर्तिने दमोहके निकट जेरहटमें सन् १४५७ में हरिवंशपुराणकी रचना पूर्ण की थी।" सुरतके आचार्य देवेन्द्रकीतिने अन्य अनेक स्थानोंके समान अवंती (मालवा)में भी प्रतिष्ठायें करवाई थीं, ऐसा उनकी परम्पराकी पट्टावलीसे ज्ञात होता है । इसी पट्टावलीके'२ अनुसार उनके प्रशिष्य आचार्य १. पट्टावली समुच्चय (दर्शनविजयजी), भा० १, पृ० ५७, ६० २. अनेकान्त वर्ष १२, पृ० १९२ । ३. जैनशिलालेखसंग्रह, भा० ४, पृ० ५९ ४. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, भा० २, पृ० १३९ ५. अनेकान्त, वर्ष १२, पृ० १९२ ६. अनेकान्त, वर्ष ७, पृ० ८३ ।। ७. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, भा० १, पृ. ४ ८. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह भा० २, पृ० ८३, ११२ ९. जैनशिलालेखसंग्रह, भा० ५, पृ० ८२, ८४ १०. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, भा॰ २, पृ० १२२ ११. भट्टारकसम्प्रदाय. पृ० १६९ १२. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, भा० १, पृ० १७ -२९१ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्लिभूषणने भी माण्डव और ग्वालियरमें विहार किया था। इन दोनोंका समय पन्द्रहवीं सदी की उत्तरार्द्ध है। इसी समय आचार्य कमलकीर्तिने सोनागिरिमें आचार्य शुभचन्द्रको पट्टाधीश बनाया था, ऐसा कवि रइधू के हरिवंशपुराणसे ज्ञात होता है ।' आचार्य सिंहनन्दि मालव प्रदेशमें कार्यरत थे। ऐसा श्रुतसागरकृत यशस्तिलकचन्द्रिकाकी अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है। नेमिदत्तकृत श्रीपालचरित (सन् १४२८)में भी यह उल्लेख है । सोनागिरिके सन् १४४३ के एक मूर्तिलेखसे प्रतिष्ठापक आचार्य यशःसेनका परिचय मिलता है । यहींके सन् १६०६ के एक अन्य मूर्तिलेखमें आचार्य यशोनिधिका नाम उल्लिखित है। सत्रहवीं शताब्दी-आचार्य धर्मकीर्तिने सन् १६१२ में मालवामें पद्मपुराणकी रचना की थी। इन्हींके हरिवंशपुराणकी प्रशस्तिके अनुसार इसके गुरु आचार्य ललितकीर्तिका भी मालवामें विहार हुआ था । ललितकीर्तिका सन् १६१८ का एक मूर्तिलेख राणोद (शिवपुरीके समीप) तथा धर्मकीर्तिका सन् १६२४ का एक मूर्तिलेख सोनागिरिमें प्राप्त हुआ है। वहाँके सन् १६१४ के एक मूर्तिलेखमें आचार्य लक्ष्मीसेन प्रतिष्ठापकके रूपमें उल्लिखित हैं। आचार्य केशवसेनने सन् १६३१ में मालवामें कर्णामृतपुराणकी रचना की थी। इनकी और आचार्य विश्वकीर्तिकी चरणपादुकायें सोनागिरिमें ही सन् १६४४ में स्थापित हुई थीं। यहींके सन् १६५१ तथा सन् १६९० के लेखोंसे आचार्य विश्वभूषण द्वारा वहाँ मन्दिर निर्माण और मूर्तिस्थापनाका पता चलाता है। इसी प्रकार पपौराके सन् १६५१ के तथा अहारके सन् १६५३ के मूर्तिलेखोंसे प्ररिष्ठापक आचार्य सकलकीतिका उल्लेख है। यह भी पता लगता है कि आचार्य सुरेन्द्रकीर्तिने ग्वालियरमें सन १६८३ में रविव्रत कथाकी रचना की थी। ___ अठारहवीं सदी–सोनागिरिके विभिन्न मूर्तिलेखोंसे ज्ञात होता है कि वहाँके प्रतिष्ठापक आचार्य और उनके ज्ञात वर्ष निम्न प्रकार हैं : कुमारसेन और देवसेन, १७०३, वसुदेवकीर्ति, १७५५, महेन्द्रभूषण और देवेन्द्रकीति. १७३२. देवेन्द्र भषण, १७८० एवं महेन्द्रकीति, १७९९ । मानपुरा (जिला मन्दसौर)में सन् १७३० में आचार्य देवचन्द्र पट्टाधीश हुये थे, ऐसा एक पुराने पत्रसे ज्ञात होता है । इसी प्रकार हालमे ही प्रकाशित एक लेखसे ज्ञात होता है कि छतरपुरमें सन् १७८३ में आचार्य जिनेन्द्र भूषणने एक मन्दिरकी प्रतिष्ठा करवाई थी। ___ उन्नीसवीं शताब्दी–१° सोनागिरिके उन्नीसवी शताब्दीके लेखोंसे भी अनेक आचार्योंके नाम और मूर्तिस्थापना वर्ष निम्न प्रकार ज्ञात होते है : विजयकीति १८११; सुरेन्द्रभूषण १८३७, राजेन्द्रभूषण १. जैनशिलालेखसंग्रह, भा० ५, पृ० ८२, ९३ २. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, भा० १, पृ० ३६, ३७; जैनशिलालेखसंग्रह, भा० ५, पृ० १०१, १०३ ३. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, भाग १, पृ० ५७ ४. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग, ५, पृ० १०४, १०५ ५. अनेकान्त, वर्ष ३, पृ० ४४५ एवं वर्ष १०, पृ० ११५ ६. भट्टारकसम्प्रदाय, पृ० ११८ ७. जैनशिलालेखसंग्रह, भा० ५, पृ० १०७, १०९ ८. भट्टारकसम्प्रदाय, पृ० १६५ ९. जैन सन्देश, २८ अप्रैल ७७ १०. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ५, पृ० ११०, ११४ . -२९२ - Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५६, चारुचन्द्रभूषण १८६६; शीलेन्द्रभूषण १८७३ एवं लक्ष्मीसेन १८७४ । इनमेंसे सुरेद्रभूषण द्वारा सन् १८२२ में जबलपुरके समीप पनागरमें भी मूर्तिप्रतिष्ठा हुई थी, ऐसा वहाँके मूर्तिलेखोंके द्वारा ज्ञात होता है । इसी प्रकार चारुचन्द्रभूषण द्वारा सन् १८६६,१८६७ एवं १८६९ में जबलपुरके हनुमानताल मन्दिरमें मूर्तिप्रतिष्ठायें की गई थीं। ऐसा वहाँके लेखोंसे ज्ञात होता है । पनागरके कुछ अन्य मूति लेखोंसे ज्ञात होता है कि वहाँ सन् १७९७ में आचार्य नरेन्द्र भूषण द्वारा तथा सन् १८३८ में आचार्यभूषण द्वारा भी प्रतिष्ठायें हुई थीं। हनुमानताल मन्दिर, जबलपुरके कुछ मूर्तिलेखोंमें सन् १८३४,१८३९ तथा १८४० की प्रतिष्ठाओं- . में आचार्य हरिचन्द्रभूषणका नाम भी उपलब्ध होता है ।। इस प्रकार मध्यप्रदेशके विभिन्न क्षेत्रोंके प्रकाशित इतिहास-साधनोंसे ज्ञात ९० जैन आचार्योंके उल्लेखोंकी यह संक्षिप्त सूची है। इसमें मालवा क्षेत्रके ४५, ग्वालियर क्षेत्रके ३०, छतरपुर क्षेत्रके ८ तथा जबलपुरके क्षेत्रके ७ उल्लेख हैं। प्रयोजनकी दृष्टिसे देखा जाय, तो २० उल्लेख ग्रन्थरचना सम्बन्धी, ४० मूर्तिप्रतिष्ठा सम्बन्धी एवं अन्य ३० सामान्य रूपसे विहारके विषयमें हैं। इनके समुचित अध्ययन एवं संकलनसे मध्यप्रदेशमें जैनधर्म और संस्कृतिक विकासका इतिहास जानने में पर्याप्त सहायता मिलती है। १. जबलपुर और पनागर के मूर्तिलेख हमने स्वयं देखे हैं । - २९३ - Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिलायें, जैन संस्कृतिको सेवामें पद्मश्री सुमति वाई शाहा, शोलापुर मानव जातिमें स्त्रोका स्थान मानव समाजकी रचनाओंमें स्त्री व पुरुष दोनोंका स्थान समान है । स्त्री और पुरुष दोनोंके अस्तित्व से ही समाजकी कल्पना पूरी हो सकती है । इन दोनोंमेंसे किसी भी एक घटकको अधिक महत्त्व दिया जा सकता है पर एक घटकको महत्त्व देने वाला समाज, समाजके मूलभूत अर्थों में पूरा नहीं हो जाता । स्त्री और पुरुष विश्वरथके दो मूलभूत आधार स्तम्भ हैं । इसीलिए समाज में स्त्रीका स्थान पुरुषोंके बराबर अभिन्न, सहज एवं स्वाभाविक मानना ही उचित है । स्त्री समाज रचना और समाजिक प्रगति के लिए सहकार्य करने वाली है । जैनधर्म और नारी जैनधर्ममें पुराने मूल्योंको बदलकर उसके स्थान पर नये परिष्कृत मूल्योंकी स्थापनाकी गई है। जैन धर्मकी दृष्टिसे नर और नारी दोनोंका समान स्थान है । न कोई ऊँचा है न कोई नौचा । श्रावक व्रत धारण करनेका जितना अधिकार श्रावकका बताया है, उतना ही अधिकार श्राविकाका बताया है। पति-पत्नी, दोनों कोही, भगवान् महावीरके संघ में, महाव्रतोंकी साधनाका अधिकार दिया गया है। जैनशास्त्रों में नारी जातिको गृहस्थ जीवनमें धम्मसहाया ( धर्म सहायिका), धर्म सहचारिणी, रत्नकुक्षधारिणी, देव- गुरुजन (देवगुरुजनकाशा) इत्यादि शब्दोंसे प्रशंसित किया गया है । भारतकी नारी एक दिन अपने विकासक्रममें इतने ऊँचाई पर पहुँच चुकी थी कि वह सामान्य मानुषी नहीं, देवीके रूपमें प्रतिष्ठित हो गई थी । उसकी पूजासे कर्मक्षेत्रमें ही स्वर्गके देवता रमण करके प्रसन्न होते थे । इस युगमें उसे पुरुषका आधा हिस्सा मानते हैं, पर उसके बिना पुरुषका पुरुषत्व अधूरा रहता है, ऐसा माना जाता है । मैं अपने इस लेख में आपको इतिहासमें और आधुनिक कालमें जैन महिलाओं द्वारा किये गये असा - मान्य कार्योंका, वीरांगनाओंके शोर्यका तथा श्राविकाओंके निर्माण किये हुये आदर्शका अल्प परिचय देने वाली हूँ । भगवान् ऋषभनाथका स्थान भारतीय संस्कृतिके प्रारम्भसे ही जैनधर्मकी उज्ज्वल परम्पराओंका निर्माण हुआ है । भगवान् आदिनाथने अपने पुत्रोंके साथ ही कन्याओं को भी शिक्षण देकर सुसंस्कृत बनाया । भगवान् आदिनाथके द्वारा जैन महिलाओं को सामाजिक और आध्यात्मिक क्षेत्रमें दिये हुये इस समान स्थानको देखकर नारीके विषय में जैन समाज प्रारम्भसे ही उदार था, ऐसा लगता । नारीको अपने बौद्धिक और आध्यात्मिक विकासकी सन्धि पहिले से ही प्राप्त हो गई थी। इसी कारण जैन संस्कृतिके प्रारम्भसे ही उच्च विद्या विभूषित और शीलवान् जैन नारियोंकी परम्परा प्रारम्भसे ही शुरू हो गई है । भगवान् ऋषभदेवनें अपनी ब्राह्मी और - २९४ - Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरी दोनोंको उच्च शिक्षाकी प्रेरणा दी थी। इससे स्पष्ट है कि उस समय नारीको पुरुषके समान शिक्षा लेनेकी सुविधा थी। ब्राह्मी और सुन्दरी-इन दोनों कन्याओंने अंकविद्या और अक्षरविद्यामें प्रावीण्य प्राप्त किया था। अपने पिताके धीर, गम्भीर और विद्वत्तापूर्ण व्यक्तित्त्वका प्रतिबिम्ब उनके मन पर पड़ा था। अपने बन्धु भरतकी अनुमतिसे इन दोनोंने भगवान् ऋषभदेवसे ही आर्यिका व्रतकी दीक्षा ले ली और ज्ञानसाधना की। उनके द्वारा प्रस्थापित किये चतुर्विध संघके आर्यिकासंघकी गणिनी (प्रमुख) आर्यिका ब्राह्मी ही थी। राजव्यवहारकी उन्हें पूर्ण जानकारी थी। कुछ जैन स्त्रियोंने विवाहपूर्व और विवाहके बाद युद्धभूमि पर शौर्य दिखाया। पंजिरीके समिध राजाकी राजकन्या अर्धागिनीने खारवेल राजाके विरुद्ध किये गये आक्रमणमें उसको सहयोग दिया। इतना ही नहीं, उसने इस युद्धके लिये महिलाओंकी स्वतन्त्रसेना खड़ीकी थी। युद्ध में राजा खारवेलके विजय पाने पर इसने उनका अर्धाङ्गिनी पद स्वीकार किया । वह धर्मनिष्ट और दानवीर थी, ऐसा स्पष्ट उल्लेख शिलालेखमें मिलता है। गंग घराने के सरदार नामकी लड़की और राजा विरवर लोकविद्याधरकी पत्नी सामिभबबे युद्धकी सभी कलाओंमें पारंगत थी । सामिमबबेके मर्मस्थल पर वाण लगनेसे इसे मूच्र्छा आ गई और भगवान् जिनेन्द्रका नाम स्मरण करते-करते उसने इहलोककी यात्रा समाप्त की । विजय नगरके राज्यकी सरदार चम्पा की कन्या राणी भैरव देवीने विजयनगरका साम्राज्य नष्ट होनेके बाद अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया और उसे मातृ-सत्ताक पद्धतिसे कई बरसों तक चलाया। नाजलकोंड देशके अधिकारी नागार्जुनकी मृत्युके बाद कदम्बराज अकालवर्षने उनकी देवी वीरांगना अक्कमवके कन्धे पर राज्यकी जिम्मेदारी रक्खी। आलेखोंमें इसे युद्ध-शक्ति-मुक्ता और जिनेन्द्र-शासनभक्ता कहा गया है। अपने अन्तकाल तक उसने राज्य की जिम्मेदारी सम्भाली। गंग राजवंशकी अनेक नारियोंने राज्यकी जिम्मेदारी सम्भाल कर अनेक जिन मन्दिर व तालाब बनाये । उनके देखभालकी व्यवस्था की । धर्मकार्योंमें बड़े दान दिये । इन महिलाओंमें चम्पला राणीका नाम सर्व प्रथम लिया जाता है। जैनधर्मकी सर्वाङ्गीण उन्नति और प्रसादके लिये उसने जिन भवनोंका निर्माण किया । श्रवणवेलगोलके शिलालेख क्रमांक ४९६ से पता चलता है कि जीक्कमवे शुभचन्द्र देवकी शिष्या थी और योग्यता और कुशलतासे राज्य करनेके साथ ही धर्म प्रचारके लिये भी उसने अनेक जैन प्रतिमाओंकी स्थापना की थी। जैनधर्ममें कन्याओंका स्थान ____ आदिपुराण, पर्व १८ श्लोक ७६ के अनुसार इस कालमें पुरुषोंके साथ ही कन्याओंके विविध संस्कार किये जाते थे। राज्य परिवारकी लड़कियोंकी स्थिति तो कई गुनी अच्छी थी। कन्या पिताकी सम्पत्तिमेंसे दान भी कर सकती थी। सुलोचनाने अपनी कौमार्यावस्थामें रत्नमयी जिनप्रतिमाकी निर्मिति की थी और उनकी प्रतिष्ठा करनेके लिए पूजाभिषेक विधिका भी आयोजन किया था। कन्यायें पढ़ते समय अनेक विषयोंका ज्ञान प्राप्त करती थीं और वे अपने पिताके साथ उपयक्त विषयों पर चर्चा भी करती थीं। वज्जदंत चक्रवर्ती अपनी लड़कीके साथ अनेक विषयों पर चर्चा करता था। विवाह और विवाहोत्तर जीवन विवाह स्त्रीके जीवनमें महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती थी। उस वक्त आजन्म अविवाहित रहकर समाजसेवा और आत्म-कल्याण करनेकी भी अनज्ञा थी। विवाहको धार्मिक एवं आध्यात्मिक एकताके लिये स्वीकार किया हुआ बन्धन माना जाता था। -२९५ - | Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके राजा उग्रसेनकी कन्या राजुलमतीका विवाह यदुवंशीय श्रीकृष्ण के बन्धु नेमिनाथके साथ निश्चित किया गया था । अपने विवाह के समय होने वाली पशुहत्याको देखकर अन्तर्मुख बनकर नेमिनाथने दिगम्बर दीक्षा ग्रहण करनेका निश्चय किया । राजुलपतिने मनसे उनके साथ विवाह बद्ध होनेसे दूसरेसे विवाह करना निषिद्ध माना और आर्थिकाकी दीक्षा लेकर अपने पति के मार्ग पर चलनेका निश्चय किया । उसने जैन समाज के सामने यह आदर्श रक्खा है । वैवाहिक जीवनका महत्व विवाह पूर्व अवस्था में स्त्री व पुरुष भिन्न कुटुम्बके प्रतिनिधि होते हैं । विवाहके बाद ही उनके जीवनका पूरी तरह से आरम्भ होता है । आदर्श गृहिणी बनकर सुखद गृहस्थ जीवन निर्माण करना स्त्रीके जीवनका उच्च ध्येय है | आदर्श गृहिणी कुटुम्ब, देश, समाज और कालकी भूषण मानी जाती है । विवाहक बाद स्त्री-पुरुष परस्पर सहकारी होते हैं । गृहस्थाश्रमको स्वीकार कर अपने कुल, धर्म, स्थितिको सोचकर मर्यादित जीवन व्यतीत करना, यही आदर्श पतिका कर्तव्य है । अंशात स्त्री अपने असन्तोषके साथ ही स्वगृहकी शान्ति नष्ट करती है । स्त्रीको शांति, स्नेह, शक्ति, धैर्य, क्षमा, सौन्दर्य और माधुर्यका प्रतीक माना गया है । गृहस्थाश्रममें उसे गृहलक्ष्मी कहकर घरकी सब जिम्मेदारी उस पर सौंप देते हैं । अतिथिका स्वागत करना, धर्मकार्य का पालन करना, सुश्रुषा करना और शिशुपालन – ये तो उसके जीवनके आदर्श माने गये हैं । अनेक जैन महिलाओंने इन आदर्शोंके पालनमें अपने उदाहरण प्रस्तुत किये हैं । उज्जैनी नगरके पहुपाल राजाकी सुशिक्षित कन्या मैना सुन्दरीका विवाह निर्जन वनमें रहने वाले कुष्ठरोगी चंपासुरके नरेश श्रीपाल कोटीभट्ट के साथ किया गया। लेकिन मैनासुन्दरीने इस घटनाके लिये अपनी कर्मगतिको कारण समझकर अपने पति की सेवासुश्रुषा की। अनेक कष्ट शांतिसे सहन किये । पंचाणुव्रत ग्रहण किये । अष्टाकि पर्व के उपोषण करके सिद्ध चक्रकी यथाशक्ति पूजा की। उसके बाद श्रीपालके शरीर पर गंधोदक लगाते ही वह कुष्ठ मुक्त हो गया । अपने सामर्थ्य से उसने अपने राज्यको फिरसे प्राप्त किया । सुखोपभोग किया और वृद्धकालमें राज्यकी जिम्मेदारी अपने लड़केको सौंपकर मुनि दीक्षा ली। मैनासुन्दरीने भी आर्यिका व्रत ग्रहण किया । उसने अपने असामान्य उदाहरणसे जैन महिलाओंके सामने जीवनभर छायाकी तरह पतिके साथ रहना, उसके सुख-दुखमें सहभागी होना, धर्म कार्य में उसका सहकार्य करना, वैभव कालमें उसका आनन्द दुगुना करनेका यत्न करना, पतिकी सखी बनकर उसके जीवनमें चैतन्य निर्माण करना - ये आदर्श रक्खे हैं । पतिनिष्ठा, पवित्रता और सहनशीलता — ये गृहस्थाश्रमीके आदर्श कर्तव्य माने गये हैं । महेन्द्रपुरी - की राजकन्या और पवनकुमारकी पत्नी अजन्ताने विवाहके बाद बारह साल विरह सहन किया । उसके बाद पतिका मिलन उसके जीवनमें आनन्द निर्माण करने वाला था । किन्तु उसपर चारित्रका संशय करके उसको घरसे निकाल दिया गया। बिना सहारे अनेक कष्टोंके साथ सहन-शीलतासे और नीतिधर्मका पालन करके उसने अपना जीवन बिताया जिससे उसे अपना खोया हुआ आनन्द फिरसे प्राप्त हो गया । सीताका आदर्श तो महान आदर्श है । रावण जैसे प्रतापी वैभवसम्पन्न पुरुषके अधीन रहकर भी उसने अपना मन एक क्षण भी विचलित नहीं होने दिया । उसके कारण वह अग्निदिव्य बन सकी । पतिके त्यागने पर भी नमें जीवन बिताते समय उसने रागद्वेषके स्थान पर मधुर हास्य, घबराहटके स्थान पर प्रसन्नता और खेदके स्थान पर उल्लास प्रकट किया, वही उसका आदर्श है । मृगुकच्छ नगर के श्रेणी जिनदत्त नामक धर्मशील श्रावककी सालीको विवाहके बाद घरसे बाहर निकाल दिया गया । तथापि इस अवस्थामें भी उसने - २९६ - Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म पर अपनी निष्ठा कम नहीं की । उसीसे आगे चलकर उसका पातिव्रत्य सिद्ध हो गया और उसे कुटुम्बमें, समाज में आदरणीय स्थान मिला । मातृत्वका महत्व स्त्री के सभी गुणोंमें मातृत्वको बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है । इसी गुणसे उसे समाज में आदर्श गुरु माना गया है। आचार्य मानतुंगके अनुसार संसारकी सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रोंको जन्म देती हैं लेकिन भगवानके समान अद्वितीय पुत्रको जन्म देने वाली माता तो अद्वितीय ही है। सूर्य की किरणोंकी अलग-अलग दिशायें होती हैं लेकिन सूर्यका जन्म एक ही दिशामें - पूर्व में ही होता है । आचार्यका यह श्लोक मातृत्वके श्रेष्ठत्वका विश्लेषण करने वाला है । माँ अपने पुत्रको जन्म देने के बाद उसका पालन-पोषण और संरक्षण भी करती है । हृदयमें पैदा होने वाले वात्सल्यकी भावनासे माता कठिन प्रसव वेदना भी सुसह्य मानती है । इसी कारण मानव जीवनमें, समाजमें और संसार रचनामें नारीको महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । संसारके अनेक प्रसिद्ध नेताओंका व्यक्तित्व बनानेका कार्य उनकी माताओंने किया है । नेपोलियन, हिटलर, छत्रपति शिवाजी और महात्मा गान्धीके असमान्य जीवनके लिये उनकी माताओंका योगदान ही कारण है । संसारके सर्वस्व त्याग, समस्त प्रेम, सर्व श्रेष्ठ सेवा और सर्वोत्तम उदारता 'माँ' नामक अक्षरमें भरी है । मातृत्व के इस एकमेवाद्वितीय विशेषत्वसे ही समाजने नारीको प्रथम वन्दनीय माना है । धर्मनिष्ठ नारी कर्तव्यनिष्ठा के साथ ही धर्मनिष्ठामें भी जैन नारियाँ प्रसिद्ध हैं । जैन नारीने जैनधर्मतत्वके अनुसार सिर्फ आत्मोद्धार ही नहीं किया, अपितु अपने पतिको भी जैन धर्मका उपासक बनाया है और अपने लड़के लड़कियोंको सुसंस्कारित ओर आदर्श बनानेका यत्न किया है । लिच्छिविवंशीय राजा चेटककी सुपुत्री चेलनाने अपने पति मगधदेशके नरेश श्रेणिकको जैनधर्मका उपासक बनाया उसके अभयकुमार और वारिषेण नामक दोनों पुत्रोंने सांसारिक सुख और वैभवका त्यागकर आत्मसाधनाके लिये अनेक व्रतोंका पालन किया। कर्नाटकके चालुक्य नरेशको उसकी पत्नी जाकलदेवीने जैनधर्मानुयायी बनाया और उसके प्रसारके लिये प्रेरणा दी । अनेक शिलालेखों में जैन नारीके द्वारा जिनमन्दिर बनानेकी जानकारी मिलती है । इन मन्दिरोंके पूजोत्सव आदिका प्रबन्ध भी उनके द्वारा किया जाता था । कलिंगाधिपति राजा खारवेलकी रानीने कुमारी पर्वत पर जैन गुफा बनाई । सीरेकी राजाकी पत्नीने अपने पतिका रोग हटानेके लिये और शरीर स्वस्थ होनेके लिये अपनी नथका मोती बेचकर जिनमन्दिर और तालाबकी रचना की। आज भी यह मन्दिर 'मुतनकेरे' नामसे प्रसिद्ध है । आहवमल्ल राजाके सेनापति मल्लमकी कन्या अन्तिमब्बे जैनधर्म पर श्रद्वा रखने वाली और दानशूर थी । उसे ग्रन्थोंमें दानचिन्तामणि कहकर उल्लिखित किया गया है। उसने चांदी और सोनेकी हजारों जिनमूर्तियां बनवाईं ! लाखों रुपयोंका दान दिया । जबलपुरमें पिसनहारीकी मढ़िया नामक जैन मन्दिर है । एक जैन नारीने आटा पीसकर जो रकम कमाई, उससे यह मन्दिर बना है। कितना असामान्य, अनोखा आदर्श है यह । मथुराके शिलालेखसे पता चलता है कि जैन नारियोंने ही जैनमन्दिर और कलात्मक शिल्प बनाने में नेतृत्व किया था । अनेक जैन नारियोंने आर्यिकाका व्रत लिया, कठोर तपचर्या की, मन और इन्द्रियोंको वशमें करनेका यत्न किया । जम्बुस्वामी के दीक्षा लेने के बाद उनकी पत्नीने भी दीक्षा ली। वैशालीके चेटक राजाकी ३८ - २९७ - Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्या चन्द्रासनीने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर भगवान् महावीरसे दीक्षा ली और आर्थिका नका अनुष्ठान किया । वह महावीरके ३६ हजार आर्यिकाओंके संघ में गणिका बनी । पम्बबबे नामकी कर्नाटककी नारीने तीस साल तपश्चरण किया । विष्णुवर्धन राजाकी रानी शांतल देवीने ११२३ में श्रवणबेलगोलमें भगवान जिनेन्द्रकी विशालकाय प्रतिमा स्थापित की तथा कुछ काल तक अनशन और ऊनोदर व्रतका पालन किया । साहित्य क्षेत्र कार्य अनेक जैन नारियोंने लेखिका और कवियित्रीके रूपमें साहित्यके क्षेत्रमें योगदान दिया है । १५६६ में रणमतिने यशोधरकाक नामका काव्य लिखा । आर्य रत्नमतीकी समकितरास एक हिन्दी - गुजराती मिश्र काव्यकी रचना है। कर्नाटक में साहित्यके क्षेत्रमें उज्ज्वल नाम कमाने वाली कन्ती प्रसिद्ध है । उसे राजदरबारमें ही सम्मान और उच्च पद मिला था । महाकवि रत्नने अपनी अमरकृति अजितनाथपुराणकी रचना दान-चिंतामणि अंतेते मब्बेके सहकार्यसे ही ९८३ में की । श्वेताम्बर पथकी सूरिचरित्र लिखने वाली गुणसमृद्धि महत्तराके चारुदत्तचरित्र लिखने वाली पद्मश्री, कनकावती आख्यान लिखने वाली हेमश्री नामके महिलायें प्रसिद्ध हैं । काव्यक्षेत्र में प्रतिभा सम्पन्न साहित्य निर्माणका महत्वपूर्ण कार्य अनेक जैन महिलाओंने किया है । उदाहरण के लिये अनुलक्ष्मी, अवन्ती सुन्दरी, माधवी आदि प्राकृत साहित्यकी पूरक कवियित्रियाँ हैं । उनकी रचनायें जीवन दान, प्रेम, संगीत, आनन्द और व्यथा, आशा और निराशा, उत्साह आदि गुणोंसे भरी हुई है । इसके अलावा नृत्य, गायन, चित्रकला, शिल्पकला आदि क्षेत्रों में भी जैन महिलाओं ने असामान्य प्रगति की है । प्राचीन ऐतिहासिक कालमें जैन नारीने जीवनके सभी क्षेत्रों में अपना सहयोग दिया है । समाज भी उसकी ओर सम्मान की दृष्टिसे देखा था । समाजने नारीको उसकी प्रगति के लिये सब सुविधायें दी थीं। पुरुष और नारीमें सामाजिक सुविधायें मिलनेकी दृष्टिसे अन्तर नहीं था । नारीकी गुलामीका प्रारम्भ मध्ययुगके विदेशी शासकोंके आक्रमणके साथ समाजने स्त्रियों पर अनेक बन्धन लगाये । घरकी दीवारोंके बाहरकी हवा लगनेमें धर्म भ्रष्ट होनेका डर उसके मनमें निर्माण किया । इसी कारण शिक्षा, धर्म, संस्कार, तत्त्वज्ञान आदिमें नारी बहुत पीछे! गई । व्यवसायके क्षेत्रमें नारीका प्रवेश रोका गया । आधुनिक काल में भारतीय नारी का स्थान जब भारतीय संविधानकी रचनाकी गयी, तब उसमें स्त्रियोंको सामाजिक, आर्थिक और राजतीतिक क्षेत्रोंमें पुरुषोंकी बराबरीका स्थान देनेकी घोषणा की गई। इससे लगने लगा कि स्त्रीजाति स्वतन्त्र हो गयी है, उसकी दुरवस्था समाप्त हो चुकी है। उसे शासन और नौकरियों में पुरुषोंके समान मान मिलने लगा है । पर असीम दारिद्रय, अज्ञान, रुढ़ियों व परम्पराओंने इस मान्यताको निष्प्रभ कर दिया है। यहाँ तक कि आज भी सुशिक्षित व्यक्ति अपनी विधवा हुई पुत्रवधूका धर्म और परम्पराके नाम पर मुण्डन करा कर उसका चेहरा विद्रूप कर डालनेकी हिम्मत कर जाता है । काम देनेके बहाने आदिवासी युवतियोंको फुसला कर बेंच डालने वाले मनुष्य रूपी भेड़िये आज भी इस समाजमें मिल जाते हैं । गाँवोंमें नौकरी करनेके लिये आयी हुई महिलाओं पर इन समाजकंटकों द्वारा आज भी अत्याचार किया जा रहा है । क्या यही वह समानता है जिसका संविधान में गुण गाया हजारों वर्षोंसे चली आ रही इस और पुरानी मान्यताओंके अज्ञानी पुरुषोंकी गया 1 पुरुषप्रधान समाज रचनाकी जड़ें बड़ी गहरी । धार्मिक रुढ़ियों 'स्त्री स्वातन्त्र्यके योग्य होती नहीं' की विचारधारा आसानीसे - २९८ - Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नष्ट नहीं हो सकती है। भारतमें २६ करोड़ स्त्रियों से केवल १८७ प्रतिशत स्त्रियाँ पढ़ी लिखी है पर वे भी रुढ़ियोंकी दास बनी हुई हैं। भारतमें आज भी लड़कीके पैदा होने पर कोई खुशी नहीं मनाई जाती। बेटी पैदा होते ही उसे देनेके लिये जिन्हें दहेजकी चिन्ता होने लगती हो, उन्हें उसके जन्म की खुशी भी कैसे होगी ? लड़कीका पालन-पोषण तो करना ही पड़ता है । पर उसके साथ लड़के की तुलनामें हीन वर्ताव किया जाता है। लड़कीको तो मेहनती, सेवाभावी और दयालु बनानेकी चेष्टा की जाती है । लड़कीके लिये विवाह माँ-बापके घरकी अन्तिम सीढ़ी होती है । विवाह होते ही माँ-बापका नाम हटाकर उसे पतिके सामने समर्पण कर देना पड़ता है । फिर पतिका वंश चलाते हुये उसकी सेवा करना, यही उसका कर्तव्य रह जाता है और यह होती है उसकी विकासको अन्तिम सीढ़ी, फिर चाहे वह शिक्षित हो, अशिक्षित हो, गरीब हो या अमीर हो । विवाह आपसी सम्बन्धोंमें मिलने वाले सूखके लिये किया जाता है, पर यह सुख स्त्रियोंको बड़ा महंगा पड़ता है । कर्त्तव्यका पहाड़ सामने होता है । उन्हें यह पहाड़ पार करना ही पड़ता है। इतना करने पर भी स्त्री पुरुषकी गुलाम मानी गयी है और उसे पुरुषकी श्रेष्ठताको स्वीकार करना ही चाहिये, ऐसा माना जाता है । वास्तवमें, विवाह होनेके बाद पति तो बाहर नौकरी पर जाता है और पत्नी घर सम्भालती है। रसोई आदिकी व्यवस्था करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि विवाह दोनोंकी भागीदारीका बन्धन है और अकेले पति या दोनोंकी कमाई पर दोनोंका एक दूसरे पर हक होना चाहिये। पर मध्यम वर्गीय या उच्च मध्य वर्गीय परिवारोंमें भी पुरुषकी कमाई पर स्त्रीका कोई हक नहीं माना जाता। गरीबोंकी तो बात ही दूर है। विवाहके उपरान्त बच्चोंके पालन-पोषणके लिये माँ कितना भी कष्ट उठाती हो, उसे कोई नाम नहीं मिलता। पैदा होनेके दिनसे मरनेके क्षण तक स्त्री निरपेक्षा सेवापरायण रहती है। भारतमें २६ करोड़ स्त्रियोंमेंसे करीब सात लाख स्त्रियाँ ही स्नातक हैं और तीस लाख मेट्रिक पास हैं। इनमें भी शिक्षित कही जाने योग्य स्त्रियोंकी संख्या तो केवल दस लाख ही होगी। स्नातकोंमें केवल बीस प्रतिशत स्त्रियोंके पास नौकरियां हैं। तीस लाख मैट्रिक पास स्त्रियों मेंसे केवल पाँच प्रतिशत स्त्रियोंको नौकरी है। मध्यवर्गीय स्त्रीको आर्थिक परिस्थितिके कारण नौकरी करना आवश्यक हो गया है। लेकिन पुरुषोंके समान स्त्रियोंको नौकरीकी सुविधा नहीं मिलती है। विवाहित स्त्रियोंको नौकरी प्रायः नहीं मिलती है। उन्हें उच्च स्तरके पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता । नौकरीमें सुरक्षाका प्रबन्ध नहीं, वि षकर ग्रामीण भागमें उन्हें कठिनाइयोंका सामना करना पड़ता है। नौकरी करने वाले पुरुषोंको जो आदरभाव घरमें मिलता है, वह स्त्रियोंको नहीं मिलता। नौकरी करनेके बाद घरमें आने पर उसे वे सभी काम करने पड़ते हैं, जो सामान्य स्त्रियाँ करती हैं । बल्कि उससे ज्यादा कामकी अपेक्षा की जाती है। नहीं तो, उसका सुशिक्षित होना निन्दास्पद करार दिया जाता है। कुछ पुरुष तो स्त्रीको केवल उपभोगकी वस्तुमात्र समझते हैं। फिल्मोंमें, नाटकोंमें, होटलोंमें कलाके नाम पर स्त्रियोंको जिस रूपमें पेश किया जाता है, उसे देखकर लगता है कि स्त्री पुरुषोंके लिये दिल बहलानेका खिलौना मात्र है। हजारों वर्षकी यह परम्परा स्त्री एकाएक नहीं तोड़ सकती। यदि कुछ स्त्रियाँ हिम्मत भी करें, तो रूढ़िवादी स्त्रियाँ उन्हें उच्छृङ्खल, बदचलन कहकर उनका तिरस्कार करती हैं। इस प्रकार गुलामीकी यह परम्परा कहीं टूट नहीं जाये, इसलिये शालीनता, आज्ञाकारिता, विनयशीलता, त्याग, परिश्रमशीलता, सहनशीलता, चरित्रसम्पन्नता, सतीत्व जैसे सब गुण अपनेमें लाना स्त्रीका परम कर्तव्य माना गया है । इन गुणोंसे सम्पन्न होकर वह पुरुषके लिए प्रशंसनीय बने, उसकी सेवामें अपना सर्वस्व लूटा दे, यही शिक्षा परम्परागत रूपसे उसे मिली है। आज सभी क्षेत्रोंमें पुरुषोंके बराबर काम करने पर भी वह स्त्रीको हीन दृष्टिसे देखता है। मैं यह - २९९ - Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं कहना चाहती कि स्त्रियाँ पुरुष विरोधी आन्दोलन करें या मोर्चे निकालें। मैं केवल यह चाहती हूँ कि स्त्रियाँ अपने क्रान्तिकारी विचारों और कार्योंके द्वारा पुरुषोंके मनमें स्त्रीके प्रति जो हीन भावना है, उसे दूर करें। उसके बाद ही वे स्त्रीके व्यक्तित्वके विकास पर विचार करनेके लिए तैयार हो सकते हैं। पुरुषके इस वर्चस्वसे छुटकारा पानेके लिये स्त्रियोंको पुरुषके मनमें स्त्रीजातिके प्रति समानता और मित्रताकी भावना पैदा करनेका यत्न करना होगा। परम्परागत रूढ़ियाँ और अन्धविश्वास, स्वयंके प्रति हीन भावना तथा गुलामी वृत्तिको छोड़कर उसे अपने विकासके लिये स्वयं सन्नद्ध होना होगा। परन्तु इसके लिये इस पुरुष का भी कर्तव्य हो जाता है कि वह स्त्रियोंके विकासमार्गमें जो कठिनाइयाँ हैं, उन्हें दूर करनेका यत्न करे। इस बीसवीं शताब्दीमें पुरुषोंके समान स्त्रियोंको भी प्रत्येक क्षेत्रमें समान अधिकार मिलना आवश्यक है। आधुनिक कालमें जैन नारीका कार्य आधुनिक वैज्ञानिक युगमें जैन महिलाओंने अनेक क्षेत्रोंमें महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं । सामाजिक, सांस्कृतिक, राजकीय या धार्मिक क्षेत्रमें जैन महिलाओंके मौलिक कार्योके दर्शन होते हैं । यद्यपि जैन महिलाओंमें उच्च शिक्षित महिलाओंकी संख्या कम हो सकती है, तथापि जो सुशिक्षित महिलायें हैं, उन्होंने अपनी शिक्षा का उपयोग जैन समाजके विकासके लिये किया है। इतना ही नहीं, आज अनेक महिलाओंने पत्रकारिता, पुस्तक प्रकाशन, शोध और अध्ययनमें महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । इसके लिये अनेक जैन विदुषियोंके उदाहरण दिये जा सकते हैं। बीसवीं सदीकी जैन महिलाओंमें श्रीमती रमा जैनका कार्य जैन समाज कभी विस्मृत नहीं कर सकता। साहित्यके क्षेत्रमें आपने हिन्दीकी जो सेवा की है, उसके लिये साहित्य जगत आपका सदैव ऋणी रहेगा। माधुरी, पराग, सारिका, दिनमान, धर्मयुग जैसी पत्रिकाओंने गम्भीर व विचारपूर्ण साहित्यके कारण हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओंकी पत्रिकाओंमें अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया है। यह केवल आपके अपूर्व साहस व मार्गदर्शनका ही फल है। ज्ञानोदय और भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशनके माध्यमसे हिन्दीके वरिष्ठतम लेखकों और चितकोंसे लेकर नये प्रतिभाशाली लेखक तक उनके साहित्यिकि परिवारके अंग बन चुके हैं। इतिहासकार, पुरातत्त्वविद्, कलामर्मज्ञ, धर्मव्याख्याता और नाट्य कर्मी-सभीने भारतीय ज्ञानपीठके माध्यमसे साहित्य जगत्को अपने ज्ञानसे लाभान्वित किया है । हिन्दीके साथ सभी भारतीय भाषाओंके वरिष्ठ लेखक आज एक साहित्यिक मंच पर एकत्रित हुए हैं। यह सब श्रीमती रमा जैनकी निष्ठा और योजनाका ही परिणाम है । ज्ञानपीठ पुरस्कार उच्च साहित्यकारोंके प्रति उनकी कृतज्ञताकी भावनाका द्योतक है । वे सांस्कृतिक और सामाजिक संघटन, साहित्य, चित्रकला, रंगमंचकी नवीनतम गतिविधियोंसे न केवल सम्पर्क बनाये रखती थीं बल्कि प्रत्येक दिशामें हिन्दीकी प्रतिभाको खुला आकाश मिले, इसके लिए चुपचाप बिना किसी आत्मविज्ञापनके प्रयत्नशील रहती थीं। इस प्रकार अत्याधनिक हिन्दी साहित्यके विकासमें और प्राचीन अर्वाचीन ग्रन्थ प्रकाशनमें श्रीमती रमारानीका नाम स्वर्ण अक्षरोंमें अंकित करने योग्य है। मगनवाई कंकुबाई और ललिता बाईने जैन नारी शिक्षणकी आधारशिला रखी, ऐसी कहा जाये, तो अनुचित नहीं होगा। नारी समाजका विकास शिक्षणकी प्रवृत्ति बढ़ानेसे ही होगा, ऐसा उनका विश्वास था । बम्बईमें श्राविकाश्रमकी स्थापना, पददलित विधवाओंके लिये वसतिगृह व शिक्षाकी सुविधा जैसे कार्य आपने किये । आजकी अनेक जैन शैक्षणिक संस्थायें, अस्पताल आदि कंकूबाईके दातृत्व व नेतृत्वके कारण विकसित हुये हैं। श्रीमती कुसुमबेन शहा भारतीय जैन सहामण्डलकी एक कार्यशील पदाधिकारी हैं । पूनामें कुसुमाग्राम तथा बम्बईमें श्रद्धानन्द महिलाश्रम उनके नेतृत्वसे ही प्रगति पथ पर हैं । आपके -३०० - Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शनमें अन्य अनेक जैन संस्थायें भी वृद्धिंगत हैं। सेठ बालचन्द हीराचन्दकी धर्मपत्नी श्रीमती कस्तुरबाईका तो जैन और भारतीय समाज पर बड़ा ऐहसान है। उनके द्वारा निर्मित कस्तूर बाई ट्रस्टके द्वारा आज अनेक संस्थायें कार्यरत हैं। नाना भाई ठाकरसीके नामसे स्थापित विद्यापीठ स्त्रीशिक्षणके कार्यमें अग्रसर है । कर्वे महिला विद्यापीठकी कुलगुरु डा० माधुरी शहाका स्त्री शिक्षणमें योगदान है । क्षु० राजुलमती (शोलापुर) और चन्दावाई आरा जैन समाजमें मशहूर समाजसेविकाएँ मानी जाती हैं। क्षु० राजुलमतीने विधवा स्त्रियोंकी दीनतापूर्ण स्थिति और शिक्षाका अभाव देखकर सम्पूर्ण जीवन उनकी सेवामें अर्पण कर दिया। शोलापुरसे सुचारु रूपसे कार्यरत श्राविकाश्रस आज भी उनके महान कार्यका स्मारक है। आरामें जैन बालाविश्राम (चन्दाबाईके द्वारा स्थापित) आज स्त्रीशिक्षाका प्रमुख केन्द्र बना हुआ है। चंदाबाई एक कुशल लेखिका, पत्रकार, कवियित्री, समाजसुधारक एवं संस्थासंचलिकाके रूपमें प्रसिद्ध विदुषी महिला हैं। जैन महिलादर्श पत्रिकाका सम्पादन तथा अखिल भारतीय महिलापरिषद्का नेतृत्व और संस्थापकत्व आपका ही है। लातचन्द हीराचन्दकी स्नुषा सौ० सरयुबाई विनोदकुमार देशीने जैन कलाका गंभीर अभ्यास करके पी०एच०डी० की उपाधि प्राप्त की है। आज वे अमेरिकामें भारत कलाकी प्राध्यापिका हैं। डा० शांता भागवतके समान अनेक महिलाएँ भी पी-एच०डी० से विभूषित हो रही हैं और विभिन्न क्षेत्रों में अपना यश अजित कर रही हैं। ' जैन महिलाओंमें शिक्षाके प्रसारके साथ-साथ नूतन साहित्य निर्माणमें भी अनेक विदुषी महिलाओंने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। साध्वी चन्दना दर्शनाचार्यने अनेक ग्रन्थोंका लेखन और सम्पादन त्तराध्ययनसूत्र पर लिखे ग्रन्थसे उनकी विद्वत्ता और दर्शनशास्त्रके प्रभुत्व का पता चलता है। अमरचन्दजी महाराजकी प्रेरणासे राजगहमें चल रहे वीरायतनके संचालनका कार्य भी आपने संभाला है। अहमदनगरकी साध्वी विदुषी उज्ज्वल कुमारी अपने अनेक ग्रन्थोंमें एक विदुषी लेखिकाके नामसे प्रसिद्ध हैं। विविध भाषाओंका ज्ञान और अष्टसहस्री ग्रन्थकी भाषाकार आर्यिकारल ज्ञानमती माताजी प्रसिद्ध लेखिकाओंमें से हैं। विदुषी सुपार्श्वमती माताजी भी लेखिकाके रूपमें प्रसिद्ध हैं। कविता, नाटिका, नाटक, उपन्यास, इतिहास आदि अनेक साहित्यिक विषयों पर अधिकारसे लिखने वाली अनेक जैन महिलाएँ निरन्तर आगे बढ़ रही हैं। उदाहरणके लिये, सौ. सुरेखा शहाके उपन्यास मासिकोंमें नियमित रूपसे प्रकाशित होते है । श्रीमती विद्युलतावाई शहा मुख्याध्यापिका और लेखिकाके रूपमें प्रसिद्ध हैं। श्रीमती कुमुदिनीबाई दोशी जैन बोधककी सम्पादिका होने के साथ सामाजिक कार्यों में आगे रहती है। आर्यिका विशुद्धमतीजीने त्रिलोकसार-जैसी सुलभ रचना उपलब्ध की है। श्रीमती रूपवती किरणकी अगणित कहानियों एवं एकांकियोंसे कौन परिचित न होगा ? डा० सूरजमुखीजी अपनी अल्पवयमें ही एक महिला महाविद्यालयकी प्राचार्य बनकर स्त्रीशिक्षाके क्षेत्रको नई दिशा दे रही हैं। डा० विमला चौधरी भी इसी कोटिकी एक अन्य सुश्रुत महिला हैं। राजनीतिक क्षेत्रोंमें कई महिलाएँ अग्रसर रही हैं । उदाहरणके लिये, अलंमे आक्आने राजकीय चुनावमें भाग लेकर आमदार पद विभूषित किया है। साथमें, वे श्राविकाश्रम (बम्बई) की संचालिका भी हैं। श्रीमती लेखवती जैन हरियाना विधान सभाको अध्यक्षके नाते प्रसिद्ध हैं। पूना की आमदार सी० लीलावती मर्चेट, गुजरात राज्यकी शिक्षामन्त्री श्रीमती इन्दुमती सेठ, दिल्ली प्रदेश सभाकी अध्यक्षा श्रीमती ओमप्रकाश जैन आदि जैन महिलाएँ राजनैतिक क्षेत्रमें महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं । इन विदुषियोंके अतिरिक्त सौ० बांसतीबाई शहा, डा० विजयाबाई पांगल (कोल्हापुर), चंचलाबाई शहा (बम्बई), मंजुलाबाई कारंजा-ये जैन महिलाएं भी विभिन्न सामाजिक कार्य करने में अग्रसर रहती हैं। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रमें अनेक जैन महिलाओंने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। सरसेठ हुकुमचन्दकी धर्मपत्नी कंचनबाईकी आर्थिक मददसे अनेक जैन संस्थाएँ चल रही हैं । दक्षिण भारत में श्रीमती रत्नवर्मा हेगड़ेके धार्मिक कार्य उल्लेखनीय हैं । धर्मस्थलमें ४१ फुटकी भगवान महावीरकी संगमरमरकी मूर्ति आपने ही स्थापित की है । औद्योगिक क्षेत्रमें भी जैन महिलाएँ पीछे नहीं हैं । आज अनेक कारखानोंके व्यवस्थापनके पदों पर वे कार्य करती हैं । उदाहरणके लिये, श्रीमती सरयु दफ्तरी एक फैक्टरीका नियन्त्रण करती हैं । बम्बई और अनेक बड़े शहरोंमें जैन महिलाओंके द्वारा स्थापित छोटे-छोटे कार्यरत उद्योग हैं । इसी प्रकार जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें जैन महिलाएँ कार्य कर रही हैं । अनेक महिलाओंमेंसे मैं परिचित हूँ परन्तु स्थानाभावसे यहाँ सबका उल्लेख संभव नहीं है । संक्षेपमें, जैन महिलाओंने सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक-सभी क्षेत्रोंमें महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं । आजकी महिलाएँ प्रत्येक क्षेत्रमें आगे बढ़ने का प्रयत्न कर रही हैं । वे प्रगतिशील विचारोंकी हैं। मैं मान्य करती हूँ फिर भी, महिलाओंके प्रति मेरे मनमें कुछ सुझाव हैं । यह बीसवीं शताब्दीकी प्रगतिशीलताकी पहली और प्रमुख माँग है - पुरुषके समान सभी क्षेत्रों में समान Sarfararat माँग । यह माँग कोई ठुकरायेगा नहीं। लेकिन अधिकारकी माँगके साथ हमें अपने कर्तव्यको भी नहीं भूलना चाहिये । अधिकार और कर्तव्य — ये दोनों एक ही सिक्केके दो पहलू हैं । विकासकी गन्ध सबको समान मिले, इसे कोई भी अमान्य नहीं कर सकता । परन्तु साथमें सब कर्तव्यपालनमें तत्पर हो, इसे भी मानना आवश्यक है । सामाजिक कार्य व नेतृत्व करनेके साथ-साथ महिलाओंको आदर्श गृहिणीका कार्य भी करना है । आधुनिक शिक्षाग्रहण करने के साथ-साथ महिलाओंको धार्मिक विचार सम्पन्न बताना भी अत्यावश्यक है क्योंकि ऐसी महिलाएँ भी अपने बच्चोंको संस्कार सम्पन्न नागरिक बना सकती हैं । हमें पाश्चात्य वैज्ञानिक ज्ञानका अनुकरण करना चाहिये । परन्तु सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रमें हमें उनका अनुकरण नहीं करना है । क्योंकि भारतीय समाज के अपने कुछ सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्य हैं । इन मूल्योंको ग्रहण करने - के लिये पाश्चात्य जगत भारतकी ओर देखता है। ऐसी दशामें पाश्चात्य रहन-सहन व सामाजिक रचना कर हमें अन्धानुकरण नहीं करना चाहिये । भारतमें कुटुम्ब संस्थाकी उज्ज्वल परम्परा है । पाश्चात्य अनुकरणके द्वारा इस कुटुम्ब संस्थाका हम नाश न करें, तो अच्छा है । सम्पूर्ण भारतीय संस्कृतिका रक्षण इसी कुटुम्ब संस्थाने किया है, इसे हमें नहीं भूलना चाहिये । अमेरिका जैसे भौतिक दृष्टिसे उन्नत देशों में कुटुम्ब संस्थाके पुनर्गठनकी माँगकी जा रही है । क्योंकि इन देशोंमें स्वतन्त्रताके नाम पर माता, पिता, बच्चेसब अलग-अलग रूपमें बिखर रहे हैं । पारस्परिक सम्बन्ध केवल आर्थिक बनकर रह गये हैं। पर एक दूसरेमें ईश्वर में आस्था न होनेके कारण पाश्चात्य लोगोंका जीवन और निराशापूर्ण बनता जा रहा है । इस समस्याको दूर करनेके लिये अमेरिका जैसे देश भारतकी ओर देख रहे हैं। यह हमें उनका अन्धानुकरण करते समय सोचना चाहिये । भारतीय बालक-बालिकायें संस्कार पूर्ण आदर्श नागरिक बनें इसकी जिम्मेदारी महिलाओं पर है क्योंकि माता ही बच्चोंके लिये पहला गुरु होती हैं । गृहिणियों में भगवान् महावीरका सन्देश हमेशा ध्यान में रखना चाहिए । आध्यात्मिक ज्ञानसे ही मानसिक विकास सही दिशामें होता है । ऐसी ज्ञान सम्पन्न माता ही अपने बच्चेको उच्चसंस्कार सम्पन्न नागरिक बना सकती है । परदेश जाते समय महात्मा गांधीको उनकी - ३०२ - Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माताने श्रीमत रायचन्दके मार्ग दर्शनके अनुसार मासाहार न करनेका, मद्यपान न करनेका, परस्त्रीको माताके समान माननेका उपदेश किया था। उसीके कारण वे आगे चलकर राष्ट्रपिता बने । हजारों वस्तुओंसे घरका या बाह्य शरीरका सौन्दर्य बढ़ानेके पहले मनका सौन्दर्य बढ़ाना आवश्यक है। घरको नरक बनाना आसान काम है, परन्तु उसे स्वर्ग बनाना कठिन काम है। जिस घरका प्रत्येक व्यक्ति संस्कार सम्पन्न है, वह घर भले ही गरीबका हो, अलौकिक सुखसे सम्पन्न है, ऐसा मैं समझती हूँ। कुटुम्बमें जो वयोवृद्ध व्यक्ति हो, उनका परिवारके सभी सदस्योंका समूचित सम्मान व आदर करना चाहिए क्योंकि वृद्ध व्यक्ति ही भारतीय कुटुम्ब संस्थाका आधार स्तम्भ है। आरोग्य सभी सुखोंका कारण है। अतः महिलाओंको आसन, योग अथवा स्त्रियोचित कोई व्यायाम करके अपना शरीर सुदढ़ बनाना चाहिये । क्योंकि सुदढ़ माता ही सुदढ़ बालकको जन्म दे सकती है। स्वस्थ व्यक्तिके हो स्वस्थ विचार हो सकते हैं। जहाँ तक हो सके, रसोईका काम माताओंको स्वयं करना चाहिये, क्योंकि उसके हाथसे बने हुए पदार्थों में शुद्धताके साथ-साथ स्नेहरस भी मिला रहता है। सभी महिलाओंको जैन व्रतोंका पालन करना चाहिये। धार्मिक ग्रन्थोंका अध्ययन नियमित रूपसे करना चाहिये। तभी वे अपने बच्चोंको धार्मिक संस्कार और धार्मिक पाठ दे सकती हैं। धार्मिक शिक्षा आजके जगतमें स्कल और महाविद्यालय में मिलना असम्भव है। यदि उन्होंने इस बातका ध्यान रखा, तो पाश्चात्य देशोंमें नवयुवक और नवयुवितियोंमें जो आज नैराश्यकी भावना दिखाई देती है, वह भारतमें नहीं दिखाई देती। कर्त्तव्यपालनके बाद अधिकार उसे प्राप्त करनेका पूराका पूरा अधिकार है। . आजका समाज पुनः करवट बदल रहा है । नारी-जागरणका शंख बज उठा है। वह अपने कर्तव्यका पालन तो करेगी, परन्तु साथमें वह अपने अतीतके खोये हुये गौरव और अधिकारको पानेके लिये प्रयत्नशील है। वह विकासकी सब दिशाओंमें, सब क्षेत्रोंमें तेजीसे अग्रसर हो रही है। अभी तक वह कदम-कदम पर तिरस्कार और अपमानकी ठोकरें खाती आ रही थी, पर अब समय बदल रहा है। वह अब घरकी चहार दिवारीमें बन्द बन्दिनी नारी नहीं रही । अतः महावीरके भक्त श्रमणों व श्रावकोंसे भी मेरी अपेक्षा है कि वे भगवानके उन उच्च आदर्शोका, उपदेशोंका पालन करें। अशिक्षा, अन्धविश्वास तथा दहेश आदि कुप्रथाओंके कुचक्रोंके नीचे नारी जाति कबसे पिसती चली जा रही है । पर अब यह सब नहीं चलेगा। नारीके अधिकार उसे देने ही पड़ेंगे तभी वह समाजको नये स्वर्ण विहानमें ला सकेगी। -- ३०३ - Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHANDERĪ UNDER MALWĀ SULTĀNS. Prof. A. H. Nizami, Rewa The disintegration of the Tughluq Empire and its extinction at the hands of Timur in 1398, had led to the independent rule of a number of provincial dynasties including that of Malwa where Dilawar Khan, had founded the strong and virile kingdom of Mandogarh. Two inscriptions of Prince Qadr Khan (Ghori) dated 1416 and 1420 have been found in Chanderi and Sivapuri respectively and Muhammad Bihamad Khani, the author of the History of Erachh and Kalpi refers to the usurpation of Paniyargarh, a suburb of Jatara, by Qadr Khan's officer, Qazi Junaid and with a view to recover the thana, a military expedition had to be sent by Sultan Qadir Shah of Kalpi. Qazi Khan Badr Muhammad of Delhi who calls himself Dharwal, author of a lexicon, the "Adatul Fudala”, who came to the court of Qadr Khan, the governor of Chanderi from Jaunpur in 1419, pays tribute to the governor for his patronage of poets and scholars there and records the titles of the princely governor as Khan-i-Aazam, Khaqan-i-Muazzam Masnad-i-Aali Qadr Khan ibn Dilawar Khan. It is not clear whether Qadr Khan was holding the gubernatorial office since the days of his father or whether Alp Khan, the heir-apparent, was responsible for this appointment on coming to the throne himself as Sultan Hoshang Shah. Thus Bundelkhand in the fifteenth century was being administered from two centres namely Chanderi under the direct rule of the Malwa Sultan and Kalpi, where the Malikzada Turks held sway in the country horizontally extending from Bhander to Mahoba roughly corresponding to the Jhansi Division (without Lalitpur district) of Uttar Pradesh and the districts of Datia, Tikamgarh, Chhatarpur and Panna (without Pawai Tahsil) of Madhya Pradesh. Chanderi Division of the Malwa Sultanate extended vertically from Shivapuri and Deogarh in the north to Damoh (then including Sagar district) upto the source of the river Kyan. In Garhā near modern Jabalpur, had been founded in the beginning of the fifteenth century a new seat of power by the Rāj Gonds, the nucleus of a kingdom destined to develop in the first quarter of the next century as a powerful political centre under Raja Amhanadas alias Sangram Sah who had the audacity to occupy such places of Malwa State as Damoh, Mariado and Hatta, counted important 'garhs' among the fifty two forts of the Gond ruler whose Chandela daughter-in-law, the Regent Rāni Durgavati, is known to have inflicted a shameful defeat on Sultan Bayazid alias Baz Bahadur of Malwa. 1. I am indebted for this information to my esteemed friend, Dr. Ziyauddin Desai, Director of Arabic and Persian Epigraphy, extracted for my use from the 'Urdu' Magazine of Pakistan Vol. 43 No. 4 (October, 1967). - 304 - Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Parihar oriented phase of Chanderi administration under Sultan Mahmud Khilji I (1436-69) reminds us of Tughluq rule hundred years back. An insurrection of nobles associated with the overthrown ruler of the Ghori dynasty, brought Mahmud Shah himself to Chanderi and not only did he put down the serious rebellion but took further steps to ensure peace and order in the region by advancing the headquarters of the Deputy Governor of Batihāgarh to Damoh further south into the heart of the Byarma valley, the stronghold of the Parihar Rājpūts driving them out further south to the vicinity of Garha. The Khilji Sultans of Malwa seem to have pursued a firm policy of expansion towards the river Kyan as is indicated by the situation of Ghaisabad (Ghyasabad), presumably named after Sultan Ghayas Khilji of Mando (1469-1500) rather than the earlier Ghayas Tughluq of Delhi. A number of Sanskrit and Persian inscriptions of this Sultan and those of his successors, in which the epithet of 'Rajadhirāja' or 'Mahārājādhirāja' is invariably used testify to the effective rule of the Malwa Sultans there. And the pattern set for later governors of Chanderi by the epithets KhaniAazam-Khaqan-i-Muazzam used for Prince Qadr Khan is echoed in later inscriptions and Jain Granth --Prasastis which continued to use similar titles in their corrupt form as Maha Khan-Moj Khan in a stereotyped manner. Some of the holders of these titles were strong, brave and experienced governors. No wonder that the Parihärs of Kotarā in the trans-Kyan region are found concentrated far away in Unchahra while those of the Byarma valley have receded further south towards Garhā. With Naro (Satna district) as the base of his operations, Virasinhadeva Baghelā (1501-31) undertook two expeditions to the southfirst against Sangram Sah Gond of Garhā to punish him for his parricide and the other against the Kalachuri ruler of Ratanpur in Chhattisgarh. In the course of his second expedition Virasińhadeva defeated the local Parihar chiefs (“Parihārarājā') according to the version of Madhava Kavi, the author of the Virabhānūdaya Kävyam, the official history of the Baghela Dynasty of Gahora composed in Sanskrit in the court of Räjā Virabhānu, son and successor of Virasiñhadeva. While the comparatively uneventful rule of Ghayas Shah had retained the vigour of Mando rule during the years following the expansionist policy of Mahmud I, one of the most ambitious monarchs of his times, who styled himself Alauddin, the second Alexander, matters took a turn to the worse in the time of his grandson, Nasir Shah (1500-11), and with the accession of Mahmud II there was a pathetic and pitiable deterioration in the affairs of Malwa with the rebellion of the nobility and the dominance of the Räjpūts followed by Gujarat intervention and the captivity of Sultan Mahmud in the hands of Rana Sanga of Chittor (1518). Meanwhile two new Rajput States of Raisen and Chanderi had come into existence. No wonder, therefore, that the Parihars of south Damoh above were defeated at ease along with the rulers of Ratanpur and Garhā in the vicinity by a powerful ruler like Virasinha Baghela. About the year 1540 Räjä Dalpat Sāh Gond is said to have occupied Singorgarh for his residence first reduced by Sangram Sah. What were the relations of . 39 - 305 - Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Parihar chiefs with the Gond authorities we do not know. It could be surmised from circumstantial evidence, however, that some Parihars took up service under the Gonds and were so much influenced by them that following the example of the Chandela chief of Rath-Mahoba who gave his daughter, the celebrated Durgavati in marriage to Dalpat, the Parihars followed suit, for Lakshman Sen Parihar of Bilahri is said to have married his daughter to some Raj Gond chief whose descendants are known as Khatolähä Gonds (i. e. Gonds of Khatola in Bijawar Tahsil of Chhatarpur district) still living in village Magardha eight miles north-west of Bilahri. Lakshman Parihar lived in the Garhi of Bilahri and the extensive tank called Lakshman Sagar is attributed to him. Cultural Aspects of Chanderi Chanderi epigraphs have yielded only a bare list of kings of the Parihara dynasty ruling for practical purposes independently of the Chandelas or the Paramaras, for the matter of that. Bhelsa was a good trade centre presumably included in the Chanderi kingdom when Alauddin Khilji led a plundering raid against it from Kara in 1292. The fame of Chanderi prosperity seems to have travelled all the way to Delhi when, on the occassion of Alauddin to the throne of his uncle, his boon companion Alaul Mulk, the fat Kotwal of Delhi drew his attention to the conquest of Chanderi along with that of Malwa and Gujarat. And when at last his general, Ainul Mulk Multani, advanced to occupy Chanderi, the Parihar kingdom. succumbed to the superior arms of the Imperial Turks. Ikhtiyaruddin Timar Sultani is mentioned as the governor in a Chanderi inscription of 1312 A. D. and for the next two hundred years or more Chanderi was the centre of authority in north-east Malwa first under the Sultans of Delhi and later under the Sultans of Mando or ruled independently by Medini Rai until it was annexed to his newly acquired dominions by the first Mughal Emperor Babar in 1528. In the absence of Brahmanical Vaishnava records, the only glimpse that we have of the cultural activities in the Chanderidesa pertains to Jain sources. coming to power of the Tughluqs in Delhi, the imperial authority was reinforced by the appointment of a Governor. A strong man like Malik Zulchi, known as the Commander of the Mongol contingent under Sultan Alauddin Khilji, was selected for the post and Batihadim was fixed as the headquarters of a Deputy Governor in the northern Hatta Tahsil of the modern Damoh district in the person of Jalaluddin Khoja who, among other things, established, what Rai Bahadur Hiralal calls, a 'Gomath' or rest house for cattle at his place of posting. This clearly shows Jain influence in the region which was destined to emerge, after a century, as a strong centre of Jain culture with seats of Bhattarakas at Narwar and Sonagir, besides Chanderi itself following the establishment of a strong and virile kingdom at Mandogarh on the disintegration of the Delhi empire of the Tughluqs. The tradi tional importance of Chanderi was maintained or perhaps enhanced with the appointment of a prince of the ruling dynasty in the person of Qadr Khan, the - 306 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ younger brother of the heir-apparent Alp Khan, who succeeded his father Dilawar Khan Ghori to the throne of Mando in 1405 A. D. Qadr Khan patronized the Persian scholar Qazi Khan Badr Muhammad Dharwal who had travelled from Delhi to Jaunpur enroute to Chanderi. The reigning monarch, Hoshang Shah, on the other hand, was quite popular with the Digambar Jain community of Chanderi desa for he is very respectfully mentioned in an inscription of Deogarh dated 1424 A. D. wherein he has been called 'Shah Alam', one of the earlier titles assumed by him before he stuck to that of the better known 'Hoshang Shah'. In the capital of Mando itself a Svetambar Jain family of Oswals figured prominently as scholar-administrators in the court of the Sultans for a period of one hundred years and have left a large number of books written on religious topics in the Sanskrit language. The inscription of Deogarh in question comes from the biggest cultural centre in the region of Chanderi during that period, following the eclipse of Khajuraho as a city of temples on the decline of the Chandela power in the thir teenth century. The inscription pertains to an image in one of the temples and testifies to the policy of religions toleration practised by the Malwa Sultans. A number of inscriptions on Jain images and pattavalis pertaining to two Digambar Sanghas, namely Mulasangha and Kashtha sangha, have been made available by modern scholars, besides grantha prashastis (book colophons) which throw light on the brisk activities of the so-called Bhattarak munis encouraging the chiselling of images, the construction of temples, and the building of chaityalayas and resting places for the munis and travellers during this period in the Malwa dominions of the Sultan including Chanderi desa, another name for Bundelkhand, where minor Jain centres like Udaigiri, Erachh, Ahar and Papaura are known to have flourished. The Chanderi patta or gaddi, founded by Bhattaraka Devendrakirti of the Mulasangha-Saraswati gachchha-Nandi amnaya, has three names in the pattavali which are relevant to us. Devendrakirti, who hailed from Gujarat, was a disciple of Bhattaraka Padmanandi and was first appointed Chanderi Mandalacharya. He is supposed to have established the Chanderi patta some time before the year 1436, the year of the violent change in the ruling dynasty of Mando from the Ghoris to the Khiljis. He is also mentioned in the Deogarh image inscription referred to above. His disciple, Vidyanandi Parwar, entitled Tribhuvanakirti, is believed to have become Chanderi mandalacharya sometime before 1468 A. D. prior to succeeding his master to the Chanderi patta. Tribhuvanakirti's disciple and successor to the Chanderi patta, namely Yashahakirti, is a well-known figure famous as ant author of apabhramsa. He was a contemporary of Shah Ghayas and Shah Naseer, the Khilji monarchs. He often stayed in the Neminath [chaityalaya of the town called Jerhat which has not yet been identified. Four of his works have been discovered, so far, that is the 'Harivansha Purana', the 'Dharmapariksha', the Parmeshthi Prakash Sar' and the "Yogasara'-all of them dated V. 1352/1409 A. D. which refer in their colophons to 'Mahakhan Mojakhan' who could be no other · 307 - Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ than Mallu Khan son of Mallu Khan, the well-known governor of Chanderi during this period. One peculiar feature of the Bhattarakas of the Chanderi patta was that they came from the Parwar caste of the Digambar community, a caste which predominates among the jains in Bundelkhand even today. The patta of Sonagiri (Datia district) was a branch pitha of Gwalior, the greatest and most flourishing Digamber Jain centre in the capital town of the Tomara rulers. The name is supposed to have been derived from Shramanagiri, ascribed to Shramanasena Muni (V. S. 1335). The Bhattarakas of this centre belonged to the Kashtha sangha, Mathur gachcha-Pushkar gana. The first guru, who has found mention in inscriptions dated 1449, 53 and 73 A. D., was Kamalakirti who left a disciple Shubhachandra to succeed him. Jina Taran Taran Swami The fifteenth century of the Christian era is a century of Hindu-Muslims coming together--an intermingling of the two communities and mutual reapproachment. In spite of wars and conquests and lack of a strong central government, there was prosperity all round; grains and other necessities of life were cheap. Sufis of the Chishtiya Order wielded great influence over the masses-Muslims and non-Muslims. Not only did they approach the people through the medium of the mother tongue and compose love poems in the village dialects but before the close of the century, Kayasthas, Khattris and Kashmiri pundits took to learning Persian, the court language and filling the revenue offices of the Sultans. Among the most outstanding provincial kingdoms were those of Jaunpur, Mando and Ahmadabad. Sant Kabir the most radical social reformer hailed from Varanasi in the Sharqi dominions and his verses embodying new ideas were steeped in the Jain-Nathpanthi traditions. He called upon the Brahman-dominated neo -Vaishnavism to fall in line with his principles of cultural synthesis and liberalism in faith and practice leading to mutual tolerance and fraternization of castes and creeds. He not only condemned casteism but made idol worship the target of his attack. Simultaneously with Kabir among Hindu Vaishnavas of Madhyadesa, flourished Lonkasah among the Shvetambar Jains of western India who organized a similar movement of radical reform with his centre at Ahmadabad during the first half of the fifteenth century. Like Kabir in Northern India, Lonka-Sah raised the banner of revolt against the Jain priesthood and called upon them to prove the justification of idol worship on the basis of Jain agama literature. Of his two main disciples, one hailed from Mandogarh, the capital of the Sultans of Malwa through whom the preachings of Lonkasah must have filtered down to the Jain masses in Malwa. Lonkasah's thoughts were, however, echoed from an unexpected quarter by a none too learned Digambar Jain of Chanderi-Damovadesa' in Bundelkhand namely Jina - 308 - Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Taran Taran who is said to have been born in 1448 A.D. at Puhpavati (Pushpavati) another name for Bilahri in Katni Tahsil of Jabalpur district to his Parwar parents. His father Garha Sah retired to Semalkheri near Sironj in the district of Vidisha where Taran was brought up in the house of his maternal uncle. This was the Age of Bhattarakas among Digambar Jains and from the biographical dates of Taran Taran available to us, he was a contemporary of Bhattarak Yashahakirti of the Mulasangha, Taran Taran, however, led a life of isolation from the so-called Bhattarakas who had fallen from the ideals of the ancient munis and had forsaken the rigours of their discipline. Their services to Jain Culture were none too negligible for they promoted the cause of idol making, temple building and manuscripts copying but their life of growing comfort and ease and accumulation of riches had made them indistinguishable from priests for all practical purposes. For instead of moving about constantly, they mostly resided in Chaityalayas and Upasras practising tantra and mantra besides ayurveda and jyotisha. Even the learned among them like Yashahakirti held narrow and reactionary ideas of caste and sex inferiority of sudras and women. Such ideas and practices must have been an anathema to a radical thinker like Taran Taran who, far from conforming to them, took to a life of nude asceticism and practised austerities in forest resorts like Semalkheri and Sukha (Damoh district), besides village Rakh, now called Mallhargarh in Guna district where he passed the best years of his fruitful life attended to by his disciples of all castes and creeds including Muslims among whom two names are prominent- those of Luqman and Ruia Raman who is supposed to have been a cotton ginner or pinjara by profession. Taran Taran was a junior contemporary of Lonkasah of Gujarat and presumably took inspiration from him. Taran Taran has left a dozen books of verse in which he has propounded the philosophy of 'anekant' and 'syadvad' emphasizing the importance of atma as paramatma in the making. There was no place for idol worship in his scheme of religious practice but he refrained from launching a direct attack on the idolatory practiced commonly by the Jain shravakas or householders. The language of his books is a strange mixture of Samskrit, Prakrit, Apabhramsa and Deshi. A collection of these compositions is available in print. Taran Taran breathed his last at the age of sixty seven and his samadhi called Nasiyaji is the chief centre of Taranpanthi community from where radiates the ideology of this greatest saint of the Digambar Parwars. Unfortunately there was no scholar among his disciples who could take up the work of organization of the panth which even today finds itself indebted to persons outside its fold for the work of editing and publishing of and commenting on Taran bani. As far as the Saint Taran Taran himself is concerned, he deserves to be bracketted with Lonkasah and Kabir, his Shvetambar and Vaishnava counterparts. It may not be supposed from the above account of a nonworshipper of idols that idol worship in Chanderi-Damoh had declined among the Jains. On the - 309 - Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ other hand the Bhattarakas had succeeded immensely in their mission of persuading the Jain house-holders to make idols and establish them for worship under the auspices of their gurus so much so indeed that a donor-philanthropist like Jivaraj Papriwal is supposed to have got chiselled single-handed a lakh of Jain images and caused them to be deported to various temples throughout Northern India and there is not a Jain temple but has an image made by Jivaraj Papriwal. These images bearing the inscription of Jivaraj Papriwal of Vikram Samvat 15481491 A. D. are found through out Greater Malwa even today. Hiralal K. B. Imadad Ali H. N. Dwivedi H. N. Dwivedi Shihab Hakeem Dalsukh bhai Malwaniya U. N. Day Bibliography : Damoh Deepak (Hindi). Gazetteer of Damoh District. : Damoh District Gazetteer-Old (1905). Damoh District Gazetteer-New (1974). Gwalior Rajya ke Abhilekha : : : Gwalior ke Tomar. Gwalior State Gazetteer. Hiralal Parmanand Jain Shastri Jain Pustak Prashasti Sangrah, II. Guide to Chanderi. : Epigraphia Indica. E. I. (Persian & Arabic Supplement). : Annual Reports on Epigraphy Annual Reports on Archaeology of Gwalior State. Descriptive List of Inscriptions in C. P. and Berar. : The Anekant, Delhi (Jain Quarterly). Maathir-i-Mahmud Shahi (Sitamau Photostat). Lonkasah (Gujarati) : Medieval Malwa. : The Urdu (Pakistan). Indian Historical Quarterly. : Jain Antiquary. Journal M. P. Itihasa Parishad. -310 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखसार चन्देरी के मालवा सुलतान प्रो० ए. एच. निजामी, रीवा 1398 में तुगलक साम्राज्य के पतन के बाद पनपे अनेक राजवंशों में दिलावर खां द्वारा स्थापित मालवराज भी है । 1416-20 के बीच यहाँ कादर खान का राज्य था जो कवियों और विद्वानों का सम्मान करता था । वस्तुतः पन्द्रहवीं सदी में बुन्देलखण्ड का शासन चन्देरी और काल्पी से होता था । चन्देरी के अन्तर्गत शिवपुरी, देवगढ़, सागर-दमोह और केन नदी के स्रोत आते थे । इसी समय जबलपुर के गढा क्षेत्र में एक नया गोंड राज्य स्थापित हुआ जिसके राजा संग्रामशाह ने मालवा के अनेक दुर्गों सहित 52 किले जीते । यहाँ की रानी दुर्गावती ने मालवा के सुलतान वाज बहादुर को हराया था। इसके बाद महमूद शाह उस क्षेत्र का बादशाह हुआ। बिलजी सुलतान मालवा के क्षेत्र बढ़ाने का प्रयत्न करते रहे। उनके विषय में संस्कृत और फारसी के लेख मिलते है जिनका विवरण जैन प्रशस्तिसंग्रह में दिया गया है। इसके बाद अलाउद्दीन, नासिर शाह और महमूद खां वहाँ के सुलतान बने । अन्तिम सुलतान के समय मालवा राजपूतों के हाथ आ गया। इतिहास से पता चलता है कि मालवा 1312 के बाद सुलतानों और बाद में मुगलों के अधीन रहा है। जैन स्रोतों में चन्देरी देश की सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को झांकी मिलती है । दमोह के क्षेत्र में उस समय जलालुद्दीन खोजा ने एक गोमठ (गौ शाला ) स्थापित की थी। इसके एक शताब्दी बाद सोनागिर और नरवर के भट्टारकों की कृपा से यह क्षेत्र जैन संस्कृति का प्रमुख केन्द्र बना । देवगढ़ के 1424 के लेख से प्रकट होता है कि हुशंग शाह के समय में स्थानीय दिगम्बर जैन समाज को राज्य संरक्षण प्राप्त था । मंडू में ओसवाल श्वेताम्बरों को महत्व प्राप्त हुआ। इससे पता चलता है कि मालवा के सुल्तान धार्मिक सहिष्णुता की नीति पर चलते थे। इस क्षेत्र के भट्टारक मन्दिर और मूर्तियों का निर्माण और प्रतिष्ठा करते ये और इनके समय में ही अहार, पपौरा आदि क्षेत्रों का विकास हुआ। 1436 के पूर्व चन्देरी पट्ट के भट्टारक पद पर मूल संघ के देवेन्द्र कीर्ति प्रतिष्ठित हुए थे। उसके बाद त्रिभुवनकीति और यशःकीर्ति गद्दी पर बैठे यशःकीर्ति ने हरिवंशपुराण, धर्मपरीक्षा, परमेष्ठी प्रकाशसार तथा योगसार नामक चार ग्रन्थ लिखे थे जिनका काल 1495-1582 के बीच माना जाता है । ये भट्टारक परिवार जाति के थे और मल्लूखान के शासनकाल में रहे। ग्वालियर क्षेत्र में 1355 के लगभग सोनागिर पीठ स्थापित हुआ। 1449 में यहाँ के भट्टारक कमलकीर्ति हुए। उसके बाद उनके उत्तराधिकारी हुए। पन्द्रहवीं सदी के पूर्वार्ध में लोकाशाह ने जैनों में मूर्ति विरोधी आन्दोलन प्रारम्भ किया जो बाद में चन्देरी की ओर भी फैल गया। इस क्षेत्र में 1448 में उस समय तारण तरण स्वामी हुए 1 इनका पालन सिरोज और विदिशा में हुआ। ये भट्टारक यशः कीर्ति के समय में हुए थे । जो चैत्यालय और उपासरों में रहते थे और तन्त्र, मन्त्र, आयुर्वेद और ज्योतिष का प्रयोग करते थे । तारण स्वामी ने भट्टारक संप्रदाय के विरोध में एक नयी पद्धति प्रचलित की और उन्होंने बारह ग्रन्थ लिखे लेकिन उनका विशेष प्रभाव इस क्षेत्र के जैनों पर नहीं पड़ा और यहाँ मन्दिर और मूर्तियाँ बनती रहीं। जीवराज पापड़ीवाल ने 1491 1548 के बीच एक लाख जैन मूर्तियाँ बनवाकर उत्तर भारत के कोने-कोने में भेजी । -311 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति के प्रतीकों में कमल और अश्व श्रीमती सुधा अग्रवाल, वाराणसी, ( उ० प्र० ) कमल निर्माण - शक्ति रचनाका प्रतीक है । पृथ्वीकी प्रारम्भिक कल्पनामें पृथ्वीको चतुर्दल कमल अथवा चारपंखुड़ी वाला कमल माना गया है । कमलके बीच कणिका या बीज रूपमें सुमेरु पर्वत की स्थिति है । ऐसा मानते हैं कि यहाँ विश्वकी अनेक वस्तुओं और भावोंके बीजोंका जन्म होता है, इसलिये इसे विश्वबीज मातृका भी कहते हैं । कलाके अतिरिक्त, भारतीय धर्म और दर्शनोंमें भी प्रतीक रूपमें कमलका ज्यादा महत्त्व है । यह अथाह जलोंके ऊपर तैरते हुये प्राण या जीवनका चिन्ह है । सूर्यको किरणें ही कमलको जगाती हैं । ऋग्वेदमें सूर्यको ब्रह्मका प्रतीक कहा गया है । ( ब्रह्म सूर्यसमं ज्योतिः ऋ० २३४८ ) सूर्य प्राणका वह रूप है जो भूतों में समष्टिगत प्राण या जीवन का आवाहन करता है । यह विष्णुकी नाभिसे उत्पन्न होनेवाले बलोंका प्रतीक था जिनसे प्राणका संवर्धन होता है । इसी नाभिसे उत्पन्न कमल पर सृष्टिकर्ता ब्रह्माका विकास हुआ है (ब्रह्म ह वै ब्रह्माणं पुष्करे ससृषं, गोपथ ब्रा०, १ । १ । १६) । कमलके पत्ते या पुरइन बेलको सृष्टि योनि या गर्भाधानकी शक्ति कहा गया है । (योनिर्वै पुष्करं पर्णम्, श० ब्रा० ६।४।१७ ) । कहीं कम विराट् मनका प्रतीक है तो कहीं व्यष्टिगत प्राण शक्तिका । भागवत में सृष्टिका जन्म कमलसे माना गया है और संसारको भू-पद्मकोष कहा गया है । भागवत दो प्रकारकी सृष्टि मानते हैं - एक पद्मजा और दूसरी अण्डजा । पद्मजा जैसा कि नामसे ही स्पष्ट है, क्षीरशायी विष्णुकी नाभिसे होती है जबकि अण्डजा सृष्टि हिरण्यगर्भसे । हिरण्यगर्भ की मान्यता वैदिक है और पद्मकी मान्यता भागवत । वेदके अनुसार पृथ्वी पर अग्नि और द्युलोक में आदित्य -- ये दो बड़े पुष्कर हैं । हरिण्यगर्भकी सृष्टि अग्नि पर और पद्मजाकी सृष्टि जलों पर निर्भर है । हिरण्यगर्भ अग्नि और सोमके प्रतीक थे । पूर्णघटमें अण्डजा और पद्मजा दोनों कल्पनाओंका समन्वय है । मातृकुक्षिसे उत्पन्न होनेवाले शिशुका प्रतीक कमल था । उत्पल, पुण्डरीक, कल्हार, शतपत्र, सहस्रपत्र, पुष्पक, पद्मक इत्यादि नामोंसे कमलका उल्लेख होता है कमलको सूरजमुखीके फुल्ले भी कहते हैं । - रूपककी भाषामें सारी जलराशिको स्त्री-शरीर और कमल योनिवत् माना गया है । शास्त्रीय आधार पर भी, योनिस्थ जरायुका आकार कमल पुष्पकी तरह माना गया है । पुष्पवती होने का आधार यही कमल है । कमल-कुलिश साधना भी कमलके सृष्टिद्वार होनेका पोषक है । स्त्रीत्व और सृष्टिकी भावनाके कारण ही पौराणिक कल्पनामें इसे देवीका संसर्ग प्राप्त हुआ । वेदोंमें देवी उपासना नहींके बराबर हैं। फिर भी, अग्निका उत्पत्तिस्थान कमल ही है । इसीका विकास बादमें पद्मा देवीके रूपमें हुआ । यद्यपि ऋग्वेदमें किसी भी देवीकी आराधना नहीं है, फिर भी उसके सम्पूर्ण रूपमें सर्वप्रथम इसका उल्लेख है । देवीके दो नाम हैं— श्री और लक्ष्मी । राजगण धर्मपत्नीके अतिरिक्त राजलक्ष्मीसे परिणती माने जाते थे । पद्मादेवी विभिन्न संज्ञाओंसे जानी जाती थी जैसे पद्मसम्भवा, पद्मवर्णी, पद्मअरुण, पद्माक्षी, पद्मिनी, पद्मालिनी और पुष्करिणी इत्यादि । अतः लक्ष्मीकी रूपकल्पनाका आधार कमल ही होता है । इन्हीं - ३१२ - - Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञाओंके साथ इन्हें विष्णुपत्नी और हरिवल्लभा भी कहा गया है। कमलसे उत्पन्न कमला विष्णकी शक्ति होनेके कारण वैष्णव कला और वैष्णव कल्पनाकी शक्ति बन गयी। विष्णुके चार आयुधोंमें होनेके कारण विष्णके अंकनके साथ में कमल सर्वत्र अंकित हआ है। कमलप्रिय पद्मप्रिया देवीकी मूर्तियाँ (ई० पू० दूसरी शतीके) साँची और भरहुतके द्वारों और छतोंमें खुदी हुई हैं । भरहुतकी पन्द्रहवीं आकृति गजतक्ष्मी है। जिसके चरण अनेक-दल कमल पर हैं। इसी कमल नालके पाससे दो भारी सी नाले इधर-उधर गई हैं जो पुनः दो भागोंमें बँट गयी हैं। दोनों ओर दो कमल गर्भ पर दो हाथी खड़े हैं और एक-एक कमलका पत्ता बना है। यह गोलाकार कृति है और गोलाकृतिको चार कमल घेरे हुये है। अखिल रूपकी ही एक अन्य ऋचामें इस पद्माके मूल श्रीलक्ष्मीको 'प्रजानो भवसि माता' और 'क्षमा' कहा गया है। क्षमा पृथ्वी है और पृथ्वी हिरण्यगर्भा । कमलको भी हिरण्यगर्भ माना गया है। बसाढ़से प्राप्त एक मूत्ति में विकसित-अविकसित कई प्रकारके कमल हैं परन्तु प्रतिभाओंके पर लगे हैं । साधारणतया मेसीपोटामियाकी मूत्तियाँ पक्षवती होती हैं जबकि भारतके लिये यह नवीन बात है । मोहेन जो-दड़ो और बौद्ध कलामें कमल मोहेन जो-दड़ोकी सभ्यताके प्राप्त प्रतीकोंमें से शैव उपासनाका द्योतक लिंग प्रमुख हैं। शिवकी पूरक पार्वती रूपमें वहाँ कमलधारिणी देवीकी मूर्ति पाई जाती है। ऐतिहासिककी दृष्टिसे यह ऋग्वेदके पहलेकी है। मूत्तिके उरोज उन्नत हैं जिससे मातत्वका बोध होता है इसी कारण इसे जगत् जननी कहा गया है । यह प्राप्तकृति सबसे प्राचीन है जिसमें कमलका उपयोग हुआ है। निःसन्देह रूपसे इस बातकी स्वीकार किया जा सकता है कि मातृत्व और कमलका सम्बन्ध अत्यधिक प्राचीन है। यही भावना बादमें ब्रह्म और लक्ष्मीसे सम्बद्ध देखी जाती है जिसके साथ भी प्रतीक रूपमें कमल और सृष्टिीका भाव सन्निहित है। बौद्धकलामें भी सर्वत्र कमलसे युक्त देवी दृष्टिगोचर होती है। कभी-कभी प्रतीक रूपमें कमल द्वारा ही उसकी सत्ता व्यक्त की गयी है। प्रमुखतः देवीकी संज्ञायें हैं-मद्महस्ता और पद्मरागिणी। महायान बौद्धधर्म में 'पद्मपाणि' बोधिसत्व हैं जिन्होंने बुद्धों की सहायता की। नवीं शताब्दीकी नेपालसे प्राप्त एक प्रतिमाके हाथमें कमल है और यह वरद मुद्रामें है। मृणाल उंगलियोंमें उलझने के बाद भी कुहनी पर आकर टूट गया है। यहाँपर कमल बोधिसत्वकी स्निग्ध-शान्त मनोवृत्ति, असीम दया, अलौकिक देवत्व और पवित्र देवी सौन्दर्यके प्रतीक स्वरूप है। भारतीय बौद्ध परम्पारामें उत्तर मध्यकालीन पद्मपाणि या अवलोकितेश्वरकी मूर्तिकी पीठिका भी कमलयक्त है। सम्भवतः वैष्णव प्रभावसे ही प्रभावित होकर शिल्पियोंने बौद्ध प्रतिमाओंमें कमलको पीठिका रूपमें तैयार किया हो । महायान बौद्धधर्मकी सर्वश्रेष्ठ देवी प्रज्ञा पारमिताकी एक प्रतिमामें, जो १३ वीं शतीकी है तथा जावासे प्राप्त हुई है, पीठिका कमलकी बनी है । यह देवी बुद्धों और बोधिसत्वोंकी मूल शक्ति है। बादकी कलामें कमल कई रूपोंमें अंकित हुआ। गोमूत्रिकाओं (बेलों) में कमलका प्रयोग बहुतायतसे होता था। जहाँ कहीं भी अलंकरणकी आवश्यकता होती थी और सुविधा होती थी, वहाँ कमल किसी-नरूपमें जरूर अंकित किया जाता था। प्राचीन कालमें स्त्रियोंके श्रृंगारका प्रधान पुष्प कमल था जो हस्ते से प्रकट है । अजन्ताके चित्रोंमें तो कमलकी इतनी बहलता है कि चित्रकारको चित्रकारी करते समय बस एक ही पंक्ति 'नव कंज लोचन कंज मखकर कंज पद कंजारुणम्' याद आ रही थी। वैसे भी, भारतीय कवि, चित्रकार, साहित्यकार आदिने कमलकी कोमलता और सुन्दरताका मुख्य आधार माना Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। अशोक स्तम्भकी लाटको कमल पंखुड़ियोंसे ही अकृत किया गया है। गांधार शैलीमें भी कमलकी गोमूत्रिकायें (बेलें) विद्यमान हैं। कहीं-कहीं विकसित कमलके अन्दर मानवीय आकृतियाँ अंकित मिलती हैं। एक मूर्तिमें शेषशायी विष्णुके पैरके पास आधार रूपमें कमल अंकित है। हंसके साथ कमल तो बहुत ही ज्यादा सहज सुलभ है। दमयन्तीने कमल पत्र पर पाती लिखकर हंस द्वारा नलके पास भेजी थी। भरहत और साँचीके रिलीफोंमें हाथी मायादेवीके गर्भ में है और उसके मुखसे टेढ़ी-मेढ़ी कमलकी बेल निकली है । यह मुण्डेरों और चौखटोंके किनारे-किनारे फैली हुई है और उसपर अनेक तमगे, जन्मकथाएँ तथा फलोंकी सजावट है। अनेकानेक पत्तियों, कलियों, विभिन्न विकसित पुष्पों तथा बीच-बीचमें बत्तखोंवाले कमलके पौधोंका अत्यधिक फैलाव भरहुत, साँची, उदयगिरि और अमरावती-हर जगह पाया जाता है। आधिक्यके साथ कोमलता तथा चपलताके साथ गांभीर्यका सम्मिश्रण यूरोपीय नारीकी याद दिलाता है । साँचीके पूर्वी तोरणके बाँयें खम्भे पर कमलके पौधोंके पकने तककी अवस्थाओंका बहुत ही सुन्दर चित्रण है। ____ कमलके फूलते हुए पौधेका लयात्मक ढंगसे झूमना भारतमें जीवनकी अपेक्षा लयका प्रतीक है । साँचीके पश्चिमी द्वार पर कमलको बेलके घने पतोंके मध्य वन्य पशओंकी प्रकृति सन्दरतम है। कमल-लता पौधा-प्रतीकोंमें सबसे अधिक प्रचलित और प्रभावशाली है। यह कमल-लता मन्थर, अबाध और प्रचुर भारतीय वनस्पति जीवनका प्रतीक है। भारतीय संस्कृतिमें कमलकी स्वाभाविक प्रचरता का एक ग भीर अर्थ है । संयुक्तनिकायमें लिखा है, "हे बन्धु, जैसे कमल पानीमें उगता है, पानीमें ही फलता है, पानीकी सतहसे ऊपर उठता है और फिर भी पानीकी सतहसे नहीं भीगता, वैसे ही हे बन्धु, तथागत संसारमें जन्मे इस संसारमें बढ़े, इसी संसारमें ऊपर उठे और फिर भी इस संसारसे अप्रभावित रहे।" बौद्ध कल्पनामें ब्रह्माण्ड है बुद्धके अनेकानेक जन्म और अमर्त्य रूप। ये कमलके पौधेके डंठलों और फूलोंके समान सुन्दर और शाश्वत हैं तथा सांसारिक राग, द्वेष और मोहके कीचड़ और गन्दगीसे उगते हैं। संसार और निर्वाण, अच्छाई और बुराई, सुख और दुःखके चक्र यथार्थकी क्षणिक बूंदें अथवा उफान हैं । जीवन यथार्थ और ज्ञात सीमाओंसे परे एक पर्णताकी ओर सदैव गतिशील है। स्वर्गिक सफेद हाथी. जिसके मुखसे कमलकी बेल निकलती है, यह धीरे-थीरे बिना रुके लयात्मक ढंगसे प्रचुरताकी सृष्टि करती है, निर्वाण की शान्तिका नहीं, वरन् जीवनकी अबाधित हर्षोत्फुल्ल असीम आकांक्षा प्रतीक है। प्रकृतिकी व्यवस्थामें आत्माभिव्यक्ति और आत्मपरात्परताके बोधिसत्त्वका प्रतीक है। अजन्ताके चित्रोंमें जो बोधिसत्त्व हाथमें नीलकमल लिये हए । , संजमके केन्द्रमें अवस्थित है। यहाँ सिरका तनिक भव्य झुकाव, गतिके लिए तनिक स्पन्दित शान्त मुद्रा तथा हाथकी उत्कृष्ट भंगिमा संसारके प्रति बोधिसत्वकी प्रगाढ़ करुणाके प्रतीक है। बोधिसत्व पद्मपाणि मानवके शारीरिक सौन्दर्यका ही नहीं, वरन् आध्यात्मिक और अमूर्त सौन्दर्यका उत्तम नमूना है। कमलकी चौकियों पर खड़ी कुछ बुद्ध की प्रतिमाएँ अमरावती, मथुरा और गांधार-तीनों स्थानों पर मिलती है। सूर्यकी कुछेक खड़ी मूर्तियोंमें धुरीकी जगह कमलने ले ली । गुप्तकालके बाद दो कमलोंसे युक्त मूर्ति भी पूज्य व मान्य हुई। रानीगुप्फा और गणेशगुप्फाके शिल्पकारोंको कमलके फुल्लोंसे विशेष रुचि थी, अतः वेदिका तथा शोभापट्टीमें उनकीरुचि प्रदर्शित हुई हैं। खण्डगिरी पहाड़ी पर अनन्त गुफामें कपिशीर्षक या पंचपट्टिकाके बीचमें त्रिकोणाकृतिका एक सुन्दर कमल पुष्प अंकित है जिसकी बेलमें वेदिका, पुनः कमल, फिर वेदिका इस प्रकारका क्रम है । इनमें -३१४ - Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ ऐसे भी स्तम्भ हैं जिनके सिरे पर औंधे रखे हये कमलोंके लहराते पत्ते वेसनगरके स्तम्भ-शीर्षके सदृश ही हैं । एक अर्धस्तम्भ पर बारह हंस श्रेणीबद्ध हैं, जिनकी चोंचमें कमल पुष्प है। हंस उड़ते हुए दिखाएँ गये हैं। कमलों पर खड़ी श्री लक्ष्मीको मति है। देवीके दोनों ओर उठते हये कमलों पर दो हाथी देवीके अभिषेकके लिये उद्यत दर्शाए गये हैं। नासिककी गुफामें गोतमी पुत्र बिहारके स्तम्भके अत्यधिक सुन्दर दिखनेका कारण है उसका पदावर वेदिकामें आवेष्टित होना। वेदिकाके खम्भों और सूचियों पर कमलकी सजावट मथुराके कंकाली टीलेसे प्राप्त पद्मवर वेदिकाके सदश ही है। लखनऊके राज्य संग्रहालयमें जैन आयागपट्ट पर मध्यमें सर्पफणी पार्श्वनाथ प्रतिमाके दोनों ओर व्यक्ति हाथ जोड़कर खड़े हैं। बाहर गोलाईमें अंगूर, तथा कमलके बेलकी सजावट है। यह प्रतिमा कुषाण कालकी प्रथम शताब्दीकी है। इसी संग्रहालयमें लगभग १० वीं शताब्दीकी उरई (जालोन) से प्राप्त पद्मासनमें ध्या स्थ तीर्थकरके दोनों ओर कंधों पर बाल हैं। प्रतिमा कमलासन पर है। संभवतः प्रतिमा ऋषभनाथकी है। ९वीं शताब्दीकी सर्वतोभद्र तीर्थंकर प्रतिमामें तीन और अन्य तीर्थंकर तथा एक ओर ऋषभनाथकी दिगम्बर प्रतिमा है। यह एक ओर कमल और दूसरी ओर अंगुरकी वेलसे सुशोभित है । एक अन्य वेदिका स्तम्भ पर नीचे कमल तथा उसके ऊपर वेल है। यही पर गुप्तकालका लता, कमल तथा मणिबन्ध आदिसे अलंकृत स्तम्भ भी है।। उपनिषदोंके अनुसार कमल सम्पूर्ण उत्पत्तियोंसे भी पूर्ववर्ती है। विद्याकी देवी सरस्वती' की स्तुति पद्मासने संस्थिताके उच्चारणोंसे की जाती है। ऐतरेय ब्राह्मणमें अश्विनी कुमारोंकी नीलवर्णका कमलहार पहने बताया गया है। भारतका राष्ट्रीयपुष्प कमल भावगतकी प्राचीनतम संस्कृतिसे सम्बन्धित है। अश्व-भारतीय संस्कृतिमें कमल सदन अश्वका भी अत्यधिक जिक्र हुआ है। कहीं कला रूपमें, कहीं यज्ञ के लिए, तो कहीं सिक्कों पर अश्वांकन है। प्राग ऐतिहासिक कालके नव पाषाण युगके चित्रमें युद्धरत योद्धा घुड़सवार हैं। लखनियाँ दरी (मिर्जापुर क्षेत्र) में घड़सवारोंका चित्रांकन है। इसीप्रकार बाँदा जिलेके मानिकपुर स्थानके चित्रोंमें भी घुड़सवार चित्रित हैं। सिंधके किनारे मन्दोरी, गेदाब और घड़ियाला नामक स्थानोंमें चट्टानों पर युद्धरत सशस्त्र योद्धा घोड़े, ऊँट और हाथियों पर हैं । ___ अनुमान है कि सिन्धुघाटीके लोग घोड़ेसे परिचित नहीं थे। मोहन जोदड़ोकी ऊपरी सतहसे प्राप्त एक भोड़ी मूर्तिमें घोड़ेका नमूना है किन्तु यह पहचान सन्देहजनक है। राजा या गृहस्वामी गाय और घोड़ोंको रखनेके लिये स्थान बनवाते थे, ऐसा अथर्ववेदमें वर्णन आता है ( गोभ्यो अश्वेभ्यो नमो यच्छालयां विजायते, अथर्ववेद, ८९।३।३)। महाजनपद कालमें महलोंके पिछवाड़े ही अश्वशाला अथवा राजवल्लभ तुरंगोंको मंदुरा भी थी। जैनियोंके अर्धमागधी आगम साहित्य ( जो पाली . साहित्यके समयका है ) में हयसंघाड़के बनाये जानेका वर्णन है। सिन्धु सभ्यता और शृग्वेदमें वर्णित पशु हाथी, सिंह और वृषभके साथ कहीं-कहीं तुरंग भी हैं। चतुर्तीपी भूगोलकी प्रारम्भिक कल्पनामें पृथ्वीको चतुर्दल कमल माना गया। इसके मध्य बीज रूपमें सुमेरुपर्वत था । सुमेरुपर्वतके पूर्व में भद्राश्व, दक्षिणमें भारत, पश्चिममें केतुमाल और उत्तर दिशामें उत्तर कुरु द्वीप था । भद्राश्वका अर्थ है-कल्याणकारी अश्व । यह उस श्वेत वर्णके अश्वकी याद दिलाता है जो चीन देशमें पूजनीय भी था, साथ ही इसे पुण्य चिह्न भी माना गया। चीन देशकी अनेक सभ्य जातियाँ भद्राश्व या श्वेत अश्वको अपना मांगलिक चिह्न मानती थीं। वहाँकी कलामें यह चिह्न सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसी कारण चीनका नाम पुराणोंमें भद्राश्व हो गया । - ३१५ - Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध परम्परामें इसप्रकारके अश्वको बलाहक कहा गया । बोधिसत्व भी एक बार बलहरस ( वक्लभाश्व ) की योनिमें जन्मे थे और उस रूपमें उन्होंने मृत्युके अन्धकूपमें पड़े हुये ५०० बानरोंका उद्धार किया था । यह कथा बलहरस जातक में दी हुई है। साथ ही, मथुराकी एक वेदिकाके स्तम्भपर इसका चित्रण भी है। प्राचीन भारतीय कलामें ईहामृग या बहुविध आकृतिवाले रूपोंकी कल्पना की गई जिसमें सिंहव्याल, गजव्यालके साथ ही अश्वव्याल भी था। इनमें भिन्न मस्तकके भिन्न शरीरका जोड़ बैठाया जाता था। मध्यकालीन शिल्पग्रन्थोंमें उनकी संख्या १६ कही गयी है। प्रत्येकको १६ मुद्राओंमें अंकित किया गया है। इस प्रकार व्यालरूपोंकी संख्या २५६ तक पहुँची (अपराजित पच्छा २३३।४।६, इति षोडश व्यालानि उक्तानि मुखभेदतः)। चतुर शिल्पी और दन्त्य लेखक इसकी सुन्दरताको बढ़ाते हये अपनी प्रतिभाको भी दर्शाते थे। प्राचीन कपिशा ( बेग्राम ) से प्राप्त दन्त फलकोंपर इन व्यालोंका सटीक चित्रण हुआ है जो कुषाण कालीन गन्धार कलामें लोकप्रिय था। भरहुत, सांची और मथुराकी कलामें ईहामृग पशुओंकी सजावट है । अधिकतर शकलोगोंको ऐसे रूपोंसे विशेष रुचि थी। इसीसे मिलते-जुलते अलंकरणोंको वृषभमच्छ, हरितमच्छ इत्यादिके साथ ही अश्वमच्छ रूपमें मथुराकी वेदिकाके फुल्लोंमें दिखाया गया है । भारतीय पुराणोंकी साक्षीके अनुसार, ये सब रुद्र के प्रथम गण हैं जिनके मुख और अंग अनेक रूपोंमें विकृत हैं । प्रत्येक मनुष्यके चेहरेपर नराकृति है. किन्सु उसके पीछे अपने-अपने स्वभावके अनुसार पशु-पक्षियोंके छिपे हुये चेहरे समझना चाहिये । जिसका जैसा स्वभाव उसका वैसा मुखड़ा, यही इन भेदोंका सूत्र है। इस कल्पनाका मूल ऋग्वेदमें पाया जाता है । बौद्ध साहित्यमें अश्वमुखी यक्षीका उल्लेख आया है ( पदकुसल मागव जातक )। सारनाथके सिंह स्तम्भ,, सिंह संघाटके सदृशकी कार्लेके चैत्यघरमें स्तम्भ शीर्षकोंपर हयसंघाट उत्कीर्ण है (पीठ सटाकर बैठे हुये पशुओंको संघाट कहते हैं )। वैदिक अभिप्रायमें प्रथम चार अश्वोंके रथ पर सूर्यको आरूढ़ दिखाया गया है। पीछे अश्वोंकी संख्या सात तक हो गयी । बोधगया वेदिका पर चतुरश्व योजित रथपर बैठे हुए सूर्यका चित्रण है। भाजा गुफामें द्वितीय शती पूर्वकी एक मूत्ति चतुरश्वयोजित रथमें बैठी हुई है। मथुराकी कुषाणकलामें सूर्यके रथमें दो या चार अश्व दिखाये गये हैं । यही परम्परा गांधार और सासानी कलामें मिलती है। काबुलके समीप खोरखानासे प्राप्त संगमरमरकी सूर्य मूत्तिके रथमें चार घोड़े जुते हैं । गुप्तकालसे लेकर मध्यकालके सूर्य के रथोंमें सात घोड़े पाये जाते हैं । शैशुनाग-नन्द युग ( छठी श० ई० पू० से चौथी श० ई० पू०) की कलामें राजघाटसे प्राप्त चकियामें ( जो अब लखनऊ संग्रहालयमें है ) मातदेवीके बाईं औरका पशु अश्व है। पटनासे प्राप्त चकिया पर तीन समान केन्द्रित वृत्त हैं। इसके दूसरे वृत्तमें १२ पशुओंमें अश्व भी अंकित है। मुर्तजीगंजकी चकियापर भी अश्वका चित्रांकन है । ये चकिया मातृपूजा के लिये प्रतीकात्मक चिह्न या मन्त्र थे । मौर्यकालके ( ३२५-१८४ ई० पू० ) लुम्बिनी उद्यान ( वर्तमान रुम्बिनि देई ) के स्तम्भपर अश्व शीर्षक था । युवाङ चाके अनुसार, यह बिजली गिरनेसे बीच में टूट गया था । यहाँ भगवान बुद्ध शाक्य मुनिका जन्म हुआ था ( हिदे बुधे जाते शक्यमुनि ति )। स्तम्भ शीर्षकोंपर चार महा आजानेय पशुओंकी मूर्तियाँ पायी जाती हैं। चार पशु-अश्व, सिंह, वृषभ और हाथी हैं । इन चार पशुओंकी परम्परा सिन्धुघाटीकी प्राचीनताको छूतो हुई १९वीं शताब्दी तक आती है। इसका देशगत विस्तार भारतसे लेकर लंका, श्याम, वर्मा और तिब्बत तक मिलता है। बौद्ध Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तम्भोंके अलंकारणोंमें इनका बहुलतासे प्रयोग है और महावंशमें इन्हें चतुष्पद पंक्ति कहा गया है । स्तूपकी चन्द्रशिलाओंपर, अनुराधापुरके गुप्तकालीन स्तूपोंकी चन्द्रशिलाओंपर, १८वीं शतीके राजस्थानी चित्रमें ( जो इस समय दिल्ली संग्रहालयमें है ) और १९वीं शतीके बंगालसे प्राप्त एक कन्थे ( इस वक्त भारत कला भवनमें ) आदिपर इस चतुष्पद पंक्तिका सुन्दर अंकन है । कहते हैं, जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि । अतः बौद्ध कल्पनामें ये चार पशु अनवतप्त सरोवरोंके चार द्वारोंके रक्षक हैं जहाँसे चार महानदियोंका उद्गम है। वाल्मीकि रामायणमें इन्हें रामके अभिषेकके लिये एकत्र मांगलिक द्रव्योंमें गिना जाता है। केशवदासने (१७वीं शती ) रामके राजप्रसादके चार द्वारों पर इनका उल्लेख किया है । डा. वासुदेवशरण अग्रवालने अपनी पुस्तक चक्रध्वज में लगभग पचास अवतरण और उल्लेख दिये हैं। आपके चिन्तनके अनुसार लोक भावनामें इन चारों पशुओंको पवित्र समझा जाता था और इनके पीछे जैन, बौद्ध और ब्राह्मण-इन तीनों महान धर्मोंकी मान्यताका भी बल था । शुंगकालीन ( १८४-७२ ई० पू० ) भरहुत स्तूपकी तोरणवेदिकापर अश्वरथ अंकित है । इस काल में पशुओंकी आकृतियाँ दो प्रकारकी प्राप्त हुई हैं एक स्वाभाविक और दूसरी कल्पित जैसे, आकाशचारी अश्व अर्थात् सपक्ष अश्व । उड़ीसाकी खण्डगिरी-उदयगिरीकी गुफायें भी इसी कालकी हैं। इनमें रानीगफाकी शोभापट्टीमे उत्कीर्ण सात चित्र राजेन्द्रलाल मित्र कृत उड़ीसाके प्राचीन अवशेष, खण्ड २ नामक ग्रन्थमें प्रकाशित किये गये हैं । इन चित्रोंमें दृश्य चारमें पट्टके पहले भागमें तीन व्यक्ति, एक अश्व, उसे थामे हुए एक सूत है । राजाकी मृगयाका दृश्य-दुष्यन्त-शकुन्तला कथाका दृश्य इस रोचक दृश्यका सारा रूपक राजा दुष्यन्तका ऋषि कण्वके आश्रममें आगमन, शकुन्तलाको देख उसपर मोहित होना है । गणेश गुटकामें पर्याण और आभूषणोंसे सुशोभित घोडेका दृश्य भी अंकित है। मञ्चपुड़ी गुफामें तोरणपर अलफ मुद्रामें अश्वारोही मत्तियाँ उत्कीर्ण है। इसीकी अनुकृतिपर आगे चलकर व्यालतोरणकी मुत्तियाँ बनने लगी जिसका उदाहरण सारनाथमें मिलता है। अनन्त गुफामें सूर्यकी एक विशिष्ट मूत्ति है जो अपनी दो पत्नियोंके साथ चार घोडोंके रथपर आरूढ़ है। शुगकालके आरम्भिक काल (लगभग दूसरी श० ई० पू०) का केन्द्र भाजा बना। भाजाके बिहारके मुखमण्डपके पूर्वी छोरके प्रवेशद्वारके दोनों ओरकी मूत्तियोंमें एक ओर बाईं तरफ एक राजा चार घोड़ोंके रथ पर सवार है। पीछे चँवर और छत्र लिये दो अनुचर स्त्रियाँ भी हैं। पीतलखोराकी गुफा नं० ४ में दाहिनी ओर हाथीके बराबर एक अश्वारोहीकी काय परिमाण मूर्ति पर दानदाताका नाम खुदा है। यह दूसरी शताब्दीकी मालूम पड़ती है । बेडसाकी गुफाओंके स्तम्भों पर हयसंघाटकी मूर्तियाँ हैं । पेल्लरूनदीके तट पर स्थित जग्गयपेटके महास्तूपके एक पादुकापट्ट पर सुसज्जित अश्वकी आकृति उत्कीर्ण है। शक सातवाहन (प्रथम, द्वितीय शती) कालके हैदराबादको कोण्डापुरसे प्राप्त खिलौनोंमें अश्व भी है जो क्योलिन नामक सफेद मिट्टीका बना है । पहाड़पुरके फलकों पर बंगालके पशु-पक्षी और वृक्ष-वनस्पतियोंका घनिष्ट अंकन है। उनमें हाथी घोड़ा, चम्पक और कदम्ब इत्यादि हैं। महास्थान (जिला बोगरा) से भी कुछ फलक प्राप्त हुये हैं जो उत्तर गुप्तकालीन कालके नमूने हैं । एक मिट्टीके पात्र पर चार घोड़ोंके रथ पर बैठा क्ति तीर-धनुषसे मृग झुण्ड पर वाण बरसा रहा है । १६वीं-सत्रहवीं शताब्दीमें पुर्तगाली सिपाही बंगालके भीतरी गाँवमें जाने लगे। स्थानीय कुम्हारोंने - ३१७ - Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी आकृतियोंको खिलौनोंमें उतारा। जैसोरसे प्राप्त एक फलक पर पुर्तगाली सिपाही घोड़ेपर सवार है। उसके वायें हाथमें घोड़ेकी रास और दाहिनेमें चाबुक है। प्राचीन मांगलिक प्रतीक मूत्तियोंकी रूप कल्पनामें अश्व भी स्वीकृत था। __ अश्वमेधकी परम्परा इस देशमें अति प्राचीन है ऐतिहासिक कालमें भी पुष्पमित्र शुङ्ग, समुद्रगुप्त, कुमारगुप्त आदिने अश्वमेध किये । समद्रगप्तके अश्वमेध-यज्ञकी प्रतिकृति भी मिल गयी हैं जो लखनऊके संग्रहालयमें रखी है। भारतवर्षका दिग्विजय कर समुद्रगुप्तने अश्वमेध-यज्ञ किया था। उसने अश्वमेध स्मारक दिनार (सोनेका सिक्का) चलाया। दक्षिणके अनेक राजाओंने भी अश्वमेध किये। कन्नौजके गहड़वाल राजा जयचन्द्र के भी अश्वयज्ञका उल्लेख हुआ है। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यके बेटे कुमारगुप्त प्रथमने चालीस वर्षों तक राज्य किया और सोनेका सिक्का चलाया । सिक्केमें राजा घोड़े पर सवार हैं । भारतके बीसवीं सदीके ताम्बेके पैसे पर पटमें भी अश्वाकृति थी। आहत मद्राओं पर चिह्नोंके दूसरे वर्गमें चार महा आजानेय पशुओंका चित्र है। चतुष्पाद पंक्तिका प्रतीक बौद्धधर्मके उदयसे बहत पहले ही प्रचलित हो चुका था। इस प्रकार कमल और अश्वका भारतीय संस्कृतिके मांगलिक प्रतीकोंमें मुख्य स्थान था। COM maa Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्डमें जैन-धर्मके प्राचीनतम प्रतीक चन्द्रभूषण त्रिवेदी भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, नई दिल्ली बुन्देलखण्डको प्रकृतिने बड़े ही सुन्दर ढंगसे संजोया है। इस क्षेत्रमें यहाँके शैल-गिरि, गहन-वन और सरिताओंने धर्म एवं संस्कृतिमें महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। यह ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन धर्मोकी जहाँ तपोभूमि है, त्रिवेणी कई सहस्र वर्ष पूर्वसे अबाध गतिसे प्रवाहित होती रही है। विन्ध्य शृखलाओंके मध्यमें बसे इस भूमिखण्डमें विभिन्नताके साथ ही एकरूपताका विराट् दर्शन होता है। यह तपोभूमि पावन वेत्रवती ( बेतवा ), यमुना, दशार्ण ( धसान ), उर्वशी ( ओर ), तमसा ( टमस ), शुम्तिमती ( केन ) सहस्रों वर्षसे जन-मानसको प्रेरित करती हुई पतित-पावन गंगामें मिल जाती हैं। विदिशा तीर्थकर शीतलनाथजीकी जन्मस्थली रही है। मौर्यकालके उपरान्त गुप्तकाल तथा मध्यकालमें यहाँ प्रतिहार, कलचुरि एवं चन्देल नृपोंके कालमें जैनधर्म पूर्ण रूपसे पल्लवित एवं पुष्पित हुआ। प्रमाण-स्वरूप आज भी संभवतः ऐसा कोई ग्राम न हो जहाँ जिन-अवशेष उपलब्ध न हों । पुरातत्वीय प्रमाणोंके आधारपर यह कहा जा सकता है कि ब्राह्मण एवं बौद्ध धर्मोसे पूर्व जैन-धर्ममें सगुणोपासना प्रारम्भ हुई थी। इस सन्दर्भमें मोहँजोदड़ोंसे प्राप्त एक सेलखड़ीकी मुद्रा तथा हड़प्पासे प्राप्त लाल पाषाणका एकबन्ध उल्लेखनीय है । मुद्राके दृश्यका अंकन इस प्रकारका है। एक श्रवण, कायोत्सर्ग मुद्रामें आच्छादित वनमें प्रदर्शित है। वृषभके निकट एक गृहस्थ अंजलिमुद्रामें हैं । इस पंक्तिके नीचे सात पुरुष कायोत्सर्ग मुद्रा में है । इन कलाकृतियोंको निश्चित रूपसे जैनधर्मसे निरूपित करना कठिन है। जब तक कि सिन्धु लिपिका पठन न किया जा सके। इसके अतिरिक्त इतने वर्षोंके गहन अध्ययनके फलस्वरूप भी जिन कलात्मक वास्तु एवं शिल्पीय कृतियोंको मूल भारतीय कला एवं धर्मसे पृथक् करना अत्यन्त कठिन है। इनके मूल सिद्धान्त वेदोंमें निहित हैं। जिन आख्यानोंमें भगवान महावीरकी समकालीन प्रतिमाका उल्लेख मिलता है । कहा जाता है कि वीतमयपतन नगर (जिसकी भौगोलिक स्थिति अस्पष्ट है) के नृपति उद्दामनकी महिषी चन्दन काष्ठसे निर्मित तीर्थकरकी पूजा करती थी। इसी आख्यानका प्रतिरूप भगवान बुद्धके समकालीन कौशम्बीके राजा उदयनसे सम्बन्धित है । ऐसा ही उल्लेख दशपुर नगर (मन्दसौर) के सम्बन्धमें जीवन्तस्वामीकी प्रतिमाका उल्लेख है। इन आख्यानोंका समीकरण पुरातत्वीय सन्दर्भमें नहीं हो सका है। सम्भवतः उस कालमें प्रतिमायें काष्ठ ही की निर्मित की जाती थीं। पुरातत्वीय सन्दर्भ में उल्लेख चेदि राजवंशके महामेघवाहन कुलके तृतीय नृपति खारवेल (प्रथम शती ई० पू०) के उदयगिरि-खण्डगिरिकी गुफाओंमें उत्कीर्ण लेखमें अंकित है। उसके अनुसार खारवेल नन्दराज द्वारा बलपूर्वक ले जाई गई तीर्थकर प्रतिमाको पुनः ले आया था। इसके अतिरिक्त पटना संग्रहालयमें Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोहानीपुर से प्राप्त ओपयुक्त प्रस्तर प्रतिमा जो कि यक्ष परम्परासे वेष्टित है का निर्माणकाल लगभग ई०पू० तीसरी शती में हुआ । मूर्तियों के अतिरिक्त ई० पू० तथा ईस्वी पश्चात् जैन-धर्मावलम्बी मांगलिक चिह्नोंको पूजते थे । उनका ही अंकन आयागपट्टोंमें मिलता है । प्राक् कुषाण एवं कुषाण कालके आयागपट्ट मथुरा ( शौरीपुर ) से प्राप्त हुये हैं । सम्भवतः गहन वनोंमें प्रतिमाओंका निर्माण आसान नहीं था । जिन श्रवण भ्रमणशील होते थे तथा अपना निवास प्रायः गिरि कन्दराओं ही में रखते थे । ऐसी कन्दराओंका प्रमाण जो कि बौद्धधर्म से सम्बन्धित है, सीहोर जिलेकी बुधनी तहसील में पानगुरारिया नामक स्थानमें बहुमात्रामें उपलब्ध । स्तरीय शिलाखण्डों में कन्दरायें प्राकृतिक रूपसे ही निर्मित हो जाती थीं तथा आग्नेय शिलाओंमें निर्माण तक्षण विधिसे ही किया जाता था । लेखकको पुरातत्वीय सर्वेक्षणके फलस्वरूप चन्देरी, जो कि आज भी जैनधर्मावलम्बियोंका अतिशय क्षेत्र है, में प्राप्त हुए हैं । इस महत्त्वपूर्ण खोजसे जैनधर्मका प्रवाह ईस्वी शती पूर्व कालका निर्धारित किया जा सकता है । लगभग एक सहस्र वर्ष पश्चात् इस तीर्थस्थलका पुनः पुनरुद्धार हुआ जिसके फलस्वरूप जन प्रतिमायें एवं देवालयोंका निर्माण देवगढ़ ( पथराड़ी देवगढ़), बूढ़ी चन्देरी, बौन तथा शिवपुरी क्षेत्रमें बहुसंख्यामें हुआ । पन्द्रहवी - सोलहवीं शतीमें ग्वालियर दुर्ग में मरीमाताके समान चन्देरीमें भी विशालकाय प्रतिमाओंका निर्माण तोमर शासकोंके कालमें हुआ । मुस्लिम शासनकाल में जिनालयों का निर्माण विशाल चट्टानोंको काटकर किया गया जिसे खण्डारजी कहा जाता है । इस काल में मालव सुलतान दिलावरखाँ गोरी था । प्राचीन काल में चन्देरी मथुरा तथा विदिशासे जुड़ा था। यह महत्त्वपूर्ण स्थल वनोंसे आच्छादित किले एवं खण्डारजीके शीर्ष भागमें स्थित पठघटियाके नामसे जाना जाता है । सम्पूर्ण शिलाको सात मीटर चौड़ा तथा तीन मीटर गहरा उकेरा गया है । इसका घाटी मार्ग प्रस्तर खण्डोंसे भरा है । सम्भव है कि इन खण्डोंको हटाये जानेके उपरान्त सोपान मार्ग मिल सके । पश्चिमामुखी दीवाल पर दो लेख उत्कीर्ण हैं एक विक्रम संवत १५७१ का तथा दूसरा लेख ब्राह्मी लिपिमें है । अक्षर रचनाके अनुसार यह लेख लगभग दूसरी पहली शती ई० पू० का है । उपर्युक्त लेखके साथ निम्न मांगलिक चिह्न उत्कीर्ण हैं (१) नन्दीपद (नंद्यावर्त), (२) स्वास्तिक, (३) विहग, (४) मीन - मिथुन, (५) पद्म, (६) शंख, (७) त्रिरत्न, (८) वज्र, (९) श्रीवत्स, (१०) ध्वज, (११) तालवृत्त ( व्यजन) अथवा दर्पण । - मिथुनको एक से अधिक बार दर्शाया गया है। उपर्युक्त प्रतीकोंमें से कईकी कल्पना अष्ट मांगलिक चिह्नोंसे की गयी है । तेसि सां तोरणाण उप्पि अठठट्ठ मंगलगा परुणता, तं जहा सोत्थिय, सिरिवच्छ, नन्दियावर्त वद्धमाणग, भद्दासण, मच्छ, दप्पण, जाव, पडिरुवा । उपर्युक्त शुभ प्रतीकोंके अतिरिक्त पठार के ऊपर वृत्ताकार द्रोणियाँ बनी हुयी हैं जिनमें मार्जन हेतु संभवत: जल संगृहीत किया जाता था । मानव संस्कृति के अभ्युदयसे ही पूजनके भावरूपको महत्त्व दिया जाता था न कि हव्य भावको । निर्गुण उपासनाके साथ ही सगुण उपासनाका उद्भव प्रारम्भ हो गया था । जब प्रतीक सर्वसाधारणको बोध करनेमें असफल हो जाते हैं तभी प्रतीकात्मक वस्तु कालान्तर में दो रूपोंमें परिणत हो जाती है एक अतदाकार तथा द्वितीय तदाकार | - ३२० - Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर्युक्त लाच्छन निम्न अरहतोंको निरूपित किये जा सकते हैं स्वस्तिक शीतलनाथ जी ; विहग ( पड़रुवा) सुमतिनाथजी, मत्स्य, अरहनाथजी, पद्म, पद्मनाथजी; शंख, नेमिनाथजी, वज्र, धर्मनाथजी हैं । शेष विशिष्ट मांगलिक चिन्ह हैं जिनमें श्रीवत्स प्रत्येक तीर्थकरके वक्षपर विद्यमान रहता है । अभिलेख बाईं ओर तालवृन्त अथवा व्यजन तथा दाहिनी ओर स्वस्तिक है । अभिलेखका अभिप्राय अस्पष्ट है । इसके आधार पर इन मांगलिक चिन्होंकी तिथि दूसरी पहली शती ई० पू० निर्धारित की जा सकती है । अतः स्पष्ट है कि बुन्देलखण्ड में जैनधर्मका प्रचलन प्राचीन है । इस क्षेत्रमें सर्वेक्षणकी अत्यन्त आवश्यकता है । यह सम्भव है कि यहाँ जैनधर्मके स्तूप तथा प्राकृतिक गुफाओंमें और भी अवशेष मिल सकेँ । लेखकी प्रतिलिपि निम्न है । जिसे भ (ड) क बु पढ़ा गया है ( भारतीय पुरातत्त्व पत्रिका, पृ० ५३-७४, १९७१-७२) । ४१. - ३२१ - Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन प्रतिमाओंमें सरस्वती, चक्रेश्वरी, पद्मावती और अम्बिका डॉ० कादम्बरी शर्मा, गाजियाबाद, (उ० प्र०) ऋग्वेदमें सरस्वती सरित प्रवाहमय बनकर आयी। उसी सरस्वतीको वाक्यका समानार्थी मानते हुए ब्राह्मणोंने सरस्वतीको वाक्की संज्ञा दी और वाक्को वर्ण, पद और वाक्यका प्रवाह माना है । सरित प्रवाह वाक्य प्रवाहमें परिवर्तित हो गया। भाषाकी प्रतीक बनकर वह सब धर्मोकी अधिष्ठात्रीके रूपमें पूजी जाने लगी। सरस्वती हिन्दू, बौद्ध और जैनधर्ममें विभिन्न नामोंसे सुशोभित हयी है। जैन मतावलम्बियोंने इसे श्रता देवीके रूपमें स्वीकार किया है। यह शब्द सरस्वतीके काफी समीप बैठता है। __ वाग्वादिनि भगवति सरस्वती हीं नमः इत्यनेन मूलमन्त्रेण वेष्टयेत् । ___ओं ह्रीं मयूरवाहिन्ये नम इति वागधिदेवता स्थापयेत् ॥ (प्रतिष्ठासारोद्धार) माउन्ट आबू के नेमिनाथके मन्दिरमें सरस्वती वन्दना लिखी हई मिलती है। इस प्रधान देवी सरस्वती के साथ जैन शास्त्रोंमें कुछ अन्य देवियोंका भी उल्लेख है। लेकिन ये यक्षिणियोंके रूपमें तीर्थकरोंकी रक्षिकाओंके रूपमें आती हैं। ये तीर्थंकरोंसे हेय मानी जाती हैं। ये संख्यामें सोलह हैं। इनकी आराधना करनेसे महापुरुषों एवं तीर्थंकरोंके प्रति आदरभाव उत्पन्न होता है । सरस्वतीकी प्रतिमाएँ जैन प्रतिमाओंमें श्रेष्ठ और अधिक मात्रामें प्राप्त श्रुतादेवी सरस्वतीकी कुछ प्रसिद्ध प्रतिमाओंके वर्णनसे पहले इस प्रतिमाके सामान्य गुण एवं विशेषताओंका उल्लेख करते हैं । जैनधर्ममें दो मार्ग हैंश्वेताम्बर और दिगम्बर । ये मूर्तियाँ अधिकतर श्वेताम्बरमार्गीय हैं । जैनधर्ममें केवल तीर्थंकरोंकी दो मुद्रायें मिलती हैं : कायोत्सर्ग और पद्मासन (ध्यानी मुद्रा) । परन्तु सरस्वती प्रतिमाएँ पद्मासन पर खड़ी त्रिभंग, समभंग और ललितासनमें मिलती है । जैन मूर्ति विज्ञानानुसार ही वह नवयौवना एवं सन्तुलित सौन्दर्यकी सजीव प्रतिमा रूपमें ही मिलती हैं। जहाँ जैन तीर्थंकरोंके दो हाथोंको ही मान्यता देते हैं, वहाँ सरस्वतीकी प्रतिमा चतुर्हस्ता भी मिलती है। दाहिना हाथ अभयमुद्रा, दूसरे दाहिने हाथमें अक्षमाला, बायें हाथोंमें पुस्तक तथा एक श्वेत पुण्डरीक मिलते हैं। इसके शरीर पर यज्ञोपवीत, मस्तक पर जटामुकुट और अंग सुन्दर आभूषणोंसे सुसज्जित मिलते हैं । दक्षिणकी होयसालकी प्रतिमायें विष्णुधर्मोत्तरके अनुसार समभंग मुद्रामें, दाहिने हाथमें व्याख्यान मुद्राके अविरक्त बाँसके नालकी बनी वीणा, बायें हाथमें कमलके स्थान पर कमण्डलु है। पटनासे प्राप्त कांस्य मूर्ति ललिता आसनमें बैठी है जिसके दोनों ओर मानव प्रतिमायें बाँसुरी-मंजीरे बजा रही हैं। परमारकी सरस्वती मूर्ति (जो ११वीं सदीकी है) भी ललितासन पर बैठी है। मूर्तिके ऊपर जैन तीर्थकर ध्यान मुद्रामें बैठे हैं। यह मूर्ति स्फटिककी बनी हैं। होयसालकी मूर्ति ज्यादातर काले-चमकीले पत्थरकी हैं । दोनों पत्थर (स्फटिक, काला पत्थर) जैन मूर्तिशास्त्र सम्मत हैं । यह देवी स्वयं वीणावादिनी है। उसके चारों ओर संगीतमय वातावरण उत्कीर्ण हुआ उपलब्ध होता है। उदाहरणके लिए, होयसाल (१२वीं सदी) कालीन केशव मन्दिरकी मूर्ति, सोमनाथकी कर्णाटककी -३२२ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ति और खरीद (म० प्र०) की प्रतिमायें (१०वीं सदी) ली जा सकती हैं जिनमें सीधी तरफ बौना वीणा बजा रही है। देवी संगीतप्रिय भी तो है । मत्स्यपुराणमें देवीके बारेमें लिखा है : वेदाः शास्त्राणि सर्वाणि नृत्यगीतादिकं चयन् । न विहीनं त्वया देवि तथा मे सन्सू सिद्धये ॥ सरस्वती दो हाथकी भी मिलती है। गन्धावल, गोरखपुरकी सरस्वती चमकीले पत्थरकी द्विहस्त मूर्ति है। यह ११-१२वीं सदीकी है। पाला (२४ परगना, बंगाल) से प्राप्त (१०वीं सदी) मूर्ति त्रिभंग मुद्रा में खड़ी है । यह दोनों हाथोंमें वीणा पकड़े हुए है ! इसका शरीर पारदर्शक साड़ीसे पूर्ण रूपसे ऊपरसे नीचे तक एका हुआ है । सरस्वती केवल चार हाथ तक ही सीमित नहीं। जब वह शारदारूपमे चतुःषष्टि कलाकी अध्यक्षाके रूपमें आती है, उस समय उसके पाँच मुख और विभिन्न आयुधोंसे सुशोभित दस भुजायें दिखाये जाते हैं । वैसे विष्णुधर्मोत्तर तथा रूपमंडन आदि पुस्तकोंके अनुसार सरस्वती चतुर्हस्ता, श्वेतपद्मासना, शुक्लवर्णी, श्वेताम्बरी, जटामुकुट संयुक्ता एवं रत्नकुण्डलमण्डिता है। प्राचीनतम सरस्वती मूर्ति मथुराके कंकाली टीलेसे प्राप्त हुई है। यह ईसाकी द्वितीय शताब्दीकी मानी जाती है। यह कुषाण कालीन है । प्रतीकरूपमें यह भीटासे प्राप्त गोलमोहर पर मद्रघटके रूप में अंकित मिलती है। इस पर गुप्तलिपिमें सरस्वती लिखा है। सरस्वतीकी जैन मूर्ति दो प्रकारसे पहचानी जा सकती है। प्रथम, उस पर स्वयं विस्तृत उल्लेख उत्कीर्ण हों। दूसरे, मूर्तिके साथ जैन तीर्थकर दर्शाये गये हों। ब्रिटिश म्यूजियममें प्राप्त सरस्वतीकी प्रतिमाके पीठके ऊपर ध्यानमुद्रामें पाँच तीर्थकर बैठे हैं। यह ११-१२वीं सदीकी है। श्वेतसंगमरमरकी यह मूर्ति त्रिभंग मुद्रामें प्राप्त चतुर्हस्ता चित्र १. सरस्वती, चौहान, १२वीं शती ई० देवी है। इनके दोनों हाथ पैर टूट चुके हैं और बायें हाथम पल्लू, बीकानेर, राजस्थान FE अक्षमाला और नीचेवालेमें पुस्तक है । इसी म्यूजियममें प्राप्त दूसरी मूत्ति सुन्दर है। यह एक अपूर्व वीणा वादन करती सरस्वती प्रतिमा है। सबसे पूर्व भाग कलहंसका है। चतुर्हस्ता देवी अपने ऊपरके दायें हाथमें अक्षमाला, बाएँ हाथमें पुस्तक और नीचे दोनों हाथोंमें वीणा बजा रही हैं। मक सरस्वती प्रतिमाओंकी शृंखलामें प्रतिष्ठित सुन्दरतमकृति १२वीं सदीकी पल्लकी जैन सरस्वती मत्ति है। ये एक ही कालकी एक-सी मिलती-जुलती दो प्रतिमाएँ बीकानेरसे प्राप्त हुई हैं। इनमें एक राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्लीमें तथा दूसरी बीकानेर संग्रहालयमें है। देहली वाली श्रेष्ठतम मूर्ति चित्रमें दी गई है। वह मूर्ति स्फटिक (संगमरमर) की बनी होनेके कारण श्वेताम्बरी तो है ही, यह चतुर्हस्ता भी है। ऊपर -३२३ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाले दाहिने हाथमें श्वेत पुण्डरीक (१६ दलका), बाएँ हाथमें ताडपत्रीय पुस्तक है जो काष्ठ फलक तीन फीटोंमें बन्धी हुयी है। इस हाथकी अन्तिम अंगुलि खण्डित है। दाहिना हाथ, जो वरद मुद्रामें है उसमें खण्डित अक्षमाला धारण कर रखी है। बाएँ हाथमें पुष्पपंक्तियोंसे सुसज्जित कमण्डलु है । उसकी नलकीका अग्रमात्र टूट गया है। साँचेमें ढला देवी का शरीर त्रिभंग मुद्रामें सोने में सुहागेका कार्य कर रहा है। पद्मासनके पद्मके दोनों ओरसे नाल निकले हुये हैं। इस आसन पर वाहन हंस चित्रित है। इसके गले में पड़ी त्रिवलीने अंग सौष्ठवको बढ़ाया है, लम्बी आँखोंमें भाव प्रवणताके कारण वे अर्द्ध मुकुलित हैं । लम्बे गोल हाथकी अगुलियाँ लम्बी कलात्मक हैं। बड़े नाखूनोंसे अंगुलियाँ और भी सुन्दर हो गया है। चेहरे पर सौम्यता एवं नवयौवनकी आभा फूटी पड़ती है । हथेलियों पर पुष्प-तथा सामुद्रिक रेखाएँ अंकित हैं । सरस्वतीकी जैन प्रतिमाएँ आभूषण-सज्जा एवं सुन्दर वस्त्र सज्जाके कारण प्रसिद्ध हैं। यह मूर्ति इसका अद्वितीय उदाहरण है । इसके शीश पर रत्न जटित मुकुट सुशोभित है। इस मुकुटसे निकल कर बाल बड़े कलात्मक ढंगसे जूड़ेके रूपमें बायीं ओर लटक रहे हैं। गलेमें हारोंकी पंक्तियाँ हैं जिनमें फलक हार भी हैं । गोलहाथोंमें आभूषण भुजबन्धसे शुरु होकर कंगन, चूड़ियाँ, अगुलियोंमें अंगुलियाँ तक पहने हुए हैं। आभूषण ठोस और कलात्मक हैं । मुखाकृतिके अनुसार कानोंमें लटकते मोतियोंके झुमके अत्यन्त सुन्दर लग रहे हैं । कानके ऊपरी भागमें मणियुक्त भँवरियाँ धारण किये हुये हैं। ऊपरका नग्न शरीर साँचेमें ढल कर बना मालूम पड़ता है। नीचेके भागमें फलदार किनारेकी कस कर सुन्दर साड़ी बँधी है। यह फलदार साड़ी सुन्दर वनमालाके नीचेसे स्पष्ट होती है। ऊपर कमर सुन्दर कटिसूत्र है। जिसकी सुन्दर दनी पैरों पर लटक रही हैं। लम्बी सुन्दर अंगुलियों युक्त पैरोंमें पादजालक पहने हुए हैं। साडीका कपड़ा अत्यन्त पारदर्शक और असाधारण मालूम पड़ता है । अन्य यक्षिणियाँ (अर्ध देवियाँ) : १. चक्रेश्वरी और उसकी प्रतिमाएँ ___ बी० सी० महाचार्यने अपनी पुस्तक दी जैन इक्नोग्राफीमें हेमचन्द्रका एक उदाहरण देते हुए चक्रेश्वरीका रूप वर्णन किया है । इसका विवरण वासुनन्दीकृत प्रतिष्ठासारसंग्रहमें उपलब्ध होता है : वामे चक्रेश्वरी देवी, स्थाप्या द्वादश-षड्भुजा । धत्ते हस्तद्वये बजे चक्राणि च तथाष्टसु ।। एकेन वीणपुरं तु वरदा कमलासना। चतुर्भूजाऽथवा चक्रं द्वयोर्गरुडवाहना ॥ जैनोंकी यह यक्षिणी ब्रह्मदेवी भी है। गन्धावलमें प्राप्त ऋषभनाथकी शासनदेवी चक्रेश्वरी अद्वितीय है। यह जैन प्रतिमाओंमें विशेष स्थान रखती हैं। इसके बीस हाथोंमें से अधिकतर हाथ खण्डित हैं। बचे हुओंमें आयुध और दोमें चक्रपूर्ण रूपसे स्पष्ट है। इनके पकड़ने का ढंग ध्यान देने योग्य है । यह आभूषणमण्डिता है। राजस्थानमें औशिया ग्राममें ( भुजाएँ हैं। यह सभीमें चक्र पकड़े हुए है। शीर्षके पीछे प्रभामण्डल है। दोनों ओर विधाधर युगल निर्मित हैं। प्रतिमाके ऊपरी भागमें ध्यनमद्रामें स्थित पाँच तीर्थंकरोंकी लघु मूर्तियाँ हैं। दाहिने पैरके पास वाहन गरुड़ विराजमान हैं और बाँये हाथमें सर्पपकड़ा हुआ है। उत्तरप्रदेमें प्रतिहार कालकी प्राप्त मूर्तिमें चक्रेश्वरी ललितासनमें विराजमान है जिसे पूर्ण विकसित कमल दलके रूपमें दिखाया गया है। इसका समय १०वीं सदी है। इसके आठ हाथोंमेंसे छः हाथोंमें चक्र है, निचला दाहिना हाथ वरद मुद्रामें है । बायेंमें फल है । शीशप्रभामें आदिनाथकी मूत्ति है । इसकी पीठिका पर वाहन गरुड़ आलीढ़ मुद्रामें अंकित है। पुरातत्त्व संग्रहालयमें ऋषभनाथकी कई मूत्तियाँ मिलती हैं। -३२४ - Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारीतलाई नामक स्थानसे प्राप्त आदिनाथ ध्यान मुद्रामें हैं । इसके सिंहासनके बायों और यक्षी चक्रेश्वरीकी आसन मूर्तियाँ हैं । परन्तु यहाँ एक आदिनाथकी मूर्ति में यक्षी चक्रेश्वरीके स्थानपर नेमिनाथकी यक्षी अम्बिका का अंकन हुआ है जो असाधारण प्रतीत होता है । यह मूर्ति १०वीं से १२वीं सदीकी चेदिकालीन है । ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दनसे प्राप्त एक मूर्ति में वाहन गरुड़ दाहिने हाथोंमें फलोंका गुच्छा और अक्षमाला, बायें हाथोंमें पद्म तथा परशु हैं । अन्य हाथ खण्डित हैं । यह धमिल्ल रूपमें सुसज्जित है । यहाँकी एक अन्य मूर्ति पूर्व मध्ययुगीन मालूम पड़ती है। इसके दोनों ओर एक-एक सेविका त्रिभंग मुद्रा में खड़ी हैं। ऊपरी भागमें ध्यानी तीर्थंकर हैं । देवीके वाहन गरुड़के दोनों हाथ अंजलिबद्ध हैं । ये दोनों मूर्ति चन्देल कालकी बनी प्रतीत होती हैं। श्वेताम्बर चक्रेश्वरी मूर्तिके आठ हाथ मिलते हैं जिनमें तीर, चक्र, धनुष, अंकुश, वज्र, वरदमुद्रा आदि होते हैं । इसके विपर्यासमें, दिगम्बर बारह और चार हाथकी मूर्तियोंको मान्यता देते हैं । बारह हाथ वाली मूर्ति में आठमें चक्र होते हैं। दो में वज्र तथा एक हाथ वरद मुद्रामें होता है । चतुर्हस्तामें दो हाथमें चक्र दिखायी पड़ते हैं । पद्मावती (यक्षिणी) और उसकी प्रतिमायें हेमचन्द्रने पार्श्वनाथचरित्रमें पद्मावतीके स्वरूपका वर्णन किया है । वह पार्श्वनाथकी यक्षिणी है । गुजरात एवं राजस्थानसे प्राप्त पद्मावतीकी दो मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं । प्रथममें यक्षी पद्मासनमें सर्प के ऊपर तीन फणोंके नीचे बैठी है। ऊपर ध्यानी तीर्थंकर की मूर्ति है । इनके ऊपर के दो हाथों में फल तथा कमल हैं । नीचेका दाहिना हाथ वरद मुद्रा तथा बायेंमें घट है। पैरोंके समीप वाहन कुर्कुट उत्कीर्ण है । यह मूर्ति १७वीं शतीकी है । द्वितीय प्रतिमामें वह गोल आसनमें ललित मुद्रामें बैठी है। उसके ऊपर के हाथों में अंकुश पाश है । विचला दायाँ हाथ वरद मुद्रामें है और बायेंमें फल है । अठारहवीं सदीमें बनी इस मूर्तिके ऊपरी भागमें ध्यानी तीर्थंकर उत्कीर्ण हैं । चित्र २. पद्मावती गाहड़वाल, १२वीं शती, उत्तरप्रदेश उत्तर प्रदेशमें गाहड़वाल कालीन बारहवीं सदीकी प्राप्त पद्मावतीकी मूर्ति मूर्तिकलाका एक अच्छा उदाहरण है (चित्र २) । यह देवी ललितासन पर विराजमान । इसके दायें हाथमें फल तथा बाएँ में सर्प है । इसके शीशके ऊपर भी सर्प है जिसके नौ फण हैं । उसका वाहन सर्प बाँएँ पैरके पास अंकित है । ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दनमें भी एक परमार युगीन (बारहवी सदी) देवीकी मूर्ति है । यह देवी त्रिभंग मुद्रामें सर्प फणोंके नीचे खड़ी है। इसके दाहिने हाथमें एक नाग व तलवारकी मूँठ है जिसमें ३२५ - Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलवार खण्डित हो चुकी है। यह बाएँ हाथोंमें दाल व पद्म पकड़े हुए हैं। देवीने सुन्दर आभूषण धारण कर रखे हैं। शीश और सर्प फणोंके ऊपर ध्यानी तीर्थकरकी मूर्ति है। पैरोंके पास वाहन सर्प बना है। विक्टोरिया एण्ड एलबर्ट संग्रहालय, लन्दनमें प्राप्त देवीकी एक मूर्ति पार्श्वनाथको मेघकुमारसे बचाते हुए नागरागकी पत्नी नागिनी पद्मावतीके रूपमें पाषाणमें उत्कीर्ण हुयी है। यह देवी पार्श्वनाथके वाँयी ओर खड़ी है। इसके हाथोंमें छत्र है जो तीर्थकरके ऊपर उठाए हुये है। यह मूर्ति अपने प्रकारका बेजोड़ उदाहरण है। यह वर्धनकालकी सातवीं शतीकी महानतम कृतियोंमें आती है। अम्बिका और उसकी प्रतिमाएँ __ श्वेताम्बर आचार्य गुणविजय गणिने अपने नेमिनाथचरितमें अम्बिकाका स्वरूप वर्णित किया है। इसीके अनुसार दिगम्बर मतावलम्बी भी इसे सिंहवाहनी द्विभुजा वाली मानते हैं। इसका विस्तृत वर्णन प्रतिष्ठासारसंग्रहालय तथा प्रतिष्ठासारोद्धारमें मिलता है। विचार करनेसे लगता है कि यह देवी सिंहवाहिनी दुर्गा, अम्बा, कुममण्डिता, कुशमण्डीसे मिलती है। इसके बादके दो नाम भी दुर्गाके ही हैं। गन्धावलमें प्राप्त अम्बिकाकी मूर्ति नेमिनाथकी यक्षिणीके रूपमें दिखायी गयी है। इसका केवल ऊपरका भाग मिलता है। इसके कानों में कुण्डल तथा गलेमें हार दिखाये गये हैं। दाहिना हाथ खण्डित है । बाँये हाथमें बालक पकड़े हुए है। आम्रवृक्षके नीचे देवीका अंकन हुआ है। यहाँ बानर फल खाते दिखाये गये हैं। प्रतिमाके ऊपरी भागमें शीश रहित तीर्थंकर अंकित किये गये हैं। यह प्रतिमा पूर्ण रूपसे सुन्दर रही होगी। अम्बिकाकी एक प्रतिमा त्रिपुरासे भी मिली है। देवी वाहनसिंह पर आसीन है। इसके शीशके ऊपर नेमिनाथ भी ध्यानस्थ मूर्ति के साथ उसके दाँयी ओर बलराम और बाँयी ओर कृष्ण अपने आयुधोंके साथ दर्शाये गये हैं। देवीके पैरोंके पास गणपति कुवेर भी प्रतिष्ठित हैं । यह मूर्ति धार्मिक सहिष्णुताका उदाहरण है। अम्बिकाकी एक अन्यमूर्ति बारहवीं सदी (चैदिकाल) की भी मिलती है। जो राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्लीमें है। इसमें अम्बिकाका आसन एक वृक्ष के नीचे दिखाया गया है। इसके गोदमें बालक है। वाहनसिंह बाँये पैरके समीप बैठा है। चतुर्हस्ता देवीके हाथोंमें आम्रलुम्बि व पद्म हैं । इसने खण्डित वस्तुधारण कर रखी है । पेड़के ऊपर ध्यान अवस्थामें नेमिनाथ अंकित हैं। इसके पैरोंके समीप भक्तगण दिखाये गये हैं । काँस्यकी बनी एक जैन अम्बिका मूर्ति तो चालुक्य कला (नवीं सदी) का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है । इसमें अम्बिका अन्य देवियों (चक्रेश्वरी, विद्या देवियों) के साथ आयी है। इसमें पार्श्वनाथ, महावीर तथा ऋषभनाथ अंकित किये गये हैं। इसमें सिंहासनके दाहिनी ओर एक देबी दिखाई गई है और वायी और सिंह पर अम्बिका बैठी है। उनके दाहिने हाथमें आम्रलुम्बि तथा वह बायें गोदमें बालक पकड़े हुये है । सिंहासनकेसामने धर्मचक्र सहित दो मग, भक्त और गहोंका अंकन हुआ है। आकोटामें ग्यारहवीं शतीकी प्राप्त अम्बिकाकी मूर्ति सुन्दर है। वह सिंहपर ललितासनपर बैठी है । इसके दाहिने हाथमें आम्रलुम्बि है । यह बाँये हाथसे छोटे पुत्र प्रियंकरको पकड़े हैं। बड़ा पुत्र शुभंकर बाँयी ओर खड़ा है । शीशके पीछे ध्यानी नेमिनाथकी मूर्ति अंकित है । मालवा क्षेत्रकी परमार कालीन अम्बिका मूर्ति भी सिंहपर ललितासनमें बैठी हैं। ऊपरके दोनों Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथोंमें आमोंके गुच्छे, नीचेवाले हाथमें फल, बाँयेसे बालक पकड़ा हुआ, दूसरा बालक दायीं ओर खड़ा है, ऊपर नेमिनाथकी ध्यानी लघु मूर्ति है। इसके पृष्ठ भागपर १२०३ सम्वत् लिखा है । बिहार में प्राप्त अम्बिकाकी मूर्तिके आभूषण और लटकती साड़ी उल्लेखनीय है । यह यक्षी आमोंसे लदे पेड़ के नीचे खड़ी है । बायें हाथसे छोटा पुत्र प्रियंकर पकड़ रखा है । द्वितीय पुत्र शुभंकर, जिसके दोनों हाथ खण्डित हैं, दाहिने हाथ खड़ा है। वाहन सिंह पद्मासनके पास बैठा है । यह मूर्ति कलाकी दृष्टिसे दशवीं शती (पालकला ) की बनी मालूम पड़ती है । (चित्र ३) । चित्र ३. अम्बिका पाल, १०वीं शती, बिहार कर्नाटकसे दो समान अम्बिका मूर्तियाँ मिली हैं । दोनोंमें अम्बिका आमके वृक्ष के नीचे त्रिभंग मुद्रामें खड़ी हैं । दोनों मूर्तियोंमें इनका एक पुत्र दाँयी ओर सिंहपर बैठा है । दूसरा बाँयी ओर खड़ा है। मूर्तिके दाहिने हाथ में आम्रलुम्बि है और बाँया खण्डित है । दूसरी मूर्ति में दाहिना हाथ टूटा है । बाँयेमें फल हैं । ये बारहवीं शतीकी बनीं मालूम पड़ती हैं । ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दनमें संग्रहीत अम्बिकाकी एक मूर्ति उड़ीसासे प्राप्त हुई है। इसमें एक सुन्दर आम्रवृक्ष के नीचे खड़ी त्रिभंग मुद्रामें अम्बिका मिलती है । यह सुन्दर आभूषण एवं साड़ी पहने हुए हैं । - ३२७ w Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें एक पुत्र प्रियंकर गोदमें तथा दूसरा शुभंकर दाहिने हाथमें आमोंके गुच्छोंको पकड़े हुये पैरोंके पास खड़ा है । मूर्तिके दोनों ओर लताओंके मध्य विभिन्न वाद्योंको बजाती हुई मूर्तियाँ उत्कीर्ण है । ऊपर नेमिनाथ ध्यानी अवस्थामें हैं। नीचे पीठिकापर वाहन सिंह बैठा है । यह ग्यारहवीं शदीकी है । यह अमेरिकाको स्टेणहल गैलरीमें प्रदर्शित मूर्तिसे साम्य रखती है। ___ म्युनियम फर वोल्कारकुण्डे, म्यूनिख, फिलेडोल्फया म्यूजियम आफ आर्ट, एशियन आर्ट म्यूजियम सेन फ्रांसिस्को तथा वर्जीनिया म्यूजियम आफ आर्ट, रिछमोन्डमें अम्बिकाकी बहुत सुन्दर मूर्तियाँ संग्रहीत हैं । इनका उल्लेख कलापारखी विद्वान डा. व्रजेन्द्रनाथ शर्माने अपनी पुस्तक जैन प्रतिमायें में किया है । वास्तवमें, ये मूर्तियाँ इतनी सुन्दर और अनूठी रही होगी कि विदेशी विद्वान भी इनके संग्रहणका लोभ संवरण नहीं कर सके। -३२८ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊनके प्राचीन जैन मन्दिर राकेशदत्त त्रिवेदी भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, भोपाल मध्यप्रदेशके पश्चिमी निमाड़ जिलेमें ऊन नामक ग्रामका जैन अनुश्रुतियोंमें एक महत्त्वपूर्ण स्थान माना गया है । यह स्थान जिलेके मुख्यालय खरगोनसे पश्चिम दिशामें १६ किमी की दूरीपर स्थित है । यहाँ खरगोनसे जानेवाली मुख्य सड़कसे पहुँचा जा सकता है । जैन कथाओंके अनुसार जैनोंके कई निर्वाण क्षेत्रोंमेंसे ऊन भी एक क्षेत्र है जिसका प्राचीन नाम पावागिरि था। इसी स्थानपर सुवर्णभद्र और अन्य तीन जैन मुनियोंने निर्वाण प्राप्त करके इस स्थानको महत्त्व प्रदान किया था जिससे परवर्ती कालमें यह जैन तीर्थों की गणनामें आ सका। आज भी दिगम्बर जैनोंका एक विशाल मन्दिर और उससे सम्बन्धित धर्मशाला इस स्थानके आकर्षण हैं। यहाँ बड़ी संख्यामें जैन तीर्थयात्री आकर ठहरते हैं और पुण्यलाभके लिये पूजा-उपासना करते हैं। इसके अतिरिक्त, पुरातत्त्व जगतमें ऊनका महत्त्व एक विशाल मन्दिर समूहके लिये है जिनमेंसे लगभग बारह प्राचीन मन्दिरोंके अवशेष ऊन ग्राममें और उसके आसपास आज भी देखे जा सकते हैं। ये मन्दिर अधिकांशतः टूटी-फूटी स्थितिमें हैं और कुछके तो स्थानमात्र पहचाने जा सकते हैं। फिर भी, जो कुछ बचा है, उससे इस स्थानके कलात्मक वैभव और मन्दिर निर्माण परम्परापर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। मध्यप्रदेशमें ही नहीं, सारे भारतमें बहत कम ऐसे स्थान हैं जहाँ प्राचीन मन्दिरोंका इतना बड़ा समूह देखा जा सके। इन मन्दिरोंका निर्माण ११वी १२वीं सदीमें मालवाके परमार राजाओंके राज्यकालमें हुआ था जो अपनी स्थापत्य कलाप्रियता तथा कलात्मक एवं साहित्यिक अभिरुचिके लिये विख्यात हैं। इनमेंसे अधिकांश मन्दिरोंकी निर्माणशैली और स्थापत्य संयोजनको भूमिजशैली कहा गया है जिसकी पहचान विशेषतया उसके शिखर विन्यास और अलंकरणोंसे की जाती है। __ ऊनके मन्दिरोंमें दो मन्दिर जैनधर्मसे सम्बन्धित हैं। जिनमेंसे एकको चौबारा डेरा नं० २ या नहल अवरका डेरा और दुसरेको ग्वालेश्वर मन्दिरके नामसे पकारा जाता है। इन दोनों जैन मन्दिरोंकी स्थापत्यशैली भी ऊनके मन्दिरोंसे भिन्न है और दोनों अपनी विशेषताओंके कारण ऊनके मन्दिरोंसे विशिष्ट स्थान रखते हैं। यहाँपर इन्हीं दोनों मन्दिरोंकी स्थापत्य तथा कलात्मक विशेषताओंका उल्लेख करते हुये उनके ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्त्वको स्पष्ट करनेकी चेष्टा की गई है। चौबरा डेरा नं० २-इस प्राचीन जैन मन्दिरके अवशेष ऊनके उत्तरमें एक पथरीले टीलेपर स्थित है और ये खरगोनकी ओरसे गाँवमें प्रवेश करनेके पहले ही अपने भव्यपर खण्डित रूपमें दिखाई पड़ते हैं । इस उत्तराभिमुख मन्दिरको तलयोजनाको पीछेके मूलप्रसादकी ओरसे लेकर बाहरके मुख्य द्वार तक पाँच भागोंमें विभक्त किया गया है जिनको गर्भगृह, अन्तराल, गूढ़मंडप, त्रिकमण्डप और मुखचतुष्की कहते हैं । इन भागोंमेंसे गूढ़मण्डप मध्यमें स्थित होने, मुख्य भागोंमें बीचकी कड़ी होने तथा अपने सर्वाधिक बड़े - ३२९ - Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकारके कारण विशेष रूपसे महत्त्वपूर्ण है। गूढ़मण्डपके दोनों पाश्वोंमें एक-एक द्वार है जिनके सामने स्तम्भोंपर आधारित मुखमण्डप अथवा मुखचतुष्की होनेके संकेत मिलते हैं (चित्र १) चित्र १. चौबारा डेरा नं०२, १२०० ई०, ऊन चित्र २. चौबारा डेरा नं०२:पीठ तथा वेदीबन्धकी अलंकृत पद्रिकायें मन्दिरके बाह्य और आन्तरिक दोनों अलंकरण बड़े प्रभावपूर्ण हैं । उँचाईपर स्थित मन्दिरकी ओर अधिक ऊँचाई प्रदान करने के लिये उसके निम्न भागमें पीठ और वेदीबन्धका संयोजन किया गया है। जिनकी विविध पटिकायें अपने अलंकरणके लिये सराहनीय हैं। पीठकी निम्नतम दो सादी पटिकाओंके ऊपर अलंकृत पट्टिकाओंकी रचना की गई है जिनको प्राचीन स्थापत्य ग्रन्थोंमें (नीचेकी ओरसे) क्रमशः नाड़यकुम्भ, कणिका, ग्रासपट्टी, गजपीठ और नरपीठ नाम दिये गये हैं। इनके ऊपर वेदीबन्धकी पट्टिकायें हैं जिन्हें कुम्भ, Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलश और कपोतिकाके नामोंसे पहचाना जाता है (चित्र २)। इन पट्टि काओंमेंसे गजपीठ और नरपीठकी पट्रिकायें विशेष महत्त्व की हैं जिनका प्रचलन गुजरात और पश्चिम राजस्थानमें सोलंकी राजाओंके स्थापत्यमें बहुतायतसे देखा जा सकता है। मन्दिरके पीठ भागपर राजपीठका प्रतिरूपण राष्ट्रकूट कालीन ऐलोराके कैलाश मन्दिरका स्मरण दिलाता है जिसमें इस अलंकरणका पूर्वरूप देखा जा सकता है। नरपीठ पट्टिकापर अनेकों धार्मिक और लौकिक दृश्योंका चित्रण किया गया है। इसी पट्टिकापर संगीत, नृत्य, रतिचित्रोंके साथ समुद्रमन्थन ऊपाख्यान तथा रामायणके दृश्योंका अंकन भी सफलतासे किया गया है। एक दृश्यमें बालि-सुग्रीवकी दून्दयद्धमें रत दिखाया गया है जिनके साथ धनुषपर शर सन्धान करते हुये राम तथा उनके पीछे लक्ष्मणको अंकित किया गया है (चित्र ३)। यह अंकन जहाँ एक ओर रामायण कथाकी लोकप्रियताका साक्ष्य प्रस्तुत करता है, वहाँ दूसरी ओर व्यापक धार्मिक सहिष्णुताकी भावनाका परिचय देता हैं जिसके फलस्वरूप जैनमन्दिरमें इसका समावेश हो सका है। कुम्भभागपर बनी रथिकाओंपर जैन यक्षियोंकी प्रतिमायें अपने विविध रूपोंमें उत्कीर्ण की गई हैं। चित्र ३. बालि-सुग्रीव युद्ध, रामायणका दृश्य वेदीबन्धके ऊपर मन्दिरका भित्तिभाग, जिसे स्थापत्य ग्रन्थोंमें जंघाभाग कहा जाता है, स्थित है, जिसका निचला भाग मंचिकासे आरम्भ होकर ऊपर कपोतिकामें समाप्त होता है । जंघाभाग पर चारों ओर अलंकृत रथिकायें हैं जिनमें जैन-देवी देवताओं तथा भंगिमापूर्ण अप्सराओंकी मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं। मूल प्रसादके बचे हुये कर्ण भागों (कोनों) पर अष्ट दिग्पालों (इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति; वरुण, वायु, कुबेर और ईशान) का प्रतिरूपण मिलता है। दुर्भाग्यवश मन्दिरका मुख्य शिखर पूर्णतया ध्वस्त हो चुका है, इसलिये बचे हुये अवशेषोंके माध्यमसे उसकी भव्यताका केवल अनुमान लगाया जा सकता है । काय उत्तरकी ओर मन्दिरके मुख्य द्वारके सम्मुख स्तम्भों पर आधारित मुखमण्डप और तीन भागोंमें विभाजित त्रिमण्डपका निर्माण किया गया है जिसके स्तम्भोंका संयोजन और मनोहर अलंकरण विशेष -३३१ - Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपसे दर्शनीय है । इनमें से कुछ स्तम्भ निम्न भागमें चौपहल (भद्रक) हैं और ऊपरकी ओर वृत्ताकार हो गये हैं और कुछ स्तम्भ निम्न भागसे आठ पहल (अष्टास्र) हैं और ऊपरकी ओर अलंकृत वृत्ताकारमें बदल गये हैं । अष्टास्र स्तम्भोंका ऊपरी भाग मूर्तिसहित लघु रथिकाओं, पर्णबन्ध, हंसमाला, ग्रासमुखों और वृत्ताकार पट्टियोंसे सुशोभित है जिनके ऊपर मानवाकृतियोंसे विभूषित स्तम्भशीर्ष छतको रोकनेवाले शिलापट्टोंके आधारका काम करते हैं (चित्र ४)। गूढमण्डपके बाहरी द्वारोंके सिरदलके मध्य (ललाटबिम्ब) में कमलासनमें बैठी जैन प्रतिमा निर्मित की गयी है जिसके ऊपर पाँच लघुरथिकाओंमें जैन यक्षियोंकी मूर्तियाँ दर्शायी गयी हैं । द्वारोंके पार्श्वभाग पाँच शाखाओंमें विभाजित किये गए हैं जिनको पत्रवल्ली, रत्नशाखा, स्तम्भशाखा आदिसे अलंकृत किया है। द्वारकी चौखट (उदुम्बर) के मध्यमें मन्दारक और उसके दोनों ओर कीर्तिमुखोंका प्रतिरूपण पश्चिमी भारतके जैन मन्दिरोंकी अलंकरण पद्धतिका अनुसरण करता है। त्रिमण्डपके द्वारको पार करते ही दर्शक गूढ़मण्डपमें प्रवेश करता है जिसके दो पार्श्वद्वार पूर्व और पश्चिम दिशाकी ओर खुलते हैं । गूढ़मण्डपकी भीतरी छत (वितान) आठ अठपहलू (अष्टास्र) स्तम्भों पर चित्र ४. चौबारा डेरा मं० २, त्रिमण्डपके स्तम्भोंका अलंकरण आधारित है जिनके ऊपर पत्रवल्लीसे अलंकृत सिरदल है। नाभिच्छन्द प्रकारका क्षिप्त वितान गृढमण्डपको ओर अधिक स्थान और भव्यता प्रदान करता है जिसमें ऊपरकी ओर घटते हुए वृत्ताकार पट्ट संयोजित किये गए हैं जिनमें सबसे ऊपर पद्मशिला या लटकता हुआ लम्बन रहा होगा। वितानके गोलाकार चारों - ३३२ - , Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओर पहले अप्सराओंकी मूत्तियाँ विविध भावभंगिमाओंमें लगी हुई थीं जिनकी पीठिकायें वितानके निचले भागमें अब भी द्रष्टव्य हैं । गूढ़मण्डपके पिछले द्वारको पार करनेपर दर्शक गर्भगृहके सम्मुख अन्तरालमें प्रवेश करता है और उसके उपरान्त चौकोर गर्भगृहमें जिसके ऊपर शिखर बिलकुल नष्ट हो चुका है। गर्भगृहके द्वारका अलंकरण वैसा ही है जैसा कि गूढ़मण्डपके द्वारोंका है और इसके भी ललाटबिम्ब पर तीर्थकरकी प्रतिमा और उसके ऊपर पाँच रथिकाओंमें जैन यक्षियोंका प्रतिरूपण मिलता है ।। - इस मन्दिरसे उपलब्ध दो दिगम्बर जैन प्रतिमाओंको कई दशक पूर्व इन्दौर संग्रहालयमें सुरक्षित रखनेके लिए पहुँचा दिया गया है। इनमेंसे एक मत्ति तीर्थकर शान्तिनाथकी है जिसकी पीठिका पर विक्रम संवत् १२४२ (११८५ ई०) की तिथि अंकित है। कायोत्सर्ग मुद्रामें निर्मित यह प्रतिमा सम्भवतः चौबारा डेरा नं० २ के जैन मन्दिरमें स्थापित थी जिससे इस मन्दिरका निर्माण काल निश्चित रूपसे ११८५ ई० ज्ञात होता है। ग्वालेश्वर मन्दिर यह जैन मन्दिर ऊन ग्रामके दक्षिणमें एक छोटी पहाड़ी पर स्थित है और यह आज भी पूजाउपासनाके लिए प्रयोगमें आता है। सम्प्रति इसे शान्तिनाथ मन्दिरके नामसे जाना जाता है। मन्दिरके ANSAR चित्र-५. ग्वालेश्वर मन्दिर, १३०० ई०, ऊन बाहरी और भीतरों भागोंका जीर्णोद्धार इस प्रकार किया गया है जिससे मन्दिरकी प्राचीनता लुप्तप्रायः हो गयी है और उसकी वास्तविक पहचान तभी हो पाती है जब इसके मौलिक भागोंका सूक्ष्मतासे निरीक्षण किया जाय (चित्र-५)। विशेषतया मन्दिरके गूढ़मण्डप और मूलप्रसादका सूक्ष्म दृष्टिसे अध्ययन करनेपर इस प्राचीनताके चिह्न पहचाने जा सकते हैं। इस प्रकार इस मन्दिरको तलयोजना पूर्वोल्लिखित चौबारा डेरा नं० २ के समान ही रही होगी जिसका अनुमान प्राचीन अवशिष्ट भागोंको देखकर लगाया जा सकता है किन्तु बाहरी शिल्प अलंकरणमें यह अपेक्षाकृत सादा है। सामनेका मौलिक अर्धमण्डप अब शेष नहीं -३३३ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा जिसके स्थानपर नवीन मुखमण्डपका निर्माण किया गया है किन्तु चौकोर गूढ़मण्डप और उसके आठ स्तम्भों पर आधारित गोलाकार नाभिच्छन्द वितान अब भी अपनी भव्यताको सुरक्षित रखे खुलनेवाले द्वार भी पूर्ववणित मन्दिरकी संयोजना के समान है । । पार्श्वमें इस मन्दिर के गर्भगृहका तल गूढमण्डपके तलसे लगभग तीस मीटर नीचा है जिसमें बनी हुई सीढ़ियोंसे उतरकर पहुँचा जाता है । गर्भगृहके अन्दर तीन विशाल तीर्थंकर प्रतिमाएँ कायोत्सर्ग मुद्रामें स्थापित हैं । इनका निर्माण चमकीले काले पत्थरसे किया गया है । इन तीनोंमें मध्यमें स्थित सबसे बड़ी प्रतिमा लगभग चार मीटर ऊँची है । पार्श्व में स्थित एक प्रतिमाकी पीठिका पर उत्कीर्ण लेख उसकी स्थापनाकी तिथि विक्रम संवत् १२६३ (१२०६ ई०) दर्शाता है । प्रतिमाओंके पीछेकी भित्ति पर दोनों ओर छोटे-छोटे जीने ने हुए हैं जिनके द्वारा मूर्तियोंका अभिषेक करनेके लिए ऊपर पहुँचा जा सकता है । यह विशेषता अन्य कई जैन मन्दिरों में भी देखी जा सकती है । मन्दिरके शिखरके ऊपरी भागका पर्याप्त जीर्णोद्धार किया गया है । फिर भी, उसकी ग्रीवाके नीचे का कुछ भाग अब भी थोड़ा-बहुत अपने पूर्वरूपमें सुरक्षित है । शिखरके चारों ओर निर्मित उरः श्रृंग और उपशृंग ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे शिखरकी ऊँचाईको धीरे-धीरे उठाते हुए उच्चतम स्तरपर पहुँचा रहे हैं । उरःशृंगों सहित शिखरका आकार खजुराहोके विश्वविख्यात मन्दिरोंके शिखरके समान दिखाई पड़ता है। जिनके प्रभावक्षेत्र में मालवाका यह भू-भाग रहा होगा । ऊनका पूर्ववर्णित दोनों जैन मन्दिर कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण हैं । अपनी अनूठी कला शैलीके अतिरिक्त, ये मन्दिर तत्कालीन धार्मिक सामञ्जस्य एवं सहिष्णुताको भावनाके प्रतीक हैं जिसके फलस्वरूप हिन्दू मन्दिरोंके साथ ही इनका निर्माण और संरक्षण हो सका । चौबारा डेरा नं० २ की स्थापत्य कला, विशेषतया मन्दिर पीठकी पट्टिकाओंके संयोजन, प्रवेशद्वारोंके सामने त्रिकमण्डप निर्माण, स्तम्भोंके अलंकरण तथा द्वारोंकी सजावट पर गुजरातके सोलंकी मन्दिरोंका स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है इस मन्दिरके पीठ भागपर निर्मित गजपीठ और नरपीठकी पट्टिकायें सोलंकी मन्दिरोंकी विशेषतायें हैं जिनका समावेश गुजरात कलाके सम्पर्कका साथी है । इसके साथ ही, इसमें मालवाकी परमार कलाका भी योगदान है जिसके द्वारा उनके अन्य मन्दिरोंका निर्माण किया गया है । ३३४ - Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोबाकी जैन प्रतिमाएँ शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी राष्ट्रीय संग्रहालय लखनऊ, उ० प्र० प्राचीन 'महोत्सवनगर' आजको जनभाषामें 'महोबा' के नामसे प्रसिद्ध है। यू तो इस स्थलीका पूरा इतिहास ही गौरवमय रहा है, परन्तु चन्देलोंके समयमें तो यही प्रशासकीय राजधानी था। ११८२ में यहीं पृथ्वीराज चौहानने अपनी विजय पताका फहरायी थी । १२०३ में कुतुबुद्दीन ऐबकने इसे जीत लिया। वीर काव्योंमें जनमानसके कंठहार आल्हाऊदलका नाम आज भी लोग बड़े जोशमें लेते दीख पड़ते हैं। महोबासे ब्राह्मण, जैन एवं बौद्ध कला कृतियाँ प्राप्त हुई हैं तथा अब भी वहाँ जमीनमें दबी पड़ी हैं । महोबा उत्तरप्रदेशके हम्मीरपुर जनपदमें अवस्थित है। कला जगतमें महोबाका अनुपम स्थान है। यहींसे उपलब्ध सौन्दर्य एवं कलासे परिपूर्ण सारे विश्वको विमग्ध कर लेनेवाली 'सिंहनाद अवलोकितेश्वर'की कीर्तिवर्मनके समयकी बनी प्रतिमासे कौन इतिहासज्ञ, पुराविद् एवं कला समीक्षक परिचित न होगा? यह कलारत्न राज्य संग्रहालय लखनऊके संग्रहकी अमूल्य निधि है। महोबासे जैनमन्दिरों एवं कलापूर्ण मूर्तियों के अनेक अवशेष प्राप्त हुये हैं । चन्देल कालमें यह स्थान एक अच्छा जैन केन्द्र रहा है। यहीसे संग्रहमें आयी १९०४ एवं १९३५ की जैन प्रतिमायें लखनऊ संग्रहालयको भेंटमें मिली थी जिसमें तदानीन्तन जिलाधिकारियों तथा भारतीय पुरातत्त्व विभागके महानिदेशकोंका परामर्श सहायक रहा है। इन जैन प्रतिमाओंका विवेचन यहाँ किया जा रहा है। वैसे तो यहाँके संग्रहमें मथुराकी जैन मूर्तियाँ भी पर्याप्त हैं, किन्तु उनमें अधिकांश कुषाण एवं गुप्तकालीन है। ये प्रारम्भिक स्थितिका ज्ञान कराती हैं। मध्यकालीन जैन प्रतिमाओंका परिचय महोबाकी इन मूर्तियोंके बिना अपूर्ण ही है । यहाँकी शान्तिनाथ तीर्थकरकी दोनों मूर्तियाँ यहींकी हैं। अम्बिका, पद्मावती, यक्षियोंकी प्रतिमायें भी मात्र यहींकी हैं। महोबाकी सन १९०४ में यहाँ आयी जैन मूर्तियाँ जे-८२३से जे-८४६ तक हैं। ये सभी काले चमकीले पत्थरकी बनी हैं कोई भी सम्पूर्ण नहीं हैं। इनमें छह जिन मूर्तियोंकी चरण चौकियोंके अभिलेख प्रकाशित हैं । इन लेखोंमें कुद्दकपुर एवं गोलापुर नामक स्थान, साधु रत्नपाल, त्रिभुवनपाल तथा रूपकार रामदेव और लषनके नाम उल्लेखनीय है । ये मूर्तियाँ भगवान ऋषभ, पद्मप्रभु, मुनिसुव्रत व नेमिनाथकी हैं । एक मति जे-८२८ पर जिननाथ भी उत्कीर्ण पाते हैं। वर्ष १९३५ में जी-३०४ से जी-३२३ तककी जिन प्रतिमायें इस संग्रहालयमें आयी हैं। इनमेंसे कूछके सन्दर्भ' को छोड़कर यहीं सर्व प्रथम प्रकाशित हो रही १. दीक्षित, डॉ० रामकुमार; ५०३२ । २. राष्ट्रीय संग्रहालय, लखनऊ, संख्यक-ओ-२२४ । ३. भगवान महावीर स्मृतिग्रन्थ, उ० प्र०, लखनऊ, १९७५, पृ० २३ । ४. आकिला० सर्वे०, ब्लूम, २१, १९०३-४, नार्दर्न सकिल, पृ०७४ । ५. आकिला० सर्वे रिपो०, १९३६-३९, पृ० ९२, चक्रवर्ती एन० पी० । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। इन जैन मूर्तियोंमें तीर्थंकर ऋषभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ पार्श्व एवं महावीरके अतिरिक्त नेमिनाथकी यक्ष अम्बिका एवं पार्श्वकी शासनदेवी पद्मावती, एक चौबीसी और एक त्रितीर्थी विशेष रूपसे उल्लेखनीय हैं । इन मूर्तियों से आठ प्रतिमाओंके नीचे लेख खुदा पाते हैं । इनके वर्णन यहाँ प्रस्तुत हैं । जी- ३०४—यह नेमिनाथ ( ९२ ३४ सेमी ० ) की कायोत्सर्ग मुद्रामें, काले पत्थरकी प्रतिमा है । इसके नीचे उपासक एवं उपासिका हाथोंमें कमल लिये हैं । उससे ऊपर एक-एक चँवरधारीका रेखांकन है । चरण चौकीके लेखके बीचमें शंखका विलेखन है जो यह पुष्टि करता है कि यह नेमिनाथकी प्रतिमा है । इसका लेखन निम्न है : सम्वत् १२८३ आषाढ़ सुदि ८ (ज) रवी नावरान्वये साधु आल्हभार्या प्रभतयोः पुत्रः साधु आल्हू भार्या इति पुत्र साढं देवपतेनि शंख त्वं प्रणमति ॥ अर्थात् सम्वत् १२८३की आषाढ़ सुदि अष्टमी रविवारको नवरान्वयके साधु जाल्हकी पत्नी आदि नेमिनाथको नित्य प्रणाम करती हैं । जी - ३०५ - यह ध्यानस्थ ऋषभनाथ ( ६६ x ५१ सेमी ० ) की मूर्ति काले पत्थरकी बनी है । इसके नीचे बैल बना है । मूर्तिका श्रीवत्स अन्य मूर्तियोंमें भिन्न प्रकारका है । इसके नीचे निम्न प्रकारका लेख है । चित्र १. आदिनाथकी मूर्ति, महोबा, ११७१ ई० नावरान्वये साधजीज्ञतस्य सुत सेष्ठियासाज्ञणः शीघेतस्य सुत सा सूल्हानिर्त्य प्रणमति १२२८ जेष्ठसुदि १ रूपकार केल्हलः अर्थात् १२२८ जेष्ट सुदि १ को इस मूर्ति की स्थापना की गई तथा मूर्तिकार केल्हल । - ३३६ - म Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी-३२३--यह पाश्र्वनाथ (९८४३९ सेमी०) की खड़ी काले पत्थरकी प्रतिमा है। मल नायक पर सात फण बने हैं, इनमें प्रत्येक पर फूल बना है। प्रतिमा दिगम्बर है। पीठिका लेखके नीचे दो सर्प एक-दूसरेके सामने फण उठाये बनाये गये हैं । सर्पो एवं चँवरधारियोंका रेखांकन है । लेख इसप्रकार है : सम्वत् १२५३ आषाढ़ सुदि ८ रवी नावरान्वये साधु जाल्हसंगिनीगल्हा नित्यं प्रणमति । इन लेखोंका नावरान्वये शब्द महत्त्वपूर्ण है। इसके विषयमें डा० ज्योतिप्रसाद जैनका मत है कि नावरान्वये शब्दका मूल एवं शुद्ध रूप नरवरान्वये प्रतीत होता है। चूंकि यह शब्द उन श्रावकोंके लिये विशेष रूपमें प्रयुक्त हुआ है जिन्होने उक्त प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा करायी थी। इससे यह अग्रोतकान्वये, लम्बकांचजकान्वयादिकी भाँति किसी जाति, गोत्र या अन्वयका सूचक प्रतीत होता है। सम्भावना यह है कि इसे नरवरान्वये वामकी जैन धर्मावलम्बी वैश्य जातिका निवास इसी क्षेत्रमें स्थित प्राचीन नरवरगढसे था जो कि जनश्रतिके अनुसार प्रसिद्ध राजा नलकी राजधानी थी। जी-३०६-यह पद्मासनस्थ जिन (९२ x ५३ सेमी०) की सफेद संगमरमरकी मूर्ति है। इसके लेख अस्पष्ट हैं। जी-३०९-यह ध्यानमग्न पद्मासनासीन (६६ ४ ५२ सेमी०) किसी जिनकी प्रतिमा है जिसे दुग्ध-से श्वेत प्रस्तरसे बनाया गया है। पादचौकीको तीन बड़े-बड़े फूलोंसे सँवारा गया है । मूर्तिका नाक-नक्शा तीखा है । यह लेख रहित मूर्ति है । जी-३०८-यह आसन चौकी (१ मी०x२२ सेमी०) है। इसका प्रस्तर अति हल्का मटीले जैसे रंगका है। इसे संग्रहालय पंजीमें बुद्ध प्रतिमाका आधार लिखा गया था जिसका कारण सम्भवतया यह था कि इसके बीच में दो हिरण बने थे। किन्तु यह शान्तिनाथकी चरण चौकी है क्योंकि बाँयी ओर यक्षी तथा दाँयी तरफ यक्ष बैठे हैं। यक्षी विलासासनमें बैठी है। चतुर्भुजी यक्षीके हाथोंमें कमल, कलश, वरद एवं पुस्तक है। यह अनन्तमती यक्षीका अंकन कहा जा सकता है। नीचे लोका या शोभा खुदा है। यक्ष दो भुजी है । यह नेवला एवं श्रीफल पकड़े बैठा है । देवनागरी लिपिमें इसका लेख यहाँ दृष्टव्य है : रूपसयरविकत्रसातिसितृतसुहितस्त्र विसीस्परिस सहिकयरिकारित । मुखा सम्वत् १३२४ सावन शनौ-। इससे इतना सुस्पष्ट हो जाता है कि सम्वत् १३२४ को शान्तिनाथकी मूर्तिको प्रतिष्ठित किया गया था, किन्तु आज इस मूर्तिका आधारमात्र ही शेष है। मूल मूर्ति भव्य रही होगी, ऐसा पाठिकाके आकार एवं आकृतिको देखनसे प्रतीत होता है। जी-३०९-यह काले पत्थरसे गढ़ी तथा दो हिरणोंके चिह्नोंसे युक्त शान्तिनाथ (६२ x १५ सेमी०) की प्रतिमा भी बड़ी ही लुभानी है। यहाँ इन्हें वस्त्र रहित खड़े दिखलाया गया है। ऊपर केवल वृक्ष विछत्र, हाथीपर सवार विद्याधर एवं सबसे ऊपर देव दुन्दभिवादक बना है। नीचे यक्ष न बनाकर पीछीधारी मुनि बने हैं। जी-३१०-यह पार्श्वनाथ (४२ ४ २५ सेमी.) की अति हल्के मटीले रंगकी सप्तफणोंके नीचे विराजित पद्मासीन ध्यानस्थ भावपूर्ण प्रतिमा है । यहाँ चरण चौकीपर न तो सर्प बने हैं और न ही लेख खदा है किन्तु खिले कमलका सुन्दर अंकन है। सिंह पीछेको मह घुमाये सिंहासनका वाहन कर रहे हैं । बाँयी तरफ पुरुष अर्द्ध पर्यकासनमें बैठा है । दाँयी तरफ नमस्कार मुद्रामें उपासक तथा पीछेकी आकृतिका Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखमात्र ही दीखता है। यहाँ चवरधारियोंका अभाव है और उसी स्थानपर यक्षी पद्मावती एवं यक्ष धरणेन्द्रको बनाया गया है । ऊपर सर्प फणोंपर त्रिछत्र है । इससे ऊपर कमठ है तथा उसके साथ ही नीचे दोनों ही ओर आती धारायें तथा नीचे मालाधारी विद्याधर है। जी-३१२-यहाँ अम्बिका (५० x २० सेमी०) की चतुर्भुजी बनाया गया है जो क्रमशः दर्पण, बालक, आमोंका गुच्छा, पुस्तक (आयताकार) या वाद्य जैसी वस्तु लिये है। नीचे सिंह है, एक अनुचर खड़ा है जिसके उठे हुये हाथपर बालकका पैर है । दोनों ओर उपासक-उपासिका हैं। विद्याधरके स्थानपर दोनों ओर मालाधारिणी विद्याधरी है । अम्बिकाके मस्तकपर आम्रगुच्छों सहित वृक्ष बना है। इसके ऊपर ध्यानासीन नेमिनाथ विराजमान हैं । ये ध्यानस्थ हैं । यह भूरे प्रस्तरको प्रतिमा है। _जी-३१३-यह मूर्ति पार्श्वनाथकी (८२ ४ २८ सेमी०) कार्योत्सर्ग मुद्रामें श्वेत संगमरमरपर बनायी गयी है। चरण चौकीको फलोंसे सजाया गया है। दोनों ओर एक-एक उपासक-उपासिका है । चंवरधारी त्रिभंग मुद्रामें खड़े हैं। इनके केश विन्यास, किरीट तथा मुख मुद्रा देखने योग्य है। मूल प्रतिमाके दोनों पार्श्वपर सर्पको दिखलाया है। किन्तु ऊपर सर्प फण नहीं बनाये हैं। मूल प्रतिमाकी टाँगें सीधी हैं । घुटने स्पष्ट नहीं हैं। चित्र २. पार्श्वनाथ, १२०० ई०, महोबा जी-३१५-यह त्रितीर्थी (२५ x १६ सेमी०) है। यहाँ मूलनायक ऋषभनाथ तथा ऊपर दोनों ओर एक-एक तीर्थंकर ध्यानस्थ हैं। यह सफेद प्रस्तरपर बनी है। तीनों ही जिनध्यानमग्न बैठे हैं। नीचे नरवाहना चक्रेश्वरी ऊपर यक्ष बने हैं। बाँयी तरफका चँवरधारी खण्डित है। इसपर एक लेख श्री सम्वत् ११०३ पखलस्मरो...""है। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी-३१६-इसमें पद्मावती (६०x१० सेमी०) सप्तकणोंके नीचे अद्ध पर्यकासनमें बैठी है। यह चतुर्भुजी है जिनमें वह सनालपद्म, घट खण्डित तथा खिला कमल लिये है। पीठिकापर बाँयी-दाँयी ओर उपासक-उपासिका हैं । बाँयी ओरकी चँवरधारिणीके एक साथमें चँवर तथा दूसरेमें कमल है । दाँयी ओरकी चँवरधारिणीके एक हाथमें चँवर तथा दूसरा कट यावलम्बित है। दोनों ही ओर मालाधारिणी तथा दाँयी ओर विद्याधरदम्पति हवामें उड़ रहे हैं तथा माला लिये हैं। यहाँ बादल (आकाश) का भी आभास दिया है। मध्यमें तीन फणोंके नीचे पार्श्वनाथ हैं जिनके दोनों ओर दो भजी आकृतियाँ बनी हैं। देवी वस्त्राभूषणोंसे मण्डित है तथा उसका मुख तेज विस्तारपूर्ण है। पीछे प्रभामण्डल साटा है। प्रतिमा भूरे पत्थरकी है । इसपर कोई लेख नहीं है। जी-३१८-यह खड़ी महावीर (९२४ ३२ सेमी०) की काले चमकीले पत्थरसे विनिर्मित मूर्ति है। इसके नीचे सिंह तथा प्रत्येक ओर उपासक-उपासिका सभीका रेखांकन है। इसपर निम्न लेख है : चित्र ३. महावीर, महोबा, १२२६ ई० सम्वत १२८३ आषाढ़ सुदि ४ खां नावरान्वये साधु आल्हपुत्र आल्हू तद्भार्या लषमा तस्याः पुत्रः सीढ़ेतस्यार्थे प्रतिमा प्रतिष्ठापिता । अर्थात संवत् १२८३ में लषनके पुत्रने प्रतिमा स्थापित कराई। जी-३१९-यह किसी जिन (४२ x १५ सेमी०) की लघुत्तम प्रतिमा है जो सफेद पत्थरसे बनी है। इसपर कोई लेख नहीं। यह खड़ी प्रतिमा है जिसपर कोई भी चिह्न नहीं बना है। इसपर त्रिछत्र है और कैवल्य वक्ष बना है। चँवरधारियोंके स्थानपर दोनों ओर एकसे सनाल कमलका अंकन है : जी-३२० तथा जी-३२१- इन दो मूर्तियोंमें (६५४ २५; ५६ ४ २५) दिगम्बर जिन खड्गासनमें दर्शाये गये हैं । इनका प्रस्तर सफेद है । त्रिछत्र ऊपर बना है । बाँयी ओर गगनविहारी मालाधारी विद्याधर -३३९ - Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंपति हैं जिनमें पुरुष माला तथा देवियाँ वीणा लिये हैं। चँवरधारियों के स्थानपर सनालकमल हैं। इनके लेख निम्न है : जी-३२० (१) ...''परिमारायः श्रीवासवचन्द्र: प्रणमति । जी-३२१ (२) ..."जिन प्रणमति नित्यं । अर्थात् वासवचन्द्र जिनकी वन्दना करता है । जी-३२२ और ६६-२७३-यह चौबीसी (१०७ सेमी०४७० सेमी०) भरे पत्थरकी बनी है । इसके टुकड़ेका नं० ६६-२७३ है । इसके मूलनायक ऋषभ हैं जो खड़े हैं। इनका शिर खण्डित है। मूल मूर्ति वस्त्रहीन है। सबसे नीचे बाँयी ओर ध्यानस्थ जिन तथा दांयी ओर नरवाहना चक्रेश्वरी प्रतिष्ठित है। यहाँपर यक्षीका दाँयी तरफ होना विशेष महत्त्वपूर्ण है। पीठिकापर चक्र तथा दोनों ओर सिंह बने हैं जो चरण चौकीको वाहित करते हुये बने हैं। एक सर्प फणके नीचे एक जिन दिगम्बर खड़े हैं, शेष सभी बैठे हैं। यहाँ सम्भवतया त्रिछत्रादि रहे हों किन्तु इस समय अप्राप्य ही हैं। दोनों ओरके चँवरधारी त्रि मद्रामें खड़े हैं । इनके वस्त्राभषण, केश, किरीट आदि विशेषरूपसे ध्यान देने योग्य हैं। इन आकृतियोंके मुख इनके विनय भावको दर्शित करनेमें बहुत ही सक्षम हैं जिससे मूर्तिकारको निपुणताकी प्रशंसा करनी ही पड़ती है। इस निदर्शनपर लेख नहीं है किन्तु उक्त मूर्तियोंके आधारपर यह प्रतिहार कालीन प्रतीत होती है। इस प्रकार जी-३०४ से जी-३२३ तक जैन प्रतिमाएँ है। बीचकी जी-३११.३१४.३१९ के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। सम्भव है, इनके धारक अंक अब बदल गये हों या ये अन्य संग्रहालयोंको दी गई हों। ये सारी मूर्तियाँ सम्भवतः संवत् ११०३ से १३२४ की हैं। कुछको छोड़कर सभी काले या श्वेत पत्थरसे बनी हैं। ये चन्देल एवं प्रतिहारयुगीन हैं। इन्हें जिन शिलाओंसे बनाया गया है, वह अत्यन्त कठोर शीतल, स्निग्ध, सुस्वर एवं सुगन्धिसे युक्त है । वसुनन्दि द्वारा विरचित प्रतिष्ठासारोद्धार शीर्षक ग्रन्थके शिलानयण (चयन) अध्यायमें देवविग्रहोंके निर्माणके लिए इसी प्रकारकी शिलाके चुने जानेका वर्णन है ।२ इसका उल्लेख अन्यत्र भी है । सम्पूर्ण संग्रहमें ये ही कुछ मूत्तियाँ हैं जिन्हें किसी धातु (सिक्का, चाभी) या केवल उँगलीसे पीटनेपर धातुका-सा स्वर देती हैं। यह उनकी अपनी विशेषता है जो दर्शकको अचरजमें डाल देती है। उसे भ्रम हो जाता है और पूछता है कि क्या ये धातुकी मूर्तियाँ तो नहीं हैं ? किन्तु प्रस्तरविदोंसे विदित हुआ कि यह प्रकृतिकी स्वाभाविक प्रक्रिया है। कभी-कभी जब पत्थर बननेकी स्थितिमें होता है, तभी यह गुण (स्वर) स्वयं उसमें आ जाता है। ____ अस्तु, एक ओर ये मूर्तियाँ मध्यकालीन जैन मूर्तियोंके अध्ययनको पूर्ण करानेमें अपरिहार्य हैं, वहीं दूसरी ओर ये ध्वनिके कारण दर्शकोंके मनको झंकृत भी करती रहती हैं। fo ज्योतिप्रसाद; भार० इति० एक दष्टि, ५०१९५: वासवचन्द्र कमदचन्द्र आदि अनेक निग्रन्थ दिगम्बर साध थे। खजराहोके धंग चन्देलके समयके एक जैन शिलालेखमें जिन वासवचन्दका उल्लेख है, वे इस लेखके वासवचन्द्रसे अभिन्न प्रतीत होते हैं । यदि ऐसा है, तो यह प्रतिमा १०वीं शतीके मध्यकालकी स्वतः सिद्ध होती है । २. प्रतिष्ठासारोद्धार, अ०-३ श्लोक ७८, भग- नेपिनाथ, जैन मन्दिर, चौकके शास्त्रभण्डारमें सुरक्षित हस्तलिखित पोथी, जिसे श्रीनन्दकिशोर जैनके सौजन्यसे मैं देख सका, एतदर्थ में उनका हृदयसे आभार स्वीकार करता हूँ। ३. डॉ० बालचन्द्र जैन, जैन प्रतिमा विज्ञान, पृ० १३ । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन वास्तु और मूर्तिकला पं० के० भुजबली शास्त्री, विद्याभूषण, मूडबिद्री लार्ड कर्जनको भारतकी शिल्पकलामें बड़ा अनुराग था। उसने अपने शासन-कालमें भारतीय प्राचीन कीर्तिसंरक्षण विभाग स्थापित कर बड़ा उपकार किया। इस विभाग द्वारा कई स्थानोंको खुदाकर प्राचीन स्थापत्यकलाके सुन्दर-सुन्दर नमूने निकाले गये। उसमेंसे नालंदा, तक्षशिला, मोहनजोदरों, हडप्पा आदि प्रमुख है। यहाँकी प्राचीन ऐतिहासिक सामग्रियाँ बड़े महत्वकी हैं। हडप्पा और मोहेनजोदड़ोमें प्राप्त मूर्तियाँ एवं इमारतोंकी निर्माण-कलामें और बैबीलियाकी कलामें कोई अन्तर नहीं है। इन स्थानोंमें जैनोंके भी स्मारक मिले हैं। इनमें से यहाँ कुछ स्थानोंका विवरण दिया जा रहा है। ___ आबू- भारतवर्षकी शिल्पकला विश्वविख्यात है। यहाँके कारीगर एक टाँकी और हथौड़ेसे जो काम कर गये हैं, ऐसा काम इस वैज्ञानिकयुगमें भी असंभव है। यहाँके प्रधान स्थानोंमें से आबूके जैनमन्दिर एक हैं। संख्यामें ये दो ही हैं। मन्दिरोंकी खुदाईका काम बहुतही कलापूर्ण रीतिसे किया गया है । ये दोनों मन्दिर सफेद और आसमानी रंगके पत्थरोंसे बने हुए हैं । इनमें निहायत उमदा खुदाई और नक्काशीका काम किया गया है । मन्दिरोंके सामनेके मण्डपोंमें जो खुदाई और नक्काशीका काम किया गया है, वह महान तथा अवर्णनीय है। कलाविशारदोंका मत है कि पीलखानेके सामने जो जाली बनी हुई है, ऐसी जाली ताजमहलमें भी नहीं पाई जाती। सुना जाता है जिस टोंक पर आदिनाथका मन्दिर बना हुआ है, सिर्फ उसे मन्दिर योग्य बनानेमें छप्पन लाख रुपये खर्च हये थे। इस मन्दिरका काम २४ वर्ष में समाप्त हआ था और २८ करोड़ रुपये खर्च हुए थे। भारतीय तक्षकलाके विशेषज्ञ फर्गुसन साहबने लिखा है कि "इन मन्दिरों की खुदाईसे समानता रखनेवाला भारतवर्ष में सिर्फ ताजमहल ही है।" जैसलमेर किलेके मन्दिर भी कलाकी दृष्टिसे श्रेष्ठ हैं चित्तौरगढ़का जैन कीर्तिस्तंभभी एक दर्शनीय वस्तु है । खुजराहो यहाँके घंटाई जैन मन्दिरकी कारीगरी सबसे महीन है । सातवीं और आठवीं शताब्दियोंमें भारतकी सर्वोच्च कारीगरीका यह मन्दिर साक्षी है। यहाँका पार्श्वनाथ देवालय भी कलाकी दृष्टिसे सर्वोत्तम है। इसके पाखेकी सोभा सर्वथा दर्शनीय है। इस देवालय सम्बन्धी प्रत्येक इंच जगह पर सुयोग्य शिल्पियोंने अपने अपूर्व शिल्पचातुर्यका अनुपम उदाहरण उपस्थित किया है। त्रिकोणाकारमें स्थित इसके कोनेकी शोभा सर्वथा देखने योग्य है। इन मन्दिरोंमें कहीं भी चूनेका उपयोग नहीं किया गया है। पार्श्वनाथ मन्दिरकी सजावटमें जो वैदिक मूर्तियाँ बनी है वे वस्तुतः दर्शनीय हैं। देवगढ़-यह स्थान ललितपुर जिले में है। यहाँके जैन मन्दिर भी दर्शनीय हैं। स्मिथ महाशयके कथनानुसार गुप्तकालीन देवालयोंमें ये सर्वश्रेष्ठ हैं । यहाँकी दीवालोंमें अंकित हस्तकला भारतीय शिल्पकलाके -३४१ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोत्तम उदाहरण हैं। यहाँ पर ३२ देवालय और लगभग २०० शिलालेख मिले हैं । मूर्तियाँ हजारोंकी संख्यामें मौजूद हैं। यहाँकी सरस्वती, चक्रेश्वरी, ज्वालामालिनी और पद्मावतीकी मूर्तियोंका सौंदर्य देखने योग्य है । देवगढ़ में प्राप्त सुन्दर २४ यक्षियोंकी-सी मूर्तियाँ उत्तरभारतमें और कहीं नहीं मिलती हैं । यहाँ पर सुषमा-सुषमा कालीन कल्पवृक्ष और युगलियोंके चित्र भी मिले हैं । प्राप्त २०० शिलालेखोंमें विक्रम संवत् ९१९ का लेख ही सर्व प्राचीन है। अनुमानतः इस क्षेत्रकी स्थिति एकहजार वर्ष तक बहुत अच्छी रही। देवालय नं०१२ में ज्ञानशिलाके नामसे जो एक लेख प्राप्त है, सूना है, कि उसमें अठारह लिपियोंका नमूना मौजूद है। ग्वालियरके निकटवर्ती चन्देरी, जयपुरके निकटवर्ती सांगानेर आदि स्थानोंके देवालय भी कलाकी दृष्टिसे बहुत सुन्दर हैं । मथुरा (कंकालीटीला) यहाँका जैन स्तूप दूसरी शतीका है । मथुराकी कुषाणकालीन कलाओंमें यह जैन स्तूप सर्वश्रेष्ठ है । इसे देवनिर्मित कहा गया है । “तीर्थकल्प" में इसका विशेष वर्णन मिलता है। इसमें लिखा है कि सुपार्श्वनाथ की स्मृतिमें स्तूपको कुबेरने सुवर्णसे बनाया है। "तीर्थकल्प" के कथनानुसार ८वीं शती तक यह स्तूप मौजूद था । बौद्ध स्तूपोंसे यह प्राचीन है । १७वीं (सत्रहवीं) शती तक मथुरामें जैनकला विकास पर थी। मथुरामें आयगपट, तोरणद्वार, वेदिकास्तंभ, द्वारस्तंभ आदि बहुत-सी चीजें मिलती हैं। इनमें खासकर आयगपट विशेष उल्लेखनीय है । आयगपटोंमें अष्टमंगल, दिक्कनिकाएँ आदि बहुत ही सुन्दर ढंगसे चित्रित हैं। शंगकालसे लेकर गुप्तकाल तक इतनी विपुल जैन सामग्री अन्यत्र उपलब्ध नहीं हुई है। इस सामग्रीसे तत्कालीन जनजीवन, आमोद-प्रमोद, वेषभूषण आदि सामाजिक बातोंका भी ज्ञान होता है। कुषाणकालीन मूर्तियोंके नीचे अधिकतर ब्राह्मी लिपिके लेख हैं और इनकी भाषा संस्कृत तथा प्राकृत मिश्र है। यहाँकी मूर्तियोंमें सरस्वती, आर्यवती और नैगमेशकी मूर्तियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। मथुराके वेदिकास्तम्भोंके ऊपर जो चित्र अंकित हैं, उनमें तत्कालीन आनन्दमय लोकजीवनके सुन्दर उदाहरण मिलते हैं । इन चित्रोंमें विविध आकर्षण भंगिमाओंमें खड़ी हुई महिलाओंके चित्र ही अधिक हैं। एक फूल तोड़ रही, दूसरी स्नान कर रही है, तीसरी अपनी गीलीकेशराशिको सुखा रही है, चौथी अपने कपोलमें लोध्रचूर्ण लगा रही है, पाँचवीं वृक्षकी छायामें बैठकर वीणा बजा रही है, छठी बंसुरी बजा रही है, और सातवीं नृत्य कर रही है । वस्तुतः ये वेदिकास्तम्भ कलात्मक शृंगारोंसे मुक्त माधुर्यके जीवित उदाहरण हैं । प्रथम सतीसे पाँचवी सती तकका काल मथुराकी मूर्ति कलाका सुवर्ण युग ही है। प्राकृतिक सौंदर्य सम्पन्त पर्वत, नदी, जलपात, कमल, अशोक, कदम्ब, बकुल, नागकेसर, चम्पक आदि लतावृक्ष एवं सघन अरण्योंमें स्वच्छन्द विहार करनेवाले पशु पक्षी-इनके द्वारा मथुराके शिल्पियोंने प्राकृतिक उपकरणोंके साथ अमूल्य मानव सौंन्दर्यको सामंजस्य रूपसे प्रपंचित किया है। सौंदर्यकी अनिन्दित साधन रूप नारीको चित्रित करना प्राचीन जैनकलाका एक वैशिष्ट्य है। धर्म की रक्षा और प्रसारमें प्रत्येक कालमें महिलाओंने क्रियात्मक भाग लिया है। इस कार्य में महिलाएँ पुरुषोंसे पीछे नहीं थीं। मथुरामें महिलाओंके द्वारा निर्मापित चिरस्मरणीय हजारों कलाकृतियाँ प्राप्त हई हैं । लोकद्वयमें कल्याणापेक्षणीय इन महिलाओंमें मणिकार, लोहकार आदि निम्न जातिकी भी मौजूद थीं। यहाँका एक सुन्दर आयगपट एक वेश्याकी पुत्री लवणशोभिकाके द्वारा बनवाया गया था । यहाँपर नर्तकी आदि सभी वर्गोंकी महिलाएँ धर्मकार्यमें भाग लेती रहीं। अचला, कुमारमित्रा, गृहत्री, गृहरक्षिता, शिवमित्रा, शिवयशा आदि यहाँपर दानदात्री महिलाओंके सैकड़ों नाम मिलते हैं। खासकर आर्यिकाएँ इन महिलाओंको प्रेरणा करती रहीं । गुप्त, चालुक्य, राष्ट्रकूट और पांड्य आदि अनेक राजवंशोंने - ३४२ . Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकलाको उन्नतिमें योगदान दिया। इन वंशोंके शासकोंमें सिद्ध राज, जयसिंह, कुमारपाल, अमोघवर्ष, अकालवर्ष और मारसिंह आदि प्रमुख हैं । जिनसेन, गुणभद्र आदि आचार्य इनके प्रेरक रहे । ग्वालियरगढ़ .. तोमरवंशी डुंगरेन्द्र देवके राज्यकालमें यहाँकी बहुमूल्य विशाल मूर्तियोंका निर्माण स्थानीय समृद्ध भक्तोंके द्वारा कराया था । मूर्तियोंकी चरण-चौकियोंपर निर्माताओंने अपने नामके साथ-साथ अपने नरेशका नाम भी अंकित किया है । मूर्तियाँ विक्रमीय १५-१६वीं शतींकी हैं । डुंगरेन्द्रदेवके सुपुत्र कीर्तिसिंहके राज्यकालमें यहाँकी शेष मूर्तियोंका निर्माण हआ। इन मूर्तियोंमें अरवाही-समूह अपनी विशालतासे तथा दक्षिण पूर्व समूह अपनी अलंकृत कलाद्वारा हमारा ध्यान आकर्षित करता है। ___ अब दक्षिणकी ओर चलिये । दक्षिणमें श्रवणबेलगोल्ल, हलेबीडु, कार्कल और वेणूर आदि स्थानोंके जिनालय द्राविड और चालुक्य कलाके अनुपम रत्न हैं। हलेबीडुके देवालयके बारेमें स्मिथ महाशयका कहना है कि “ये देवालय धर्मशील मानवजातिके परिश्रमके आश्चर्यजनक साक्षी हैं। इनकी कला कुशलताको देखकर तृप्त नहीं होते।" कलाविशारद एन० सी० मेहताका कहना है कि "बेलूरका भारत विख्यात विष्णुमन्दिर भी मूलमें जैनमन्दिर ही था।" ___ मूडबिद्रीका चन्द्रनाथबसदि, कारकलका चतुर्मुख बसदि और वेणूरका शान्तिनाथ बसदि-ये सब कलाकी दृष्टिसे बहुत ही सुन्दर हैं। इनके अतिरिक्त विजयनगर, भटवल, गेरूसोप्पे, हुबुज, वरंग आदि स्थानोंमें भी अनेक शिलामय प्राचीन जैनदेवालय मौजूद हैं। गफलामन्दिर जैन गुफा मन्दिरों में सबसे प्राचीन उड़ीसाके भुवनेश्वरके पास खंडगिरि-उदयगिरिकी गुफाएँ हैं । बादामी, मांगी-तुंगी, ऐलोरा आदिकी जैनगुफाएँ बादकी हैं। कारीगरीके लिहाजसे जैनमंदिर बहुत सुन्दर हैं। इनमें पत्थरका बढ़िया शिल्प है। बेलगाँव, धारवाड, उत्तरकन्नड, हासन और बल्लारी जिले में भी बहुतसी जैन गुफाएँ मौजूद हैं । जैनमूर्तिकला इस कलाके सम्बन्धमें इस कलाके विशेषज्ञ एन०सी० मेहता आई०सी० एस० के शब्दोंमें ही सुन लें "नन्दवंशके राज्यकालसे लेकर पन्द्रहवीं शती तक हमारी शिल्पकलाके नमूने मिलते हैं। वे ललित कलायें अपने स्थापत्य और प्रतिमाकलाके इतिहासमें विशेष महत्त्वकी हैं। इनमें भी विशेषकर मूर्ति विधान तो हमारी सभ्यता, धर्मभावना और विचार परम्पराका मूर्तिस्वरूप है। ई० सन्के आदिकी कुषाणराज्यकालकी जो जैन प्रतिमाएँ मिलती हैं; उनमें और सैकड़ों वर्षों बाद बनी हुई प्रतिमाओंमें बाह्य दृष्टिसे बहुत थोड़ा अन्तर प्रतीत होता है। वस्तुतः जैन ललित कलामें कोई परिवर्तन नहीं होने पाया । अन्तः मूर्ति विधानमें अनेकता नहीं आने पायी। मन्दिरों और मूर्तियोंका विस्तार बहुत हुआ। पर विस्तारके साथ एकता और गम्भीरतामें अन्तर नहीं पड़ा । प्रतिमाके लाक्षणिक अंग लगभग २००० वर्ष तक एक ही रूपमें कायम रहे । केवलीकी खड़ी या आसीन मूर्तियोंमें दीर्घकालके अन्तरमें भी विशेष रूपभेद नहीं होने पाया। जैन तीर्थंकरोंकी मूर्ति विरक्त, शान्ति और प्रसन्न होनी चाहिये। इसमें मनुष्य हृदयकी अस्थायी वासनाओंके लिए स्थान नहीं होता। ये मूर्तियाँ आसन और हस्तमुद्राको छोड़कर शेष सभी बातोंमें प्रायः बौद्ध मतियोंसे मिलती जुलती हैं। तीर्थंकरोंकी सारी प्रतिमाओंके आवासगृह सजाने और शृंगार करने में केवल जैन ही नहीं, बल्कि जैनाश्रित कलाओंने भी कुछ उठा नहीं रखा । मध्यकालीन युगमें जब वाममार्गके कारण या दूसरे -३४३ - Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारणोंसे ब्राह्मण मन्दिरोंमें अश्लील विषयको स्थान मिला था, तब भी जैन देवालयोंमें शुद्ध सात्त्विक और पवित्र भावनामय सुन्दर मूर्तिकलाको स्थान मिला था । सौन्दर्यकी दृष्टिसे मन्दिरोंकी प्रधान मूर्तियाँ महत्त्वकी नहीं हैं । पर मन्दिरोंकी बाहरी दीवालोंपर आवरण रूपमें रची हुई जो अन्य देवताओंकी मूर्तियाँ होती हैं, वे आकर्षक होती हैं । तीर्थंकरोंकी मूर्तियों में एक प्रकारकी निर्द्वदिता और भव्यता प्रकट होती है। मूर्तियोंके पत्थरोंमें या मूर्तियों में किसी प्रकारका दोष नहीं होना चाहिये । घरको मूर्ति बारह अंगुलसे बड़ी न हो । मूर्तियोंके उपर तीन छत और मूर्तियोंके दोनों ओर यक्ष तथा यक्षी होनी चाहिये । कलाकी दृष्टिसे जैन मूर्तियोंमें श्रवणबेलगोलको बाहुबलीकी मूर्ति सबसे उल्लेखनीय है । इसे बनाकर शिल्पीने रसात्माको सन्तुष्ट किया है । इसके लिये वीर मार्तंड चामुंडराय धन्यवादके पात्र हैं । बाहुबलीकी उल्लेखनीय दो मूर्तियाँ और हैं कारक्लमें और दूसरी वेणूरमें । कलाकी दृष्टिसे ये मूर्तियाँ भी महत्त्वकी हैं । जैन मूर्तियों में पटनाके लोहनीपुर में प्राप्त मूर्तियाँ सर्वप्राचीन हैं । खजुराहो यहाँपर घंटाई जैनमन्दिर भारतकी उच्च कारीगरीका साक्षी है । इसके खम्भों में पर घंटा और जंजीर उकरे हुए हैं, इसलिये यह घन्टाई मन्दिरके नामसे प्रसिद्ध है । छतपर प्रदर्शित भगवान जिनेन्द्रकी भक्ति गाती हुई भक्तिपूर्ण नृत्य करती हुई और विविध वादन यन्त्रोंकी बजाती हुई भक्तमंडलियाँ वस्तुतः दर्शनीय हैं । आदिनाथ मन्दिर के सबसे उपर वाले भाग में प्रदर्शित विद्याधर मूर्तियां भी रोचक एवं आकर्षक हैं । I यहाँका पार्श्वनाथ मन्दिर सबसे बिशाल और सुन्दर है । गर्भगृहकी बाहरी दीवालोंपर बनी देवियोंकी मूर्तियाँ मूर्तिकलाके उत्कृष्ट नमूने हैं । उत्तरी माथेपर बनी हुई मूर्तियोंमें एक माता अपने बच्चेको दुलार रही है, एक महिला पत्र लिख रही है, एक बालक एक महिलाके पैरसे काँटा निकाल रहा है । ये सब मूर्तियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं । - ३४४ - MA Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानकी पुरा सम्पदाके खजाने प्राचीन जैन पाण्डु लिपियाँ विजय शंकर श्रीवास्तव, जयपुर हस्त लिखित ग्रन्थोंकी जो समृद्ध पुरा सम्पदा आज भी राजस्थानमें विद्यमान है, वह महत्त्वपूर्ण होनेके साथ-ही-साथ विस्मयकारी व अदभुत भी है। यहाँ शस्त्र और शास्त्रका जो अद्भुत संगम है, वह भारतीय इतिहासका स्वर्णिम पृष्ठ है। राजस्थानके जैन ज्ञान भण्डार एवं विभिन्न भूतपूर्व रियासतों तथा ठेकेदारोंके सरस्वती भण्डार एवं पाण्डलिपि पस्तकालय भारतीय वाङमयकी अनोखी धरोहर है। व्यक्तिगत संग्रहोंके रूपमें भी हमारे साहित्यकी अमूल्य निधियाँ यहाँ सुरक्षित हैं। इन हस्तलिखित ग्रन्थोंकी संख्या यहाँ आज भी लाखोंमें हैं। इनमें अधिकांश हमारी अज्ञानता एवं प्रमादसे दीमकके शिकार हये जा रहे हैं, प्राचीन चित्रोंकी बढ़ती हई माँगके परिणाम स्वरूप अनेक महत्त्वपूर्ण पाण्डुलिपियाँ लोभवश नष्ट की जा रही है तथा हमारी संकुचित वृत्तिके कारण ज्ञानके ये अनेक भण्डार अध्येताओं एवं जिज्ञासुओंकी भी पहुँचके बाहर है। राजस्थानके ये बिखरे खजाने वास्तवमें संरक्षण और शोधकी प्रतीक्षामें मूक क्रन्दन कर रहे हैं जिससे साहित्य, इतिहास व संस्कृतिकी अनेक विलुप्त कड़ियाँ सँजोयी जा सकें। ___यह स्वाभाविक जिज्ञासाका विषय है कि राजस्थानमें इतनी विपुल एवं विशाल पाण्डुलिपियों एवं हस्तलिखित ग्रन्थोंकी गौरवपूर्ण परम्परा किन परिस्थितियों में जन्मी व पल्लवित हई। भारतीय परम्पराके अनुसार, स्वाध्याय व अध्ययन आभ्यन्तर तपका जीवित रूप है। ज्ञान मोक्षका मार्ग है। अतः ज्ञानार्जन आध्यात्मिक अनुशासनका प्रमुख अंग रहा है। परिणाम स्वरूप, धर्माचार्यों द्वारा विपल साहित्य सजित किया गया। वर्षा ऋतुमें एक स्थलपर टिककर चातुर्मास व्यतीत करना इस प्रकारके कार्यके निमित्त सर्वथा अनुकल था। कागजके प्रादुर्भावके पूर्व ताड़पत्र, भोजपत्र जैसे माध्यमों पर ग्रन्थ रचित हुये। शृद्धालु श्रावकों एवं भक्तोंने भी अनेक ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ करा कर आचार्योंको पुण्यार्थ समर्पित किया। धनी-मानी लोगोंने सचित्र पाण्डुलिपियाँ निर्मित कराई। चौदहवीं शताब्दी में कागजके आगमनसे हस्त लिखित ग्रन्थोंकी संरचना और उनकी प्रतिलिपियाँ तैयार करानेकी प्रक्रियाको अधिक गति मिली। जैन समाज इस दिशामें अग्रणी रहा । राजस्थान और गुजरातमें आज भी असंख्य हस्तलिखित ग्रन्थ सुरक्षित हैं । धार्मिक सहिष्णुता और औदार्यके वातावरणमें साम्प्रदायिक धरातलसे ऊपर उठकर जैन समुदायने इतर धर्मोंका भी संकलन अध्ययनार्थ अपने ज्ञान भण्डारोंमें किया। नवीन ग्रन्थोंकी रचना, प्राचीन ग्रन्थोंकी प्रतिलिपि करवाना तथा ग्रन्थोंको खरीद कर आचार्योंको भेट करना धार्मिक कृत्यका महत्वपूर्ण अंग था। चौलुक्य नेरश सिद्धराज जयसिंहने सिद्धहेमव्याकरणकी सवा लाख प्रतियाँ कराकर विभिन्न आचार्यों, विद्वानों एवं ज्ञान भण्डारोंको भेंट की। तथैव, कुमारपालने २१ शास्त्र भण्डारोंकी स्थापना की एवं उनमेंसे प्रत्येकको सुवर्णाक्षरी कल्पसूत्र की प्रतियाँ भेंट की। जैसलमेरके पटुवोंकी हवेलाके निर्माता बापना परिवारने वि० सं० १८९१ में सिद्धाचल तीर्थका विशाल संघ निकाला और इस अवसर पर जो अनेक महत्वपूर्ण धार्मिक कार्य सम्पन्न किये गये, उनमें पस्तकोंका भण्डार करानेका धार्मिक कार्य एवं सम्पन्न किये गये उनमें पुस्तकोंका भण्डार Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करानेका उल्लेख बडे गौरवके साथ अमर सागर स्थित जैन मन्दिरमें उत्कीर्ण वि० सं० १८९२ के अभिलेखमें किया गया है। राजस्थानमें अगणित ज्ञात एवं अज्ञात ग्रन्थ भण्डार हैं। उनमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी, बंगला, मराठी, उर्दू, फारसी, अरबी आदि भाषाओंमें विरचित ताडपत्रीय एवं कागज पर लिखे ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इनमें विषयकी विविधता भी कम रोचक नहीं है। वेद, उपनिषद्, इतिहास, पुराण, काव्य, व्याकरण, धर्म, ज्योतिष, संगीत, वैद्य कके साथ ही साथ साहित्यिक, ऐतिहासिक, अर्धऐतिहासिक विषयों (यथा प्रशस्तियों, ख्यात-वात, रासो, वंशावली आदि) का भी प्रणयन हुआ। इनमें अनेक ग्रन्थ सचित्र हैं और उनमें आलेखित अपभ्रंश, मगल तथा राजस्थानी चित्रशैलीकी जो अनपम कलात्मक ॥ राजस्थानी चित्रशैलीकी जो अनुपम कलात्मक धरोहर सुरक्षित है, वह चित्रकलाके इतिहासकी परम्पराके अध्ययनकी दृष्टिसे बहुत ही महत्वपूर्ण है। इन हस्तलिखित ग्रन्थोंको सुरक्षित रखने हेत बनी सचित्र काष्ठ पट्रिकायें, वस्त्र, बन्धन आदि भी कम रोचक नही हैं। जैन आचार्योंको चातुर्मास व्यतीत करनेके लिये विभिन्न संघों द्वारा प्रेषित लम्बे-लम्बे सचित्र निमंत्रणपत्र अथवा विज्ञप्ति पत्र एवं धार्मिक भण्डारोंको चित्रित करनेवाले कपड़े पर बने पटचित्र भी इन ज्ञान भण्डारोंकी विधियाँ हैं । जैसलमेर किलेके संभवनाथ जैन मन्दिर में स्थित श्री जिनभद्रसरि ज्ञान भण्डार, राजस्थानका ही नहीं, समूचे भारतका हस्तलिखित ग्रन्थोंका महत्वपूर्ण और विशाल संग्रह है। आचार्य जिनभद्रसूरि द्वारा पन्द्रहवीं शताब्दीके अन्तिम चरणमें इस भण्डारकी स्थापना की गई थी। इनकी प्रेरणासे जैसलमेर, जावाल, देवगिरि, अहिपुर (अहोर), पाटण (गुजरात) में उपदर्ग, आशापल्ली तथा खंभातमें भी इसी प्रकारके जैन ग्रन्थ भण्डार स्थापित हुए। जैसलमेर ग्रन्थ भण्डारके अनेक ताड़पत्रीय ग्रन्थोंका लेखन इन्हीं आचार्यश्रीके उपदेशसे खंभात निवासी धरणाशाह एवं श्रेष्ठी भ्रातयगल उदयराज और वलिराजने करवाया। इस भण्डारसे धरणाशाह द्वारा लिखवाये ४८ ताडपत्रीय ग्रन्थ, आज भी विद्यमान हैं। यहाँ कुल ४०३ ताड़पत्रीय ग्रन्थोंका महत्वपूर्ण संग्रह है जिनमें लगभग ७५० ग्रन्थोंका संकलन है। इनमें प्राचीनतम ताड़पत्रीयग्रन्थ जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा विरचित विशेषावश्यकमहाभाष्य (ग्रन्थ सं० ११६) हे जा १०वीं शताब्दी पूर्वार्द्धका है। यही वि० सं० १११७ में द्रोणाचार्य रचित ओघनिर्यक्तिवत्ति (ग्रन्थ सं० ८४।१) तथा आचार्य हरिभद्रकृत दशवैकालिकसूत्रवृत्ति (ग्रन्थ सं० ८४।२) की प्रतिलिपियाँ पाहिल द्वारा ताड़पत्र पर की गई जिनमें चित्र भी आलेखित हैं जो चित्रकलाके क्रमिक विकासके अध्ययनकी दृष्टिसे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । ओधनियुक्ति में हाथी और कमल चित्रित हैं। तथा दशवकालिक सूत्रमें पूर्णकलश, हस्ती, सिंह, कमलासना देवी तथा गतिमान धनुर्धारीका अंकन है। ये ग्रन्थ गुजरातसे लाकर जेसलमेर ग्रन्थ भण्डारमें सुरक्षित किये गये। इनमें अनेक दुर्लभ व अलभ्य ग्रन्थ हैं। कागज पर लिखे गये १७०४ ग्रन्थ यहाँ सुरक्षित हैं जिनमें वि० सं० १२४६ में लिखित कर्मग्रन्थ टिप्पण प्राचीनतम है। कौटिल्यके अर्थशास्त्रकी चौदहवीं शताब्दीकी एक वृत्ति (ग्रन्थ सं० ३९८) यहाँ विद्यमान है जो अन्यत्र अनुपलब्ध है। तथैव, बौद्धधर्मके अनेक ताडपत्रीय ऐसे ग्रन्थ इस संग्रहमें है जो अभी तक अलभ्य थे। इनमें उल्लेखनीय दिग्नाग रचित न्यायप्रवेश (११४६ ई०) तथा नालन्दा विश्वविद्यालयके प्रधान कमलशीलकृत तत्त्वसंग्रह (१२वीं शताब्दी) टीका सहित प्रमुख है। अनेक काव्य ग्रन्थोंकी प्राचीन प्रतियाँ भी यहाँ उपलब्ध हैं । इनमें धनपालकृत तिलकमंजरी (१०७३ ई०), भोजकृत शृंगारमंजरी (११वीं शताब्दी), उद्योतन सूरिकृत कुवलयमालाकथा (१०८२ ई०) सुबन्धकृत वासवदत्ता, (११५० ई०), जिनचन्द सूरिकृत सम्वेग रंगशाला (११५० ई०) आदि मुख्य हैं । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस भण्डारमें कागजके अनेक महत्त्वपूर्ण सचित्र ग्रन्थ सुरक्षित हैं जो १५वीं शताब्दीकी चित्रकलाके अन्यतम उदाहरण हैं । इनमें उल्लेखनीय वि० सं० १४२९ का पाण्डवचरित्र महाकाव्य (ग्रं० सं० ४१९), वि० सं० १५६२ का रौप्याक्षरी सचित्र कल्पसूत्र (ग्रं० सं० ४२०) जिसमें २७३ चित्र हैं तथा कालिकाचार्य कथा (सं० ४२५) आदि है । पुस्तकोंको सुरक्षित रखने हेतु यहाँ अनेक सचित्र काष्ठ पट्टिकाओं तथा चित्रित मंजूषाओंका भी सुन्दर संग्रह है। काष्ठ पट्रिकाओं पर तीर्थंकरोंके जीवन प्रसंग तथा पशु जगत्का भव्य अंकन है जिसमें एक पर जिराफका चित्रण महत्वपूर्ण है। थारू शाह ज्ञान भण्डारमें वि० सं० १६७३ का चमड़ाका सचित्र डिब्बा उल्लेखनीय है। राजस्थानके प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण जैन मन्दिरों व उपासरोंमें ग्रन्थ भण्डार हैं । जयपुर, नागौर, अजमेर व बीकानेरके जैन ज्ञान भण्डार अपने समृद्ध संग्रहके लिये पर्याप्त प्रसिद्ध है। राजस्थानके विभिन्न राजपूत शासकों, ठिकानेदारों व श्रेष्ठियोंने भी हस्तलिखित ग्रन्थोंके संग्रह व संरक्षणमें महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। बीकानेरकी अनुप संस्कृत लाइब्रेरी, जोधपुरका पुस्तक प्रकाश तथा उदयपुरका सरस्वती भण्डार वहाँके राजाओंके साहित्य प्रेमके जीते जागते स्मारक हैं। विद्वानोंके परिश्रमके परिणामस्वरूप इन संग्रहोंके अनेक अलभ्य व महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हो चके हैं। उनकी सूचियाँ भी प्रकाशित हो चुकी हैं। उनमें अनेक सचित्र ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं । सरस्वती भण्डार, उदयपुर में मेवाड़ शैलीमें चित्रित आपरामायण, गीतगोविन्द, भागवत आदि, पुस्तक प्रकाश, जोधपुर में मारवाड़ शैलीमें महाराजा मानसिंहके राजत्वमें चित्रित ढोलामारु, नाथचरित्र, दुर्गाचरित्र, शिवपुराण, शिवरहस्य, रामायण आदि एवं अनूप संस्कृत लायब्रेरी, बीकानेर में बीकानेरशैलीमें चित्रित मेघदूत, रसिकप्रिया, भागवत पुराण आदि कला जगतकी सांस्कृतिक निधियाँ हैं। अनुप संस्कृत लाइब्रेरीमें १२००० हस्तलिखित प्रतियाँ एवं लगभग ५०० गटके विद्यमान हैं। व्यक्तिगत संग्रहके रूपमें श्री अगरचन्द्रनाहटाका बीकानेर स्थित, अभयजैन पुस्तकालय, ऐतिहासिक महत्त्वकी पाण्डुलिपियों, जैन आचार्यों एवं यतियोंके पुत्र, राजाओंके पत्र, खास, रुक्के, सं० १७०१ से अब तकके प्रायः सभी वर्षोके पंचागोंका विरल संग्रह है। यहाँ लगभग २००० हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहीत हैं जिनमें कुछेक ऐतिहासिक महत्त्वके ग्रन्थोंका प्रकाशन भी हो चुका है, यथा पिंगलसिरोमणि, क्याम खां रासो, जसवंत उद्योत आदि । राजस्थान निर्माणके पश्चात् ही राजकीय स्तरपर हस्तलिखित ग्रन्थोंके संग्रह, संरक्षण, वर्गीकरण शोध व प्रकाशन आदिकी ओर ठोस कदम उठाया गया और इसका मूर्तरूप है जोधपुर स्थित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जिसके लगभग १७ वर्षों तक सम्मान्य निदेशक सुप्रसिद्ध पुराविद् मुनि जिनविजयने रहकर इस संस्थाको अपने रचनात्मक एवं सर्जनशील कृतित्वसे जो ख्याति प्रदान की, वह सर्वविदित है। इस प्रतिष्ठानकी शाखायें उदयपुर, बीकानेर, चित्तौड़, जयपुर, अलवर कोटा एवं टोंकमें विद्यमान हैं। विभागमें एक लाखसे ऊपर पाण्डुलिपियोंका संग्रह है। यहाँ एक हजारके लगभग प्राचीन ताडपत्रीय ग्रन्थ तथा उतने ही दुर्लभ ग्रन्थोंकी फोटोकापियाँ तथा अन्य ज्ञान-भण्डारोंमें संग्रहीत महत्त्वपूर्ण हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रतिलिपियोंका विशाल संग्रह है। शोधार्थियोंको उनकी माइक्रोफिल्म, फोटोकापी व प्रतिलिपियाँ उपलब्ध करानेका भी अध्ययनार्थ प्रावधान है। ग्रन्थोंकी सुरक्षाकी दृष्टिसे दो वातानुकूलित संयंत्र भी हालमें लगाये गये हैं तथा वातानुकूलित तलगृह बनानेकी भी योजना विचाराधीन है। 'पुरातन ग्रन्थमाला' के रूपमे १२४ महत्वपूर्ण ग्रन्थोंका प्रकाशन किया गया है। प्रतिष्ठानकी टोंक शाखाकी अरबी, फारसी, उर्दूकी पाण्डुलिपियोंको एकीकृत संग्रहका रूप देनेकी योजना अध्येताओंके लिए लाभप्रद सिद्ध होगी और राजस्थानमें ज्ञानके ये विखरे खजाने हमारी संस्कृति व इतिहासको उजागर करने में सहायक सिद्ध होंगे, इसमें सन्देह नहीं। -- ३४७ - Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचराई और गूडर के महत्त्वपूर्ण जैन-लेख कुमारी उषा जैन, एम० ए०, जबलपुर प्रस्तुत लेखमें पचराई और गूडरके दो महत्त्वपूर्ण लेखोंका विवरण दिया जा रहा है। पचराईका लेख विक्रम सं० ११२२ का है और गूडरका मूत्तिलेख वि० सं० १२०६ का है। दोनों ही लेख उन स्थानों की शांतिनाथ प्रतिमाओंसे सम्बन्धित हैं। इन लेखोंमें लम्बकञ्चुक और परपाट अन्वयोंका उल्लेख है। गूडरके मूत्तिलेखमें किसी राजवंशका उल्लेख नहीं है किन्तु पचराईका लेख प्रतिहार वंशके हरिराजके पौत्र रणपालके राज्यकालमें लिखा गया था। पचराईका लेख यह लेख पचराईके शान्तिनाथ मन्दिरमें है । इसकी लम्बाई ६० सें०मी० और चौड़ाई २० सें०मी० है। लेखकी लिपि नागरी और भाषा संस्कृत है। इसकी आठ पंक्तियोंमें सात श्लोक है। अन्तिम पंक्तिमें romawwc umerayen Delila CalcMARITALIHENOMEमवानाबानाध्यापाराग्राम हामनगरमागीबाना साना वामनबम्बमानाबानाजानी चितानातली अनावशाल मानव मे गती सापावना पहिरन महाक विधीसाठानाकाटको तिमाही मनात समात्यतारकातस्तदान। मानावासादायाचिकात वारी मला त्वामीसाहाताराकानीमा सामान्य माया शवाजीनाममा समाहित नाना नवरयाचा दरवाजा गाना MARमतारा चित्र १. पचराईका लेख वि० सं० ११२२ का उल्लेख है । प्रथम श्लोकमें सोलहवें तीर्थकर भगवान शान्तिनाथकी स्तुति की गई है। और उन्हें चक्रवर्ती तथा रति और मुक्ति दोनोंका स्वामी (कामदेव और तीर्थकर) कहा गया है। द्वितीय श्लोकमें श्री कुन्दकुन्द अन्वयके देशीगणमें हए शुभनन्दि आचार्यके शिष्य श्री लीलचन्द्रसूरिका उल्लेख है। ततीय श्लोकमें रणपालके राज्यकालका उल्लेख है। उसके पिता भीमकी तुलना पांडव भीमसे की गई है और भीमके पिता हरिराजदेवको हरि (विष्णु) के समान बताया गया है। चतुर्थ श्लोकमें परपाट अन्वयके साधु महेश्वरका उल्लेख किया गया है, जो महेश्वर (शिव) के समान विख्यात था। उसके पुत्रका नाम बोध था। पञ्चम श्लोकमें बताया गया है कि बोधके पुत्र राजनकी शुभकीत्ति जिनेन्द्रके समान तीनों भुवनोंमें प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी। छठवें श्लोकमें उसी अन्वयके दो अन्य गोष्ठिकोंका उल्लेख है, जिनमें -३४८ - Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से प्रथम पंचमांशमें और द्वितीय दशमांशमें स्थित था। स्पष्ट है कि यहाँ पचराई ग्रामके नामको संस्कृत भाषाके शब्दमें परिवर्तित कर पंचमांश लिखा गया है। तत्कालीन कुछ अन्य लेखोंमें पचराईका तत्कालीन नाम पचलाई मिलता है। सातवें और अन्तिम श्लोकमें प्रथम गोष्ठिकका नाम जसहड़ था, जो समस्त यशोंका निधि था एवं जिनशासनमें विख्यात था । अन्तिम पंक्तिमें मङ्गलं महाश्री तथा भद्रमस्तु जिनशासनाय उत्कीर्ण है तथा अन्तमें संवत् ११२२ लिखा है । राजा हरिराज बुन्देलखण्डके प्रतिहार वंशके प्रथम शासक थे। इस वंशका सुप्रसिद्ध गुर्जर प्रतिहार वंशसे क्या सम्बन्ध है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है। हरिराजके समयका विक्रम संवत् १०५५ का एक शिलालेख चन्देरीके निकट थुबौनमें प्राप्त हुआ है और उनका विक्रम संवत् १०४० का ताम्रपत्र लेख भारत कला भवन, काशीमें जमा है। रणपालदेवके समयका विक्रम संवत् ११०० का एक शिलालेख बूढ़ी मला है। प्रस्तुत लेख उस नरेशका द्वितीय तिथियुक्त लेख है। पचराईके इस लेखका मूलपाठ निम्न प्रकार है: मूलपाठ इस लेखका मूलपाठ निम्नलिखित है : ..[श्री] [शां] १. ई सी सांतिनाथो रतिमुक्तिनाथः । यस्चक्रवती भुवनांश्च धत्ते ॥3 [1] सोभाग्यरासिद्ध र भाग्यरासि स्तान्ते वि __ [कु]कु] [शि] [शु] [शि] २. भूत्यै नसो विभूत्यै ।। श्री कूदकूद संताने । गणेदेसिक संज्ञिके । सुभनंदिगुराः सिष्यः सूरिः श्री ली३. ल चन्द्रकः ॥ हरी व भूत्या हरिराजदेवो वभूव भीमेव हि तस्य भीमः । सुतस्तदीयो रणपाल नाम ॥ एतद्धिरा श [श ४. ज्ये कृतिराजनस्य ॥ परपाटान्वये सुद्धे साधु र्नाम्ना महेस्वरः । महेस्वरेव विख्यातस्तत्सुतो [बो] वोध ५. संज्ञकः । तत्पुत्रोराजनोज्ञेयः कीर्तिस्तस्ये यमद्भुता । जिनेंदुवत्सुभात्यंतं ।" राजते भुवन त्र [शु] [शे] ६. ये ॥ तस्मिन्नेवान्वये दित्ये गोष्ठिकावपरौ सुभौ । पचमांसे स्थितो हयेको द्वितीयो द ७. समांसके ॥ आद्यो जसहडो ज्ञेयः समस्त जससां निधिः । भवनोजिनवरस्चायो विख्यातो ८. जिनसासने ॥ मङ्गलंमहाश्रीः ॥ भद्र मस्तु जिनशासनाय ।। ० ॥ संवत् ११२२ १. ओम्को चिह्नद्वारा अंकित किया गया है । २. अनावश्यक है। ३. अनावश्यक है। ४. अनावश्यक। ५. अनावश्यक । - ३४९ - Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूडरका मूर्तिलेख गूडर खनियाधानासे दक्षिणमें लगभग आठ किलोमीटरकी दूरी पर स्थित छोटा-सा गाँव है । यहाँके आधनिक जैन मन्दिरकी विपरीत दिशामें एक खेतमें तीन विशाल तीर्थकर मत्तियाँ स्थित हैं: जो शान्तिनाथ कुन्थुनाथ और अरनाथकी हैं। इनमें सबसे बड़ी प्रतिमा लगभग नौ फुट ऊँची है। इस प्रतिमाकी चरणचौकी पर विक्रम संवत् १२०६ का लेख उत्कीर्ण है। लेखकी लम्बाई ३४ सें०मी० एवं चौड़ाई २१ सें०मी० है। सात पंक्तियोंका यह लेख नागरी लिपि एवं संस्कृत भाषामें है। लेखके प्रारम्भमें श्री शान्तिनाथकी स्तुति की गयी है। आगे बताया गया है कि विक्रम सं० १२०६ में आषाढ़ बदि नवमी बुधवारको, लम्बकञ्चक अन्वयके माम और धर्मदेवके पिता रत्नेने पञ्चमहाकल्याणक महोत्सवका आयोजन कर शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ (रत्नत्रय) की प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा कराई और वे प्रतिदिन उनकी भक्तिपूर्वक पूजा करते थे। इन मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा कोंके क्षय हेतु कराई गयी थी। रत्नेकी पत्नीका नाम गल्हा था । रत्नेके पिता सूपट थे, वे मुनियोंके सेवक थे, सम्यक्त्व प्राप्त थे, तथा चतुर्विध दान किया करते थे। सूपटके पिताका नाम गुणचन्द्र था और वे लम्बकञ्चुक (आधुनिक लमेचू ) अन्वयके थे। इस लेखका मूलपाठ निम्न प्रकार है: यह यातित वेअदाकल्यापाप तदैवी सातवातावरतवय प्रतितापितावाससिपादिपराजयनाशनमा चित्र २. गूडरका लेख मूलपाठ (श्री)(शां) १. -- ॥ जीयात्स्रीसांतिः--पस्स घातघातकः । --दुतिर-- ब बाब] २. पदद्वयः ॥ संवत १२०६ ।। आषाढ़ वदि नवम्यां बुधे । श्रीमल्लंवकंचुकान्वय ३. साधुणचंद्र तत्सुतः साधुतः साधुसूपट जिनमुनिपादप्रणतोतमांगः । सम्यकत्वर [ती] [ता] ४. लाकरः चतुर्विधदानचिंतामणिस्तत्पुत्रसाधुरत्ने सतित्व व्रतोपेत तस्य भा -३५० Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वौ] [सि] [[] [प्तये] ५. र्या गल्हा तयो पुत्रौ मामेधर्मदेवो । तेन विशिष्टतर पुन्यावाप्तौ निज [शां] ६. कम्म क्षयार्थं च पंचमहाकल्याणोपेतं देवश्री सांतिकुंथअरनाथ रत्न । [शं ७. त्रयं प्रतिष्ठापित तथाऽहर्निसं पादौ प्रणमत्युत्तमांगेन भक्त्याः (त्या)। * ॥ उपर्युक्त लेखोंके अलावा अन्य कई लेख पचराईमें उपलब्ध हैं जिनमें देशीगणके पंडिताचार्य श्री श्रतकीतिके शिष्य पंडिताचार्य श्री वीरचन्द्रके शिष्य आचार्य शभनन्दि और उनके शिष्य श्री लीलचन्द्रसूरि आदिके उल्लेख मिलते हैं। - ३५१ - Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदेशी संग्रहालय में महत्त्वपूर्ण प्रतिमाएँ डॉ० ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली जैन धर्म भारतमें प्रचलित विभिन्न धर्मों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। इस धर्मके अनुयायी भारतके प्रायः सभी भागोंमें पाये जाते हैं । ये अनुयायी मुख्यतः दो प्रमुख सम्प्रदायों-दिगम्बर एवं श्वेताम्बरमें विभक्त हैं । दिगम्बर सम्प्रदायके अनुयायी अपनी देवमूर्तियोंको बिना किसी साज-सज्जाके पूजते हैं जबकि श्वेताम्बरी अपनी पूज्य प्रतिमाओंको सुन्दर मुकुट एवं विभिन्न आभूषणोंसे सजाकर उनकी पूजाआराधना करते हैं। भारतमें पाई गयी प्राचीनतम प्रतिमायें नग्न हैं क्योंकि उस समय केवल दिगम्बर । था। परन्तु शताब्दियों पश्चात् श्वेताम्बर सम्प्रदायसे सम्बन्धित जैन प्रतिमाओंका भी निर्माण होने लगा और इसप्रकार अब दोनों प्रकारकी प्रतिमायें आज भी भारतके विभिन्न भागोंमें उनके अनुयाइयोंद्वारा पूजी जाती हैं । प्रारम्भमें अनेक जैन विद्वानोंका विचार था कि उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म अबसे हजारों साल पूर्व भी विद्यमान था और जब सन् १९१२ में हड़प्पा एवं मोहनजोदडोकी खुदाईमें नग्न मानव-धड़ एवं ऐसी अन्य पुरातत्वीय महत्त्वकी वस्तुएँ प्राप्त हुई, तो उन विद्वानोंने उनको भी जैनधर्मसे सम्बन्धित ठहराया । परन्तु अनेक आधुनिक विद्वानोंने शोधके आधारपर इस प्रचलित धारणाका खण्डन करते हुए उन्हें प्राचीनतम यक्ष प्रतिमाओंका प्रतिरूप बतलाया है।। यद्यपि जैन साहित्यसे यह प्रमाणित है कि स्वयं भगवान महावीरके समय-छठी शताब्दी ईसवी पूर्वमें ही उनकी चन्दनकी प्रतिमाका निर्माण हो चुका था, परन्तु पुरातात्त्विक खोजोंके आधारपर अब तक सबसे प्राचीन जैन प्रतिमा मौर्य कला, लगभग तीसरी शती ई० पूर्वकी ही मानी जाती है। पटनाके समीप लोहानीपुरके इस कालका एक नग्न धड़ प्राप्त हुआ है जो अब पटना संग्रहालयमें प्रदर्शित है। यह अपनी तरहका एक बेजोड़ उदाहरण है। बलुआ पत्थरके बने इस धड़पर मौर्यकालीन चमकदार पालिस आज भी विद्यमान है जिसका कोटिल्यने अपने अर्थशास्त्रमें वज्र-लेपके नामसे उल्लेख किया है। इस नग्न धड़ में 'जिनको स्पष्ट रूपसे कायोत्सर्ग मुद्रामें दिखाया गया है । इसीसे काफी साम्यता रखता, परन्तु पालिस रहित एक अन्य धड़ शुगकालका माना जाता है, पटना संग्रहालयमें ही प्रदर्शित है। शुगकालके पश्चात् कुषाणकालमें जैन आयागपटों एवं स्वतंत्र प्रतिमाओंका निर्माण अधिकाधिक रूपसे होने लगा। मथुराके विभिन्न भागोंसे प्राप्त अनेक कुषाण एवं गुप्तकालीन प्रस्तर मूर्तियाँ स्थानीय राजकीय संग्रहालय तथा राज्य संग्रहालय लखनऊमें विद्यमान हैं जिनसे जैन देवप्रतिमाओंके विकासको पूर्ण शृंखलाका आभास सरलतासे हो जाता है । विदेशोंमें रहनेवाले कलाप्रेमियोंका ध्यान जब जैन मूर्तिकलाकी ओर आकर्षित हुआ, तो धीरे-धीरे उन्होंने भी भारतसे मूर्ति सम्पदाको अपने-अपने देशोंमें ले जाकर संग्रहालयों में प्रदर्शित किया । भारतकी भाँति प्रायः सभी विदेशी संग्रहालयोंमें जैन कला सम्बन्धी एक-से-एक सुन्दर उदाहरण देखनेको मिलते हैं । इस सभीकी एक लेखमें विवेचना करना अत्यन्त कठिन कार्य है। अतः यहाँ हम आठ प्रमुख पश्चात्य देशोंमें - ३५२ - Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थित पन्द्रह प्रमुख संग्रहालयोंमें जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जैन प्रतिमायें सुरक्षित हैं, उनका ही संक्षेपमें वर्णन प्रस्तुत कर रहे हैं । ये संग्रहालय मुख्यतः ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, बुलगेरिया, जर्मनी, स्विटजरलैंड, डेनमार्क एवं अमेरिका में स्थित हैं । (१) ब्रिटेन : (अ) ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दन लन्दन स्थित इस विख्यात संग्रहालय में मथुरा से प्राप्त कई जिन शीर्षोंके अतिरिक्त उड़ीसा से मिली एक पाषाण मूर्ति भी है जिसमें आदिनाथ एवं महावीरको साथ-साथ कायोत्सर्ग मुद्रामें दर्शाया गया है । पीठिकापर आदिनाथ और महावीरके लांक्षण वृषभ तथा सिंहोंका अंकन है । इसके साथ ही उपासिकाओंकी मूर्तियाँ भी बनी हुई हैं । कलाकी दृष्टिसे यह मूर्ति ग्यारहवीं शतीमें बनी प्रतीत होती है । उड़ीसामें ही प्राप्त नेमिनाथकी यक्षी अम्बिकाकी लगभग उपर्युक्त प्रतिमाकी समकालीन मूर्ति भी यहाँ विद्यमान है जिसमें वह आम्रवृक्ष के नीचे खड़ी है । इनका छोटा पुत्र प्रभंकर गोद में व बड़ा पुत्र शुभंकर दाहिनी ओर खड़ा हुआ है । मूर्तिके ऊपरी भाग में नेमिनाथकी लघु मूर्ति ध्यान मुद्रामें है तथा पीठिकापर देवीका वाहन सिंह बैठा दिखाया गया है । इस संग्रहालय में मध्यप्रदेश से प्राप्त सुलोचना, धृति, पद्मावती, सरस्वती तथा यक्ष एवं यक्षीकी सुन्दर प्रस्तर मूर्तियाँ भी विद्यमान हैं । अन्तिम मूर्तिकी पीठिकापर अनन्तवीर्य उत्खनित है । (ब) विक्टोरिया एवं एलर्बट संग्रहालय, लन्दन इस संग्रहालय में कुषाण एवं गुप्त कालोंकी भगवान ऋषभकी दो मूर्तियाँ प्रदर्शित हैं । साथही, मध्यप्रदेशमें ग्यारसपुर नामक स्थानसे लाई गयी पार्श्वनाथकी एक अद्वितीय मूर्ति भी विद्यमान है जो सातवीं शतीकी प्रतीत होती है । इसमें तेइसवें तीर्थंकर ध्यान मुद्रामें विराजमान हैं और मेघकुमार एक बड़े तूफानके रूपमें उनपर आक्रमण करता दिखाया गया है। साथ ही, नागराज धरणेन्द्र अपने विशाल फण फैलाकर उनकी पूर्ण सुरक्षा करता दर्शाया गया है और उसकी पत्नी एक नागिनीके रूपमें तीर्थंकरके ऊपर अपना छत उठाये हुए हैं । मूर्तिके ऊपरी भाग में जिनकी कैवल्य प्राप्तिपर दिव्य गायक नगाड़ा बजाता भी दिखाया गया है । प्रस्तुत मूर्ति जैन मूर्तिकला की दृष्टिसे अत्यन्त महत्त्वकी है । उपर्युक्त मूर्तिके समीप ही, सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथकी एक विशाल धातु प्रतिमा प्रदर्शित है जिसमें वह सिंहासन में ध्यानमुद्रामें बैठे । इसके दोनों ओर एक-एक चँवरधारी सेवक खड़ा है । मूर्तिपर विक्रम संवत् १२२४ (११६८ ई०) के खुदे लेखसे ज्ञात होता है कि राजस्थान में चौहान शासकोंके समय इसकी प्रतिष्ठापना नायल-गच्छके अनुयायियोंद्वारा की गई थी । (२) फ्रांस : म्यूजिगिमे पेरिस इस संग्रहालय में कई जैन प्रतिमाएँ हैं जिसमें चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीरकी कांस्य मूर्ति विशेष रूपसे सुन्दर है । इसमें वह एक सिंहासनपर ध्यान मुद्रामें बैठे हैं । उनकी दाहिनी ओर तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ सर्प फनोंके नीचे कायोत्सर्ग मुद्रामें खड़े हैं और बाईं ओर बाहुबलि, जिनके शरीरपर लतायें लिपटी हुई हैं, खड़े हैं । इस आशयकी कांस्यकी मूर्तियाँ प्रायः कम ही पाई जाती हैं । कर्णाटक में निर्मित यह मूर्ति चालुक्य कलाके समय ( नवमी - दसवीं शती) की बनी प्रतीत होती है । यहाँ राजस्थान के पूर्वी भागसे प्राप्त एक पाषाण सिरदल भी है जो कलाका सुन्दर उदाहरण है। इसके नीचे वाली ताखमें ध्यानी जिनकी मूर्ति निर्मित है और उनके दोनों ओर अन्य दो-दो तीर्थंकर कायोत्सर्ग मुद्रामें उत्कीर्ण किये मिलते हैं | यह तेरहवीं चौदहवीं शतीकी मूर्ति है । ४५ - ३५३ - Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) डेनमार्क : राष्ट्रीय संग्रहालय, कोपेनहेगन ___इस संग्रहालयमें मुख्यतः आध्रप्रदेश व कर्णाटकसे प्राप्त जैन मूर्तियोंका अच्छा संग्रह है। ये सभी मूर्तियाँ ११वीं-१२वीं शतीकी हो सकती है। इस संग्रहमें कई चालुक्य युगीन महावीर स्वामीकी नग्न प्रतिमाएं हैं, जिनमें उन्हें कायोत्सर्ग-मुद्रामें दर्शाया गया है । इसके अतिरिक्त, ऋषभनाथकी एक चौबीसी भी है जिसमें मूल प्रतिमाके दोनों ओर तथा ऊपरी भागमें अन्य तेईस तीर्थकरोंकी लघ आकृतियाँ भी उत्कीर्ण की गई मिलती हैं । ये सभी मूर्तियाँ ध्यान मुद्रामें हैं । (४) इटली : राष्ट्रीय संग्रहालय, रोम इस संग्रहालयमें गुजरातमें सन् १४५० ई० में बनी भगवान नेमिनाथकी कायोत्सर्ग मुद्रामें खड़ी मूर्ति मुख्य आकर्षण है। इनके दोनों ओर अन्य दो-दो तीर्थकर खड़े व बैठे दिखाये गये हैं। मुख्य मूर्तिके पैरोंके समीप उनके यक्ष एवं यक्षी गोमेध एवं अम्बिका भी बैठे दिखाये गये हैं । कलाकी दृष्टिसे भी यह मूत्ति पर्याप्त रूपसे सुन्दर है। (५) बुलगेरिया : रज्रनेड संग्रहालय, रज्रग्रेड राजस्थानमें लगभग ११वीं शती ई० में निर्मित्त परन्तु उत्तर-पूर्वी बुलगेरियामें सन् १९२८ में पाई गई इस मूत्तिमें तीर्थंकरको एक कलात्मक सिंहासनपर बैठे दिखाया गया है । अन्य प्रतिमाओंकी भाँति इसके वक्षपर भी कमलकी पंखुड़ियोंके समान श्रीवत्स चिह्न अंकित है । (६) स्विटजरलेन्ड : रिटवर्ग संग्रहालय, ज्यूरिक ___ ज्यूरिकके इस सुप्रसिद्ध संग्रहालयमें राजस्थानमें चन्द्रावती नामक स्थानसे प्राप्त भगवान आदिनाथकी लगभग आदमकद प्रतिमा विद्यमान है जो श्वेत संगमरमरकी बनी है। इसमें उनके दो कलात्मक स्तम्भोंके बीच कायोत्सर्ग मुद्रामें दिखाया गया है । इसके ऊपरी भागमें त्रि-छत्र बना है। इन्होंने सुन्दर धोती धारण कर रखी है जिससे स्पष्ट है कि उसकी प्रतिष्ठापना श्वेताम्बर सम्प्रदायके जैनियोंद्वारा की गयी थी। पीठिकापर बने वषभके अतिरिक्त उनके चरणोंके पास दानकर्ता एवं उनकी पत्नी तथा अन्य उपासकोंकी लघु मूर्तियाँ बनी हैं। कलाकी दृष्टिसे यह मूत्ति परमार काल, लगभग बारहवीं शतीकी बनी प्रतीत होती है। (७) जर्मनी : (अ) म्यूजियम फर वोल्कुर कुण्डे, बलिन इस संग्रहालयमें मथुरा क्षेत्रमें प्राप्त कुषाणकाल (२-३ शती) के कई जिन शीर्ष विद्यमान हैं । इस प्रकारके कई अन्य शीर्ष स्थानीय राजकीय संग्रहालयमें भी देखनेको मिलते हैं। उपर्युक्त मूर्तियोंके अतिरिक्त दक्षिण भारतमें मध्यकालमें निर्मित कई जैन प्रतिमायें भी यहाँपर प्रदर्शित हैं । इन सभी मूत्तियोंमें जिनको कायोत्सर्ग मद्रामें नग्न खडे दिखाया गया है। इनके पैरोंके समीप प्रत्येक तीर्थंकरके सेवकों तथा उपासकोंकी लघु मूत्तियाँ उत्कीर्ण की गई मिलती हैं । (ब) म्यूजियम फर वोल्कुर कुण्डे, म्यूनिख : इस संग्रहालयमें यक्षी अम्बिकाकी एक अत्यन्त भव्य प्रतिमा प्रदर्शित है जिसे पट्टिकापर दुर्गा बताया गया है। मध्यप्रदेशसे प्राप्त लगभग अठारहवीं शतीकी इस मूर्तिमें देवी अपने आसनपर ललितासनमें विराजमान है। इनके दाहिने हाथमें गच्छा था जो अब टूट गया है और दूसरे हाथसे वह अपने पुत्र प्रियंकरको गोदीमें पकड़े हुए है। इनका दूसरा पुत्र पैरोंके समीप खड़ा है। देवीके शीशके पीछे बने प्रभा Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डलकी दाहिनी ओर गजारूढ़ इन्द्राणी और बाँई ओर गरूडारूढ़ चक्रेश्वरीको मूत्तियाँ हैं जिनके मध्य ऊपरी भागमें भगवान नेमिनाथकी ध्यान मुद्रामें लघु मूर्ति उत्कीर्ण है । मूर्त्तिके नीचे के भागमें कई उपासक बैठे हैं जिनके हाथ अंजली - मुद्रा में दिखाये गये हैं । (८) अमेरिका : (अ) क्लीवलैण्ड कला संग्रहालय, क्लीवलैण्ड, ओहायो इस संग्रहालय में प्रदर्शित जैन मूर्तियोंमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मूर्ति पार्श्वनाथकी है जिसका निर्माण मालवा क्षेत्रमें लगभग दसवीं शती में हुआ था । लगभग आदमकद इस मूर्ति में पार्श्वनाथ सर्पके साथ फणोंके नीचे कायोत्सर्ग मुद्रामें खड़े हैं और कमठ अपने साथियों सहित उनपर आक्रमण करता दिखाया गया है । जैन साहित्य से ज्ञात होता है कि जब पार्श्वनाथ अपनी घोर तपस्यामें लीन थे, तब दुराचारी कमर्ठने अनेक विघ्न-बाधायें डाली जिससे वे तपस्या न कर सकें और उनके लिये उसने उन पर घोर वर्षा की, पाषाण शिलाओंसे प्रहार किया तथा अनेक जंगली जंतुओंसे भय दिलानेका भरसक प्रयत्न किया । परन्तु इतना सब सहते हुये पार्श्वनाथ अपने पुनीत कार्यसे जरा भी विचलित नहीं हुए और अपनी तपस्या पूर्ण कर ज्ञान प्राप्त करनेमें सफल रहे । परिणाम स्वरूप कर्मठको लज्जित होकर उनसे क्षमा मांगनी पड़ी। प्रस्तुत मूर्ति सम्पूर्ण दृश्यको बड़ी सजीवतासे दर्शाया गया है । यद्यपि इस आशयको अन्य प्रस्तर प्रतिमाएँ भारतके अन्य कई भागोंसे भी प्राप्त हुई हैं, परन्तु फिर भी यह मूर्ति अपनी प्रकारका एक अद्वितीय उदाहरण है । (ब) बोस्टन कला संग्रहालय, बोस्टन, मैसाचुसे हस इस संग्रहालय में मध्य प्रदेशसे प्राप्त जैन मूर्तियोंका काफी अच्छा संग्रह है । इनमें अधिकतर तो प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की मूर्तियाँ हैं जिनमें से कुछमें वह ध्यान मुद्रामें तथा कुछमें कायोत्सर्ग - मुद्रा में दर्शाये गये हैं । उन प्रतिमाओंके अतिरिक्त यहाँ एक अत्यन्त कलात्मक तीर्थंकर वक्ष भी है, जिसे संग्रहालय की पट्टिकामें महावीर बताया गया हैं । परन्तु यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत मूर्ति में केश ऊपरको बँधे हैं और जटाएँ दोनों — ओर कंधोंपर लटक रहीं हैं । इससे प्रतिमाकी आदिनाथके होनेकी ही सम्भावना प्रतीत होती है । इनके शीशके दोनों और बादलोंमें उड़ते हुए आकाशचारी गन्धर्व और “त्रिछत्र” के ऊपर आदिनाथ की ज्ञान प्राप्तिकी घोषणा करता हुआ एक दिव्य बादक बना हुआ है । यह सुन्दर मूर्ति दसवीं शतीकी बनी प्रतीत होती है । (स) फिलाडेल्फिया कला संग्रहालय, फिलाडेल्फिया इस संग्रहालय में सबसे उल्लेखनीय जैन मूर्तियाँ जबलपुर क्षेत्रसे प्राप्त कल्चुरिकालीन दसवीं शती की हैं । इसमेंसे एक भगवान महावीर की है जिसमें उन्हें कायोत्सर्ग मुद्रामें दिखाया गया है । द्वितीय प्रतिमा में पार्श्वनाथ तथा नेमिनाथको इसी प्रकार खड़े दिखाया गया है। पार्श्वनाथ की पहचान उनके शीशके ऊपर बने सर्फ फणोंसे तथा नेमिनाथकी पहचान पीठिका पर उत्कीर्ण शंखसे की जा सकती है । (द) सियाटल कला संग्रहालय, सियाटल इस संग्रहालय में भी मध्य प्रदेशसे प्राप्त कई मध्यकालीन जैन प्रतिमाएँ विद्यमान हैं । इसके अतिरिक्त यहाँ गुजरातसे बिली भगवान कुन्थुनाथकी एक पंचतीर्थी है जिसकी पीठिका पर सन् १४४७ ई० लघु लेख उत्कीर्ण है । साथ ही, यहाँ आबू क्षेत्रसे प्राप्त नर्तकी नालार्जनाकी भी सुन्दर मूर्ति प्रदर्शित है। जिसका प्राचीनतम अंकन हमें मथुराकी कुषाण कलामें देखनेको मिलता है । - ३५५ - - Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (य) एसियन कला संग्रहालय, सेन फ्रासिन्सको, कैलिफोर्निया इस संग्रहालय में भी देवगढ़ क्षेत्रसे प्राप्त कई जैन मूर्तियाँ प्रदर्शित हैं जिनमें जिनके माता-पिताकी प्रतिमा काफी महत्त्वकी है । यहीं पर अंबिकाकी भी एक सुन्दर मूर्ति विद्यमान है, जिसमें वह आमके वृक्ष के नीचे त्रिभंग - मुद्रामें खड़ी है और पैरोंके निकट उनका वाहन - सिंह अंकित है । (र) बर्जीनिया कला संग्रहालय, रिचमोन्ड, बर्जीनिया इस संग्रहालय में सबसे महत्त्वपूर्ण भगवान पार्श्वनाथकी त्रितीर्थिक है जो राजस्थान में नवमी शती में बनी प्रतीत होती है । इसमें मध्य में पार्श्वनाथ ध्यान मुद्रामें विराजमान हैं सर्पके फणोंकी छायामें और उनके दोनों ओर एक-एक तीर्थंकर खड़ा दिखाया गया है । सिंहासनकी दाहिनी ओर सर्वानुमूर्ति तथा बाँई ओर अम्बिका दर्शाये गये हैं । सामने दो मृगोंके मध्य धर्मचक्र तथा अष्ट- होंके सुन्दर अंकन हैं । उपर्युक्त संक्षिप्त विवरणसे विदित होता है कि जैनधर्मने भारतीय मूर्तिकलाके क्षेत्रमें अपना एक विशिष्ट योगदान दिया है । सम्पूर्ण भारतके विभिन्न भागों में निर्मित देवालयोंके अतिरिक्त देश-विदेश के अनेक संग्रहालयों में भी जैनधर्मसे संबंधित असंख्य कला - मूर्तिर्या सुरक्षित हैं जिनका वैज्ञानिक एवं पुरातात्विक दृष्टिसे अध्ययन होना परमावश्यक है। अधिक नहीं, यदि सभी प्रतिमाओंके चित्रोंको कालानुक्रमके आधार पर प्रकाशित किया जा सके, तो वह भी बड़ा पुनीत कार्य होगा और इससे न केवल जैनधर्मावलम्बियों, वरन् • शोधकर्ताओंको भी बड़ा लाभ होगा । Re ३५६ - Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINA WOOD CARVINGS V. P. Dwivedi, National Museum, Delhi Introduction Jaina wood carvings form a unique chapter of Indian art history. Usually we do not speak of Hindu or Buddhist wood carving. Not because these religions did not patronise wood work but because of the fact that Jain wood carvings have survived in greater number. This may be because of their geographical situation in the dry climate of Gujarat and Rajasthan. It is not enly the number which make them important but the richness of these carvings also warrant special attention. Fantastic creatures and fascinating forms abound in these carvings. This phenomenon in itself may sound like a paradox, in view of the austerities of the Jaina monks. But then we should not forget that the patrons of these carvings were rich merchants who vied with each other in embellishing temples dedicated by them to the Jaina faith. How the domestic and religious art of Gujarat, including those belonging to Jaina community, come to use wood to such an extent is a matter of anybody's guess. Unlike many other parts of India, Gujarat lacks quality stone but abounds in forests full of good quality wood. Then the heat resistent quality of wood on the one hand provided incentive to its use and on the other hand helped preserve it for centuries. Perforated jäll work in wood provided fresh air. Lightness of wood's weight made it possible to use it more freely on first and second storeys thereby giving an elegant look to the houses. But the unique peculiarity of the architectural wood work as developed in Gujarat is its application and acceptance by the common man, which has made of wood carving a real folk as well as classical art. The reasons why the study of wood carvings has not received as much attention as it deserves are several. The foremost being the hazard that quite often different parts of the wooden structure, be it temple or home; came to be replaced as they decayed, making it difficult to assign it a firm date. The later artists, in all such cases, tried to match the earlier designs and motifs, thereby increasing the confusion for us to study them. Use of the age old tools and motifs even to this day is another factor. Yet another reason for the neglect of the study of these carvings is the general apathy of Indian scholars to anything originated during 16th to 19th century period, the period to which most of the surviving wooden examples belong. However, recently some publications, specially the census reports of 1961, have paid -357 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ attention to this medium of art.2 Here we will try to survey the Jaina wood carvings on the basis of published articles and reports and personal survey of various museum collections in India and abroad. Wood used in the carvings A Gujarati saying says 'Sag sisam to sonu'. It means teak and black wood are like gold because they last long and can be shaped like gold. Ravan is used for the threshold which must be very touch, mahua for beams, sevan for white decorative pieces. Naturally seasoned wood was selected for carvings. Teak wood is found in the Dangs and Gir forests of Gujarat. Parimaya Manjari, Bṛhat-Samhita, etc. give elaborate description about woods and their uses. Tools and techniques The piece of wood on which carving was to be done was first cut off in the required size from the long and given proper shape. For this purpose straight lines were marked with the help of a string dipped in ramzi, khadi or gera. This gave the carpenter the name of Sätradhara or holder of the string, later on corrupted into suthar, which became a caste name.4 Starting with large tools, the carpenter progressively uses finer chisels, smoothering surfaces, carving veins, giving light and shade, curves, relief, chipping off spaces in the recesses or decorating the background and thus proceeded from low to moderate and moderate to high relief. To provide it proper finish, dry coconut husk was rubbed. Kuranj or purple stony substance was also used. Some of the Jaina carvings, specially mandapas, were coloured, traces of colour can still be noticed on them.5 Let us ex mine some important examples. Jaina Architecture Before discussing the Jaina architecture an important point to be borne in mind is that the carpenters who worked for Jains were the same persons who also worked for the contemporary Hindu, Buddhists and Muslim patrons. No wonder many elements in all these contemporary architectures were common. Domestic architecture A Jaina domestic house usually has either a Tirthankara image or maigala cinha (fourteen dreams, etc.) carved on its door-lintal or window frame to give it an auspicious aspect (fig. 1). A wooden facade is a quite common characteristic of a Jaina house. Any person of some means would have some carving at least either on the pillar or on the door or window frames of his house, the extent of the elaboration increasing with the financial status of the builder. Doors, windows, pillars, beams and brackets were the main parts on which the wood carvers lavished their skill. The door is divided either into square or rectangular panels enclosed by thick wooden frame running vertically and cross wise. The windows are either built in or projecting and those on first floor were carved profusely. Windows with jäli or -358 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fig. 1 Door of a wooden house-shrine with mangala cinha, 18th. Cent. A. D. screen were quite popular in and around Patan. Inner courtyards often had pillared verandah around it. Window shutters were highly artistic in Kutch region. Quite often they consisted of a perforated tracery of wood placed overlooking glasses. The carving is bold twisted and profusely flowering. The struts supporting the upper balcony are deeply under cut, the design being richly interwoven with animal subjects and folier elaborations. On the inside the ceilings often display a variety of geometrical designs. It is very difficult to quote dated examples of Jaina residential houses having wood carvings. Census of India' (1961) Part VII-A (2) describing wood carvings of Gujarat gives a statement at its end which mentions dwelling houses with wood carvings. Temple architecture Once the famous Jain temples on the Holy Mount Satruñjaya were of wood is attested by the story of Uda Mehta.' It is said that when he was performing worship he saw a mouse carrying away a burning wick. Realising its danger to the wooden temples, he resolved to rebuild the temples in stone, a wish which was ultimately fulfilled by his son, - 359 - Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jaina temples can be divided into two district categories. (i) ghar derāsar or home shrines and (ii) Stone and wooden temples. The former is a special feature of the Jaina community and almost every house of any means has a shrine of its own, which are embelished with minute carvings, which varied with the richness of the family, The'general iconography of the mandapa in Jaina temple consists of frieze panels either in narrative or representative. Life scenes of the Tirthankaras are the most popular theme. The story of the renunciation of Lord Neminath, who returned from the wedding pavilion when he saw a large herd of cattle waiting to be slaughtered for feasting the wedding party is the most popular theme. Another scene is preaching by a Jaina āchārya surrounded by his devotees. Dikpalas, sursundaris, apsarās, kinnarīs, etc. are usually carved on brackets. One of the earliest dated derāsar is the Säntinātha derāsara in Haja Patel's Pol, Kalupur, Ahmedabad (A. D. 1390).10 The entire temple is a wooden structure with a mandapa enclosed by a dome, 3.35 m. square, which has a seventeen concentric layers of carvings, made of two hundred and forty eight pieces. Another derāsar, Sri Parsvanatha, in Srisamita Sikharaji's Pol, also in Ahmedabad, is said to belong to 17th century. Ahmedabad, being the hub of the Jaina community, has several noteworthy derāsars : Sri Ajitanātha derāsar in Vaghan Pol. Zavarivad, Cintāmaņi Fig. 2 Filing of the wooden mandapa, C. 16th-17th cent. A. D. (Courtesy : Nattonal Museum, N. Delhi). - 360 - Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TE GUEST Fig. 3. Wooden window-frame, Early 19th cent. A. D. (Courtesy National Museum, New Delhi) Pārsvanātha and Sahasra phaņa Pārsvanātha derāsars in Nisha Pol, Sri Vasupūjya Svāmi and Sri Satalanatha-prabhu devāsars in Shekhapada, Zaverivad; Sri Supārsvanātha derāsar in Sri Ramji's Pol, and Haja Patel's Pol. 2G Ghar-derāsars are known from other parts of Gujarat as well. Pathan, Palitana, Ratanpur, Cambay and other cities, too, have several home shrines of importance. Many Jaina carvings have found houses in various museums. The National Museum, New Delhi has an exquisite example of late sixteenth or early seventeenth century mandapa of a homeshrine. Sixteen apearās adorn its dome and remind the viewer of the Mt, Abu temples in stone (fig. 2). The museum also has a door-frame (caukhat) of a Jaina house (evident from Jaina Tirthankara image) 11 (fig. 3) a small door of a home shrine1% (carved with fourteen dreams) and a window framels identified by Tirthankara figure), etc. The Prince of Wales Museum, Bombay also has a wooden mandapa of a home shrine of c. 1600 A. D.14 46 - 361 - Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Baroda Museum and Picture Gallery, Baroda has several examples of Jains wood carvings. 15 One of the most exquisite examples of wooden Jaina temple is now in the Metropolitan Museum of Art, New York, built in 1594. It was in Patan's Zavevivad locality when Burgess and Cousens carried out their survey in 1890. Some other museums also have stray examples. 1 6 Sculptures The Jainas believe that a sandal wood portrait sculpture of Vardhamāna was carved in his life time when he was meditating in his palace about a year prior to his renunciation.17 Inspite of the tradition, no wood carving in the round depicting Tirthankaras have been found so far. At what time the transformation from wood to bronze or stone took place it is difficult to say. But the ritual of daily washing the image with milk and water and the application of sandal paste etc. were perhaps responsible for this. However, subsidiary and allied carvings as part of architecture have a better continuity in wood and quite a few of these can be seen in museum and private collections. All such examples have the following common features : (i) they are smaller in size when compared to their counterparts in stone, (ii) once detached from the structure, most of these look as if carved separately and independently; (iii) they are carved in such a way that one side, which was earlier attached to the architectural piece, is not finished properly; (iv) usually they are coloured and (v) they come from one or the other parts of Gujarat and Rajasthan, thus inheriting the characteristic features of the region. Conclusion The foregoing discussion shows the wide range and variety of Jaina wood carvings. They not only help us to reconstruct the social history of the period but also fill up the lacunae of art history. All these carvings though small in size, reflect the taste of their rich Jaina patrons who believed in embellishing every inch of space available on their houseshrines or temples. Though mostly religious these carvings provide us with interesting social gleanings of the contemporary life. In wood carvings, the Jaina patrons took a lead over their Hindu or Buddhist counterparts. References 1. Trivedi, R. K., Wood Carving of Gujarat, Census of India 1961, Vol, V, Part VII.A (2), Delhi, 1965, pl. XI. 2. Ibid, 3. Ibid, page 9. 4. Ibid, p. 28. 5. Dwivedi, V. P., Wood Carvings, chapter 32 in Ghose, A., (Edited) Jaina art and archi tecture, Vol. III, New Delhi, 1975, pls. 290-291, - 362 - Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. Trivedi, R. K., op. cit. Statement I, pp. 5-101. 7. Tbid, p. 4. 8. National Museum has a mandap (60.148) and a window frame (60.1152) showing Neminath's marriage procession, Sri Haridasa Swali collection of Bombay also has a panel showing the theme. 9. Dwivedi, V. P., op. cit, plate 295 B. 10. Trivedi, R. K., op. cit, p. 45. 11. Museum Acc. No. 60.1153. 12. Museuin Acc. No. 47. 111/. 13. Museum Acc. No. 60.1152. 14. Andhare, S. K. 'Painted Wooden mandap from Gujarat' Bulletin of the Prince of Wales Museum of Western India, Vol.7, Bombay, 1959-62, pp, 41-45 and plates 29 to 33c. 15. Goetz, H., 'A monument of old Gujarati wood sculpture', Bulletin of the Baroda Museum and Picture Gallery, VI, Part I-II, Baroda, 1950, p. 2. Burgess, James and Cousens, Henry, The architectural antiquities of Northern Gujarat, Archaeological Survey of India, New Imperial series, IX, London 1903, p.49. 17. Shah, U. P., Studies in Jaina Art, Banares, 1955, pp. 4-5. The Buddhists, - too, have a similar tradition. . . लेखसार जैन काष्ठ कला वी० पी० द्विवेदी, राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली हिन्दू और बौद्धों की तुलना में जैन वास्तुकला भारतीय इतिहास में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसके नमूने आजतक भी बड़ी संख्या में उपलब्ध होते है । संभवतः यह गुजरात और राजस्थान के शुष्क जलवायु के कारण ही सुरक्षित रह सके हों। संख्या के अतिरिक्त इनकी उत्कीर्णन कला की विविधता भी महत्वपूर्ण है। यह कला धार्मिक और घरेलू दोनों क्षेत्रों में फैली है। गुजरात में काष्ठकला का विकास संभवतः वहाँ अच्छे उत्कीर्णन योग्य पत्थरों के अभाव के कारण हुमा होगा । लकड़ी का हलकापन, सछिद्रणसामर्थ्य, ऊष्मासहता आदि गुणों ने काष्ठकला को सामान्य एवं विशिष्ट दोनों क्षेत्रों में विकसित होने में प्रेरणा दी। इस विषय में संभवतः अध्ययन इसलिए नहीं किया गया क्योंकि इनमें ज्वलनशीलता के कारण स्थायित्व कम माना गया। साथ ही भारतीय विद्वान् 16-19 वीं सदी के सम्बन्ध में सदैव उपेक्षित रहे और दुर्भाग्य से इसी बीच यह कला पनपी है। -363 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काष्ठकला के लिये सागौन और काली लकड़ी मुख्यतः काम आती है। इन लकड़ियों को 'सोना' कहा जाता है। लकड़ियों के विषय में परिमाणमंजरी तथा बृहत्संहिता में अच्छे विवरण मिलते हैं। इस कला के विकास में अनेक प्रकार के पदार्थ और उपकरण काम आते हैं। काष्ठकला के उदाहरण के रूप में मन्दिर सर्व प्रथम आते हैं। ये दो प्रकार के होते है-घरेलू देरसरा और मन्दिर । घरेल देरसरों का रूप घर में बने हए एक लघुकाय पूजास्थल के रूप में होता है । मन्दिरों में यह कला उनके मंडपों में उत्कीर्णन के रूप में पाई जाती है जहाँ पौराणिक या प्रतीकात्मक कथायें काष्ठ में उत्कीणित की जाती हैं । नेमनाथ का वैराग्य, तीर्थंकरों का चरित्र तथा दिक्पाल, सुरसुन्दरी, किन्नरी आदि देवियों का उत्कीर्णन पर्याप्त मात्रा में पाया गया है । अहमदाबाद के हज पठैल पोल का शान्तिनाथ देरसरा (1390 ई०) काष्ठकला की दृष्टि से एक उत्तम उदाहरण है। इसी प्रकार के अनेक देरसरे इस नगर में और भी पाये जाते हैं। पाटन, पालीताणा, रतनपुर आदि में घर-देरसरे पाये जाते हैं। इसका एक नमूना राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली में रखा है जो 16-17 वीं सदी का है। इसके मण्डप में सोलह अप्सरायें उत्कीणित है। प्रिंस आफ वेल्स संग्रहालय, बम्बई तथा बड़ौदा के संग्रहालय में भी अनेक काष्ठकला के नमूने पाये जाते हैं । न्यूयार्क के मेट्रोपोलिटन म्यूजियम में 1594 ई० में बने एक जैन मन्दिर का भव्य नमूना प्रदर्शित है जिसे भारत से 1890 ई० में ले जाया गया। काष्ठकला का दूसरा रूप मूर्तियों के निर्माण के रूप में पाया जाता है। यह कहा जाता है कि भगवान् महावीर के जीवन काल में ही उनकी चन्दन की मूर्ति बनाई गई थी। लेकिन लकड़ी की मूर्तियों का बहुत प्रचलन नहीं हो सका, ऐसा लगता है। इसके अनेक कारण संभावित हैं। लेकिन काष्ठीय स्थापत्य के अनेक नमूने संग्रहालयों में मिलते हैं । इनकी निम्न विशेषतायें पाई गई हैं (i) इन कृतियों का आकार व विस्तार, पत्थर की तुलना में, लघुत्तर होता है । (ii) इनका उत्कीर्णन इस प्रकार होता है कि कृति का दूसरा (पृष्ठ) पार्श्व अग्रपार्श्व के समान नहीं हो पाता। (iii) ये कृतियाँ प्रायः समीप होती हैं । (iv) ये प्रायः गुजरात और राजस्थान में ही पाई जाती है । --364 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड::Section 5 जैनदर्शन की वैज्ञानिक परंपरा Scientific Tradition of Jain Philosophy Page #407 --------------------------------------------------------------------------  Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REALITY AND PHYSICS SOME ASPECTS D. S. Kothari, Delhi The theory of relativity, followed by quantum mechanics, represents a radical departure from classical Newtonian physics. It marks a big, and totally unexpected, 'Jump', as opposed to progressive refinement of older theories. For Newton, his laws of motion required the existence of an absolute, unlimited space and an absolute time. Absolute space existed not only to serve as a container for things, but also for itself. Absolute space, and the same applied to time, was a reality "bound up. with the inner-most essence of the Newtonian conception of the world. Space for him is not an empty form, but the organ by means of which God works as omnipresent in the world, and at the same time, immediately perceives the conditions of things. It is an "unlimited and homogeneous sensorium (of God)." (Harald Hoeffding, A History of Modern Philosophy Vol. II, p. 411, Dover Publication). Also in Newton's view the observed universe must necessarily be imperfect, and it involves continued activity on the part of God to keep it running harmoniously For instance, according to him, the stability of the solar system against natural plannetary perturbations required intervention by God from time to time. The dethronement of the Newtonian conception of absolute space and time was greatly facilitated by its confrontation with an entirely different metaphysical and philosophical view of nature. An illuminating discussion of this question has recently been provided by L. S. Fener in his book Einstein and the Generations of Science (Basic Books, New York, 1974). The profound impact of the views of Ernst Mach is well-known. To quote Einstein (Albert Einstein: Philosopher Scientists: Editor P. A. Schilpp, p. 21): "We must not be surprised, therefore, that, so to speak, all physicists of the last century saw in classical mechanics a firm and final foundation for all physics, yes, indeed, for all natural science. It was Ernst Mach, who, in his History of Mechanics, shook this dogmatic faith; this book exercised a profound influence upon me in this regard while I was a student. I see Mach's greatness in his incorruptible skepticism and independence; in my younger years, however, Mach's epistemological position also influenced me very greatly, a position which today appears to me to be essentially untenable." It is noteworthy that Mach was influenced to a considerable degree by Indian philosophic thought. Erwin Schroedinger observes (My view of the World, Cambridge University Press (1964), p. 37): "If, finally, we look back at that idea - 365 - Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of Mach, Avenarius and Schuppe which we outlined earlier on, we shall realize that it comes as near to the orthodox dogma of the Upanisads as it could possibly do without stating it expressis verbis." In his The Analysis of Sensations (Dover Publications 1959) Mach argues that the two viewpoints-stationary earth, and the Sun and the fixed stars in motion, and its opposite way of looking at the matter are "equally correct and equally welladapted to their special purposes." But to accept this equivalence is nothing, as he points out, in comparison to the simple truth based on straightforward psychological analysis that the "ego", the "I", is nothing at all but a transitory connexion. of changing elements. He says (p. 25) "The ego must be given up. It is partly perception of this fact, partly the fear of it, that has given rise to the many extravagances of pessimism and optimism, and to numerous religious, ascetic, and philosophical absurdities. In the long run we shall not be able to close our eyes to this simple truth, which is the immediate outcome of psychological analysis. We shall then be willing to renounce individual immortality, and not place more value upon the subsidiary elements than upon the principal ones. In this way we shall arrive at a freer and more enlightened view of life, which will preclude the disregard of other egos and the over-estimation of our own." Mach especially refers to Buddhism. He says (footnote p. 356): "For thousands of years past Buddhism has been approaching this conception from the practical side." He speaks of "the wonderful story unfolded" in Paul Caru's Karma, A story of Early Buddhism, Chicago (1894); also The Gospel of Buddha (1894). There is no problem more mysterious than the mind-body interaction. Modern science has not made it less interactable. On the other hand it has added a new urgency and also a new poignancy. The complementarity approach may open up some new possibilities worth exploring. Writes Erwin Schrodinger (My view of the World pp, 20-22): "A hundred years ago, perhaps, another man sat on this spot; Like you he was begotten of man and born of women. He felt pain and brief joy as you do. Was he someone else? Was it not you yourself? What is this Self of yours ?....What clearly intelligible scientific meaning can this "Someone else' really have?....Looking and thinking in that manner you may suddenly come to see, in a flash, the profound rightness of the basic conviction in Vedanta"what the Brahmins express in that sacred, mystic formula which is yet really so simple and so clear: Tat tvam asi, this is you. Or, again, in such words as 'I am in the east and in the west, I am below and above, I am this whole world'. It is the vision of this truth, of which the individual is seldom conscious in his actions) which underlies all morally valuable activity. It brings a man of nobility not only to risk his life for an end which he recognises or believes to be good, but in rare cases to lay it down in full serenity, even when there is no prospect of saving his own person." - 366 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Schrodinger expressed these daring thoughts (certainly so in the western cultural millieu) in his Essay, Seek for the Road. He wrote it in 1925 a few months before his discovery of wave mechanics. The Essay was first published with another, what is real ? in 1961, in My view of the World, thirty five years after it was written. (The English translation of the German original was published by the cambridge University Press in 1964). It serves to illustrate the profound interest, to the present age of the Indian Upanişadic and Buddhist thought. The radically novel situation in physics with its important philosophical implications is best expressed by Bohr's principle of complementarity. The principle recalls to our mind the insight to which the ancient Indian thinkers were led to in their extra-ordinarily daring search for the relation between man and the universe, between body and soul, the problem of good and evil, and all the varied profound contradictions which underlie human existence. What the seers of the Upanishads sought was in a sense 'an uncompromising reconciliation of uncompromising extremes. The logic of complementarity has a special place in Jain philosophy. An oft-quoted dialogue between Lord Mahavira and his favourite disciple Gautama serves to illustrate this (see Nathmal Tatia, Studies in Jaina Philosophy, Jain cultural Research Society, Banaras, (1951), pp. 22-23). "Are the souls, O Lord, eternal or non-eternal ?" The souls, O Gautama, are eternal in some respect and non-eternal in some respect." “With what end in view, O Lord, is it said that the souls are eternal in some respect and non-eternal in some respect ?” “They are eternal, O Gautama, from the view point of substance, and noneternal from the view point of modes. And with this end in view it is said, O Gautama, that the souls are eternal in some respect and non-eternal in some respect. "Is the body, O Lord, identical with the soul or is the body different from it." “The body, O Gautama, is identical with the soul as well as it is different from it." The logic of Syādvāda (Syād means 'may be') was formulated by Jain thinkers probably more than two thousand years ago. It should be of great interest, both scientific and ethical, in the modern context. Its relevance to modern statistical concepts has been discussed by P. C. Mahalanobis, and J. B. S. Haldane in Sankhya, May 1957. According to the Syādvada schemes every fact of reality should be described in seven ways. These are combinations of affirmation and negation : (1) Existence, (2) Non-existence, (3) Occurence (successive) or Existence and Non-existence, (4) Inexpressibility or Indeterminateness (5) Inexpressibility as - 367 - Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ qualified by Existence, (6) Inexpressibility as qualified by Non-existence, and (7) Inexpressibility as qualified by both Existence, and Non-existence. Syadvāda asserts that knowledge of reality is possible only by denying the absolutistic attitude, We may notice that the superposition principle of quantum mechanics provides an illuminating example of the Syädväda mode of description. Let kets Ja> and la" be the different eigenstates of an observable a for a quantum mechanical system. Let |P> a+a">. We have the Syadva la mode of description: (1) System is in state a'>. (2) System is not in state | a"> (but in a'>). (3) System is both in state a'> and a''>, represented by the mixture |a'> = a'>">. (5) System is in an indeterminate state and in state (1) represented by [P>

Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ for, if nothing else, at least the two instants of observation are different. Nothing is exactly repeatable. But in asserting this, we ignore the fact that differences bet ween relevant aspects of the two (different) situations may be so small as to be negligible in practice. Repeatability is the essence of scientific observation. It is possible to think, but I am not competent to judge, that the Syadvāda logic did not particularly encourage quantitative observation. Its emphasis was on philosophic enquiry. We may note at this point that, to begin with, all experience is subjective. How then objective knowledge becomes possible? All experience, everything without exception, is fundamentally a personal, subjective, experience. When you and I look at a tree, there is no conceivable way of determining that my sensation of "green" is the same as yours. That your perception and mine of a givea thing is identical has no clear, no objective, meaning. The basic point is that an objective statement is not, and cannot be about one single sense impression (say, my sensation of red colour produced by a flower), but it expresses always some relation between two sense impressions. My sense impression of red may be or may not be (who knows) different from yours, but irrespective of this we can verify whether two given flowers are of red colour or they are not. This simple example can be readily generalized. The essence of the matter is that objective, communicable statement. become possible about pairs of some impressions and never about single sense impressions. It is this which eliminates subjectivity from science, eliminates "I", and is the basis of the objectivity of science. "The fact that by comparing pairs communicable, objective statements are possible, has an immense importance because it is the root of speaking and writing, and of the most powerful instrument of thinking, of mathematics." (Max Born, My Life and my Views, Chapter Five, "Symbol and Reality", (1968), p. 174). The objectivity of science makes it truly a co-operative enterprise which can be shared by all men, Dogmatism of any kind whatsoever is totally inadmissible in science. Dogmatism is subjective. Its ultimate basis is personal prejudice or belief, Dogma is personal, science is public. Dogmatism and objectivity are a flagrant contradiction. The cooperative enterprise of science, thanks to its objectivity, has been astonishingly successful, perhaps for more than any other enterprise of man. But the objectivity of science has not been obtained without its price. It imposes a far-reaching limitation. Objective science by excluding subjectivity cannot, even in principle, deal with our thoughts, feelings, emotions, with subjective experience of any kind. It excludes "I". The exclusion is total. Our feelings--pain, joy, ecstasy; and what not are inherently incapable of unambiguous communication. Even if I succeed in expressing in words some particular feeling or emotional state of mine, there is no proof-there can be no proof-that my words will produce within you feelings identical to mine. Consciousness, mind, soul, "I", or whatever name we may g've to subjectivity, or to ary aspect of it, has no place in natural science, No considera47 -369 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tions of purpose, divine or human, nothing which implies value judgements, can enter the gateway of objective science. It is apparent that the basic distinction between brain and mind is all important. Brain is a part of the objective world. It can be investigated objectively; and recent development in molecular biology have given valuable knowledge of its structure and functioning. On the other hand, mind is subjective. When, for instance sound waves impinge on our ears, the pressure changes produce electric currents in the nerve fibres which from the ear reach the brain. How do these electric currents in the brain transform in the mind into sensations of sound-into music ; The same applies to other sensations. Science provides no answer to this riddle. Because of its very objectivity science can give no answer to this riddle of all riddles. To quote Sir Chalres Sherrington (Man on his Nature, Cambridge University Press (1951), p. 228-257): “The mental is not examinable as a form of energy. That in brief is the gap which parts psychiatry with physiology.... Thoughts, feelings, and so on are not amenable to energy (matter) concept. They lie outside it. Therefore they lie outside Natural Science... In some ways this is embarrassing for biology. Biology as its name says is the study of life.... Natural science has studied life to the extent of explaining away life as any radically, separable category of phenomena .... there is no radical scientific difference between living and dead .... But though living is analysable and describable by natural science, that associate of living, thought, escapes and remains refractory to natural science ... Our mental experience is not open to observation through any sense-organ .... Mind, for any. thing perception can compass, goes therefore in our spatial world more ghostly than a ghost. Invisible, intangible, it is a "thing" not even of outline, it is not a "thing". It remains without sensual confirmation, and remains without it for ever." What about the interacton between the mind and the body? The control of the mind over the body is an incontrovertible fact of personal experience. If my mind, my thought, does not determine the movement of the pen in my hand, who is writing this sentence? Who is responsible for it ? Equally, the influence of the body on the mind is incontrovertible as exemplified by effects of food, and drugs, by neurological experiments, brain injuries, and so on. (W. Penfield has recorded that in some striking cases of brain surgery when the patient was asked not to move the arm when the corresponding area of the cerebra cortex was electrically stimulated, the patient invariably responded by using the other arm to hold it down. What the electrode did to one arm, the patient's will did to the other concluded Penfield). It may be of interest to recall at this point that John von Neumann explicitly introduced the role of consciousness (mind) in his treatment of the foundations of quantum mechanics (Mathematical Foundations of Quantum Mechanics, Chapter VI, English translation (1955), Princeton University Press). He postulated that interaction with consciousness was necessary to bring about a "reduction of wave - 370 - Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ packet". This view has been severely criticised by several people, notably Rosenfeld. Leaving aside the question of the reduction of the wave-packet, von Neumann's observations about subjective perception are of great interest. He says : "the subjective perception is a new entity relative to the physical environment and is not reducible to the latter. Indeed, subjective perception leads us into the intellectual inner life of the individual, which is extra-observational by its very nature........... We must divide the world into two parts, the one being the observed system, other the observer. In the former we can follow up all physical processes (in principle at least) arbitrarlly precisely. In the latter, this is meaningless. The boundary between the two is arbitrary to a very large extent...........that this boundary can be pushed arbitrarily deeply into the interior of the body of the actual observer is the content of the principle of psychophysical parallelism--but this does not change the fact that in each method of description the boundary (between body and mind) must be put somewhere......" The views have recently been further expounded and elaborated notably by E. P. Wigner. What we know about living organisms is not much, but we know enough to be able to conclude that the human body is a "machine". It is so beyond question, it is subject to the laws of physics and chemistry which make no distinction what soever whether the atoms are parts of a living body or otherwise. Equally, one cannot deny the incontrovertible direct experience that the motions of his or her body are under his or her control. My body is a "machine", but "I" control its movements. Any other assumption would be unacceptable, unreasonable. Let us assume, as undisputed, the two "facts":-(1) my body is a machine, and (2) its motions are under my control. From these two facts what is the inference we can draw which would not be contradictory to science, not violated its basic axioms of objectivity and autonomy? The only possible inference, as Schroedinger has stressed, is that every mind that has ever said or felt “I” is the one (if any) who controls the 'motions of the atoms', controls the universe, according to the Laws of Nature. Says Schroedinger (What is Life (1948), p. 89): "In itself, the insight is not new. The earliest records to my knowledge date back some 2500 years or more. From the early great Upanişads the recognition Ātman - Brahman (the persenal self equals the omnipresent, all-comprehending eternal self) was in Indian thought considered, far from being blasphemous, to represent the quintessence of deepest insight into the happenings of the world. Th striving of all the scholars of Vedanta was, after having learnt to pronounce with their lips, really to assimilate in their minds this grandest of all thoughts". Howsoever strange and paradoxical the complementarity of mind and matter may seem to us, it is in all probability inescapable. What is most important is to investigate-making use of the powerful experimental techniques, and statistical computer aids available today-phenomena suggested by the complementarity - 371 - Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ approach. For example, if mind is not an energy system, direct communication between the two minds need not be ruled out on grounds of any violation of energy laws or casuality. Again, it would be of interest to know what mental states correspond to random thermal fluctuations in the brain. This would demand a suppression of all voluntary mental activity so that the "mental noise" corresponding to the cerebral 'thermal noise" could be observed by the subject. The book, The interpretation of Nature and the Psyche (Routledge and Kegan Paul, London (1955) contains two essays, one by C. G. Jung (Synchronicity, an acausal connecting principle) and the other by W. Pauli (The influence of archetypal ideas on the scientific theories of Kepler). Jung says that the sychronicity principle advanced by him may throw light on the body-soul problem. He says : "The absolute knowledge which is characteristic of synchronistic phenomena, a knowledge not mediated by the sense organs, supports the hypothesis of a self-subsistent meaning, or even expresses its existence. Such a form of existence can only be transcendental, since, as the knowledge of future or spatially distant events shows, it is contained in an irrepresentable space-time continuum" (p. 124). An interesting schematic representation of the physical.psychical situation which Jung presents (after discussion with Pauli) is that synchronicity deals with phenomena that are inexplicable not merely because the cause is unknown, but for them, the "cause is not even thinkable in intellectual terms" Energy Casuality Contingency (Synchronicity) Space-time As A. N. Whitehead (Science and the Modern World, 1925) has observed : “A scientific realism based on mechanism is conjoined with an unwavering belief in the world of men and of higher animals as being composed of self-determining organisms. This radical inconsistency at the basis of modern thought accounts for much that is half-hearted and wavering in our civilization." The mind-body problein is as alive as ever. Karl Popper (Objective Knowledge, an Evolutionary Approach, Clarendon Press, Oxford (1972), p. 153) says "Western Philosophy consists mainly of world pictures which are variations of the theme of body-mind dualism and of problems of method connected with them.” Science and objectivity are and must be recognized as inseparable. The cornerstone of the scientific method is the postulate that nature is objective. In other words, the systematic denial that 'true' knowledge can be reached by interpreting phenomena in terms of final causes that is to say, of 'purpose.... It is impossible to escape it (the postulate of objectivity), even provisionally or in a limited area, without departing from the domain of science itself.” (Jacques Monod, Chance and Necessity* (1970). No considerations of purpose, divine or - 372 - Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ human, can enter the domain of objective science. The exclusion is complete. Science is objective, not subjective or projective. If we ask what purpose do the stars in the sky serve?; the answer of astronomy is: The stars serve no purpose whatsoever. In the realm of science any other answer would be absured. To think of any purpose or goal for the universe (or for any parts of it) is totally alien to science, it is incompatible with it. (Knoff, New York, 1971). Any yet deep within us there is some vague feeling beyond doubt, akin to faith, that the universe (with its billions of galaxies, and each galaxy with billions. of stars) and human life, has some purpose, some transcendental goal Again, we would be overstepping the bounds of science, and indeed be untrue to science, if we were to believe that "prayers" could influence the course of physical phenomena. Prayers cannot effect or alter material things That is so. Yet, who can assert that in the realm of the mind a "prayer", earnest and heart-felt, is meaningless? To quote Gandhiji: "Prayer has been the saving of my life. Without it I should have been a lunatic long ago. My autobiography will tell you that I have had my fair share of the bitterest public and private experience. They threw me into temporary despair, but if I was to get rid of it, it was because of prayers....I am indifferent as to the form (of prayer)....I have given my personal testimony. Let every one try and find that, as a result of daily prayer, he adds. something new of his life, something with which nothing can be compared." (See also William James, The Varieties of Religions Experience, Lecture XIX, Longmans (1919). Science declares that the universe, including man's life, has no purpose, but the "I" certainly feels otherwise. For the "I", purpose (teleonomy) is everything; without it there is nothing. What is the bridge, the connecting link between objective science and subjective "I"? (How to resolve the flagrant contradiction between the determinism that science predicates and the freedom of the will which the "I" directly experiences?). It raises the deepest of all questions: What is "I"? How does the "I" (mind, consciousness) interact with the body? There is no solution to this profoundest of all "mysteries." (We are no nearer to an understanding of the mystery than the insight and wisdom provided by the Upanishads, as emphasized by Erwin Schroedinger in his remarkable book, My view of the World (1964). The current developments in quantum physics, cybernetics, and molecular biology emphasize that-if anything-the "mystery" is far deeper than ever thought before. It is one thing to recognize that we have no "solution", but altogether another thing to cavalierly assert (as some people do) that there is no "problem", no "mystery." The distinction is important. Otherwise, there is a real danger that science which man has created, and which is mankind's greatest intellectual and most fruitful enterprise, may, in the end, smother his spirit instead of enlarging and enriching it. - 373 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखसार वास्तविकता और भौतिकी : कुछ पहल ___ डी० एस० कोठारी, दिल्ली न्यूटन की यांत्रिकी में ईश्वरवाद के साथ परम आकाश और काल की मान्यता रही है। इस आधार पर स्थूल जगत की व्याख्या भी की जाती रही। लेकिन मैश और प्राइन्स्टीन के सापेक्षतावाद और क्वान्टम यांत्रिकी ने इस मान्यता में आमूल परिवर्तन कर दिया। ये नई मान्यतायें भारतीय उपनिषदों के समरूप ठहरती हैं। ___ वास्तव में, शरीर और मन का सम्बन्ध एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें विज्ञान अभी कोई विशेष व्याख्या नहीं दे पाई है। अरबिन श्रोडिन्जर ने अपनी एक पुस्तक में 'तत्त्वमसि' के सम्बन्ध में विचार प्रकट किये हैं और उसके आधार पर तरंग यांत्रिकी का विकास किया। बोहर का पूरकवाद भी उपनिषदों के मानव और विश्व, आत्मा और शरीर आदि के सम्बन्धों पर आधारित है। यह पूरकवाद जैन दर्शन में भो विशेष महत्व का है जब भगवान् महावीर कहते हैं कि यह आत्मा द्रव्य दृष्टि से अनादि-अनन्त है और भाव दृष्टि से सादिसान्त है। इसी प्रकार स्याद्वाद का सिद्धान्त भी आज के वैज्ञानिक और नैतिक धरातल पर महत्वपूर्ण बन गया है। इसके अनुसार वस्तु का पूर्ण विवरण सात रूपों में किया जा सकता है। इस निरूपण का निदर्शन क्वान्टम यांत्रिकी के अध्यारोपण सिद्धान्त से होता है। यहाँ भी स्याद्वाद के समान सन्दर्भ विन्दुओं को महत्व दिया जाता है। यह दृष्टिकोण अरस्तू के एकान्तवादी तर्कशास्त्र से अधिक ब्यापक और व्यावहारिक है। यह सचमुच ही आश्चर्य की बात है कि स्याद्वाद केवल दार्शनिक क्षेत्र में ही क्यों सीमित रह गया ? इसने परिमाणात्मक विकास क्यों नहीं किया ? आधुनिक विज्ञान की वस्तुनिष्ठता का मूल यह स्याद्वादी दृष्टिकोण ही है। इसमें व्यक्तिनिष्ठता का समावेश नहीं हो सकता। इसको समझने के लिये मन और मस्तिष्क का अन्तर अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मस्तिष्क वस्तुनिष्ठ होता है। इसके विषय में विज्ञान ने पर्याप्त जानकारी दी है। इसके विपरीत, मन व्यक्तिनिष्ठ होता है। ध्वनि की लहरियां मस्तिष्क में विद्युत् प्रवाह के रूप में आती हैं। यह मन में संगीत की अनुभूति कैसे उत्पन्न करता है ? इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान ने अभी तक नहीं दिया है । वस्तुतः मन न तो ऊर्जा के रूप में और न ही कण के रूप में समझा जा सका है। यह जीव-विज्ञान के क्षेत्र से बाहर की वस्तु है। फिर . मन और शरीर का संबन्ध क्या है ? फिर भी हम जानते हैं कि ये दोनों एक-दूसरे को निर्विवाद रूप से प्रभावित करते हैं। जोन-वान न्यूमैन ने मन को चेतना का पर्यायवाची माना है। व्यक्तिनिष्ठ ज्ञान हमें जीवन के अन्तरंग की ओर ले जाता है। इस आधार पर हम विश्व को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं-दृश्य और दृष्टा । इन दोनों के मध्य की सीमारेखा पर्याप्त स्वैच्छिक और अस्पष्ट है । रा शरीर एक यन्त्र है पर उसका नियन्त्रण 'मैं" करता है। इन दो तथ्यों से "मैं" का प्राकृतिक अस्तित्व सिद्ध होता है। श्रोडिन्जर के अनुसार, यही "मैं" भारतीय उपनिषद और वेदान्त का मूल है। मन और शरीर के इस नियामक संबंध की वैज्ञानिक दृष्टि से खोज आवश्यक है क्योंकि यह पूरकवाद पर आधारित है। जंग और पाउली आदि ने इस विषय पर विचार तो किया है, पर उनके निष्कर्ष समस्यात्मक है, समाधानपरक नहीं। विज्ञान कहता है-इस विश्व और मानव जीवन का कोई उद्देश्य नहीं है । लेकिन हमारा “मैं” ठीक इससे विपरीत ही कहता है। इस विश्व और "मैं" का बन्धन-सेतु क्या है ? वस्तुतः यहाँ मूलभूत प्रश्न "मैं" का है जो विश्व और जीवन से अधिक मौलिक और रहस्य मय है। विज्ञान आज भी इस समस्या के समाधान में उलझा हुआ है। उसके पास "मैं" के लिये कोई उत्तर नहीं है, पर वह इसे अपनी समस्या तो मानता ही है। -374 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SPACE, TIME AND THE UNIVERSE Prof. G. R. Jain, Merrut, U. P. The noble laureate Sir Albert Einstein, the brainiest man in the world, who was declared as a good man for nothing by his teachers in the school, startled the scientists all over the world by his theory of Relativity. The birth centenary of this great scientist has been just celebrated all over the world. He gave the dimensions of the Universe as in Table 1. With regard to its origin, he announced the Table 1. Einstein's Dimensions of the Universe 1. Mass 2. Mean density 3. Radius 2.143 x 1055 gm. 1.05 x 10-2 gm./ml. 1.01 x 1027 cms, or 1068 million light years Number of electrons 1.29 x 10T in the Universe. Cylinder theory according to which this Universe of ours is a four dimensional space continuum consisting of three dimensional space with time as its fourth dimension. This is limited in three dimensions of space like a cylinder but unlimited in the direction of time. In common language, it means that the universe is limited in three directions, but in the direction of time it runs from an infinite past into an infinite future. It is interesting to note that if we regard our universe as infinite, it cannot be stable at the same time, for in that case all our energy would get scattered into the infinity of space and the attractions of myriads of other universes filling this infinite universe would scatter it into the infinity. The picture of the universe as given by Jain Thinkers is very similar to this which we shall develop into the following here. The volume of the Universe according to the Jains is 343 cubic Rajjus, a Rajju1 being a quantity of the order of 1021 miles. The use of the word Brahmaṇḍa (Universe of the ellipsoidal form) by the Hindus for the universe is also suggestive of the finitude of the latter. The Universe:The Universe of Jains is composed of six substances. The substance has been defined as that reality which undergoes modifications through per manance. To give one example of such modification, consider an ingot of gold. Suppose we make an ornament out of it. The original mass of gold suffers a modification, the original form is destroyed, a new form is produced but the substance gold persists throughout the change. The six substances are as below: (1) Living substance or Soul or Jiva, (2) Non-living substance or Ajiva or Matter and energy, (3) Medium of motion or Dharma, (4) Medium of rest -375 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ or Adharma, (5) Space or Akasha and (6) Time or Kala. We will describe them in brief with some details of space at first. (1) Space Space is one of the six substances which compose the universe according to Jains. The function of space is to give place to all other substances, i.e. interpenetratability is the characteristic of space or Akasha. For purposes of measurement, space has been divided into space points called Pradeśas. A Pradeśa is the smallest three dimensional volume occupied by an atom or paramäņu. According to the Rutherford's planetary model of the atom, the positive charge of electricity known as Proton is situated in the center of the atom with a number of planetary electrons moving round it in fixed orbits. The atom of Hydrogen is the smallest and lightest. An estimate of its smallness and lightness can be gathered from the fact that if two hundred million atoms of hydrogen are placed in line, one touching the other, the total length would only be 2.55 cms. and the weight of 4 x 1021 atoms would be equal to the weight of a poppy seed. The number of gold atoms in a single drop of sea water is fifty billion. But this is not the atom of the Jains. In the last few years, a new model of the atom called the Quark model is emerging in the world of physics. An intensive hunt has been going on all over the world for the search of the "Ultimate particle” of matter called the Quark by the scientists. The hunters are some of the leading physicists. The hunting grounds : almost anywhere from the high atmosphere to the bottom of the sea to the inside of the latest atom smasher. Despite this painstaking search, it has not been possible so far to track down the Quark. The physicists say that the Quark is the simplest particle in the Universe out of which everything is made. The two most prominent workers in this field are Murray Gell Mann and Richard Feynman of the California Institute of Technology and their cellaborators. These people have won high honours for this work including Noble prize in 1965. From the very start of civilisation, philosophers have wished to find a simple idea that would unite everything we experience in the world around us. So there has been a search for the building block like the cell or gene in biology. The burning questions before the physicists of today are: (a) What are things really made of ? (b) Have we at last come down to the last foundation stone from which we can build anything: a table, a human being or a universe ? or (c) Must we go on looking at smaller and smaller pieces and going deeper and deeper into a bottomless pit ? To answer these questions, very elaborate and expensive experiments were performed in U. S. A. as a result of which the number of new particles emerging from nucleus has increased fantasically. By 1962, their number had been counted upto one hundred. Some of their names are neutrons, protons, pions, positrons, muons, electrons, neutrinos and their anti-particles such as anti-protons and so on. Millions of photographs were taken and even those particles were recorded which lived for as small a period as one-ten billionth of a second-- 10-11 second and then died but the Quark remains undicovered. We congratulate the scientists for their hard perserverence and uneasing labor. If some day, the Quark is discovered, it - 376 - Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ will be the atom of the Jains and the volume occupied by it will be the unit of space, the space point or Pradeśa. The space has two varieties; Lokakasha and Alokakasha. The constituent elements of the world are the infinite number of Jivas and the infinite number of the physical objects, principles of motion and rest and time-all contained in space the sixth. The space which is coextensive with these objects is called Lokakasha. But this is only a part of the real space. Beyond this, there is Alokakasha or Anantakasha. This is pure space. There are no objects animate or inanimate is this infinite region. For measurement of celestial space, two units are in use. They are Yojana and Rajju corresponding to miles and light years. In order to evaluate the magnitude. of Yojana, we consider the following table of length given in vedic literature: 24 Angula 1 Hasta 18 inches 4 Hasta 2000 Dhanus 4 Kosa C Danda or Dhanus = 6 feet 1 Koşa 12000 ft or 25/11 miles Yojana 100/11 miles or 9 miles 160 yds. This value is further corroborated from a Sukta of Rigveda, according to which light travels at the rate of 2202 yojanas per half Nimesha. As per Hindu Puranas, 15 Nimeṣas 1 Kāṣṭhā 30 Kästha-1 Kala 30 Kala 1 Muhurta or 48 minutes Thus the value of one Nimeșa comes to be 1/4 second. = Taking the value of Yojana as 100/11 miles and half Nimeșa as 1/4 second, the velocity of light comes to be 1,87,670 miles per second." This is the same value as arrived at by modern science. 1 Yojana 1 Mahayojan 1 Rajju 48 In order to calculate the value of Rajju in miles, we begin with the quotation given by the German Professor Von Glassnap in his famous book "Der Janismus" on the basis of the famous English astronomer Colebrooke. According to him, Rajju is the distance travelled by a Deva in six months at the rate of 20,57,152 yojanas per Nimesha. Taking the value of Yojana as 2000 x 100/11 miles and six months as 1,55,52,000 seconds or 1,55,52,000 x4 Nimesas, the distance travelled by the Deva is 2.23 x 101 miles, Einstein has assumed the universe as spherical and calculated its volume as 1037 x 1083 cubic miles. If we equate it to the volume of the universe given in cubic Rajjus by Jain thinkers, i. e. 343 cubic Rajjus, we obtain a Rajju equal to 1.45x 1021 miles. Finally, therefore, we arrive at the following space unit distances: = 100/11 miles 2000 Yojanas-2000 x 100/11 miles) 1.45x 101 miles. -377 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) Living Substance, Jiva or Soul :- The soul is the reality that possesses the faculty of knowing and perceiving, in which the sensations of pain and pleasure inhere and through which the volition functions. Modern experimental psycology has already discovered the electrical counterpart of the soul called the Taijas Sharira. This soul has the potency of changing its size by contraction and expansion. It can occupy the smallest possible body of a bacteriophage or the biggest body of a whale fish. Since a body grows from a microscopical size in the mother's womb to its full proportions and contracts again at the end of its earthly career, to reincarnate into a new seed, it follows that the size of the soul cannot remain fixed. Modern science identifies life with protoplasm or the living cell and it is well known that it possesses a remarkable property of contraction under external stimulii. The theory of transmigration of soul is an extraordinary conception also supported by Hindu and Budhist philosophies. According to Jain view, all actions of embodied living beings, whether mental or physical, are followed by influx of fine molecules of energy towards the soul--the former constitutes a fine material body around the soul. It is technically called Karmanā Sarira. To use the modern language, the activities of mind and matter constitute a super radio with the quantillions of living cells sending out their individual waves to be tuned in by quantillions of receiving sets in the brain. Influx of these waves is the influx of subtle karmic matter, which we can call the fourth state of matter, the other three being solid, liquid and gaseous states. Activity of a good kind attracts meritorious while activity of a bad kind attracts the opposite kind of karmic matter. The karmic body is responsible for dragging the soul from one physical body to another, and it keeps the soul bound to the confines of the universe owing to the gravitational forces operating on all sides. When karmic matter is shed off the soul by following the path of liberation, being the ligh test substance, the latter rises to the top of the universe and rests there as pure "Effulgence Devine". It cannot travel further on owing to the absence of the medium of motion called the luminiferous Aether by the scientists. In recent years, the scientists are trying to explain the processes of life, i. e., growth and reproduction in terms of special properties of various kinds of proteins and the two nucleic acids-DNA and RNA. Although the artificial synthesis of a biologically active living cell, which automatically grows by multiplication has been reported, it has not been possible so far to correlate the proteins, DNA and RNA with functions of memory, thought, reason, logic, intution and free will. In other words, consciousness could not be explained on the basis of physics and chemistry and hence the existence of soul remains unchallenged. Its existence and transmigration has been amply corroborated by the recent researches is para-psychology. (3) Ajiva or Matter and Energy or Pudgala :-Ajiva is the second principal constituent of the physical universe. The use of the word Pudgala for matter and energy is quite peculiar to Jain philosophy. This word has been coined from two words-Pud means to combine and Gala means to dissociate. Hence the root meaning of the word Pudgala is a substance which undergoes modifications by combina - 378 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tion and dissociation. One who is familiar with modern developments in atomic physics cannot but admire the choice of this word for denoting matter and energy. We now know ful-well that all atoms are assembly of protons, neutrons and electrons. In the phenomenon of radioactivity, atoms are seen dinintegrating themselves on their own accord into others For instance, an atom of Uranium after undergoing various modifications is ultimately converted into the metal lead. In the phenomenon of artificial radioactivity, the bombardment by alpha particles, protons or neutrons brings about such transformations as the conversions of aluminium or sulphur atoms into those of phosphorous. By bombarding a nitrogen nucleus with alpha particles, it is converted into oxygen. Similarly, by bombarding a berilium atom with alpha particles, it is converted into carbon atoms. Such examples can be multiplied. The chief characteristic of the substance-Pudgala is that it is the subject of sense perception, it has a form in contrast with other five constituents of the universe which are without form. The physical properties of hardness, density, temperature and either positive or negative charge are associated with it. It has one of the five colors depending on the temperature. This matter is divided into six subclasses : solids, liquids, gases, energy, fine karmic matter and extrafine matter consisting of the streams of the ultimate particles of matter. Until the beginning of this century, the classical physics of Newton and Galeleo regarded energy as perfectly weightless and without any association with matter. It was the genius of Einstein who definitely proved that every form of energy has mass and that there is no difference between matter and energy but that of the form. According to him, one gram of any kind of matter when fully changed into energy is equivalent to the quantity of heat which would be produced by burning 3000 tons of best variety of coal. It is really wonderful to note that this truth of particulate nature of energy was already discovered several centuries ago by the Jain philosophers. They regarded every forın of energy as a manifestation of Pudgala and hence one form of energy could be interconverted into the other. It is really interesting to see that whereas in the history of modern science the nature of heat, light and electricity could not be elucidated for a long time-they being regarded as fluids for several centuries. The true nature of sound was also known to Jaina thinkers. Unlike the other systems of thought, which associate sound with Aether or space, Jain system explains it as being due to the vibrations of the molecules. This sound is further divided into musical sounds and noises. The musical sounds are given different names depending upon their production by vibrations of strings, reeds, pipes, bells and stretched membranes. Matter is then thought of as made up of Skandhas (molecules), Skandhdeshas (atoms), Skandhapradeśas (ionised or stipped atoms) and paramānus (indivisible elementary particles such as electrons and the positrons). In conformity with the - 379 - Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ version of the modern kinetic and electron theories of matter, the Jain philosophy also regards elementary particles inside atom and the molecules in a piece of matter to be in a state of motion. Although the space-point technically called Pradeśa has been defined as the volume of the space occupied by an atom, but it is mentioned at the same time that an infinite number of atoms can occupy a pradeśa under abnormal conditions. The modern science has discovered a substance called nuclear matter, first discovered by Adams which is two thousand times denser than platinum, the heaviest metal on earth. The formation of such a matter in certain stars such as the dark companion of Sirius (the brightest star in northern heavens) can be explained in no other way but by saying that somehow a very large number of atoms have become packed in a small compass in nuclear matter. Writing about the nuclear matter, the great astrophysicist Eddington once said that one ton of nuclear matter can be easily carried in a waist coat pocket. According to Välmiki Rāmāyaṇa, the bow of Siva which was broken by Bhagwan Rāma was 13 cms in length and was made of nuclear matter called Vajra (4) Medium of motion or Dharma :-Dharma has been defined by Jains as the auxiallary cause of moticn. As water helps the movement of a moving fish so does the Dharma help the motion of the matter and soul. But it does not move those which are not moving. It should be noted that the word Dharma in Jain cannons has been used entirely in a different technical sense here than it is ordinarily understood to mean. Hindu philosophers have used this word in the sense of duty or righteous deeds only, but here the Jains mean the Aether of space, the medium of motion peculiar although it may seem. It is formless, inactive and eternal. It has none of the qualities associated with matter, i. e. it is devoid of qualities of contact, taste, color, smell and sound. It is a continuous medium pervading the whole universe. It remains unchanged by the motion of objects. The first problem before the scientists was that if light waves were real waves they must be waves in something. They were plainly not waves in matter, it was necessary, therefore, to invent something else, which was not matter, for them to be waves in. This something they called the Aether and imagined it as an utterly thin and elastic fluid that flowed undisturbed between the particles of the material universe and filled all empty space of every kind. What was this Aether like ? Material media are penetrated by aether, their molecules being surrounded by it such as the leaves of tree are surrounded by air. But difficulties and contradictions appeared at once. For, it was proved to be : (1) thinner than the thinnest gas; (2) more rigid than steel; (3) absolutely the same everywhere; (4) absolutely weightless; and (5) in the neighborhood of any electron, immensely heavier than lead. It is difficult to imagine the planets as moving with their enormous velocities through aether without any loss of energy. The motions - 380 - Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of the planets are perfectly regular and show no signs of any loss of this kind. In the words of Denton, the Newtonian aether is rigid, yet allows all matter to move about it without friction or resistance; it is elastic but cannot be distorted. It moves but its motion cannot be detected; it exerts force on matter but matter exerts no force on it : it has no mass nor has it any parts which can be identified; it is said to be at rest relatively to the fixed stars, yet the stars are known to be in motion relatively to one another. A great many phenomena, culminating in the Michelson experiment and the theory of relativity, showed that the aether must be something very different from ordinary terrestrial substances. Eddington writes about aether in his famous book, "The Nature of the Physical world” that it does not mean from the above that the aether is abolished. We need an aether.......... In the last century, it was widely believed that the aether was a kind of matter. It would be difficult to say when this view died out. Nowadays, it is agreed that aether is not a kind of matter. Being non-material, its properties are quite unique. Thus, it seems that science and Jain physics agree absolutely in so far as they call Dharma non-material, non-atoinic, non-discrete, continuous, co-extensive with space, indivisible and as a necessary medium for motion and one which does not move. (5) Medium of Rest or Adharma : Adharma is the auxiallary cause of rest to soul and matter. It is the principle which guarantees the permanance of the world sructure. It assists the staying of soul and matter which are stationery just as the shade of a tree helps the staying of travellers. But Adharma does not stay those which are moving. It also pervades the entire universe and has all other characteristics like Dharma. To summarise, it is a non-living, formless, inactive, continuous medium without which equilibrium in the universe would be impossible and the souls and the atoms would have become scattered in infinite space. It is the binding force which is responsible for a stable universe, without it, there would be chaos and no cosmos. The modern equivalent of Adharma may be looked upon as Newton's force of gravitation. According to Newton's law, all bodies with which we are acquainted, when raised into the air and quietly abandoned, descend to the earth's surface. They are urged thereto by a force or effort which, although it is beyond our power to trace, we call Gravity. According to law of gravitations, every particle of matter pulls every other particle directly as the product of their masses and inversely as the square of the distance between them, i.e. the heavier the bodies are, the greater is the mutual force of attraction and greater the seperation, the smaller is the force of attraction. If the distance between them is doubled, the force of attraction becomes one-fourth and if it is trebled, it becomes one-ninth and so on. It was the genius of Newton to extend the law of gravitation from the earth to heavenly bodies. He came early to suspect that the force which keeps the moon - 381 - Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in its orbit is none other than the power of attraction of the earth. However, it should be borne in mind that this force of Newton was taken as an active force although acting like an invisible agency. The Newtonian concept of gravitation was modified by Einstein who rendered it quite inactive and thus brought it on the same level as the Adharma of the Jain thinkers. In the case of atoms, however, gravitational attraction plays no real part. The masses of electrons and protons are too small for that. On the other hand, here there is an incomparably greater electric force, i.e. the force of attraction between oppositely charged protons and electrons. However, the law which governs this attraction is exactly similar in form to the law of gravitation, so that it is merely a change of name. It is again a force of attraction which keeps an electron moving round a proton. Thus, we are led to the conclusion that Adharma corresponds to Einstein's Unified Field of Gravitation and Electromagnetism. (6) Time or Kāla Time is also a substance. It is divided in two categories : absolute and apparent; de jure and do facto. The former is made up of Kalanus (grains or quantas of time). Innumerable grains of time reside one in each spacepoint of the finite universe like heaps of jewels. In other words, the time consists of units which never mix with one another but are always seperate. The whole universe, excluding the pure space is full of these grains of time; no part of the space within it is devoid of them. These grains are invisible, formless and inactive i.e. in a static condition and in countless number. The distinction between absolute and apparent time is that the former is eternal while the latter has a beginning and an end. The scientists also suspect that there is a real time behind the apparent time. Prof. Eddington says, "Whatever may be time de jure, the astronomer's time is time de facto........ You may be aware that it is revealed to us in Einstein's theory that time and space are mixed up in a rather strange way. This is a great stumbling block to the biginner." One startling conclusion from this theory is that both space and time vanish away into nothing if there is no matter. It is matter in which originate space and time and our universe of perception. So is the conclusion of Jain thinkers. In the infinite pure space extending beyond loka, no other substance exists but space, there is no matter and hence there are no grains of time. The resemblance is striking. The practical unit of time is two fold-one for the measurement of small intervals and the other for the measurement of extremely long intervals. Earlier, Nimesha has been indicated as the smallest unit of time equivalent to 1/4th of a second. A still smaller unit of time is Prativipalansha which is 1/9000 th. of a second. According to the Hindu Purāņas, 43, 20,000 years make a Mahāyuga and 1000 mahayugas make a Kalpakāla. The period of Kalpakāla is the Brahmā's day and an equal interval is Brahma's night. At the end of each Kalpa, Brahma creates a new universe. Thus the number of years in a kalpa is 4,32,00,00,000 (total number of digits is 10). But according to the Jains, the years of Kalpakāla - 382 - Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ can be expressed by a number consisting of 77 digits of which 26 are numerals followed by 50 ciphers. The numerals are in the following order: 826905260616406355499024384 x 1050 Origin and end of the Universe :-In Hindu Trinity, Brahma, Visņu and Mahesa have been allotted specific functions of creation, preservation and destruction of the universe respectively, i. e. these are the attributes of the Godhood. There are fixed times for creation and destruction. As already stated above, a Mahayug consists of 43,20,000 years and 71 mahāyugas make a Manvantara. The word Manvantara means the time interval between the successive Manus or the law givers. Fourteen Manus are born in a Kalpakāla. Before and after the birth of each of the 14 Manus, the world is submerged under water for a period of years equal to 4,32,000 x 4. Thus, the total number of times that the world is submerged under water is 15 and the corresponding total period is 4,32,000 × 4x 15-43,20,000 × 6 years i. e. 6 mahayugas. Since there are 14 Manus in each Kalapakala and they are born. at intervals of 71 mahäyugas and 6 mahāyugas elapse during the period of floods which occur 15 times in one Kalpa, the total period of a Kalpa is 71 x 14994 +61000 mahāyugas. Therefore, corresponding to our 24 hours day, Brahma's day consists of 8640 million years. The Puranas state that the Brahma creates the universe afresh at beginning of the day and it is submerged under water during night. The disappearance of the universe in this manner is called Naimittika Pralaya. In this the entire matter of the universe is concentrated in one place but is not destroyed. During one such Pralaya, the great sage Märkandeya alone was alive and all other celestial and terrestrial objects ceased to exist. There was water and water everywhere and the sage wandered through empty space. He saw a baby in yogic sleep on a banyan leaf. The baby opened his mouth wide enough for the sage to enter. On entering the mouth, he saw all the three worlds inside the stomach, thus proving that during a pralaya, all objects merge into Supreme being. He then releases all these objects at the time of new creation. The submerging of the earth under water has occurred about four times since the beginning of the earth. This fact has been accepted by the modern geologists. They have given it the name of "Glacial Epoch" and in Jain terminology, it is called "Khand Pralaya". The scientists have assigned the Deluge due to the melting of ice at the polar caps. The Mahapralaya occurs at the end of the life period of the Brahma, which is of 100 years duration, each day and each night of the year being of 4,32,00,00,000 years. In this absolute pralaya, everything in the universe, material as well as nonmaterials, is dissolved into atoms and finally absorbed into the body of the Supreme Being. At the time of creation, the process is reversed and our universe can be looked upon as the projection of Lord God himself. The process of dissolution and creation goes on cyclically for eternity. -383 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The concept of Mahāpralaya in Jain theory is a different story. The cycle of time here is divided into two parts called Avasarpiņi and Utsarpiņi. During the first, there is a gradual decline while during the second, there is a gradual progress. Utsarpiņi comes again and so on alternately. Each epoch is further divided into six parts. At the end of Avasarpini, there is a situation like Khand Pralaya for 49 days and then creation starts again with the seven day rains of water, milk, butter, amrit and sweet juice respectively. The following points of difference should be noted between the Hindu and the Jain concepts regarding the Universe : (1) According to the Hindus, the whole earth is submerged under water 15 times during one kalpa whereas according to the Jains, it is only once during each epoch and that too partially. (2) According to Hindus, at the time of Mahāpralaya, all matter, space and time are engulfed into the Supreme Being and then it is He who unfolds the Universe again, whereas according to Jains, the nature of the Universe is such that after it has completely run down, it regenerates itself by carrying out the cycle in reverse order. According to modern science, the Universe is gradually running down in the material sense of the word. The scientists say it as that the entropy of the world is tending towards the maximum. This has been proved mathematically by Maxwell from the second law of thermodynamics. In nature, heat is constantly flowing without interruption from a body at a higher temperature to a body at a lower temperature and air automatically flows from a region of high pressure to that of low pressure. Thus, there is tendency towards equalisation of temperature and pressure all over the universe. Efficiency of a heat engine is greater if the difference of temperatures between the source and the exhaust is large, i.e. greater the difference of temperatures, the higher is the efficiency. In other words, we can say that the availablity of energy for doing work is becoming less and less every moment and when the temperature and pressure will become the same everywhere, the available energy for work will become zero and the entire universe will come to a stand still, The sum tot il of the energy in the universe will be the same as before but it will not be available for work. Living beings will neither be able to move nor to breathe. Blood will not circulate in their veins. Life of all forms will be extinct. What next? is a glaring question before the scientists. They believe that the universe cannot end as declared by Einstein in his Cylinder theory referred to in the beginning. Some unknown force must rewind the clock of the Universe so that it may be set running once again. According to Hindu belief, the rewinding is done by the Almighty God whereas according to Jains, the process is automatic. There is another line of thinking in science. According to this, sun is the source of energy for all life on earth. According to the principle of equivalence - 384 - Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ between mass and energy, sun is loosing its mass at the rate of 46,000 tons per second and if it continues to radiate energy at the present rate, its mass will be reduced to zero after a few billion years, when Universe becomes devoid of solar energy, all life on earth will dis-appear and it will be a sort of Pralaya. In recent years, another interesting discovery has been made. It is well known that the magnetic north pole does not coincide with the geographical north pole. There is an angle between them. Now, it has been found that the magnetic poles. of the earth are slowly rotating and a time will come when the north pole will go into the position of south pole and vice versa. In between, there will be a period of 100-200 years when the earth will have no magnetic field at all because when we go from a negative quantity to a positive one, zero comes in between. The earth's magnetic field acts like an umbrella for the showers of destructive cosmic rays which are coming profusely from inter-stellar space. The earth's magnetic field deflects them to one side and it is only in very small numbers that they are able to reach us. The rotation of the poles has a period of about 7,50,000 years and the last reversal took place some 7,00,000 years back. Thus after 40 to 50 thousand years", it is likely to occur again. At the time of zero magnetic field, all cosmic ray showers fall upon the earth with full destructive force and the latter is completely scorched to death. This is Mahapralaya. On 30th June, 1908, there was an unusual explosion in Siberia in the Soviet Union. The explosion may be compared to a 30 megaton hydrogen bomb explosion, i. e. equal to 1500 Hiroshima atomic bombs exploding together. American scientists are of the opinion that it was an explosion caused by an antimatter intruder of about one kilogram weight, that entered accidentally into our atmosphere and fell upon the earth. If someday a lump of antimatter weighing about 10 tons enters into our universe, it will create such a violent explosion that the whole world will be reduced to dust. This is the latest view of science on the subject of Mahapralaya. References 1. Rajju is very big unit of length like the light year whose magnitude has been seperately discussed. 2. In the measurement of the Universe, Mahãyojana is used, this being 2000 times greater than yojana. 3. Although, the law of gravitation is associated with Newton, it was already known to the great Indian astronomer Bhaskaracharya some six hundred years before Newton. Bhaskara enunciated the law exactly in the same mathematical form as did Newton. 4. The universe is called Brahmaṇḍa which means egg of Brahma. This egg was made of gold. According to Big Bang theory, some five billion years ago, this egg, due to some unknown cause suddenly began to expand and -385 49 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ based on certain evidences, it is claimed that it is still expanding. The Jainas, however, do not believe in the expanding Universe. They believe the Universe has a fixed size of 343 cu. Rajjus. This expansion of universe has been concluded on the basis of feeble red shift of spectral, lines. Deepak Basu has explained it away by saying that it is due to gravitational field of galaxies. Similar views have been expressed from many other quarters. There is still another theory running parallel to it with a very large number of followers which believes in continuous creation. In this theory, the universe was not created at any particular time out of nothing but it continues with necessary modifications and will continue to be so forever. 5. Nemcandrācārya, Trilokasara, Adhikar 6, gathas, 866,868. 6. This is quite in conformity with the Jain view that the next Mahāpralaya will occur after about 39.5 thousand years. 7. The matter of our universe is an assemblage of atoms wherein the positive charge is in the centre and the electrons move round it. In case of atoms of antimatter, the negative charge is in the centre and the positrons move round it. When an atom of antimatter comes in contact with ordinary matter, there is an explosion and both of them are annihilated. It is presumed that beyond our universe, there is its counterpart made up of antimatter and called as the anti-universe. लेखसार आकाश, काल और विश्व प्रो० जी० आर० जैन, मेरठ उ० प्र० आकाश-जैन मान्यता के अनुसार यह विश्व छह मौलिक द्रव्यों या तत्त्वों से बना हुआ है। इनमें से आकाश भी एक है। यह सभी प्रकार के मूर्त और अमूर्त पदार्थों को अवगाह-दान करता है। इसका मापन प्रदेश-यूनिटों में किया जाता है। प्रदेश सूक्ष्मतम परमाणु द्वारा अधिष्ठित आयतन माना जाता है। आज के विज्ञान ने अभी तक जैनसम्मत परमाणु के समकक्ष विश्व के सूक्ष्म घटक का परिज्ञान नहीं कर पाया है, यद्यपि वर्तमान में क्वार्क नामक कण को इसका समकक्ष माना जा सकता है। आकाश के जितने क्षेत्र में मूर्त-अमूर्त पदार्थ पाये जाते हैं, वह लोकाकाश है। इसके बाद शुद्ध आकाश है जो अलोकाकाश कहलाता है। दूरवर्ती आकाश-क्षेत्रों के मापन के लिये योजन, महायोजन ( = 2000 योजन) और रज्जु (= 1.45 X 1031 मील) के यूनिट प्रयुक्त होते हैं। परिकलनों के आकार पर योजन का मान 100/11=3D9.09 मील पाया गया है। इसके आधार पर प्रकाश का वेग 1, 87, 670 मील प्रति सेकंड निश्चित होता है। -386 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -काल-यह भी विश्व के छह द्रव्यों में से एक अमूर्त द्रव्य है जो व्यवहार और निश्चय के भेद से दो प्रकार का होता है। निश्चय काल के सूक्ष्म कालाणु आकाश-प्रदेशों में मणियों के समान विद्यमान रहते हैं। ये कालाणु अदृश्य, अनाकार, अक्रिय और अमिश्रणीय होते हैं। ये अनादि और अनंत होते हैं। इनके विपर्यास में, व्यवहार काल सादि और सान्त होता है। प्रो० एडिग्टन का अनुमान है कि व्यवहार काल के मूल में निश्चय काल होना चाहिये। सापेक्षवाद के अनुसार, यदि पदार्थ या द्रव्य न हों, तो काल भी नहीं रहता। इसीलिये अलोकाकाश में पदार्थों के अभाव से काल द्रव्य का अस्तित्व नहीं माना जाता। काल के मापन के लिये दो प्रकार के यूनिट काम आते हैं। समय के लघु अन्तरालों के मापन में निमेष (0.25 सेकंड) अथवा प्रतिविपलांश (0.00011 सेकंड) काम आते हैं। दीर्घ अन्तरालों के लिये हिन्दू पुराणों में महायुग (43,20,000 वर्ष) और कल्पकाल 1000 महायुग) का प्रयोग किया गया है। जैन मान्यता के अनुसार कल्पकाल में वर्षों की संख्या 77 अंकों की होती है जबकि हिन्दू मान्यता में यह दस अंकों का ही है । विश्व का आदि और अन्त-हिन्दू-पुराणों के अनुसार ब्रह्मा दिन में सृष्टि का निर्माण करते हैं और रात्रि में उसे विलीन करते हैं। इस दैनिक प्रलय को नैमित्तिक या खंड प्रनय कहते हैं। इसमें विश्व के समस्त पदार्थ एक स्थान पर केन्द्रित हो जाते हैं। लेकिन ब्रह्मा की प्रत्येक 100 वर्ष की आयु पूर्ण होने पर संसार का महाप्रलय होता है जब कि विश्व की प्रत्येक वस्तु अपघटित होकर ब्रह्मा में विलीन हो जाती है । इसके बाद वह पुनः सृष्टि का प्रारंभ करता है । इस प्रकार नैमित्तिक एवं महाप्रलय तथा सृष्टि-निर्माण की प्रक्रिया का चक्र चलता रहता है। इस वर्णन के विपर्यास में, जैनों के अनुसार विश्व का यह चक्र उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों के रूप में निरंतर प्रकृत्या ही चलता रहता है। अवसपिणी काल के अन्त में 49 दिन में खंड प्रलय के समान स्थिति बनती है लेकिन इसके बाद 35 दिन में जीवन पुनः पूर्ववत् हो जाता है । आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार, विश्व में एन्ट्रोपी की निरंतर वृद्धि से, सौर ऊर्जा के निरंतर विकिरण के कारण सूर्य के द्रव्यमान के शून्य होने से अथवा उत्तरी ध्रुव या दक्षिणी ध्रुवों के घूर्णन के कारण एक दूसरे का स्थान ग्रहण करने से विश्व में प्रलय संभावित है। उदाहरणार्थ, ध्रुवों के घूर्णन से पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में विचलन होता है और जब एक ध्रुव दूसरे ध्रुवों पर पहुँचता है, तब यह क्षेत्र शून्य चुंबकीय शक्ति के माध्यम से आगे विरोधी दिशा में परिवर्तित होता है। ध्रुवों का इस प्रकार का धूर्णन साढ़े सात लाख वर्ष में एक बार होता है। इस प्रकार का पिछला घूर्णन कोई सात लाख वर्ष पूर्व हुआ था। उस समय चुंबकीय क्षेत्र के अभाव में कास्मिक किरणे पृथ्वी पर पड़ी और प्रलय छा गया था। अब 50,000 वर्ष बाद फिर ऐसी ही स्थिति संभव है। जैन शास्त्रों में भी इसी प्रकार का एक अनुमान लगाया गया है । विश्व के इस प्रलय की एक सूचना 30 जून 1908 में रूस में हुये एक विशिष्ट विस्फोट से भी मिलती है जिसमें एक आकाशीय प्रतिपिंड भूतल से टकरा गया होगा। यह पिंडप्रतिपिंड की टक्कर कभी भी हो सकती है। लेकिन जैन मान्यता के अनुसार यह खंड प्रलय ही होगा, विश्व का अन्त नहीं। इस प्रकार विश्व अनादि और अनन्त है जिसमें सृष्टि एवं खंड प्रलय का चक्र चलता रहता है। -387 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PROPERTIES OF MATTER IN JAIN CANNONS N. L. Jain Girls College, Rewa, M, P. Introduction Jain philosophy is noted for its principles of polyviews to explain the plurality of realities in contrast to Vedantins. Scholars have taken large pains to establish the priority or posterioty of these Indian philosophies but no definiteness has accrued on this point as yet as large number and variety of statements are found in pre-Christian era literature supporting both types of opinions Nevertheless, a logical point may be stated that adwaita grew out of plurality to explain and sustain some phenomena on intellectual scale. It is now agreed that Uttaradhyayan precedes the Vaiseșika philosophy which is followed by other Jaina philosophical cannons just at the beginning of Christian era. This paper is concerned with some of the physical contents developed during the period and later on. It will deal with only three important aspects of these contents, viz (i) methods of obtaining knowledge (ii) definition of and (iii) attributes of matter and evaluation with respect to the current views on them. The author feels that no proper and systematic attempt has been made in this direction and would feel pleasure if this paper leads to some serious studies in this regard to critically evaluate and supplement the points raised in this article. Methods of obtaining knowledge There are two words "Janadi and Passadi” in literature associated with knowledge. Tatia? has shown that there was not much difference in these two activities in early days as they were supposed to be simultaneous. Later on, it was surmised that sensory perception preceded the mental conception. Thus Passadi became the more important part of obtaining knowledge of material world. Umaswatis has pointed out two ways of sensory perception-Pramanas and nayas. The naya method consists of studying an object with respect to a particular aspect, mode or state. As a substance has many aspects, there may be many nayas to study it. Pramāna is a way of all inclusive study of the object. Thus it will synthesize all the analytical studies by naya method. Realistically, it is not possible to do so in normal state, hence naya method is the chief source for obtaining knowledge for the human beings. Actually, the naya method follows the same methods as used in pramana studies. It has been pointed out that the knowledge about an object can be ascertained through six categories : description, ownership, cause, substratum, duration and classification. There are other ways of expressing these - 388 - Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ categories without much difference from these six. All these means employ both the above methods of studies. Whatever the method employed, it has two aspects: the study may be intutional or sensual. The technical words used for these are Pratyksha and paroksha respectively. These words have different meanings in Jain philosophy in contrast to other philosophies like Vaiseșika leading to some confusion in understanding by others. Akalanka removed this discrepancy by classifying the intutional method in two forms--one by pure in tution and other by sensual perception. The latter he called sensual intution caused by senses and mind. It was regarded upto a stage it was not expressed through words. What other systems presume as pratykşa, Jainas call it as Paroksha and Laukika Pratyakşa. This includes sensory cognition, resemblance, recognition, induction and deduction and recording for onward transmission for advancement of knowledge. The aforesaid six categories for obtaining knowledge are thus rendered possible, by these methods. On close examination of these methods, one finds that sensual perception is the one without which others may not be possible. The importance of sensual perception, therefore, is thus self evident for knowledge. It will thus be interesting to see how this cognition is obtained and what are the steps involved in it? It has also been pointed out that besides senses and mind, external causes like light etc. are also partly responsible for the process. As this knowledge depends on senses, mind and light etc., it is called Parokşa. Umaswati has stated that sensual cognition is obtained through senses first and mind next. There are four steps involved in this type of cognition : apprehension (awagraha), speculation (Iha), perceptual judgement (Awaya) and retention (Dharana). In the first stage of apprehension, the object comes in contact with sensory organs and one feels there is something or sees it. One has only a crude idea about what it could be ? Actually, this stage has two steps depending on the senses utilised for contact with the object. If senses are other than eyes and mind, one will have indistinct apprehension or Darśana first and distinct apprehension next. With eyes and mind, one has always a distinct apprehension. Observation is the current name for this stage. The type of observation leads to qualify our knowledge. More acute and keen the observation, more fruitful and exact will be our knowledge. In the olden days, experiments were rare and only nature and its various aspects were observed, The next stage is to have more observation to analyse about the nature of the object. This requires the use of mental faculty in the process of knowledge. Hence the connection of senses and mind is clearly recognised. It is clear that larger the type and number of observations, better will be their analysis for proper judgement. Pujyapada 5 exemplifies these two stages. To observe a white thing is the first stage while to analyse whether it is a flag or a bird-is the next stage. For this, one has to have more particulars about the object. - 389 - Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The third stage is the decisive or inferential stage. With the help of many particulars obtained about a white flag or a bird on the spot or from independant sources, one infers it decisively to be a bird as it flies up and down or flaps its wings. The process involves analytical studies of observations, classifying or seperating them under various heads. Similar observations are put under same head and others under different heads. The decision is taken after analysing the observed points and applying them to the object. The name given to this stage is Avaya. Some have called it Apaya as it excludes others for deciding on one object. The fourth stage for the process of knowing is to retain what already had been decisively learnt in stage 3. This retention leads to communication and application of this knowledge to other similar or dis-similar objects. This stage is named as Dharana and its meaning seems to have been expressed in quite a restricted sense. It would have been better had it been given a more general view. It seems it has been defined with respect to one object at a time and the same object at the other times. Normally, dharana should mean a valid conception applicable to similar fields. If this little better view is taken, it becomes the base for hypothesis in the current terminology. A universally applicable hypothesis become a theory or a law. The third and fourth processes involve all the mental processes given above for drawing valid decision. The last stage in the knowing process is the preparation of records of the knowledge so obtained. These records are meant to learn what has been known and communicate for the future generation. It is called Śruta or scriptures having a meaning of heard or seen by previous scholars. There is a large amount of discussion about the nature of shruta and their authors. It is said that the authors are of two types: omniscient and non-omniscient, 10 All the present scriptures have been composed by non-omnicient authors on the basis of traditional omniscient authority. It may be surmised they do not satisfy the criteria of their direct omniscient authorship. They should thus be taken as true records by the scholarly authors of various ages. They contain differring views and additional contents in many cases. They may thus be subject to modifications for better accuracy of their contents not substantiated by current observation and analysis. The idea that old scriptures are all-proof and contain all the knowledge for all the times does not stand srutiny. In this case, there should not be any addition or modification in their contents and the knowledge would become like water in a pond. This trend has led India to a trend of non-utilitarian view of pursuance for new knowledge causing her backwardness in recent times in contrast to her earlier competitive position. Both of the above points are untenable in modern world of scientific attitude. It presumes that the scriptures are records of existing knowledge which grows like at flowing river where modifications and new additions are always possible subject to the condition that they are obtained through the above processes. This fact is -390 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ corroborated by the present scriptures themselves. The evolution of two varieties of pratyaksha, mention of time as reality by some, different ways of expressing the eight fundamental qualities of a household and the variety of opinions regarding the functioning of eyes and other senses with or without the contact with the object expressed by pūjyapäda and Virsen are but some examples. In fact it would be surprising how the knowledge could be supposed to be full well known when the world is always changing and developing out of curious facts observed constantly. The scriptures define knowledge as sakar or with details with the first substage of sensual observation without details has been called preception or Darsana (later on this word has a better developed meaning). Thus, the process of knowledge consists of mind activity associated with sensual or experimental observations. This is nothing but the other way of defining the word science of the current terminology as it is also a resultant of combination of intellectual activity coherent with sensual observation. The above mentioned scriptural processes of obtaining knowledge are just akin to the same steps scientific studies have been following since their inception. Experimental observations, characterisation or classification and hypothesization or theorisation--is the generally accepted scientific approach in a cyclic way. Thus, senses (or instruments) aided by mental activity is also the method of scientific studies. This makes it clear that even in olden days too, scientific methods were used for learning about things around. This method has been elaborated by Umaswati and his commentators have pointed out as many as 336 ways of sensory perceptions about things. It is presumed that the knowledge obtained by these would be correct and will have no debatable features un less the senses themselves are in abnormal situation. This being the basis of scriptural contents, it should be quite interesting to compare the knowledge gained on some common objects like matter with the current knowledge about them. Normally, the methods being the same, there should not be much difference between the two except in some minor or finer details. As set forth previously, the definition of matter and its attributes will be examined with this perspective in this paper. Factors or means for obtaining knowledge :-Of all the stages described above, the first stage is of prime importance. It requires that there should at least be two factors for the process of knowing about a material thing. These are the senses and the matter itself which is to be known about. To make a preliminary contact between the two, factors like light should also be there. The senses include mind also. Both of these have two varieties; physical and psychical. The contact occurs between physical senses and the matter in the first instance. This encourages the psychical sense to transfer the first information to the brain for cognition. The Nyaya philosophy has accepted this commonsense view of obtaining the knowledge. According to it, knowledge is obtained due to all the intrinsic and extrinsic factors and contact between senses and matter. But the Jainas have distinctly divided these factors in two categories. The primary factor is the knower or soul himself as -391 - Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ if the knower is not there, there will be no knowledge whatsoever despite all other factors working. Other factors are said to be secondary. They help the knower in the body to obtain the knowledge about a thing. Thus all the external factors like senses, mind, light and even the matter itself have been taken as secondary, thus disregarding the Nyaya view. The idea of primary and secondary factors of the Jainas in this connection gives an impression of their deeper insight into the process. They have also said that the knowledge can be valid only when the inner knower is there. It could be intrinsically valid. However, the validity of the knowledge could be extrinsic also like that from the a gamic sources or works of the scholars. Proper examples have been given to illustrate this point of view. Despite this more accute insight about the classification of factors for obtaining the knowledge, it must be pointed out that there are some statements made for refutation of Nyaya view which require elaboration. In refuting the sense-matter point of view, two main points have been raised. Firstly, senses like eyes and mind do not have contact with matter. Secondly, the omniscientist soul has knowledge of past and future besides the present. This cannot be possible with contact point of view. Hence, the omniscientificity, which is an agamic fact, goes against sense-matter contact theory. It has been pointed out that the eye cannot be called to work in the complete obsence of contact with the matter. The contact of eye with matter is caused through the light rays and their straight path. Thus, the working of the eye may not require direct contact with matter but there is definitely an indirect contact without which it will not work like camera. Thus, the eye works with indirect contact or some other different type of contact from the other senses. Thus non-contactablity of the eye should be redifined as to mean an indirect or some sort of contact (as prefix A has both meanings; partial or negative). This will eliminate the discrepancy regarding the working of the eye. This also applies to dark field which is not the absence of light but a light which is beyond the visible range of human beings. This is the light which is in the visible range of some animals like cats and owls. Its details have been discussed elsewhere. The physical mind may be equated to the brain of the present. This is a power house and store house as well for the nervous and motor activities. It will work bothways, i. e. when sensations are brought to it through senses and when they arise due to mental processes covering past, present and future experiences. Of course, the working of mind in more indirect in comparision to the eye. Sometimes it may be completely indirect. Some Indian philosophers have postulated the totality of factors--senses, matter, knower--as leading to true knowledge. Jainas have criticised these views on the basis of the fact that though they lead to knowledge, they are not direct factors for it. These views have been dealt with more intellectually rather than factually. Nevertheless, their secondary role in the process has been accepted by the Jaina philosophers. -392 - Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Definition of Matter : General and special Attributes Jainas assume the world as real consisting of six realities. These have been called by various names like Tattva, Tattwärtha, Artha, Padārtha etc. These names include all terms used in other philosophies like the padarthas of Vaiseșika, Tattvas of Sankhyas and the like with specific definitions. The realities are also termed as Dravyas which characterises them. They may be material like earth or non-material like soul or space. Despite this variety, they have some general characteristics which are found in all the dravyas. Basically, Dravyas are only two-. those with consciousness and without it but their inter-relationships have led to their classifications into the Tattvas--seven in number or Padārthas---nine in number at later periods. Sat is another name for dravyas added during post-agamic periods. All these Dravyas have the same general characteristics. Out of the two basic dravyas, the one without consciousness-ajiva seems to be more important as it is responsible for a large part of the worldly phenomena. The ajivas have also two varieties-material and non-material. We will be concerned here with material ajivas or matter only as we can directly study them by many methods today and compare and contrast our knowledge with the scriptures. Whatever be the type of reality, it has been defined in various technical terms leading to the same meaning. Any reality could be defined in two ways : it has some general attributes and it also has some special attributes. The reality cannot exist without these attributes. The general properties are called common properties, existential similarities, tiryak samanya, gunas or coexistant qualities. Rajvartik mentions eleven such qualities of a reality. However, Devsen and Mallivadi' have given eight such characteristics details for which are available. They are existence or permanence, motion, changeablity, knowablity, particulate nature, visiblity (or otherwise), non-consciousness (or otherwise) and agurulaghutva (individuality). The other type of properties contained in the realities are called distinctive or specific properties. They are meant for differentiating one substance from another. Like the general ones, these also have various names : Viseșas, Urdhvtasamanya, Swarūpāstitva or Paryāyas or modifications. There are sixteen such specific properties out of which only six are attributed to material ajiva world, touch, taste, smell, colour, shape and insensiblity. Thus, any reality may be defined as consisting of some general and some specific qualities. It means that a reality in, jaina philosophy is neither a particularity nor a universality exclusively but it is a synthasis of both these types as Mehta 10 has pointed out. This has been alternatively stated as a reality consists of gunas and paryāyas or sämänya and visesa type of attributes. Padmarajaiyali has qualified these attributes with their static and dynamic nature and has suggested that a reality consists of a blend of both of them. It does not have an exclusive nature. It has inclusive nature. This Jaina definition of reality has accomodated all the exclusivist attitudes and has made the definition as accurate as possible, - 393 40 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Review of General properties It will be appropriate here if we could compare the general definition with the modern scientific definition of matter. Scientists define matter with three common attributes: (a) It should have weight (b) It should occupy space, i. e, it should have a form or volume and (c) It must be subject to our experience and knowledge. As we have seen, Jainas have counted only two of them as common properties. They have not counted weight as a characteristic property, but they have many others which the scientific definition does not have. Comparatively, the scientific definition of matter seems to be too crude to be called accurate. The definition is more illustrative of the basic general properties indicating the particulate nature, constant motion, changeablity, insensibility and other coexisting properties, The non-inclusion of weight as a common property by the jainas might be due to the fact that they assumed energies like light, heat etc. to be material which did not seem to possess the property of weight together with other nonmaterial realities. Though there is a property called agurulaghutva (neither heavy nor light) indicating some idea about possession of very small weight which could undergo infinitesmal changes, but the basic parmaņu of matter has described as devoid of weight. Recent researches, however suggest that however small it might be, energies must have weight cuivalent as per Einstein's equation. Even if we presume Jain's15 point of equating electrons as atoms, they have already been weighted. The scientists are trying to detect particles like nutrinos or gravitational energy and they have every hope that even in these cases, this equation will hold and they will prove it to be material. Thus the weightlessness should be taken to mean very small or negligible weight rather than complete absence of weight. Muni Mahendrakumarji1 11 has pointed out that the scriptures describe the basic unit of matter-parmaņu of Jain philosophy to be of two varieties-one with four tactile qualities and the other with eight tactile qualities. The first type does have no weight property while the other has it. This only means that one of these (the first one) should be energy while the other should be matter of the present. It can be surmised that interconversion of these types must be occurring in nature especially the energy into matter. The modern scientists are trying to explain the process. Anyhow, whether it is energy or matter, both must have shape or visibility and thus weight also howsoever small it may be. According to Muniji, this point has a capability of solving many intricate problems arising out of various theories of Universe. The other common properties not indicated in the scientific definition of matter are very important as they have a clear concept of law of conservation of mass and energy and kinetic state of basic unit. This point has been elaborated elsewhere. 14 The modern scientific world of East and West is still unaware of these cannonical contents and history of Chemistry books have no mention about them as yet. An effort should be made to let these facts be known through proper means. -1394 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ In addition to this, it must be added that the scientific definition of matter must be made more illustrative of the general nature of matter. As todate, it seems to be quite incomplete, Special Attributes of Matter As pointed out, there are six basic specifics of matter mentioned in scriptures. All are sense perceptible. Each of the five of these six has been subclassified as below with a mention of innumerable varieties of each class : 1. Touch or tactile qualities 8 Hot-cold, smooth-non-smooth, light-heavy, hard-soft 2. Taste 5 Sour, sweet, astringent, bitter, and acidic 3. Smell 2 good and bad 4. Color 5 Black, blue, yellow, white and red 5. Shape 10 Circular, traingular, point space, hexago nal, symmetrical, unsymmetrical, upper and lower part symmetrical, dwarf, hunchbacked It has been stated earlier that the tactile qualities refer to temperature, tactile or electrical nature, density and hardness, Jain 15 has referred the attributes of smoothness and nonsmoothness as representing crystalline nature. This does not seem to be correct as it should be included either in shape or color. In exemplifying the two, goats milk and sand6 have been mentioned which also do not lend support to this view. Rajvartik mentions liquidity, solidification lubrication and density as other properties. Besides the above, there are many tactile qualities of matter known today. They refer to physical or mechanical strengh of gross material bodies. These include pliablity, plasticity, ductility, elasticity and others. These have become important in modern world as they decide the utility of material for specific purposes. Viscosity, surface tension etc. are some other properties of importance for fluids. These attributes are not only qualitatively described today but a complete quantitative treatment of each of them is available. The scriptures do not have any quantitative treatment in this regard. The Vaiseșikas? V seem to face a little better as they have atleast defined and classified gravitation, viscosity, fluidity, elasticity, velocity and other attributes of differing character. The science of tasting17 has become quite advanced today in contrast to the five taste theory. Haribhadra2] has removed one discrepancy in this by saying "salty taste should be included in sweet" for non-inclusion of a specific salty taste in scriptures. There seems to be no explanation regarding how taste is experienced by man. Scientists are now agreeing to four tastes only whose innumerable varieties are experienced by about 10,000 taste buds in the tongue. The scientists also opine that normal taste sensation is a combined effect of taste and smell organs. This requires that two sensed jivas might be actually three sensed. This has to be -395 - Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ investigated properly. Structural studies of tasteful materials have also shown some promising results. The science of smelling?? has also made a great stride over the scriptural period, Perfumery science and technology has aided this advance. Though classification of cdors is still arbitratory, still nine classes of odors have now been recognised. Their smelling quality can also be quantitatively expressed in terms of olfactory coefficients. Structure versus odors relationships have also been observed in many cases. The modern age seems to have gone much deeper in the knowledge of taste and smell attributes. The color feeling is a light phenomena. Modern science agreed to seven rainbow colors in the past which excludes white and black colors. Now they have thought of basic colors and they are only three. Other colors are just various permutations and combinations of them. The scriptures seem to express the commonly experienced colors rather than basic colors. Now quite a good knowledge has been obtained about the experience of color and appreciation. The scriptural fact that colors have innumerable varieties in fully substantiated by current experiments as each color represents a specific frequency of light. Jaina philosophy maintains that the above four qualities are always coexisting. If any one of them is clear, the others may also be there, sometimes in an indistinct form. This statement is a great progress over the Vaiseșikas who have a defferring opinion about it. The Jaina view is substantiated by current experimental findings. Sciptures classify shapes in many ways but the total types of shapes counted seem to be ten in number in various sources. Nowadays, about 232 types of shapes are agreed and each has an example18. This is dealt with in geometry and crystallography which has grown enormously. Conditions have been ascertained to obtain any specific type of shape or even a single crystal by experiment. The scriptural descriptions suggest that the shapes mentioned therein belong to natural substances. It is now also possible to change their natural shapes by various technics. Theoretical basis of shapes has also been prepared. Modifications in Attributes All the specific attributes described above undergo modifications. These are called Paryayas. They are not coexistant like general attributes. For example, color will always be there in matter, but yellow or green color is changeable. Thus, attributes are said to be permanent while their modification are temporary. Thus the matter will always be associated with attributes and their modifications. These modifications are called consecutive properties. Grossness, fineness, binding and dividing capacity are found in material bodies while heat, cold, light, sound, shadow, darkness are caused by energies. The material modifications are described in literatures. The modifications of energy - 396 - Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ have also been dealt with seperately.18,19 All these modifications take place in two ways indistinctly and distinctly, Indistinct modifications are comparatively momentary while distinct modifications are clearly describable and somewhat more durable. These are caused by self and by others. The change of color, formation of molecules, formation of curd from milk and the like are all modifications due to non-self causes. These are quite common even in our daily life. In some cases, the cause of the change has also been mentioned in scriptures. New age has not only identified the causes but it has utilised them in many more fields. It must be added that some of these modifications are chemical while others are physical only. There are innumerable modifications in matter substantiable today. Conclusion From the above description, it might be clear that philosophical contents of the Jainas stand in a high position where concepts and intellectual maturity is concerned. We see this in the theory of obtaining knowledge and definition of matter which are very sound in contrast with current scientific views. This is also the case with other concepts. 3 But when one applies these concepts to study the material objects and their properties, one feels that the current knowledge about the differentiating attributes of matter has gone quite ahead of scripturcal period. But here the fortunate situation is that the addition of the knowledge has been supplementary rather than contradictory in most of the cases. This reflects upon our scholar's keen and accurate observation and analytical capacity. It can be confidently said that had there been instruments of today and a little less aversion of physical labor for experimentation, our seers would have stood the current times. The above discussion also points out what was known in scriptural age and the level of our knowledge we have moved in the current age. References 1. Sukhlal Sanghavi, Pt., Tattwärthsūtra, 3rd ed., PVRI, Varanasi, 1976. 2. Nathmal Tatia, Tulsi Pragya, Dec, 78, Vishwabharati. Ladnun, 1978. Phulchand, Pt., Tattwarthsutra, Varni Granthmala, Varanasi, 1953, 4. Mahendrakumar Nyayacharya, Jain Darshan, ibid, 1966. 5. Pujyapad Acharya, Sarvarthasiddhi, Bharatiya Gyanpith, Kashi, 1971. 6. Dewardhi Kshamashraman, Bhagvati Sutra, Shastrodhar Samiti, Rajkot, 1961. . Akalanka Deva, Tattwarth Rajvartika Vol. 1, Bhartiya Gyanpith; Kashi, 1953. 8. Devsen Acharya, Alap Paddhati, Shantivir Jain Samsthan, Mahavirji, 1970. 9. Mallivadi Acharya, Nayachakra. - 397 - Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. Mohanlal Mehta, Outlines of Jain Philosophy, Jain Mission Society, 1954. 11. Padmarajaiya, YJ, Jain Theories of Reality and knowledge, Jain Sahitya Vikas Mandal, Bombay, 1963. 12. Muni Mahendrakumar 11, in SC Diwakar Abhinandan Grantha, Jabal pur, 1976. 13. Jain, N. L. ibid, 14. Jain, N.L., in Jinavani, July-Sept., 1973, Jaipur. 15. Jain, GR., Cosmology, Old and New, Bharatiya Gyanpitha, Delhi, 1975. 16. Jain, SA., Reality, Vir Shasan Sangha, Calcutta, 1960. 17. Charles H. West and Norman B. Taylor : Physiological Basis of Medical Practice, Science Book Agency, Calcutta, 1967. 18. Mee, AJ, Physical Chennistry, BLBS, London, 1964. 19. Jain, N. L. Physical contents in Jain Cannons, Magadh University Seminar, 1975. 20. Annambhatta, Tark Sangraha, Chhannulal Gyanchand, Banaras, 1934. 21. Haribhadra Suri, Saddarsana Samuccaya, Bhartiya Gyanpith, Banaras, 1970. लेखसार जैन आगमों में द्रव्य के गुण एन० एल० जैन, गर्ल्स कालेज, रीवा, म०प्र० प्रस्तुत लेख में जैनागमों में वर्णित भौतिक जगत के वर्णन से संबद्ध तीन प्रमुख विषयों-ज्ञान-प्राप्ति के उपाय, द्रव्य की परिभाषा और उसके गण--पर इस आशा से चर्चा की गई है कि इससे अन्य विद्वानों को इस विषय में मनन और प्रकाशन के लिये प्रेरणा मिले। ज्ञान प्राप्ति के उपाय-ज्ञान के संबंध में जाणदि और पस्सदि शब्दों का प्रयोग आगमों में आया है । इसमें पस्सदि का संबंध इन्द्रियों से है और जाणदि का मन से । यह स्पष्ट है कि मानसिक क्रिया के पूर्व ऐन्द्रिय ज्ञान अत्यंत आवश्यक है। इस इन्द्रियज्ञान की प्राप्ति प्रमाण और नय से होती है । 'सकलादेशः प्रमाणाधीनः, नयस्तु विकलादेशः ।" इस ज्ञान को निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और वर्गीकरण के रूप में छह प्रकार से अथवा 'सत्संख्यादि' के रूप में आठ प्रकार से प्राप्त किया जाता है। यह ज्ञान ऐन्द्रियक (परोक्ष) भी हो सकता है और अनैन्द्रियक (प्रत्यक्ष) भी हो सकता है। अकलंक के युग से लौकिक प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने के चार चरण होते हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। आज की भाषा -398 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में इन चरणों को निरीक्षण, परीक्षण या विश्लेषण, वर्गीकरण एवं संप्रसारण कहा जा सकता है । इस प्रत्यक्ष प्राप्त ज्ञान को 'श्रुत' में निबद्ध किया जाता है । आज का 'श्रुत' प्राचीन विद्वानों के ज्ञान और अनुभव को निरूपित करता है । इनमें अनेक उत्तरवर्ती श्रुतों में अनेक प्रकरणों में भिन्न-भिन्न मत एवं नयी चीजें पाई जाती हैं । इस प्रकार श्रुत में पर्याप्त संशोधनीयता दृष्टिगोचर होती है । इनसे प्रकट होता है कि ज्ञान एक निरन्तर वर्धमान प्रवाह है। वैज्ञानिक अध्ययन भी इन्द्रिय और मन के द्वारा उपरोक्त अनुरूपी चरणों में किया जाता है। इन्द्रिय ज्ञान के तो शास्त्रों में ३३६ भेद बताये हैं। अतः ज्ञानप्राप्ति की विधियों की समरूपता से शास्त्रीय विवरणों की आधुनिक विवरणों से तुलना पर्याप्त मनोरंजक विषय है। यहाँ यह उल्लेख भी आवश्यक है कि ज्ञान प्राप्ति के साधनों में नैयायिकादि दार्शनिकों ने जहाँ वस्तु, इन्द्रिय और प्रकाश आदि अनेक कारण माने हैं. वहीं जैनों ने इन्हें प्राथमिक (आत्मा) और द्वितीयक कारणों के रूप में वर्गीकृत कर अपनी गहन अन्तर्दृष्टि का परिचय दिया है। तव्य की परिभाषा : सामान्य और विशेष गुण-शास्त्रों में द्रव्य को अनेक नामों से निरूपित किया गया है। छह द्रव्यों में यहाँ अजीब-पुद्गल की चर्चा ही मुख्यतः की गई है क्योंकि वह दृश्य होता है और उसका अध्ययन इन्द्रियों एवं यंत्रो से संम्भव है। इसमें मुख्यतः दो प्रकार के गुण पाये जाते हैं य और विशेष । सामान्य गणों की संख्या आठ या ग्यारह बताई गई है। ये सभी मर्त-अमूर्त द्रव्यों में पाये जाते हैं । विशेष गुणों की संख्या सोलह बताई गई है। इनमें से अजीव में स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, संस्थान और अचेतना-छह विशेष गुण पाये जाते हैं। प्रस्तुत निबंध में अनेक सन्दर्भो के आधार पर उपरोक्त सामान्य और विशेष गुणों का तुलनात्मक समीक्षण और परीक्षण प्रस्तुत किया गया है। -399 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल षट्त्रिंशिका : एक अध्ययन - प्रेमलाल शर्मा और शक्तिधर शर्मा, पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला (५०) भौतिक जगत्के सूक्ष्म तत्वोंको खोजनेमें जैन दार्शनिकोंने पर्याप्त प्रयत्न किये हैं। उनके अनुसार विश्व छह द्रव्यों-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-से बना है। इनमें पाँच अस्तिकाय हैं, बहुप्रदेशी हैं । कालद्रव्य इनसे भिन्न है। इन छह द्रव्योंमें पुद्गलके विषयमें रत्नसिंह सूरिने छत्तीस गाथायें लिखी थी जिसे 'पुद्गल षट्त्रिंशिका'के रूपमें जाना जाता है। पुद्गल कोशादिमें इस विषयमें विवरण दिया गया है, पर वह अनुवाद मात्र ही रह गया है। उन्हें समझानेके लिये जितना प्रयत्न चाहिये था, उतना नहीं किया गया । फलतः यहाँ उसे यथाशक्ति निरूपित करने का प्रयास किया गया है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके सापेक्ष पुद्गल सप्रदेशी तथा अप्रदेशी होते हैं। जो पुद्गल परमाणु परस्पर असंयुक्त होते हैं, वे अप्रदेशी होते हैं। एक आकाश प्रदेशमें व्याप्त होने वाले पुदगल क्षेत्र सापेक्ष अप्रदेशी कहलाते हैं। एक समयमें स्थिति वाले पुदगल या पुद्गल स्कन्ध काल-सापेक्ष अप्रदेशो होते हैं । एक ही रक्तपीतादि परिणामको धारण करनेवाले पुद्गल भावसापेक्ष अप्रदेशी होते हैं । (२,३) भावसापेक्ष अप्रदेशी पुद्गलोंसे कालसापेक्ष अप्रदेशी पुद्गलोंका असंख्यातगुणत्व भाव सापेक्ष अप्रदेशी पुद्गलों से कालसापेक्ष अप्रदेशी पुद्गल असंख्यगुण होते हैं क्योंकि वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और सूक्ष्म बादरादि परिणामोंमें परिणत प्रत्येक परिणाममें काल-प्रदेशत्व पाया जाता है। भावसापेक्ष अप्रदेशी पुद्गल कालसापेक्ष अप्रदेशी तथा सप्रदेशी हो सकते हैं । इसी प्रकार भावसापेक्ष सपदेशी पदगल कालसापेक्ष अप्रदेशी भी हो सकते हैं। यह सब एक समयमें स्थिति तथा दो-तीन आदि समयोंमें स्थितिके विचारसे होता है। काल-सापेक्ष अप्रदेशी पुद्गलोंकी अनन्त राशियाँ एक गुण कृष्णादि पुद्गलसे लेकर अनन्तगुण कृष्णादि पुद्गलोंके मध्य एक-एक गुणस्थानक बनते जाते हैं । इन गुणस्थानकों में कालसापेक्ष अप्रदेशी पुद्गलोंकी एक-एक राशि होती है । अतः गुणस्थानकों के अनन्त होनेसे काल-अप्रदेशियों की राशि भी अनंत ही होती है । (५-७) गुणस्थानकोंके अनन्त होनेपर भी काल-अप्रदेशियोंका असंख्य गुणत्व ही होता है यद्यपि गुणस्थानकोंके समान काल-अप्रदेशियोंकी राशि भी अनन्त ही होगी, तथापि इनका गुणत्व असंख्यात ही होगा क्योंकि एक गुण कृष्णादियोंके सापेक्ष जो अनंतगुणित कृष्णादियोंकी राशि है, वह भी 'अनन्त राशि' के अनन्ततम भागमें ही विद्यमान रहती है। अतः भावसापेक्ष अप्रदेशी पुद्गलोंसे कालसापेक्ष अप्रदेशी पुद्गल असंख्यातगुणे ही सिद्ध होते हैं । (८) अवगाहनाके विचारसे काल-अप्रदेशत्व स्तोक (अल्प) नभःप्रदेशोंमें अवगाहना करने वाले जो पुद्गल स्कंध 'एक समय में अवस्थिति करके फिर अनेकों नभःप्रदेशोंमें व्याप्त होते हैं और एक समयकी ही स्थितिवाले होते हैं, तथा जो पुद्गल अनेक नभःप्रदेशोंमें व्याप्त होकर एक समयमें स्थिति करते हैं और पुनः स्तोक नभःप्रदेशोंमें व्याप्त होते हुए Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक समयकी स्थितिवाले होते हैं, वे पुदगल स्कंध संकोच और विकोच रूप अवगाहनाके विचारसे कालसापेक्ष अप्रदेशी होते हैं । (११) जितने भी परिणाम होते हैं, उन सभीमें परिणत 'एक समय में स्थितिवाले पुद्गल स्कंध या पुद्गल काल-सापेक्ष अप्रदेशी होते हैं। अतः भावसापेक्ष अप्रदेशी पुद्गलोंसे कालसापेक्ष अप्रदेशी पुद्गल असंख्य गुण सिद्ध होते हैं । (१२,१३) काल-अप्रदेशी पुद्गलोंसे द्रव्य-अप्रदेशी पुद्गल असंख्य गुणे होते हैं काल-सापेक्ष अप्रदेशी पुद्गलों या पुद्गल-स्कंधोंसे द्रव्य-सापेक्ष अप्र देशी पुद्गल (परमाणु) असंख्य गुणे होते हैं । इन पुद्गलोंकी चार राशियाँ मानी गई हैं : १. अणुओंकी राशि, २. संख्यात-अणु-स्कंधोंकी राशि, ३. असंख्यात-अणु-स्कंधोंकी राशि, ४. अनंताणुस्कंधोंकी राशि ।। अनन्त अणु-स्कंधोंकी ये चार राशियां हैं। जिन जिन संख्यात-अणु-स्कंधोमें प्रदेशरूप परमाणु हैं, वे उन संख्यात-अणुस्कन्धोंके संख्येयतम भागमें विद्यमान रहते हैं। इसी प्रकार, जिन स्कन्धोंमें असंख्येय अण विद्यमान रहते हैं, वे उन असंख्येयाणुस्कन्धोंके असंख्येयतम भागमें विद्यमान रहते हैं। कल्पना कीजिये कि परमाणुओंकी राशि एक-सौ है। उसका संख्येयतम भाग बीस, असंख्येयतम भाग दस तथा अनंततम भाग पाँच है। इस प्रक्रियासे द्वयणुक स्कन्धसे लेकर संख्याताणुस्कन्ध पर्यन्त उस स्कन्धके सापेक्ष संख्येयतम भागमें अणु विद्यमान रहता है । इसी प्रकार असंख्येयतमाणु-स्कंधके विषयमें जानना चाहिये । वस्तुतः परमाणु अनंत हैं। संख्याताणुस्कन्धसे असंख्यात या अनंत अणुस्कन्धोंकी उत्पत्ति परिकल्पित की जाती है । अन्यथा संख्याताणुस्कन्धके सापेक्ष असंख्येय भाग या अनंत भागमें अणु नहीं होंगे। अतः काल सापेक्ष अप्रदेशी पुद्गलोंसे द्रव्य सापेक्ष अप्रदेशी पुद्गल अनंत होते हैं । (१७-१९) द्रव्य-अप्रदेशी पुद्गलोंसे क्षेत्र-अप्रदेशी पुद्गल असंख्यगुण होते हैं द्रव्यसापेक्ष अप्रदेशी पुद्गलोंसे क्षेत्रसापेक्ष अप्रदेशी पुद्गल असंख्यगुणे होते हैं क्योंकि सभी पुद्गल “एक-एक आकाश प्रदेश में व्याप्त होनेकी स्थितिमें क्षेत्रसापेक्ष अप्रदेशी हो जाते हैं । इनसे क्षेत्र सापेक्ष सप्रदेशी पुद्गल असंख्यगुणे होते हैं क्योंकि सप्रदेशियोंके अवगाहनास्थान अधिक होते हैं। इनके अधिक होनेसे इनमें उतने ही अधिक परमाणु या पुद्गल स्कन्ध समा सकते हैं। अतः वे क्षेत्र-अप्रदेशियोंसे असंख्यगुणे हैं । (२०-२२)। वैपरीत्यसे सप्रदेशी पुद्गलोंका विशेषाधिकत्व ___अभी अप्रदेशी पुद्गल विवेचनमें 'भाव' को आदिमें रखा गया था। परन्तु सप्रदेशी पुद्गल विवेचनमें क्षेत्रको आगे रखा जाता है। अतः क्षेत्रसापेक्ष सप्रदेशी पुदगलोंसे द्रव्यसापेक्ष सप्रदेशी पुद्गल विशेषाधिक होते हैं। द्रव्यसापेक्ष सप्रदेशियोंसे कालसापेक्ष विशेषाधिक होते हैं। कालसापेक्ष सप्रदेशियोंसे भावसापेक्ष सप्रदेशी विशेषाधिक होते हैं। इसका कारण यह है कि भाव, काल, द्रव्य और क्षेत्र सापेक्ष अप्रदेशित्वमें क्रमशः जितनी संख्या बढ़ती है, उतनी ही संख्या सप्रदेशित्व अवस्थामें घट जाया करती है । कल्पना कीजिये-एक लाख पुद्गल हैं। उनमें भाव, काल, द्रव्य और क्षेत्र सापेक्ष अप्रदेशी पुद्गलोंकी सख्या क्रमश एक, दो, पाँच और दस हजार हैं। परन्तु सप्रदेशित्व अवस्थामें उतनी ही संख्याके घट जानेसे भाव, काल, द्रव्य और क्षेत्र सापेक्ष सप्रदेशी पुद्गलोंकी संख्या क्रमशः ९९,९८,९५ और ९० हजार हो जायगी। इस दृष्टिसे जैसे भी संभव हो, सप्रदेशी-अप्रदेशी पुदगलोंका अर्थोपन्यास करना चाहिये । यहाँ केवल कल्पनाके रूप ही पुद्गलों की संख्या एक लाख मानी गई है । वस्तुतः वह तो अनंत ही है । (२४-३६) ब्रेकेटमें दी हुई संख्यायें गाथाक्रमांकके निर्देश हैं। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्यमें संख्या तथा संकलनादिसूचक संकेत डॉ० मुकुटबिहारी लाल अग्रवाल, आगरा, (उ० प्र०) आज विज्ञानका युग है। आजका जिज्ञासु प्रतिपल नवीन खोज एवं उपलब्धियोंको ज्ञात करने में विकल है। यदि मानव एक अनन्त आकाशकी नीलिमा, नक्षत्र तथा चन्द्रलोकका सम्यक ज्ञान प्राप्त करने में व्यस्त है, तो दूसरी ओर वह प्राचीन साहित्य तथा भूगर्भमें छिपे हुए अनन्त रहस्योंको जाननेमें भी संलग्न है। जैन साहित्य ज्ञानराशिका विपुल भण्डार है। यह विशाल साहित्य यत्र तत्र विखरा हुआ है। इस साहित्यमें प्रत्येक विषयपर असीम ज्ञानराशि उपलब्ध है। गणितमें भी जैन विद्वान किसीसे पीछे नहीं रहे। उन्होंने इस क्षेत्रमें भी आगे बढ़कर अपनी सूझ-बूझ तथा क्षमताका परिचय दिया है। उनके इस क्षेत्रमें सराहनीय कार्यका अवलोकन करके जहाँ एक ओर उनकी अलौकिक प्रतिभा, ज्ञान तथा बुद्धिमत्ताका परिचय मिलता है, वहीं दूसरी ओर आजके गणितके क्षेत्रसे कुछ अलग-थलग तथा आश्चर्यमें डालनेवाली बातें भी मिलती हैं । लेकिन ये बातें भी ठोस ज्ञान, तर्क तथा बुद्धिमत्ताके धरातल पर आधारित है। प्रस्तुत निबन्ध जन साहित्यमें संख्या तथा संकलनादिसूचक संकेतमें इस बातकी जानकारी देनेका प्रयत्न किया गया है कि जैन साहित्यमें संख्या एवं उसके सूचक संकेतोंका क्या रूप था । जैन साहित्य में इस बातका अध्ययन करनेके साथ ही विषयकी गरिमाको बढ़ानेके लिए तथा जिज्ञासु पाठकोंको नवीन दिशाके बोध हेतु जैनेतर साहित्यके साथ तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया गया है। आज एकको संख्या में सम्मिलित किया जाता है, परन्तु जैन साहित्यके अध्ययनके पश्चात् यह तथ्य दृष्टिमें आता है कि जैन मनीषियोंने एकको संख्याकी कोटिमें नहीं रक्खा है। आज हम देखते हैं कि जहाँ बड़ी-से-बड़ी संख्या केवल अठारह-उन्नीस अंकोंकी होती है, वहीं जैन साहित्यमें दो सौ पचास अंकों तककी संख्या उपलब्ध है जो जैन विद्वानोंकी प्रतिभा तथा अनन्त ज्ञानकी द्योतक है। निबन्धमें इस तथ्यको भी व्यक्त करनेका प्रयास किया गया है कि जैन साहित्यमें संख्या एवं अंकोंकी बनावट किस प्रकार थी जिससे आजका विज्ञ पाठक उस रूपका अध्ययन करनेके पश्चात इस बातसे परिचित हो सके कि उस समय भी जैन विद्वान गणितके क्षेत्रमें कितने आगे पग बढ़ाकर विश्वको ज्ञानका आलोक विकीर्ण कर रहे थे। गणित संकेतोंका आज बड़ा महत्त्व है क्योंकि इनके ही माध्यमसे गणितके क्षेत्र में आगे पग बढ़ाया जाता है। संख्याकी परिभाषा व्याकरणशास्त्रके अनुसार संख्या शब्द सं + ख्या + अ + टापसे बना है। व्युत्पत्ति के अनुसार संख्यातेऽनया इति संख्या अर्थात् जिसके द्वारा गणना की जाती है वह संख्या है। शब्दकल्पद्रुमके अनुसार गणनाके व्यवहारमें जो हेतु है, उसे संख्या कहते हैं। न्यायकोशमें भी इसी प्रकारका कथन है। उसमें लिखा है कि शब्दशास्त्री नियत विषयके परिच्छेदके हेतूको संख्या कहते हैं । कोशकारोंके अतिरिक्त कुछ -४०२ - Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितज्ञोंने भी संख्याकी परिभाषा की है। लीलावतोके लेखक सुप्रसिद्ध भास्कराचार्यने संख्याको गणनाका आधार कहा है। न्यायशास्त्रियोंने भी संख्याको एक गुण विशेषके रूपमें लिखा है तथा उसकी गणना चौबीस गुणोंके अन्तर्गत की है। प्रशस्तपादभाष्यके अनुसार संख्या एकत्व आदि व्यवहारका कारण स्वरूप एक विशिष्ट गुण है । तर्कसंग्रहकारने भी व्यक्त किया है । जैनाचार्योंने भी संख्याकी परिभाषा की है। उनके मतानसार संख्या वही है जिसके द्वारा वस्तुओंके परिमाणका ज्ञान हो। अभिधानराजेन्द्रमें संख्याकी परिभाषा इस प्रकार है : जिसके द्वारा जीवादि पदार्थों का संख्यात्मक ज्ञान होता है. वह संख्या है। आचार्य अकलंकदेवने भी इसी प्रकार लिखा है जिसका सद्भाव प्रसिद्ध है, उसी पदार्थकी गणना संख्यात, असंख्यात तथा अनन्तके रूपसे की जाती है। अतः सत्के बाद परिमाण निश्चित करनेवाली संख्याको ग्रहण किया गया है । एककी गिनती संख्या नहीं है जैन साहित्यमें एककी गिनतीको संख्या नहीं मानते । इस विषयमें अनुयोगद्वारसूत्रके १४६वें सूत्रमें निम्न कथनोपकथन दृष्टिगोचर होता है : प्रश्न-गणना संख्या क्या है ? उत्तर-एक गणना संख्या नहीं है । गणना संख्या दोसे प्रारम्भ होती है। ऐसा क्यों है, इसका उत्तर अभिधानराजेन्द्रमें इस प्रकार दिया गया है : एककी गिनती संख्या नहीं है क्योंकि एक घटको देखकर यहाँ घाट है, इसकी प्रतीति होती है। उसकी संख्याका ज्ञान नहीं होता । अथवा दानसमर्पणादि व्यवहार कालमें लोग एक चीजकी गिनती नहीं करते । कारण चाहे सम्यक व्यवहारका प्रभाव हो अथवा इस प्रकार गिननेसे अल्पत्वका बोध हो, पर एकको संख्या नहीं मानते । अतएव संख्याका आरम्भ दोसे होता है । धवलाकार वीरसेन एवं आचार्य नेमिचन्द्र चकवर्तीके निम्न वचन है : गणना अर्थात् गिनती एकसे प्रारम्भ होती है पर संख्याका आरम्भ दोसे होता है। तीन और उससे बड़ी संख्याको कृति कहा गया है। त्रिलोकसारके टीकाकार माधवचन्द्र विद्यका भी यही मत है। इनका कथन है कि जिस संख्याके वर्गमेंसे मूल घटाकर शेषको वर्ग करनेपर यदि पहले वर्गसे बड़ी संख्या प्राप्त हो, उसे कृति कहते हैं । एक और दोमें कृतिका यह लक्षण घटित न होनेसे एक और दो कृति नहीं है। तीन आदि संख्याओंमें उक्त लक्षण घटित होनेके कारणसे संख्यायें कृति कहलाती हैं। कृतिकी उपरोक्त परिभाषा जैनगणितकी विशेषता है। यह जैनेत्तर ग्रन्थोंमें नहीं मिलती। जैन साहित्यमें विशाल संख्याएँ __ स्थानांगसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, अनुयोगद्वारसूत्र, जीवसमास आदिमें कालमानके सन्दर्भमें नि नलिखित इकाइयोंका कथन किया गया है। पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, उपट्टांग, अट्ट, अवयांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अक्षिनिकुरांग, अक्षिनिकुर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चलिकांग, चूलिका, शीषप्रहेलिकांग और शीर्षप्रहेलिका। १. राजेन्द्र अभिधान, भाग १, पृ० ६३ । २. तत्त्वार्थवातिक, सम्पादक प्रो० महेन्द्र कुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९५३-१-८, ३ । ३. “से कि गणणासंखा ? एक्को गणणं न उबेइ, दुप्पमिह संख्या" अनुयोगद्वारसूत्र, सूत्र १४६ । ४. राजेन्द्रअभिधान, भाग ७, पृ० ६७ । -- ४०३ - Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक पूर्वांगका मान ८४ लाख वर्ष है तथा अन्य इकाई अपने पूर्ववालीसे ८४ लाख गुनी बड़ी है। सबसे बड़ी इकाई शीर्ष प्रहेलिका है जिसका मान (८४०००००) २८ वर्ष है। यह ध्यान देने योग्य है कि (८४०००००) २८ को विस्तार करने पर १९४ अंककी संख्या प्राप्त होती है। ज्योतिषकरण्डकमें भी ऐसी एक सूची मिलती है परन्तु वह उपर्युक्त सूचीसे भिन्न है। यह सूची निम्न प्रकार है। पूर्व, लतांग, लता, महालतांग, महालता, नलिनांग, नलिन, महानलिनांग, महानलिन, पद्यांग, पद्य, महापद्यांग, महापद्य, कमलांग, कमल, महाकमलांग, महाकमल, कुदुमांग, कुदुम, महाकुदुमांग, महाकुमुद, त्रुटितांग, त्रुटित, महात्रुटितांग, महात्रुटित, अददांग, अद्द, महाददांग, महादद, हूह्वांग, हूहू, महाहूहांग, महाहूहू, शीर्षप्रहेलिकांग और शीर्षप्रहेलिका। इसमें भी प्रत्येक इकाई अपनी पिछली इकाईसे ८४००००० गुनी बड़ी है। यहाँ पर शीर्षप्रहेलिका मान (८४०००००) ३६ वर्ष है । इसका विस्तार करने पर २५० अंकोंकी संख्या प्राप्त होती है।। अंकोंकी लिखावट-ईस से चौथी शताब्दी पूर्व और पहलेके जैन आगमोंमें अठारह लिपियोंकी सूची दी हुई है । इन लिपियोंमें अंकलिपि और गणितलिपि भी सम्मिलित है। डा० विभूतिभूषण दत्तका विचार है कि ये लिपियाँ इस बातकी सूचना देती हैं कि विभिन्न कार्योंके लिये अंकोंकी लिखावट विभिन्न प्रकारकी होती थी। उनका विचार है कि अंकलिपि स्तंभों पर खुदाईमें तथा गणितलिपि गणितीय क्रियाओंमें प्रयोगकी जाती थी। पं० हीराचन्द्र गौरीशंकर ओझाने लिखा है कि जैन हस्तलिपियोंमें ब्राह्मीके अंकोंका प्रयाग हुआ है। जैन हस्तलिपियों में ब्राह्मी के अंके जैन अंको के आदिम आकार .. भ Satus, fasha . A wise y co my 666749 FAtER 143 * Amr.00 - १. ज्योतिषकरण्डक, (६४-७१) । २. समवायांगसूत्र (लगभग ३०० ई० पू०), सूत्र १८, श्यामाचार्य द्वारा रचित; प्रज्ञापनासूत्र, सूत्र १८; आवश्यकनियुक्ति, मलमाधारिन हेमचन्द्रकी विशेषावश्यकभाष्यकी टीका (४६४) । -४०४ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सम्बन्धमें उन्होंने वामभागमें प्रदर्शित सारणी भी दी है। इन्होंने जैन अंकोंके आदिम आकारोंकी भी सूची दी है जो दक्षिण भागमें प्रदर्शित की गई है । विभिन्न हस्तलिखित जैन ग्रन्थोंके आधार पर कापडियाने एक विस्तृत तालिका संकलित की है। इससे भी जैन साहित्यमें प्रचलित अंकोंकी बनावटके सम्बन्धमें विशेष ज्ञान प्राप्त होता है। इन हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची निम्न है : १. निशीथसूत्र, विशेषादि (११९४) १२. बृहत्कल्पसूत्रचूणि २. विशेषावश्यकभाष्यवृत्ति (शिष्यहिता) १३. उत्तराध्ययनसूत्र (१३४२) ३. पन्यवस्तुक १४. उत्तराध्ययन सूत्रवृत्ति ४. विशेषावश्यकभाष्यवृत्ति १५. चैत्यवन्दनसूत्रवृत्ति (ललितविस्तर) ५. बृहत्कल्पसूत्रचूर्णि १६. ललितविस्तरपञ्जिका ६. ऋषिदन्ताचरित्र १७. मलयगिरीय शब्दानुशासन ७. निशीथसूत्र (विशेषचूादि (१२९४) १८. सप्ततिका ८. पिण्डविशुद्धि १९. व्यवहारसुत्रभाष्यटीका ९. उत्तराध्ययनसूत्र २०. व्यवहारसूत्रादि १०. बृहत्कल्पसूत्र २१. आचारांगसूत्रचूणि ११. बृहत्कल्पसूत्रलघुभाष्य २२. कपसूत्रादि । संकलनादि सूचक संकेत गणितके आधुनिक चिह्न धन (+) तथा ऋण ( - ) सबसे पहले१४८९ में मुद्रित हुए थे । गुणन (x) और भाग (:) के चिह्न क्रमशः १६३१ और १६५९ में प्रकाशित हुये थे। समता () का चिह्न राबर्ट रिकार्डेने सन् १५५७ में प्रचलित किया था। १४६० के लगभग बोहीमियाके एक नगर में जॉन विडमैन नामक एक गणितज्ञ हुआ है। सबसे पहले इसीने मुद्रित पुस्तकमें + और - चिह्नोंका प्रयोग किया है। अपनी पुस्तकमें इसने इन चिह्नोंको जोड़ने और घटानेके अर्थ में प्रयोग नहीं किया था । वह तो ये चिह्न व्यापारिक बण्डलोंपर यह दिखानेके लिये डाला करता था कि अमक बण्डल किसी निश्चित मात्रासे अधिक है या कम । प्राचीन भारतीय ग्रन्थोंका अवलोकन करनेसे ज्ञात होता है कि भारतवर्ष में भी संकलन आदि परिकर्मोको सूचित करनेके लिये संकेतोंका प्रयोग किया जाता था। ये संकेत या तो प्रतीकात्मक हैं या चिह्नात्मक । भारतीय ग्रन्थोंमें प्रयुक्त संकेतोंके विषयमें यहाँ संक्षेपण किया जा रहा है। जोड़नेके लिये संकेत वक्षाली हस्तलिपि २१ में जोड़नेके लिये 'युत' का प्रथम अक्षर 'यु' मिलता है। यह अक्षर 'यु' जोडी जानेवाली संख्याके अन्तमें लिखा जाता था। यथा जब ४ और ९ जोड़ने होते थे, तब उसे इसप्रकार लिखा जाता था : १ यु भारतीय प्राचीन ग्रन्थोंमें पूर्णांक लिखनेकी यह पद्धति थी कि अंकके नीचे १ लिख दिया जाता था किन्तु दोनोंके बीच में भाग रेखा नहीं लगाई जाती थी। -४०५ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ तिलोयपण्णत्तिमें भी शुरूसे आखीर तक जोड़ने के लिये 'छण' शब्द लिखा है क्योंकि प्राचीन साहित्यमें धनके लिये 'घण' शब्द प्रयोग होता था। इसके विपर्यासमें, पं० टोडरमलने अर्थसंदष्टि नामक ग्रन्थमें जोड़नेके लिये (-) चिह्न का प्रयोग किया है, यथा log, log, (अ) + १ के लिये इस ग्रन्थमें इसप्रकार लिखा है : जोड़ने के लिये, विशेषकर भिन्नोंके प्रयोगमें तिलोयपण्णत्ति और अर्थसंदष्टिमें खड़ी लकीरका प्रयोग मिलता है', यथा १।१ का आशय १ + १ से है । घटानेके लिये संकेत वक्षाली हस्तलिपिके देखनेसे पता चलता है कि उसमें घटानेके लिये + चिह्नका प्रयोग किया जाता था । यह + चिह्न उस अंकके बाद लगाया जाता था जिसे घटाना होता था। यथा, २० में ३ घटानेके लिये इसप्रकार लिखा जाता था : २० कुछ जैन ग्रन्थोंमें भी घटाने के उपरोक्त संकेतका प्रयोग मिला है परन्तु यह + चिह्न घटायी जाने वाली संख्याके ऊपर लिखा जाता था। आचार्य वीरसेनने धवलामें इसप्रकारके संकेतका प्रयोग किया है। तिलोयपण्णत्ति और त्रिलोकसार और अर्थसंदृष्टिमें घटानेके लिये चिह्न भी मिलता है। जैसे २०० मेंसे २ घटानेके लिये इसप्रकार लिखते है : २०० त्रिलोकसार और अर्थसंदृष्टिमें घटानेके लिये ० का संकेत भी मिलता है। यथा, यदि २०० मेसे ३ घटाने हो, तो इसप्रकार लिखते थे : २०० टोडरमलने घटानेके लिये U और संकेतोंका प्रयोग भी अर्थसंदृष्टिमें किया है। यथा, यदि एक लाखमेंसे ५ घटाना हो, तो इसप्रकार लिखते थे : लU५ तथा ला गुणाके लिये संकेत गुणाके लिये वक्षाली हस्तलिपिने 'गु' संकेतका प्रयोग मिलता है। यह संकेत 'गु' शब्द गुणा अथवा 'गुणित' का प्रथम अक्षर है । यथा : १. तिलोयपण्णत्ति , भाग २, पृ० ७७१ तथा अर्थसंदृष्टि, पृ० ११ । २. धवला, पुस्तक १०, १९५४, पृ० १५१ । - ४०६ - Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ 1 ३ 1 ४ लिखा है : ३ I ४० भा १ १६० ४० इसका आशय ३ x ३ x ३ x ३ x ३ x ३ x ३ × १० से है । तिलोयपण्णत्त में गुणाके लिये एक खड़ी लकीरका प्रयोग किया गया है । यथा, इसमें १००० X ९६×५०० × ८ × ८ × ८ × ८ × ८x८ × ८ × ८ के लिये इसप्रकार लिखा है' : ५०१९६१५०० टाढाटाढाटाढाटाढाट यहाँपर ५० का आशय १००० है । अर्थ संदृष्टिमें भी गुणाके लिये यही चिह्न मिलता है। यथा यहाँ १६ को २ से गुणा करनेके लिये १६।२ लिखा है । त्रिलोकसारमें भी गुणाके लिये यही संकेत मिलता है, यथा १२८ को ६४ से गुणा करनेके लिये १२८।६४ लिखा है । भागके लिये संकेत x १३ भागके लिये वक्षाली गणित में 'भा' संकेतका प्रयोग मिलता है । यह संकेत 'भा' शब्द 'भाग' अथवा 'भाजित' का प्रथम अक्षर है । यथा, 1 १६० १ २ 1 से है । ९ इसका आशय भिन्नोंको प्रदर्शित करनेके लिये मिलता है। सिलोय पण्णत्तमें बेलनका आयतन मालूम किया है जो प्राचीन जैन साहित्य में अंश और हरके बीच रेखाका प्रयोग नहीं को इस ग्रन्थ में इसप्रकार १९ २४ ३ १३ १ २ १. तिलोयपष्णत्ति भाग १ गाथा १, १२३, १२४ । २. अर्थ संदृष्टि, पृ० ६ ॥ ३. त्रिलोकसार, परि० १० ३ 1 ४. तिलोयपण्णत्ति भाग १, गाथा १, ११८ । ५. त्रिलोकसार, परि० पू० ५। १० 1 १ २ त्रिलोकसारमें भी इसीप्रकार के उदाहरण मिलते है। इसमें लिखा है कि इक्यासीसी वाणवेके चौसठवा भागको इसप्रकार लिखिये : ८ १ ९ ६ इसमें भाग देकर शेष बचनेपर उसको लिखनेकी विधिका भी उल्लेख किया है जो आधुनिक विधिसे गु० - - ४०७ - Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिन्न है । यथा, ८१९४ में ६४ का भाग दें, तो १२८ बार भाग जावेगा और २ शेषर हेगें अर्थात् १२८. को इस ग्रन्थमें इस प्रकार लिखा है : ६४ १२८ । २ ६४ शून्यका प्रयोग ● का प्रयोग आदि संख्या के रूपमें प्रारम्भ नहीं हुआ, अपितु रिक्त स्थानकी पूर्ति हेतु प्रतीकके रूपमें हुआ था । आधुनिक संकेत लिपिकमें जहाँ ० लिखा जाता है, वहाँ पर प्राचीनकालमें ० संकेत न लिख कर उस स्थानको रिक्त छोड़ दिया जाता था । यथा ४६ का अर्थ होता है छियालिस और ४६ का अर्थ होता था चार सौछह । यदि दोनों अंकोंके मध्य जितना स्थान छोड़ना चाहिये, उससे यदि कम छोड़ा जाता था, तो पाठकगण भ्रममें पड़ जाते थे लेखकका आशय ४६ से है अथवा ४०६ से । इस भ्रमके निवारणार्थ इस संख्याको ४६ न लिखकर ४.६ के रूपमें अंकित किया जाने लगा। धीरे-धीरे इस प्रणाली का आधुनिक रूप ४०६ हो गया । इस प्रकार के प्रयोगका उल्लेख प्राचीन जैन ग्रन्थों एवं मन्दिरों आदिमें भी लिखा मिलता है । उदाहरणार्थं आगराके होंगकी मण्डी में गोपीनाथ जी के मन्दिरमें एक जैन प्रतिमा है जिसका निर्माण काल सं० १५० ई० है, परन्तु इस प्रतिमा पर इसका निर्माण काल १५०९ न लिखकर १५ ९ लिखा है । वर्गके लिए चिह्न किसी संख्या वर्गके लिए 'व' चिह्न मिलता है परन्तु यह चिह्न 'व' उस संख्याके बादमें लिखा जाता है जिसका वर्ग करना होता है । यथा - 'ज जु' 'अ' एक संख्या है जिसका अर्थ जघन्ययुक्त अनन्त है । यदि इसका वर्ग करेंगे, तो इस प्रकार लिखेंगे? : ज जु अव यह संकेत 'व' वर्ग शब्दका प्रथम अक्षर है । इसी प्रकार धनका संकेत 'ध' और चतुर्थ घात के लिए 'व-व' ( वर्ग वर्ग), पाँचवीं घातके लिये व घघा' ( वर्ग घन घात), छठवीं घातके लिये ध व ( घनवर्ग ), सातवीं घात के लिये व व घघा ( वर्ग वर्ग धन घात) और इसी तरह आगेके लिये भी संकेत दिये ये हैं । वर्गित संवर्गितके लिये चिह्न वर्गित संवर्गित शब्दका तात्पर्य किसी संख्याका उसी संख्याके तुल्य घात वर्गित सम्वर्गित न हुआ जैनग्रन्थोंमें इसके लिये विशेष चिह्न प्रयोग किया गया है। वार वर्गित सम्वर्गित करनेके लिये न ]' लिखा जाता है जिसका आशय न से गितके लिये न] लिखा जाता है । इसका आशय नको वर्गित सम्वर्गित करके सम्वर्गित करना है अर्थात् ( न ९. वही, परि० ६ । २. अर्थसंदृष्टि, पृ० ५६ । ་ । द्वितीय वर्गित सम्व प्राप्त राशिको पुनः वर्गित) है । इस क्रियाको पुनः एक बार करनेसे नका तृतीय वर्गित सम्वर्गित न न - ४०८ - 1 करनेसे है । जैसे न का किसी संख्याको प्रथम Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त होता है । इसको संकेत न ] के द्वारा प्रदर्शित करते हैं । दो के तृतीय वर्गित सम्वर्गितको धवलामें इस प्रकार लिखा है ।' रा वर्गमूलके लिये चिह्न तिलोयपत्ति और अर्थ संदृष्टि आदि में वर्गमूलके लिये 'मू०' का प्रयोग किया गया है । तिलोयपण्णत्ति के निम्नलिखित अवतरण में 'मू० ' संकेत वर्गमूलके लिये दृष्टिगोचर होता है : २ मू० । ४/६५५३६ इसका आशय इसी प्रकार, - का आशय (२५६) २५६ = ५८६४ रिण रा - ४५६५६। ५ | १।३ मू० /५ पं० टोडरमलकी 'अर्थसंदृष्टि' में के मू प्रथम वर्गमूल और के मू२ वर्गमूलके वर्गमूलके लिये प्रयोग किया गया है । संकेत 'मू०' का मूल अर्थात् वर्गमूलका प्रथम अक्षर है । इस चिह्नको उस संख्याके अन्तमें लिखा जाता था, जिसका वर्गमूल निकालना होता था । 'वक्षाली हस्तलिपिमें 'मू० का प्रयोग मिलता है जो निम्न उदाहरण से स्पष्ट है : ११ यु० १ ४।६५५३६ √ ११ + ५ = ४ है । ११+७ १ १ ५ मू० १ १ | मू० २ ४ १ √ ११ - ७ = २ है । भास्कराचार्य द्वितीय (११५० ई०) ने अपने बीजगणितमें वर्गमूलके लिये 'क' अक्षरका प्रयोग किया है । यह संकेत 'क' शब्द करणीका प्रथम अक्षर है । इस संकेत 'क' को उस संख्याके पहले लिखा जाता था जिसका वर्गमूल निकालना होता था । निम्न उदाहरणसे इसका आशय पूर्णतः स्पष्ट है । प४ क ९ क ४२० क ७५ क का आशय ९ + ४५० +V७५ ५४ है । १. धवला, पुस्तक ३ अमरावती, १९४१, परिशिष्ट, पृ० ३५ । २. तिलोयपण्णत्ति भाग २, पंचम अधिकार, पृ० ६०१ । ३. पं० टोडरमलकी अर्थसंदृष्टि, पृ० ५ । ४. भास्कर द्वितीयका बीजगणित, पृ० १५ । ५२ = - ४०९ - Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष संख्याके लिये चिह्न त्रिलोकसार' व अर्थसंदृष्टि में संख्यातके लिये २, प्रसंख्यातके लिये २ तथा अनन्तके लिये 'ख' का प्रयोग मिलता है। उपर्यक्त विवेचनके आधार पर यह स्पष्टतः कहा जा सकता है कि जैनाचार्योने संख्या तथा संकलनादि सूचक संकेतों पर विस्तृत एवं गहन अध्ययन प्रस्तुत करके गणितशास्त्रको समृद्धिशाली बनानेका स्तुत्य प्रयास किया है। वस्तुतः गणितशास्त्रमें संख्या तथा संकलनादि सूचक संकेतोंका अपना विशिष्ट महत्त्व है। इसके अभावमें गणितीय अन्तदृष्टि धुंधली-सी प्रतीत होती है। जैनाचार्योंने प्रस्त महत्ताको समझते हये संख्या और संकेतों पर विचार करना अपना परम कर्तव्य समझा और इन आचार्योंकी यह परम निष्ठा ही गणितशास्त्रको महत्ती देन सिद्ध हुई। ऐसे अनेक स्थान है जहाँ पर जैनाचार्योंने प्रस्तुत विषयकी मौलिकता तो प्रदानकी ही है, साथ ही साथ व्यावहारिकता, रोचकता और सरलताकी त्रिगुणात्मकताको भी समाहित किया है। अन्ततः यह कहा जा सकता है कि जैनाचार्योंने इस क्षेत्रमें जो भगीरथ प्रयत्न किये हैं, कदापि विस्मृत नहीं किये जा सकते । RDERA COASC ) in 1161 १. त्रिलोकसार, परि०, पृ० २१ । २. वक्षाली मेनुस्क्रिप्ट, रतनकुमारी स्वाध्याय संस्थान, १९७७ । .. -४१० Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष्करण्डक : एक अध्ययन डा० विद्याधर जोहरापुरकर, जबलपुर रतलामकी श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था द्वारा सन् १९२८ में प्रकाशित पंचाशकादि शास्त्रसंग्रहमें ज्योतिष्करण्डक नामक १७६ गाथाओंका एक ग्रन्थ संमिलित है। शीर्षकमें इसे पूर्वभद् बालभ्य-प्राचीनतर आचार्य रचित कहा गया है अर्थात् इसके रचयिताका नाम ज्ञात नहीं है किन्तु वे बलभीवाचना (पाँचवी सदी)से पूर्वके आचार्य थे । प्रारंभिक और अंतिम गाथाओंमें इसका आधार सूरपण्ण बताया गया है। सुना है कि इस पर आचार्य पादलिप्त (दूसरी शताब्दी)ने टीका लिखी थी किन्तु इसे देखनेका सौभाग्य नहीं मिला। इसमें दिया गया विवरण जैन साहित्यके ज्योतिष गणितका प्रतिनिधि रूप समझा जा सकता है । यह ईसवी सन्के आरम्भकी पूर्वको अवस्थाका परिचायक है क्योंकि इसमें बारह राशियों तथा सात बारोंका कोई उल्लेख नहीं है तथा बुध, शुक्र आदि ग्रहोंका भी विवरण नहीं है। केवल ग्रहोंकी संख्या ८८ है, इतना उल्लेख है । सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रोंसे सम्बंधित जो विवरण इस ग्रन्थमें मिलता है, उसकी वर्तमान निरीक्षणोंसे तुलना करनेका प्रयास यहाँ किया गया है। १. सौरवर्ष :-गाथा ४० में सौरवर्षकी अवधि ३६६ दिनरात बताई गयी है तथा गाथा ४३ में इसके मुहूर्त १०९८० बताये गये हैं (एक दिन रातमें ६० मुहूर्त होते हैं अर्थात् एक मुहूर्तमें दो घड़ी या ४८ मिनट होते हैं)। वर्तमान गणनाके अनुसार सौरवर्षमें ३६५ दिन और ५,८ घंटे होते हैं।' गाथा के अनुसार चान्द्रवर्षमें ३५४१३ = ३५४.१९ दिन-रात होते हैं। वर्तमान गणनाके अनुसार यह अवधि ३५४.३६ दिन-रात है। २. अधिकमास :-सौरवर्ष और चान्द्रवर्षका मिलान करनेके लिए प्रति तीस चान्द्र मासोंके बाद एक अधिकमास गिना जाता था, इस प्रकार पाँच सौर वर्षों में बासठ चांन्द्र मास होते थे (गाथा ९३ और ६२)। इस पंचवर्षीय युगका आरम्भ श्रावण कृष्ण प्रतिपदासे माना जाता था (गाथा ५५) तथा इसके पहले, दूसरे और चौथे वर्ष चान्द्र कहलाते थे एवं तीसरे पाँचवे वर्ष अभिवर्धित कहलाते थे (गाथा ५०)। वर्तमान गणनामें अधिकमास इतना नियमित नहीं होता। जिस चन्द्रमासमें सूर्यका एक राशिसे दूसरी राशिमें संक्रमण नहीं होता, उसे अधिकमास कहा जाता है तथा जिस चन्द्रमासमें सूर्यका दो बार राशि सक्रमण होता है, उसमें क्षय मास भी होता है । इस गणनासे १९ वर्षों में सात मास होते हैं । ३. तिथिगणना :-गाथा १०५ के अनुसार प्रत्येक तिथिको अवधि २९३३ मुहूर्त होती है । दिनरात और तिथिका मिलान करनेके लिए वर्षा, हिम और ग्रीष्मके प्रत्येक चार मासोंमें तीसरे और सातवें पक्ष चौदह दिनके गिने जाते थे (भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन, वैशाख और आषाढ़के शुक्ल पक्ष १४ दिनके थे और शेष पक्ष १५ दिनके थे (गाथा ११२) । वर्तमान तिथिगणना इतनी नियमित नहीं है। १. अर्वाचीनं ज्योतिर्विज्ञानम् (रमानाथ सहाय, वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, १९६४), पृ० २४ २. इण्डियन एफिमेरीज (स्वामिकन्नु पिल्ले, मद्रास १९२२)के प्रत्येक खण्डकी भूमिकामें इसका संक्षिप्त स्पष्टीकरण दिया गया है । - ४११ - Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र और सूर्यकी दृश्य स्थितिमें १२ अंशके अंतर होनेकी अवधिको तिथि कहा जाता है। चन्द्र और पृथ्वीकी भ्रमण कक्षाएँ दीर्घवृत्ताकार होनेसे यह अवधि कभी एक दिन-रातसे अधिक भी होती है। तब एक ही तिथि दो दिनोंमें होनेसे तिथिकी वृद्धि कही जाती है तथा जब कोई तिथि सूर्योदयके बाद कभी आरम्भ होकर दूसरे दिनका सूर्योदय होनेके पूर्व ही समाप्त हो जाती है, तब उस तिथिका क्षय कहा जाता है।' ४. चन्द्र और सूर्य विस्तार :-गाथा १४४ के अनुसार चन्द्रका विष्कम्भ (व्यास) ५६६१ योजन तथा सर्यका ४८/६१ योजन है। कोणमापक यन्त्रों और त्रिकोणमितिके नियमोंके आधार पर को गई वर्तमान गणनाके निष्कर्ष इस विषयमें बिलकुल भिन्न है। वर्तमान गणनाके अनुसार चन्द्रका व्यास २०५९,९ मील तथा सूर्यका व्यास ८६४००० मील है । ५. सूर्यकी गति :-गाथा १९६ के अनुसार सूर्यके वृत्ताकार भ्रमण मार्गका न्यूनतम ३१५०८९ योजन तथा अधिकतम ३१८३५० योजन है। सूर्य साठ मुहूर्तमें मेरु पर्वतकी एक परिक्रमा पूरी करता है । अतः सूर्यकी प्रति मुहूर्त गति न्यूनतम ५२५१०५ योजन एवं अधिकतम ५३०६.८ योजन होती है। जिसे पुरातन धारणामें सूर्यकी दैनिक गति कहा जाता था, उसे आधुनिक धारणामें पृथवीकी अपनी धुरी पर घूमनेकी दैनिक गति कहा जाता है। भूमध्यरेखा पर यह गति लगभग एक हजार मील प्रति घंटा (या लगभग आठसौ मील प्रति मुहूर्त) आंकी गयी है। वर्तमान भारतका पूर्वपश्चिम विस्तार लगभग दो हजार मील अर्थात् २५० योजन है । पुरातन गणितके अनुसार इसकी पूर्वसीमा और पश्चिम सीमाके सूर्योदय समयमें १/२० मुहर्त अर्थात् लगभग ढाई मिनटका अन्तर होना चाहिए। वर्तमान निरीक्षणोंमें अन्तर लगभग दो घंटेका है। ६. चन्द्र और नक्षत्रोंका योग :-चन्द्र के भ्रमण मार्ग में दिखने वाले २८ नक्षत्रोंकी तारकाओंमें परस्पर अंतर अधिक नहीं है। प्रत्येक नक्षत्रसे चन्द्रका योग कितनी अवधि तक रहता है, इसका विवरण गाथा १५०-१५३ में है। इसके अनुसार शतभिष, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा-इन नक्षत्रोंमें चन्द्र १५ मुहूर्त रहता है, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा, पुनर्वसु और विशाखामें चन्द्र ४५ मुहूर्त रहता है तथा शेष १५ नक्षत्रोंमें चन्द्रका निवास ३० मुहूर्त होता है, सबसे कम अवधि अभिजित नक्षत्रकी है जो एक दिन-रातका सडसठवाँ भाग कही गई है। वर्तमान गणनामें नक्षत्रोंमें चन्द्रके योगकी अवधिमें अन्तर तो है, परन्तु वह इतना अधिक नहीं है क्योंकि ग्रहभ्रमणमार्गके खगोलवृत्तके सत्ताइस समान विभाग कर उन्हें नक्षत्र कहा गया है। अभिजितको अब नक्षत्रोंमें नहीं गिना जाता। नक्षत्रका विस्तार समान मानने पर भी चन्द्रकी भ्रमणकक्षा दीर्घवृत्ताकार होनेसे प्रत्येक नक्षत्रसे उसके योगका समय कम अधिक होता है । उदाहरार्थ, इस १९७९ के भाद्रपद मासमें न्यूनतम समय धनिष्ठा नक्षत्रका २० घंटे १. इण्डियन एफिमेरीज (स्वामिकन्नु पिल्ले, मद्रास १९२२)के प्रत्येक खण्डकी भूमिकामें इसका संक्षिप्त स्पष्टीकरण दिया गया है। २. अर्वाचीनं ज्योतिविज्ञानम्, पृ० ५६ और ९७ ३. भारतकी पश्चिमी सीमाकी देशांतर रेखा ६८ अंश और पूर्वी सीमाकी ९७ अंशकी है, प्रत्येक अंशके सूर्योदयका समय उसके पूर्ववर्ती अंशके सूर्योदयके समयसे चार मिनट बादका होता है (जिऑग्रफी आफ इण्डिया-गोपाल सिंह, दिल्ली १९७६ तथा टिप्पणी ९,१० का सन्दर्भ) Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ मिनट ( लगभग २६ १ / ४ मुहूर्त ) तथा अधिकतम समय मघा नक्षत्रका २७ घंटे २ मिनट (लगभग ३३ ३/४ मुहूर्त ) है ।' ७. दिनकी वृद्धि हानि :- गाथा ३०५-३१० के अनुसार दिनरात के तीस मुहूर्त्त में दिन और रातकी अवधि बदलने का जो क्रम है, उसमें न्यूनतम दिन और न्यूनतम रात्रिकी अवधि में बारह मुहूर्त्त और अधिकतम अवधि अठारह मुहूर्त बताई गई है । आधुनिक नापमें यह क्रमसः ९ घंटे ३६ मिनट और १४ घंटे २४ मिनट होती है । वर्तमान निरीक्षणोंके अनुसार दिन और रातका अंतर अक्षांशोंके अनुसार बदलता है । यहाँ जो अंतर बताया गया है, वह वर्तमान भारतकी उत्तरीसीमाके अक्षांश ३५ के लिए सही है । यह निरीक्षण उस समयकी ओर संकेत करता है जब उस प्रदेशकी राजधानी तक्षशिला विद्याका केन्द्र थी । भारतके मध्यभागमें स्थित जबलपुरमें दिन और रातकी न्यूनतम और अधिकतम अवधि १० घंटे ३५ मिनट और १३ घंटे २५ मिनट है । 3 इसके दक्षिणमें यह अंतर और कम होते हुए भुमध्यरेखा पर शून्य हो जाता है - वहाँ दिन-रात समान होते हैं । उत्तर में यह अंतर बढ़ते हुए ६६.६ अक्षांश पर २४ घंटे हो जाता है - वहाँ २२ जूनको २४ घंटेका दिन और २४ घंटेकी रात २२ दिसम्बरको होती है । उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पर इससे भी अधिक छह मासका दिन और उतनी ही बड़ी रात होती है । गाथा १९४-१९५ के अनुसार सूर्यका परिभ्रमण मार्ग जम्बूद्वीपकी परिधिके १८० योजन भीतर है और अधिकतम परिभ्रमण मार्ग जम्बूद्वीपकी परिधिके ३३० योजन बाहर है अर्थात् इतने क्षेत्र में सूर्यकिरण लम्बरूप पड़ सकते हैं । वर्तमान गणनाके अनुसार, पृथ्वीके जिस क्षेत्र में सूर्यकिरण लंबरूप पड़ सकते हैं, उसकी उत्तर सीमा कर्कवृत्त और दक्षिण सीमा मकरवृत्त है । कर्कवृत्त भारतके लगभग मध्य में हैं जिसकी दक्षिण समुद्र तटसे दूरी लगभग एक हजार मील अर्थात् १२५ योजन है । मकरवृत्त इस दक्षिण समुद्र तटके दक्षिण में लगभग दो हजार मीलपर अर्थात् २५० योजनपर है । कर्कवृत्त पर सूर्य किरण लम्बरूप पड़ते हैं, उस दिनसे दक्षिणायन और मकरवृत्तपर सूर्य किरण लम्बरूप पड़ते हैं उस दिनसे उत्तरायणका आरम्भ होता है । १. ये नक्षत्रोंकी अवधियाँ श्री रामचन्द्र अग्रवाल के जबलपुर पंचांगके अनुसार हैं । २. भारतीय ज्योतिषका इतिहास ( गोरख प्रसाद, लखनऊ, १९५६, १९५६), पृ० ४६ । वेदांग ज्योतिषमें यही अवधि मिलती है । ३. ये अवधियाँ भी श्री अग्रवालके पंचांगके अनुसार हैं । भारतके विभिन्न अक्षांशोंमें सूर्योदय समय अंतरकी सारणी स्वामिकन्तु पिल्लने इण्डियन एफिमेरीजके प्रथम खंड में दी है । ४,५. भुगोलके भौतिक सिद्धांत ( ए० दासगुप्त, दिल्ली १९७४), पृ० ३३ से ३७ । - ४१३ - Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सीय ज्योतिष के क्षेत्र में जैन साहित्य का योगदान डॉ० ज्ञानचन्द्र जैन आयुर्वेदिक महाविद्यालय, लखनऊ, (उ० प्र०) अनादिकालसे सृष्टिमें आविर्भूत प्राणिमात्रके हृदयमें सदैवसे यह अभिलाषा उत्कृष्ट रूपमें विद्यमान रही है कि वह सदैव स्वस्थ रहता हुआ सुखपूर्वक जीवन यापन करते हुए सुखसमृद्धिके शिखरको प्राप्त करके अपने पुनर्जन्मको भी सुखमय बना सके । प्राणिमात्रकी इस इच्छाको आचार्योंने निम्न जे त्रिभुवनमें जीव अनन्ता, सुख चाहें, दुःख तो भयवन्त । ताते दुःखहारी सुखकार, कहें सीख गुरु करुणाधार । रूपमें व्यक्त करते हए सुखमय जीवन यापन करनेका उपाय भी बतलाया है। प्राणिमात्रको इस जीवनमें पारलौकिक सुखधन हेतु, चतुर्वर्गकी प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ करना चाहिये । चतुर्वर्गमें धर्म, अर्थ, काम एवं मुक्तिका समावेश किया गया है। इन चारोंकी प्राप्तिके लिए आरोग्य प्राप्ति मूलरूपसे आवश्यक है क्योंकि सुख रूप अभिलाषा आरोग्यमें ही निहित है और जिस दुःखरूपी बाधासे प्राणिमात्र भयभीत है, वही आरोग्य या विकार है : सुखसंज्ञकमारोग्यं विकारो दुःखमेव च । इस प्रकार सुखी जीवनके लिए आरोग्य मूलभूत तत्त्व है। परन्तु आरोग्य प्राप्तिके मार्गमें रोग बाधा होते हैं। इससे श्रेष्ठ जीवन प्राप्त नहीं हो पाता है । यथा धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् । रोगास्तस्यापहर्तारः श्रेयसो जीवितस्य च ।। अतएव आरोग्य मार्गके बाधक रोगोंकी दूर करनेके लिए ही 'कित् रोगापनयने' के अनुसार चिकित्सा कार्यका प्रावधान किया गया है । प्राणिमात्रकी मूलभूत इच्छाके अनुरूप चिकित्सा कार्यके भी दो प्रयोजन हैस्वस्थके स्वास्थ्यकी रक्षा करना (स्वस्थ्यस्य स्वारथ्यरक्षणम्) और दूसरा, रोगीका रोगहरण करना (आर्तस्य रोगहरणं)। इसी पुनीत उद्देश्यको दृष्टिगत रखकर आचार्योंने चिकित्सा कार्यको सर्वश्रेष्ठ प्रतिपादित किया है। इस रोगोन्मूलक पावन कर्तव्य हेतु कालक्रमके अनुसार आयुर्वेद, ऐलोपैथिक, यूनानी होम्योपैथिक, सिद्ध आदि चिकित्साकी अनेकों पद्धतियोंका आविष्कार एवं विकास दिन-प्रतिदिन होता जा रहा है। इसके प्रतिफल स्वरूप चिकित्साविज्ञानके आचार्योने मलेरिया जैसी जनपदोध्वंसकारक व्याधियोंके उन्मूलनका दावा किया है । वे यक्ष्मा, कुष्ठ जैसी महाव्याधियोंके नियन्त्रणकी घोषणा भी कर रहे हैं । इस प्रकार चिकित्सा विज्ञान नित्य नवीन अन्वेषणों द्वारा रोग संतप्त मानवको आरोग्य प्रदान करनेकी दिशामें अग्रसर हो रहा Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। परन्तु फिर भी कभी-कभी उस समय निराश होना पड़ता है अथवा विचारणीय स्थिति उत्पन्न हो जाती है जब उचित निदान एवं चिकित्सा द्वारा रोगीकी चिकित्साके समय लाभ होते-होते कालक्रमके अनुसार या तो लाभ कम होने लगता है अथवा विपरीत स्थिति होकर हानि दृष्टिगोचर होने लगती है । उदाहरणार्थ, जलोदर, प्रमेह, श्वास एवं अन्यान्य रोगियोंमें ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। उस समय मस्तिष्कमें विचार उत्पन्न होने लगते हैं कि क्या त्रिदोषके अतिरिक्त भी रोगोत्पत्तिके लिए अन्य तत्त्व उत्तरदायी हो सकता है। ऊहापोहके फलस्वरूप ज्योतिषविज्ञानका विचार आया एवं तदनुरूप सहयोग कार्य सम्पादित करनेपर उत्साहवर्धक परिणाम प्राप्त हुआ । उदाहरणार्थ, ऐसे एक आतुरका इतिवृत्त प्रस्तुत है। रोगीका नाम- रामगोपाल, वय, ४० वर्ष मुख्यव्यथा- दन्दशूल, दन्तहर्ष, दन्तवेष्ट शोथ, रक्तस्राव, अग्निमांद्य इत्यादि । रोगी लगभग पाँच वर्षसे उक्त व्याधिसे पीड़ित रहा है। परीक्षण करनेपर रोगनिदान दन्तवेष्ट किया गया। इसकी समुचित चिकित्सा व्यवस्था की गई। प्रारम्भमें चिकित्सोपचारसे आशानुकूल लाभ हुआ एवं उपचार चलता रहा । कभी-कभी रोगीके प्रमादवश चिकित्सा न्यूनताके कारण तथा कभी अनायास ही प्रतीत हुआ कि लाभ अपेक्षाकृत न्यून हो रहा है। छह मास पश्चात् व्याधि वृद्धि होकर पूयस्राव होने लगा तथा शनैः शनैः दन्तपातन भी होने लगा। रोगी एवं चिकित्सकके लिए विचारणीय स्थिति उत्पन्न हो गई। तब ज्योतिषविज्ञानके अनुसार आतुरके जन्मांग (चित्र १) का अध्ययन किया गया। तदनसार आतुरके जन्मकालमें लग्नमें वष राशि है एवं इसपर पाप ग्रह शनिकी तीन चरण, राहुकी एक चरण, सूर्यकी दो चरण तथा मंगलकी एक चरण दृष्टि है। बृहदज्जातक अनिष्ठाध्याय २३।१५ के अनुसार इस जन्मके व्यक्तिको दन्तरोगी होना चाहिये । इसलिये इसके स्वरूपस्वास्थ्य लाभके लिये चिकित्सोपचारके साथ ग्रह शान्तिका विधान तंत्र ९रा. सारोक्त पद्धतिसे करना चाहिये। इसके लिये निम्न जपोंका विधान है : शनिग्रह शान्तिहेतुः ॐ शं शनैश्चराय नमः का २३००० बार जाप । राहुग्रह शान्तिहेतु, ॐ रां राहवे नमः का १८००० बार जाप । सूर्यग्रह शान्तिहेतु, ॐ घृणिः सूर्याय नमः का ७००० बार जाप । मंगलग्रह शान्तिहेतु, ॐ आं अंगारकाय नमः का १०००० बार जाप । जैन साहित्यमें भी ग्रह शान्तिका विधान पाया जाता है। कविवर मनसुखसागरजी कृत नवग्रह अरिष्टनिवारक विधान के अनुसार शनि ग्रह शान्तिहेतु शनि अरिष्ट निवारक श्रीमुनिव्रत जिनपूजा, राहु ग्रह शान्ति हेतु राहु अरिष्ट निवारक श्री नेमिनाथ जिनपूजा, सूर्यग्रह शान्तिहेतु सूर्य अरिष्ट निवारक श्री पद्मप्रभु जिनपूजा, मंगल ग्रह शान्तिहेतु अरिष्ट निवारक श्री वासुपूज्य जिनपूजाका विधान किया गया हैं । पूजन पश्चात् महामन्त्र णमोकारके १००८ बार जपका भी विधान है। प्रस्तुत रोगीको इन पूजा और बु ७२. -४१५ - Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जापोंके तिये सलाह दी गई। ऐसा करनेपर लाभ हआ। दन्त पातन रुक गया एवं अन्य लक्षणोंका भी शमन हुआ। रोगी सामान्य जीवन यापनमें सक्षम हो गया। अग्निमांद्य शेष है जो भविष्यके उपचारके निर्देश का सूचक है । इसप्रकार अन्य १५ रोगियोंकी चिकित्सामें इस विधिका सफल प्रयोग किया गया है। इस प्रकारके अवलोकनसे यह स्पष्ट है कि ग्रहोंका व्याधियोंसे सम्बन्ध हैं। इस सम्बन्धमें विस्तृत अध्ययनके लिये ज्योतिषशास्त्रके विभिन्न प्रामाणिक ग्रन्थोंका अध्ययन तथा तदनुरूप प्रयोग करना उपयोगी होगा। इस विषयमें महावीराचार्यका ज्योतिषपटल, श्रीधराचार्यकी ज्योतिनिविधि, दुर्गदेवका रिट्ठसमुच्चय, नरचन्द्रका ज्योतिषप्रकाश आदि ग्रन्थोंके गम्भीर विलोकनकी आवश्यकता हैं । उपरोक्त प्रयोगसे प्रतीत होता है कि ज्योतिषविज्ञानके सहयोगद्वारा रोगोन्मूलनमें अपेक्षाकृत अधिक शीघ्र सफलता प्राप्त होगी। यदि ग्रह प्रभाव मन्दस्वरूपका है, तो रोग शमन शीघ्र होगा । यदि ग्रह प्रकोप अधिक है, तो अधिक सक्रिय उपचारसे लाभ होगा। उग्र ग्रह प्रकोप होनेपर उपचार प्रयासोंद्वारा कमसे कम व्याधि या वेदनामें मन्दता तो लायी ही जा सकेगी। जन्मांग अध्ययनद्वारा भविष्यमें उत्पन्न होनेवाली व्याधिकी पूर्व सूचना प्राप्त होनेपर उसके प्रतिबन्धक उपायों द्वारा अनागत बाधा प्रतिबन्ध जैसे पक्षकी ओर भी अग्रसर हुआ जा सकेगा। यह आशा करनी चाहिये कि चिकित्सीय क्षेत्रमें जैन साहित्यमें वर्णित ज्योतिष विज्ञानके सहयोगसे रोगोन्मूलक एवं रोगप्रतिबन्धक कार्यामें सफलता प्राप्त करनेके लिये पूजाओं और जपोंकी उपयोगिताका अध्ययन एक रोचक एवं ज्ञानवर्धक विषय प्रमाणित होगा। लेखक तो इस विषयके अध्ययनका प्रारम्भ मात्र कर रहा है। - ४१६ - Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य महावीरको रेखागणितीय उपपत्तियाँ स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती, इलाहाबाद जैन गणितज्ञोंमें सबसे अधिक ख्याति गणितसार संग्रहके रचयिता महावीरकी है। अन्य जैन गणितज्ञोंमें अभयदेवसूरि, सिंह तिलक सूरि और अमरसिंह यतिके नाम प्रसिद्ध हैं। त्रिशतिकाको टीका करनेवाले वल्लभ भी जैन थे, और उन्होने टीका तेलगु भाषामें की थी। सिंहतिलक सुरि, (१२७५ ई०) ने श्रीपतिके गणिततिलककी टीका की, कुछ जैनविद्वानोंने श्रीधराचार्यको भी जैन माना किन्तु स्पष्टतया पाटीगणितके रचयिता श्रीधरजी शैव हिन्द्र थे । अभयदेवसरि (१०५० ई०) ने प्रसिद्ध जैनग्न सूत्रकी टीकामें श्रीधरका नाम तो नहीं लिया, किन्तु श्रीधरकी पाटीगणित और त्रिशतिका-इन दोनों ग्रन्थोंसे उद्धरण दिये हैं (सदृश द्विराशिघात; २४, २८; समत्रिराशिहति; ११, १५)। प्राचीन भारतीय गणितज्ञोंकी पूर्वापरता निम्न सन-संवतोंसे प्रकट होती है। वखसाली हस्तलिपि २०० ई०, प्रथम आर्यभटका आर्यभटीय (जन्म ४७६ ई०), भास्कर प्रथम (६२९ ई०), ब्रह्मगुप्तका ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त, (६२८ ई०), पृथूदक स्वामी नामक भाष्यकार (८६० ई०), स्कन्दसेन (जिसका उल्लेख पृथूदकस्वामीने अपने भाष्यमें किया है) नवीं शती ई० से पूर्व, लल्लकी पाटीगणित और सिद्धान्ततिलक (८वीं शती ई०), गोविन्दकी गोविन्दकृति (९वीं शती ई०), लघुभास्करीयके टीकाकार शंकर नारायण (८६९ ई०) और उदयदिवाकर (१०७३ ई०), महावीरका गणितसारसंग्रह (८५० ई०), श्रीपतिका गणिततिलक और सिद्धान्तशेखर (१०३९ ई०), भास्कर द्वितीयकी लीलावती (११५० ई०), आर्यभट्ट द्वितीयका महासिद्धान्त (९५० ई०), और नारायणकी गणितकौमुदी (१३५६ ई०) महावीरका गणितसार-संग्रह ग्रन्थ गणितके विशेषज्ञोंके लिये बड़े कामकी वस्तु है। यह प्राचार्य कन्नड़ प्रदेशका जैन विद्वान् था । आर्यभट्ट और भास्कर एवं ब्रह्मगुप्तके समान आचार्योंने गणितका अध्ययन ज्योतिषके परिप्रेक्ष्यमें किया था, किन्तु महावीरका गणितसारसंग्रह और श्रीधराचार्यके पाटीगणित और त्रिशतिका ग्रन्थ विशुद्ध गणितके ग्रन्थ हैं । जैनधर्मके आचार्य गणितशास्त्रके स्वतन्त्र अध्ययनको भी प्रारम्भसे महत्त्व देते आये हैं। यह ठीक है कि वे यह भी स्वीकार करते हैं कि गणितका ज्योतिषमें भी उपयोग है, पर गणितके अध्ययनका स्वतः अपना भी एक क्षेत्र है। महावीरके समय तक ब्रह्मगुप्तकी प्रतिष्ठा सर्वमान्य हो गयी थी, पृथूदक स्वामीने ब्रह्मस्फुटसिद्धान्तका भाष्य किया। यह आचार्य भी महावीरका लगभग समकालीन था। दोनों ही ८५०-८६० ई० के कालके हैं। श्रीधराचार्य महावीरके ग्रन्थसे परिचित था, कई क्षेत्रोंमें उसने महावीरके गणितीय कार्यको परिवद्धित भी किया। गणितसार-संग्रहमें जो बात महावीरने ६ श्लोकोंमें दी है, श्रीधरने उसे अपनी त्रिशतिकामें ४ पंक्तियोंमें ही समाप्त कर दिया है। श्रीधरकी ये चार पंक्तियाँ निम्न हैं (त्रिशतिका, उदाहरण २६) : कामिन्या हारवल्लयाः सुरतकलहतामोक्तिकानां त्रुटित्वा । भूमी यातस्त्रिभागः शयनतलगतः पञ्चमांशश्च दृष्टः आत्तः षष्ठः सुकेश्या गणकदशमकः, संगृहीतः प्रियेण । दृष्टं षट्कञ्च सूत्रे कथय कतिपयौक्तिकैरेष हारः । गणितसार-संग्रहमें यही प्रश्न १२ पक्तियोंमें है । (४।१७-२२) Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काचिद् वसन्तमासे प्रसूनफलगुच्छभारनम्रोद्याने । तन्मौक्तिक-प्रमाणं प्रकीर्णकं वेत्सि चेत काथय । हमने यहाँ प्रथम और अन्तिम पक्तियाँ ही उद्धृत की है। महावीरके गणितसार-संग्रहका प्रभाव लगभग सभी उत्तरकालीन गणितीय ग्रन्थोंपर हैं, यह तो मानना ही पड़ेगा । अपने रचनाकालके डेढ़ सौ वर्षों के भीतर ही इस ग्रन्थकी ख्याति दक्षिण भारतमें बहुत फैल गयी थी, राजामुन्दरीके अधीश राजराजनरेन्द्रके संरक्षणमें इसका तेलगुमें पद्यानुवाद पावलूरि मल्लने किया था, मद्रासके राजकीय पुस्तकालयमें इस अनुवादको प्रतिलिपि विद्यमान है । १९१२में एम० रंगाचार्यने गणितसार-संग्रहका अंग्रेजी अनुवाद (प्रश्नोत्तर सहित) किया जो मद्रास सरकारकी ओरसे प्रकाशित हुआ था । कोलम्बिया विश्वविद्यालय, न्यूयार्कके डेविड यूजीन स्मिथने इसकी भूमिका लिखी थी। क्षेत्रमिति और क्षेत्रफल भारतवर्ष में रेखागणितकी परम्परा वैदिक श्रोतकालसे चली आ रही है। यज्ञकी चितियों और वेदियोंके निर्माणके सम्बन्धमें, पिछले कतिपय वर्षोंसे मेरो रुचि शल्बग्रन्थोंके प्रति रही। अभी कुछ मास ही हुये, चार शुल्बसूत्रका संग्रह मैने डा० ऊषाज्योतिष्मतीके सहयोगसे प्रकाशित किया-बौधायन-शुल्बसूत्र, आपस्तम्ब-शुल्बसूत्र, कात्यायन-शुल्बसूत्र और भामह-शुल्बसूत्र । बौधायन और आपस्तम्ब-शुल्बसूत्रोंकी प्राचीन कतिपय टीकाएँ भी हम लोग प्रकाशित कर चुके हैं। इन शुल्बसूत्रोंमें प्रसंगवश वृत्त, दीर्घचतुरस्र, समचतुरस्र और प्रउग (त्रिभुजों) की रेखागणित और उनके क्षेत्रफलोंका अच्छा विधान है। शल्बसूत्रकी वैदिक परम्परामें ही तरह-तरहकी इष्टक बनानेकी परम्परा आरम्भ हई और क्षेत्रमिति का भी इसी परम्परामें जन्म हुआ। पाटीगणितोंमें भी एक-दो अध्याय क्षेत्रमितिके रहते आये हैं। श्रीधराचार्यके ग्रन्थ पाटीगणितमें श्रीढी व्यवहारके बाद अन्तिम अध्याय क्षेत्र व्यवहारका है। क्षेत्र जातिभेदसे दश प्रकारके माने गये हैं : तब दश क्षेत्रजातयो भवन्ति, समत्रिभुजं, द्विसमत्रिभुजं, विषमत्रिभुजं, समचतुरस्रं, त्रिसमचतुरस्र, द्विसमचतुरस्रं विषमचतुरस्रं, द्विद्विसमचतुरस्रं, आयतचतुरस्रं, वृत्तं, धनुरिति । इन क्षेत्रोंके सम्बन्धमें अनेक पारिभाषिक शब्दोंका प्रयोग होता है, जैसे भुज, भूमि, मुखं, कोटि, कर्ण, लम्ब, अवधा, हृदयं, परिधि, व्यास, ज्या, शरश्चाप इत्यादि । महावीरने गणितसार-संग्रहमें १६ जातियोंके क्षेत्रोंका उल्लेख किया है : १. तीन जातियोंके त्रिभुज-(क) सम (तीनों भुजा बराबर), द्विसम (दो भुजाएँ बराबर), और विषम (तीनों भुजाएँ अलग-अलग माप की)। २. पाँच जातियोंके चतुरस्र-(क) सम, (ख) द्वि-द्वि-सम (equidichostic), (ग) द्विसम (equibilateral), (घ) त्रिसम (equitritilateral), (ङ) विषम (inequilateral). ३, आठ जातियोंकी घेरेदार आकृतियाँ (वृत्त):-(क) समवृत्त (circle), (ख) अर्धवृत्त, (ग) आयतवृत्त (ellipse), (घ) कम्बुकावृत्त (शंखकी आकृतिका), (ङ) निम्नवृत्त (concave circle), (च) उन्नतवृत्त (convex ciscle), (छ) बहिचक्रवालवृत्त (outlying annulus), (ज) अन्तश्चक्रवाल वृत्त (inlying annulus). Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलह जातियोंके इन क्षेत्रोंके क्षेत्रफल निकालनेकी दो प्रकारकी विधियोंका उल्लेख महावीरने किया है : (क) व्यावहारिक (approximate) और सूक्ष्म ( accurate ) : क्षेत्र जिनप्रणीतं फलाश्रयाद् व्यावहारिकं सूक्ष्ममिति । भेदाद् द्विधा विचिन्त्य व्यवहारं स्पष्टमेतदभिधास्ये ।।७-२॥ यह कहना कठिन है कि यूक्लिडके प्रमेयोंका परिचय महावीर या अन्य क्षेत्रज्ञ गणितज्ञोंको था या नहीं। संभवतया रेखागणितीय तर्कका उस प्रकारका विकास इस देशमें नहीं हुआ, जैसा कि यूनानमें । त्रिभुजके कोणोंको नापनेका कोई पैमाना (डिगरी या समकोणोंका) उस समय नहीं था किन्तु ज्या ( Sine) के रूपका अनुपात उन्हें परिचित था । ज्याओंकी अपेक्षासे ही कोण व्यक्त किये जाते थे । त्रिभुजों और चतुरस्रोंके क्षेत्रफल निकालनेके सूत्रोंका विकास महावीरने किया प्रत्येक त्रिभुजके तीनों शीर्ष एक विशेष वृत्त (परिमण्डल, शुल्बसूत्रोंकी परिभाषा में) पर स्थित होते हैं किन्तु सभी चतुरस्रों (quadrialtarals) के लिये ऐसा होना आवश्यक नहीं है । ब्रह्मगुप्तने ब्र० स्फु० सि० १२ २१ [ ॥] और महावीरने [ग०सा० सं० ९।५० [ ।।] ने इस बातका ध्यान नहीं रक्खा। दोनोंने सभी चतुरस्रोंके क्षेत्रफलके लिये निम्न सूत्र दिया : । । चतुरस्रका क्षेत्रफल = √s (s - a ) ( s - b) (s - c) (s - d ) इस सूत्र में s = चारों भुजाओंके योगका आधा; a, b, c, d = चार भुजाओंकी पृथक् पृथक् लम्बाई । त्रिभुजको ऐसा चतुरस्र मान सकते हैं, जिसकी एक भुजाकी लम्बाई शून्य हो, अर्थात् d = समीकरणसे, त्रिभुजका क्षेत्रफल = Vs (sa) (s — b) (s c) जहाँ a, b, c तीनों भुजाओंकी पृथक पृथक लम्बाई है, और 9 = 2 (a + b + c) वस्तुतः महावीर और ब्रह्मगुप्तके ये समीकरण उन्हीं चतुरस्रोंके लिये यथार्थ है जिनके चारों शीर्ष वृत्तकी परिधि पर हों (eyclic quadrilateral)। सभी चतुरस्रोंके लिये सामान्य समीकरण निम्न होगा : D d S= ९ क Q ग चित्र १. चक्रीय चतुरस्र a + b + c + d 2 a = So - - ४१९ - क चित्र २. अचक्रीय अतुरस्र < क + <ग 2 α= R ख Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरस्रका क्षेत्रफल = / (s - a) (s – b) (s - c) (s जहाँ ( चक्रीय चतुरस्र में a = 90°, Cos a = 0, चित्र 1 ) a = चतुरस्र के आमने-सामनेके कोणोंके योगका आधा चतुरस्रोंका क्षेत्रफल निकालनेके लिये महावीरने निम्न नियम प्रतिपादित किया है : भुजावृत्यर्धचतुष्काद् भुजहीनाद् घातितात् पदं सूक्ष्मं । मुखतलयुतिदलमवलम्ब गुणैर्न अथवा यही बात श्रीधरकी पाटीगणित में इस प्रकार कही गयी है : विषमाह । ( ११७) अर्थात् चारों भुजाओंका योग निकालकर उसका आधा करो और इस फलमें क्रमशः प्रत्येक भुजा की लम्बाई घटाओ, फिर चारोंको गुणा करो, फिर इसका वर्गमूल निकाल लो। ऐसा करनेसे चतुरस्रका क्षेत्रफल निकल आवेगा । भुजयुतिदलं चतुर्धा भुजहीनं तदवधात्पदं गणितम् सदृशासमलम्बानामसदृशलम्बे यह स्मरण रखना चाहिये कि यह नियम सभी चतुरस्रोंके लिये लागू नहीं है । द्वितीय आर्यभट्ट स्पष्टतया इंगित किया हैं कि त्रिभुजोंके लिये तो यह नियम ठीक है, किन्तु जब तक कर्ण ( diagonal) का ज्ञान न हो, चतुरस्रका न तो क्षेत्रफल निकाला जा सकता है और न इसके लम्बक निर्धारित किये जा सकते हैं : - a b c d Cos2 C. बिना कर्णके जाने जो गणितज्ञ चतुरस्र क्षेत्रका क्षेत्रफल निकालना चाहते हैं, वे मूर्ख और पिशाच हैं । ऐसे कठोर शब्द आर्यभट्ट द्वितीयने कहे हैं । महावीर, ब्रह्मगुप्त, श्रीधर आदिने चतुरस्रोंके विषय में जो कहा है, वह केवल चक्रीय चतुरस्रोंके विषयमें है । पाँच जातियोंके चतुरस्रोंके कर्ण जानने के लिये महावीरने निम्न नियम दिया है : अथवा कर्णज्ञानेन विना चतुरस्र लम्बकं फलं यद्वा । वक्तुं वाञ्छति गणको यो ऽसौ मूर्खः पिशाचो वा ।। ( महासिद्धान्त, २५।७० ) ( चक्रीय ) चतुरस्रका कर्ण विषमचतुर ।। (ग० सा० सं० ७1५० ) यह नियम भी केवल चक्रीय चतुरस्रोंके लिए यथार्थ है, ऊपरके श्लोकमें जो कहा है, उसे हम बीजगणितीय शब्दों में निम्न प्रकार व्यक्त कर सकते हैं : क्षितिहतविपरीतभुजा मुखगुणभुजमिश्रितौ गुणच्छेदौ । छेदगुणी प्रतिभुजयोः सवर्गयुतेः पर्द कर्णौ || (ग० सा० सं०, ७1५४) = = (ac + bd) (ab + cd) ad + bc (ac + bd) (ad + bc ) ab + cd वृत्तमें व्यास और परिधिका सम्बन्ध - महावीरके अनुसार यदि वृत्तके व्यासको १० के वर्ग मूलसे गुणा कर दिया जाय, तो परिधिका मान निकल आता है । आज कल के शब्दों में √80=π परिधि व्यास = = ३.१६ - ४२० - Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्तक्षेत्र-व्यासो दशपदगुणितो भवेत् परिक्षेपः । व्यासचतुर्भागगुणः परिधिः फलमर्धमर्चेतत् ।। (ग० सा० सं०, ७६०) व्यासx/१०४ व्यास परिधि x व्यास = वृत्तका क्षेत्रफल = - व्यास = २ व्यासार्ध = 2r; वृत्त का क्षेत्रफल = ruri आर्यभट प्रथमने वृत्तकी परिधि और उसके व्यासका सम्बन्ध निम्न संख्यासे व्यक्त किया है : - -Tra पाराष व्यास = ६२६३२ = ३.१४१६ (आर्यभट) २०००० १६ ४ ३९२७ = ३.१४१६ (भास्कर) १६४१२५० आयतवृत्त ( ellipse ) अर्थात् दीर्घवृत्तके व्यास और परिधि-आयतवृत्तको आज हम दीर्घवृत्त कहते हैं । इसके दो व्यास होते हैं । एक तो बड़ा और दूसरा छोटा । आयतवत्तकी परिधि और क्षेत्रफलके सम्बन्धमें महावीरका नियम निम्न है : घ चित्र ३. आयतवृत्त आयाम = कख = a, व्यास या विष्कम्भ = गघ = b व्यासकृतिष्षड्गुणिता द्विषड्गुणायामकृतियुता (परं) परिधिः । व्यासचतुर्भागगुणाश्चायतवृत्तस्य सूक्ष्मफलम् ॥ (ग० सा० सं०, ७।६३) छोटे व्यास (विष्कम्भ) के वर्गको ६ से गुणा करो और लम्बे व्यास (आयाम) के दुगुनेका वर्ग लेकर इसमें जोड़ो। इस वर्गका जो वर्गमूल होगा, वह परिधिकी लम्बाई होगी। परिधिको छोटे व्यासके चतुर्थांशसे गुणा करें, तो आयतवृत्तका क्षेत्रफल निकल जावेगा। इसी बातको हम बीजीय समीकरणमें निम्न प्रकार व्यक्त कर सकते हैं: परिधि:/6b4ad जहाँ b = आयतवृत्तका छोटा व्यास; a = आयातवृत्त का बड़ा व्यास (आयाम) आयतवृत्तका क्षेत्रफल = परिधि x b/4 = b/4/6b* +4 (यह स्मरण रखना चाहिये कि मूल श्लोकमें यह नहीं लिखा कि परिधि निकालनेके लिए 6b+4a'का वर्गमूल निकालना है)। -४२१ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरने अभ्यासके लिये एक उदाहरण दिया है : क्षेत्रस्य आयतवृत्तस्य विष्कम्भो द्वादशैव तु । आयामस्तत्र षट्त्रिंशत् परिधिः कः फलं च किम् ॥ ( ग० सा० सं०, ७१२२) अर्थात् यदि एक आयत वृत्तका विष्कम्भ (छोटा व्यास) १२ और आयाम ( बड़ा व्यास ) ३६ है, तो उसकी परिधि और क्षेत्रफल बताओ । परिधि = / 6b2 + 4a2 = √ 6 × 12 × 12 + 4 × 36 × 36 = √36 × 24 + 4 x 36x36 = 6 × 2 √6 + 36 = 12/42 12 x 6.48 = 77,76 = क्षेत्रफल = b/4 x 12/42 = 3 x 12/42 = 36 × 6.43 = 233.28 महावीरने आयतवृत्तोंकी परिधि और क्षेत्रफल निकालनेकी एक स्थूल या व्यावहारिक विधि भी दी हैं : व्यासार्धतो द्विगुणित आयतवृत्तस्य परिधिरायामः । विष्कम्भचतुर्भागः परिवेषहतो भवेत्सारम् || (ग० सा० सं०, ७।२१) अर्थात् बड़े व्यास में छोटे व्यासका आधा जोड़ो और इसे दोसे गुणा करो। ऐसा करनेसे आयतवृत्तकी परिधि मिलेगी । इस परिधिको छोटे व्यास (विष्कम्भ ) के चौथाई मानसे गुणा करो, तो क्षेत्रफल मिलेगा । परिधि = 2 (a + b / 2 ) क्षेत्रफल = b/4 x 2 (a + b / 2) ऊपरके उदाहरणमें, a = 36, b = 12, फलतः परिधि = 2 ( 36 × 12/2) = 2 × 42 = 84 क्षेत्रफल = 3 x 84 = 252 उत्तर स्थूल अर्थात् त्रुटिपूर्ण हैं; सूक्ष्ममानमें परिधि 77.76 और क्षेत्रफल 233.28 है । कम्बुक क्षेत्र (conchiform ) की परिधि और क्षेत्रफल निकालना - इन क्षेत्रोंके सम्बन्धमें भी महावीरने स्थूल और सूक्ष्म मानों के निकालनेके पृथक्-पृथक् नियम दिये हैं । D चित्र ४. कम्बुकवृत्त कम्बुकके समान वृत्त ( चित्र ४. ) की अधिकतम चौड़ाईमेंसे कम्बुकके मुखका आधा घटाओ और इसे फिर तीनसे गुणा करो। ऐसा करनेसे कम्बुक वृत्तकी परिधि मिलेगी । इस परिधिके आधेके वर्गका एक तिहाई लो और इसमें मुखके आयामके आधेके वर्गका ३/४ जोड़ो, तो कम्बुक वृत्तका क्षेत्रफल मिलेगा । वदनार्थोनो व्यासस्त्रिगुणः परिधिस्तु कम्बुकावृत्ते । वलयार्धं कृतित्र्यंशो मुखार्धवर्गत्रिपादयुतः ।। (ग० सा० सं०, - ४२२ - ७।२३) Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान लो कम्बुवृत्तका व्यास = a, मुखका आयाम = m; तौ परिधि = 3 ( अ – 22 m ) क्षेत्रफल = [28 (a - 1m ) ]2 x 3 + (m / 2 ) " × 2 एक अन्य स्थल पर महावीरने कम्बु-निभ वृत्तकी परिधि (परिक्षेप) और क्षेत्रफल दोनोंका अधिक सूक्ष्म मान निम्न शब्दों में दिया है : वदनार्थोनो व्यासो दशपदगुणितो भवेत्परिक्षेपः । मुखदलरहित व्यासार्थे वर्गमुखचरणकृतियोगः ॥ दशपदगुणिता क्षेत्रकम्बुनि मे सूक्ष्मफलमेतत् ।। (ग० सा० सं०, ७।६५-६६ ) दशपदका अर्थ √१० अर्थात् १० का वर्गमूल है । इस सूक्ष्म मानके आधार पर कम्बु वृत्तके लिये परिक्षेप या परिधि = / 10 × (a – 2 m ) क्षेत्रफल = [ { (a -2 m ) x 2 } 2 + m /4] 2 × √10 बहिः और अन्तश्चक्रवाल वृत्तोंके क्षेत्रफल - किसी वृत्तके बाहर दूसरा समकेन्द्रक वृत्त खींचा जा सकता है और इसी प्रकार कभी उसी वृत्तके भीतर भी एक समकेन्द्रक वृत्त खींचा जा सकता है । इन दोनों स्थितियों में दो प्रकारके चक्रवालवृत्त प्राप्त होते हैं - अन्तःश्चक्रवाल वृत्त और बहि: चक्रवाल वृत्त । दोनों अवस्थाओं में दो समकेन्द्रक वृत्तोंके बीच में जो क्षेत्र घिरा हुआ है, उसका क्षेत्रफल निकालना है । महावीरने इसके निकालने की स्थूल और सूक्ष्म-दोनों प्रकारकी गणनायें दी हैं : O चित्र ५. ( क ) अन्तश्चक्रवालवृत्त निर्गमसहितो व्यासस्त्रिगुणो निर्गमगुणो बहिर्गणितम् । रहिताधिगमव्यासादभ्यन्तरचक्रवालवृत्तस्य ॥ ( ग० सा० सं०, ७।२८) भीतरके वृत्तके व्यास में निर्गमकी चौड़ाई ( breadth of annular space) को जोड़ दो और इसे तीनसे गुणा कर दो, तो बहिः चक्रवालवृत्तका क्षेत्रफल निकल आवेगा । इसी प्रकार, वृत्तके व्यास मेंसे अधिगमकी चौड़ाईको घटा दो और फिर इसे ३ से गुणा करके अधिगम चौड़ाईसे गुणा करो तो अन्तश्चक्रवालवृत्तका क्षेत्रफल निकल आवेगा । चित्र ५. ( ख ) बहिश्चक्रवालवृत्त मान लो कि दिये वृत्तका व्यास d है और इसके बाहर खींचे वृत्तका निर्गम है तो बहिः चक्रवाल वृत्तका क्षेत्र = (d + a) × 3 × a - ४२३ - Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी d व्यासके वृत्तके भीतर अधिगम a हो, तो अन्तश्चक्रवाल-वृत्तका क्षेत्र ___ = (d-a)x3xa महावीरने दोनोंका एक उदाहरण दिया है : व्यासोऽष्टादशहस्ताः, पुनर्बहिनिर्गतास्त्रयस्तत्र । व्यासोऽष्टादशहस्ताश्चान्तः पुत्ररधिगतास्त्रयः किं स्यात् ।। (ग० सा० सं०, ७।२९) यहाँ d = 18 और a = 31 बहिःचकवाल-वृत्तका क्षेत्र = (18+ 3)x 3x3 ___-189 वर्गहस्त अन्तःचक्रवाल-वृत्तका क्षेत्र = (18 - 3)x 3x3 = 135 वर्गहस्त स्मरण रखना चाहिये कि इन सब उदाहरणोंमें पाई (ग) का मान स्थूलतया ३ माना गया है । इसे /10 या ३,१४१६ (आर्यभटका) मान लेनेपर प्रश्नोंके उत्तर कुछ भिन्न होंगे। महावीरने गणितसार-संग्रहके सप्तम अध्यायमें अन्य आकृतियोंके क्षेत्रों और परिक्षेपोंके निकालने लिये भी नियम दिये हैं जो गणितज्ञों के विशेष कामके हैं। ये आकृतियाँ निम्न हैं : यतमुरजपणवशक्रायुधसंस्थानप्रतिष्ठितानां तु। मुखमध्यसमासार्धं त्वायामगुणं फले भवति ॥ (ग० सा० सं०, ३।३२) . यव, मुरज (मृदङ्ग), पणव, वज्र । इनके लिये सामान्य नियम यह है : मुख पर चोड़ाई = a, मध्यमें चौड़ाई - b, पूरी लम्बाई (आयाम) =c, तो क्षेत्रफल = (a+b)xc यवसंस्थानक्षेत्रस्यायामोऽशीतिरस्य विष्कम्भः । मध्यश्चत्वारिंशत्फलं भवेत् कि समाचक्षत ।। (ग० सा० सं०, ७।३३) ------+----- रख मान लो यव (जौ के आकारका क्षेत्र) की लम्बाई ८० है, बीच में चौड़ाई ४० है, दोनों नोकों या शीर्षों पर चौड़ाई शून्य है । अतः क्षेत्रफल = (0+ 40x80)x चित्र ६. यव 80 = 1600 वर्गहस्त । क आयामोऽशीतिरयं दण्डामुखस्य विंशतिमध्ये । चत्वारिंशत्क्षेत्रे मृदंगसंस्थानके ब्रूहि ।। (ग० सा० सं०, ७।३४) भृदंगके आकारके क्षेत्रकी लम्बाई ८० दण्ड है, किनारों पर मुख २० दण्डका है और बीचमें मान ४० दण्डका है। चित्र ७. मृदंग या मुरज फलतः क्षेत्रफल = 1 (a + b)xc a = 20; b = 40; c= 80 क्षेत्रफल = 1 (20 + 40)x 80 =2400 वर्गदण्ड -४२४ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार हम एक उदाहरण वज्रका लेंगे । वज्र बीचोंबीच में शून्य मोटाईका है, मुखकी चौड़ाई = a और आयाम = C है, अतः निम्न उदाहरण में : वज्रकृतेस्तथास्य क्षेत्रस्य षडग्रनवतिरायामः । मध्ये सूचिर्मुखयो त्रयोदशत्र्यंशसंयुताः दण्डाः ।। (ग० सा० सं०, ७।२६ ) यहाँ ५४ c = 96 दंड, मुख पर का मान = = क्षेत्रफल = 2 ( 130 +0) × 96 640 वर्ग दण्ड X 133 दंड; b = 0 महावीरने अपने ग्रन्थ गणितसार - संग्रहके क्षेत्राध्यायमें इसी प्रकारकी अनेक उपपत्तियोंका विवरण दिया है। वृत्तों, त्रिभुजों और चतुर्भुजोंके इतने विस्तार दिये हैं जिनका उल्लेख करना यहाँ सम्भव नहीं है । प्राचीन गणितसे सम्बन्ध रखनेवाले इतिहासमें महावीरका नाम अमर है और कोई भी इतिहासकार इस गणितज्ञकी उपेक्षा नहीं कर सकता है । आर्यभटीय, वखशाली हस्तलिपि, पाटीगणित ( श्रीधरकी ) और ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त के समान गणितसार-संग्रह अमर ग्रन्थ जिससे प्रत्येक भारतीय गणित प्रेमीको परिचित होना चाहिये । - ४२५ - चित्र ८ बज्र Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE CONCEPT OF MATTER IN EARLY BUDDHISM Prof. Angraj Chaudhary Nav Nalanda Mahavihar, Nalanda In early Buddhism, analysis of matter has been made with an express ethical purpose in view. Buddhist Ethics lays emphasis on getting rid of taṇhā which is at the root of our repeated existence and sufferings of all kinds, physical, mental and cosmic. Tanha is caused by our desire for the various objects of the world. We are attached to the various forms of rūpa (matter) and our passionate attachment to them gives rise to taṇhā. The irony is that no amount of the enjoyment of the worldly objects can quench our thirst for them. The more we have of them, the more we still desire of them. Tanhā, as a matter of fact, is an ever going dynamo; the more it is constantly fed on by objects of tanhā the more it produces ever increasing tanhã. Lord Buddha, unlike other theoretical Philosophers, was a practical Philosopher and the dharma preached by him contains practical doctrine. Lord Buddha's greatest purpose was to get rid of suffering which are heir to. Suffering, as we have seen, is caused by our attachment to Tüpa i. e. by our chandarāga for it. But we are hardly aware that the rüpa, we attach ourselves to, is in a constant state of flux. Though it looks permanent and unchanging, it is merely appearance. The reality is far otherwise. Therefore attachment to tüpa would inevitably lead to unrest and sorrow. In the Samyutta Nikāya Buddha advises us to give up all kinds of desire and passion in respect of räpa. Yo, Bhikkave, rupasmim chandarăgo tam pajahatha. 1 Rūpa (matter) is not a samyojana (fetter) in itself, but it is Samyojant ya i.e, it creates fetters. So long as we have ayid greed and passion in our mind for the various objects of the world, we will always be bound by fetters created by them. Therefore if we want to put an end to suffering, we must destroy the various warps and woofs of our passion for the objects of the world. Räpa is productive of fetters that bind the living being to Sarisärika existence. Rupam som yojan iyo dhammo." It is chiefly and perhaps solely in this context that the Buddhists have made an analysis of matter. Because rāpa is sari yojaniya, so its true nature must be comprehended. Our ignorance of its true nature will make us crave for it, remain attached to it and as a consequence our spiritual progress will be impeded. There are a number of passages in the Pali canon which describe this aspect of rūpa. It is a source of dangers that arise from attachment to it. How do we - 426 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ get attached to it ? Because we are ignorant of its real nature. Ajänam apassan sārajjati.9 In the Samyutta Nikāya Lord Buddha says: Rūpam, Bhikkhave, anabhijānam, aparijānam abhabbo dukkhakkhayāya. 4 Rūpa (matter) is not permanant. Its origination and dissolution are manifested. In the Samyutta Nikaya5 its true nature is described. It is Pațiccasamuppanna, samkhāta, aññatha bhāvi, khayadhammā, va yadhamma and also it is nirodha dhamma. In the profoundly religious context, it has been described as māra, roga ganda salla ogha and aditta. Suññam, tuccha, ritta and asāra form another set of characteristics describing rūpa. It has been compared to Phenapinda (bubble) to bring out its impermanent nature. Analysis of matter by the Early Buddhists has been done in the above mentioned way so that no one may feel like being attached to Rūpa which is shortlived like froth. The early Buddhists do not so much describe the metaphysical concept of rūpa as they describe its that aspect which causes our worldly existence. Human personality is made up of nāma (Consciousness) and rūpa (matter). The Early Buddhists have described both of them from a pragmatic point of view which is to end our suffering. The Buddhists like the Vedantins do not regard this external world as nonexistent. Nor like the other idealists, do they show that the world is mind-mnade or a projection of subjective thought as held by Berkely. Throughout the Pali texts it is maintained that matter or rūpa does exist independent of one's mind. This is the position taken by the early Buddhists. They start from the obvious. According to them when an individual comes into being in this world, he comes in contact with this external world which acts on him and to which he reacts. Thus, attachment to those objects of the world which are pleasing to him and repugnance for the objects which do not do so arise in him. As a consequence, he gets inextricably bound by his passions and desires. The immediate problem before the Early Buddhists was how to annihilate passions and desires. It was, therefore, very necessary for them to understand the real nature of rūpa which acts on human beings and causes interminable grief. According to Buddhist Philosophy, human personality is composed of five Khandas in their dynamic relationship with one another. They are rupa, vedanā, saññā, samkhāra, and viññāņa. The last four are mind and the first one is matter. How the two entirely opposite elements are related has been graphically described by Buddhaghosa. He gives the illustration of a lame man going on the Path on the shoulders of a blind man. None of them can do without the help of other. Both depend on each other. Such a human personality naturally reacts to the external world with the six sense organs he is endowed with. The dynamic contact between the sense - 427 - Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ organs and their objects gives rise to myriads of complex sensations which cause fetters that bind an individual to the wheel of existence unmistakably characterised by suffering. The summum bonum, according to Buddhist Philosophy, is nibbāna which means the extinction of all passions and desires. It has been time and again pointed out that whatever is in a state of constant flux can hardly afford any lasting happiness. Ripa has been defined in the following words: Ruppatiti kho, Bhikkhave, tasmā rūpam ti vuccati. kena ruppati ? siten pi ruppati, unhen pi ruppati, jigaechaya pi ruppati, darasa makasa vätätapa sirinsapa samphassena pi ruppati! T. W. Rhys Davids explains the most important word ruppati in this passage as "to be vexed, oppressed, hurt, molested". According to the Vibhanga Atthakatha, it is kuppati, plliyati and bhijjati. Although ruppati refers to a psychological disturbance, it also refers to the physical change that an object undergoes. The whole purpose is to show the changeable and transmutable nature of ripa. There is nothing like the metaphysical entity called matter. But any given material is analysable into rapadhammas, which have been regarded as the ultimate reducible factors that make up the physical world. A rupa dhamma does not have any independent existe. It always exists inseparably with a set of other dhammas. It is for this reason that the mahabhatas are called sahajata. According to Buddhist Philosophy, there are twenty eight types of ripas, four of them are primary and the rest twenty four are secondary. Pathaul, apo, tejo and vaye are primary elements and they are called mahābhatas. Pathavi dhatu is characterised by Kakkhalata and kharigata. One may say that kakkhalata is itself Pathavi. So is the case with apo dhatu which is defined as ripassa bandhanatta i. e. viscidity and cohesion that bind the matter together. There are two other characteristics of water, paggharana i, e. flowing and nissandabhava i. e. state of streaming. In the Nikayas, the mahabhitas are defined in simple and they are illustrated with reference to the constituents of body. and body, nails, teeth, flesh and skin etc. are examples of pathavi dhātu, because they are hard and rigid. Blood. bile, cough and phlegm are examples of apodhätu. Heat in the body is an example of Tejo dhatu and inhalings and exhalings and other kinds of winds are examples of sayo dhätu which is airy. Such definitions of the mahabhatas may be called popular. It is only in the Abhidhamma that abstract and detailed definitions of these mahabhitas are given. According to the Nikayas what is kakkhula is paṭhavi, whereas according to the Abhidhammika definition kakkhalata itself is pathavi. Not only kakkhalata but kharatva and gurutua also are said to be pathaul. It is also defined as that which spreads up, - 428 - general terms and Hair of the head Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pattharatiti pathavi. Buddhaghosa says that pathavi dhātu acts as a foundation in so far as the other three elements are established on it. Apo dhātu is rūpassa handhanatta i. e. it is that which binds the rüpa kalapas together. It is represented by the fact of sineha or viscidity. How are the particles of iron or for that matter the particles of stone closely bound together? It is the function of apo dhātu to bind all the particles together. Two other characteristics of apo dhātu are flowing and streaming. These account for the fact that vāyo dhātu and tejo dhātu also have apo dhātu in them, because they spread and flow. According to the Vaiseșika philosbphy, āpo has two characteristics i. e. Liquidity and viscidity, Āpo dravah snigdhah but unlike the Vaiseşikas, the Buddhists do not recognize the dichotomy between substance and quality. Tejo dhātu means the phenomenon of heat or unhatta, The Buddhists, unlike the upholders of Vaiseșika philosophy, believe that uşņa and sāta really come under tejo dhātu. It is true that cold or sita is known by the sense of touch, it is really tejo dhātu because cold is really relative absence of heat. This is indeed an ingenious explanation given by the Theravadin. The Dhammasangani defines vāyo dhātu in terms of thambhitatta (inflation) and chambhitatta (mobility). As distinct from the rest three of mahābhūtas, it represents the dynamic aspect. Thus seen, the mahābhūtas are not qualities and attributes of the bhūta rūpa i. e. they are qualities not inhering in any substance. In other words the qualities themselves constitute the maha bhūtas. One of the fundamental features of the mahābhūtas is that none of them can exist in isolation. In fact no mahābhūta (Primary element) can exist independently of the other three mahābhūtas. They are, therefore, called sahajāta and sahabhū. On further analysis it becomes clear that the upapatti (origination), thiti (existence) and bhanga (dissolution) of one always synchronize with those of the others. The maha bhūtas cannot be separated from one another. In short, they rise together, exist together and are destroyed together. They are, therefore, called abbinibhoga rūpa. It means that every instance of matter contains all the four primary elements. Thus all material aggregates are tetrabhautic. Although the Vedānta philosophy believes in monobhautic substance, it holds that in each mahābhūta there are five sūkşame (subtle) bhūtas present. As against the sāmkhya system of philosophy where mahābhūtas are not ultimate constituents of matter (they are believed to evolve immediately from the tanmātrās and ultimately from the prākřti which is the uncaused first cause of the world of non-self), the Early Buddhists assign them a comparatively primary position. Vedānta philosophy, as we have seen holds that mahābhūtas are gross which come into being from the sükşama bhūtas. According to Jain philosophy, not the - 429 - . Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ four elements but the paramāņus are the constituents of pudgala. So according to them paramäņu is given a comparatively primary position. The Nyāya-Vaiseșika system of philosophy has postulated four kinds of atoms corresponding to earth, water, air and fire. Besides the above explained four primary elements (mahābhūtas) there are twenty four secondary rūpas. They are called upādā rūpas in so far as they depend on the mahābhūtas. Five sense organs, four objects of the senses, two faculties of sex, one faulty of life, ahāra, hadaya vatthu (the physical basis of mental activity), the two modes of self expression (kāyaviññati and vact viññati), three characteristics like lahuta; muduta and kammaññatā, four phases of matter like upacaya, santati, jaratā and aniccata and the element of space are the twenty four upādā rūpas. The first five sense organs viz; cakkhu, sota, ghāna, jivha and kāya are respectively the organs of sight. hearing, smell, taste and touch. In the Abhidhamma they have been described as pasāda which means clearness and brightness. These sense organs are not only receptive, but they also gratify our sensual pleasures. They react as well as gratify. They are very subtle and delicate and they can be known by no other sense organ than by mind which is the subtlest of all. They are composed of subtler matter and their corresponding objects are made of gross ones. According to the early Buddhists, the relationship between the sense organs and their corresponding objects is that between the subtle and the gross. The Samkhya philosophy holds more or less the same view. According to it, the development of matter takes place along two different lines. Where there is predominance of sattva that evolves into sense organs and where there is predominance of tamas or dead matter that becomes sense objects. But there is a basic difference. As Prof. Stcherbatsky has pointed out the two groups of matter are not conceived as modification of an eternal substance by the Buddhists. It has been held by most of the systems of Indian thought that the sense organs are something which are very fine and very subtle. The Jains speak of two kinds of indriyas viz., dravya indriyas (the physical sense organs) and bhāvendriyastheir psychical correlates. The Mimānsakas mention that "the sense organs consist in the faculty of potency abiding in their sockets." According to the Vedānta systein of philosophy, different sense organs consist of sättvic parts of light, ether, earth, water and air. From all this, it is clear that sense organs as they are subtle, transparent and translucent, develop sensitivity to external world of objects as a looking glass does to all objects. The sense objects have been enumerated as four viz., rūpa (the visible), sadda (sound), gandha (smell) and rasa (taste). Although there is another sense object called the phottabba (the tangible), it has not been enumerated here because it - 430 - Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ consists of three of the four primary elements, water being excluded. The rūpāyatana (the sphere of the visible) includes colour like blue, yellow, red, etc. and figures like circular, oval, square, hexagonal etc. The saddayatana (the sphere of the audible) includes different kinds of sounds of drum, of tabors, of conch shells etc. The gandhāyatana (the sphere of the odorous) includes all kinds of odour sugandha and durgandha and the rasāyatana (the sphere of the savoury) includes tastes like bitter, pungent, saline and acrid etc. It is interesting to note here that the earlier Buddhists have discussed the problem as to how does the sound travel, Does it require a medium to travel ? The answer is in the affirmative. The two faculties of sex which are responsible for distinguishing the male and the female also come under upāda rūpa (secondary matter). According to the Dhammasangani, the purisindriya (faculty of masculinity) is responsible for the physical appearance, mark, traits and department that are peculiar to a male. Similarly the itthindriya (faculty of femininity) gives rise to the marks and traits of a female. Jivitindriya (the faculty of life) is also a kind of upāda rūpa. Its function is to stabilize and sustain the kammasamutthana rūpa i. e. matter that rises as a result of kamma. There is Jtvitindriya in a piece of paper so long as it is not friable. The moment it becomes so, it has lost the faculty of life. Kabalikara ahāra is also a form of secondary rupa. Although it literally means gross food taken in morsels, its Abhidhammika meaning is that aspect of matter which is nutritive i. e. which helps one in growth. Hadaya vatthu, not recognized as a form of rūpa even in the Dhammasangani but mentioned in the Patthara, is a post canonical development. It is called the heart basis which is the physical basis of mano dhātu (mind) and mano viññāna dhātu (mind consciousness). The two modes of self expression (viññati rūpa) kāyaviññati (bodily expression) and vacīviññati (vocal expression) are also upāda rūpas. Because they make the thoughts known or they help in communicating thoughts, they are called viññati. Kāyaviññati is not identical with bodily expression but it refers to the bodily tension that rises in response to a thought moral (kusala), immoral (akusaia) or indeterminate (avyākata). In the Dhammasangani, it has been defined as the state of bodily tension or excitement (kāyassa thambhanā santhanbhanā samthambhitattam). Vaciviññati means expression or communication through voice of speech or articulate sound. It rises like Kāyaviññati in response to a kusala, akusala or avyākata thought. The three characteristics of matter viz., lahută (lightness), muduta (softness) and kammaññatā (pliability) are qualities of matter in general. This triad of lahutā, mudută, and kammaññatā represents the healthy and efficient position of a being. -- 431 - Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ There are also phases of matter which are four in number viz., räpassa upacaya (growth of matter), rapassa santati (continuity of matter), rūpissa jarata (decay of matter) and ripassa aniccata (inpermanence of matter). Obviously these four phases indicate growth of matter, its continuity, its decaying state and its complete annihilation. These phases of matter clearly point out that there is no justification for our being attached to any object for true happiness. They rise only in order to be annihilated. When they are in a constant state of flux, how can they give true happiness? The last item of upada ripa is äkäsa (element of space). It is äkäsa dhātu. which gives room to all material things for movement. It is regarded as a bounded space. Thus, it is clear that the early Buddhists have defined matter more from the ethical point of view than from the metaphysical point of view. In spite of this bias, however, the metaphysical point of view is also not blurred and indistinct. References लेखसार 1. Sanyutta Nikaya, 2, PP. 375 2. Ibid, 2, PP. 262 3. Ibid, 4. Ibid, 5. Ibid, 3, PP. 389 2, PP. 262 2, PP. 261. प्रारंभिक बौद्ध दर्शन में पदार्थ को धारणा महात्मा बुद्ध एक व्यावहारिक दार्शनिक थे। से छुटकारा पाने की बात कही । यह तृष्णा विभिन्न ये पदार्थ संयोजन नहीं, अपितु संयोजनीय हैं। इन मूल प्रकृति का विवरण दिया है। प्रो० अंगराज चौधरी, नवनालन्दा महाविहार उन्होंने धर्म के महान् उद्देश्यों में तृष्णाजनित दुःख सांसारिक पदार्थों के प्रति ममत्व के कारण होती हैं । संयोजनीयों से ममत्व हटाने के लिये ही बुद्ध ने उनकी बुद्ध धर्म में पदार्थों को 'रूप' शब्द से अभिहित किया जाता है। संयुक्तनिकाय में रूप को प्रतीत्य समुत्पन्न, संख्यात, अनित्य, व्यय-क्षय धर्मी और निरोध धर्मात्मक बताया गया है। इसे मार, रोग, असार, शून्य आदि नामों से भी कहा जाता है। इसकी प्रकृति बुलबुले ( फेनपिंड) के समान अनित्य होती है। रूप की अनित्यता का यह वर्णन उससे ममत्वभाव उत्पन्न न होने देने के लिये ही किया गया है । बुद्ध न तो वेदान्तियों के समान जगत् को असत् मानते हैं और न ही वे इसे मानसिक प्रक्रिया मानते हैं । वे इसका स्वतंत्र अस्तित्व मानते हैं। इस जगत में मन और पदार्थ अंधे और लंगड़े के समान 432- Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्पर संबद्ध हैं । इस संबंध को संपन्न करने में इन्द्रियां भी सहायक होती हैं । बौद्ध दर्शन में चार प्राथमिक और चौबीस द्वितीयक रूप (पदार्थ) माने गये हैं । पृथ्वी, जल, तेज और वायु—ये चार प्राथमिक रूप-महाभूत हैं । पृथ्वी में कक्खलता ( कठोरता ) और खरिगता ( गुरुत्व) होती है, जल में विस्कासिता, संसक्ति और प्रवाहशीलता होती है । ऊष्मा तेजोरूप है और गतिशील श्वासोच्छ्वास वायुरूप है । पृथ्वी पर अन्य तीन रूप स्थित रहते हैं । विभिन्न धातुरूपों को बांधने वाला जलधातु है । तेजोरूप और वायुरूप में भी जलधातु के प्रवाह एवं प्रसरण के गुण पाये पाये जाते हैं । ये सभी धातुयें अपने गुणों से अभिन्न रहती हैं । ये सभी मूलभूत रूप सहजात होते हैं और विलगित रूप में नहीं रहते । इन्हें 'अव्विनिभोग रूप' कहते हैं । इस प्रकार जगत के सभी पदार्थ चतुर्महाभूतमय होते हैं । ये महाभूत ही पदार्थ के मूलभूत तत्व या घटक हैं । न्याय-वैशेषिक पद्धति भी संसार की व्याख्या में इन्हीं चार तत्वों को मौलिक मानती हैं जबकि जैनदर्शन केवल एक समान परमाणुओं को ही मौलिक मानती है । वेदान्तियों के समान, बौद्धों के ये महाभूत सूक्ष्मभूतों से निर्मित नहीं होते । इन चार मौलिक महाभूतों से चौबीस द्वितीयक रूप उत्पन्न होते हैं । इन्हें उत्पाद रूप भी कहते हैं। इनमें पाँच इन्द्रियां, चार विषय, दो लिंग, जीवन, आहार, हृदयवस्तु ( मन ), शरीर, वचन, हल्कापन, कोमलता, नम्यता, उपचय, सन्तति क्षय, अनित्यता तथा आकाश समाहित हैं । पाँच इन्द्रियां शरीर के सूक्ष्म एवं संवेदनशील घटक हैं। रूप (वर्ण और आकृति), शब्द, गंध और रस-- ये चार विषय हैं । पुरुष और स्त्री-ये दो लिंग हैं जो जीवों में दो प्रकार के अभिलक्षण उत्पन्न करते हैं । जीवितेन्द्रिय कर्म - समुत्थान का चालक है । आहार विकास साधन है । हृदयवस्तु मन की द्योतक है । शरीर और वचन अभिव्यक्ति के माध्यम हैं । अन्य सात रूप पदार्थ के विभिन्न गुणों तथा प्रावस्थाओं को निरूपित करते हैं । आकाश सभी रूपों को अवगाहन देता है । बौद्ध इसे सीमित आकाश मानते हैं । इन चौबीस रूपों में केवल हृदयवस्तु ही ऐसा रूप है जो परवर्ती समाहरण है । इन सभी रूपों के विवरण से स्पष्ट होता है कि इनमें कोई ऐसा विशेष गुण नहीं है जिससे इनके प्रति ममत्वभाव बढे । अतः ममताभावमूलक तृष्णा के निरोध से जीवन को कल्याणकारी बनाना चाहिये । 55 -433 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ METALS AND ALLOYS DURING THAKKUR PHERU’S PERIOD, 1290-1318 A.D, N. L. Jain Chemistry Deptt., Girl's College, Rewa, M.P. Many authors have attempted about the history of chemical knowledge in India in the past. Mention has been made therein of Charaka, Sushruta, Nagarjuna, Vrinda, Bhikshu Govind, Somdev, Bagbhata and others for their contributions in this field. However, Ugradityacharya of eighth century and Thakkur Pheru of fourteenth century do not find any mention, though they have given account of existing chemical knowledge including that of chemistry of mercury in their books Kalyan Karaka and Dravya Pariksha respectively. An account of chemistry in the first has already been reported and the chemical contents of Thakkur Pheru's book are reported here. It is found that during the beginning of 14th century, purification of metals, preparation of coins and many other chemical compounds find mention in his book. Many of the processes described therein are the same as those practised today. Thakkur Pheru and his books According to the references given by Pheru himself in his books, he was the son of Chanda of ghanghia gotra of Shrimal family living in Kannana near Mahendragarh of today. Though his date of birth is not given, but it is said that he composed eight books during 1290-1318 AD in the days of Sultan Alauddin and Qutubuddin. He worked as minister of Treasuries in Delhi in this period and obtained chemical knowledge about the processes and materials used in coin making. He has mentioned himself to be Jain and accompanied Jin Chandra Suri in 1318 for sacred journeys details of which are not known. Assuming that he must have been about 25 when he joined services in Delhi, and that he must have lived about ten years in munisangha, his life tenure could be safely taken to be between 12651330 AD. He seem to be a highly religious and scholarly man as before joining the services, he lived with a Jain scholar Rajshekhara at Kannana. This is also clear from the fact that his first book is related with the main Acharyas of Khartargachcha after Mahavira. This is written in Apabhransha language in Chaupai form composed in 1290 AD. He has composed seven more books but they are in Prakrit. Out of them only six are available and their subject is concerned with the useful or worldly knowledge like mathematics, architecture, examination of gems and diamonds, metals and materials, astronomy and geology. Their details are given in Table 1. - 434 - Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S. Name of the book No. composing year 1. Yugapradhana Chatuspadi 1290 2. Ganita Sara 3. Västu sära 4. Jyotisa Sara 5. Ratnapariksä 6. Dravya Parikṣa 7. Dhätütpattiḥ 8. Bhagarbha Prakāsā. . not available Table 1. Books of Thakkur Pheru subject 1315 1315 131) 1318 1318 Khartar Acaryas Mathematics Architecture Astronomy Gem examination. metals and coins preparation & properties of metals and compounds geology form Chaupai and Chhappaya 311 gathäs A compendium of first seven books has been found containing sixty pages and handcopied during 1346-47 i. e. 20 years after they were written. This was accidentally found in a Jain Gyanbhandar in Calcutta in 1946. MD Desai has referred these books in his History of Jain Literature in Gujarat. Muni Kantisager and BL. Natha have also reported about these books in Viswavāņi (1960) and Visala Bharata (1961). This was published in original in 1961 by Rajasthan Oriental Academy, Jodhpur. But it seems it did not attract attention. Out of these seven books, books numbering 5, 6 and 7 are of interest to chemists. These were written by T. Pheru for the benefit of his brother and Hempal. They have now been separately published with translation. Nahta Bros. Calcutta published book number 4 in 1963 while books no 6-7 have recently been published by Vaisali Research Institute in 1976 in a single volume. This paper deals with book nos. 6 and 7 only. 242 gathas 132 gāthās 149 gathäs 57 gathas gāthās Chemical Processes in Dravyaparikskā This book consists of 149 gathas and describes production and purification of coinage metals and composition of various coins used during 13-14th. century AD in India. This has a large number of technical words used in those days in these chemical operations. These terms need proper clarification for their evalution. Some meanings, however, may be assigned to them with reference to the processes involved, Dhavadia, Kemmans powder, Chasni, Gahi, Ris etc. are such terms. Even this book gives Dhatu a meaning of current use while the metal itself has been called "mahādhātu". Extraction of silver :-Silver occurs in soils. It is extracted with the help of ashes obtained by burning bones, trees and dried cowdung. The ashes are mixed with the silver ore and heated under a blowpipe flame on Dhavadia coals. - 435 - Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The impure product is then cupelled for further purification. This method is the same as described in Nagarjuna's Rasratnakara of 700 AD. This is also equivalent to the mixed amalgamation and cupellation processes of today. It is also mentioned that lead is desilverised by liquation and crystallization. The lead thus obtained will contain about 2% Ag which, we know, cannot be removed due to the formation of eutectic mixture. However, silver so obtained has been termed as pure (Bis Biswa) useful for coin making. The impure silver is also purified with the help of lead used in various proportions. On heating. this in crucibles, or cupels, pure silver is obtained and impurities are either absorbed by the material of the crucible or volatalised. The pure silver could be converted into rods, ingots or foils. Different qualities of silver could be prepared and named by mixing it with a mixture of copper and brass in various proportions. The material absorbed by the crucible could be desilverised, if any, by mixing it with borax, sajji and fusing it strongly. (6) Extraction of gold :-Gold is normally found in sands of the rivers and mountains or mines. The ore is mixed with a mixture of white chalk (calcium carbonate), salt (sodium chloride) and kallar (sajji mitti, mixture of sodium carbonate and sulfate) and heated strongly 3-21 times to get pure gold. There is always loss of weight in the original ore by this treatment. The gold ore may also be treated with the above mixture and kommans powder (containing perhaps lead, copper and tin) to obtain gold containing a small amount of copper in it. Like silver, the quality of gold could be determined by the amount of gold contained in it, the nongold material being a mixture of silver, copper and brass in various proportions. In a farmula, he gives that a fused mixture of 23 parts of copper with 77 parts of gold serves a good material to prepare various qualities of gold, The method of calculating the cost of a particular quality of gold has also been presented in the book. The gold extracted today is also based on the same basic principles but with a better quantitative accuracy. (c) Extraction of copper :-The copper ore obtained from mines is ground and mixed with cowdung and dried. It is then heated strongly in a furnace with strong blasts until the slag forms. After the removal of slag, the copper so obtained is again heated by blasting to get it purified. The pure copper is then converted into either sheets or ingots, According to the current practices, the ore is mixed with coke rather then. cowdung which serves to produce carbon particles or carbon monoxide while burning to supply necessary reducing agents. However, no flux seems to have been added in the olden times. (d) Extraction of lead-The lead ore is ground and mixed with iron int the ratio of 2:3 and heated strongly in crucibles and furnaces. The iron might have served the purpose of removing sulfur from the sulfurous ores and reducing - 436 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the oxidised ores. It has also been pointed out that the slag from any extraction has half the value of the metal. (e) Extraction of mercury : -The mercury ore is kept in a closed furnace and covered with dried cowdung cakes. On heating the furnaces with slow blasts, mercury comes out as sublimate and collected on the top of the furnace. 2. Preparation of some common alloys (a) Brass :-It is prepared by fusing one part of copper with a fusion mixture containing four parts of Dhavadia and two parts of jaggery (here dhavadia must contain zinc compounds which are reduced to zinc metal by the reducing property of the jaggery) in a furnace. The brass so obtained is ideal brass. Other qualities of brasses may also be obtained by increasing the quantity of copper during fusion. It is now known that brass is a mixture of copper and zinc in varying proportions and a variety of brasses are possible. (b) Bronze :--The bronze is a mixture of copper and tin in various proportions. In Pheru's days, it was made by boiling one part of tin obtained from the treatment of solder metal with four parts of copper. (c) Solder :- It seems that this alloy was prepared directly from some ore, heating it with kommans powder. The process gave a hot flowing liquid metal called Cambia which was used for making bronze as above. 3. Preparation of some Compounds (a) Hingul :- This is called cinnabar today. It is prepared by heating sulfur and mercury in the ratio of 1:4. On current knowledge, the ratio should be 32:200. There is mention of preparing the compound by heating the powder of realgar and orpiment together for three days continuously. It seems these compounds arsenic must be containing mercury in some form which forms hingul after complete elimination of arsenic during long heating. (b) Sindüra or red lead :- This is prepared in two stages. In the first stage the lead metal is fused with 5% ashes of bamboos making the metal perchance in soluble form. The mass is then dissolved in water and filtered hot. The filtrate is allowed to settle and after decantation, it is ground and heated strongly in a furnace upto three days when its color changes to deep red, If heated too strongly, it is again converted to lead metal. 4. Some other useful description Besides the coinage metals and some of their compounds, there are descriptions about the units of weights used for these metals as below: 16 yavas = 1 masha = l vanni 4 māsās=1 tanka 3 tānkas=1 tola = 11.55 gms. which gives the least unit of yava as equivalent to 0.057 gm. There is description of various types of coins in use in various parts of the country at that time. This includes their composition and values. Some classes of coins are given in Table 11. -437 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Table 11. Classes of coins in use during 13-14th century as per Pheru Number of types Class 1. Coins of silver 2. Coins of gold 3. Coins of three metals (Cu, Ag, Au) Coins of two metals (Cu, Ag) 5. Special coins. gurjar, chanderi etc. 6. Coins of Delhi T 7. Qutubuddin coins लेखसार 11 520*88 15 22 10 There is description of some other materials which were in use in those times. These include shankh, rudraksha, shaligram, chandan (sandalwood), Kasturi, kumkuma, dhüpa, camphor and aguru. This description includes only the natural source of these materials and their general physical properties. Conclusion 48 Though the Dravyaparikṣa and Dhätätpattiḥ of Pheru is small in size, but it gives sufficient information about the metallurgical practices of his time. This helps us to learn about the chemical knowledge of this period where Chemistry in India was supposed to be passing through an age of recession. It is hoped that reference to this book will be included by the history writers of sciences in India in future. 63 References Satyaprakasa Vaijäänika Vikäsa ki Bharatiya Parampara, Rashtrabhasha Parishad, Patna. 1954; (b) Rasayan Vikas ki Bharatiya Parampara, Uttar Pradesh Hindi Akadami, Lucknow, 1960. 1. (b) Ray, P.C. History of Hindu Chemistry, Chemical Society, Calcutta, 1902. ठक्कुर फेरू के समय (1290-1318 ई०) में धातुयें और मिश्रधातुयें एन. एल. जैन, रसायन विभाग, गर्ल्स कालेज, रीवा म. प्र. यद्यपि अनेक लेखकों ने भारतीय रसायन के इतिहास में चरक, सुश्रुत आदि के योगदान की चर्चा की है, पर किसी ने भी आठवीं सदी के उग्रादित्याचार्य ( कल्याण कारक) और चौदहवीं सदी के ठक्कुर फेरू ( द्रव्य परीक्षा) की चर्चा नहीं की है । ठक्कुर फेरू वर्तमान महेन्द्रगढ़ (दिल्ली के पास ) के रहने वाले थे औरउन्होंने 1290-1318 के बीच सात पुस्तकें लिखी हैं। उस समय इन्होंने अलाउद्दीन और कुतुबुद्दीन के कोषागार अधिकारी के रूप में काम किया। इन पुस्तकों की साठ पृष्ठ की एक प्रति जैन ज्ञान भंडार कलकत्ता में 1946 में मिली थी। ये ठक्कुर फेरूने अपने पुत्र के लिये लिखी थीं। यहां केवल द्रव्य परीक्षा की चर्चा की गई है । द्रव्यपरिक्षा में 149 गाथायें हैं जिनमें तत्कालीन धातुओं, मिश्रधातुओं, सिक्कों एवं खनिजों के संबंध में विवरण मिलता है । यहां उस समय प्रयुक्त अनेक पारिभाषिक शब्द भी मिलते हैं । इस पुस्तक में चांदी, सोना, तांबा, सीसा तथा पारद धातुओं के निष्कर्षण की विधियां दी गई हैं । उनके शोधन की विधि भी दी गई है। इसमें पीतल कांसा तथा रांगा बनाने की विधि भी है। इसके अतिरिक्त, हिंगुल और सिन्दूर भी इसमें दिये गये हैं । उस समय यव माशा, टंक और तोला की तौल प्रसिद्ध थी। आज के अनुसार, यव का मान 0.057 ग्राम आता है। इसमें 177 प्रकार के विभिन्न सिक्कों का भी वर्णन है। , " - 438 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POST-VEDANGA PRE-SIDDHANTIC INDIAN ASTRONOMY⭑ (STUDIES IN JAINA ASTRONOMY) Abstract Sajjan Singh Lishk and S. D. Sharma Department of Physics, Punjabi University, Patiala Nothing is obscure about Vedäñga Jyotisa (Vedic astronomy) and Siddhantic astronomy but the post-Vedäñga pre-Siddhäntic Indian astronomy has hitherto remained as a forgotten chapter in the history of ancient Indian Astronomy. The paper renders a simple probe into this field. These studies are based on mathematical analysis of astronomical texts as extant in Jaina canonical literature. It highlights the importance of astronomical analysis of Buddhistic texts and the Hindu literature like Puraras, Smptis etc. D. Pingrees views about Masopotamian origin of ancient Indian astronomy become questionable. Theory The history of astronomy owes its origin to a remote antiquity. In the cradle of human civilization, history reveals that man's place in nature has always been relevant to religion' and his curiosity for regulating the mode of periodic religious performances must have catered to the need for observation of celestial phenomena. It is interesting to note that in China, since the Han dynasty, calenderical reforms were considered indispensable in order to keep the political and cosmic orders in tune. Carruccio1 has rightly remarked that scientific problems in general and mathematical and astronomical problems in particular show their full meanings only when they are considered in their own historical backgrounds respectively. Most of the Western scholars believe that the Hindus borrowed much of their sciences from Greece.5 As a matter of fact, the facts and figures from earlier texts of India have as yet remained unexposed to the western windows due to several reasons. Primarily, as Dange opines that history was used by the English rulers of India to demoralise the rising freedom movement; to build a psychosis in the leadership of the people that compared world history, its age and its achievements, Indian history leads to conclude that this country and its people were historically destined to be always conquered and ruled by foreign invaders. Secondly, dazed by firearms and dazzled by the enterprise and material advancement of the Some results were reported at Summer School on History of Science, Vigyan Bhawan, INSA, New Delhi (Sept. 1974). - 439 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ foreign intruders, Indians began to look down upon native scholarship and achievements. Thirdly, we had no Papyrus Prisse to prove our age, no Pyramids of Gizah, nor mummies of Akhnaton and Tutankhamen, no towns dug up like Ur and Babylon except the Vedas, Purăņas and the like to speak for us.' Indian astronomy has lost much more than any other subject by such attempts to dissociate it from its history. Although much of the ancient Veda, as Plunket opines, still remains a cypher and it can be properly revealed only with the help of modern sciences 10, yet it may be remarked that Vedānga Jyotişa (Vedic astronomy) has already been commented upon by several scholars11 like Somäkasa (first edited by A. Weber and again edited by S. Dvivedi), Thibaut, Bārhaspatya, R. Shamasastry, B. R. Kulkarni, G. Prasad, A. K. Chakravarty and D. Pingree etc. Also nothing is obscure and unknown about Siddhāntic texts. Some theses 12 like those of M. L. Sharma, D.A. Somayaji and R. Billiard etc. are scholarly works of profoundity in this field. Still lies a big gap between Vedānga Jyotişa period (about fourteenth century B. C. and that of Siddhāntic astronomy (third/fourth century A.D.). This gap, commonly known as a dark periodis hitherto remained as a forgotten chapter in the history of ancient Indian astronomy. There lies a vast treasure of astronomical knowledge embodied in Jaina Prakrit texts like Sūrya Prajñapti and Jambūdvipa Prajāapti etc. forming Jaina canon of sacred literature14 belonging to dark period in the history of ancient Indian astronomy. In his lecture at Oklahoma University, S. D. Sharma had stressed upon the need for research into this field, and it was his first Ph. D. student, S. S. Lishk, who analysed mathematically the astronomical data extant in Jaina canonical literatures in his doctoral thesisis, which was awarded an outstanding merit by scholars of the calibre of Hidee Hirose (Japan), W. Petri (Germany) and M. L. Sharma (Varanasi, India). The author collected relevant data on certain topics from various texts (in chronological order) and then attempted to analyse to have a perspective view. A pre-conceived chronology has been disregarded unlike Kuglar who was one of the Panbabylenistic school and created a fantastic picture by ascribing everything to Babylon. 16 It is worth-mentioning that the post-vedānga pre-Siddhāntic astronomical literature comprises of Jaina canonical texts, Buddhistic canonical texts, and Hindu works like Purānas, Smộtis, and the Sanhitās including Bhadrabāhu Sanhitā (a Jaina work) etc. We have so far been concentrating our efforts on analysing the Jaina canonical texts and thus our findings elucidate particuarly the salient features of pre-Aryabhatian Jaina School of astronomy. Some peculiarities are given as below: 1. Units There had been a great diversity of systems of units of time, length and arc-division at different times in different parts of ancient India. Trigesimal - 440 - Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ system (Thirty-fold divisions system) was gradually changed into sexagesimal system of time-units.17 The length of a yojana was standardized and the relation between three different types of yojanas is explicitly mentioned in Anuyogadvara Sutra, a Jaina canonical work. 18 The zodiacal circumference was graduated in time-degrees days of a nakṣatra month (lunar sideral revolution) and subsequently in time-degrees muhartas (one muhurta 48 minuts) of a nakṣatra month, 54900 ganana khandas (celestial parts) (numerically equal to 54900 muhurtas of a five-year cycle), and finally in 360 saura days (a saura day means the time taken by the Sun to traverse 1/360 the part of zodiacal circle)."" 2. Cosmography Jainas had been striving for the scientific formulation of the real world. around. They had devised the theory of two Suns and two Moons for certain mysterious calculations. The concept of the mount Meru whose dimensions form a consistent picture, implies Jainian trends towards the motions of certain astronomical constants, mainly that of obliquity of ecliptic, 30 It is worthy of note that the notion that the Moon is eighty yojanas higher than the Sun, has been quite confusing with the notion of vertical height but it actually depicts Jainian notion of celestial latitude of Moon measured as distancedegrees along the surface of earth, 21 3. The Science of Sciatherics Jainas measured time as a function of shadow-lengths and thus they could. determine the time of day directly from the table of shadow-lengths versus the corresponding parts of the day elapsed."" as the practice is still in current among some sects of Buddhistic monks in Ceylon etc. Jainas had also employed the use of shadow-lengths for the determination of seasons. They had advanced in measuring shadow-lengths to such an extent that Summer solstice was determined upto thirty muhurtas of one day.24 4. Kinematics Solar and lunar motions among their respective mandalas (diurnal paths) imply a motion of declination. But they could not make out the algebraic sense of declination (that is, that it increases on both sides of the equator).25 Besides, the average relative velocity of venus in heliacal combustion in different parts of lunar zodiac was compared with some conventionally known relative as well as discrete velocities like those of snake, horse, elephant etc. the corresponding vithis (lanes) of Venus were specified among the stars. relative north-south directions of vithis (lanes) of Venus also imply their trends towards notion of geocentric latitudinal motion of Venus.20 Such kinematical studies of Venus are parallel to those of planetary ephemerides of Seleucid and Menomides periods. 56 -441 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. Calendar The quinquennial cycle of Vedānga Jyotişa remained in vogue during Jaina astronomical period but with different solstices (winter solstice occurred at Dhanisthā i. e., B Delphini and Abhijit i. e., a Lyrae during Vedānga Jyotisa and Jaina astronomical periods respectively.) 27 They might have also strived for the reformation of the five-year cycle as they had conceived some other planetary cycles like twelve-year cycle of Jupiter, twenty-eight year cycle of Saturn and later a cycle of sixty Jovian years etc. Besides, it is worth mentioning that the ratio 3:2 of maximum and minimum lengths of the day is frequently used in Vedānga Jyotişa and Jaina calendar. By applying Bernoulli's theorem to account for the error due to rate of flow of water through the orifice of water clepsydra, it is revealed that the ratio 3:2 between amounts of water to be poured into Clepsydra on maximum and minimum lengths of the day corresponds to the actual time ratio ✓3: V2 between actual maximum and minimum lengths of daylight. This ratio V3: 12 belongs to a latitude very near to that of Ujjaini, a renowned seat of ancient Indian culture. 26 6. Cycles of Eclipses Jainian forty-two-eclipse months cycle of lunar eclipses and forty-eighteclipse years cycle of solar eclipses were based upon observation of periodic repeatition of eclipses in five different colours irrespective of any accurate knowledge of true motion of Rāhu (lunar ascending node). These eclipse cycles are completely free from any foreign influences of Chaldean Saros or Metonic cycle.20 7. Lunar Occultations Jainian concept of direction of lunar conjunction with a naksatra implies the notion of position of identifying star (of the nakṣatra) with respect to the region where the Moon moves among the stars. Belt of lunar zodiac was properly specified, 30 8 Measurement of Celestial Distances Celestial angular distances were measured in yojanas (basically, linear measures of length) in terms of corresponding distances projected over the surface of earth. The real determinations of distance degrees fit the actual geometry of the earth. 31 9. Observation of the Celestial Phenomena Jaina astronomers had a keen sense of observation. They measured precisely the time as a function of shadow and determined time of the day through shadow-lengths of a gnomon. They observed lunar occultations, determined Summer solstice upto 30 muhurtas or one day, studied the phenomenon of heliacal combustion of Venus in different parts of the lunar zodiac. The latitude of the Moon was also determined. Shapes (star figures) of nakşatras (asterisms) and their respective numbers of stars were also observed. The Jainian cycles of eclipses are based on the periodic observation of colours of (parva) Rāhu denoting Jainian - 442 - Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ concept of shadow causing eclipse. The categorization of mahagrahas (greatplanets), and tarakagrahas (star-planets), the classification of nakṣatras into kula (category), upakula (sub-category) and kulopakula (sub-sub-category) in relation to their conjunctions with the Moon at different syzygies in a five-year cycle also exhibit their trends towards skilled observation of the celestial phenomena, sa 10. Astronomical Instruments Besides gnomon, some sort of clepsydra (water-clock) and star-clock such as acronical risings of stars used in the determination of seasons etc. might have also probably been used. Description of construction of a water clepsydra is mentioned in Visnu Puranas and Jyotisa Karandaka34 (a Jaina non-canonical work). Here it is worthy of note that in the absence of knowledge of Jaina astronomy (the astronomy as expounded in Jaina canonical texts), a confusing link between Vedänga Jyotișa and Paitamaha Siddhanta due to certain similarities between them has often been disillusioning. Our findings in pre-Aryabhatian Jaina School of astronomy have opened up many new vistas of research in this field and thus the task of bridging the gap between Vedänga Jyotisa and Siddhantic astronomy has been initiated in its true perspectives. The role of pre-Aryabhatiyan Jaina School of astronomy in the development of Siddhantic astronomy has been dealt with in a separate paper.38 Consequently D. Pingree's views about Mesopotamian origin of ancient Indian Mathematical astronomy become questionable. ACKNOWLEDGEMENT Thanks are due to Professor L. C. Jain and Professor Priyavrata Sharma. for some valuable suggestions. The authors are grateful to Shri Shanti Muniji, Shri Chandan Muniji and Shri Krishnachandracharyaji for encouraging comments and giving some useful books. References 1. Hocking, W. E. (1944): Science And The Idea of God. p. 85. See also Pannekoek, A. (1830): Astrology and Its Influence upon the Development of Astronomy. Journal of the Royal Astronomical Society of Canada, Vol. XXIV, No. 4, pp. 159-176. 2. Brodrick, A. H. (1940): The Sacrifices of the Son of Heaven. The Asiatic Review, Vol. XXXVI, No. 125, p. 123 (January 1940). See also our paper 'An Introduction to a Thesis on Jaina Astronomy," The Jaina Antiquary, Vol. 30 No. 2 pp. 9-17. 3. Yabuuti, Kiyosi (1968): Comparative Aspects of the Introduction of Western Astronomy Into China and Japan Sixteenth to Nineteenth centuries. The Chung Chi Journal, Vol. 7 No. 2, pp. 151-154. 4. Carrussis, E.: Mathematics and Logic in History and Contemporary Thought. English translation by Isabel Quisly (1964), p. 9. 5. Allen, R. H. (1936): Star-Names and their Meanings. pp. Introduction. 6. Jain, L C. (1975) Indian Jaina School of Mathematics (A Study of Chinese influences and transmissions) Contribution of Jainism to Indian Culture (A souvenir) edited by N. L Jain. pp. 206-220. - 443 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lishk, S. S. and Sharmainkar. Vol. 1, Nos. 7-12, pp. O 7. Dange, S. A. (1972): India. 5th ed. p. 2. 8. Saraswathi, T. A. (1969) : Development of Mathematical Ideas in India. IJHS, Vol. 24, Nos. 12, pp. 59-78. 9. See ref. 7. 10. See Roy, B. B. (Year ?): The Universe. p. 41 The World Press, Calcutta. 11. See Pingres, D. (1973): Mesopotamian Origin of Ancient Indian Mathe matical Astronomy, JHA Vol. 4, pp. 1-12. Sharma, M.L. (1965) : Graha Ganita Mimānsā (In Sanskrit) Somayaji, D. A. (1971) Ancient Indian Astrenomy. Billiard, R. (1971) L'Astronomis Indienne (In French). Sharma, M. L. (1974): Development of Indian Astronomy, Proceedings of Summer School on History of Science, INSA, New Delhi. Chatterjee, Bina (1974) History of Indian Mathematics. Proceedings of Summer School on History of Science, op. cit. Lishk, S. S. and Sharma, S. D. (1978): Sources of Jaina Astronomy. The Jaina Antiquary, Vol. 29 No. 1-2 pp 19-32. 15. Lishk, S. S. (Feb. 1978): Mathematical Analysis of Post-Vedānga Pre Siddhāntic Data In Jaina Astronomy. Ph.D. thesis. Punjabi University, Patiala (Consult University Library). 16. Neugebauer, Otte (1952): The Exact Sciences In Antiquity, p. 132. 17. Lishk, S. S. and Sharma, S. D. (1977): Time-Units In Anciant Indian Astronomy. Tulsi Pragya, Vol. 2 Nos. 7-8 pp. 100-108. 18. Lishk, S. S. and Sharma, S. D. (1976): The Evolution of Measures In Jaina Astronomy. Tirthankar, Vol. 1, Nos. 7-12, pp. 83-92. See also, Lishk, S. S. and Sharma, S. D. Length-Units In Jaina Astronomy. To appear in Jaina Journal. Besides, Anuyogadvära Sūtra is one of the two Cülikā Sūtras which may be taken as appendices to the entire Jaina canon (See Mehta, M. L. (1969) : Jaina Culture p. 29). For more details see ref. No. 14. Lishk, S. S. and Sharma, S. D. ; Zodiacal Circumference as Graduated in Jaina Astronomy. Paper presented at 4th Annual meeting of the Astronomical Society of India, held at Ootacamund (March, 1978). To appear in Sambodhi (Journal of L. D. Institute of Indology, Ahmeda bad). 20. Lishk, S. S. and Sharma, S. D. (1978) · Notion of obliquity of Ecliptic Implied in the concept of Mount Moru in Jambūdvipa Prajāapti, Jain Journal, Vol. 12 No. 3, pp. 79-92. 21. Lishk, S. S. and Sharma, S D. (1976): Latitude of the Moon as determined in Jaina Astronomy. Sramana, Vol. 27, No. 2, pp. 28-35 (Journal of P. V. Research Institute, Varanasi). 22. Lishk, S. S. and Sharma, S. D. (1976): The time of Day Measured through Shadow-Lengths in Surya Prajñapti. The Mathematics Education, Vol. 10, No. 4. pp. 83-89. 23. Lishk, S. S. and Sharma, S. D. (1977): Seasons determination through the Science of Sciatherics in Jaina School of Astronomy, IJHS, Vol. 12 No. 1 pp. 33-43. 24. Sharma, S. D. and Lishk, S. S. (1978): Length of Day in Jaina Astronomy, Centaurus, Vol. No. pp. (Denmark). Iaina Astro - 444 - Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. Lishk, S. S. and Sharma, S. D. : Notion of Declination implied in the Concept of Mandala (Diurnal Circle) in Jaina School of Astronomy. To appear in Ganita (Journal of the Bhārata Ganita Parisad). 26. Lishk, S. S. and Sharma, S. D. : Kinematics of Venus in Jaina Astronomy, To appear in Ganita. 27. Lishk, S. S. and Sharma, S. D.: Similarities between Jaina Astronomy and Vedānga Jyotişa. To appear in Prachya Pratibha. (Journal of Centre of Advanced Studies in Indology and Museology, Bhopal). 28. See reference No. 24. 29. Lishk, S.S. and Sharma, S.D.1976): Cycles of Eclipses in Jaina Astronomy. 30. Lishk, S. S. and Sharma, S. D. (1976): Lunar Occultation in Jaina Astro nomy. Tulsi Pragya, Vol. 1, No. 3, pp. 64-69. 31. See reference No. 20. 32. See reference No. 15 (especially Chapter V-Jaina Calendar). 33. See Visnu Purana 3.3.7-8. Hindi translation by Gupta, Muni Lal (Samvat 2026 Bikram), p. 514. Gita Press. Gorakhpur. 34. See Jyotisa Karandaka (1928): Sanskrit commentary by Malyagiri, Jaina Bandhu Yantralaya, Pipli Bazaar, Indore. 35. See reference No. 27. 36. Lishk, S. S. and Sharma, S. D. (1978): Role of Pre-Aryabhatiyan Jaina School of Astronomy in the Development of Siddhāntic Astronomy. IJHS Vol. 12 No.2 pp. 106-113. लेखसार जैन गणित ज्यौतिष का अध्ययन वेदांगोत्तर पूर्व-सिद्धांती भारतीय गणित ज्योतिष सज्जन सिंह लिश्क और एस. डी. शर्मा भौतिकी विभाग, पंजाबी विश्ववि०, पटियाला वेदांग ज्योतिष का समय1300 वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है जबकि सिद्धान्त ज्योतिष का अभ्युदय काल 300-400 ईस्वी माना जाता है। इस बीच के लगभग 150 वर्ष का समय भारत का अन्धकार युग माना जाता है। इस समय के बीच विकसित ज्यौतिष का अध्ययन नगण्य ही हुआ है। सूर्यप्रज्ञप्ति, जंवदीप प्रज्ञप्ति के समान जैन ग्रन्थों से इस युग के गणित ज्योतिष पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इन लेखकों ने सर्वप्रथम इस क्षेत्र में कार्य किया है और उससे निष्पन्न तथ्यों से भारतीय ज्योतिष की प्रतिष्ठा में श्रीबृद्धि की है। प्रस्तुत निबंध में उपरोक्त ग्रन्थों में वर्णित समय और लंबाई के यूनिटों, विश्व-रचना के सिद्धान्तों, छाया के आधार पर समय और दिन या ऋतुओं के मापनों, ग्रहों की गतियों, पंञ्चांगों, सूर्य और चन्द्रग्रहण के विवरणों तथा आकाशीय पिंडों के परिमाणात्मक निरीक्षणों का संक्षेपण किया गया है। कुछ प्रकरणों में वर्तमान मान्यताओं से विसंगतियां भी प्रदर्शित की गई है। यह भी बताया गया है कि उस समय जल-घड़ी (ज्यौतिष्करण्डक) का उपयोग विभिन्न प्रकार के मापनों में किया जाता था। इन अध्ययनों से यह प्रकट होता है कि जो विद्वान् भारतीय ज्योतिष को वाह्यस्रोती मानते हैं, उनके कथन पर पुनर्विचार व परीक्षण की आवश्यकता है। -445 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A CRITICISM UPON MODERN VIEWS OF OUR EARTH Gyan Chand Jain, Delhi Introduction We have a number of religious concepts upon our earth. They do differ upon qualities of soul and in other alike matters. But so far as the shape of our earth is concerned, not only Jainism but all religions of the world say in one voice that the earth is FLAT, MOTIONLESS, SUFFICIENTLY THICK and WIDELY SPREAD IN ALL FOUR DIRECTIONS. When a Polish astronomer named Copernicus claimed the earth as spherical and moving and the Sun as hanging still, he was called a fool by the then Christian Priests. Later on Galileo, an Italian physicist, was convicted by the Christian authorities for the same offense. Still there is a society named FLAT EARTH SOCIETY in London which warns the people against modern teachings about the earth. We all know that modern scientists have put a number of proofs in support of spherical shape of our earth. But on making a deep study of the Gravitational Field of our earth, I found that the properties of this field are quite different from those of a spherical body. In other words, I do not find the gravitational field of our earth with those properties which the scientists hold to possess. I put my findings before so many modern people and institutions, but there is no satisfactory solution of the problems raised therein. In this short essay. I am going to mention in what ways the gravitational field of our earth differs with that of a spherical body. Learned readers are requested for a careful study. Absence of Centre of our Earth Modern science teaches us that there is a centre of our spherical earth. This centre is inside the earth nearly 6400 k.m. away from the outer surface. The spherical earth pulls on all outer things towards the said centre. By the teachings of the modern science, it can easily be understood that the gravitational forces of our earth are unparallel to each other in its eyes. In other words, it says that a body moves towards a point when it is allowed to fall freely under the action of earth's gravity by moving along converging lines of gravitational forces. This teaching is illustrated by the diagrams. It is not difficult to verify whether or not the falling bodies might fall towards a point. On examining the diagrams carefully, we can easily determine that all falling bodies should contract in their sizes if they move towards a point. -446 - Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The size of body should be reduced to half if it is allowed to fall from a height of 6400 km. and it should be converted into a point if unfortunately it reaches the earth's centre. But in practice we do not find any of the falling body to reduce in its size due to gravitational attraction. On the other hand, we find that all falling bodies maintain their original sizes no matter they are allowed to fall on the earth's surface or even inside the earth. Practical experience of falling bodies leads us to the conclusion that there is no such centre of our earth towards which all falling bodies might be moving. Since all falling bodies are found to maintain their original sizes, there seems no reason to believe that gravitational forces of our earth meet in a point and hence are converging. On the other hand, there are reasons to believe that the gravitational forces of our earth are perfectly parallel to each other not only outside the earth but also inside it. A system of perfectly parallel gravitational forces can be had only by a FLAT earth and not by a spherical one. This is the justification for holding our earth FLAT. In initial days of my studies, I was very much keen to learn how the modern science has explained the motion of falling bodies along converging lines of gravitational forces. For this, I consulted a number of books on Mechanics. I found that it can not do so. It also requires parallelism in gravitational forces for doing so. But its concept of parallelism is very interesting. It says that the gravitational forces of the spherical earth meet in a point at a large distance of 6400 k.m. and so there is no harm if such forces are taken as parallel to each other for all falling bodies. In my opinion, this sort of man-made parallelism is of no use in practice, If our earth is really a spherical body and its gravitational forces meet in a point, modern science should attempt to explain that falling bodies can possibly maintain their sizes even on moving along converging lines of gravitational forces. Motion of falling bodies is called TRANSLATIONAL MOTION in modern science. In translational motion all of the parts of a moving body move along perfectly parallel lines and with one speed. If this body is forced to move along coverging lines, it would either contract in its size or it would not move at all if it is rigid. Since all falling bodies are mostly rigid, there is no possibility of their motion under the action of gravity if the forces of gravity are converging. Nonrigid or compressible bodies might do so. This being a truth, the gravitational fields of all spherical bodies--no matter it is spherical earth or spherical moon--are unsuitable for motion of the falling bodies. The defect of unparallelism in their gravitational forces can not be removed by holding their gravitational forces as parallel to each other. So many people are heard to say that Apollo Flights have proved our earth a spherical body without any doubt. But this idea is quite misleading. The place where the Apollo crafts landed had perfectly parallel lines of gravitational forces; otherwise they could not land. This being the case, that place was certainly a part of FLAT EARTH and not the spherical moon. The Apollo Flights in this way - 447 - Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ provide us proof of this concept that our earth is not only FLAT but also widely spread. Other most convincing proof in this regard is being put in the next section. Presence of Gravitational Forces in all Slanting Directions at our Earth The bodies donot only fall vertically downward under the action of gravity but also roll down and slide down the inclined surfaces. For example, a vehicle roll down an inclined road by itself. At our earth, the bodies are seen to slide down and roll down no matter the inclination is small or large. It proves that our earth exerts its gravitational forces in all possible slanting directions. Whereas the modern earth is quite helpless in doing so. The contention can be illustrated by the diagram. The diagram shows the modern earth and the Mount Everest which is nearly 8 km. high from the sea level. There is an inclined smooth surface with 20 inclination on the mount. A toy-car is allowed to roll down the inclined surface under the action of gravity. It can be seen that the gravitational forces which pull the toycar down the inclined surface donot enter the modern earth but run above and above its curvature. In such a case the required forces of gravity cannot be exerted by the modern earth. It is one example of absence of gravitational forces in slanting direction at the modern earth. Numerous cases of this kind can be put in this regard Now just imagine that our earth is not only FLAT but also widely spread up in all four directions. In this case the gravitational forces can enter the earth from all slanting directions and from all heights. This is the justification for holding our earth both FLAT and WIDELY SPREAD UP IN ALL FOUR DIRECTIONS. The learned readers are requested to consider the contention most carefully. I will be glad if some of them make me understand that in such and such manner the modern earth can possibly exert the gravitational forces required in my example, Failure of Modern Science in Case of Moon. Copernicus first thought that the earth is spherical and the moon revolves around it. Later on, Newton discovered a law named Newton's law of universal gravitation. He proved the idea of Copernicus about the moon by his law of gravitation. Two centuries later, Einstein came into picture. He criticised Newton's law of gravitation in several fields but he found nothing wrong in case of moon. Not only Einstein but Fred Hoyle also took it granted that the Newton's law well makes the moon a satellite of the spherical earth. This credit goes to the author of this essay that he worked out complicated mathematics in this regard and proved that the said law totally fails in making the moon a satellite of the earth. I donot wish to annoy the readers by putting the mathematics which I worked out. The result in simple words is that the Newton's law of universal - 448 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gravitation itself says that the sun pulls on the moon more than two times strongly than the spherical earth does. When it is so, the moon is required to revolve around the sun as an independent planet; the weaker gravitational field of the spherical earth can not keep it revolving around it (the spherical earth). All manuscripts of Newton are under custody of Royal Greenwich Observatory, U. K., and it deals with the queries in this regard. Previously I wrote to it my above stated result and asked how Newton's law of gravitation succeeds in making the moon revolving around the splierical earth. My queries were dealt with and no objection was raised upon this result of mine that the law predicts more than two times stronger pull of the sun on the moon as compared to the pull of the earth. Other part of the query was answered with the remarks that I consider the earth and the moon two seperate bodies whereas I should consider the two as one and then there would be no problem at all. It was a matter of great satisfaction for me to know that the result drawn by me was correct and accepted by the Royal Observatory. Other remarks are obviously quite vague. When the moon and the earth are not joined by any rod, how can I hold them as one single body. The two bodies are quite seperate and there is a considerable distance between the two. In such a case, the moon would be dominated by the sun and not by the earth. The learned readers can well see that modern science has no proof to this effect that the moon is a satellite of the earth and that it revolves around the earth. This being the case; there seems no justification behind this idea that Apollo Flights have proved sphericity of our earth and that these flights were directed to moon. Absence of Capillarity on the Modern Earth, Capillarity is the natural phenomenon due to which lighter liquids rise up the surface in narrow tubes and heavier ones fall down. The plants get water from the earth through their fine roots due to capillarity. When water rises up in a narrow tube, its surface in the tube becomes concave. Water and other liquids which rise up in narrow tubes wet the surface of the vessel in which they are kept, whereas mercury and other heavier liquids donot wet the surface of the containers. A careful study of capillarity makes us known to the fact that the capillary action is possible when the surface of water etc. is quite flat by nature. If the said surface is convex as of mercury, there can be no capillary action in water and in other lighter liquids, nor these liquids could wet the surface of the containers. In modern views, the shape of our earth is spherical and so the surface of water and of other liquids- no matter these are in big oceans or in small vessels become convex by nature. In such a case neither water etc. can wet the surface of the container nor they can rise up their level in the outer vessel in narrow tubes. In other words, we could not find any capillary action on our earth if our earth would have been spherical. Presence of capillary action on our earth and presence of plants on our 57 -449 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ earth due to capillarity prove our earth quite FLAT and not spherical or of any other shape. Conclusions. It is correct that modern science has put some proofs before us in support of sphericity of our earth. But these proofs are mostly based upon photographs and observations by sight. Proofs based upon experimental facts have not been given so far. Its proofs are not dependable and reliable due to 'optical illusions'. The proofs which I have given in support of flatness of our earth are all based upon experimental facts and are matters of our daily experience. There is no chance of any optical illusion in my proofs. लेखसार पृथ्वी विषयक आधुनिक मान्यताओं की समीक्षा ज्ञानचंद जैन, दिल्ली हमारे धर्मशास्त्रों में पृथ्वी को चौरस (चपटी), स्थिर, पृथुल तथा चारों दिशाओं में फैला हुआ बताया गया है। इस मान्यता के विपर्याय में जब कापरनीकस ने यह कहा कि पृथ्वी गोलाकार है और स्थिर सूर्य के चारों ओर घूम रही है, तो लोगों ने उसे मूर्ख माना। शताब्दियों बाद उसके अनुयायी गेलीलियो को फांसी दे दी गई। लेकिन यह मान्यता बलवती ही होती गई । इसके बावजूद भी लन्दन में अभी भी 'फ्लैट अर्थ सोसायटी' काम करती है। मैंने पथ्वी की आकृति विषयक वैज्ञानिक अध्ययन किया है और मुझे प्रतीत होता है कि इसका गुरुत्वीय क्षेत्र इसके गोलाकार को प्रमाणित नहीं करता। उदाहरणार्थ, वैज्ञानिक गोलाकार पृथ्वी का एक केन्द्र मानते हैं जो भूतल से 6400 किमी० गर्भ में है। सभी वस्तुयें उस केन्द्र की ओर आकृष्ट होती हैं। वस्तुओं के ऊँचाई से अधःपतन पर उनके आकार में परिवर्तन होना चाहिये, पर यह प्रयोग पुष्ट नहीं होता। इसलिए पृथ्वी के केन्द्र की बात भी नहीं जंचती। इसके विपरीत यह मानना अधिक न्यायसंगत लगता है कि पृथ्वी के गुरुत्वीय आकर्षण बल एक-दूसरे के समान्तर होते हैं तथा भूतल और भूगर्भ दोनों जगह कार्यकारी होते हैं । यह स्थिति पृथ्वी को चपटी मानने पर ही उत्पन्न हो सकती है । अपोलो की उढ़ानों ने भी यही तथ्य सिद्ध किया प्रतीत होता है। हमारी पृथ्वी सभी दिशाओं में और अवनमनों में गुरुत्वीय बलों को आपतित करती है । इसीलिये अवनमनों में भी पिंड गतिशील होते हैं । गोलाकार पृथ्वी की मान्यता में यह संभव नहीं दिखता। न्यूटन और आइन्स्टीन चंद्रमा को पृथ्वी का उपग्रह मानते रहे। लेकिन मैंने अपने जटिल परिकलनों से इस मान्यता को खंडित किया है। इस तथ्य को मैंने रोयल ग्रीनविच वेधशाला को लिखा, जिसे इन्होंने स्वीकार किया है लेकिन उन्होंने अपनी मान्यता में परिवर्तन नहीं किया है। केशिका-प्रभाव के अध्ययन से पता चलता है कि यह प्रभाव तलों के चपटे होने पर ही होता है, गोलाकार होने के कारण नहीं । यदि पृथ्वी गोल मानी जायगी तो उसमें केशिका प्रभाव नहीं होगा। इस प्रकार वैज्ञानिक पृथ्वी के गोलाकार होने के लिये जो प्रमाण देते हैं, वे प्रायोगिक तथ्यों पर आधारित नहीं है, वे केवल प्रकाशीय विभ्रम हैं। -450 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मकी कुछ भूगोल-खगोली मान्यताएँ और विज्ञान स्वामी सत्यभक्त. सत्याश्रम, वर्धा, महाराष्ट्र जबसे मनुष्यके पैर चन्द्रमा पर पड़े है, तबसे सभीके मन मानवकी इस विजयसे उल्लसित हैं। अब मनष्य कई बार चन्द्रमा पर हो आया है और उसके सम्बन्धमें पर्याप्त जानकारी प्राप्त हुई है। जहाँ सामान्य मानव समाजके लिये यह जानकारी उसकी प्रगतिका प्रतीक प्रतीत होती है, वहीं भारतीय धर्म जगतमें इन तथ्योंसे कुछ परेशानी हुई है। इसका कारण यह है कि चन्द्रमाके वैज्ञानिक विवरण धार्मिक ग्रन्थोंमें दिये गये विवरणसे मेल नहीं खाते । इन वैज्ञानिक उपलब्धियोंके उत्तरमें जैन समाज विशेष प्रयत्न कर रहा है। वह त्रिलोक शोध संस्थान और भू-भ्रमण संस्थानके माध्यमसे जंबूद्वीपका नक्शा बना रहा है और पर्याप्त प्रचार साहित्य प्रकाशित कर रहा है। इस साहित्यमें शास्त्रीय मन्तव्योंका विविध तर्कों और प्रमाणोंसे पोषण किया जा रहा है।। अपने इस लेख में मैं कुछ ऐसी जैन मान्यताओंके विषयमें बताना चाहता हूँ जिन पर विद्वानोंको विचार कर नई पीढ़ीकी आस्थाको वलवती बनानेका प्रयत्न करना चाहिये। मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि विश्व कल्याण के लिये जैनधर्मने तत्कालीन युगकी परिस्थितिके अनुरूप समस्याओंको सुलझानेमें अपनी विशेष योग्यताका परिचय दिया है। उसने अपने समयमें विश्वकी व्याख्या करने में पर्याप्त वैज्ञानिक दृष्टिकोणका उपयोग किया है। फिर भी, आजके यन्त्र एवं प्रयोग प्रधान वैज्ञानिक यगमें तत्कालीन कुछ मान्यताएँ विसंगत सिद्ध हो जावें, तो इसे आश्चर्य नहीं मानना चाहिये । धार्मिक व्यक्तियोंका मुख्य लक्ष्य आचारशास्त्र और नैतिक मूल्योंका प्रतिपादन रहा है। धर्म गुरुओंने नये तीर्थ या धर्मका निर्माण किया है, नये विज्ञान, भूगोल, खगोल या इतिहास शास्त्रका नहीं। इनके विषयमें की गई चर्चाएँ धर्म प्रभावना मात्रकी दृष्टिसे गौणरूपमें ही मानी जानी चाहिये। फिर भी, जैनोंकी अनेक मान्यतायें उनके सूक्ष्म निरीक्षण सामर्थ्य एवं वैज्ञानिक चिन्तनकी प्रतीक है। ग्रहोंकी गति प्रकाशके संचरणके लिये माध्यमकी आवश्यकता होती है। वैज्ञानिकोंने किसी समय ईश्वरके रूपमें इस माध्यमकी कल्पना की थी। जैनोंने दो हजार वर्ष पूर्व ही यह चिन्तन किया था और धर्मद्रव्यकी कल्पना की गई। इसी प्रकार स्थिति माध्यमके रूपमें अधर्मद्रव्यकी कल्पना हुई। इन दो द्रव्योंकी मान्यताओंसे पता चलता है कि जैनोंको यह ज्ञान था कि चलता हुआ पदार्थ तब तक नहीं रुक सकता जब तक उसे कोई सहायक न मिले । न्यूटनका जड़त्व सिद्धान्त भी यही मानता है । इसी कारण पृथ्वी आदि विभिन्न ग्रह अनादि कालसे ही अविरत गति कर रहे हैं। संभवतः यह गति तब तक चलती रहेगी जब तक कोई ग्रह उससे टकरा न जाय । जड़त्व सिद्धान्तके अनुसार ग्रहोंकी यह गति प्राकृतिक ही होनी चाहिये । लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि जड़त्व सिद्धान्तका मौलिक तथ्य जाननेके बाद भी ग्रहोंकी अविरत गतिके लिये -४५१ - Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनोंने उसका उपयोग नहीं किया, इसके विपरीत उन्होंने राजवार्तिक तथा त्रिलोकसारके अनुसार यह माना कि चन्द्र, सूर्य आदिके बिम्बोंको चलने के लिये सोलह हजार देवता अपनी ऋद्धिके अनुसार सिंहगज, वृषभ आदिके रूपमें निरन्तर लगे रहते हैं। छोटे ग्रहोंके बिम्बोंके वाहक देवताओंकी संख्या क्रमशः कम होता है। सूर्योदय और सूर्यास्त जैन शास्त्रोंके अनुसार सूर्य तपाये सोनेके समान चमकीला, लोहिताक्ष मणिमय, ४८.६१ योजन लम्बा-चौड़ा (व्यास), २४.११ योजन ऊँचा, तिगुनेसे अधिक परिधि, १६००० देवताओंसे वाहित बीचमें कटे हुये आधे गोलेके समान है । यह सूर्य जम्बू द्वीपके किनारे-किनारे प्रदक्षिणा करता है । जब सूर्य निषध पर्वतके किनारे पर आता है, तब लोगोंको सूर्योदय मालूम होता है । जब यह सूर्य निषध पर्वतके पश्चिम किनारे पर पहुँचता है, तब उसका अस्त होता है। अब यदि कोई मनुष्य उदय होते समय सूर्यकी ओर मुख करके खड़ा हो जाय, तो वह देखेगा कि सूर्यका अस्त पीठको तरफ नहीं हुआ है किन्तु बाएँ हाथकी तरफ हुआ है। पीठकी तरफ तो लवण समुद्र रहेगा, उस ओर सूर्य नहीं जाता। इस ओर कोई पर्वत न होनेसे सूर्यको कोई ओट न मिलेगी, इसलिये सूर्य अस्त न होगा। यदि निषधकी पूर्वी नोंककी ओर कोई मुख करके खड़ा हो जाय, तो निषध पर्वतकी पश्चिमी नोंक उस आदमीके उत्तरमें पड़ेगी। इसका यह अर्थ है हमारी दृष्टिमें सूर्य पूर्वमें उगता है और उत्तर में डूबता है। यह मत कितना अनुभव विरुद्ध है, इसे सभी जान सकते हैं। यही नहीं शास्त्रोंमें यह बताया गया है ज्योतिबिम्बोंके अर्धगोलकका गोल हिस्सा नीचे रहता है और चौरस विस्तृत भाग ऊपरकी ओर रहता है। चूंकि हम उनका गोल हिस्सा ही देख पाते हैं, इसलिये वे हमें गोलाकार दिखते हैं। सूर्य विश्वकी यह आकृति उदय-अस्तके समय दिखनेवाली आकृतिसे मेल नहीं खाती। क्योंकि यदि आधी कटी हई गेंद हमारे सिरपर हो, तब तो वह पूरी गोल दिखाई देगी। किन्तु वह यदि सिर पर न हो, बहत दूरपर कूछ तिरछी हो, तो वह पूरी गोल दिखाई न देगी, किन्तु वह अष्टमीके चन्द्रके समान आधी कटी हई दिखाई देगी। परन्तु सूर्य तो उदय, अस्त और मध्याह्न के समय पूरा गोल दिखाई देता है और चन्द्रमा भी पूर्णिमाकी रातमें उदय, अस्त और मध्यरात्रि पूरा गोल दिखाई देता है। इस तरह तीनों समयोंमें आधी कटी हई गेंदके समान किसी चीजकी एक-सी आकृरि नहीं दिख सकती। जैनोंकी आधी कटी गेंदकी आकृतिकी कल्पनाका आधार यह था कि आधे कटे सपाट मैदानपर नगर और जिन मन्दिर प्रदर्शित किये जा सकें । पर यह आकृति सदैव गोल दिखती है, यह कल्पना कुछ विसंगत प्रतीत होती है। सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण जैनशास्त्रोंके अनुसार सूर्यग्रहण इसलिये पड़ता है कि उसके नीचे केतुका विमान है। इसी प्रकार चन्द्रग्रहण भी इसीलिये होता है कि उसके नीचे राहुका विमान है। चन्द्रमाकी कलाओंके घटने-बढ़नेका कारण भी उसके नीचे स्थित राहुका विमान ही है । राहु और केतु के विमानोंका विस्तार कुछ कम एक योजन है, जो सूर्य और चन्द्रके विमानोंसे कुछ बड़े हैं। ये छह महीने में सूर्य और चन्द्रके विमानोंको ढंकते हैं। इस मान्यतामें भी निम्न विसंगतियाँ प्रतीत होती हैं : -४५२ - Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) जैनशास्त्रोंके अनुसार अष्टमीका आधा चन्द्र कभी दिखाई नहीं दे सकता । एक गोल चीजको किसी दूसरी गोल चीजको ढँककर देखो, वह अष्टमीके चन्द्रकी तरह आधी कटी कभी न दिखाई देगी । दो गोल सिक्के हाथमें लो और एकसे दूसरा ढँको । ऐसा कभी नहीं हो सकता कि ढँका हुआ सिक्का आधा कटा हुआ-सा दिखाई देने लगे । वह द्वितीया तृतीयाकी तरह अवनतोदर टेढ़ी कलाएँ ही दिखायगा । अष्टमीके बाद चतुर्दशी तक चन्द्र माकी जैसी शक्ल दिखाई देती है, वैसी शकल राहु विमान द्वारा ढँकने पर कभी दिखाई नहीं दे सकती। ऊपरोक्त प्रयोगसे यह असंगति भली-भाँति ध्यानमें आ जाती है । (२) राहु और केतुके विमान चन्द्र और सूर्यके नीचेकी कक्षा में भ्रमण करते हैं । सदा नीचे नहीं रहते । केतुका विमान तो वर्ष में दो बार अमावस्या के दिन सूर्यके विमानके नीचे आता है । इसी प्रकार राहुका विमान भी तिथिके अनुसार नीचे आता है और कुछ आगे-पीछे होता रहता है और ग्रहणकी पूर्णिमाको सदा या नियम भंगका फिर चन्द्रमाके नीचे आ जाता है। यह स्मरणीय है कि विमान देवता चलाते हैं । क्या ये देवता पंचांगके अनुसार धीमी या तेज गतिसे दौड़ लगाते हैं ? क्या ये देवता इस प्रकार हिसाब लगाते रहते हैं और विमानोंको तिथिके अनुसार मन्द-तीव्र गति से दौड़ाते रहते हैं ? वे ऐसा क्यों करते हैं ? एक-सी गति रखकर निश्चिन्तता से अपना कर्तव्य क्यों नहीं करते ? वे यदि सदा बचकर रहें, तो सदा पूर्णिमा हो और ग्रहण कभी न हो । क्या ही अच्छा रहे यदि देवता मानव जातिपर इतनी कृपा कर सकें जिससे वे स्वयं भी निश्चिन्त रह सकें और मानव समाजको भी तिथियों आदिके चक्करसे मुक्ति दिला सकें । (३) जब आकाश स्वच्छ होता है, तब शुक्ल पक्षकी तृतीया के दिन चन्द्रमाकी मुख्यतः तीन कलाएँ दिखायी देती हैं पर बाकी चन्द्रमा भी धुंधला-धुंधला दिखता है । जब राहुका विमान बीचमें आ गया है, तब पूरा चन्द्रमा धुंधला-धुंधला भी क्यों दिखता है ? आकाश में विमानोंको स्थिति शास्त्रोंके अनुसार, सूर्य, चन्द्र आदि विमान भारी होते हैं । इसलिये वे अपने आप आकाशमें नहीं रह सकते | उन्हें सम्हालनेके लिए देवताओंकी आवश्यकता होती है । परन्तु ये देवता किस प्रकार आकाश में रहते हैं ? क्या ये देवता हाइड्रोजनसे भरे हुए गुब्बारोंके समान होते हैं जो हवासे हल्के होने के कारण हवामें बने रहते हैं, उनका वैक्रियक शरीर ऐसा कैसे हो जाता है कि वे नाना आकार धारण कर ठोस विमानोंको रोक सकें ? यदि विमान रोकनेके लिए वे अपने शरीरको ठोस बना लेते हैं, तो यह शरीर आसमान में कैसे बना रहता है ? साथ ही, एक अन्य तथ्य और भी ऊपर जानेपर वायु विरल होती जाती है । पड़ता है । ऐसी स्थितिमें हजारों योजन ऊपर कार्य करनेवाले ये बिना ऑक्सीजनके ही जीवित रहते हैं ? यह देखा गया है कि बिना ऑक्सीजनके जीवित नहीं रह सकता । ध्यानमें आता है । वर्तमानमें हम यह जानते हैं कि आसमान में इसलिये ऊँचाईमें जानेपर मनुष्यको ऑक्सीजन साथमें ले जाना देवता जीवित कैसे रहते होंगे ? क्या ये सामान्य मनुष्य ५-६ मीलकी ऊँचाई पर इस स्थितिमें सूर्य, चन्द्र आदि विमानोंकी विभिन्न ऊँचाइयों पर स्थित तथा उनके वाहक देवताओं के वर्णनकी व्याख्याके लिए पुनर्विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है । सूर्य-चन्द्रकी ऊँचाई शास्त्रोंके अनुसार विभिन्न ज्योतिर्गण आकाशमें भूतलसे ७९० से ९०० योजनकी ऊँचाई पर स्थित - ४५३ - Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। यदि एक योजन ४००० मीलका माना जाता है, तो चन्द्र, सूर्य आदि प्रमुख ग्रहोंका विवरण सारणी १ के अनुसार प्राप्त होता है। इसी सारणीमें आधुनिक मान्यताओंका भी विवरण दिया गया है। इससे दोनों मान्यताओंकी विसंगति स्पष्ट है । बीसवीं सदीका मस्तिष्क इस विसंगतिकी व्याख्या भी चाहता है । सर्य-चन्द्रकी गति ___शास्त्रों के अनुसार जम्बूद्वीपकी परिधि लगभग ३१६२२८ योजन है । इसे सामान्य भागमें व्यक्त करनेपर यह १२६४९१२००० मील होती है । यदि सूर्यचन्द्र इसे ४८ घंटे में पूरा करते हैं, तो इनकी गति २,६३,५१,९१६ मीलघंटा प्राप्त होती है, को १-२५ x १०६ मीटर प्रति सेकेण्डके लगभग बैठती है। इतनी तीब्र गतिसे गतिशील बिम्बोंके ऊपर बने हुए भवनों और जिन मन्दिरों की स्थितिकी कल्पना ही की जा सकती है जब हमें वह ज्ञात होता है कि कुछ सौ मीलकी रफ्तारका तूफान ही भूतल पर प्रचण्ड विनाशलीला उत्पन्न करता है। आज कल उपग्रह विद्याका पर्याप्त विकास हो गया है। इसे ३५००० कि०मी० की रफ्तारसे छोड़नेपर ही यह पृथ्वीके क्षेत्रसे बाहर जा सकता है। परन्तु इस रफ्तारसे चलते समय परिवेशी वायुके सम्पर्कके कारण यह पर्याप्त उत्तप्त हो जाता है। यदि इनके निर्माणमें ऊष्मारोधी तथा अगल्य पदार्थोंका उपयोग न किया जाय, तो ये जलकर राख हो जावें । चन्द्र भी यदि इसी प्रकार वायुमण्डलमें इस गतिसे भ्रमण करे, तो उसकी भी यही स्थिति सम्भावित है। मझे लगता है कि इन मान्यताओंका आधार सम्भवतः ऊपरी क्षेत्रोंमें वायुकी उपस्थिति सम्बन्धी जानकारीको अपूर्णता ही रही होगी। फिर भी, इन बिम्बोंकी गतिकी कल्पना स्वयंमें एक उत्कृष्ट चिन्तनके तथ्यको प्रकट करती है। उष्णता और आतप जैनाचार्योंने उष्णता तथा आतपका विवेचन अलग-अलग किया है। उन्होंने अग्निमें उष्णता मानी है और सूर्यमें आतप माना है। उष्ण वह है जो स्वयं गरम हो और आतप वह है जो दूसरोंको गर्म करे। यह भेद सम्भवतः आचार्योंके प्रकृति निरीक्षणका परिणाम है। उष्ण पदार्थका यह नियम है कि उससे जितनी दूर होते जाते हैं, उष्णताकी प्रतीति कम होती जाती है पर सूर्यकी स्थिति इससे बिलकुल भिन्न प्रतीत होती है। सामान्यतः पहाड़ोंपर उष्णता कम प्रतीत होती है जो भूतलकी अपेक्षा सूर्यसे कुछ समीपतर है जव कि भूतलपर वह अधिक होती है । फलतः यह माना गया कि आतप वह है जो स्वयं तो उष्ण न हो पर दूसरोंकी उष्णता दे । सूर्य स्वयं उष्ण नहीं है, इसलिये उसके समीपकी ओर जानेपर गरमी क्यों बढेगी? यही कारण है कि अनेक जैन कथाओंमें मनुष्य सूर्य के पाससे गुजरकर ऊपर चला जाता है, पर उसका कुछ नहीं होता। इस प्रकरणमें भी तथ्योंके निरीक्षणकी कल्पनात्मक व्याख्या की गई है । वस्तुतः आधुनिक मान्यताके अनुसार सूर्य एक उष्ण पिण्ड है । उसकी उष्णता भूतलपर आकर संचित होती है, वायुमण्डलमें नहीं । अतः ऊपरी वायुमण्डलकी उष्णता भूतलकी तुलनामें कम होती जाती है। जैनोंके भूगोल सम्बन्धी कुछ अन्य तथ्य जैनाचार्यो में प्राकृतिक घटनाओंके निरीक्षणका तीक्ष्ण सामर्थ्य था। उन्होंने अनेकों प्राकृतिक घटनाओंका सूक्ष्म निरीक्षण किया और उनकी व्याख्याके प्रयत्न किये। पर प्रयोग कलाके अभावमें ये व्याख्यायें पौराणिक आख्यानोंके समकक्ष ही प्रतीत होती हैं। मैं नीचे कुछ ऐसी ही घटनाओंकी भी चर्चा कर रहा हूँ। -४५४ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अ) समुद्रके बीचमें उठा हुआ पानी ___ जैन आचार्योंने समुद्रोंका अच्छा निरीक्षण किया। उन्होंने देखा कि एक किनारेसे देखनेपर समुद्रका पानी कुछ ऊँचा होता है और बादमें ढलता-सा लगता है। यह पृथ्वीकी गोलाईका चिह्न है। इस ऊँचे भागको शास्त्रोंमें यह कहकर सिद्ध किया है कि समुद्र का पानी बीच में अनाजकी ढेरीकी तरह १६००० योजन ऊँचा है। इस ऊँचाईको २४००० वेलंधर नागदेवता स्थिर रखे रहते हैं। समुद्र में तूफान आनेका निरीक्षण भी आचार्योने किया और उसका कारण यह बताया कि समुद्र के नीचे कुछ पाताल हैं जिनके नीचे वायु कुमार जातिके देव और देवांगनायें खेलकूद करते हैं। इनकी क्रीड़ाके कारण ही समुद्रके बीचमें तूफान आता है और पानी ऊँचा-नीचा होता है। इस वर्णनमें एक महत्त्वपूर्ण तथ्यकी ओर और संकेत किया गया है। यह बताया गया है कि केवल लवण समुद्र में ही यह ऊँचाई दिखती है, उत्तरवर्ती समुद्रोंमें जल समतल ही रहता है। इन तथ्योंकी वर्तमान व्याख्या पथ्वीकी गोलाई और चन्द्रकी आकर्षण शक्तिके आधारपर की जाती है। (ब) शास्त्रोंके अनुसार भरतक्षेत्रके मध्यमें पूर्व पश्चिममें फैला हुआ विजया पर्वत है जो २५ योजन ऊँचा या वर्तमान एक लाख मील ऊँचा माना जाता है। इस विजयापर दस योजन ऊँचाईपर मनुष्य और विद्याधर रहते हैं । वे वहाँ कृषि आदि षट् कर्म करते हैं। वर्तमानमें तो केवल ५-५० मील ऊँचा हिमालयकी उच्चतम पर्वत है, उससे ऊँचे पर्वतों और उनपर रहनेवाले विद्याधरोंकी कल्पना पौराणिक ही माननी चाहिये। यह भी बताया गया है कि इसी विजयार्धकी गुफाओंसे समुद्रकी ओर जानेवाली गंगा, सिन्धु नदियाँ निकलती हैं । भाग्यसे, ये नदियाँ तो आज भी हैं पर विजयार्ध अदृश्य हैं । इसीके शिखरपर स्थित सिद्धायतन कूटपर २ मील ऊँचा, २ मील लम्बा और एक मील चौड़ा जिन मन्दिर बना हुआ बताया गया है। वर्तमान जगतके न्यूयार्क स्थित सर्वोच्च भवनकी तुलनामें जिन मन्दिरका यह भवन काल्पनिक और पौराणिक ही माना जायगा। (स) जैन भगोलके आधारपर छह माहके दिन और रात वाले क्षेत्रों, उल्काओं, पुच्छलतारों तथा ज्वालामुखीके विस्फोटोंकी उपपत्ति भी संगत नहीं हो पाती । इसी प्रकार अन्य अनेक विवरणोंका भी उल्लेख किया जा सकता है । उपसंहार उपरोक्त विवरणमें मैंने कुछ भूगोल तथा ज्योतिर्लोकके प्रमुख ग्रहोंके सम्बन्धमें शास्त्र वर्णित मान्यतायें निरूपित की हैं और यह बताया है कि ये मान्यतायें आजके वैज्ञानिक निरीक्षणे एवं व्याख्याओंसे मेल नहीं खातीं। परीक्षा प्रधानी जैन विद्वानोंको इस ओर ध्यान देना चाहिये और शास्त्रोंकी प्रमाणिकताको बढ़ानेमें योगदान करना चाहिये। मेरे इस सुझावका आधार यह है कि जैनाचार्यो में प्रकृति निरीक्षणकी तीक्ष्ण शक्ति थी। वे विज्ञानके आदिम युगमें उसकी जैसी व्याख्या कर सके, उन्होंने की है। पर वही व्याख्या वर्तमान प्रयोग-सिद्ध और तर्क-संगत व्याख्याकी तुलनामें यथार्थ मानी जाती रहे, यह जैनाचार्योकी वैज्ञानिकताके प्रति अन्याय होगा। इन आचार्योंके निरीक्षणों और वर्णनोंका तत्कालीन युगमें मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता रहा है । इसलिये आज भी ये वर्णन धर्मशास्त्रके अंग बने हुये हैं । इन्हें वैज्ञानिक नहीं माना जाना चाहिये और इस आधारपर धर्म और विज्ञानको टकरानेको स्थितिमें न लाना चाहिये। अनेक विद्वान Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैज्ञानिक सिद्धान्तों या व्याख्याओंकी परिवर्तनशीलताके आधारपर उसे सत्य नहीं मानना चाहते, वे धर्मको शाश्वत मानकर उसे ही प्रशय देना चाहते हैं । इस विषयमें मैं केवल यही कहना चाहता हूँ (जैसा प्रारम्भमें ही कहा है) कि धर्मका उद्देश्य मानव जीवनमें सदाचार, सहयोग, शान्ति और सुव्यवस्था उत्पन्न करना है। विश्व रचना या भूगोल सम्बन्धी तथ्योंका क्षेत्र तो विज्ञानका ही है। दोनोंको सहयोगपूर्वक अपना कार्य करना चाहिये, टकराहटका कोई प्रश्न ही नहीं होना चाहिये। ऐसे ही प्रकरणोंमें अनेकान्त दृष्टिकी परख होती है। सारणी-१ : कुछ ग्रहोंके आगमिक और वैज्ञानिक विवरण (योजन -४००० मील) चन्द्र पृथ्वी आगमिक वैज्ञानिक पृथ्वीसे दूरी लाख मील व्यास, मील ९४८७५६० मोटाई, मील चन्द्र आगमिक वैज्ञानिक आगमिक वैज्ञानिक ३५-२० २-३१ ३२ ९३० ३६७२६, २१६० ३१४७३३ ८,६५००० १८३६४ - १५७३४० कुछ कम २५ २७२१ २८ ३६६ ।। ४-३९-४-४२,५ २५ अक्षणभ्रमण (घूर्णन) घंटे सूर्यकी परिक्रमाका समय, दिन २३-९ ३६५१ गति मील, मिनट ४-२२-४-३१ १२०.० किरणों की संख्या वाहक देवता परिवारके सदस्य १२००० १६००० १६००० तारा नक्षत्र २८ ग्रह परिवार ८८ ४ परदेवियाँ ४ परदेवियाँ १६००० देवियाँ १६००० देवियाँ - १०३८-४५ + १००० वर्ष १०३८-४५ + एक लाख वर्ष आयु Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड : Section 6 जैन विद्याओं में अनुसन्धान के वर्तमान क्षितिज Current Horigous of Research in Jainology cation International For Private & Personal use only www.jandbre Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personal use only www.janeibrary.org Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार-कृति जैन शोध : समस्या और समाधान अनभ्यासे विषं विद्या अर्थात् अभ्यासके अभाव में विद्या भी विष हो जाती है । शास्त्र - विद्याका वैज्ञानिक अध्ययन - अनुशीलन जब मौलिकताका उद्घाटन करता है वस्तुतः तभी वह अनुसन्धानकी वस्तु बन जाती है । अतीत कालीन शास्त्र-वाणीका अभिप्रायः विशेष व्याख्या - विधिकी अपेक्षा रखती है क्योंकि भाषाविज्ञानके स्वभावकी दृष्टिसे शब्दका अर्थ कालान्तरमें स्वचालित होता जाता है । डा० महेन्द्र सागर प्रचंडिया, एम० ए०, पी-एच० डी०, डी० लिट्० शास्त्र-परम्पराका प्राचीनतम रूप भारतीय शास्त्र - भांडारोंमें विद्यमान है इस दृष्टिसे जिनवाणीकी सम्पदा जैन भांडारोंमें सुरक्षित है । हस्तलिखित जैन शास्त्रोंकी भाषा तथा लिपि-विज्ञान एक विशेषविधिबोधकी अपेक्षा रखता है । इस दृष्टिसे प्राचीन हस्तलिखित साहित्यका पाठानुसंधान और अर्थ -अभिप्राय आधुनिक प्रचछित लिपिमें आबद्ध करना आवश्यक हो गया है। प्रसन्नताका प्रसंग है कि देश-देशान्तरके विविध विद्या - केन्द्रोंमें जैन साहित्य पर पी-एच० डी० तथा डी० लिट्० आदि उपाधियोंके लिए शोध-प्रबन्ध रचे जा रहे हैं । इस प्रकारके साहित्य समुद्योगसे कुछ लाभ तो हुआ है किन्तु अधिकांशतः असावधानी और अज्ञानतावश अनर्थ भी बन पड़े हैं । जहाँ तक मुझे ऐसे गवेषणात्मक अध्ययन-ग्रन्थोंको देखनेका सुयोग प्राप्त हुआ है उनके आधारपर यह सहज में कहा जा सकता है कि साहित्यिक शोध क्षेत्रमें अनेक अनूठे सत्य स्थिर हुए हैं। नए आयामोंकी भी स्थापना हुई हैं वहाँ अनेक अंशोंमें अर्थके अनर्थ भी हुए हैं। दरअसल जिनवाणीका अध्ययन एक विशेष पद्धतिकी अपेक्षा रखता है। जिनवाणी और जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत साहित्यमें व्यवहृत पारिभाषिक शब्दावलिका सम्यक् ज्ञान न होनेसे उसकी व्याख्या और विवेचनामें भयंकर भूलें और मिथ्या मान्यताएँ शब्दायित हुई हैं । उदाहरणके लिए समय और दर्शन इन दो शब्दोंको ही लिया जा सकता है। इन दोनों शब्दोंका लौकिक अर्थ कुछ और ही है जबकि जैन साहित्यमें इनके अर्थ क्रमशः आत्मा और दानके लिए प्रयुक्त हैं । इन विश्वविद्यालयों में नियुक्त अनेक ऐसे निर्देशक हैं जिन्हें जैन विद्या और शास्त्रोंका सम्यक् बोध नहीं है । मखौल यह है कि इन शोधार्थियों को उन्होंके निर्देशन में शोध-प्रबन्ध रचने होते हैं । ऐसे ग्रन्थोंके परीक्षकों की भी यही दशा - दुर्दशा है । येनकेन प्रकारेण अन्ततोगत्वा प्रबन्ध उत्तीर्ण तो कर ही दिए जाते हैं फलस्वरूप सत्यान्वेषणकी ऐतिहासिक परम्परामें इस प्रकारकी असावधानीके दुष्परिणाम भविष्य के गर्भ में अन्तर्भुक्त हो जाते हैं । यह वस्तुतः विचारणीय विडम्बना है । अधुनातन अनुसंधित्सुके समक्ष अनेक कठिनाइयाँ उसे जैन विषयोंपर गवेषणात्मक अध्ययन-अनुशीलन करनेपर आती हैं । सर्वप्रथम उसे विषयका विद्वान निर्देशक ही नहीं मिल पाता है । जो देशमें विषय विद्वान हैं वे प्रायः शोध-तकनीकसे अनभिज्ञ होते हैं, साथ ही विश्वविद्यालयीय निकषपर खरे नहीं - ४५७ - ५८ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतरते । जो विश्वविद्यालय अधिनियम के अन्तर्गत समर्थ शोध निर्देशक हैं उन्हें जैन शास्त्र तथा वाणीका सम्यक् ज्ञान नहीं होता । इसी क्रम में विषयका चयन और तत्सम्बन्धित सामग्री - संकलन अनुसंधित्सुके लिए सिर-शूल बन जाता है । जैन भांडारों में लुप्त - विलुप्त शास्त्रोंकी खोज लिपि-विज्ञानको न समझ पानेकी खीज वस्तुतः उसे नैतिक स्खलन तथा सत्यहनन करने-कराने के लिए विवश करता है । ऐसी विषम परिस्थितिमें क्या कुछ होना चाहिए यह वस्तुतः जागरूक प्रश्न है ? मेरे दृष्टिकोणसे दो काम हमें आगे आकर करने चाहिए । प्रथमतः विश्वविद्यालयों में देशके ऐसे विरल विद्वानोंकी जैनविद्या हेतु नियुक्तियाँ कराई जाएँ, दूसरे, विद्या केन्द्रोंपर ही सामाजिक शोध संस्थानोंकी स्थापनाएँ की जाएँ जहाँ समाजके निष्णात विद्वानोंकी सेवाएँ सुलभ कराई जावें ताकि ऐसे शोधार्थियोंकी सारस्वत कठिनाइयोंको सुलभ कराया जा सके, फलस्वरूप इस क्षेत्र में अनर्थ तथा अनर्गल स्थापनाएँ मण्डित न होने पाएँ । जिनवाणीके अन्तर्गत देशका ज्ञान-विज्ञान प्रायः अन्तर्भुक्त है । उसे सम्यक् अध्ययन-अनुशीलन द्वारा बहुविध बोध विज्ञान विकासको प्राप्त होगा । अस्तु, इस प्रकारके अनुसंधानात्मक अध्ययन-अनुशीलनकी उपयोगिता वस्तुतः असंदिग्ध है । = ४५८ - Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विद्याओं में शोधके क्षितिज रसायन और भौतिकी नन्दलाल जैन, महिला महाविद्यालय, रीवा, (म० प्र०) रसायन-विज्ञान रसायनके अन्तर्गत जड़ और जीव जगतके विभिन्न पदार्थों और उनके गुणधर्मके विषयमें वर्णन किया जाता है। विभिन्न समयमें लिखे गये जैन आगमिक एवं व्याख्याग्रन्थोंमें रसायनसे सम्बन्धित अनेक प्रकरण स्फट रूपसे पाये जाते हैं। इनके विषयमें लेखकोंने शोध लेख और समीक्षा लेख तथा पस्तिकायें लिखी हैं। इनमेंसे कुन्द-कुन्द, उमास्वाति, भगवती, अनु योगद्वार, प्रज्ञापना आदि ग्रन्थों और उनकी टीकाओंमें वर्णित रासायनिक तथ्योंका संकलन, समीक्षण एवं तुलनात्मक निरूपण किया गया है। इनका मुख्य विषय द्रव्य और पदार्थकी परिमाण, भेद-प्रभेद, परमाणुवाद और बन्धप्रक्रिया है । एक ओर शास्त्री, न्यायाचार्य और मेहताके समान शास्त्रीय विद्वानोंने अपने विवरणोंमें शास्त्रीय तथ्योंका संकलन किया है, वहीं दूसरी ओर सिकदरने अपने शोध ग्रन्थ तथा शोध लेखमें विविध भारतीय दर्शनोंके परिपेक्ष्यमें जैन पदार्थवाद तथा परमाणुवादका विवेचन किया है । यद्यपि द्रव्य और पदार्थकी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक परिमाणमें विभिन्न लेखकोंके विवरण समान है, फिर भी जैनने द्रव्यके सामान्य और विशेष गुणोंके आलापद्धतिके विवरणकी ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए बताया है कि यह परिभाषा अधिक व्यापक और समीचीन लगती है। बाँटियाने पदार्थ परिभाषाके अतिरिक्त जैनागम वर्णित परमाण और पुद्गलके समस्त गुणोंका संकलन कर नवीन शोधकोंके लिए उत्तम कार्य किया है। जवेरी और जैनने आगमिक परमाणु और आधुनिक परमाणुकी तुलनात्मक समीक्षा प्रस्तुत करते हुए बताया है कि जैनागम वर्णित परमाणुके गुण आधुनिक परमाणुकी तुलनामें परमाणु घटकोंके लिए अधिक सार्थक प्रतीत होते हैं । इसीलिये उन्होंने वैज्ञानिक मूलभूत कणोंको जैनागमी परमाणुके समकक्ष प्रदर्शित करनेका यत्न किया है। मुनिश्री नगराज भी इसी पक्षके प्रतीत होते हैं । इसके विपरीत जैन' और सिंहने इस परमाणुवादकी सूक्ष्मतासे परीक्षा कर यह प्रदर्शित किया है कि आगमोक्त परमाणु वर्तमान परमाणुके समकक्ष ही माना जाना चाहिये । इलेक्ट्रान, प्रोटान या क्वार्ककणोंको आगमोक्त परमाणुके समकक्ष मानने पर निम्न गुणोंकी सही व्याख्या नहीं की जा सकती : (१) इलेक्ट्रान आदि मूलकणोंको ऊर्जामय पुद्गल मानने पर भी चूँकि ऊर्जा भी कण-मय होती है, ठोस और एक प्रदेशी होती है, अतः उसमें संकोच-विस्तारके गुणोंकी व्याख्या नहीं की जा सकती। ये गुण खोखले परमाणुओंमें ही पाये जा सकते हैं । (२) सामान्यतः आधुनिक अनेक मूलकणोंको सम्यक् परिभाषित कर लिया गया है। इससे पता चलता है कि मूलकणोंके गुण (आवेश, द्रव्यमान आदि) भिन्न-भिन्न होते हैं। यही नहीं, न्यूटान, क्वार्क आदि कण इलेक्ट्रानको तुलनामें ७००-२००० गुने भारी होते हैं। इस प्रकार आगमोक्त पंचगुणी -४५९ - Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (चतुस्पर्शी) या सप्तगुणी (अष्टस्पर्शी) पणओंकी समानता और अनंतताका सही व्याख्यान नहीं होता । यदि आगमोक्त परमाणुओंको इलेक्ट्रान, पोजिट्रानके समकक्ष भी माना जाय, तो भी प्रोटान या न्यट्रानके निर्माणको एक तीसरे पर पर्याप्त भारी मूलकणी परमाणुको माने बिना नहीं समझाया जा सकता। इ प्रकार आगमोक्त परमाण शब्दसे कमसे कम तीन विभिन्न प्रकारके कणोंका बोध होता है जो एक दूसरेसे भिन्न होते हैं । तीन कण परमाणुओंकी जातिगत अनन्तताको सिद्ध नहीं करते । (३) तत्त्वार्थसूत्रमें परमाणुओंकी बंधप्रक्रियाके तीन मुख्य सूत्र दिये हैं। जैन ने अपनी व्याख्यामें बताया है कि आगमोक्त परमाणुओंको यदि इलेक्ट्रान आदिके समकक्ष माना जाता है, तो उनकी सही व्याख्या नहीं की जा सकती। फिर भी, वे परमाणकी अविभागिताको मूल मानते हये इस समरूपता पर ही बल देते हैं। इसके विपर्यासमें, यदि आगमोक्त परमाणुको वर्तमान परमाणुके समकक्ष माना जाय, तो यह प्रक्रिया सहजमें समझी जा सकती है। इसके उन्होंने अनेक उदाहरण दिये हैं। ____ आगमोक्त परमाणुओंको वर्तमान परमाणुओंके समकक्ष मानने पर उनके खोखलेपन, संकोचविस्तार, विविधता तथा बन्धप्रक्रियाकी न केवल सरलता वहीं प्रकट होती है, अपितु यह भी अचरज होता है कि उपकरण-विहीन पुरातन युगमें भी हमारे जैन मनीषी कितने गंभीर एवं तीक्ष्ण विचारक रहे हैं । यही नहीं, आगमोंमें अनेक स्थलों पर परमाणुओंके सम्बन्धमें परिमाणात्मक विवरण प्राप्त होते हैं, वे भी आगमोक्त परमाणुओंकी इस समकक्षताको पुष्ट करते हैं। उदाहरणार्थ तिलोयपण्णत्तिमें लम्बाईके यूनिटोंकी चर्चा करते हुये उवसन्नासन्नसे लेकर यव और अंगुल यूनिटोंके मान बताये हैं । दत्त और सिहके अनुसार अंगुलका मान यदि ०-७७ इंच या १-६५ सेमी० माना जाय, तो उवसन्नासन्न यूनिटका परिमाण १०-११सेमी० आता है । इस आधार पर अनुयोगद्वार और जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिके व्यावहारिक परमाणु का मान ०.८x१०८ सेमी० होगा जो आधुनिक सामान्य परमाणुके व्यासके बराबर ही है। इलेक्ट्रान या न्यूक्लिसका व्यास १०-१३ सेमी० के लगभग होता है। यहाँ भी यह ध्यानमें रखना चाहिये कि विभिन्न ग्रन्थों में क्षेत्रमानोंकी यनिटोंमें कुछ अन्तर भी पाया गया है। इस साइजके अतिरिक्त, परमाणओंकी गति, स्पर्श, प्रतिघात, कम्पन आदिके सम्बन्धित विवरण भी वर्तमान परमाणुकी समकक्षतामें घटित हो जाते हैं । जवेरी और अन्य लेखकोंने आगमोक्त परमाणुओंको द्रव्यमान या संहतिविहीन कणोंके समकक्ष माननेका सुझाव दिया है। लेकिन अबतक संहतिविहीन कण ऊर्जाएँ ही रही हैं और आईस्टीनने ऊर्जाओंकी कणमयता प्रमाणित की है । क्वान्टम सिद्धान्त भी इसकी पुष्टि करता है कि सभी ऊर्जाओं एवं सूक्ष्मकणोंके व्यवहार तरंगणी प्रकृतिके आधार पर ही समझाये जा सकते हैं। इस प्रकार, आगमोक्त परमाणु पदसे वाच्य अर्थमें समीक्षक काफी खींचतान करते प्रतीत होते हैं। वस्तुतः अविभागी, अगुरुलघु और इन्द्रिय-अग्राह्य पदको बहुत अधिक पूर्वाग्रहपूर्वक नहीं लेना चाहिये । हाँ, यह अवश्य स्वीकार करना होगा कि परमाणुको सूक्ष्म और व्यावहारिक परमाणुके रूपमें मान्यता प्रदान कर संभवतः पद्मनंदिने उसी प्रकार शास्त्रीय मर्यादा स्थिर रखी जैसे भट्ट अकलंकने प्रत्यक्ष ज्ञानको लौकिक और मुख्य प्रत्यक्षके रूपसे विभाजित कर अपने समयमें एक बड़े विवादको चतुरतापूर्वक सुलझाया था। वस्तुतः सामान्य जन न तो मुख्य प्रत्यक्षमें रुचि रखता है और न ही सक्ष्म परमाणमें । उनकी परिभाषा शास्त्रीय और अकल्पनीय भी बनी रहे, तो कोई आपत्ति नहीं है। इस प्रकार यह कहना चाहिये कि आधुनिक वैज्ञानिक परमाणु आगमोक्त व्यावहारिक परमाणुके समकक्ष होता है । अतः इनके अन्य गुणोंका वर्णन भी इसी आधार पर समीक्षित किया जाना चाहिये । सिकदर और जैनने आगमोक्त परमाणुवादकी अन्य भारतीय तथा प्राचीन परमाणुवादसे तुलना कर यह प्रमाणित Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया है कि समसामयिक मान्यताओंकी दृष्टिसे जैन परमाणुवाद आधुनिक दृष्टिसे भी अधिक समीचीन प्रमाणित होता है। सूक्ष्म और व्यावहारिक-दोनों ही प्रकारके परमाणु (चाहे ऊर्जा रूप हों या सूक्ष्मकण रूपमें हों) आगमोंमें पौद्गलिक बताये गये हैं। अतः उनमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान-ये पाँच गुण होते है । आगमोंमें परमाणुओंका विभाजन इसी आधार पर किया गया है और उनकी संख्या २०० ही मानी गई है । वस्तुतः रूप-रसादिके आधारपर परमाणुओंका यह वर्गीकरण उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि यद्यपि रूप, रस आदि मुख्यतः २० प्रकारके होते हैं, पर उनके अवान्तर भेद इतने अधिक है कि इस आधार पर वर्गीकरणकी कोई विशेष महत्ता नहीं रह जाती और परमाणुओंको अनन्त प्रकारका कहनेके अतिरिक्त अन्य विकल्प नहीं है । वस्तुतः परमाणुओंका वर्गीकरण उनकी आन्तरिक संचरनाके आधारपर ही करना चाहिये । यह दृष्टि यन्त्रयुगीन सूक्ष्मतर निरीक्षण क्षमताको प्रकट करती है। यदि हम व्यवहार परमाणुकी धारणाको संबल देते हैं, तो यह कहा जा सकता है कि ये सूक्ष्म परमाणुओंसे निर्मित होते हैं । पर ये स्कन्ध नहीं कहलायेंगे क्योंकि ये परमाणु विस्तारकी सीमामें ही रहते हैं। इन सूक्ष्म परमाणुओंको मूलभूत कणों या ऊर्जाके रूपमें माना जा सकता है। पर इन कणों आवेश, द्रव्यमान आदिके कारण भिन्नताएँ हैं। इनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है। यह उल्लेख सही नहीं लगता कि सभी परमाणुओंका द्रव्यमान बराबर होता है । द्रव्यमान-विहीन चतुस्पर्शी सूक्ष्म परमाणुओं की प्रकृतिकी व्याख्या अभी पूर्णतः स्पष्ट नहीं है। इस प्रकार आगमोक्त परमाणुवादको निम्न प्रकार निरूपित किया जा सकता है : सूक्ष्म परमाणु -→ व्यवहार परमाणु -→ स्कन्ध -→ महास्कन्ध इन तथ्यों पर तुलनात्मक समीक्षकोंको विचार करना चाहिये । शास्त्रोंमें परमाणु-सम्बन्धी वैचारिक चर्चा जितनी ही सूक्ष्मतासे वर्णित है, स्कन्ध-विषयक चर्चा उतनी ही स्थूलतासे वर्णित है । सामान्यतः स्कन्धोंको सभी समीक्षक आधुनिक अणुके समकक्ष मानते हैं । इनके दो रूप स्पष्ट है-चाक्षुष और अचाक्षुण । इनके निर्माणको प्रक्रियासे सम्बन्धित आगम सूत्रोंकी व्याख्यामें कुछ अन्तर पाया जाता है और श्वेताम्बर-परम्पराकी व्याख्या आधुनिक दृष्टिसे अधिक वैज्ञानिक प्रतीत होती है। जैनने बताया है कि उमास्वातिके परमाणुबन्ध-सम्बन्धी तीन सूत्र समुचित अर्थ करने पर आधुनिक तीन प्रकारकी बन्धकताको निरूपित करते है यदि आगमोक्त परमाणुओंको वैज्ञानिक परमाणुओंके समकक्ष या व्यवहार परमाणु माना जाय । NaCl व H, के अणुओंके निर्माण क्रमशः स्निग्धरुक्षत्वात् बंधः तथा गुणसाम्ये सदृशानांको निरूपित करते हैं । SO2 या HNO, के अणुओंके निर्माण व्यधिकादि गुणानां तुके उदाहरण है। जैनने सूक्ष्म परमाणुओंके बन्धकी जटिलताको प्रतिपादित करते हुए उमास्वातिके बंध निर्देशक सूत्रोंके अर्थमें भ्रान्ति ही उत्पन्न की है । वस्तुतः सूक्ष्म परमाणुओं (इलेक्ट्रान-इलेक्ट्रान, प्रोजिट्रान-पोजिट्रान या इलेक्ट्रान-पोजिट्रान आदि) के बंधोंको असामान्य कोटिका माना जाता है जिनमें सामान्य बन्धोंकी अपेक्षा पर्याप्त ऊर्जाका विनिमय होता है। इन सूत्रोंको केवल व्यवहार परमाणुओंके बन्धोंका निरूपक माना जाना चाहिये। फिर भी यह तथ्य मनोरञ्जक है कि बन्धकी विभिन्न विधियोंके निरूपणमें शास्त्रोंमें स्कन्धों के कोई भी उदाहरण नहीं दिये गए हैं। लेकिन यह माना जा सकता है कि चूंकि परमाणुके बन्धमें चार धातुएँ या चतुर्भूज स्कन्ध (पृथ्वी, जल, तेज, और वायु) बनते हैं, अतः उन्हें ही इनका स्थूल उदाहरण - ४६१ - Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माना जाना चाहिये । इनमें केवल पृथ्वी और जल ही बन्धकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण हैं। स्कन्धोंके निर्माणको यह मौलिक प्रक्रिया है । शास्त्रोंमें इसे सामान्य भाषामें भी बताया गया है कि स्कन्ध अपघटन, संघनन एवं अपघटन-संघननकी क्रियाओंसे प्राप्त होते हैं। जैनने इन सभी प्रकारके स्कन्धोंके निर्माणकी दशाओंका भी संक्षेपण किया है। जवेरी ने स्कन्धोंके अनेक प्रकारके वर्गीकरणका संक्षेपण किया है। ये बादर (चाक्षुष) और सूक्ष्म (अचाक्षुष) के रूपमें दो प्रकारके होते हैं। प्रयोग-परिणत, विस्रसा-परिणत और मिश्रपरिणतके रूपमें तीन प्रकारके होते हैं । स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणुके भेदसे चार प्रकारके होते हैं । यहाँ परमाणु को व्यवहार परमाणु मानना चाहिये । स्थूल-स्थूल (ठोस), स्थूल (द्रव्य), स्थूल-सूक्ष्म (ऊर्जा), सूक्ष्म-स्थूल (गैसीय पदार्थ), सूक्ष्म (कर्मवर्गणाएँ, अतीन्द्रिय) और सूक्ष्म-सूक्ष्म (सूक्ष्मतर स्कन्ध जिनमें वर्तमान परमाणु घटक समाहित किये जा सकते हैं ।) के भेदसे स्कन्ध इस प्रकारके होते हैं। इनमें व्यवहार परमाणुको सक्ष्मके अन्तर्गत समाहित करना चाहिये। इस वर्गीकरणके विषयमें जैनने बताया है कि यह केवल स्कन्धों की चक्षु एवं अनिन्द्रिय-ग्राह्यता पर आधारित है, उत्तरोत्तर सूक्ष्मता पर नहीं। यही कारण है कि गैसीय अणुओंकी तुलनामें उर्जायें सूक्ष्मतर होती हैं, पर उन्हें गैसोंमें पहले रखा गया है । इस आधार पर सूक्ष्मताकी दृष्टिसे स्कन्ध पाँच प्रकारके ही मानने चाहिये । वस्तुतः ऊर्जायें सूक्ष्म-सूक्ष्म कोटिमें ही आनी चाहिये क्योंकि प्रायः इन्हें चतुस्पर्शी माना जाता है। इस वर्गीकरणमें कुछ स्कन्धोंके नाम आये हैं, पृथ्वी, पत्थर, पर्वत, जल, घी, तेल, आतप, छाया, वायु, कर्मवर्गणायें और सूक्ष्मतर द्वयणुक एक अन्य वर्गीकरणमें इन्हें तेईस वर्गणाके रूपोंमें बताया गया है। इनके विषयमें विस्तारपूर्वक अध्ययनकी आवश्यकता है। कहीं परिस्थर न्यायसे स्कन्धके ५३० भेद गिनाये गये हैं। अन्तमें यह बताया गया है कि स्कधोंका विभाजन अत्यंत जटिल है और वे अनन्त प्रकारके होते हैं। इस वर्गीकरणके विविध रूपोंसे यह स्पष्ट प्रतिभास होता है कि ये भेद मात्र सूक्ष्मता और स्थूलताके आधार पर किये गये हैं। इनमें स्कन्धोंकी आन्तरिक संरचना का आधार नहीं है। फिर भी, ये संरचना प्रधान युगके कालके अन्य वर्गीकरणोंसे अधिक सूक्ष्म निरीक्षणको निरूपित करते हैं। यह इस तथ्यसे प्रकट होता हैं कि उस समय ऊर्जाओंको भी स्कन्ध या कणमय माना जाता है। स्कन्धोंका निरूपण यद्यपि घट, पट, वस्त्र, भूषण, खाद्य पदार्थ, दश विकृतियाँ, शरीर, कर्म आदि अनेक स्कन्ध पदार्थों के नाम शास्त्रोंमें आये हैं पर इनका विशेष विवरण उपलब्ध नहीं है । लेकिन चार महाभूतोंके कुछ विवरण कुछ स्थानों पर उपलब्ध हैं जिनका संक्षेपण जैनने किया है। इसके अनुसार यद्यपि प्रारम्भमें यह माना जाता है कि ये महाभूत स्कन्ध विशेषको निरूपित न कर एक-एक जाति विशेषको निरूपित करते हैं, फिर भी उपलब्ध विवरणसे यह प्रमाणित नहीं होता। पृथ्वीके अन्र्तगत ३६-४० ठोस पदार्थोके नाम अवश्य हैं पर जल, अग्नि, और वायुके अर्न्तगत केवल इनके विभिन्न भेदोंके ही नाम दिये गये हैं। ये भेद श्वेताम्बर आगमों तथा तत्त्वार्थसारमें प्राप्त होते हैं। यह संभव है कि अनन्त संभावित स्कन्धोंमेंसे केवल ये ही स्कन्ध आगमयुगीन समयोंमें दृष्टिगोचर रहे हों। यह आवश्यक है कि आगमिक एवं दार्शनिक साहित्यको स्कन्धों के विवरणके लिये आलोकित किया जाय । साथ ही, यह विवरण नामरूपेण ही है, विशेष विवरण नहीं। इस विषयमें भी छान-बीनकी आवश्यकता है। भौतिकी (अ) ऊष्मा और प्रकाश भौतिकीके अन्तर्गत पदार्थोंके स्थूल उपयोगी भौतिक गुणोंका अध्ययन तो किया ही जाता है, इसके - ४६२ - Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिरिक्त ऊष्मा, प्रकाश आदि विभिन्न प्राकृतिक तथा परमाण्वीय ऊर्जायें भी इसके प्रमख विषय क्षेत्र हैं। इन ऊर्जाओंका स्रोत क्या है, इनकी प्रकृति और कार्य क्या है, क्या इन्हें उपयोगी कार्यों में प्रयुक्त किया जा सकता है, ये और अन्य प्रश्न ही विद्वानोंको इन ऊर्जाओंकी मौलिक प्रकृतिके अध्ययनके प्रति प्रेरित करते है। प्राचीन समयमें इन ऊर्जाओं व पदार्थके उपयोगी गणों पर विचार किया गया है। विभिन्न दर्शनोंके साथ-साथ जैन आगमोंमें भी इन पर स्फुट चर्चायें प्राप्त होती हैं जो कुछ ईसा पूर्व सदियोंसे लेकर बारहवीं सदीके बीच लिखे गये हैं। भौतिकीसे सम्बन्धित विषयों पर अनेक विद्वानोंका ध्यान गया है। सम्भवतः सर्व प्रथम जैनने तत्त्वार्थसूत्रके पंचम अध्यायकी टीकामें इन विषयों पर १९४२ में विचार किया था। इसके बाद अनेक स्फुट विषयों पर अमर, सिकदर, पालीवाल, मनि महेन्द्र कुमार द्वितीय और अन्योंने आगमोक्त मन्तव्योंका तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया है। पिछले कुछ वर्षों में जैन ने अपने पाँच शोध पत्रोंमें इस विषय पर विस्तारसे प्रकाश डाला है। अपने पदार्थों के गुणोंके संक्षिप्त अध्ययनमें उन्होंने बताया है कि जैन आगमोंमें पदार्थों के स्थूल गुणोंकी बहुत कम चर्चा है । वैशेषिक इस विषयमें जैनोंसे कुछ अधिक यथार्थवादी हैं। जैन ने अनेक वैज्ञानिक उद्धरणोंके आधार पर प्रमाणित किया है कि ताप, प्रकाश आदि ऊर्जाएँ भारयुक्त होती हैं। यद्यपि उत्तराध्ययनमें पदार्थके अनेक रूपोंमें प्रभा (प्रकाश) को समाहित किया गया है, फिर भी तत्त्वार्थसूत्र में उसे छोड़ दिया गया है। हाँ, यहाँ छाया, अन्धकार और उद्योतके रूपमें प्रकाशकी विविधता बताई गई है। अतः यह अचरजकी वात है कि प्रभाको पुग्दलके रूपोंमें क्यों सम्मिलित नहीं किया गया। यह अन्वेषणीय है। फिर भी, यह माना जाता है कि प्रकाशकी अनेक शक्तियाँ होती हैं जिनमें दृश्य प्रकाश भी एक है। ऐसा प्रतीत होता है कि पुद्गलके आतप रूपमें ऊष्मा एवं दृश्य प्रकाशको एक साथ समाहित किया गया है। आगमें तपाये हुये गरम लोहेमें अग्नि या ऊष्माके अचेतन परमाणु प्रविष्ट होकर उसे रक्ततप्त कर देते हैं। प्रकार ऊण्मा ही प्रकाश ऊर्जामें रूपान्तरित होती है। अदृश्य प्रकाशको ऊष्मा कहा जा सकता है। पदार्थोंके कणोंमें उष्णता या प्रकाशकी शक्ति आत्मा या अदृश्य जैवशक्तिके संयोगका फल है। इनके अभिभव और पराभवके कारण इन दोनों ही ऊर्जाके रूपोंको परमाणुमय बताया गया है। शास्त्रोंमें ताप और प्रकाशके सारणी-१ में दिये गये अभिलक्षण बताये गये हैं। सारणी-१. उष्मा और प्रकाश के शास्त्रोक्त अभिलक्षण ताप या ऊष्मा के अभिलक्षण प्रकाश के अभिलक्षण १. ऊष्मा तेजसकायिक जीव हैं इसमें अदृश्य शक्तिके प्रकाश भी तेजसकायिक है। इसमें अदृश्य शक्तिके कारण सजीवता है । यह एक ऊर्जा है। कारण सजीवता है। यह एक ऊर्जा है। २. इसकी प्रकृति कणमय होती है इसके कण अनेक इसकी प्रकृति भी कणमय होती है । सूक्ष्म परमाणुओंसे बने होते हैं । ३. ऊष्मा पदार्थों को गरम करती है, पकाती है, नष्ट प्रकाश कणोंका अभिभव और पराभव होता है । करती है। ४. ऊष्मा पदार्थोंमें अवशोषित हो जाती है। यह यह दो प्रकारके स्रोतोंसे मिलता है-ठंडा और जीवनका एक लक्षण है। गरम । यह आतप और उद्योत--दो रूपोंमें पाया जाता है। ५. प्रकाश, विद्युत और मणिप्रभा ऊष्माके ही रूप हैं । जैनने बताया है कि वर्तमानमें ऊष्मा या प्रकाश एक ऊर्जाके रूपमें माने जाते हैं। इनकी प्रकृति Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विविधा-तरंगणी होती है । इनकी ऊर्जा प्राकृतिक होती है, किसी अदृश्य शक्तिके कारण नहीं । तरंगात्मक दृष्टिसे ऊष्माका तरंगदैर्ध्य रक्तप्रकाशसे बृहत्तर होता है। ऊष्माके विभिन्न कार्य आज भी मान्य हैं । पर ऊष्माका संप्रसारण अब संचालनके अतिरिक्त दो अन्य विधियोंसे-विकरण और संवाहनसे भी माना जाता है। शास्त्रोंमें प्रावस्था परिवर्तन और ऊष्माके यांत्रिक कार्योंमें परिवर्तित होनेकी चर्चा नहीं है। ये प्रकरण उन्नीसवीं सदीकी वैज्ञानिक प्रगति की ही देन हैं। उष्माको जीवनका लक्षण मानना एक समस्या उत्पन्न करता है क्योंकि जगतके प्रत्येक तंत्रमें प्रकृत्या ही कुछ न कुछ ऊष्मीय ऊर्जा होती है। इस दृष्टिसे संसारके सभी पदार्थ, चाहे वे जड़ हों या चेतन, सजीव ही माने जाने चाहिये। वस्तुतः उत्तराध्ययनमें यह बताया गया है कि पृथ्वी, जल आदि प्राकृतिक रूपमें शस्त्र अनुपहत होते हैं और सजीव होते हैं। विक्षोभ या उपघात इन्हें निर्जीव बनाता है । मूलतः प्रत्येक पदार्थके सजीव माननेकी इस धारणासे क्या यह अर्थ लिया जाय कि जगतमें जीव और अजीवकी धारणाका विकास उत्तर आगमकालमें हुआ है ? पदार्थों के मूलतः सजीव होनेकी धारणा जैन दर्शनको वेदान्तका ही एक अंग बना देती? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसपर गम्भीर एवं शोधपूर्ण अध्ययनकी आवश्यकता है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी यहाँ समाधानकी अपेक्षा रखता है। जीवाभिगमसूत्रमें तेजसकायिकोंको त्रस कोटिमें माना गया है जबकि उमास्वातिने इसे स्थावर माना है। तेजसकायिकोंका स्थावरीकरण कब और कैसे हुआ, यह भी एक विचारणीय बात है। प्रारम्भमें, गतिशीलोंको बस मान कर वायु, तेज (ऊष्मा, प्रकाश आदि) को इस कोटिमें रखा गखा गया हो। लेकिन जब कर्मवादका विकास हुआ, तब "त्रस" की परिभाषामें कुछ संशोधन किया गया प्रतीत होता है। इससे क्या यह समझा जाय कि जीवाभिगम सूत्रके समय कर्मवाद विकसित नहीं था और शब्दोंका सामान्य अर्थ लिया जाता था ? दशवैकालिकमें तेजसकायिकोंके सात भेद गिनाये गये हैं जबकि प्रज्ञापनामें सूक्ष्म तेजसकायिकोंके अतिरिक्त स्थल तेजसकायिकोंके बारह भेद बताये गये हैं। सारणी-२] इनमें अग्निकी ज्वाला, मुमुर, सारणी-२. तेजस्कायिकोंके भेद प्रज्ञापना दशवैकालिक १. विद्युत् २. अग्नि या ज्वाला २. अशनि ३. मुर्मुर ३. निर्घात ४. अचि ४. संघर्ष ५. अलात ५. सूर्यकान्त ६. शुद्ध अग्नि ७. भेद [दशवै०] ७. उल्का अंगार, आलात, अर्चि, संघर्षज ऊष्माओंसे सामान्य जन परिचित हैं। शुद्ध अग्निको ईंधन रहित अग्निके रूपमें माना जाता है। यह वैद्युत भट्ठी, पिघला हुआ लोहपिंड आदिमें देखा जाता है । उल्का, विद्युत् एवं अशनि-ये विद्युतके रूप हैं और सूर्यकान्त या मणियोंके माध्यमसे उत्पन्न ऊष्मा प्रकाशका एक प्रभाव है जिसमें प्रकाश ऊष्मामें परिवर्तित होता है। निर्धात विक्रिया जन्य अग्नि है। तैजस्कायिकोंके इस वर्गीकरणसे पता चलता है कि शास्त्रीय कालमें ऊष्मा, प्रकाश और विद्यत एक ही कोटि-जस्कायिकके माने जाते थे और इनकी प्रकृति कणमय मानी जाती थी। यह भी यहाँ दृष्टव्य है कि उपरोक्त सभी रूपोंमें मूल कुछ भी हो, ऊष्मागुण इन सभीमें पाया जाता है। अतः इन ऊर्जाओंकी प्रकृतिमें मौलिक भेद होनेके -४६४ - Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबजूद भी इनके स्थूल एवं अनुभवगम्य ऊष्मागुणके कारण इन्हें एक ही तेजोरूपमें समाहित किया गया है । इस युग में प्रभा [सूर्य और दीप प्रकाश ], उद्योत एवं अन्धकारमें उष्णताके सामान्य अनुभवगम्य न होनेसे इन्हें तैजस्कायिकोंमें समाहित नहीं किया गया है जबकि इन्हें भी इसमें समाहित किया जा सकता था । सम्भवतः इसीलिये प्रभा आदि तीन रूप तैजस्कायिक नहीं बताये गये हैं । फलतः ये निर्जीव । फिर भी, उन्हें पौद्गलिक और कणमय तो माना ही गया है । आधुनिक दृष्टि से इन भेदोंके विषयमें यह कहा जा सकता है कि ये ऊष्मा, प्रकाश या विद्युत् ऊर्जाओंके विभिन्न स्रोत हैं स्वयं ऊर्जाएँ नहीं हैं । ऊष्मा चाहे किसी भी स्रोतसे क्यों न उत्पन्न हो, ऊष्माकी प्रकृति एकसमान होगी, विभिन्न विद्युत् स्रोतोंसे उत्पन्न विद्युत् ऊर्जाकी प्रकृति एकसमान होगी । इसी प्रकार प्रकाशके विषयमें मानना चाहिये । ऊर्जाओं कणमयताकी धारणा जैन और वैशेषिकोंमें समानरूपसे पाई जाती है। न्यूटन युगमें वैज्ञानिक भी इन्हें तरल या कणमय मानते थे । यह तो उन्नीसवीं सदीके उत्तरार्द्ध में ही मत स्थिर हुआ कि ये तरंगात्मक ऊर्जाएँ हैं । बीसवीं सदी में इन्हें तरंगणी प्रकृतिका सिद्ध किया जा चुका है। अतः इनकी शुद्ध कणमयताकी शास्त्रोक्त धारणा अब संशोधनीय बन गई है । प्रकाश - सम्बन्धी कुछ घटनाएँ प्रकाशके विषयमें जैन ' ने दो शास्त्रीय प्रकरणों पर और ध्यान आकृष्ट किया है जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विचारणीय बन गये हैं । प्रथम प्रकरण में चक्षु द्वारा पदार्थके देखने की प्रक्रिया समाहित है । शास्त्रीय मान्यताके अनुसार चक्षु पदार्थोंके रूप एवं आकार आदिका ज्ञान कराने में आलोक या सूर्यप्रकाशकी सहायता नहीं लेती। अमर और जैनने चक्षु द्वारा पदार्थोंके देखने और ज्ञान करानेकी वैज्ञानिक प्रक्रियाका विवरण देते हुये बताया है कि सामान्य जनको दृश्य परिसरके प्रकाशके बिना पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होते । जैन दार्शनिक सूर्य किरणें मान कर भी उन्हें दर्शन प्रक्रियामें उपयोगी नहीं मानते । वस्तुतः चक्षुका पदार्थ सम्पर्क किरणोंके माध्यमसे ही होता है । जैसे कैमरा बिना पदार्थ और प्रकाशके चित्र नहीं खींच सकता, वैसे आँख भी इन दोनोंके विना रूपज्ञान नहीं करा सकती । यह सही है कि आँख पदार्थ के पास जाकर उसका ज्ञान नहीं कराती, इसलिये उसका अप्राप्यकारित्व स्थूलतः सही हो सकता है लेकिन चक्षु किरणों के माध्यम से पदार्थ के बिना भी उसका बोध नहीं करा सकती, अतः उसका पदार्थसे किसी न किसी प्रकार सम्पर्क होता ही है । अतः अप्राप्यकारित्वको परोक्ष प्राप्यकारित्व या ईषत् प्राप्यकारित्वके रूपमें लेना शास्त्रीय अर्थको वैज्ञानिक बना देगा, यह सुझाया गया है । इसी प्रकार द्वितीय प्रकरणमें अन्धकार, छाया और वर्षाकी चर्चा है । अन्धकार तो प्रकाशका ही एक रूप है जिसका परिसर दृश्य परिसरसे भिन्न होता है । उल्लूकी आँखों का लेंस और विविध प्रकारके नवीन केमरे प्रकाशके इसी परिसर में काम करते हैं । चूँकि यह प्रकाशका ही एक रूप है, अतः अन्धकारकी कणमयता भी स्पष्ट है । लेकिन इसे प्रकाशविरोधी कहना स्थूल निरीक्षण ही कहा जा सकता है । यह बताया गया है कि छाया प्रकाशको रोकनेवाले पदार्थोंसे बनती है । इसकी प्रकृति परावर्तक तलोंकी प्रकृति पर निर्भर करती है । यह भी पुद्गलका ही एक रूप है । वस्तुतः वर्णादिविकार परिणत छाया (दर्पण प्रतिबिम्ब या छाया ) अवास्तविक प्रतिबिम्बका एक रूप है जबकी अबतक लेंससे बने प्रतिबिम्ब वास्तविक होते हैं । वास्तविक प्रतिबिम्बोंका उदाहरण शास्त्रोंमें नहीं मिलता, शायद उस युगमें अवतल लेंसोंकी जानकारी न हो । साथ ही, हरिभद्रने जिन छाया पुद्गलोंका दर्पणमें प्रवेश बताया है, वे वस्तुतः प्रकाश किरणें हैं । इन किरणोंके सरल पथ गमनकी प्रवृत्तिके कारण ही छाया और प्रतिबिम्ब बनते हैं । प्रकाशकी ५.९ - ४६५ - Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सरल पथगमनकी प्रकृतिका भी शास्त्रोंमें उल्लेख नहीं मिलता। इस प्रकार छाया, अन्धकारके विपरित प्रकाशका एक प्रभाव है, स्वयं प्रकाश नहीं । मुनि महेन्द्र कुमार द्वितीयने बताया है कि पदार्थोंके वर्णकी अनुभूति एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें वस्तु और ज्ञाता — दोनों सम्मिलित होते हैं । शास्त्रोंमें वर्णित पंचवर्णोंकी बात काफी स्थुल लगती है क्योंकि इन्द्रधनुष में ही सात रंग होते हैं । यदि मौलिक वर्णोंकी बात की जाय, तो रामनके मूलभूत अन्वेषणसे तीन ही मौलिक वर्णं प्रकट होते हैं । इस प्रकार अन्धकार, छाया और वर्ण सम्बन्धी आगमयुगीन मान्यतायें अपनी समीचीनता बनाये रखनेके लिये पुनः परीक्षणकी अपेक्षा रखती हैं । इस प्रकार, ऊष्मा और प्रकाशके सम्बन्ध में हमें आजकी तुलनामें पर्याप्त अल्प सूचनायें ही मिलती हैं । फिर भी, इनका स्फुट संकलन भी आगम युगकी महान् देन । इससे उनके प्रकृति-निरीक्षण सामर्थ्य और बौद्धिक विचारणाकी तीक्ष्णताका पता चलता है । ये संकलन या विचार आजके युगमें कैसे भी क्यों न हों, अपने युगमें तो उत्तम कोटिके रहे हैं क्योंकि ऐसा विवरण अन्य दर्शनोंमें नहीं पाया जाता । विद्युत् और चुम्बकत्व ऊष्मा, प्रकाश और ध्वनिकी तुलनामें शास्त्रोंमें विद्युत् और चुम्बकीय ऊर्जाओंके विषयमें उपलब्ध विवरण और भी अल्प हैं । शास्त्रोंमें विद्युत् उल्का, अशनिके रूपमें विद्युत्का उल्लेख है, पर वस्तुतः ये सभी विद्युत् उत्पादक हैं, विद्युत् नहीं । विद्युत् तो अतिगतिशील इलेक्ट्रान प्रवाहको कहा जाता है । यह सही है कि यह कणमय रही है । पर अब इसे भी तरंगणिक प्रमाणित कर दिया गया है । विद्युत्को स्निग्ध-रुक्ष समान विरोधी गुणोंके सम्पर्कसे उत्पन्न मानना जैन दार्शनिकोंकी ईसापूर्व सदियोंमें बड़ी सूक्ष्म कल्पना है जिसे वैज्ञानिक अठारहवीं सदी में ही खोज सके । शास्त्रों में विद्युत्को तेजस्कायिकोंके रूपमें माननेके कारण सजीव माना गया है । इसकी गतिके ऊष्मा भी इसे सजीवता देती है, पर यह मत विज्ञानको मान्य नहीं है । जीवनके जन्म, वृद्धि, पुनर्जनन व विनाशके लक्षण इसमें नहीं पाये जाते । शास्त्रोंमें प्रकाशके ऊष्मा या विद्युत् रूपान्तरणकी बात आई है पर विद्युत्के ऊष्मामें रूपान्तरणका कोई उदाहरण नहीं है । सम्भवतः उस युग में चालक और रोधक पदार्थोंके सम्बन्धमें दृष्टि नहीं गई, अतः यह विषय छूट ही गया। आज हम जानते हैं कि विद्युत् ऊष्णीय रूपान्तरण हमारे लिये कितने उपयोगी हैं । araaran विषयमें तो केवल अयस्कान्तका नाम आता है। शास्त्रोंमें इसे ऊर्जाका रूप नहीं माना जाता (हाँ, इसके लोहे के आकर्षण गुणोंको अप्राप्यकारिताका साधक मानकर इससे चक्षुके आप्राप्यकारित्व गुणका संपोषण अवश्य किया गया है ) शास्त्रोंमें केवल एक ही प्राकृतिक चुम्बकका नाम है । इसके विपर्यास में, अब चुम्बकत्व एक ऊर्जा है जो तरंगणी होती है। इसके चारों ओर बलरेखायें रहती हैं जो वस्तुओं को आकर्षित करती हैं । आवृत वस्तुओं में से बलरेखायें पार नहीं हो पातीं, अतः वे आकृष्ट नहीं हो पातीं। यह गुण कुछ वस्तुओंमें उनकी विशिष्ट अणुरचना और विन्यासके कारण पाया जाता है । कुछ वस्तुओंमें यह गुण कृत्रिमतः भी उत्पन्न किया जा सकता । अपनी चक्षुषा अगोचर बल - रेखाओंके माध्यम से ही अयस्कान्त लोहेको आकर्षित करता है। अतः अयस्कान्तको अप्राप्यकारी ग्राहक नहीं माना जा सकता । इसे चक्षुके समान ही परोक्ष प्राप्यकारी या ईषत् प्राप्यकारी मानना चाहिये । विद्युत् और चुम्बकत्व तथा उससे सम्बन्धित घटनाओंकी शास्त्रों में अल्प विवरणिका इस तथ्यका संकेत है कि आगम या शास्त्रीय युगमें इन ऊर्जाओंका कोई विशेष उपयोग अन्वेषित नहीं था । प्राकृतिक रूपमें पाये जानेके कारण केवल इनके स्थूल गुणोंका ही अवलोकन किया गया था । ध्वनि - जैन, सिद्धान्तशास्त्री, सिकदर मेहता और रामपुरिया आदिने ध्वनिके सम्बन्धमें जैन - - ४६६ - Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान्यताओंका विवरण एवं समीक्षण किया है। इन सभीने पौदगलिक शब्दको वर्तमान ध्वनिका पर्यायवाची माना है। शास्त्रीय मान्यताके अनुसार, ध्वनि भी प्रकाश आदिके समान एक पौद्गलिक ऊर्जा है, पर यह तेजस्कायिक न होनेसे अजीव मानी जाती है। इसकी उत्पत्ति परमाणमय पदार्थों के विशिष्ट गतिके कम्पन और संघटनसे होती है। पौद्गलिक होनेसे इसमें स्पर्शादि चार गुण पाये जाते हैं। इसका आकार बज्रके समान होता है। यह हवामें संचारित होती है। यह लोकान्त तक जा सकती है। ध्वनिमें तीव्रता, मंदता, अभिभव, पराभव, व्यतिकरण आदिके गुण पाये जाते हैं। ये इसकी कणमयताको पुष्ट करते हैं । इसीलिये ध्वनिको शब्दसे व्यंजित कर उसे भाषावर्णात्मक पुद्गल बताया गया है। जो सूक्ष्म-स्थूल कोटिके स्कन्धोंमें समाहित की गई है। जैन ध्वनिको द्रव्यदृष्टिसे नित्य तथा पर्यायदृष्टिसे अनित्य मानते हैं। इस दृष्टिसे जैन मीमांसकोंके शब्द नित्यत्ववादको नहीं मानते। उन्होंने इसमें अनेक व्यावहारिक आपत्तियाँ प्रस्तुत की हैं जो उनके ध्वनि-विषयक सूक्ष्म निरीक्षण व विचारके परिमाण ही मानने चाहिये। जैन न्याय-वैशेषिकोंके शब्दोंके अमूर्तवाद एवं आकाश गुणसे भी सहमत नहीं है क्योंकि इससे शब्दमें नित्यत्व मानना पड़ता है। हाँ, यदि आकाशको ध्वनि संचारण माध्यम मान लिया जाय, तो शब्दके वीचीतरंगन्याय या कदम्ब-कोरक प्रक्रियासे श्रवणकी प्रक्रिया तर्कसंगत हो जाती है। फिर भी, आकाशको ध्वनि-उत्पादक नहीं माना जा सकता, वह तो केवल संचरण माध्यम है। प्रज्ञापना, स्थानांग, भगवती एवं तत्त्वार्थसूत्रके टीकाग्रन्थोंके आधार पर शब्दोंको विविधप्रकारसे वर्गीकृत किया गया है। प्रारम्भिक वर्गीकरणका नवपदार्थमें संक्षेपण किया गया है। उत्तरवर्ती कालोंमें इसमें किंचित् परिवर्तित हुआ है। इस संक्षेपणसे पता चलता है कि ध्वनिके सस्वर और कोलाहल रूपमें दो वैज्ञानिक भेदोंकी तुलनामें जैन शास्त्रीय वर्गीकरण अधिक व्यापक सूक्ष्मनिरीक्षणकी दृष्टि प्रकट करता है। विज्ञानमें मानवकी शब्दात्मक भाषाके लिये कोई पृथक स्थान नहीं दिया गया है। इसे योग्यतानुसार दोनों ही कोटियोंके रूपमें वर्णित किया जा सकता है। सिकदर इसे कोलाहल मानते हैं जो तथ्य नहीं है। इसी प्रकार प्राकृतिक ध्वनियोंकी बात है। शास्त्रोंमें इनका विशद विवेचन और वर्गीकरण किया गया है। यही नहीं, वहाँ द्रव्यभाषाके अतिरिक्त भाव भाषा भी वर्णित है। द्रव्य भाषा ग्रहण, निःसरण तथा परघात (संघटन) से उत्पन्न होती है। भावभाषा मानसिक है । परघात भाषा प्रयोजन्य होती है और वह सरल या वक्रगतिसे चलती है। यह वायुमें संचारित होती है और लोकान्त तक जाती है। भाषात्मक ध्वनि दो समयोंमें अभिव्यक्त होती है। इस प्रकार ध्वनिके उत्पादन, संचारण, प्रकृति, गुण और वर्गीकरण-सम्बन्धी शास्त्रीय मान्यताएँ प्रर्याप्त तथ्यपूर्ण हैं लेकिन इनकी व्याख्यामें आजकी दृष्टिसे पर्याप्त अन्तराल है। इसके अतिरिक्त, जैन ने बताया है कि ध्वनिरोधन, ठोसोंमें ध्वनि-संचरण तथा ध्वनिका अन्य ऊर्जाओंमें अन्योन्य रूपान्तरण आदि अनेक आधुनिक तथ्य ऐसे हैं जिनका शास्त्रोंमें विवरण उपलब्ध नहीं होता। आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताके अनुसार, ध्वनि गतिक ऊर्जाका एक रूप है। यद्यपि ऊर्जाओंकी चरम कणमयता निर्विवाद मान ली गई है, फिर भी ऊर्जा और दृश्यकणोंमें कुछ अन्तर तो स्पष्ट है । इस अन्तरके कारण ही वैशेषिक ध्वनिको अमूर्त एवं सांख्य तन्मात्रात्मक मानते हैं। ध्वनिके जिन गुणोंके आधार पर जैन उसे कणमय प्रमाणित करते हैं, उन्हों गुणोंके आधार पर वैज्ञानिक उसे तरंगात्मक या ऊर्जात्मक प्रमाणित करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जैन दार्शनिकोंने शब्द उत्पत्तिके स्रोत व माध्यमकी पौद्गलिकताको ध्वनिकी प्रकृति पर आरोपित कर दिया है। यदि ध्वनिको कणात्मक माना भी जाय, तो उसके कण इतने सूक्ष्म होगें कि वे परस्परमें प्रत्यास्थ संघटन करेगें जिनसे ध्वनि उत्पन्न ही न कर सकेगें। इस प्रकार वर्तमान वैज्ञानिक ध्वनिके प्रायः सभी आगमवणित गुणोंको मानते हैं पर उनकी व्याख्या शास्त्रीय व्याख्यासे भिन्न प्रतीत होती है । -४६७ - Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरोक्त निरूपणसे प्रकट होता है कि जैन आगम एवं दार्शनिक साहित्य में भौतिकी से सम्बन्धित तथ्य भी स्फुटरूपमें पर्याप्त मात्रामें वर्णित हैं। अब तक उनका स्फुट रूपमें ही समीक्षण या विवरण लेखकोंने किया है। इस बातकी महती आवश्यकता है कि विषयवार वर्णनोंका गहन अध्ययन कर संकलन किया जय और तब उनका तुलनात्मक समीक्षण किया जाय । सन्दर्भ-ग्रन्थ और शोध-पत्र १. जैन, नन्दलाल, २. जैन, दुलीचन्द, ३. मुनि नगराज, ४. जवेरी, जे० एस ०, ५. वांटिया, एम० एल०, ६. जैन, जी० आर, ७. सिकदर, जे० सी०, ८. रे, पी०, ९. अमर, गोपीलाल, १०. सिंह, वीरेन्द्र, ११. सिकदर, जे० सी०, १२. पालीवाल, के० एल०, १३. जैन, एन० एल०, १७. जैन, एल० सी०, (१) केमिस्ट्री आफ जैनाज " कीमिया " ११, १९६६ (२) जैन आगमो में रसायन विज्ञान, १-४, जिनवाणी, १९७३ (३) जैन दर्शन में जड़ जगत् की रूपरेखा, महावीर - स्मृति- ग्रन्थ, १९५३ (४) जैन परमाणुवाद, जैन विद्यालय, सीकर- स्मारिका (प्रेस में) (५) केमिकल कन्टेन्ट आव जैन कैनन्स, अनुसन्धान पत्रिका, १९७४ जनदर्शन में पुद्गलद्रव्य और परमाणु - सिद्धान्त, चन्दावाई अभिनन्दन ग्रन्थ, आरा, १९५४ जैनदर्शन और आधुनिक विज्ञान, आत्माराम ऐण्ड सन्स, दिल्ली, १९५९ थ्योरी आव एटम्स इन जैन फिलोसोफी, जैन विश्वभारती, १९७५ जैन पदार्थ विज्ञान में पुद्गल, श्वे० तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, १९६१ कोस्मोलोजी, ओल्ड एण्ड नीड, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९७५ rator योरी आव जैनाज, इण्डियन जर्नल आव हिस्ट्री आव साइंस, १९७९ हिस्ट्री आव केमिस्ट्री इन एन्सियन्ट एण्ड मेडीवल इण्डिया, पूर्वोक्त, १९६६ चक्षुकी अप्राप्यकारिता, एक मूल्यांकन; वरैया अभिनन्दन ग्रन्थ, काशी, १९५४ द्रव्यविषयक जैन धारणा, जैनधर्म आधुनिक सन्दर्भ में (सं० नरेन्द्र भानावत आदि), जयपुर, १९७५ जैन थ्योरी आव साउंड, रिसर्च जर्नल आव फिलासफी, १९७२ मीमांसा और जैनदर्शन में द्रव्यका स्वरूप, अनुसन्धान - पत्रिका, ५, १९७६ (अ) प्रोपर्टीज आव मैटर इन जैन कैनन्स, इस पुस्तकका विज्ञानखण्ड, १९८० (ब) फिजिकलकन्टेन्ट्स आव जैन कैनन्स, दिवाकर-अभिनन्दन-ग्रन्थ,१९७६ (स) जैन आगमो में भौतिकीके तत्त्व (३), मगध विश्वविद्यालय सेमिनार, बोधगया, १९७५ १४. गेलरा, एम० आर०, १५. मुनि महेन्द्रकुमार द्वितीय, १६. जैन, उत्तमचन्द, (द) फिजिकलकन्टेन्ट्स आव जैन कैनन्स (४), प्रेसमें कन्सेप्ट आव मासलेन्स मैटर इन जैन लिटरेचर, अनुसन्धानपत्रिका, ५, १९७५ जैन परमाणुवाद, दिवाकर अभिनन्दन ग्रन्थ, १९७६ 'जैनदर्शनका तात्त्विक पक्ष : परमाणुवाद', जैनदर्शन और संस्कृतिआधुनिक सन्दर्भ में, लेखांक ४, इन्दौर विश्वविद्यालय, इन्दौर, १९७६ जैन थ्योरी आव आल्टीमेट पार्टीकल्स, वही, लेखांक ५, इन्दौर, १९७६ - ४६८ - Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनविद्याओमें शोधके क्षितिज जीवविज्ञान डा० कल्पना जैन, भिण्ड (म०प्र०) लोढ़ा,' सिकदर और जैन के विवरणात्मक तथा समीक्षात्मक लेखोंसे पता चलता है कि जैन आगमों एवं अन्य ग्रंथोंमें अजीव पदार्थों के समान जीवित पदार्थोंपर भी पर्याप्त सामग्री मिलती है । जैनने आगम वणित जीवकी परिभाषाकी समीक्षा करते हुये बताया है कि जीव दो प्रकारके गुणोंसे अभिलक्षित किया गया है । पौद्गलिक रूपमें उसमें असंख्यात प्रदेशिकता, गतिशीलता, परिवर्तनशीलता, देहपरिमाणकता, प्राणापान, कर्मबन्ध एवं नानात्व पाया जाता है। अभौतिकरूपमें उसमें अविनाशित्व, अमूर्तत्व एवं चैतन्य (संवेदनशीलता) होती है। भावप्राभृतमें इसे रंगहीन, स्वादहीन, गंधहीन, अनिश्चित आकार, अलिंगी एवं ज्ञानेन्द्रियोंसे अगम्य बताया गया है । इसके आठ अलौकिक गुणोंमें केवल ज्ञान, केवल दर्शन, अनन्तवीर्य व सम्यक्त्वके अतिरिक्त सूक्ष्मता, अव्याबाधता, अवगाहन क्षमता, तथा अणुकलघुत्वके समान गुण भी समाहित हैं। भगवतीसूत्रमें जीवके २३ नामोंका उल्लेख है जिनका भौतिक अभौतिक गणों वर्गीकरण किया जा सकता है। सारणी १ से पता चलता है कि जीवके अधिकांश लक्षण भौतिक प्रकृतिके हैं । वस्तुतः जिन लक्षणोंको अभौतिक श्रेणीमें बताया गया है, वे भी भौतिकताकी धारणासे स्पष्ट किये जा सकते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि ये शरीरी जीवके विभिन्न कार्यों एवं स्थूल गुणोंको ही निरूपित करते है। इसमें मनोरंजक तथ्य यह है कि इन लक्षणोंमें अमूर्तताका गुण कहीं समाहित नहीं है । लगता है कि यह तो उत्तरवर्ती विकास है। साथ ही, कुन्दकुन्द और उमास्वातिके समयमें उपलब्ध आगमोंकी प्रामाणिकता निर्विवाद रही है। (यह सर्वार्थसिद्धिके विवरणसे भी पुष्ट होती है)। तब यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जीवके २३ लक्षणोंमें से केवल 'उपयोगोलक्षणम्' ही क्यों उत्तरकालमें मुख्य लक्षण माना जाने लगा? विद्वानोंको इस विषयमें अनुशीलन करनेकी आवश्यकता है। आधुनिक विज्ञानकी दृष्टिसे उपयोगके ज्ञान दर्शनात्मक रूपोंको संवेदनशीलताकी विभिन्न कोटियोंके रूपमें माना जा सकता है जिसकी भौतिक व्याख्या की जा सकती है। इस आधारपर आजका विज्ञान जीवनको भौतिक ही प्रदर्शित करता दिखता है । पर वह जीवनके मूल लक्षणको अभौतिक माननेके विषयमें मौन है। एक ओर जहाँ आधुनिक युगमें परखनलीमें सजा १. जैन, नन्दलाल : अ-जीव और जीवविज्ञान, वल्लभशताब्दी स्मारिका, १९७० । ब-वोटेनिकल कन्टेन्टस इन जैन कैनन्स, दिवाकर अभि० ग्रन्थ, १९७६ । स-जओलोजिकल कन्टेन्टस इन जैन कैनन्स, पूर्वोक्त, १९७६ । २. लोढ़ा, कन्हैयालाल : जैन आगमोंमें वनस्पतिविज्ञान, मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रंथ, १९६८ । ३. सिकदर, जे०सी० : अ-फैब्रिक आव लाइफ एज कंसीब्ड इन जैन बायोलोजी, सम्बोधि,३,१,१९७४ ब-ए सर्वे आव प्लान्ट एण्ड एनीमलकिंगडम् पूज रिवील्ड इन जैन बायोलोजी १-२, जबलपुर वि० वि० व्याख्यानमाला १९७६ । -४६९ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणी १. जीवके गुणोंका वर्गीकरण भौतिक लक्षण अभौतिक लक्षण १. प्राणवान् (श्वासोच्छ्वासादि) १. प्राणवान (जीव, अदृश्यशक्ति) २. अस्तिकायत्व १८. भूतत्व (अनादि, अनन्त, आविनाशी) ३. जीव (आयुष्य) ५. विज्ञ (संवेदनशीलता?) ४. सत्व (समर्थ) १९. वेद (अनुभूति) ५. विज्ञ (संवेदनशीलता) २०. मानव (अनादि) ६. चेता (पुद्गल चयकारी) २१. स्वयंभूत ७. जेता (पुद्गल क्षयकारी) २२. अन्तरात्मा (अन्तः शरीरी) ८. आत्या (सततगामी) ९. हिंडुक (गमनशील) १०. पुद्गल (पूरण-गलन) ११. कर्ता १२. विकर्ता (कर्मवेध) १३. जगत (गतिशील) १४. जन्तु (जन्मवान्) १५. योनि (प्रजननक्षमता) १६. सशरीरी (शरीर धारक) १७. नायक (कर्मनेता) १८. रंजण (रागद्वेष आदि) जीवनके उदयसे चैतन्यकी भौतिकता पर सहसा अविश्वास नहीं हो पाता, वहीं अनेकों द्वारा पूर्वजन्मको घटनाओंकी स्मृति तथा मृत व्यक्तियोंकी आत्माओंसे सम्पर्ककी प्रक्रिया जीवनतत्वको अभौतिकताको प्रकट करती दिखती है। वस्तुतः बीसवीं सदीमें मानव दिग्भ्रमित है-जीवनके जीवन-तत्वकी यथार्थ प्रकृति क्या है ? फिर भी, यह माना जा सकता है कि वर्तमान विज्ञानकी जीवन तत्व विषयक मान्यतायें आगम युगीन मान्यताओंको पुष्ट करती हैं जहाँ इन्द्रिय अगम्यता एवं अमूर्ततामें स्पष्ट अन्तर परिलक्षित है । जैनने अपने शोध पत्रोंमें प्रदर्शित किया है कि जीवनतत्वको वर्तमान जीव केशिकाओंकी अपेक्षा सूक्ष्म ऊर्जात्मक मानने पर भी उनकी भौतिकता ही पुष्ट होती है क्योंकि ऊर्जायें भी जैनागमोंमें कणमय मानी गई है । कण और ऊर्जाके अतिरिक्त किसी अभौतिक पदार्थको विज्ञान अभी मान्यता नहीं दे पा रहा है । इसके लिए कुछ और ठोस प्रमाणोंको आवश्यकता है। इस प्रकार जीवनके मूल तत्वकी समीक्षा अभी भी एक जटिलतर प्रश्न बना हुआ है । सिकदरने अपने लेखमें जीवनके आविर्भाव और संचलनमें कारणीभत आगमोक्त पर्याप्ति और प्राणोंको जीवन शक्तिके रूपमें बताया है। यह उचित नहीं प्रतीत होता, क्योंकि पर्याप्तियोंके विकाससे जीवनके जो लक्षण प्रकट होते है, वे प्राण कहलाते हैं। पर्याप्तियाँ तो प्रायः सभी स्थूल रूपमें प्रकट होती है और उनके विकासमें सूर्यकी तथा शरीरकी स्वयंकी ऊष्मा एवं अन्तःस्थित किण्वोंकी क्रियायें ही कारण होती हैं, यह अब स्पष्ट हो चुका है। हाँ, कर्मसिद्धान्तके अनुसार यह माना जा सकता है कि ये पर्याप्तियाँ -४७० Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट नाम कर्मोदयके कारण प्रकट होती हैं। इस कर्मक ही शक्ति माना जा सकता है। इस शक्तिके कारण ही विविध प्रकारके प्राणात्मक कार्य सम्पन्न होते हैं। पर प्राण और पर्याप्तियोंकी पौद्गलिकता या पुद्गलकार्यता प्रत्यक्ष है। इस प्रकार आगमकालके जीवका लक्षण उत्तरवर्ती बीचके अमूर्त लक्षणसे विलक्षण प्रतीत होता है। संभवतः ये जीवके औपाधिक लक्षण हैं। फलतः सभी तत्वोंके मूलभूत तत्वकी परिभाषाके विकास पर और उसकी अविसंवादी परिभाषाके लिए शोधकी पर्याप्त संभावनाएं हैं। वर्तमान में तो यही कहा जा सकता है कि आगमोंमें मूलतः जीवको अभौतिक माना गया है जिसका स्वरूप स्वानुभतिके सिवा प्रयोग और तर्कोसे जानना सम्भव नहीं है। हाँ, रूसी वैज्ञानिक पावलोवके कुछ प्रयोग अवश्य इस दिशामें कुछ नया प्रकाश देते दिखते हैं। विभिन्न प्रकारके संसारी जीवोंकी उत्पत्ति सामान्यतः गर्भज (जरायुज, अंडज और पोतज) तथा सम्मूच्र्छनज होती है। इसमें गर्भज उत्पत्तिको तो जीवसे जीवकी सलिंगी उत्पत्तिके रूपमें लिया जा सकता है । सम्मूर्च्छनज उत्पत्तिको अजीवसे जीवकी उत्पत्तिके रूपमें लिया जा सकता है। प्राचीनकालमें जोवोत्पत्तिके दोनों ही सिद्धान्त प्रचलित रहे हैं । अरस्तु तो अजीवसे जीवकी उत्पत्तिके सिद्धान्तको मानता था। यह सम्मूर्छनज उत्पत्ति एक कोशिकीय जीवोंके लिए सत्य है पर बहुकोशिकीय एवं एकाधिक इन्द्रियके जीवोंपर लागू नहीं होती । फलतः विकलेनिय जीवोंको उत्पत्ति गर्भज मानी जानी चाहिये । इनका वेद वेद और स्त्रीवेद भी हो सकता है, मात्र नपुंसक नहीं। एतद्विषयक शास्त्रीय मान्यता पर पुनर्विचार करनेका जैनने संकेत दिया है। यही नहीं, अब तो बहतेरे वनस्पतियोंका भी सलिंगी तथा वैक्टीरिया आदिको अलिंगी उत्पत्तिका ज्ञान हुआ है। फलतः गर्भज उत्पत्तिको सलिंगी और अलिंगी-दो प्रकारका मानना चाहिये । इसके अनेक उदाहरण लोढ़ाने दिये हैं। विभिन्न प्रकारके जीवोंको जैन शास्त्रोंमें अनेक प्रकारके वर्गीकृत किया गया है। संसारी जीवोंका ज्ञानेन्द्रियाधारित वर्गीकरण उनकी अपनी विशेषता है। मनुस्मृतिमें यह वर्गीकरण उत्पत्ति स्रोत पर आधारित है । लेकिन यहाँ एक बात माननीय है कि क्या मन छठी इन्द्रिय है या इसे अनिन्द्रिय ही माना जावे ? तामिल व्याकरणके पाँचवीं सदीके ठोलक कप्पियं नामक ग्रन्थमें पाँचके बदले छः इन्द्रियोंका उल्लेख हैं जिनमें मन छठी इन्द्रिय है। वहाँ केवल मनुष्योंमें ही यह छठी इन्द्रिय मानी गई है। वस्तुतः द्रव्यमनके रूपमें मनको भी इन्द्रिय माना जा सकता है पर इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। यह भी एक शोधका विषय हो सकता है कि मनका इन्द्रियत्व कब प्रचलित था और कब वह अनिन्द्रियकी कोटिमें आ गया। पंचेन्द्रियोंके क्रमिक विकासके आधारपर जीवोंको पाँच प्रकारका बताया गया है। जीवाभिगममें इन्हें ही दो से लेकर बत्तीस प्रकारका निरूपित किया गया है। एकेन्द्रिय जीवोंकी स्थावर तथा एकाधिक पंचेन्द्रिय जीवोंको त्रस कहा गया है । उन्हें निम्न प्रकारसे उदाहरित किया गया है : एकेन्द्रिय, जीव, स्थावर पृथ्वी जल, तेज, वायु और वनस्पति । इन्द्रिय जीव त्रस कृमि (गोबर और पेटके जीव), जलौका, शंख, आदि ३० प्रकारके जीव । त्रि-इन्द्रिय जीव चींटी, जुआँ, पिपीलका, कनखजूरा, आदि ३९ प्रकारके जीव । ४. नायर बी० के० : क्लासीफिकेशन आव ऐनीमल्स इन ठोलकप्पियम, विश्वभारती सोमिनार, दिल्ली, १९७४ । -- ४७१ - Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकेन्द्रिय, जीव, चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय जीव जीव स्थावर, पृथ्वी, 11 तेज, जल, वायु और वनस्पति । भौंरा, बिच्छू, मच्छर, मधुमक्खी, मकड़ी, मक्खी आदि ३९ प्रकारके जीव । नारक, तिर्यञ्च मनुष्य, देव इनमेंसे प्रत्येकके अनेक भेद वर्णित हैं । एकेन्द्रिय जीव : - यद्यपि जीवभिगममें एकेन्द्रिय स्थावर जीवोंके तीन ही भेद किये हैं- पृथ्वी कायिक, जल कायिक और वनस्पति कायिक, पर उत्तरवर्ती समय में इनमें तेज और वायुकायिक और जोड़े गये जिन्हें पूर्व में त्रस माना जाता रहा है क्योंकि ये गतिशील हैं । यद्यपि आधुनिक वैज्ञानी यह नहीं मानते हैं कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु स्वयं सजीव हैं, पर इनमें अनेक प्रकारके जीव रहते हैं, यह प्रत्यक्ष सिद्ध है । शास्त्रोंमें इन्हें चार प्रकारका बताया गया है जिनमेंसे केवल एक ही भेद है जो सजीव है, पर उसमें पृथ्वीत्व नहीं है । उसे पृथ्वीत्व ग्रहण करना है । इसी प्रकार जलादिकी भी स्थिति है । फलतः उपलब्ध पृथ्वी, जल, तेज और वायु आगमत: भी निर्जीव हैं, ऐसा माना जा सकता है । लेकिन आगमोंमें इनकी प्राकृतिक उत्पत्ति एवं शास्त्र अनुपहतताकी स्थितिको इनकी सजीवता माना है । फलतः इन चार भूतोंकी सजीवता सुव्याख्यात नहीं प्रतीत होती । विद्वानोंकी गहनतासे इस तथ्य की छानबीन करनी चाहिये । पर यह सही है कि इन भूतोंकी सजीवताकी बात जैनोंकी अपनी विशिष्टता है । लोढ़ाने वनस्पति कायोंकी आगमोक्त सजीवताको आधुनिक वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में अच्छी तरह समीक्षित किया है । सिकदर ने भी अपने लेखमें पर्याप्तियों को वर्तमान प्रोटोप्लाज्मके समकक्ष मानकर वनस्पतियोंके अनेक आगमोक्त वर्णनोंको बीसवीं सदी के सैद्धान्तिक निरूपणोंसे जोड़नेकी खींचतान की है । लेकिन जैन ने बताया है कि सभी वर्णन पूर्व यंत्र युगीन हैं । जैन ग्रंथोंमें वनस्पतियोंसे सम्बन्धित विविध वर्णन मुख्यतः तीन कोटियोंमें केन्द्रित किये जा सकते हैं - शरीर, आकार और वर्गीकरण । वनस्पतियोंकी कोशिकी, पर्यावरणिकी एवं शरीर क्रिया-विज्ञान आदि पर वर्णन नगण्य है । लोढ़ा और सिकदरने इन विषयोंके कुछ उद्धरण दिये हैं जो आगम युगके प्रकृति निरीक्षण के स्थूल रूपको ही प्रकट करते हैं । इनकी सूक्ष्मता तथा भाषनीयता अब बहुत हो गई है। इन नये विवरणोंके समावेशकी प्रक्रिया एक विचारणीय विषय । वनस्पतियोंके आगमोक्त वर्गीकरण पर विचार करते हुये जैनने बताया है कि उपयोगितावादी वर्गीकरण न होकर प्राकृतिक गुणों या समानताओं तथा विकास वाद पर आधारित है । सर्वप्रथम उन्हें साधारण (अनंत काय ) और प्रत्येकके रूपमें वर्गीकृत किया गया है । साधारण सूक्ष्म और बादर दो प्रकारके होते हैं । इन्हें निगोद भी कहते हैं । प्रत्येक जीव बादर ही होते है जो सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित के भेदसे दो प्रकारके होते हैं । प्रत्येक जीव प्रारम्भमें अप्रतिष्ठित ही होता है और बादमें सप्रतिष्ठित हो जाता है । सूक्ष्म साधारण जीव गोलाकार और अदृश्य होते हैं और ये स्थूल साधारण जीवोंमें उत्परिवर्तित हो सकते हैं । वे अलिंगी होते । ये प्रत्येक कोटिके जीवोंकी उत्पत्तिमें भी कारण होते हैं । जीवन में सबसे प्रारम्भिक रूप है । लोढ़ाने बताया है कि सूक्ष्म साधारण जीवोंको आधुनिक वेक्टीरियाके समकक्ष माना जा सकता है । ये स्वजीवी भी होते हैं और परजीवी भी होते हैं । इन्हें सूक्ष्मदर्शियोंसे ही देखा जा सकता है । बादर साधारण जीवोंमें अनेक सूक्ष्म साधारण जीव होते हैं । प्रज्ञापनामें इनके ५० प्रकार बताये गये हैं । इनमें फँफूदी, काई, शैवाल, किण्व आदि भी समाहित हैं । जिन्हें आजकल ऐलगे, फंजस, वायरस आदि = ४७२ - Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामोंसे कहा जाता है। यदि सूक्ष्म साधारण जीवको एक कोशिकीयके समकक्ष माना जाय, तो बादर साधारण और प्रत्येक जीव बहकोशिकीय वनस्पति ठहरते हैं। प्रत्येक जीवोंके भी विभिन्न प्रकारसे ३३० भेद बताये गये हैं जिन्हें जैनसे सारणीबद्ध किया है। शास्त्रोंमें बताया गया है कि इन सभी साधारण वनस्पतियोंके चौदह लाख और प्रत्येक वनस्पतियोंके १० स्पीशीज होते हैं। इस प्रकार वनस्पतियोंके कुल चौबीस लाख स्पीशीज होते हैं। इनके कुलोंकी संख्या १०१३ बताई गई है । वर्तमानमें वनस्पति शास्त्रियोंके लिये तो ये सूचनायें अतिशयतः अतिरंजित प्रतीत होती हैं । हाँ, वे इनके विविध आकार व विस्तारके विवरणसे सहमत हैं । लेकिन वे इनकी अन्तर्मुहूर्तकी जघन्य आयुकी सीमा पर वे मौन दिखते हैं । यद्यपि वनस्पति जीव एकेन्द्रिय होते हैं, फिर भी सत्प्ररूणा सूत्रके अनुसार उन्हें अन्य इन्द्रियोंके भी संवेदन होते हैं जो वे अपनी स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा ही ग्रहण करते हैं। हाल्डेनने बताया है कि वनस्पतियोंमें सभी इन्द्रियाँ होती हैं । आगमकी भाषामें इन्हें भावेन्द्रियोंके रूपमें ही मानना चाहिये क्योंकि वनस्पतियोंमें अन्य इन्द्रियाँ भौतिक रूपसे विकसित पाई जातीं। वनस्पतियोंके सम्बन्धमें आगमोंमें वर्णन अनेकत्र विखरा हुआ है और उपरोक्त संक्षेपणों और समीक्षणोंको पूर्ण नहीं माना जाना चाहिये। इस बातकी आवश्यकता है कि शोधार्थी स भी आगमिक स्रोतों से इनका पूर्ण संकलन करें। तभी समीचीन समीक्षा एवं तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है। द्विन्द्रियक जीव :-गतिशील जीवोंको त्रस कहा गया है। आजकी भाषामें इन्हें गतिशील प्राणी कहा जाता है। यद्यपि प्राण वनस्पतियोंमें भी होते हैं, फिर भी प्राणि शब्द उच्चतर जीवोंके लिये रूढ़ हो गया है। जैन ग्रन्थोंमें प्राविधोंके सम्बन्धमें उपलब्ध विवरणोंका आंशिक संकलन और समीक्षण जैन और सिकदर ने किया है। ओ० पी० जग्गीने बताया है कि त्रसोंका इन्द्रिय विकास पर आधारित वर्गीकरण चरक, सुश्रुत, प्रशस्तपाद और अरस्तूके वर्गीकरणसे अधिक मौलिक और व्यापक है। सिकदरने इस वर्गीकरणका संक्षेपन किया है। त्रसोंके मुख्य चार भेद माने गये हैं-द्वि-इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । संघवीने अपनी व्याख्यामें बताया है कि ये भेद मुख्यतः द्रव्येन्द्रिय पर आधारित है क्योंकि सभी जीवोंमें पाँचों ही भावेन्द्रियाँ होती हैं। लेकिन सिद्धान्तशास्त्रीने इन भेदोंको भावेन्द्रियाधारित बताया है जो समुचित प्रतीत नहीं होता। सभी द्वि-इन्द्रिय, त्रि-इन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय जीवोंको मनरहित तथा अलिगी बताया गया है। इन्हें नपुंसक लिंगी माना जाता है। पंचेन्द्रिय जीवोंमें कुछको मनरहित तथा अलिंगी बताया गया है । अन्योंको मनसहित तथा सलिंगी बताया गया है। प्रज्ञापना और जीवविचार प्रकरण पर आधारित अपनी तुलनात्मक सारणीमें जैनने आधुनिक प्राणिवैज्ञानिक मान्यताओंके साथ जैन ग्रन्थोंमें वणित प्राणिविज्ञानका संक्षेपण किया है और बताया है कि शास्त्रीय विवरणके १७ बिन्दुओंमेंसे १ बिन्दुओंका मिलान नहीं होता। उदाहरणार्थ, आधुनिक प्राणिविज्ञान सभी त्रसोंमें द्रव्यमनकी उपस्थिति मानते हैं, उनकी सलिंगी उत्पत्ति मानते हैं, उन्हें तीनों वेदका मानते हैं और उनकी संख्या काफी कम मानते हैं । यही नहीं, अनेक उदाहरणोंमें जीवोंकी इन्द्रियाँ शास्त्रीय मान्यताओंसे अधिक पाई गई हैं । इन चाक्षुष अन्तरों पर गंभीरतासे विचार करने की आवश्यकता है । यही नहीं, प्राणिविज्ञान सम्बन्धी अध्ययनके अनेक क्षेत्रोंमें शास्त्रीय विवरण नगण्य ही मिलता है। सिकदरने अपने विवरण में इस ओर ध्यान नहीं दिलाया है । इसके बावजूद भी, यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि जैनाचार्योंने अपने परीक्षणकी परिधिमें सूक्ष्म और बाहर सभी प्रकारकी त्रसोंकी ४७० जातियोंको समाहित किया है जैसा सारिणी २ से प्रकट होता है । इस प्रकारका वर्गीकृत विवरण अन्य दर्शनोंमें उपलब्ध नहीं होता । ६० | Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणी २. विभिन्न प्रकारके सोंका विवरण उदाहरण शंख, गोंच, विभिन्न प्रकारके कृमि कोटि द्वि-इन्द्रिय त्रि-न्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय तियंच (अ) जलचर (ब) थलचर (स) नभचर (पक्षी) चींटी, इल्ली, कनखजूरा, जुआँ पशु आदि । मक्खी, टिड्डी, भ्रमर, मच्छर, पतंगा, तितली आदि पंचेन्द्रिय मनुष्य ( अ ) सम्मूर्च्छन (ब) गर्भज मनुष्य अन्तद्विपी कर्मभूमि आर्य म्लेच्छ भोगभूमिज प्रज्ञापनां ३० ३९ ३८ ५ (३३) २ (३५) ४ (४६) १४ २८ ८९ ५६ २ ४७० - ४७४ - जाति जीव विचार प्रकरण १२ १२ १० ५ ३ लिंग अलिंगी "1 अलिंगी और सलिंगी 17 22 इससे ज्ञात होता है कि जैनाचार्य अध्यात्मके क्षेत्रमें जितने अग्रणी रहे हैं, उतने ही वे प्रकृति निरीक्षण एवं सैद्धान्ति विचारोंके क्षेत्रमें भी अपने समय में अग्रणी रहे हैं । जैनने इन प्रकरणोंमें अनेक विसंग तियोंकी ओर संकेत देते हुये बताया है कि आगमोंमें अनेक वर्तमान सूक्ष्मतर निरीक्षणोंके निरूपण न करनेका कारण सम्भवतः यन्त्रोंका अभाव तथा अहिंसाका सिद्धान्त रहा होगा । वनस्पति विज्ञानके समान प्राणिविज्ञानके तत्व भी अनेक आगम ग्रन्थोंमें विखरे पड़े हैं । उनका अभी पूरा संकलन नहीं हो पाया है। ये प्रकरण श्वेताम्बर मान्य ग्रन्थोंमें पर्याप्त मात्रामें पाये जाते हैं । अलिंगी सलिंगी "" Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली शोध संस्थानमें शोधके क्षितिज डा० लालचन्द्र जैन, वैशाली शोधसंस्थान, वैशाली बिहार में उद्भुत तथा विकसित प्राचीन विद्या, संस्कृति और साहित्यके उन्नयन, पुनरुद्धार और प्राचीन गौरवको पुनरुन्नति करनेके उद्देश्यसे बिहार सरकारने दरभंगा, नालन्दा, मिथिला, वैशाली और पटनामें अनेक शोध संस्थानोंकी स्थापना की। इनमें जैनविधाओंके अध्ययनसे सम्बन्धित प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान वैशाली भी एक है। प्रस्तुत शोध संस्थान तत्कालीन शिक्षासचिव तथा प्रमुख शिक्षाविद् स्वर्गीय श्री जगदीश चन्द्र माथुर आई० सी० एस०के अथक परिश्रमका फल है जिन्होंने इसकी स्थापनामें प्रमुख भूमिका अदा की थी। मूलतः इसकी स्थापनाका श्रेय वैशाली महोत्सव और वैशालीसंघको है । इसने सर्वप्रथम १९५२ में जे० सी० माथुरके मंत्रित्वकालमें वैशालीमें प्राकृत जैन इन्ट्रीच्यूट खोलनेका प्रस्ताव पास कर राज्य सरकार और जैन समाजसे सहयोगका अनुरोध किया था। इस कार्य हेतु बिहारके प्रसिद्ध उद्योगपति तथा दानवीर साहू शांतिप्रसाद जैन द्वारा सवा छः लाख रुपये दान स्वरूप देनेकी घोषणाके पश्चात् १९५५ में बिहार सरकारने इस संस्थानको स्थापित करनेका अनुरोध अन्तिम रूपमें स्वीकार कर लिया। अन्ततोगत्वा २४ वर्ष पूर्व २३ अप्रैल १९५६ वी०नि०सं० २४८२ (वि०सं० २०१२) चैत्र शुक्ल त्रयोदशी सोमवारको जैनोंके अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीरके जन्म स्थान वासोकुण्डमें इसका शिलान्यास तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसादके करकमलों द्वारा किया गया। प्राकृत और जैनशास्त्रके कृत-मनीषी डा. हीरालाल जैन इस संस्थानके प्रथम निर्देशक हुये। फरवरी १९६५ तक इस संस्थानका प्रमुख कार्यालय मुजफ्फरपुरमें किरायेके भवनमें संचालित होता रहा । इसके बाद बासोकुण्डके निवासियों द्वारा इस संस्थानके लिए लगभग तेरह एकड़ भूमि राज्य सरकारको दान स्वरूप दी गई। साहू शान्तिप्रसादजीके परम सहयोगसे संस्थानके मुख्य भवनका निर्माण हो जानेपर मार्च १९६५ में प्राकृत विद्यापीठका कार्यालय स्थाई रूपसे वैशाली, वासोकुण्डमें आ गया। प्राकृत विद्यापीठ स्थापित करनेका औचित्य . वैशाली प्राकृत विद्यापीठकी स्थापना अनेक कारणोंसे की गई। [क] संस्कृत और पालि भाषाकी तरह प्राकत भाषा साहित्यमें भी काव्यकला. ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, इतिहास. सामाजिक तथा सांस्कतिक सामग्री प्रचुर मात्रामें विद्यमान है। फिर भी, १९५२ तक इस ओर विद्वानोंका ध्यान नगण्य ही था। यद्यपि इस समय तक डा० याकोबी, बूलर, पिशल, विण्टरनित्ज, जैनी, पी० सी० नाहर, पं० सुखलाल संघवी, पं० बेचरदास, मुनि जिनविजय, प्रो० के०सी० भट्टाचार्य, डा. सत्करी मुकर्जी, पी० एल० वैद्या, डा० हीरालाल जैन तथा डा० ए०एन० उपाध्येके समान कुछ प्राच्यविदोंने इस क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक अध्ययन किये, तथापि इनकी ओर उदीयमान प्रतिभाओंका ध्यान आकृष्ट नहीं होता था। साथ ही, अनेक संस्थाओंसे जैन विद्या परम्परागत विद्यार्थी निकलते थे जो उच्चतर अध्ययनमें रुचि रखते थे। उनके लिए कोई शोध सुविधा सम्पन्न स्थान भी नहीं था। प्राकृत भाषा सम्बन्धी अध्ययन या शोधकी ... - ४७५ - Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविधा किसी विश्वविद्यालय में भी उपलब्ध नहीं थी । वस्तुतः इस क्षेत्रमें कार्य करनेके लिए विद्वानोंको समुचित व्यवस्था की आवश्यकता होती है जहाँपर विद्यार्थी अध्ययन और शोध कर सकें और प्राचीन एवं आधुनिक विद्वानोंसे सम्बन्ध रख सकें । समयकी इस महत्वपूर्ण आवश्यकताको ध्यान में रखकर इस संस्थाकी स्थापना की गई । प्राकृत शोध संस्थानके विभाग उपर्युक्त लोक-कल्याणकी भावनासे स्थापित प्राकृत शोध संस्थान के कार्यका वर्गीकरण तीन भागों मैं किया जा सकता है : [१] उच्च अध्ययन—प्राकृत एवं जैन शास्त्र के उच्च अध्ययन हेतु इस संस्थामें स्नाकोत्तर स्तरपर साहित्य, जैन दर्शन, जैन तर्कशास्त्र, ज्ञान मीमांसा तथा तुलनात्मक दर्शन में द्विवर्षीय एम०ए० के पाठ्यक्रमकी व्यवस्था की गई है । विद्यार्थीको यह स्वतंत्रता रहती है कि उसकी जिस विषयमें रुचि हो उसीके अनुरूप अपना अध्ययन करे । यह संस्थान अपने पाठ्यक्रम और शोध कार्यके लिए बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुरसे सम्बन्ध है । सन् १९५८ से ७६ तक इस संस्थासे कुल ८८ छात्रोंने प्राकृत जैनालाजीकी एम०ए० परीक्षा उत्तीर्ण की । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त सभी छात्रोंने साहित्य विषय लेकर ही एम०ए० किया है । उत्तरवर्ती वर्षोंमें लगभग एक दर्जन छात्रोंने और एम०ए० किया है। इनमेंसे अनेक स्नातक देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों और महाविद्यालयोंमें कार्य कर रहे हैं और प्राकृत एवं जैन विद्याओं की सेवा कर रहे हैं । इस संस्थाके कुछ विश्रुत स्नातकोंके नाम यहाँ देना उपयुक्त ही होगा : डॉ० नगेन्द्रप्रसाद, प्रोफेसर तथा निर्देशक वैशाली शोध संस्थान, वैशाली । डॉ विमलप्रकाश जैन, महामंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली । डॉ० राजाराम जैन, रीडर, एच०डी० जैन कालेज, आरा (बिहार) डॉ० देवनारायण शर्मा, व्याख्याता, वैशाली शोध संस्थान । डॉ० रामप्रसाद पोद्दार, I डॉ० लालचन्द्र जैन, I डॉ० राय अश्विनी कुमार, प्राकृत विभाग, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया । डॉ० अजितशुकदेव शर्मा, व्याख्याता, जैन दर्शन, विश्वभारती, शान्तिनिकेतन । डॉ० नन्दकिशोर प्रसाद, पालि शोध संस्थान, नालन्दा । 21 #3 डॉ० दामोदर शास्त्री, अध्यक्ष, जैन दर्शन, लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ, दिल्ली । डॉ० श्री रंजनसूरि देव, बिहार राष्ट्र भाषा परिषद, पटना (बिहार ) । डॉ० ए०पी० सिन्हा, पटियाला विश्वविद्यालय । डॉ० अर्हद्वास दिगे, मैसूर विश्वविद्यालय । डॉ० प्रेमसुमन जैन, रीडर, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर । डॉ० गोकुलचन्द जैन, रीडर, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी । डॉ० एस०एम० शाह, पूना विश्वविद्यालय । इस लघु सूचीसे यह स्पष्ट होता है कि यहाँके स्नातक देशके विभिन्न भागों में इस संस्थानको गौरवान्वित कर रहे हैं । - ४७६ - Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. शोध विभाग - इस संस्थाका दूसरा महत्त्वपूर्ण विभाग शोध विभाग है । इस विभाग में विभिन्न विश्वविद्यालयोंसे प्राकृत जैन शास्त्र, दर्शन, संस्कृत, प्राचीन इतिहास और संस्कृति, संस्कृत और पालि विषय में स्नातकोत्तर परीक्षा पास छात्रोंको पी-एच०डी० हेतु शोध छात्रके रूपमें प्रवेश दिया जाता है । शोधार्थियोंके लिए यह आवश्यक होता है कि वे प्राकृत जैन भाषा शास्त्र से सम्बन्धित विषय ही अपने शोध प्रबन्धके लिए चुने । शोधार्थियों को संस्थानसे २०० रु० प्रतिमाहकी छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है । यहाँ उन्हें निःशुल्क छात्रावास, प्रकाश और पानीकी व्यवस्था भी उपलब्ध रहती है । इसके अतिरिक्त, शोध प्रबन्धको तैयार करने हेतु एक विशाल पुस्तकालय भी उपलब्ध है । शोध प्रबन्धके अनुमोदित होनेपर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर शोधार्थीको प्राकृत जैन शास्त्रमें पी-एच०डी० की उपाधि प्रदान करता है । प्राकृत जैनोलोजीसे सम्बन्धित विभिन्न विषयोंमें आजतक कुल पचास छात्रोंने पंजीयन कराया है । लेकिन अबतक उन्तीस शोध प्रज्ञोंने ही अपना शोधप्रबन्ध पूरा कर पी-एच०डी० उपाधि प्राप्त की है । इनका विवरण नीचे दिया जा रहा है । X Y * * १. डॉ० जोगेन्द्रचन्द्र सिकदार, स्टडीज इन दि भगवतीसूत्र, १९६९, प्रा०शो०सं०, वंशाली ( प्रकाशित ) २. डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, हरिभद्रके प्राकृत कथा साहित्यका आलोचनात्मक परिशीलन, १९६१, प्रा० शो० सं०, वैशाली द्वारा प्रकाशित । ३. रिखबचन्द्र : ए क्रिटिकल स्टडी आफ पउमचरियम्, १९६२, प्रा० शो० सं०, वैशाली द्वारा प्रकाशित । ४. डॉ० विद्यानाथ मिश्रा, प्राचीन हिन्दी काव्य में अहिंसाके तत्त्व, १९६३ अप्रकाशित । ५. डॉ० कामेश्वर प्रसाद, दि इकोनोमिक कंडीशन आफ इन्डिया एकोडिंग टू डेट एवेलेविल इन दि पालि केनोनीकल लिटरेचर १९६३ अप्रकाशित । ६. डॉ० देवनारायण शर्मा : पउमचरिउ और रामचरित मानसका तुलनात्मक अध्ययन, १९६३, प्रा० शो० सं० वैशाली (प्रेस में) : ७. डॉ० कृष्णकुमार दीक्षित, इण्डियन लौजिक इट्स प्रोवेलेम्स एज ट्रीटेड बाई इट्स स्कूल्स, १९६४ प्रा० शो० सं० वैशाली द्वारा प्रकाशित । ८. डॉ० राजाराम जैन ए क्रिटिकल स्टडी आफ दि वर्क्स आफ महाकवि रइधू, १९६४, प्रा० शो० सं०, वैगाली द्वारा प्रकाशित । ९. डॉ० नन्दकिशोर प्रसाद ए कम्पेरेटिव स्टडो आफ बुद्धिस्ट (थेरवाद) विनय एण्ड जैन आचार, १९६४, प्रा० शो० सं०, वैशाली द्वारा प्रकाशित । १०. डॉ० किशोरनाथ झा : प्रोवलेम आफ थीजम इन न्याय फिलोसफी विथ स्पेशल रिफेरेन्स टू दि वर्क आफ ज्ञानश्रीमिश्र, १९६५, अप्रकाशित । ११. डॉ० अतुलनाथ सिन्हा, एतेलिटिकल स्टडी आफ दि नेतिप्रकरण, १९६५, अप्रकाशित । १२. डा० नरेन्द्रप्रसाद वर्मा : अपभ्रंशके स्फुट साहित्यिक मुक्तक. १९६५, अप्रकाशित | १३. डॉ० रामकृपाल सिन्हा दि वेकग्राउण्ड आफ गान्धीयन नन-वाइलेन्स एण्ड इट्स इपेक्ट आन इण्डियास नेशनल स्ट्रगल, १९६६, अप्रकाशित । - ४७७ - Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४. डॉ० ए० शर्मा : दि मेघदूत एज ए लाइरिक, १९६७, अप्रकाशित । ४१५. डा० जनार्दन शर्मा : शतपथ ब्राह्मणके अध्ययनके कुछ पहलू, १९६७, अप्रकाशित । १४. डॉ० जयदेव : रिलीजियस कण्डीशन आफ एन्सीएन्ट बिहार, १९६७, अप्रकाशित। १७. डॉ० सूर्यदेव पाण्डेय : जयसेनके हरिवंशपुराणका आलोचनात्मक अध्ययन, १९६७, अप्रकाशित । १८. डॉ० छगनलाल शास्त्री : आचार्य भिक्षु और जैन दर्शनको उनकी देन, १९६८, अप्रकाशित । ४ १९. डॉ० सुधीरचन्द्र मजमदार : फोनेटिक चैन्जेज इन इनडोआर्यन लैंगवेज, १९६८, प्रा० शो० सं०, __ वैशाली द्वारा प्रकाशित । २०. डॉ० मुनेश्वर गिरि : प्रामाण्यवाद, १९७०, अप्रकाशित । २१. डॉ० रामप्रकाश पोद्दार : एन एसथेटिक एनलिसिस आफ कर्पूरमञ्जरी, १९७०, प्रकाशित । २२. डा० राय अश्विनीकुमार : जैन योग, १९७०, अप्रकाशित । ४ २३. डॉ० श्यामनन्दन चौधरी : महाभारतके शान्तिपर्वमें राजनीति, १९७०, अप्रकाशित । ४ २४. डॉ० राम सिंह : ओरिजिन एण्ड एवोलूशन ऑफ इण्डियन एथिक्स, ११७१, अप्रकाशित । ४ २५. डॉ० गौरीशंकर प्रसाद : दि गान्धीयन नन-वाइलेन्ट आइडीयलिज्म, १९७२, अप्रकाशित । २६. डॉ. जगदीश नारायण शर्मा : नियुक्ति, चूणि और टीकाके आधार पर आचारांगका परिशीलना त्मक अध्ययन, १९७३, अप्रकाशित । २७. डॉ० गुनकर झा : ए क्रिटिकल स्टडी आफ मीमांसा फिलासफी विथ स्पेशल रेफेरेन्स टु प्रभाकर एण्ड भट्ट स्कूल, १९७४, अप्रकाशित । २८. डॉ. योगेन्द्रप्रसाद सिन्हा : वज्जो भाषाके कतिपय शब्दोंका आलोचनात्मक अध्ययन, १९७५, अप्रकाशित । २९. डॉ० सुदर्शन मिश्र : महाकवि पुष्पदन्त और उनका पुराण, १९७९, अप्रकाशित । इस समय संस्थानमें लगभग बाइस शोधार्थी विभिन्न विषयोंपर अपना शोध प्रबन्ध तैयार कर रहे हैं : १. श्री बुधमल श्यामसुख-इलीमेन्ट्स आफ पैरासाइकोलोजी इन इण्डियन थाट । र २. ,, अशीमकुमार भट्टाचार्य-वार इन एन्सीएण्ट इण्डिया । ३. , श्रीकान्त त्यागी-सूत्रकृतांगका समीक्षात्मक अध्ययन । ४. ,, नागेन्द्र किशोर शाही-गौडवहोका आलोचनात्मक अध्ययन । ,, लक्ष्मीश्वरप्रसाद सिंह-भारतीय दर्शनमें कामतत्व एवं जैन परम्परा । ६. ,, इन्द्रदेव पाठक-जैनदर्शनका नयवाद एक मीमांसा, परीक्षणार्थ प्रस्तुत । ७. ,, थीच थीन क्वा-मैसेज आव पोयट्री विथ स्पेशल रेफेरेन्स टू सन्देसरासक, प्रस्तुत । ,, पी० सी० सिन्हा वाराही संहितामें वस्तुविद्या । ९. ,, राजकुमार पाठक-वसुदेवहिण्डी : एक आलोचनात्मक अध्ययन । १०. ,, शशिकुमार सिह-श्रमणधर्म और सामाजिक आचार । ११. ,, श्रीकृष्णदेव तिवारी : सददकका उदभव और विकास । १२ ,, डी० पी० पांड्या-सांख्य-योग एण्ड जैनीजम् : ए कम्पेरेटिव स्टडी। १३.,, अभयकुमार जैन-कार्तिकेयानुप्रेक्षाका तुलानात्मक अध्ययन । -४७८ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ १४. ,, योगेन्द्र शर्माः-अपभ्रंशके चरित काव्य । १५. ,, श्रीमती रामसेनही सिन्हा-आदिकवि वाल्मीकि और विमलका तुलनात्मक अध्ययन । , डी० पी० मिश्रा-सीतामढ़ी जिलेकी बोली। ४ १७. ,, एम० एस० प्रसाद सिंह-श्रमण और ब्राह्मण परम्पराओंमें आचारका स्वरूप । ,, महेश्वर प्रसाद सिंह-संस्कृत नाटकोंमें प्राकृत । १९. ,, योगेन्द्र प्रसाद सिन्हा-वज्जिकाकी धातुओं और क्रियाओंके रूपोंका अध्ययन (डी० लिट् हेतु) २०. ,, शशिभूषण प्रसाद सिंह-शब्दोंकी पौराणिक व्याख्यायें । । ___ उपरोक्त शोधार्थियोंके शोध विषयोंका अनुशीलन करने पर सारणी १ प्राप्त होती है । इससे स्पष्ट है कि प्रायः शोधार्थी ललित साहित्य पर ही शोध कर रहे हैं; दुस्तर साहित्य पर एक तिहाईसे भी कम सारणी १. वैशाली शोध संस्थानकी शोध दिशायें विषय शोधार्थी संख्या १. साहित्य २. न्याय या दर्शन ३. तुलनात्मक अध्ययन ४. भाषाविज्ञान ५. अर्थशास्त्र, राजनीति आदि विषय ५ योग ४९ कार्य हो रहा है। जैन विधाओं तथा प्राकृत भाषाओंके वैज्ञानिक विषयोंके ग्रन्थोंके आधुनिक रूपमें अध्ययन की नितान्त आवश्यकता है । लेकिन इस संस्थानसे इसके अनुरूप किसी भी विषय पर किसी शोधार्थीने कार्य किया प्रतीत नहीं होता । ऐसा प्रतीत होता है कि शोधार्थी बौद्धिक श्रमके बिना ही अपनी आजीविका योग्य उपाधि लेकर संतुष्ट हो जाते हैं। संस्थानके उद्देश्योंकी समुचित पूतिके लिये अनुसंधान विषयोंकी अधिक विविधता अपेक्षित है। संस्थान इस दिशामें प्रयत्नशील है। ३. पुस्तकालय : पुस्तकालय शोधका प्रमुख अंग होता है । इस दृष्टिमें संस्थानमें भी एक पुस्तकालय है । इसमें प्राकृत जैनशास्त्र, पालि और संस्कृतकी प्राचीन और नवीन पुस्तकोंके अलावा प्राचीन इतिहस, भारतीय और पाश्चात्य दर्शन, व्याकरण, शब्दकोष आदिसे सम्बन्धित लगभग १२१२९ ग्रन्थ है । संस्थानके विद्यार्थियोंके अतिरिक्त बाहरके शोध प्रज्ञ भी आकर इस पुस्तकालयका उपयोग करते हैं। दुर्भाग्यकी बात है कि इस पुस्तकालयमें हस्तलिखित ग्रंथोंका संग्रह नहीं किया जाता। ४. प्रकाशन विभाग : संस्थानमें एक स्वतंत्र प्रकाशन विभाग है। इस विभागका मुख्य लक्ष्य प्राचीन विद्याओं-विशेषकर जैन शास्त्र और प्राकृतके क्षेत्रमें तैयार किये गये उच्चस्तरीय शोध प्रबन्ध तथा प्राचीन अनुपलब्ध ग्रंथोंका सम्पादनकर उन्हें प्रकाशित करना है। प्रकाशन हेतु ग्रंथोंका चयन प्रकाशन समितिकी अनुशंसानुसार होता है । संस्थानके निर्देशक और तिरहुत कमिश्नरीके कमिश्नरके अतिरिक्त पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, पं० दलसुखभाई मालवणिया तथा लक्ष्मीचन्द्र जैन, इस समितिके सदस्य हैं । -४७९ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन कार्यके लिये बिहार सरकार प्रति वर्ष ८० हजार रुपयोंका अनुदान देती है । लेकिन विगत दो-तीन वर्षोंसे प्रकाशनकी सम्पूर्ण राशिका प्रत्यर्पण होता रहा है । फलतः अब सरकारने इस कार्यके लिये मात्र २० हजार रुपये अनुदान देना प्रारम्भ कर दिया है। गत २४ वर्षों में अभी तक केवल १७ पुस्तकोंका प्रकाशन हुआ है : स्टडीज इन दि भगवतीसूत्र, हरिभद्रके प्राकृत कथा साहित्यका आलोचनात्मक परिशीलन, सदुर्शनचरित, ए क्रिटिकल स्टडी आफ दि पउमचरिउ, अनुयोगद्वारका अंग्रेजी अनुवाद, प्राकृत प्रोज एण्ड पोयट्री सिलेक्सन, रइधू साहित्यका आलोचनात्मक परिशीलन, बुद्धिस्ट एण्ड जैन मोनोथिस्म, इण्डियन लॉजिक, एन इन्ट्रोडक्शन टू कर्पूरमंजरी, वैशाली रिसर्च इंस्टीच्यूट बुलेटिन, फोनेटिक 'चेन्जेज इन इण्डो आर्यन लैंगवेज, ए क्रिटिकल स्टडी आफ दी कुवलयमालाकहा, वैशाली रिसर्च बुलेटिन, रम्भामंजरी और द्रव्यपरीक्षा एवं धातुत्पत्ति । इस वर्ष प्रकाशन समितिने निम्न पुस्तकोंके प्रकाशनका निर्णय लिया है, इकोनामिक लाइफ इन एनसियन्ट इण्डिया एज डेपिकटेड इन जैन कैनोनिकल लिटरेचर, रूपककार हस्तिमलः एक समीक्षात्मक अध्ययन, पउमचरिउ और रामचरित मानस और प्राकृत-परिचय । मै आशा करता है कि भविष्यमें हमारे संस्थानमें शोधकी नई दिशायें भी विकसित होंगी और इसकी वर्तमान अपूर्णतायें पूर्ण होंगी। -४८० - Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि असग और उनकी कृतियाँ श्रीमती प्रतिभा जैन, आयुर्वेद महाविद्यालय, रीवाँ प्रतिभा और कल्पनाके धनी महाकवि असग संस्कृत साहित्यके जाज्वल्यामान रत्न हैं । वे मूलतः निवासी तथा कन्नड़ भाषाके प्रसिद्ध कवि रहे हैं । महाकविने वर्धमानचरितम् के अन्त में अपने द्वारा रचित आठ ग्रंथोंकी सूचना दी है। किन्तु उनकी नामावली अप्राप्त होनेके कारण उस विषयमें कुछ कहा नहीं जा सकता । आज उनके दो ग्रन्थ, एक महाकाव्य - वर्धमानचरितम्' तथा दूसरा पुराण - श्री शान्तिनाथ पुराण' उपलब्ध हैं । जयकीर्ति ( १००० ई० ) ने असग द्वारा रचित कर्णाटकुमारसम्भवका वर्णन किया है, किन्तु यह भी अप्राप्त है । शेष ग्रन्थ अभी भी अज्ञात हैं जो सम्भवतः कन्नड़ भाषाके होगें और दक्षिण भारत के किन्हीं भण्डारोंमें पड़े हों या नष्ट हो गये हों और भाषाकी विभिन्नतासे उनका उत्तर भारत में प्रचार नहीं हो रहा हो। अभी तक असगके ग्रन्थोंपर संस्कृतकी कोई टीका प्रकाशमें नहीं आई है । बी०बी० लोकापुर ने एक भोजपत्र प्राप्त किया है जिसमें वर्धमानपुराण पर कन्नड़ व्याख्यानका उल्लेख है । यह शब्दार्थ और अन्वयसे युक्त है जिसे मूल ग्रन्थको अच्छी तरह समझा जा सकता है। इसके अतिरिक्त, हेलेगी उपाध्याय परिवार में कन्नड़ व्याख्यासे युक्त वर्धमानपुराण उपलब्ध है । जीवन परिचय महाकविने वर्धमानचरितम् और शान्तिनाथपुराणकी प्रशस्तिमें अपना कुछ विशिष्ट परिचय दिया है । इससे इतना स्पष्ट होता है कि असगके पिताका नाम पटुमति और माताका नाम वैरेति था । उनके मातापिता मुनिभक्त थे । बाल्यकालमें उनका विद्याध्ययन मुनियोंके सानिध्य में हुआ । उन्होंने श्री नागनन्दी आचार्य और भावकीत मुनिराजके चरणोंमें शिक्षा पायी । कविने वर्धमानचरितम्की प्रशस्तिमें अपने पर ममताभाव प्रगट करने वाली सम्वत् श्राविकाका और शान्तिनाथपुराणकी प्रशस्ति में अपने मित्र जिनाप ब्राह्मणका उल्लेख किया है । अतः प्रतीत होता है कि दोनों ग्रंथोंके रचना कालमें महाकवि गृहस्थ ही थे, मुनि नहीं । इसके पश्चात् वे मुनि हुये या नहीं, इसका निर्देश नहीं मिलता है । महाकविने शान्तिनाथपुराण में रचना कालका उल्लेख नहीं किया है परन्तु वर्धमानचरितम् में संवत्सरे दशनवोत्तरवर्षयुक्ते श्लोक द्वारा उसका उल्लेख किया है । 'अंकानां वामतो गतिः' के सिद्धान्त के अनुसार दशनवका अर्थ ९१० होता है और उत्तरका अर्थ उत्तम भी होता है, अतः संवत्सरे दशनवोत्तरवर्षयुक्तेका अर्थ ९१० संख्यक उत्तमवर्षोंके युक्त सम्वत् होता है । अब विचारणीय यह है कि ९१० शक् सम्वत् है या विक्रम सम्वत् है । डा० ज्योति प्रसाद जैन इसे विक्रम सम्वत् ( ८५३ ई०) मानते क्योंकि १- २. श्री जीवराज जैन ग्रन्थमाला, शोलापुरने वर्धमानचरितम् और शान्तिनाथपुराण, हिन्दी अनुवादके साथ डा० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य के सम्पादन में प्रकाशित किया है । ३. डा० एन० एन० उपाध्ये, वर्धमानचरितम्की प्रस्तावना । ४. एच० डी० बेलनकार :- जिनरत्नकोष, पूना, १९४०, पृष्ठ ३३६, ३४०२, ३८१ । - ४८१ - ६१ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५० ई० के पास पंप, पोन्न, आदि कन्नड़ कवियोंने इनकी प्रशंसा की है। इसलिये इन्हें उनका पूर्ववर्ती होना चाहिये। इनके आश्रयदाता तमिल प्रदेश निवासी थे । सम्भवतया इन्होंने तत्कालीन पल्लव नरेश नन्दिवोतरसके चोलसामन्त श्रीनाथके आश्रयमें उनकी विरलानगरीमें आर्यनन्दीके वैराग्य पर वर्धमानच रचना की थी। इसी प्रकार शान्तिनाथपुराणकी रचना जिनाप ब्राह्मणके प्रबल आग्रह पर की गई। ऐसा प्रतीत होता है कि अनेक कन्नड़ लेखक महाकवि असगसे अच्छी तरह परिचित हैं। अनेक कन्नड़ लेखकोंने असगका उल्लेख अपने ग्रंथोंमें किया है । हरिवंशपुराणके कर्ता धवलाने अपने वीरजिनेन्द्रचरितमें असगका उल्लेख किया है।' दुर्गासिंह (१०३१ ई०) ने अपने कन्नड़-पंचतंत्रमें अन्य कवियोंके साथ असगका उल्लेख किया है । असग शब्द कैसे बना, यह स्पष्ट नहीं है। असग शब्द अगसका पुराना रूप है जिसका अर्थ धोबी होता है किन्तु असग पेशेसे धोबी थे, ऐसा प्रमाण उपलब्ध नहीं होता । डा० उपाध्येके अनुसार असग असंग शब्दका परिवर्तित रूप है। जैन काव्योंकी परम्परा और विशेषता प्रारम्भमें जैन कवियोंने अपनी काव्य प्रतिभाका विकास प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओंके द्वारा किया है। कालान्तरमें प्राकृत और अपभ्रंशके साथ ही उन्होंने संस्कृत भाषाको चरित काव्योंके लिए अपनाया और अनेकों चरित काव्य तथा महापुरुषोंकी चारुचरित्रावलि संस्कृतमें निबद्ध की गई। ऐसे महाकवियोंमें असग पहली पीढ़ीके कवि हैं । उनका काव्य कोरा काव्य नहीं है, अपितु एक महापुराणोपनिषद् है।४ जैन परम्पराके चरित ग्रन्थोंमें चरितके नायकके वर्तमान जीवनको उतना महत्त्व नहीं दिया जाता जितना उसके पूर्वजन्मको दिया जाता है। इसका कारण यही है कि जीव किस तरह अनेक जन्मोंमें उत्थान और पतनका पात्र बनता हुआ अन्त में अपने सर्वोच्च पदको प्राप्त करता है। तीर्थंकर बसकर क्या किया, इसकी अपेक्षा तीर्थकर कैसे बना, इसका विशेष वर्णन होता है। तीर्थंकरके कृतित्वसे तो पाठकोंके हृदयमें केवल तीर्थकर पदकी महत्ता या गरिमाका बोध होता है । किन्तु बननेकी प्रक्रिया पढ़कर पाठकको आत्मबोध होता है। उसे स्वयं तीर्थकर बननेकी प्रेरणा मिलती है। कविकी ग्रन्थ रचनाका उद्देश्य अपने पाठकको प्रबुद्ध करके आत्मकल्याणके लिए प्रेरित करना है ।' महाकविको अपने उद्देश्यमें पर्याप्त सफलता मिली है। वर्धमानचरितम्का विवरण वर्धमानचरितम् संस्कृत भाषाका एक महत्त्वपूर्ण काव्य है। यह १८ सोंमें निबद्ध है । इसमें तीर्थकर महावीरका चरित सैतीस पूर्वजन्मोंको वर्णनके साथ चित्रित किया गया है। डा० रामजी उपा १. असगु महाकइ जे सुमणेहरु वीरजिणेंदचरिउ किउ सुंदरु । केन्तिय कहमि सुकइगुण आयर गेय काव्व जहिं विरइय सुंदर ।। २. पीसतेनिसि देसेयिं नवरसमेयेयल्कोल पुवेत मार्गदिनिलेगे । ___नैसेदुवौ सुकविगलेने नेगलदसगन मनसिजन चन्द्रभट्टन कृतिगल ।। ३. सं० बी० एस० कुलकर्णी, धारवाड़, १९५० । ४. इत्यसगकृते वर्धमानचरिते महापुराणोपनिषद् भगवन्निर्वाणगमनोनाम । ५. कृतं महावीरचरित्रभेतन् मया परस्वप्रतिबोधनार्थम् । - ४८२ - Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यायने वर्धमानचरितम्‌के प्राक्कथनमें लिखा है कि अश्वघोष एवं कालिदासकी परम्परामें कहाकवि असगने वर्धमानचरितम्की रचना की । कविके वर्धमानचरितम्की कथावस्तुके मूल आधार प्राकृत भाषाके तिलोयपणत्ति ग्रन्थ में मिलते हैं । दिगम्बर आम्नायके तीर्थंकर और इलाकापुरुषोंके चरित तिलोयपण्णत्तिके आधार पर ही विकसित हुये हैं । वृत्त वर्णनके रूपमें वर्धमानचरितम् के कथानकका आधार गुणभद्रका उत्तरपुराण जान पड़ता है क्योंकि उत्तरपुराणके ७४ वें पर्वमें वर्धमान भगवानकी जो कथा विस्तारसे दी गई है, उसका संक्षिप्त रूप इसमें उपलब्ध होता है । उनके तत्त्वोपदेशका मूलाधार उमास्वामीका तत्त्वार्थसूत्र, पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि तथा अकलंक स्वामीका राजवार्तिक जान पड़ता है । समवसरणका विस्तृत वर्णन जिनसेनके महापुराण पर आधारित है। महाकविने पौराणिक वृत्त को काव्यके साँचे में ढालकर महाकाव्यका स्वरूप दिया है । आदिपुराण में महाकाव्य के स्वरूप का वर्णन करते हुये लिखा है कि इतिहास और पुराण प्रतिपादित चरितका रसात्मक चित्रण करना तथा धर्म, अर्थ और कामके फलको प्रदर्शित करना महाकाव्य । धर्मत्वका प्रतिपादन करना ही काव्यका प्रयोजन है । अतः काव्यके मूलमें धर्म तत्त्वका रहना परम आवश्यक है। इस चरित काव्यमें महाकाव्य के समस्त लक्षणोंका समावेश किया गया है । वर्धमान इसके नायक हैं जो क्षत्रिय कुलोत्पन्न धीरोदात्त नायकके गुणोंसे युक्त हैं । इसका अंगी रस शान्त हैं । अंग रसके रूपमें शृंगार, भयानक तथा वीर रसका प्रयोग किया गया है यह नमस्कारात्मक पद्योंसे प्रारम्भ हुआ है और मोक्ष इसका फल है । सर्गोंकी रचना एक ही छन्दमे हुई है । पर सर्गान्तमें छन्दोवैषम्य है । नवम्, दशम्, पञ्चदश और अष्टदश सर्गकी रचना नाना छन्दोंमें हुई है । इस ग्रन्थमें उपजाति, वसन्ततिलका, वियोगिनी, शिखरिणी, वंशस्थ, शार्दूलविक्रीडित, अनुष्टुप् मालिनी, मन्दाक्रान्ता आदि छन्दोंका प्रयोग हुआ है । इसमें देश, राजा, राज्ञी पुत्र- जन्म, ऋतु, वन, समुद्र, मुनि, देव देवियाँ, युद्ध, विवाह, संध्या, चन्द्रोदय, सूर्योदय, तपश्चरण और धर्मोपदेश आदि सभी वर्णनीय विषयोंका समावेष है । । शान्तिनाथपुराणका विरवण कविकी दूसरी रचना शांतिनाथपुराण है जिसकी रचना कविने वर्धमानचरित के पश्चात् की है । इसका निर्देश उन्होंने ग्रन्थके अन्तमें किया है । वर्धमानचरितम् में भाषा विषयक जो प्रौढ़ता है, वह शान्तिनाथमें नहीं है पुराण क्योंकि वर्धमानचरितम् काव्यकी शैली में लिखा गया है और शान्तिनाथ पुराण शैलीमें । पुराण शैलीमें लिखे जानेके कारण इसमें अधिकांशतः अनुष्टुप् छन्दका प्रयोग हुआ है । इसकी भाषा सरल है पर भाव गम्भीर हैं । आद पुराणमें प्राचीन आख्यानोंको पुराण कहा गया है, 'पुरातनं पुराणं स्यात् ' ( आदि १ २१ ) । पुराणका प्रमुख तत्व पौराणिक विश्वास है । पौराणिक विश्वास प्राचीन परम्परासे प्राप्त होता है । लेकिन इसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे कथा अवश्य रहती है । पौराणिक कथायें सत्य मानी जाती है । इनका उद्देश्य विभिन्न प्रकारको वस्तुओं, विश्वासों रीति-रिवाजोंकी उत्पत्ति तथा उपयोगिता समझाना है । पुराणके दो भेद हैं - १. पुराण और २. महापुराण । जिसमें एक शलाका पुरुषका वर्णन होता है, वह पुराण है और जिसमें त्रेसठ शलाका १. महापुराण सम्बन्धित महागायकगोचरम् । त्रिवर्गफलसन्दर्भ महाकाव्यं तदिष्यते ॥ आदि०, १।६२-६३ २. चरितं विरचय्य सन्मतीयं सदलंकारविचित्रवृत्तबन्धम् । स पुराणमिदं व्यधत्त शान्तेरसग: साधुजनप्रमोदशान्यै ॥ ४१ ॥ - ४८३ - Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुणोंका वर्णन हो, उसे महापुराण कहते हैं । धर्म तत्वका निरूपण रहनेके कारण पुराण धर्मशास्त्र भी कहलाता है । जैन पुराण साहित्य अपनी प्रामाणिकताके लिये प्रसिद्ध है । प्रामाणिकताका मुख्य कारण लेखकका प्रामाणिक होना है। तथ्यपूर्ण घटनाओं पर ही जैन पुराणोंका कथाभाग आधारित है। असम्भव तो कल्पनाओंसे दूर । अधिकांश पुराण ग्रन्थ गुणभद्रके उत्तरपुराण पर आधारित है। शान्तिपुराणमें कविने यथार्थ घटनाओंका वर्णन किया है, बीचमें आये हुये सन्दर्भ मर्मस्पर्शी तथा जैन सिद्धान्तका सूक्ष्म विश्लेषण करनेवाले हैं। शान्तिपुराणमें इस अवपिणी युगके सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ भगवानका पावन चरित वर्णित है। श्री शान्तिनाथ चक्रवर्ती और कामदेव पदके धारक थे। तीर्थंकर पद अत्यन्त दुर्लभ पद है । अनेक भवोंमें साधना करनेवाले जीव ही इस पदको प्राप्त कर सकते हैं। महाकवि शान्तिनाथके पूर्वभवोंका वर्णन अत्यन्त विस्तारसे किया है जिससे प्रतीत होता है कि शान्तिनाथके जीवने पूर्वभवोंमें किस प्रकार साधना कर अपने आपको तीर्थकर पद पर प्रतिष्ठित किया। इस पुराणमें १६ सर्ग हैं जिनमें प्रारम्भके १२ स!में उनके पूर्व जन्मोंका वर्णन है और अन्तिम चार सर्गों में उनके तीर्थकर कालका वर्णन है। प्रत्येक तीर्थकरके पाँच कल्याणक होते हैं-गर्भमें आगमन, जन्म, जिन दीक्षा, कैवल्य और निर्वाण । ग्रन्थमें इन्हीं पाँचोंका वर्णन मुख्य रूपसे किया गया है । इसके १६ सोमें २३५० श्लोक है जिनमें कुछ शार्दूलविक्रीडित, वंशस्थ, उत्पलमाल, हरिणी, प्रहर्षिणी, इन्द्रवंशा, वियोगिनी, वसन्ततिलका, मालिनीमें हैं और शेष अनुष्टुप् हैं। अन्तिम सर्गोंमें जैन सिद्धान्तका विषद वर्णन है। जैन सिद्धान्तका वर्णन तत्वार्थसूत्र और सर्वार्थसिद्धिके आधार पर किया गया है। पन्द्रहवें एवं सोलहवें सर्गमें जैन सिद्धान्तका वर्णन विस्तारसे किया है। कविने शान्तिपुराणमें प्रथमानुयोगकी शैलीको अपनाया है। उन्होंने सिद्धान्त, इतिहास और लोकानुयोगका अच्छा समावेश किया है जिससे यह मात्र कथाग्रन्थ न रहकर सैद्धान्तिक ग्रन्थ भी बन गया है। साहित्यिक विशेषतायें अपने ग्रन्थों में महाकविने कोमलकान्त पदावलीके साथ-साथ सुभाषितोंका भी यथास्थान प्रयोग किया है। आदिपुराण (२-८७) में सुभाषितोंको महारत्त कहा गया है। एक अन्य सन्दर्भ में सुभाषितको महामंत्र भी कहा गया है (आदि ११८८)। समुद्रसे बहुमूल्य रत्नोंकी उत्पत्तिके समान ही कविके ग्रन्थ समुद्रसे सुभापित रत्नोंकी उत्पत्ति हुई है । कविने अपने ग्रन्थोंको शृंगार बहुल प्रकरणोंसे बचाकर सुभाषितमय प्रकरणोंसे सुशोभित किया है । अर्थान्तरन्यास या अप्रस्तुत प्रशंसाके रूपमें कविने संग्रहणीय सुभाषितोंका संकलन किया है। ये सुभाषित असग कवि द्वारा ही रचे होनेसे मूल ग्रन्थके अंग है। वर्धमानचरितममें संसारसे विरक्त, मोक्षाभिलाषी, दीक्षा लेनेको उत्सूक राजा नन्दिवर्धनके बार-बार समझाने पर उसका पुत्र राज्य स्वीकार नहीं करता। इस प्रसंगमें कविने "पिताका वचन चाहे प्रशस्त हो, चाहे अप्रशस्त हो उसे ही करना पुत्रका काम है, दूसरा नहीं'' के माध्यमसे सुन्दर सुभाषितका प्रयोग किया है । शान्तिपुराणके सप्तम सर्गमें आया सुभाषित स्त्रियोंकी मनोवृत्तिको बतलाता है ।२ अलंकार उस विधाका नाम है जिसके प्रयोगके द्वारा रचनाकार पाठकके मनमें अपनी इच्छानुकूल भावना उजागर कर आनन्द संचार करता है। अलंकारके प्रयोगसे कविता कामिनीके सौन्दर्यकी वृद्धि होती है । महाकविने भावोंका उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओंके रूप गुण और क्रियाका अधिक तीव्र अनुभव करानेके १. पितुर्वचो यद्यपि साध्वसाधु वा, तदेव कृत्यं तनयस्य नापरं । (१.२९) २. स्त्रीजनोऽपि कुलोद्भूतः सहते न पराभवम् (७-८७) - ४८४ - Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये अलंकारोंका समावेश किया है। कविने अपने ग्रन्थोंके शब्दालंकार और अर्थालंकारका यथेष्ट प्रयोग किया है। अनुप्रास, यमक, श्लेषोपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, श्लेष, परिसंख्या, भ्रान्तिमान्, विरोधाभास आदि अलंकारोंसे ग्रन्थ परिपूर्ण है । श्लेषोपमा आदि अलंकारोंके प्रसंगमें रचना कहीं-कहीं दुरूह हो गयो है । रस काव्यकी आत्मा है। महाकविके ग्रन्थोंमें रसोंका सुन्दर समावेश पाया जाता है। वर्धमानचरितमका अंगी रस शांत है। इसमें संयोग श्रृंगारका वर्णन मिलता है किन्तु इसके प्रसंग बहत विप्रलम्भका वर्णनमात्र एक श्लोकमें हुआ है जिसमें त्रिपृष्ठका मरण होनेपर शोक विह्वल स्वयंप्रभा मरनेके लिए उद्यत बतलाई गई है। काव्यमें शान्त रसके अनेक प्रसंग हैं । उदाहरणार्थ-राजा नन्दिवर्धन आकाशमें विलीन होते हुये मेघको देखकर संसारसे विरक्त होता हुआ वैराग्य चिन्तन करता है (सर्ग २। १०-३४) । प्रजापतिका वैराग्य चिन्तन (सर्ग १४।४०-५३) और तर्थंकर महावीरका निष्क्रमण कल्याणक (सर्ग १७१०२-११६) भी इसी रसमें है। स्वयंप्रभा और त्रिपृष्ठके विवाहमें शृङ्गार तथा कुपित अश्वग्रीव और विद्याधर राजाओंकी गर्वोक्तिसे वीर रसकी उद्भुति होती है । रणक्षेत्रमें दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध होनेपर वीर रसका परिपाक होता है । अश्वग्रीवकी सेनाका प्रयाण तथा विश्वनन्दीको आता देख भयसे काँपता हुआ विशाखनन्दी जब कपित्थके वृक्ष पर चढ़कर प्राण संरक्षण करना चाहता है, तब भयानक रसका दृश्य उपस्थित होता है (सर्ग ४१७७)। यद्यपि शांतिनाथपुराण में भी अंगीरसके रूपमें मुख्यतः शान्त रसका वर्णन हुआ है पर अन्य रसोंका वर्णन भी अंग रूपमें हुआ है। चक्रवती दयितारि और अपराजित तथा अनन्तवीर्य के युद्ध प्रसंगमें वीर रसका वर्णन हआ है। दयितारि और गायिकाओंके प्रसंगमें तथा सहस्रायुद्धको जलकीड़ामें शृगार रसका वर्णन है । वैराग्य प्रसंग प्रचुरतासे वर्णित है। राजा स्मितिसागरने भगवान स्वयंप्रभके समवसरणमें पुरुषार्थको सिद्ध करनेवाले धर्मको सुनकर जेष्ठ पत्रको राज्यलक्ष्मी सौंपकर दीक्षा लेली (११६९-७२) । छठे सर्गमें सुमति एक देवीसे पूर्वभव सुनकर संसारसे विरक्त हो गई अजिका बन गयी। चक्रवर्ती शान्ति जिनेन्द्र के वैराग्य प्रसंग आदिमें शान्त रसका वर्णन हुआ है। महाकवि असगने अपने पूर्ववर्ती साहित्यसागरका अच्छी तरह अवगाहन किया, अतः उनकी रचनाओं पर पूर्ववर्ती कवियोंका प्रभाव परिलक्षित होता है । कुन्द-कुन्द, पूज्यपाद तथा अकलंक आदिके सिद्धान्त ग्रन्थोंका प्रभाव उनकी रचनाओं पर पड़ा। रघुवंश, कुमारसम्भव, शिशुपालवध, चन्द्रप्रभचरित तथा किरातार्जुनीयके कितने ही भाव असंगने ग्रहण किये हैं। वर्धमानचरितके श्लोकोंका साम्य जीवन्धर चम्पू और धर्मशर्माम्युदयमें मिलता है । यहाँ यह शोधका विषय है कि किसने किससे भाव ग्रहण किये हैं। महाकवि असगने भी अपने परवर्ती कवियों पर अपनी छाप छोड़ी है। केशीराज (१२०० ई०)ने शब्दमणिदर्पणमें असगकी कविताओंमेंसे अनेक उद्धरण लिये है। पोन्न पर असगके शान्तिपराणकी छाप है। नागवर्मा कन्ना आदि कवियों पर वर्धमानपुराणका प्रभाव पड़ा है। महाकविका संस्कृत भाषा पर पूर्ण अधिकार है। कहीं भी भाषा शैथिल्यके दर्शन नहीं होते । रमानुकूल भाषाका प्रयोग किया गया है। कहीं अल्पसमासवाले, कहीं बृहत् समासवाले पदोंका प्रयोग हुआ है । ग्रन्थोंमें शब्दसौष्ठव और अलंकरणकी रमणीयता सर्वत्र पाई जाती है। बाह्य सौन्दर्य वर्णनके साथ ही १. स्वयंप्रभामनुमरणार्थमुद्यतां वलस्तदा स्वयसुपसान्त्वनोदितैः । इदं पुनर्भवशतहेतुरात्मनो निरर्थकं व्यवसितमित्यवारयत् ॥१०-८७।। - ४८५ - Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव हृदयस्थ मनोभावोंका तथा विभिन्न दशाओंमें उत्पन्न होनेवाली चेष्टाओंका वर्णन हुआ है । राग, द्वेष, हर्ष, विषाद तथा प्रेम, करुणा आदिका समावेश बड़ी सूक्ष्मताके साथ सर्वत्र हुआ है। कवि अपने पात्रोंके अन्तस्तलमें प्रवेश कर अवस्थाविशेषमें होनेवाली उसकी मानसिक प्रतिकियाओंका सूक्ष्म विश्लेषण करता है तथा उचित पदविन्यासके द्वारा अभिव्यक्ति देता है। कविकी रचनायें ऐतिहासिक, पौराणिक तथा शास्त्रीय आदि अनेक दृष्टियोंसे श्रेष्ठ हैं। यद्यपि असग कविकी दो कृतियाँ ही उपलब्ध हैं, तथापि ये कविको अमरत्व प्रदान करने तथा काव्यरसकी विजयध्वजाको सदैव फहराते रहनेके लिये पर्याप्त हैं। इन रचनाओं पर गहन शोध कार्य प्रगति पथ पर है। -४८६ - Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुर्जर कवि सोमेश्वर देव : एक परिचय श्रीमती सरला त्रिपाठी, कन्या महाविद्यालय, रीवाँ तेरहवीं शताब्दी गुजरातमें संस्कृत साहित्यके सजनका उत्कर्षकाल था। उस समय (११७८१२४१ ई०) चौलुक्य नरेश भीमदेव द्वितीय अणहिल पाटन (गुजरातकी राजधानी) के राज्य सिंहासन पर आसीन थे। इसी समय गजरातके साहित्याकाशमें महाकवि सोमेश्वरदेवका उदय हआ। उन काव्य कौमुदीसे राजा भीमदेवके सभामण्डपको आलोकित किया । सोमेश्वरदेवने अपने जन्मकालके विषयमें कुछ भी नहीं लिखा है। उनकी रचनाओंके अन्तः साक्ष्य तथा अन्य बाह्य साक्ष्योंके आधार पर ही उनका जीवनकाल तथा सर्जनाकालका निश्चित हुआ है। महाकवि सोमेश्वरदेवकी निम्न रचनायें उपलब्ध हैं, सुरथोत्सवम् तथा कीर्तिकौमुदी महाकाव्य उल्लाधराघव नाटक, रामशतकम्, स्तोत्र काव्य और कर्णामृतप्रभा स्फुट काव्य । सोमेश्वरदेव द्वारा रचे गये श्लोकोंमें ५ अभिलेख प्रशस्तियाँ भी हैं जो हिस्टारिकल इन्सक्रिप्शन्स आफ गुजरात,भावनगर में प्रकाशित हैं । ये प्रशस्तियाँ तत्कालीन निर्मित मन्दिरोंमें उत्कीर्ण की गई थीं। सुरथोत्सवम् सोमेश्वरदेव रचित पन्दह सर्गोंका एक पौराणिक महाकाव्य है । उन्होंने यह ग्रंथ मंत्री वस्तुपालकी प्रसन्नताके लिए लिखा था। ग्रन्थका विषय देवी भवानीकी महिमाका वर्णन है इस विषयमें काव्यके १५ वें सर्गके अन्तिम श्लोकमें कविने स्वयं कहा है : कुमारपुत्रेण कुमारमातुः काव्यं तदेतज्जगदेकदेव्याः । श्रतिस्मतिव्याकृति-यज्ञविद्या विशारदेन क्रियते स्म तेन ॥१५॥६०॥ ग्रन्थको पुष्पिकामें कवि स्वयं को गुर्जरेश्वर पुरोहित कहता है, 'इति श्रीगुर्जरेश्वर-पुरोहित सोमेश्वरदेव-विरचिते सुरथोत्सव नाम्नि महाकाव्ये कविप्रशस्ति-वर्णनो नाम पंचदशः सर्गः'। ___ उपर्युक्त साक्ष्यसे यह पता चलता है कि जिस समय सोमेश्वरदेवने इस ग्रन्थकी रचना की, उस समय वह गुर्जरनरेस भीमसेन देवका पुरोहित और सभासद था तथा मंत्री वस्तुपालका मित्र था। उन्होंने आधे प्रहरमें किसी नाटककी रचना कर राजा भीमदेवके सभासदोंको चकित कर दिया था। इसका उल्लेख सुरयोत्सवके पन्द्रहवें सर्गमें ४९ वें श्लोकमें है : काव्येन नव्य-पद-पाक-रसास्पदेन यामार्धमात्र-घटितेन च नाटकेन । श्रीभीमभूमिपति-संसदि सभ्यलोकमस्तोक-सम्मद-वंशवदमादधेयः ॥१५॥४९।। सोमेश्वरदेवने सुरथोत्सवके १५ वें सर्ग, कवि प्रशस्ति, में अपने वंश एवं पूर्वज परम्पराका उल्लेख किया है। वे ब्राह्मण वंशमें वशिष्ठ गोत्रमें उत्पन्न हुये थे। उनके पूर्वज परम्पराके मूल पुरुषका नाम सोल शर्मा था। उन्होंने चौलुक्य राजा मूलराजके अतिशय अग्रह पर पुरोहित पदको स्वीकार किया था। सोमेश्वर देवके पिताका नाम कुमार था। वे चौलुक्य मूलराज द्वितीयके पुरोहित एवं सेनापति थे। ये तीन भाई थे । इनके अग्रज महादेव थे। इनके अनुजका नाम विजय था। -४८७ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलराज द्वितीयका राज्यकाल श्री मजुमदारने अपनी पुस्तक चौलुक्याज आफ गुजरातमें ११७५११७८ लिखा है। इसी अवधिको हम सोमेश्वरदेवका जन्मकाल मान सकते हैं, अतः ११७० ई० के निकट इनका जन्म हुआ होगा। उनकी अन्तिम रचना १२५४ ई० की बैद्यनाथ प्रशस्ति है। इस प्रकार सोमेश्वरदेवकी मृत्यु तिथि १२५५ के निकट हो सकती है। इस प्रकार उन्हें लगभग ८५ वर्ष की आयु प्राप्त हुई । १२११ में रची हुई एक प्रशस्ति हिस्टोरिकल इन्सक्रिपसन्स आफ गुजरातमें भाग ३ क्रमांक २१५में उल्लिखित है । यह प्रशस्ति सोमेश्वरदेवने सन् १२११ ई० में मंत्री वस्तुपाल द्वारा बनवाये गये आबू देलवाड़ा न्दिर पर उत्कीर्ण कराने के लिये लिखी थी। सूरथोत्सवकी रचना इस अभिलेखके पहले हई क्योंकि इसमें सोमेश्वरदेवने कहीं भी बाघेल नरेश अर्णोराज, लवण प्रसाद, वीरधवल तथा उनकी राजधानी घोलकाका उल्लेख नहीं किया है जबकि आबू देलवाड़ाकी सन् १२११ ई० के प्रशस्तिमें उन्होंने अर्णोराजके वंशज लवण प्रसाद तथा उनके पुत्र वीरधवलके भी उल्लेख किये हैं। वस्तुपाल और तेजपालको वीर धवलके मंत्रीके रूपमें प्रतिष्ठित बतलाया है । इस प्रकार सुरथोत्सवका रचनाकाल १२०० ई० के निकट हो सकता है। इस आधार पर सोमेश्वरदेवका साहित्य काल १२०० ई० से १२५५ ई० तक मानने में कोई कठिनाई नहीं है। सोमेश्वरदेवके दो महाकाव्य-सुरथोत्सव तथा कीर्तिकौमुदी तथा एक नाटक उल्लाधराधव प्रसिद्ध हैं । उनके विषय में यहाँ संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। सुरथोत्सवका विवरण-कविने प्रशस्तिमें लिखा है कि जब हेमचन्द्र जैसे विद्वान दिवंगत हो गये और प्रहलादन जैसा उपकारी व्यक्ति नहीं रहा, तब उन दोनोंके गुण मंत्री वस्तुपालमें एकत्र दिखलाई पड़े। इन्हीं वस्तुपालकी कीर्तिगान करनेके लिये सुरथोत्सवकी रचना की गई। इसकी कथावस्तु दुर्गा सप्तशती अथवा मार्कण्डेय पुराणके देवीमहात्म्य पर आधारित है। कविने इस पर अपनी प्रतिभाका कलेवर चढ़ा कर इसे महाकाव्यका रूप दे दिया है। इस काव्यमें कविके पाडित्य, वैदग्ध्य, रसमयताका प्रवाह तथा प्रौढ़ प्रतिभाके दर्शन होते हैं। सुरथोत्सवमें पन्द्रह सर्ग हैं-सूरथवर्णनम्, देवी चरित निवेदनम्, विरंचिवर्णनम्, हिमालयवर्णनम्, ऋतुवर्णनम्, चन्द्रोदयवर्णनम्, देवीदर्शनम्, धूमलोचन बध, दैत्यप्रयाणम्, युद्धवर्णनम्, शुम्भवध, सुरथतपोवर्णनम्, मायांगनावर्णनम्, राज्यलाभः तथा कवि प्रशस्ति । ग्रंथमें कथानकके जो विविध मोड़ आते हैं, उन्हींके अनुकूल भाषा कहीं अल्प-समास यक्त तथा कहीं समास-बहुला है । बहुतसे स्थलों पर प्रसाद गुणसे परिपूर्ण सरल एवं बोध-गम्य भाषाशैली अपनाई है । ऐसे भी स्थल हैं जहाँ दुरूह क्लिष्ट पदावली है और अनेकार्थक पदोंके कतिपय प्रयोग हैं। देवी और दैत्योंके युद्ध में एक ऐसा ही उदाहरण भी दृष्टव्य है : कोकिलालक-कोलालिकालाः कीलाललुः । काकाः कगांल कीलालं कलाकल-कूलाकुले । काव्यमें वीर रसके परिपाकके साथ ही रूपककी मनोहारी छटा भी दर्शनीय है। युद्ध स्थली एक वन है, जहाँ विद्यमान वीर ही व्याघ्र आदि हिंसक जन्तु हैं। वहीं दो विशाल वृक्षोंकी भाँति चण्ड और मुण्ड नामक दो रणोद्यत दैत्य उपस्थित है । मेघखण्डोंसे प्रकट होने वाली विद्युतकी भाँति अतिशय तेजस्विनी देवी दुर्गाने उन दोनोंका हनन कर डाला। कतिपय स्थलों पर सोमेश्वर देव कालिदासी बेदर्भी रीतिकी प्रसादपूर्ण शैलीको अपनाते हुये प्रतीत होते हैं। राजा सुरथ तपः साधनाके लिये तपोवनमें प्रवेश करते हैं। उनके स्वागतमें लतायें नृत्य करती हैं, मर्मर ध्वनि करते हुये वंशवृक्ष मंगलगीत गाते हैं : - ४८८ - Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवृत्तनृत्तासु लतागंनासु स्वनत्सु वातेन च कीचकेषु । तस्मिन्नुपेते नृपतौ वनं तदारब्धसंगीतमिवावभासे ॥ इसी प्रकार घनी नीली वन राजियोंसे घिरे वनमें भ्रमण करते हये राजा सुरथ नीले मेघ मण्डलके बीच चन्द्र बिम्बके सदृश सुशोभित हो रहे हैं । इस सटीक उपमाको निम्न श्लोक में देखिये : विशन्वनादेव वनान्तराणि सान्द्र-मश्रोणि निरन्तराणि । भाति स्म भिन्नां जनसंनिभानि धनादिवेन्दुर्धनमण्डलानि ॥ इस काव्यमें अलंकार वैविध्यके साथ साथ छन्द वैचित्र्य भी है। इसमें जहाँ अनुरूप, शाशिवनदा, बसन्ततिलका तथा द्रुतविलम्बित जैसे छोटे अति प्रचलित छन्द प्रयुक्त हैं, वहीं पुष्पिताग्रा, उपजाति मन्तमयूर, रुचिरा, मालभारिणी, पृथ्वी, स्रगवणी तथा शार्दूलविक्रीडित आदि लम्बे क्लिष्ट छन्दोंका भी प्रयोग बाहुल्य है । पन्द्रहवें सर्गमें तो विविध छन्दोंके नमूने मिलते हैं । इस प्रकार सुरथोत्सव महाकाव्यके सम्पूर्ण तत्वोंसे निर्मित एक ऐसा स्थाई सोपान है जो सोमेश्वर देवको महाकविके पद पर प्रतिष्ठित करने में पूर्णतः सक्षम है । कीर्ति कौमुदीका विवरण :-यह सोमेश्वर देवसे रचित एक ऐतिहासिक महाकाव्य है। इस ग्रंथके निर्माणका मूल उद्देश्य गुजरातके महामात्म वस्तुपालकी कीर्तिरूपी जोत्सनाका प्रसार करना है । इस ग्रंथके कथानकका मूलाधार वस्तुपालके जीवनका गौरवान्वित खण्ड है। यह नौ स!में निबद्ध है । नगर वर्णनम्, नरेन्द्रवंशवर्णनम्, मंत्रिस्थापना, दूतसमागमनम्, युद्ध वर्णनम्, पुरप्रमोदवर्णनम्, चन्द्रोदय वर्णनम्, परमार्थविचार और यात्रा समागमनम् । इसके प्रथम सर्गमें कविने स्वयं लिखा है : विलोक्य वस्तुपालस्य भक्ति चात्मनि निर्भराम् । श्रीसोमेश्वरदेवेन तत्स्वरूपं निरूप्यते ।। इस सर्गकी पुष्पिका इसे सोमेश्वर देवकी रचना प्रमाणित करती है : "इति श्रीगूर्जरपुरोहित श्रीसोमेश्वरदेव विरचिते कीर्तिकौमुदीनाम्नि महाकाव्ये नगरवर्णनोनाम प्रथमः सर्गः।" सुरथोत्सवकी भाँति कीर्ति कौमुदीका रचनाकाल भी कविने स्वयं नहीं लिखा है। इसमें खंभातके उस युद्धका वर्णन है जो १२२१ ई० के लगभग वस्तूपाल और शंख चाहमानके बीच हुआ था । इस ग्रंथके नायक महामात्य वस्तुपाल हैं जिन्होंने अनेकों स्मारिकों एवं मंदिरोंका निर्माण कराया। इससे प्रकट होता है कि इस काव्यकी रचना १२२३-२४ ई. के निकट हुई होगी। वस्तुपालकी जिह्वामें सरस्वतीका वास था। वे काव्य मर्मज्ञ एवं काव्यस्रष्टा थे, इसका उल्लेख भी कविने काव्यमें किया है। स्तम्भ तीर्थ पर ग्रीष्मऋतु के आगमन पर मंत्री वस्तु पालने निदाधकी निन्दा पर कवितायें लिखी : कविप्रियोऽसौ प्रथयांचकार, निन्दां निदाघस्य जलप्रियस्य । इस काव्यके नवें सर्गमें वस्तुपालका शत्रुजय पर्वतों पर आरोहण, नेमिनाथ आदि दैवोंकी पूजा तथा नेमिनाथ, पार्श्वनाथ आदिके मंदिरों व प्रतिमाओंके निर्माणका वर्णन किया है। उल्लाघ राघवका विवरण-सोमेश्वर देवने इस नाटककी रचना अपने पुत्र लल्ल शर्माकी प्रार्थना । पर की थी। यह इसके प्रशस्ति श्लोकोंमें कहा गया है : तदंगजः स्वांगजलल्लशर्म, प्रयुक्तया प्रार्थनया प्रणुन्नः । कार सोमेश्वरदेवनाम्ना रामायणं ताटकरूपमेतत् ।। - ४८९ - | Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह नाटक १२३० ई० के पश्चात् लिखा गया है। इसमें आठ अंक हैं। यह नाटक सुरथोत्सव, कीर्ति कौमुदी महाकाव्यों तथा कर्णामृत नामक काव्य संग्रहके प्रणयनके बाद लिखा गया है। इनका रामशतक भी एक सौ रुग्धरावृत्तोंमें रचित रामभगवानका स्तोत्र काव्य है। इनके अभिलेख प्रशस्तियोंकी तिथियाँ १२११, १२३१ तथा १२५४ ई० स्पष्ट हैं। सिन्धी जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित प्रबन्धकोण नामक ग्रन्थमें सोमेश्वरदेवके सम्बन्धमें बहुतसे प्रसंग हैं । उदाहरणार्थ, एक बार वे मंत्री वस्तुपालके साथ सम्मात गये। वे दोनों समुद्रतट पर नौकाओंसे उतरते हुये विदेशी घोड़ोंको देख रहे थे। वर्षा ऋतु होने पर भी समुद्र शान्त था। इस पर मंत्रीने कविकी ओर देखकर श्लोकार्ध कहा : "प्रावृट् काले पयोराशिरासीद् गर्जितवर्जितः" । (वर्षा कालमें भी जलकी राशि-समुद्र गर्जन नहीं रहा है) सोमेश्वरदेवने उत्तर देते हुये तत्काल श्लोकको पूरा किया : "अन्तःसुप्तजगन्नाथ निद्राभंगभयादिव"। (जगतके स्वामी समुद्रके अन्दर सो रहे हैं। उनकी नींद टूटने के भयसे समुद्र नहीं गरजता)। इस समस्या पूर्ति पर मंत्रीने सोमेश्वरदेवको सोलह घोड़े दे दिये। एक अन्य प्रसंगमें मंत्री सोमेश्वरदेवके सम्मुख एक समस्या रखी : "काकः किं वा क्रमेलकः ?" कविने निम्न प्रकारसे समस्यापूर्ति की। येनागच्छन् ममख्यातो येनानीतश्च मत्पतिः । प्रथमं सखि कः पूज्यः काकः किं वा क्रमेलकः ।। (नायिका अपनी अन्तरंग सखीसे पूछती है)। "हे सखी, कौयेने आँगनमें शब्द करके मुझे सूचना दी कि प्रवाससे मेरे पति आ रहे हैं, दूसरी ओर ऊँटने मेरे पतिको मेरे पास पहँचा ही दिया। इस दोनोंमेंसे मेरा प्रथम पूज्य कौन है, कौआ या ऊँट ?" इस पद्य पूर्तिपर भी मंत्री कविको सोलह हजार द्रम्भ दिये। सुरथोत्सवके प्रशस्ति सर्गमें स्वयं कविने लिखा है कि हरिहर, सुभट आदि श्रेष्ठ कवियोंने उसके गुणोंकी प्रशंसा की है : श्रीसोमेश्वरदेवस्य कवितु : सावितुश्च को ।। स तृणाभ्यावहारस्य निरासेऽपि रसप्रदा ॥१४-४२।। उल्लाघ राघव नाटककी प्रस्तावनामें सूत्रधार महाकवि सोमेश्वरदेवका परिचय नटीको देता है। वह कहता है कि चालुक्यचक्रवर्ती मंत्री वस्तुपालने कविके सम्बन्धिमें स्वयं कहा है : यस्यास्ते मुखपंकजे सुखऋचा वेदः स्मृतिर्वेद यः त्रेता सद्मनि यस्य यस्य रसनां सूते सूक्तामृतम् । राजानः श्रियमर्जयन्ति महतीं यत्पूजया गूर्जराः कर्तुं यस्य गुणस्तुति जगति कः सोमेश्वरस्येश्वरः ॥ उपरोक्त अनेक उद्धरणोंसे सोमेश्वरदेवकी काव्य-प्रतिभाके अनेक रूपोंके दर्शन होते है। ऐसे कविको अपने जीवनकालमें अनेक विरोधोंका भी सामना करना पड़ा था। लेकिन ये विरोध कविके काव्य-रसकी घुटीके विलयित हो गये और वह काव्याकाशका एक पुखर नक्षत्र प्रमाणित हुआ। इनकी उपरोक्त अनेक रचनाओं पर चतुर्भुखी शोध की जा रही है। - ४९० - Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत तथा अपभ्रंश शोध में - कार्यकी दिशाएँ डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच यद्यपि पश्चिम देशों में अनुवादोंके माध्यम से संस्कृतका परिचय सोलहवीं शताब्दीके अन्त तक हो चुका था, किन्तु पालि- प्राकृतका अध्ययन भाषाके रूपमें भी अठारहवीं शताब्दी से पूर्व नहीं हो सका । इसका कारण यही था कि उस समय तक पालि - प्राकृतके साहित्यकी कोई जानकारी यूरोपको नहीं थी । संस्कृतकी ओर भी पूर्ण रूपसे विद्वानोंका ध्यान आकृष्ट करनेका श्रेय सर विलियम जोन्सको है । प्राकृत के अध्ययनका सर्वप्रथम उल्लेख चार्ल्स विल्किन्सके 'अभिज्ञानशाकुन्तल' के अध्ययनके साथ मिलता है। इस फ्रांसीसी विद्वान्का यह महान् स्वप्न था कि संस्कृत और प्राकृतके साथ शकुन्तला नाटकका सम्पादित संस्करण मेरे द्वारा प्रकाशित हो; परन्तु इस प्रकारके अध्ययनसे प्राकृत भाषा और उसके साहित्यकी कोई जानकारी तब तक नहीं मिल सकी थी । प्राप्त जानकारीके आधार पर हेनरी टामस कोलबुक (१७९७ - १८२८ ई० ) प्राच्य विद्याओंके गम्भीर अध्येता थे, जिन्होंने संस्कृतके साथ प्राकृत भाषा, संस्कृत - प्राकृत छन्दः शास्त्र, दर्शन, जैनधर्म, बौद्धधर्म आदि पर विद्वत्तापूर्ण निबन्ध लिखे थे । वास्तवमें आधुनिक युगमें प्राच्य विद्याओंके क्षेत्रमें जैन साहित्यके अध्ययन व अनुसन्धानका आरम्भ जैन हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोजसे प्रारम्भ होता है । उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भमें बम्बईके शिक्षा विभागने विभिन्न क्षेत्रों में दौरा करके निजी संग्रहोंके हस्तलिखित ग्रन्थोंका विवरण तैयार करनेके लिए कुछ अन्य विद्वानोंके साथ डॉ० जे० जी० बूलरको भी नियुक्त किया था । १८६६ ई० में डॉ० बूलरने बलिन ( जरमनी ) पुस्तकालयके लिए पाँच सौ जैन ग्रन्थ खोजकर भेजे थे । उस समय संग्रहके रूपमें क्रय किये गए तथा भाण्डारकर शोध संस्थानमें सुरक्षित उन सभी हस्तलिखित ग्रन्थोंके विवरण व आवश्यक जानकारीके रूपमें १८३७-९८ ई० तक समय-समय पर भाण्डारकर, डॉ० बलर, कोलहार्न, पीटर्सन और अन्य विद्वानोंकी रिपोर्टें प्रकाशित हो चुकी हैं। प्राच्यविद्या - जगत् में यह एक नया आयाम था, जिसने जेनधर्म व प्राकृत भाषा एवं साहित्यकी ओर भारतीय व विदेशी विद्वानोंका ध्यान आकृष्ट किया । स्वयं डॉ० बूलरने १८८७ ई० में अपने शोध कार्य के आधार पर जैनधर्मके सम्बन्ध में एक पुस्तक लिखी जो अत्यन्त लोकप्रिय हुई | इसका अंगरेजी अनुवाद सन् १९३० ई० में लन्दन से 'द इण्डियन सेक्ट ऑव द जैन्स' नामसे प्रकाशित हुआ । इस पुस्तक में डॉ० बूलरने स्पष्ट रूपसे निरूपित किया कि जैनधर्म भारतवर्ष के बाहर अन्य देशों में भी गया था । इस धर्मका उद्देश्य सभी प्राणियोंको मुक्ति प्रदान करना है । विद्या महत्त्वपूर्ण अनुसन्धाताके रूपमें उल्लेखनीय विद्वान् वेबर हैं । बम्बईके शिक्षा विभागसे अनुमति प्राप्त कर डॉ० बूलरने जिन पाँच सौ ग्रन्थोंको बलिन पुस्तकालय में भेजा था, उनका अध्ययन अनुशीलन कर वेबरने कई वर्षों तक परिश्रम कर भारतीय साहित्य (Indischen Studien) के रूपमें महान् ग्रन्थ १८८२ ई० में प्रस्तुत किया। यह ग्रन्थ सत्रह जिल्दोंमें निबद्ध है । यद्यपि ' कल्पसूत्र' का अंगरेजी अनुवाद १८४८ ई० में स्टीवेन्सन द्वारा प्रकाशित हो चुका था, किन्तु जैन आगम ग्रन्थोंकी भाषा तथा साहित्यकी ओर तब तक विदेशी विद्वानोंका विशेष रूपसे झुकाव नहीं हुआ था । वेबरने इस साहित्य - ४९१ - Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विशेष महत्त्व प्रतिपादित कर १८५८ ई० में धनेश्वरसूरि कृत 'शत्रुञ्जय माहात्म्य' का सम्पादन कर विस्तृत भूमिका सहित प्रथम बार लिपज़िग (जर्मनी) से प्रकाशित कराया। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ 'भगवतीसूत्र' जो शोध-कार्य वेबरने किया, वह चिरस्मरणीय माना जाता है। यह ग्रन्थ बलिनकी विसेन्चाफेन (Wissenchaften) अकादमीसे १८६६-६७ ई० में मुद्रित हुआ था । वेबरने जैनोंके धार्मिक साहित्यके विषयमें विस्तारसे लिखा था, जिसका अंगरेजी अनुवाद-स्मिथने प्रकाशित किया था। विण्डिश ने अपने विश्वकोश (Encyclopedia of Indo-Aryan Research) में तत्सम्बन्धी विस्तृत विवरण दिया है। इस प्रकार जैन विद्याओंके अध्ययनका सूत्रपात करनेवाला तथा शोध व अनुसन्धानकी दिशाओंको निर्दिष्ट करनेवाला विश्वका सर्वप्रथम अध्ययन केन्द्र जर्मनमें विशेष रूपसे बलिन रहा है। होएफर, लास्सन, स्पीगल, फ्रेडरिक हेग, रिचर्ड पिशेल, बेवर, ई० ल्युमन, डॉ. हर्मन जेकोबी, डब्ल्यु ह्विटमन, वाल्टर शूबिंग, लुडविग ऑल्सडोर्फ, नार्मन ब्राउन, क्लास ब्रुहन, गुस्तेव रॉथ और डब्ल्यु० बी० बोल्ले इत्यादि जर्मन विद्वान् हैं। प्राच्यविद्याओंकी भाँति जैनविद्याओंका भी दूसरा महत्त्वपूर्ण अध्ययन केन्द्र फ्रान्स था । फ्रांसीसी विद्वानों में सर्वप्रथम उल्लेखनीय है-यरिनाट । उनका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'एसे डि बिब्लियाग्राफि जैन' पेरिससे १९०६ में प्रकाशित हुआ। इसमें विभिन्न जैन विषयोंसे सम्बन्धित ८५२ प्रकाशनोंके सन्दर्भ निहित हैं । 'जैनोंका धर्म' (Religion Jains) पुस्तक उनकी पुस्तकोंमें सर्वाधिक चर्चित रही। यथार्थमें फ्रांसीसी विद्वान् विशेषकर ऐतिहासिक तथा पुरातात्त्विक विषयोंपर शोध व अनुसन्धान-कार्य करते रहे। उन्होंने इस दिशामें जो महत्त्वपूर्ण कार्य किए, वे आज भी उल्लेखनीय हैं । म्युरिनाटने जैन अभिलेखोंके ऐतिहासिक महत्त्व पर विशेष रूपसे प्रकाश डाला है । उन्होंने जैन ग्रन्थ-सूची-निर्माणके साथ ही उनपर टिप्पण तथा संग्रहोंका भी विवरण प्रस्तुत किया था। वास्तवमें साहित्यिक तथा ऐतिहासिक अनुसन्धानमें ग्रन्थ-सूचियों का विशेष महत्त्व है। यद्यपि १८९७ ई० में जर्मन विद्वान् अर्नेस्ट ल्युमनने 'ए लिस्ट ऑव द मैन्यस्क्रिप्ट इन द लायब्ररी एट स्ट्रासबर्ग", वियेना ओरियन्टल जर्नल, जिल्द ११, पृ० २७९ में दौ सौ हस्तलिखित दिगम्बर जैन ग्रन्थोंका परिचय दिया था. किन्तु ग्यरिनाटके पश्चात इस दिशामें क्लाट (Klatt) ने महान कार्य किया था। उन्होंने जैन ग्रन्थोकी लगभग ११००-१२०० पृष्ठोंमें मुद्रित होने योग्य अनुक्र णिका तैयार की थी, किन्तु दुर्भाग्यसे उस कार्यके पूर्ण होनेके पूर्व ही उनका निधन हो गया। बेवर और अर्नेस्ट ल्युमनने 'इण्डियन एन्टिक्वेरी' में उस बृहत् संकलनके लगभग ५५ पृष्ठ नमूनेके रूपमें मुद्रित कराये थे। भारतवर्ष में इस प्रकारका कार्य सर्वप्रथम बंगालकी एशियाटिक सोसायटीके माध्यमसे प्रकाशमें आया । १८७७ ई० राजेन्द्रलाल मित्रने "ए डिस्क्रिप्टिव केटलाग ऑव संस्कृत मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द लाइब्ररी ऑव द एशियाटिक सोसायटी ऑव बेंगाल" कलकत्तासे प्रकाशित किया था, जिसमें कुछ प्राकृत तथा अपभ्रंश ग्रन्थों के नाम भी मिलते हैं। मुख्य रूपसे इस महत्त्वपूर्ण कार्यका प्रारम्भ इस देशमें भण्डारकरके प्रकाशित "लिस्ट ऑव संस्कृत मैन्युस्क्रिप्ट्स इन प्राइवेट लाइब्ररीज इन द बाम्बे प्रेसीडेन्डी" ग्रन्थसे माना जाता है। इसी शृंखलामें सुपार्श्वदास गुप्त द्वारा सम्पादित “ए कैटलाग ऑव संस्कृत, प्राकृत एण्ड हिन्दी वर्क्स इन १. 'द कन्ट्रिब्युशन ऑव फ्रेन्च एण्ड जर्मन स्कॉलर्स टू जैन स्टडीज़", आचार्य भिक्षु स्मृति-ग्रन्थ, कलकत्ता, १९६१, पृ० १६६ । २. गोपालनारायण बहुरा “जैनवाङ्मयके योरपीय संशोधक', पृ० ७४७-४८ मुनिश्री हजारीमल स्मृति-ग्रन्थ । -४९२ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द जैन सिद्धान्त भवन, आरा" ( १९१९ ई०) एवं दलाल और लालचन्द्र भ० गांधी द्वारा सम्पादित "कैटलाग ऑव मैन्युस्क्रिप्ट्स इन जैसलमेर भाण्डाराज' गायकवाड़ ओ० सी०, बड़ौदा (१९२३ ई०), रायबहादुर हीरालाल, “केटलाग ऑव संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द सी० पी० एण्ड बरार", नागपुर, १९२६ई० आदि उल्लेखनीय हैं । आधुनिकतम खोजोंके आधारपर इस दिशामें कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ-सूचियोंका निर्माण हआ, जिनमें एच. डी. वेलणकरका "केटलाग ऑव प्राकृतिक मैन्युस्क्रिप्टस", जिल्द ३-४, बम्बई (१९३० ई०) तथा 'जिनरत्नकोश', पूना (१९४४ ई०), हीरालाल रसिकदास कापड़िया का “डिस्क्रिप्टिव केटलाग ऑव मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द गवर्नमेण्ट मैन्युस्क्रिप्ट्स लाइब्रेरी", भण्डारकर ओ० रि० इं०, पूना (१९५४ ई०), डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवालका "राजस्थान के जैन शास्त्र-भण्डारोंकी ग्रन्थसूची", भा० १-५ तथा मुनि विजयजीके “ए केटलाग ऑव संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द राजस्थान ओ० रि० इ० जोधपुर कलेक्शन" एवं पुण्यविजयजीके पाटनके जैन भण्डारोंकी ग्रन्थ-सूचियाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । अपभ्रशके जैन ग्रन्थोंकी प्रकाशित एवं अप्रकाशित हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूचीके लिए लेखककी भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित पुस्तक "अपभ्रंश भाषा और साहित्यकी शोध-प्रवृत्तियाँ" पठनीय है, जिसमें अपभ्रंशसे सम्बन्धित सभी प्रकारका विवरण दिया गया है। वास्तवमें जरमन विद्वान् वाल्टर शुब्रिगने सर्वप्रथम जैन हस्तलिखित ग्रन्थोंकी बृहत् सूची तैयार की थी जो १९४४ ई० में लिपजिगसे प्रकाशित हुई और जिसमें ११२७ जैन हस्तलिखित ग्रन्थोंका पूर्ण विवरण पाया जाता है। यह सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य माना जाता है। इस प्रकारके कार्योंसे ही शोध व अनुसन्धानकी दिशाएँ विभिन्न रूपोंको ग्रहण कर सकी। आधुनिक युगमें प्राकृतिक तथा अपभ्रंश विषयक शोध-कार्य मुख्य रूपसे तीन धाराओंमें प्रवाहित रहा है—(१) साहित्यिक अध्ययन, (२) सांस्कृतिक अध्ययन और (३) भाषावैज्ञानिक अध्ययन । साहित्यिक के अन्तर्गत जैन-आगम-साहित्यका अध्ययन प्रमुख है। यह एक असन्दिग्ध तथ्य है कि आधुनिक युगमें जैनागमोंका भलीभाँति अध्ययन कर उनको प्रकाशमें लानेका श्रेय जर्मन विद्वानोंको है । यद्यपि संस्कृत के कतिपय जैन ग्रन्थोंका अध्ययन उन्नीसवीं शताब्दीके प्रारम्भमें होने लगा था, किन्तु प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्यका सांगोपांग अध्ययन डॉ. हर्मन जेकोबीसे आरम्भ होता है। डॉ. जेकोबीने कई प्राकृत जैन ग्रन्थों का सम्पादन कर उनपर महत्त्वपूर्ण टिप्पण लिखे । उन्होंने सर्वप्रथम श्वेताम्बर जैनागम-ग्रन्थ भगवतीसूत्र'का सम्पादन कर १८६८ ई० में प्रकाशित किया। तदुपरान्त 'कल्पसूत्र' (१८७९ ई.), "आचारांगसूत्र" (१८८५ ई०) 'उत्तराध्ययनसूत्र' (१८८६ ई०) आदि ग्रन्थोंपर शोध-कार्य कर सम्पादित किया । इसी समय साहित्यिक ग्रन्थोंमें जैन कथाओंकी ओर डॉ० जेकोबीका ध्यान गया । सन् १८९१ ई० में 'उपमितिभवप्रपंचकथा' का संस्करण प्रकाशित हुआ। इसके पूर्व 'कथासंग्रह' १८८६ ई० में प्रकाशित हो चका था। 'पउमचरियं', 'णमिणाहचरिउ' और 'सणयकुमारचरिउ' क्रमशः १९१४, १९२१-२२ में प्रकाशित हुए । इसी अध्ययनकी शृंखलामें अपभ्रंशका प्रमुख कथाकाव्य 'भविसयत्तकहा' का प्रकाशन सन् १९१८ में प्रथम बार मंचन (जरमनी) से हुआ। इस प्रकार जरमन विद्वानोंके अथक प्रयत्न, परिश्रम तथा लगातार शोधकार्यों में संलग्न रहनेके परिणाम स्वरूप ही जैन विद्याओंमें शोध व अनुसन्धानके नए आयाम उन्मुक्त हो सके हैं। ऑल्सडोर्फने 'कूमारपालप्रतिबोध' (१९२८ ई०), हरिवंशपुराण (महापुराणके अन्तर्गत), (१९३६ ई०), उत्तराध्ययनसूत्र, मूलाचार, भगवतीआराधना (१९६८) आदि ग्रन्थोंका सुसम्पादन कर प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य पर महान् कार्य किया। वाल्टर शुब्रिगने 'दसवेयालियसुत्तं' का एक सुन्दर संस्करण तथा १. एफ० विएसिंगर : जरमन इण्डोलॉजी : पास्ट एण्ड प्रिजेन्ट, बम्बई, १९६९, पृ० २१ । -४९३ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगरेजी अनुवाद तैयार किया जो १९३२ में अहमदाबादसे प्रकाशित हुआ। उनके द्वारा ही सम्पादित 'इसिभासियं' भा० २ (१९४३ ई०) प्रकाशित हुए । शुबिंग और केल्लटके सम्पादनमें तीन छेदसूत्र "आयारदसाओ, ववहार और निसीह" (१९६६ ई०) हैम्बुर्गसे प्रकाशित हुए । इसी प्रकार जे० एफ० कोलका 'सूर्यप्रज्ञप्ति' (१९३७ इ०), डब्ल्यु० किफेलका 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' (१९३७ ई०), हम्मका 'गीयत्थविहार' (महानिशीथका छठा अध्ययन) (१९४८ ई०), क्लॉसका 'चउपन्नमहापुरिस चरियं' (१९५५ ई०), नॉर्मनका 'स्थानांगसूत्र'' (१९५६), ऑल्सडोर्फका 'इत्थिपरिन्ना' (१९५८ ई०), ए० ऊनोका 'प्रवचनसार' (१९६६ ई०), तथा टी० हनाकीका 'अनुयोगद्वारसूत्र' (१९७०) इत्यादि प्रकाशमें आये ।' १९२५ ई० में किरफल (Kirfel) ने उपांग 'जीवाजीवाभिगम' के सम्बन्धमें प्रतिपादन कर यह बताया था कि वस्तुतः यह 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' से सम्बद्ध है। सन् १९२६ में वाल्टर शुब्रिगने अपनी पुस्तक 'वोर्त महावीराज' के परिचयमें जैनागमोंके उद्भव व विकासके साथ ही उनका साहित्यिक मूल्यांकन भी किया था। सन् १९२९ में हैम्बुर्गसे काम्पत्ज (Kamptz) ने आगमिक प्रकीर्णकोंको लेकर शोधोपाधि हेतु अपना शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत कर डॉक्टरेट प्राप्त की थी। जैनागमके टीका-साहित्य पर सर्वेक्षणका कार्य अर्नेस्ट ल्युमनने बहुत ही परिश्रमपूर्वक किया था, किन्तु वे उसे पूर्ण नहीं कर सके । अनन्तर "ओवेरश्चिट ओवेर दि आवश्यक लिटरेचर" के रूपमें उसे वाल्टर शुब्रिगने १९३४ ई० में हम्बर्गसे प्रकाशित किया। इस प्रकार जैनागम तथा जैन साहित्यकी शोध-परम्पराके पुरस्कर्ता जरमन विद्वान् रहे हैं। आज भी वहाँ शोध व अनुसन्धानका कार्य गतिमान है। सन् १९३५ में फेडेगन (Faddegon) ने सुप्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य कुन्दकुन्दके 'प्रवचनसार' का अंगरेजी अनुवाद किया था। इस संस्करणकी विशेषता यह है कि आचार्य अमृतचन्द्रकी 'तत्त्वप्रदीपिका' टीका, व्याख्या व टिप्पणोंसे यह समलंकृत है। ऐसे अनुवादोंकी कमी आज बहुत खटक रही है। इस तरहके प्रकाशनकी ओर हमारा ध्यान जाना चाहिये। वर्तमान युगमें सम्यक भाव-बोधके लिए सम्यक दिशामें सम्यक् कार्य होना नितान्त अपेक्षित है। साहित्यिक विधाओंमें जैन कथा-साहित्य पर सर्वप्रथम डॉ० जेकोबीने प्रकाश डाला था। इस दिशामें प्रमख रूपसे अर्नेस्ट ल्युमनने पादलिप्तसूरिकी 'तरंगवतीकथा' का जर्मन भाषामें सून्दर अनुवाद 'दाइ नोन' (Die Nonne) के नामसे १९३१ ई० में प्रकाशित किया था। तदनन्तर हर्टेलने जैन कथाओंपर महत्त्वपूर्ण कार्य किया। क्लास ब्र हनने "शीलांकके चउपन्नमहापुरिसचरियं" पर शोधोपाधि प्राप्त कर सन् १९५४ में उसे हैम्बुर्गसे प्रकाशित किया। आर० विलियम्सने 'मणिपतिचरित' के दो रूपोंको प्रस्तुत कर मूल ग्रन्थका अंगरेजी अनुवाद किया। इस तरह समय-समय पर जैन कथा-साहित्य पर शोध-कार्य होता रहा है। जैनदर्शनके अध्ययनकी परम्परा हमारी जानकारीके अनुसार आधुनिक कालमें अल्बख्त बेवरके 'फ्रेगमेन्ट आव भगवती' के प्रकाशनसे १८६७ ई० से मानना चाहिए। कदाचित् एच० एच० विल्सनने "ए स्केच ऑव द रिलीजियस सेक्ट्स ऑव द हिन्दूज' (जिल्द १, लन्दन, १८६२ ई०) पुस्तकमें जैनधर्म तथा जैनदर्शनका उल्लेख किया था। किन्तु उस समय तक यही माना जाता था कि जैनधर्म हिन्दूधर्मकी एक शाखा है। किन्तु बेवर, जेकोबी, ग्लासनेप आदि जरमन विद्वानोंके शोध व अनुसन्धान कार्योसे यह तथ्य निश्चित व स्थिर हो गया कि जैनधर्म एक स्वतन्त्र दर्शन व मौलिक परम्परा है। इस दृष्टिसे डॉ० १. संस्कृत एण्ड एलाइड इण्डोलॉजिकल स्टडीज इन यूरोप, १९५६, पृ० ६६ । २. प्रोसीडिंग्स ऑव द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, पूना यूनिवर्सिटी, १९७०, पृ० २१० । ३. वही, पृ० १११। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेल्थ वान ग्लासनेपकी पुस्तक "द डाक्ट्रीन ऑव जर्मन इन जैन फिलासफी " अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जो सन् १९४२ में बम्बईसे प्रकाशित हुई थी । ऐतिहासिक दृष्टिसे जीमर और स्मिथके कार्य विशेष रूपसे उल्लेखनीय हैं । एफ० डब्ल्यू० थॉमसने आ० हेमचन्द्र कृत 'स्याद्वादमंजरी' का बहुत सुन्दर अंग्रेजी अनुवाद अनुवाद किया जो १९६० ई० में बलिनसे प्रकाशित हुआ । १९६३ ई० में आर० विलियम्सने स्वतन्त्र रूपसे ‘जैनयोग' पर पुस्तक लिखी जो १९६३ ई० में लन्दनसे प्रकाशित हुई । कोलेट केल्लटने जैनोंके श्रावक तथा मुनि आचार विषयक एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक "लेस एक्सपिएशन्स डान्स ले रिचुअल एन्शियन डेस रिलिजियक्स जैन" लिखकर १९६५ ई० में पेरिससे प्रकाशित की। वास्तवमें इन सब विषयों पर इस लघु निबन्ध में लिख पाना सम्भव नहीं है । केवल इतना ही कहा जा सकता है कि परमाणुवादसे लेकर वनस्पति, रसायन आदि विविध विषयोंका जैनागमोंमें जहाँ कहीं उल्लेख हुआ है, उनको ध्यानमें रखकर विभिन्न विद्वानोंने पत्र-पत्रिकाओंके साथ ही विश्वकोशों में भी उनका विवरण देकर शोध व अनुसन्धानकी दिशाओंको प्रशस्त किया है । उनमेंसे जैनोंके दिगम्बर साहित्य व दर्शन पर जर्मनी विद्वान् वाल्टर डेनेके (Walter Denecke) ने अपने शोध-प्रबन्धमें दिगम्बर आगमिक ग्रन्थोंका भाषा व विषयवस्तु दोनों रूपों में पर्यालोचन किया था । उनका प्रबन्ध सन् १९२३ में हैम्बुर्ग से "दिगम्बर - टेक्स्टे : ईने दर्शतेलुंग इहरेर प्राख उन्ड इहरेस इन्हाल्ट्स" के नामसे प्रकाशित हुआ था ।" भारतीय विद्वानोंमें डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, डॉ० हीरालाल जैन, पं० बेचरदास दोशी, to बोध पण्डित, सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र, सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र, डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, पं० सुखलाल संघवी, प० दलसुख भाई मालवणिया, डॉ० राजाराम जैन, डॉ० एच० सी० भायाणी, डॉ० के० आर० चन्द्र, डॉ० देवेन्द्रकुमार जैन, डॉ० प्रेमसुमन और लेखकके नाम उल्लेखनीय हैं । डॉ० उपाध्येने एक दर्जन प्राकृत ग्रन्थोंका सम्पादन कर कीर्तिमान स्थापित किया । अपभ्रंशके 'परमात्मप्रकाश' का सम्पादन आपने ही किया । 'प्रवचनसार' और 'तिलोयपण्णत्ति' जैसे ग्रन्थोंके सफल सम्पादनका श्रेय आपको है । साहित्यिक तथा दार्शनिक — दोनों प्रकारके ग्रन्थोंका आपने सुन्दर सम्पादन किया । आचार्य सिद्धसेनके 'सन्मतिसूत्र' का भी सुन्दर संस्करण आपने प्रस्तुत किया, जो बम्बईसे प्रकाशित हुआ । प्राच्यविद्याओंके क्षेत्रमें आपका मौलिक एवं अभूतपूर्व योगदान रहा है । डॉ० हीरालाल जैन और सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने महान् सैद्धान्तिक ग्रन्थ धवला, जयधवला आदिका सम्पादन व अनुवाद कर उसे जनसुलभ बनाया । अपभ्रंश ग्रन्थोंको प्रकाशमें लानेका श्रेय डॉ० हीरालाल जैन, पी० एल० वैद्य, डॉ० हरिवल्लभ चुन्नीलाल भायाणी, पं० परमानन्द शास्त्री, डॉ० राजाराम जैन, डॉ० देवेन्द्रकुमार जैन और डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्रीको है रे । पं० परमानन्द जैन शास्त्रीके 'जैन ग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह' के पूर्व तक अपभ्रंशकी लगभग २५ रचनाओंका पता चलता था, किन्तु उनके प्रशस्ति-संग्रह प्रकाशित होनेसे १२६ रचनाएँ प्रकाश में आ गईं। लेखक ने “ अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ" में अपभ्रंशके अज्ञात एवं अप्रकाशित ग्रन्थोंके अंश उद्धृत कर लगभग चार सौ अपभ्रंशके ग्रन्थोंको प्रकाशित कर दिया है । जिन अज्ञात व अप्रकाशित रचनाओंको पुस्तकमें सम्मिलित नहीं किया गया, उनमेंसे कुछ नाम हैं : १. शीतलनाथकथा ( श्री दि० जैन मन्दिर, घियामंडी, मथुरा ), २. रविवासरकथा -- मधु (श्री दि० १. "प्राकृत स्टडीज आउटसाइड इण्डिया (१९२०-६९ ) " एस० डी० लद्दू, प्रोसीडिंग्स ऑव द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, पूना युनिवर्सिटी, १९७०, पृ० २०९ ॥ २. डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री : अपभ्रंश भाषा और साहित्यकी शोध प्रवृत्तियाँ, भारतीय ज्ञानपीठ, १९७२ ॥ - ४९५ - Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मन्दिर, कामा), ३. आदित्यवारकथा-अर्जुन (श्री दि० जैन पंचायती मन्दिर, दिल्ली)। इनके अतिरिक्त ईडर व नागौरके भण्डारोंमें पाए जानेवाले कुछ महत्त्वपूर्ण अपभ्रंश रचनाओंकी भी जानकारी मिली है। उन सबको मिलाकर आज अपभ्रंश-साहित्यकी छोटी-बड़ी रचनाओंको मिलाकर उसकी संख्या पाँच सौ तक पहुंच गई है। शोध व अनुसन्धानकी दिशाओंमें आज एक बहुत बड़ा क्षेत्र विद्वानोंकी राह जोह रहा है । शोध कार्यकी कमी नहीं है, श्रमपूर्वक कार्य करनेवाले विद्वानोंकी कमी है। विगत तीन दशकोंमें जहाँ प्राकृत व्याकरणोंके कई संस्करण प्रकाशित हुए, वहीं रिचर्ड पिशेल, सिल्वालेवी और डॉ. कीथके अन्तनिरीक्षणके परिणामस्वरूप संस्कृत नाटकोंमें प्राकृतका महत्त्वपूर्ण योग प्रस्थापित हआ। आर० श्मितने शौरसेनी प्राकृतके सम्बन्धमें उसके नियमोंका (एलीमेन्टरबख देर शौरसेनी, हनोवर, १९२४), जार्ज ग्रियर्सनने पैशाची प्राकृतका, डॉ० जेकोबी तथा ऑल्सडोर्फने महाराष्ट्री तथा जैन महाराष्ट्रीका और डब्ल्यू. ई० कर्कने मागधी और अर्द्धमागधीका एवं ए. बनर्जी और शास्त्रीने मागधीका (द एवोल्युशन ऑव मागधी, आक्सफोर्ड, १९२२) विशेष अध्ययन प्रस्तुत किया था। भाषावैज्ञानिक दृष्टिसे नित्ति डोल्चीका विद्वत्तापूर्ण कार्य, 'लेस ग्रैमेरियन्स प्राकृत्स' (पेरिस, १९३८) प्रायः सभी भाषिक अंगों पर प्रकाश डालनेवाला है। नित्ति डोल्चीने पुरुषोत्तमके 'प्राकृतानुशासन' (पेरिस, १९३८) तथा रामशर्मन् तर्कवागीशके 'प्राकृतकल्पतरु' (पेरिस, १९३९) का सुन्दर संस्करण तैयार कर फ्रांसीसी अनुवाद सहित प्रकाशित कराया। व्याकरणकी दृष्टिसे सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य रिचर्ड पिशेलका 'ग्रैमेटिक देअर प्राकृत-प्राखन' अद्भुत माना जाता है, जिसका प्रकाशन १९०० ई० में स्ट्रासवर्गसे हआ। . इधर भाषाविज्ञानको कई नवीन प्रवृत्तियोंका जन्म तथा विकास हुआ। परिणामतः भाषाशास्त्रके विभिन्न आयामोंका प्रकाशन हुआ। उनमें ध्वविपिज्ञान, पदविज्ञान, वाक्यविज्ञान तथा शब्दव्युत्पत्ति व शब्दकोशीय अध्ययन प्रमख कहे जाते हैं। ध्वनिविज्ञान विषयक अध्ययन करनेवालोंमें 'मिडिल इण्डो-आर्यन' के उपसर्ग, प्रत्यय, ध्यनिविषयक पद्धति तथा भाषिक उच्चारों आदिका विश्लेषण किया गया। इस प्रकार के अध्ययन करनेवालोंमें प्रमुख रूपसे आर० एल० टर्नर, एल० ए० स्वार्स चाइल्ड, जार्ज एस० लेन, के० आर० नॉर्मनके नाम लिए जा सकते हैं । एल० ऑल्सडोर्फके नव्य भारतीय आर्य-भाषाओंके उद्गम पर बहुत अच्छा अध्ययन किया जो रूपरचना विषयक है। लुइस एच० ग्रेने "आब्जर्वेशन्स आन मिडिल इण्डियन मार्कोलॉजी" (बुलेटिन स्कूल ऑव ओरियन्टल स्टडीज, लन्दन, जिल्द ८, पृ० ५६३-७७, सन् १९३५-३७) में संस्कृत व वैदिक संस्कृतके रूप-सादश्योंको ध्यानमें रखकर उनकी समानता व कार्योंका विश्लेषण किया है। इस भाषावैज्ञानिक शाखा पर कार्य करनेवाले उल्लेखनीय विद्वानों व भाषाशास्त्रियोंके नाम है-ज्यूल ब्लॉख, एडजर्टन, ए० स्वार्स चाइल्ड, के० आर० नॉर्मन, एस० एन० घोषाल, डॉ० के० डेवीस : वाक्य-विज्ञानकी दृष्टिसे अध्ययन करनेवाले विद्वानोंमें मुख्य रूपसे डॉ० ऑल्सडोर्फ, डॉ० के० डेव्रीस, एच. हेन्द्रिकसेन, पिसानी आदिके नाम उल्लेखनीय है । इस अध्ययनके परिणामस्वरूप कई तथ्य प्रकाशमें आए। एच० हेन्द्रिकसेनने अपने एक लेख "ए सिन्टेक्टिक रूल इन पालि एण्ड अर्द्धमागधी" में कृदन्त-रूपोंके प्रयोगकी वृद्धिंगत पाँच अवस्थाओंका उद्घाटन किया है। के० अमृतराव, डॉ० के० डेवीस, डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी, कुइपर आदिने प्राकृत पर द्रविड़ तथा अन्य आर्येतर भाषाओंके प्रभावका अध्ययन किया। १. प्रोसीडिंग्स ऑव द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, पूना युनिवर्सिटी, १९७०, पृ० २२३ । २. वही, पृ० २३ । | Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाकोशीय तथा व्युत्पत्तिमूलक अध्ययनकी दृष्टिसे डब्ल्यु० एन० ब्राउनका अध्ययन महत्त्वपूर्ण माना जाता है जिन्होंने संस्कृत, प्राकृत-महाराष्ट्री प्राकृत और अपभ्रंशके सम्बन्धमें सन् १९३२ में कोशीय टिप्पणियाँ लिखी थीं और सन् १९३५ ई० में 'गौरीशंकर ओझा स्मृतिग्रन्थ' में 'सम लेक्सिकल मटेरियल इन जैन महाराष्ट्री प्राकृत' निबन्धमें वीरदेवगणिन्के 'महीपालचरित' से शब्दकोशीय विवरण प्रस्तुत किया था। ग्रेने अपने शोधपूर्ण निबन्धमें जो कि "फिफ्टीन प्राकृत-इण्डो-युरोपियन एटिमोलाजीज" शीर्षकसे जर्नल ऑव द अमेरिकन ओरियन्टल सोसायटी (६०, ३६१-६९) में सन् १९४० में प्रकाशित हुआ था। यह प्रमाणित करनेका प्रयत्न किया था कि प्राकृतके कुछ शब्द भारोपीय परिवारके विदेशी शब्द हैं । कोल, जे० लाख, आर० एल० टर्नर, गुस्तेव रॉथ, कुइपर, के० आर० नॉर्मन, डॉ० सुनीतिकुमार चटर्जी आदि जानिकोंने शब्द-व्यत्पत्तिकी दष्टिसे पर्याप्त अनुशीलन किया। वाकरनागलने प्राकृतके शब्दोंका व्युत्पत्तिकी दृष्टिसे अच्छा अध्ययन किया । इसी प्रकार संस्कृत पर प्राकृतका प्रभाव दर्शानेवाले निबन्ध भी समय-समय पर प्रकाशित होते रहे। उनमेंसे गाइगर स्मृति-ग्रन्थमें प्रकाशित एच० ओरटेलका निबन्ध 'प्राकृतिसिज्म इन छान्दोग्योपनिषद्' (लिपजिग, १९३१) तथा ए० सी० वूलनरके "प्राकृतिक एण्ड नान-आर्यन स्ट्रेटा इन द वाकेबुलरी ऑव संस्कृत" (आशुतोष मेमोरियल वाल्युम, पटना, १९२८), जे. ब्लॉखके कई निबन्ध और एमेन्युके निबन्ध :"द डायलेक्टस ऑव इण्डो-आर्यन", "सम क्लियर एवीडेन्स ऑव प्राकृतिसिज्म इन पाणिनि" महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। इनके अतिरिक्त प्राकृत भाषाके उच्चारण आदिके सम्बन्धमें तथा ध्वन्यात्मक अध्ययनकी दृष्टिसे डॉ० ग्रियर्सन, स्वार्क्सचाइल्ड तथा एमेन्यु आदिका अध्ययन-विश्लेषण आज भी महत्त्वपूर्ण दिशा-निर्देश करनेवाला है। इस प्रकार भाषा-विज्ञानकी विभिन्न शाखाओं तथा उनकी विविध प्रवृत्तियोंके मूलगत स्वरूप के अध्ययनकी दृष्टिसे भी मध्यभारतीय आर्यभाषाओं और विशेषकर प्राकृत-अपभ्रंश भाषाओंका आज भी विशेष अध्ययन विशेष रूपसे उपयोगी एवं भाषा-भाषिक संसारमें कई नवीन तथ्योंको प्रकट करनेवाला है। इस दृष्टिसे इन भाषाओंका बहुत कम अध्ययन हुआ है। इतना अवश्य है कि यह दिशा आज भी शोध व अनुसन्धानकी दृष्टिसे समृद्ध तथा नवीन आयामोंको उद्घाटित कर सकती है। यदि हमारी युवा पीढ़ी इस ओर उन्मुख होकर विशेष श्रम तथा अनुशीलन करे, तो सांस्कृतिक अध्ययनके नवीन क्षितिजोंको पारकर स्वर्णिम विहान लाया जा सकता है। १. प्रोसीडिंग्स ऑव द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, १९७०, १९२२५-२२६ । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jaina Conception of Logic: Some Comments Prof. M.P. Marathe, Poona University When one begins to investigate the Jaina Conception of Logic and methodology, a two-fold task seems to invite one's attention : (a) to spell out suggestions of the Jaina Logical Analysis for formal studies of conceptual and methodological framework, and (b) to bring out some important hints of the Jaina investigations towards conceptual foundations of social sciences-especially the Jaina Action Theory and analysis of the concept of action it offers. A detailed account and analysis of both these issues is a matter for a monograph on the subject. We do not wish to embark upon such a massive investigation here. Instead we wish to highlight some useful hints important in the study of the kind. Background Remarks In any methodological and/or conceptual investigation into Jaina thought certain problems and issues need to be clearly formulated. For, a clearer formulation and understanding of them is likely to help us in more than one way in a methodological study. It is no use neglecting paying due attention to them on the ground that they are either too general or perhaps ambiguosly considered. Some of them are : (1) The Jaina view seems to be bipolar in its perspective-Darsana (Philosophy) and Dharma (way of life). It needs to be investigated how far, deep and wide this bipolarity is. A study of this kind is likely to shed some light on the Jaina Action Theory, granting that it has one (2): Jainism does not accept the world to be merely permanent but benefit of change. Nor does it take the world to be merely changing but lacking permanence. It rather accepts change and continuity both to be important features of the world. It needs to be examined whether they are considered to be structural features of the world or functional ones and the possible grounds of considering the case to be so need to be spelt out. Moreover, implications of the acceptable view need to be brought out. (3) Jainism accepts two main kinds of reals : Jiva (living) and Ajiva (non-living). It needs to be studied whether these kinds are merely commonsensical or whether they really are non-discontinous and independent ones. Likewise, the grounds of their being taken to be so need to be explained and examined. (4) It also *Substantial part of this paper, under the same title, was presented to the Einstein Seminar on Jain Logic and Philosophy of Science' organized by the Department of Philosophy, University of Poona in April, 1979, - 498 - Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ needs to be considered whether both Jiva and Ajiva are real in the same sense, whether both of them are rightly capable of being charaterised by Utpada (emergence), vyaya (degeneration/decay) and Dharawvya (continuity) and if so on what ground/s. Similarly it needs to be studied whether both of them have spatiality and/or temporality and that too in the same sense. Consideration of problems of this kind, it needs to be noted, has an important bearing even on methodological and conceptual investigations. (5) It is often held that Anekantavada and/or Nayaada bring forth plurality of perspectives. But it is of great significance to explicate how and why subscription to plurality of perspectives is both methodoligically and conceptually rewarding. It also needs to be considered whether and to what extent the different perspectives are consistent with one another. Their consisteney needs to be established, not merely to be assumed. (6) Ahimsa is said to be a structural principle of social organization. It also is said to emphasize the need of co-existence rather than of competition. But it needs to be brought out whether it was accepted as a policy or ideology or out of some other pressing need action-theoretic or otherwise. (7) Regarding Syadvada it is held that it establishes compatibility of various statements. But compatibility, cotenability, consistency etc. are logical issues and it needs to be shown that the propositions under consideration are logically compatible, cotenable, consistent etc. We should not elevate our policy of academic accommodatinity or even methodological helplessness to the level of consistency. (8) It is claimed that Svaduada, Anekantavada and Nayavada have important bearings of conceptual and methodological significance upon oneanother. This needs to be spelt out and the issues involved, at least, need to be stated as clearly and as precisely as possible. We do not wish to add more points on this count. The points are made here with the intention of bringing them to the notice of persons concerned with methodological investigations, The Jaina logical and methodological investigation has three principal pillars. Syadvadı or Saptabhangi, Nayavada and Anekantavada. Some remarks seem to be in order before we proceed, although in our comments we wish to continue attention only to some issues. On the Jaina view, number of things are real and each one of them has number of dispositions (Paryayas) and properties (Gunas), some of which decay and vanish in course of time but some others emerge through course of time. Neither all the things nor their dispositions and properties-even all the dispositions and properties of any one of them are given simnltaneously. This situation brings forth number of issues : (1) Are the various things said to be real or existent in the same sense ? That is, can they be captured as values of the same kind of bound variable ? If this is neither feasible nor defensible, then, does Jainism assume starata of reals ? If so, on what basis? If, on the contrary, they could be said to be values of the same kind of bound variables, would this be consistent and defensible ? (2) If the dispositions and properties of a thing emerge in course of time and if they are not given simultaneously then this brings in an important distinction between potential and actual. How does Jaina thought account for it? Likewise, if some things emerge later - 499 - Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in course of time then that brings in the distinction between actual and possible. Does Jaina account turn out to be saitsfactory and consistent on this count ? (3) It is claimed that a thing has, as pointed out above, dispositions and properties. The question that arises is : are they the structural features of things ? What is the ground to say so ? Are such structural features too destroyed and if they are, would a certain thing be that even while its structural features arc destroyed ? Basically, questions of the kind we have mentioned here figure in the Jaina ontological investigation, no matter whether the real that is considered is Jiva or Ajiva. But they are not free from having impart on methodological inquiry as well. . Syadv da or Saptabhangi Syadvada or Saptabhangi is a theory that raises host of methodological and/or conceptual issues, and we wish to draw attention to some of them : (1) It is often said that Syadvada is more a matter of language and expression rather than of knowledge and ontology. But it is also said that Syat' means Anekanta and Anekanta is explicitly ontological and epistemological. Hence, the justifiability of the former claim needs to be examined. (2) The notion of 'bhango' needs to be analysed properly in order to point out whether it means modility or a type of proposition of anything else as also to show whether and if yes on what ground, some of the 'bhangas' are basic and others are derivative. An examination and analysis of this kind, further, needs to be shown to be consistent with the doctrine of Syadvada. (3) It needs to be explored whether and how far possibilistic claims have a bearing on the Jaina distinction between Jiva and Ajiva, for such claims have a principal point where a contest between actually real and an hypothetically possible prevails. It needs to be brought out, through examination of the Jaina theory of reality, whether the Jaina view expects to augment the realm of what is or what does happen by what can or what might happen. Such hypothetical reach lack an objective foundation in the existential order and they cease to be independently of conceiving mind. Are some of the reals. then, considered to be mind-dependent, or at least thonght-dependent ? Is this contention an intended or an unintended consequence of the theory ? For, the claim 'x' is possible but not actual may be understood propositionally or ontologically. In the latter case it raises the question of the exis-tential status of what is asserted by propositions. Further, ontological issues regarding possibility are those posed by modality of de re type. But unactualized possibiles do not belong to the real world, though they can be conceived, entertained. Thus they exist not unqualifiedly but in a realtivised manner, as objects of certain intellectual processes. The possible, albeit unrealized, states of affairs or things obtain an ontological footing. That is, they can be said to exist appropriately in so far as they lie within generie province of minds which conceive them. The analysis of the concept demands reference to workings of mind. It, at least, demands reference to thought process. The question is : have the Jaina thinkers to say something of this kind ? Possibilities could be said to be minddependent as the essential purport of the very conception of possibility is mind - 500 - Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ involving, as un realized possibilities can only be imagnined, supposed, but not handled, seen or located. Hypothetical possibilities are mind involving not by way of their internal and constitutive properties but by way of external and regulative facts about them. The very distinction between actual and hypothetically possible ceases to be operative in a mindless world. This is, perhaps how the distinction seems to bear on that between Jiva and Ajiva unless of course the distinction is very common-sensical and naive or linguistic. The domain of the possible is a realm that is accessible to intellgeing organisms alone. The robust realism of physical objects just will not extend into the area of the hypothetical. The existential objectivity and autonomy of the real world does not underwrite that of the hypothetical possibility. The distinction between hypothetical real and actual real may in a sense remind us of the distinction between attribution of a property to and possessing a property by a thing. The conditions of possibility seem to exceed the bounds and limits of factuality, the former being anchored in conceivability. Do, thus, Jainas mean to hold that reality of certain possible states of affairs resides in the reality of possibility-involving process ? Construction of verbal expressions and assumption of either their reference or existense of reference are quite different and the former does not entail the latter. When possibility of a thing is its only reality, this reality inheres in a possibilistic intellectual process and here actuality (of intellectual process) is prior to possibility as its conceivability, Dependence of unrealized possibilities of language seems to give them objective ontological foothold. This is how 'possibility existed but nobody thought of it at the time (Syat asti avaktavyah) or 'there are possibilities no one will ever conceive of' (Syat apaktapyah) would make sense. Actuality is prior to potentiality or even to possibility in an important sense. But possibility of a thing is posterior to possibility of a process or of a thought conceptual possibility. But substantive possibility is conceptually consequent upon functional possibility, and functional possibility of this kind is a contingent possibility. Even if existential possibility is a hard care, it should lie grounded in the former. Perhaps, unrealized possibility is identified by defining description while existential possibility by ostensive process. By way of individuation, however, the former is descriptively incomplete. Unrealized possibilities exist merely as actual potential objects of thought. They cannot be picked nor can they be identified in this world. The question is: is something of this kind that jainas want to uphold ? It needs to be investigated. But so understood, Jainism turns out to be a conceptualist view where to be is to be conceived. Hence, to say that 'Something is possible but not conceived' is viable, but 'something is possible but not conveivable' is not. (4) Consider another issue. It is too well-known that Jainism accepts rebirth. The question is : does this raise a problem of transmundane identity ? At least of transmundane sameness? Intramundane and transmundane identifications are not the same, though there are obvious similarities between the two. For, in both identifications are made within some context and for some purpose. There is, however, a diffe. rence. Intramundane identifications apply to commensurable objects, but transmundane - 501 - Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ identifications to incommensurable objects. Is Jainism aware of this? This could perhaps be taken to be an unintended consequence of the theory. But it needs to be established that such in fact in the case. Further, two incompatible proportions are incommensurable but not conversely. Two objects are, on the contrary, incommensurable if and only if they ary correctly described by two incommensurable propositions. In transmundane identification of incommensurable objects belonging to different possible worlds their differences seem purposefully to be ignored. Does Jainism do something of this kind-say for being able to uphold its doctrine of Moksa? Moreover, transmundane identification seems to bring in relative essentialism, an outcome of moderate proginatism. Does Jainism subscribe to relative essentialism and in consequence also to moderate proginatism? Was this, again, intended or unintended consequence of the theory? What ground is there to hold whatever view that seems plauHas this further any connection with Ahinsa brought into epistemology and logic from social theory? For, toleration of views might pass for academic accomodation but that can hardly be taken to be the ground for their contenability. Even if transmundane interrepresentability relation is admitted this does not lead to identity of objects. But then did Jainism conture between transmundane interepresentability with identity? If so, the confusion, however unintended, is inexcusable. For while transmundane interrepresentability is a teleological and non-logical relation between incommensurable individuals, identity is a non-teleological and logical relation. Now, take two statements: (1) necessarily everything is identical with itself x=x or (Vx) (x = x) and (2) the given thing is identical with itself: e = e-Even if em holds, it is a contingent fact and hence the argumentee me/. Ome is clearly invalid. Moreover, representability relation and its cognates relate not only synchronic objects but also diachronic objects. Is this what seeme to have misted Jainas ? Again, diachronic objects lead to the formulation of attributes which charact erise objects changeable in more than one way. Is this what led Jainas to talk in terms of alternative number of ways in which a thing can change? What is the evidence for saying so? (5) Lastly, to hold that objects have some of their properties exsentially while others contingently leads to the thesis that some objects exist in more than one possible world. This, is turn, also leads to the fact that there is no reason to hold that objects exist only in one world. The thesis that every object has every property essentially is a theory of world-bound individuals along with the counter part theory as a version of it. Jainism does not seem to hold that every object has every property essentially. But every object has every property essentially, But then does Jainism accept the theory of world-bound individuals? If so, is such a theory methodologically thenable? Many issues of this kind crowd the head of an investigator intending to undertake methodological examination of some of the important Jaina theories and their - 502 - Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ statements. To the extent to which they have not been resolved, it is very difficult to say in advance anything pertaining to the role of the Jaina logical analysis for formal studies of conceptual framework as also of its implications for social sciencesespesially action theory and analysis of conception of action. Earlier, we start realising and attempting to answer problems of this kind the better; otherwise there seems to be no way of getting out of the cobweb of confusions. लेखसार तर्कशास्त्र सम्बन्धी जैन धारणायें : कुछ विचार डा० एम० पी० मराठे, पूना विश्वविद्यालय तर्कशास्त्रसे सम्बन्धित जैन धारणाओंपर विचार करनेपर दो महत्वपूर्ण बातोंपर ध्यान जाता है : जैन धारणाओं एवं विधाओंका तार्किक विश्लेषण और कर्मवादके समान समाज-विज्ञानोंकी मौलिकताके विषयमें अनुसन्धान । इन्हीं विषयोंसे सम्बन्धित कुछ विचार इस निबन्धमें दिये गये हैं । जैन विचारधाराका अध्ययन करनेपर अनेक समस्याओंपर ध्यान जाता है। सर्वप्रथम तथ्य तो यह है कि यह विचारधारा दर्शन और धर्मके रूपमें द्विध्रवी है। इस द्वि-ध्रवताका क्षेत्र क्या है, इसका अध्ययन आवश्यक है जैनदर्शन विश्वको ध्रवपर परिवर्तनशील मानता है। क्या यह धारणा विश्वकी रचनासे सम्बन्धित है या विश्वकी क्रियात्मकतासे सम्बन्धित है ? जैन मान्यता जीव और अजीव तत्वोंको स्वीकार करती है । क्या ये दोनों तत्व व्यावहारिक दृष्टिसे माने गये हैं और क्या ये दोनों ही सन्तत और स्वतन्त्र द्रव्य है ? इन मान्यताओंका आधार क्या है ? इनकी वास्तविकताका आधार क्या है ? अनेकान्त बादके रूपमें दृष्टियोंकी विविधताकी स्वीकृति कितनी तर्कसंगत है ? ये दष्टिकोण एक-दूसरेसे कितनी सीमातक संगत हो सकते हैं ? अहिंसाका सिद्धान्त जैनदर्शनका मूल आधार है। इस विषयमें यह जानना आवश्यक है कि इस आदर्शकी धारणा क्या आदर्शके लिये स्वीकृत की गई थी या कर्म-सिद्धान्तकी प्रतिष्ठाके लिये? स्याद्वादकी मान्यता विभिन्न तथ्योंको संगत एवं सहावस्थानके लिये स्वीकृत की गई है। पर क्या ये तथ्य ताकिक दृष्टिसे भी सम्भव हैं ? इसी प्रकार, स्याद्वाद, अनेकान्तवाद और नयवादको तत्वविद्याके लिये आवश्यक अंग बताया जाता है । इसपर गम्भीरता पूर्वक विचार करनेकी आवश्यकता है। लेखकने इन्हीं कुछ प्रश्नोंको लेकर अपने विचार प्रकट किये हैं जो मननीय हैं। लेखकने अपने तीक्ष्ण चिन्तनके आधारपर जैन तर्कशास्त्रकी कुछ विसंगतियोंपर प्रकाश डाला है जिनका निराकरण और संशोधन गहन अध्ययनके बिना सम्भव नहीं है। -503 - Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jiva and Ajiva Dr. S. S. Barlingey, Poona University D . Jiva. Jain philosophers talk of Jiva and Ajiva. Is it a division, a category distinction or an abstraction ? Do Jiva and Ajiva exclude each other? Or are they abstractions from experience, and so just the concepts and not existents ? Before we proceed further it may be pointed out that it was the custom in ancient India to give a list of concepts but the list was not necessarily exclusive and several concepts mentioned in the list were over-lapping. The Vaišeşikas mention nine Dravyas-the Mahabhūtas, the space and time and Manas and Atman. It is difficult to assume that space and time and the Bhūtas exist independently of one another and that they are not overlapping. It is difficult to imagine Pșthivi, Āp, Tejas, Väyu or Akāśa without spatial or temporal dimension. I understand that when the Vaišeşikas gave this list they treated Pșthivi, Ap etc., as also their forms, space and time as belonging to one list of investigations. The Jains similarly could give a list of what is traditionally known as Jain padārthas (Jainas called them Dravyas) and amongst them could be Jiva and Ajiva. If we look at experience at a macroscopic level it will be clear that the world consists of Jiva or the animate and things different from Jiva or the inanimate. This is the case of a division of the world on a certain principle, fundamentum divisonis. Such division would not suggest that the life or Jiva has no spatiotemporal aspects, nor would it suggest that it has no material aspects. It would, e. g., be possible to imagine two kinds of matter one having life and the other without life. This is what is, for example, said in the Caraka-Samhita. But on such a division, the living and the non-living things or substances will both have some common properties which are spatio-temporal. For, whether something is living or non-living, it would primarily be material and located in space and would be just real, one that can be experienced. Sometimes, however, we may classify our experience into Life and otherwise and such a classification would easily be ambiguous; for, one could mean by it either the classification of real things or we could mean by it a classification of concepts, a case of mere abstraction. It is further possible that we might confuse between the division of things and classification of concepts and in that case we might be doing what is known as abstraction but thinking that we are dividing (or classifying) the things in the world. In this case the confusion would arise due to the fact that we would be treating concepts and things on par, the images of things and concepts succeeding each other in such a quick succesion that one is mistaken for the other. - 504 - Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ When Descartes, e. g., thought of extention and consciousness as substances he was, as Spinoza later suggested, talking of attributes or was merely abstracting, i. e., distinguishing extentional and consciousness aspects of experience, but was thinking that he was dividing (or classifying) the substances, into two. But dividing substance having extension into living and non-living substances is quite different from classifying the concepts of extension and consciousness (without extension) and then thinking that consciousness without extension was one kind of substance and extension was another kind of substance. In experience we do come across the living beings and nonliving things. But however minute a living being may be our experience always tells us that it is always determined by extension. That we are not able to see the extension of it by our naked eyes, does not prove that there is no extension determining these substances. One has to admit that the language Aņoủ Aniyān etc. is the language of extension or space. The problem which arises here is that how there can be a Sanyoga-external contact between something that is extensional and something that is extensionless. People of various schools including Jainism must have noticed this difficulty and that is why the concept of Linga-Deha or KāraṇaDeha must have been introduced. It goes without saying that Deha suggests that although consciousness was different from body, it still had extension. But if this is admitted it is a tacit admission of the fact that the division Jiva and Ajiva was a division of matter, i. e., existence having extension, into non-living and living, and from this it would follow that Jain philosophers were primarily concerned with dividing or classifying the world into extentional but conscious and extentional but nonconscious world, and not into extentional and nonextentional world. My contention is that in a physical analysis or division it is never possible to divide the world into something that is extensional and nonextensional. When we try to talk of extensional and non-extensional and also identify extensional with nonconscious or Ajiva and nonextentional with conscious or Jiva we are, as a matter of fact, abstracting, conceptualizing, logicizing and only mistaking a logical analysis for a physical division. Of course a problem would arise here : When we are talking of a Living being, we know that it is determined by birth and death. In a state after death consciousness or livingness disappears and it makes us think that it has gone away. We forget that 'has gone away' is a metaphor and if it is not used in a metaphorical way it would only belong to the language of space. But we simultaneously hold the belief that (a) it belongs to the language of space and (b) it does not belong to the language of space. We simply overlook that to hold two such beliefs together is a contradiction. But holding such beliefs becomes possible because they are held in two separate chambers of consciousness without any communication between them. Of course, one will have to explain the phenomenon of exit or vanishing of life. But saying that life is a separate substance and it goes away at the time of death is not offering a real explanation of the phenomenon, Space and a thing in space cannot be separated 64 - 505 - Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ from each other. From this if someone suggests that they are two things and they only come together by some external contact, it would be incorrect, Similarly if there is green leaf and if later on it dries up, it would be incorrect to say that green itself has gone somewhere else. When a revolving wheel stops it does not mean that the movement is taking rest somewhere, Vanishing is not equivalent to going somewhere else just as existing together of space and a thing in space is not equivalent to external contact or Sarayoga. A better explanation would be to say that (1) space and a thing in space are one phenomenon, (2) greeness and vanishing of greeness of leaf is another kind of phenomenon (3) revolution of wheel and stopping of its movement is a third kind of phenomenon and death of a living being is a fourth kind of phenomenon. One need not explain the one in terms of the other. But unconsciously one commits this mistake and fluctuates between the process of dividing (or classifying) and conceptualising. Perhaps a better explanation of Jain category would be possible if we understand Java and Ajiva as a division of existants, say matter, on the principle that one is animistic and the other is not. One has to remember that the process of dividing, enumerating, counting or sometimes even classifying things is of one kind and categorising of things is of another. You cannot divide, enumerate etc., unless things exist in their own right. Of course conceptually you can even give concepts the status of a thing and then count (as you do when you count categories). But primarily this process belongs to things which exist in their own right. On the other hand when you distinguish different qualities or characteristics, you are not seperating the independent things, you are abstracting them, and such abstractions are neither in space nor in time, they are not existing, nor living, they are just concepts. A problem, of course, would arise about the relationship of such concepts to reality. Concepts in logic does not require a bearer of substratum but if they are to be real then they can be real only in relation to some substratum which is real, i.e., these concepts should be such that they must be capable of having a form which is a form of existence, a form of life. This form of life or existence makes it possible for us to think that the concept has an existential relevance. Take, e.g., the case of sweetness. In order for sweetness to have significance in life it will have to go with some thing and to talk of a thing we will have to talk of space, time and substance. Space, time and substance, so to say provide a medium for the concept of sweetness to be real. The process by which we concretise a concept is the process in which we supply medium for the concept to exist. And this according to me is the Jain concept of Astikāya-a body for its existence, a form of existence. This form of existence will naturally vary accordingly as the concept in its concretized form is dynamic or not and accordingly the Astikāya concept also will be modified into Dharmāstikāya and Adharmastikāya etc. But the point that I am making is that when a Jain philosopher tries to conceptualize and abstract, he rather talks of Dharma and Adharma, both of them being characteristics (Adharma is also a characteristic) and when he talks of concrete things, he talks of Jiva and Ajiva. One can easily see the distinction between Jiva and Ajiva on the one hand and - 506 - Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dharma and Adharma on the other.* in the light of what has been said above, let me now try to understand the theory of Jiva and Ajiva as understood traditionally by the Jain thinkers. In doing this, it will be my object to remove the contradictions or inconsistencies in the theory and present the theory in a consistent form. Thereby I might be able to show that the theory of Jiva and Ajiva is, in fact, concerned with a division of certain matter which is divided on the basis of animate and inanimate only. First, Jain philosophers think that both Jiva and Ajiva are Dravyas.* Of course Dravya is that which has got certain characteristics. But they think that all Dravyas are spatial in character. Even time is spatial in character for them. Space seems to be the common characteristic of all Dravyas or things. They use the word Pradeśa to denote spatiality of a thing. They also think that since there are two kinds of objects, Jiva and Ajiva, Jiva and Ajiva would be a division of the universe. They bring in an important notion here. The notion of Ākāśa. They divide Ākāśa into Loka-ākāśa and Aloka-ākāśa. Loka-Akāśa is the space wherein the things exist and activity takes place. But the Loka-Akāśa is encircled by a limiting line (may be imaginary) beyond which there cannot be any activity nor can there be any existence of things. It is on this line of demarcation that Jain philosophers imagine that there are Siddhasilās and think of them as abode of freed souls. The freed souls simply cannot go beyond this line because as soon as they are free their activity comes to an end. Beyond this line there is only empty space. It is empty space not because there in nothing in it but because there cannot be anything in it. All things of different kinds therefore exist only in Loka-Akāśa. It may be remembered that the empty space in Loka-Akása is different in kind from the empty space in Aloka-ākāśa. There is however, a difficulty which may be pointed out here. Everything which exists is Astikāya. However, Kála is not an Astikāya though it exists in Lok-Akāśa only. How to conceive of Kāla as not Astikāya and still in space is in fact a problem. Therefore, I think, it is necessary to think that the term Astikāya does not simply indicate a thing but it means as Jain philosophers rightly assert, a medium introduced like Kant's schemata to make up for the relation between concepts and things. But if we think this way, Jiva and Jivästikāya would be two notions and not one. Jiva would be the concept of Jiva and Jivāstikāya would be an actual Jiva having extension. This will not only be true of Jiva, but of all Dravyas. In ordinary language we do use the word Jiva in these two senses. This would also explain why Kāla is not Astikāya, for the concept of time does not require any other medium in order to be significant. * At a later stage, however, he must have made a distinction between Jiva (as a concept) and Jiva (as Astikāya). Similarly he must have made a distinction between Dharına and Dharmāstikaya etc. * I am aware that the Jains use the word Dravya where a Vaiseșika would use Padārtha. - 507 - Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Time itself is such a medium, It is not bound to space in the manner material things are bound to space. Thus only those concepts which require spatiality, in order for them to be significant, and have a form of existence would alone be Astikāya. Astikāya would also thus mean the body or medium of a concept which makes the concepts exist and cease to be merely a concept. I feel that at some stage Jain philosophers must have confused between the concept of Jīva and the actual Jiva. It need not be added that the concept of Jiva is a logical notion whereas Jiva is an empirical existence, Let me now understand how the Jain philosophers think of Jiva which is a Dravya and so which eixsts its own right. And here comes a very significant notion of the Jains. First they think that the Jivas are Anantas-infinite. They also think that Jivas are Asankhya-Pradeśas. Pradeśa here means space and by the statement Jivas are Asatiikhya-Pradeśas--what is meant is that different Jivas can have different spatial dimensions. What is admitted here is that the existent Jīvas are spatial in character. Again, if there is a living child then the Jiva of that child has the same extension as the extension of the body. If the child grows the Jiva also grows for there is no part of the living body which is unconscious. The Jivas is regarded as life-coat for the body. It is a cap or a gown which covers every part of the body and is coextensive with it. This Jiva is not ordinarily separable from the body. When it becomes Mukta then like the left-skin of the serpent and the serpent which can be separated, the Jiva and the body are separated. The Jiva in the context of the living body is continuously growing but a Mukta Jiva would not occupy that part of the body where there are empty spaces or hollowness. Thus in the case of a Mukta Jiva there may not be a oneto-one correspondence between the extension cf Jiva and the body, and the extension of the Mukta Jiva may be smaller than his body. The most important and common-sense element in the whole theory of Jains is this that they agree that consciousness of Jiva cannot exist without space. But this is possible only if Jiva and body are inseparable. But inconsistently with this belief they also believe that at the time of Mukti the Jiva and body can be separated. It is iike taking out a cap of a fountain pen and keeping it away from the fountain pen. In the case of fountain-pen both the fountainpen and its cap are material. But can there be a spatial form which exists and has no material characterization ? It is almost like thinking that there is a form of fragrance as a quality without any material bearer. It is like the Cheshire cat in Alice in the wonderland, which goes away leaving its grin behind. Can there be spatial layer of consciousness without a material body? To think of such layer is in fact to think that consciousness is also material though different from the material body which is non-living. It is holding two belief-systems together in two different chambers. Jain philosophers were toeing the common sense so long as they were thinking that the Jivas had pradeśas. But to think of the Jivas along with pradeśas without body, i.e., Deha, is to mistify and liquidate the common sense. It is the mistake of not distinguishing between vanishing of the phenomenon and separation - 508 - Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of the two independent phenomena. This paradox can be dissolved only if we regard that there are living spatial phenomena and non-living spatial phenomena such that both of them have some material substratum. While intepreting Jain theory it is the common sense, which we have to depend upon. The commonsense tells us that matter is to be divided into living and non-living and is not to be abstracted into matter and not-matter. But in such a case it is redundant to say that there are two bodies one living and the other non-living and that the living body is super-imposed on the nonliving one. Spatiality, it is insisted, is a property both of living and non-living. In the process of abstraction spatiality would also be abstracted. Perhaps for this reason people talked of Kārmika Deha. Unless Karma has spatiality and material properties it could not be attached to Jiva at all. But this common sense stand of the Jains is given up when they bring in the Mukta Jiva, and like other systems of Indian philosophy add to confusion and become more or less like traditional Sa akhya or traditional Advaita. लेखसार जीव और अजीव डा० एस० एस० बालिगे, पूना विश्वविद्यालय जैन दार्शनिकोंने जीव और अजीव तत्त्वोंकी चर्चा की है। क्या यह चर्चा पदार्थोके वर्गीकरणसे सम्बन्धित है अथवा यह मात्र एक धारणा है। वर्गीकरणके लिए पदार्थका अस्तित्व-विस्तार आवश्यक है जबकि धारणाके लिए यह अनिवार्य नहीं है । जब स्थूल जगतको जीव-अजीवके रूपमें वर्गीकृत करते हैं, तब सामान्य दृष्टिसे आकाश-कालके गुण स्वतः समाहित हो जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जैनोंके लिए जीव और जीवास्तिकाय दोनोंका भिन्न अर्थ है । जैनोंमें शरीर और जीवका जो सम्बन्ध बताया है, वह तर्कसंगत नहीं बैठता। इनके सम्बन्धके लिए कर्मका आश्रय लिया गया है। यह भी विस्तारवाला है । जीवास्तिकाय भी विस्तारवान है। यहाँ तक तो बात बनती है, लेकिन जब मुक्त जीवकी बात आती है, तब स्थिति भिन्न होती है। यहाँ इनके सिद्धान्तोंमें भी सांख्य और अद्वैतके समान भ्रान्ति अधिक उत्पन्न । फलतः जैनों के जीव-अजीव विषयक पक्षके सही रूप पर गंभीर विचार और निर्णय आवश्यक है । एक शोधदिशा जापानमें प्रचलित येन मत और जैनधर्म ___पं० जगन्मोहन लाल शास्त्री, कटनी 'दिनमान' के १-१०-७७ के अंकमें 'धर्म-दर्शन' खंडमें प्रकाशित 'आत्मानुकूल पथ' नामक शीर्षक में बताया गया है कि जीन कारपें तियरने अपने एक भाषणमें येन मतको बौद्ध धर्मकी एक शाखा बताया है । परंतु, यह कुछ बातोंमें बौद्ध धर्मसे बिलकुल भिन्न है। येन मत पूर्णतः आत्मानुभूति पर आधारित है। इसमें गुरुके उपदेश तथा प्रवचनको कोई स्थान नहीं है । इसे सभी अपना सकते हैं। यह एक प्रकारका स्व-अनुशासन है। इस मतमें सभी धर्मोके मिश्रणकी अभूतपूर्व संभावनायें हैं। योग-विज्ञान तथा अनुशासनका इतना सुन्दर समन्वय अन्यत्र देखनेको नहीं मिलता । यह मत इतना व्यापक है कि यह रूढ़िवादी अर्थों में बौद्ध धर्मकी श्रेणीमें नहीं आता । यह मुख्यतः ध्यानमूलक धर्म है। इसमें ध्यानके केन्द्रीकरणको एक निश्चित बिन्दु तक पहुँचानेकी आवश्यकता है । -५०९ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह मनोविज्ञानसे जुड़ा हुआ है और रहस्यमय है। यह धर्म और समाजमें सन्तुलन लाता है। यह मत उपनिषद् धर्मके अधिक समीप लगता है। डा० कारतियरने अनेक प्राचीन धर्म ग्रन्थोंके आधार पर यह भी प्रमाणित किया है कि बौद्ध धर्म पर ही येनमतकी छाप पड़ी है। उदाहरणार्थ, योगमें चित्तवृत्ति निरोध, आत्मानुभूति, समय और धार्मिक क्रियायें येनमतकी ही विशेषतायें हैं, बौद्ध धर्मकी नहीं। मुझे पन्द्रह वर्ष पूर्व येनमतके विषयमें जानकारी प्राप्त हुई थी। मैंने अनेक विदेशगन्ताओंसे इसके विषयमें विशेष जानकारी चाही थी, पर उनका विश्वास था कि जापान में तो बौद्ध धर्म ही है, येन-जैसा कोई पृथक धर्म नहीं है। अपने शोधकोंके प्रमादसे मैं इस विषय पर विस्तृत विचार नहीं कर पाया। लेकिन डा० कारतियरके विवरणसे इस विषयमें जो तथ्य सामने आते हैं। वे मेरी दृष्टिसे निम्न हैं : येनमत जैनधर्मकी शाखा सम्भावित है क्योंकि इसमें वणित स्वानुभूति ही सम्यग दर्शन है और स्व-अनुशासन ही निश्चय चारित्र है। इन दोनोंका संबंध आत्माश्रयी है, वाह्यस्रोती नहीं। इसमें अनेक धर्मोंके मिश्रणकी संभावनायें इसके अनेकान्तवादी दृष्टिकोणको व्यक्त करती हैं। इसका ध्यान जैनधर्ममें मोक्ष या निर्वाण या आत्मानुभूतिका साधन बताया गया है। जैनधर्म भी आत्माको शुद्ध, बुद्ध मानता है और निर्वाणको ईश्वर कृपा पर निर्भर नहीं मानता। येनके समान ही जैनधर्म भी दरबारी धर्म नहीं रहा । यह बौद्धधर्मसे पूर्ववर्ती भ० पार्श्वनाथके समयमें भी प्रचलित था। इसमें वीतरागता और आत्मानुभूतिको उच्च स्थान प्राप्त है । जैनधर्ममें संयम पर भी बल दिया गया है । इस प्रकार येन और जैनधर्म में न केवल नाम-साम्य है, अपितु उसके सिद्धान्त भी समान हैं। क्या ऐसा माना जा सकता है कि सहस्रों वर्ष पूर्व जब बौद्ध चिन्तक एशियाई देशोंमें धर्म प्रचार हेतू गये थे, तब जैन चिन्तक भी गये हों? उस समय जहाँ जैनधर्मका अधिक प्रभाव पड़ा हो, वे आज भी 'येन' कहलाते हों ? यह विचार मात्र भावनात्मक नहीं हो सकता, इस विषयमें शोधकों को विचार करना चाहिये। जैनधर्मानुयायी वाणिज्यिक रहे हैं और आज भी उनका इसी ओर झुकाव है। इसलिये उनसे इस प्रकारकी खोजकी क्या आशा की जावे ? इनकी अनेक संस्थाओंको तो अपने देशमें ही अपने धर्म और समाज पर वात्सल्य नहीं है, फिर विदेशोंकी तो बात ही क्या ? क्या सराक जाति संबंधी शोधसे हमारी समाज या संस्थायें प्रभावित हुई हैं ? संस्कृतज्ञ विद्वानोंको भी पारस्परिक शास्त्रार्थ में ही विश्वास है। मैं इस लेख द्वारा समाजके प्रबुद्ध वर्ग तथा धार्मिक वर्गका ध्यान इस प्रकारकी शोधोंकी ओर आकर्षित करना चाहता हूं। उन्हें आजकी आवश्यकताको समझने तथा अनुदार वृत्ति को छोड़नेका आग्रह करना चाहता हूँ । इसके बिना धर्मकी उन्नति, प्रभावना, प्रचार-प्रसार व कालान्तर स्थायित्व-कुछ भी नहीं हो सकता। मेरे ध्यानमें हमारे प्रमादके अनेक उदाहरण हैं । एक बार एक प्रभावी राजनीतिक नेताने भूतपूर्व सिन्ध प्रान्तमें जैनधर्म और उसके तीर्थंकरोंके विषयमें एक लेख लिखा था। वह बड़ा ही रोचक एवं ऐतिहासिक विषय था । लेकिन उसपर भी हमारा ध्यान नहीं गया। यही नहीं, कभी-कभी तो हम शोधकोंको हतोत्साह भी करते हैं । एक बार इलाहाबादके सुप्रसिद्ध अजैन विद्वान्ने हुकुमचन्द्र अभिनन्दन ग्रन्थके लिए एक जैन इतिहाससे सम्बन्धित गवेषणापूर्ण लेख भेजा था। वह लेख प्रकाशित तो नहीं ही किया गया, उसे लौटाया भी नहीं गया । इसीलिये एक बार जब मैंने उन्हें महावीर जयन्ती पर कटनी आमन्त्रित किया, तो उन्होंने नकारात्मक उत्तर देते हुए लिखा, "मुझे जैनोंसे जगप्सा हो गई है।" -५१० Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ७ Section 7 विदेशों में जैन विद्यायें Jainology in Foriegn Countries Intemational www.jamelibrary Page #557 --------------------------------------------------------------------------  Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जर्मनीमें जैनधर्मके कुछ अध्येता डा० जगदीश चन्द्र जैन, बम्बई उन्नीसवी शताब्दीका आरम्भ यूरोपमें ज्ञान-विज्ञानकी शताब्दीका युग रहा है । यह समय था जब जर्मनीके क्रीडरीख श्लीगलको संस्कृत पढ़ने का शौक हुआ और उन्होंने पेरिस पहुँच कर हिन्दुस्तान से लौटे हुए किसी सैनिकसे संस्कृतका अध्ययन किया। आगे चलकर इन्होंने द लैंगवेजेज एण्ड विजडम ऑफ द हिन्दूज (हिन्दूओंकी भाषायें और प्रज्ञा) नामक पुस्तक प्रकाशित कर भारतकी प्राचीन संस्कृतसे यूरोप वासियोंको अवगत कराया । इसी समय फ्रीडरीखके लघु भ्राता औगुस्ट विलहेल्म इलीगलने अपने ज्येष्ठ भ्रातासे प्रेरणा पाकर संस्कृतका तुलनात्मक गम्भीर अध्ययन किया और वे वॉन विश्वविद्यालय में १८१८ में स्थापित भारतीय विद्या चेयरके सर्वप्रथम प्रोफेसर नियुक्त किये गये । मैक्समूलर इस शताब्दी के भारतीय विद्याके एक महान पण्डित हो गये हैं जिन्होंने भारतकी सांस्कृतिक देनको सारे यूरोपमें उजागर किया । ऋग्वेदका सायण भाष्यके साथ उन्होंने सर्वप्रथम नागरी लिप्यन्तर किया और जर्मन भाषामें उसका अनुवाद प्रकाशित किया । इंग्लैण्ड में सिविल सर्विसमें जानेवाले अंग्रेज नवयुवकों के मार्गदर्शनके लिये उन्होंने कैम्ब्रिज लैक्चर्स दिये जो इण्डिया, ह्वाट इट कैन टीच अस ( भारत हमें क्या सिखा सकता है) नामसे प्रकाशित हुए । 'सेक्रेड बुक्स आफ दी ईस्ट' सीरीजके सम्पादनका श्रेय मैक्समूलरको ही हैं जिसके अन्तर्गत भारतीय विद्यासे सम्बन्धित अनेकानेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुए । यूरोप में जैनविद्याके अध्येताओं में सर्वप्रथम हरमन याकोबी (१८५०-१९३७) का नाम लिया जायेगा । वे अलब्र ेख्त बेबरके शिष्य थे जिन्होंने सर्वप्रथम मूलरूपमें जैन आगमोंका अध्ययन किया था । याकोबीने वराहमिहिर के लघु जातक पर शोध प्रबन्ध लिखकर पी० एच डी० प्राप्त की । केवल २३ वर्षकी अवस्थामें जैन हस्तलिखित प्रतियोंकी खोज में वे भारत आये और वापिस लौटकर उन्होंने 'सेक्रेड बुक्स आफ दी ईस्ट' सीरीजमें आचारांग और कल्पसूत्र तथा सूत्रकतांग और उत्तराध्ययन आगमोंका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया । निःस्सन्देह इन ग्रन्थोंके अनुवादसे देश-विदेशमें जैनविद्याके प्रचार में अपूर्व सफलता मिली । यूरोपके विद्वानोमें जैनधर्म और बौद्धधर्मको लेकर अनेक भ्रांतियाँ और वादविवाद चल रहे थे । उस समय याकीबीने जैन धर्म और बौद्धधर्म ग्रन्थोंके तुलनात्मक अध्ययन द्वारा बौद्धधर्मके पूर्व जैनधर्मका अस्तित्व सिद्ध करके इन भ्रांतियों और विवादोंकों निर्मूल करार दिया । जैन आगमोंके अतिरिक्त, प्राकृत तथा साहित्य के क्षेत्रमें उन्होंने पथ प्रदर्शनका कार्य किया । याकोबीने जैन आगम साहित्यकी टीकाओं में से कुछ महत्त्वपूर्ण कथाओंको चुनकर आउसगेवेल्टे ऐरजेकलुन्गन इम महाराष्ट्र (सेलेक्टेड स्टोरीज इन महाराष्ट्री ) नामसे प्रकाशित की। इन कथाओंके सम्पादन के संग्रह में प्राकृतका व्याकरण और शब्दकोष भी दिया गया । १९१४ में याकाबीने दूसरी बार भारतकी यात्रा की । अबकी बार हस्तलिखित जैन ग्रन्थोंकी खोज में वे गुजरात और कठियावाड़की ओर गये । स्वदेश वापिस लौटकर उन्होंने भविसत्तकहा और - ५११ - Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण कुमारचरिउ नामक महत्वपूर्ण अप्रभंश ग्रन्थोंका सम्पादन कर उन्हें प्रकाशित किया । इस यात्रा में कलकत्ता विश्वविद्यालयने उन्हें डाक्टर आफ लैटर्स और जैन समाजने जैनदर्शन दिवाकरकी पदवीसे सम्मानित किया | यूरोप में प्राकृत - अध्ययनके पुरस्कर्ताओंमें रिचर्ड पिशल (१८४९ - १९०८) का नाम भी काफी आगे रहेगा । पिशल ए० एफ० स्टेन्लरके शिष्य थे जिनकी 'एलिमेण्टरी ग्रामर आफ संस्कृत' आज भी जर्मनीमें संस्कृत सीखने के लिये मानक पुस्तक मानी जाती है। प्राकृतके विद्वान वेबरके लैक्चरोंका लाभ भी पिशलको मिला था। उनका कथन था कि संस्कृतके अध्ययनके लिये भाषाविज्ञानका ज्ञान व अध्ययन आवश्यक है। और उनके अनुसार यूरोपके अधिकांश विद्वान इस ज्ञानसे वंचित थे । ग्रामेटीक डेर प्राकृत स्प्रशेन ( द ग्रामर आफ प्राकृत लैन्ग्वेजेज ) पिशलका एक विशाल स्मारक ग्रन्थ है जिसे उन्होंने वर्षोंके कठिन परिश्रमके बाद अप्रकाशित प्राकृत साहित्यकी सैकड़ों हस्तलिखित पांडुलिपियोंके आधारसे तैयार किया था। जिसमें उन्होंने भिन्न-भिन्न प्रकारकी प्राकृतोंका विश्लेषण कर इन भाषाओके नियमोंका विवेचन किया । मध्ययुगीन आर्यभाषाओंके अनुपम कोष हेमचन्द्रकी देशीनाममालाका भी बुहलर के साथ मिलकर, पिशलने आलोचनात्मक सम्पादन कर एक महान कार्य सम्पन्न किया । इन ग्रन्थोंमें प्राकृत एवं अपभ्रंशके ऐसे अनेकानेक शब्दों का संग्रह किया है जो शब्द क्वचित् ही अन्यत्र उपलब्ध होते हैं । संयोगकी बात है कि याकोबी और पिशल -- ये दोनों ही विद्वान पश्चिम जर्मनीके कील विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रह चुके हैं जहाँ उन्होंने अपनी-अपनी रचनाएँ समाप्त कीं । अर्स्ट लायमान (१८५९-१९३१) बेबरके शिष्य रहे हैं। उन्होंने जैन आगमों पर लिखित निर्युक्ति और चूर्णि साहित्यका विशेष रूपसे अध्ययन किया । यह साहित्य अब तक विद्वानोंकी दृष्टिसे नहीं गुजरा है । वे स्ट्रॉसबर्ग में अध्यापन करते थे और यहाँकी लाइब्र ेरीमें उन्हें इन ग्रन्थोंकी पांडुलिपियोंके अध्ययन करनेका अवसर मिला । औपपातिकसूत्रका उन्होंने आलोचनात्मक संस्करण प्रकाशित किया। कहने की आवश्यकता नहीं क्रि लायमान द्वारा सम्पादित प्राकृत जैन आगम साहित्य पिशलके प्राकृत भाषाओंके अध्ययनमें विशेष सहायक सिद्ध हुआ । १८९७ में उनका 'आवश्यक - एरजेलु गेज' (आवश्यक स्टोरीज) प्रकाशित हुआ । पर इसके केवल चार फर्मों ही छप सके । तत्पश्चात् वे वीवरसिष्ट डी आवश्यक लिटरेचर (सर्वे आदि आवश्यक लिटरेचर ) में लग गये जो १९३४ में हैम्बर्गसे प्रकाशित हुआ । वाल्टर शूविंग जैनधर्मके एक प्रकाण्ड पण्डित हो गये हैं जो नौरवेके सुप्रसिद्ध विद्वान स्टेनकोनो के चले जाने पर हैम्बुर्ग विश्वविद्यालय में भारतीय विद्याके प्रोफेसर नियुक्त हुए । उन्होंने कल्प, निशीथ और व्यवहारसूत्र नामक छेदसूत्रोंका विद्वत्तापूर्ण सम्पादन करनेके अतिरिक्त महानिशीथसूत्र पर कार्य किया तथा आचारांगसूत्रका सम्पादन और वर्टे महावीर (वर्क आव महावीर ) नामसे जर्मन अनुवाद प्रकाशित किया। उनका दूसरा महत्त्वपूर्ण उपयोगी ग्रन्थ, डी लेहरे डेर जैनाज है जो दि डॉक्ट्रीन्स आव दी जैनाज के नामसे अंग्रेजीमें १९३२ में दिल्लीसे प्रकाशित हुआ । इस ग्रन्थ में लेखकने श्वेताम्बर जैन आगम ग्रन्थोंके आधारसे जैनधर्म सम्बन्धी मान्यताओंका प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत किया। जर्मनी में किसी विद्वान व्यक्तिके निधन के पश्चात् उसकी संक्षिप्त जीवनी तथा उसकी रचनाओंकी सूचना प्रकाशित करनेकी प्रथा हैं किन्तु महामना शूविंग यह कह गये थे कि उनकी मृत्युके बाद उनके सम्बन्ध में कुछ न लिखा जाय । जे० इर्टल (१८७२-१९५५) भारतीय विद्याके एक सुप्रसिद्ध विद्वान हो गये हैं जो कथा साहित्यके विशेषज्ञ थे। उन्होंने अपना समस्त जीवन पञ्चतन्त्र के अध्ययनके लिये समर्पित कर दिया। वे जैन कथा - ५१२ - Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यकी ओर विशेष रूपसे आकर्षित हुए थे । "ऑन दी लिटरेचर आफ दी श्वेताम्बर जैनाज इन गुजरात” नामक अपनी लघु किन्तु अत्यन्त सारगर्भित रचनामें उन्होंने जैन कथाओंकी सराहना करते हुए लिखा है कि यदि जैन लेखक इस ओर प्रवृत्त न हुए होते तो भारतकी अनेक कथायें विलुप्त हो जातीं । हैल्थ फोन ग्लाजनेप (१८९१-१९६३) ट्युबिन्गन विश्वविद्यालय में धर्मोके इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं । वे धर्म पण्डित थे । याकोबीके प्रमुख शिष्योंमें थे और उन्होंने लोकप्रिय शैलीमें जैनधर्मके सम्बन्धमें अनेक पुस्तकें लिखी हैं जिनके उद्धरण आज भी दिये जाते हैं । उन्होंने डेर जैनिसगुस ( दि जैनिज्म) और डिलेहरे फोम कर्मन इन डेर फिलोसोफी जैनाज (दि डॉक्ट्रोन आव कर्म इन जैन फिलोसोफी) नामक महत्वपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुत की। पहली पुस्तक 'जैनधर्म के नामसे गुजराती में और दूसरी पुस्तकका अनुवाद अंग्रजी तथा हिन्दी में प्रकाशित हुआ । उनकी इण्डिया, ऐज सीन वाई जर्मन थिंकर्स (भारत, जर्मन विचारकों की दृष्टि में ) नामक पुस्तक १९६० में प्रकाशित हुई । ग्लाजनेपने अनेक बार भारतकी और अनेक विद्वानोंसे सम्पर्क स्थापित किया । उनके दिल्ली आगमन पर जैन समाजने उनका स्वागत किया। उनकी एक निजी लाइब्र ेरी थी जो द्वितीय विश्व युद्धमें म वर्षाके कारण जलकर ध्वस्त हो गई । लुडविग आसडोर्फ - ( १९०४ - १९७८) जर्मनीके एक बहुश्रुत प्रतिभाशाली मनीषी थे जिनका निधन अभी कुछ समय पूर्व २८ मार्च १९६८ को हुआ । उनके लिये भारतीय विद्या कोई सीमित विषय नहीं था । इसमें जैनधर्म, बौद्धधर्म, वेदविद्या, अशोकीय शिलालेख, मध्यकालीन भारतीय भाषायें, भारतीय साहित्य, भारतीय कला तथा आधुनिक भारतीय इतिहास आदिका भी समावेश था । आल्सडोर्फ इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जर्मन भाषाके अध्यापक रह चुके हैं । यहाँ रहते हुये उन्होंने संस्कृतके एक गुरुजीसे संस्कृत का अध्ययन किया था । उसके बाद अनेक बार उन्हें भारत यात्राका अवसर मिला । जितनी बार वे भारत आये, उतनी ही बार अपने ज्ञानमें वृद्धि करनेके लिए कुछ-न-कुछ समेट कर अवश्य ले गये । अनेक प्रसंग ऐसे उपस्थित हुये जबकि पंडित लोग अनार्य समझकर उनके मन्दिर प्रवेश पर रोक लगानेकी कोशिश करते । लेकिन वे झटसे संस्कृत का कोई श्लोक सुनाकर अपना आर्यत्व सिद्ध करनेसे न चूकते। आल्सडोर्फने अपने राजस्थान, जैसलमेर आदिकी यात्राओंके रोचक वृत्तांत प्रकाशित किये हैं । आल्सडोर्फने विद्यार्थी अवस्थामें जर्मन विश्वविद्यालयोंमें भारतीय विद्या, तुलनात्मक भाषाशास्त्र, अरबी, फारसी, आदिका अध्ययन किया । वे लायमानके सम्पर्क में आये और याकोबीसे उन्होंने जैनधर्मका अध्ययन करनेकी अभूत पूर्व प्रेरणा प्राप्त की । यह याकोबीकी प्रेरणाका ही फल था कि वे पुष्पदन्तके महापुराण नामक अपभ्रंश ग्रन्थ पर काम करनेके लिए प्रवृत्त हुए जो विस्तृत भूमिका आदिके साथ १९३७ में जर्मनमें प्रकाशित हुआ । आल्सडोर्फ शूब्रिंगको अपना गुरु मानते थे । जब तक वे जीवित रहे, उनके गुरुका चित्र उनके कक्षकी शोभा बढ़ाता रहा। उन्होंने सोमप्रभसूरिके कुमारवालपडिबोह नामक अप्रभ्रंश ग्रंथ पर शोध प्रबन्ध लिख कर पी-एच० डी० प्राप्त की । १९५० में शूब्रिंगका निधन हो जाने पर वे हैम्बर्ग विश्वविद्यालय में भारतीय विद्या विभाग अध्यक्ष नियुक्त किये गये और सेवानिवृत्त होनेके बाद भी अन्तिम समय तक कोई न कोई शोधकार्य करते रहे । अपने जर्मनी आवास कालमें इन पंक्तियोंके लेखकको आल्सडोर्फसे भेंट करनेका अनेक बार अवसर मिला और हर बार उनकी अलौकिक प्रतिभाकी छाप मन पर पड़ी। किसी भी विषय पर उनसे चर्चा ६५ - ५१३ - Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलाइये, चलते फिरते एक विश्वकोशकी भाँति उनका ज्ञान प्रतीत होता रहा । उन्होंने भी संघदासगणि कृत वसुदेवहिडि जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थकी ओर विश्वके विद्वानोंका ध्यान आकर्षित किया और इस बातकी बड़े जोरसे स्थापनाकी कि यह अभूतपूर्व रचना पैशाची प्राकृतमें लिखित गुणाढ्यको नष्ट हुई बड्ढककहा (बृहत्कथा)का जैन रूपान्तर है। उनकी वसुदेवहिंडिकी निजी प्रति देखनेका मुझे अवसर मिला है जो पाठान्तरों एवं जगह-जगह अंकित किए हुए नोट्ससे रंगी पड़ी थी। उनका कहना था कि दुर्भाग्यसे इस ग्रन्थकी अन्य कोई पांडुलिपि मिलना तो अब दुर्लभ है किन्तु अनेक स्थलोंको प्रकाशित ग्रन्थके फुटनोट्समें दिये हुए पाठान्तरोंकी सहायतासे अधिक सुचारु रूपसे सम्पादित किया जाना सम्भव है। अपने लेखों और निबन्धोंमें वे बड़ेसे बड़े विद्वानकी भी समुचित आलोचना करनेसे नहीं हिचकिचाते । उन्होंने अवसर आनेपर याकोबी, पिशल, ऐडगटन आदि जर्मनीके सुविख्यात विद्वानोंके कथनको अनुपयुक्त ठहराया । १९७४ में क्लाइने श्रिफ्टेन (लघु निबन्ध) नामक (७६२ पृष्ठोंका एक ग्रन्थ ग्लाजनप फाउण्डेशनकी ओरसे प्रकाशित हुआ है जिसमें आल्सडोर्फके लेखों, भाषगों एवं समीक्षा टिप्पणियोंका संग्रह है। इसमें दृष्टिवादसूत्रकी विषय-सूची (मूलतः यह स्वर्गीय मुनि जिनविजयजीके अभिनन्दन ग्रन्थके लिए लिखा गया था । यह जर्मन स्कालर्स आफ इण्डिया, जिल्द १ पृ० १..५ में भी प्रकाशित है) के सम्बन्धके एक महत्वपूर्ण लेख संग्रहीत है। मडबिद्रीसे प्राप्त हाए षटखंडागम साहित्यके सम्बन्धमें स्वर्गीय डॉक्टर ए० एन० उपाध्येने उल्लेख किया था कि कर्मसिद्धान्तकी गुढ़ताके कारण पूर्व ग्रन्थोंका पठन-पाठन बहुत समय तक अवछिन्न रहा जिससे वे दुष्प्राप्य हो गये। आल्सडोर्फने इस कथनसे अपनी असहमति व्यक्त करते हुए प्रतिपादित किया कि यह बात तो श्वेताश्वरीय कर्मग्रन्थोंके सम्बन्धमें भी की जा सकती है। फिर भी उनका अध्ययन अध्यापन क्यों जारी रहा और वे क्यों दुष्प्राप्य नहीं हुए। इस संग्रहके एक अन्य महत्वपूर्ण निबन्ध आल्सडोर्फने वैताड्य, शब्दकी व्युत्पत्ति वेदाधसे प्रतिपादित की है : वे (य) अड्ढ = वेइअड्ढ - वैदियड्ढ = वेदार्ध । इसे उनकी विषयकी पकड़ और सूझ-बूझके सिवाय और क्या कहा जा सकता है । तात्पर्य यह है कि आल्सडोर्फकी बातसे कोई सहमत हो या नहीं, वे अपने कथनका सचोट और स-प्रमाण समर्थन करने में सक्षम थे। बे अन्तराष्ट्रीय ख्यातिके कितने औरियंटियल रिसर्च पत्र-पत्रिकाओंसे सम्बद्ध थे और इनमें उन्होंने विविध विषयोंपर लिखे हए कितने ही महत्वपूर्ण ग्रन्थोंकी समीक्षायें प्रकाशित की थीं। 'क्रिटिकल पालि डिक्शनरी'के वे प्रमुख सम्पादक थे जिसका प्रारम्भ सुप्रसिद्ध वि० ट्रेकनेरके सम्पादकत्वमें हुआ था । विदेशी विद्वानों द्वारा भारतीय दर्शन एवं धर्म सम्बन्धी अभिमतोंको हम इतना अधिक महत्व क्यों देते आये हैं।? वे यथासम्भव तटस्थ रहकर किसी विषयका वस्तुगत विश्लेषण प्रस्तुत करनेका प्रयत्न करते हैं। अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं, विचारों एवं विश्वासोंका उसमें मिश्रण नहीं करते हैं। . संस्कृत, प्राकृत अथवा अपभ्रंशकी रचनाओंका अध्ययन करनेके पूर्व वे इन भापाओंके व्याकरण, कोश, आदिका ठोस ज्ञान प्राप्त करते हैं। तुलनात्मक भाषा विज्ञान उनके अध्ययनमें एक विशिष्ट स्थान रखता है। युरोपकी. आधुनिक भाषाओं में अंग्रेजी, फ्रेंच जर्मन, डच आदिका ज्ञान उनके शोधकार्यमें सहायक होता है । जैनधर्मका अध्ययन करनेवालोंके लिए जर्मन भाषाका ज्ञान आवश्यक है। इस भाषामें कितने ही महत्वपूर्ण और उपयोगी ग्रन्थ एवं लेख ऐसे हैं जिनका अंग्रेजी भाषान्तर अभी तक नहीं हआ। आजके युगमे तुलनात्मक अध्ययनकी आवश्यकता है। उदारणार्थ, जैन अध्ययनके लिए जैनधर्म और दर्शनका अध्ययन ही पर्याप्त नहीं, वैदिक धर्म, बौद्धधर्म तथा यूरोपीय भाषाओंमें हुए शोधका ज्ञान भी आवश्यक है । तुलनाके लिए बौद्धधर्मका अध्ययन तो आवश्यक है ही। इन अध्ययनको व्यवस्थित करनेके लिा चने हुए Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रन्थोंका चुने हुए जैन विद्वानों द्वारा आधनिक पद्धतिसे स पादन किये जानेकी आवश्यकता है। प्रकाशित ग्रन्थोंकी आलोचनात्मक निर्भीक समीक्षाकी आवश्यकता है। इस सम्बन्धमें जैनोंके सभी सम्प्रदायोंके विद्वानों द्वारा तैयार की गयी सम्मिलित योजना कार्यकारी हो सकती है । शोध कार्यको सफलतापूर्वक सम्पन्न करनेके लिए पुस्तकालय अथवा पुस्तकालयोंकी आवश्यकता है जहाँ शोध सम्बन्धी हर प्रकारकी सुविधाएँ उपलब्ध हो सकें। ये भारतके कूछ केन्द्रीय स्थानोंमें स्थापित किये जाने चाहिये तथा विद्यमान सुविधाओंका आधुनिकीकरण किया जाय । अन्तमें, एक महत्त्वपूर्ण बात और कहना चाहता हूँ। वह यह है कि यथार्थतासे सम्बन्ध स्थापित करनेका प्रयत्न किया जाये । विषयोंका चुनाव इस प्रकार किया जाय जिससे शोध छात्र प्रोत्साहित हों और आगे चलकर दिशा भी ग्रहण कर सकें एवं जैन विद्याको प्रकाशित कर सकें। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदेशोंमें प्राकृत और जैनविद्याओंका अध्ययन डॉ० हरीन्द्रभूषण जैन, विक्रम वि० वि०, उज्जन भारतके बाहर जर्मनी, जापान, रूस, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड, फ्रांस, बेल्जियम, फिनलैण्ड आदि देशोंमें प्राकृत और जैन विद्याओंके विविध रूपोंपर पर्याप्त शोधपूर्ण अध्ययन किया जा रहा है। अनेक देशोंमें विभिन्न विश्वविद्यालयोंमें इससे सम्बन्धित विभाग हैं जो इस अध्ययनको नयी दिशा दे रहे हैं। इस लेखमें हम इस कार्य में भाग लेनेवाले विशिष्ट विद्वानों और उनके कार्योंका संक्षिप्त विवरण देनेका प्रयास कर रहे हैं। जर्मनीमें जैन विद्याओंका अध्ययन भारतीय विद्याके अध्ययनकी दृष्टिसे जर्मनी सबसे प्रमुख राष्ट्र है । वहाँ प्रायः प्रत्येक विश्वविद्यालय में भारतीय विद्याका अध्ययन और शोध होता है। उन्नीसवीं तथा बीसवीं सदीके कुछ प्रमुख जैन विद्यावेत्ताओंके विषयमें अन्यत्र लिखा गया है। उसके पूरकके रूपमें ही यह वर्णन लेना चाहिये। फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनीके गोटिजन विश्वविद्यालयके भारतीय एवं बौद्ध विद्या विभागमें दो आचार्य कार्यरत हैं--डा० गुस्टवरॉठ और डा० हेन्श वेशर्ट । ये दोनों ही प्राकृत तथा जैनधर्मके विशिष्ट विद्वान हैं । आपके सहयोगसे 'भारतीय विद्याओंका परिचय तथा जैनधर्म तथा जैन साहित्यके क्षेत्रमें जर्मनीका योगदान' नामक पुस्तकें (अंग्रेजीमें) लिखी गई हैं। जर्मनीके वॉन विश्वविद्यालयके प्राच्यविद्या विभागमें आचार्य डा० क्लास फिशर भारतीय कला के अन्तर्गत जैन मूर्तिकलाका भी अध्यापन करते हैं। जैन कलाके सम्बन्धमें उनके अनेक निबन्ध बायस ऑव अहिंसा तथा जैन जर्नलमें प्रकाशित हुए हैं। बलिनमें डा० चन्द्रभाल त्रिपाठी दस वर्षोंसे, जर्मन पुस्तकालयोंमें विद्यमान जैन पाण्डुलिपियोंके सम्बन्धमें शोध कार्य कर रहे हैं । १९७५ में उनका 'स्ट्रासवुर्गकी जैन पाण्डुलिपियोंकी सूची' नामक ग्रन्थ बलिन विश्वविद्यालयसे प्रकाशित हुआ था। १९७७ में उन्होंने जर्मन भाषामें “केटेलोगीजी रुंग्स ट्रेडीशन डेर जैनाज़" नामसे एक निबन्ध भी लिखा है। इसमें उन्होंने जर्मनीके विभिन्न पुस्तकालयोंमें प्राप्त जैन पाण्डुलिपियोंके सम्बन्धमें वैज्ञानिक पद्धतिसे विस्तृत जानकारी दी है। इनके दो और महत्त्वपूर्ण निबन्ध हैं : (१) 'रत्नमञ्जूषा एण्ड छन्दोविचित्ती' तथा (२) जैन कन्कोर्डेन्स एण्ड भाष्य कन्कोर्डेन्स । प्रथम निबन्धमें रत्नम (अपरनाम मंजूषिका) को संस्कृत भाषामें निबद्ध जैन छन्दःशास्त्रका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ निरूपित किया गया है । द्वितीय निबन्ध उन्होंने डॉ० क्लास नके साथ लिखा है। कन्कोर्डेन्स शोधकी एक नयी वैज्ञानिक पद्धति है जिसमें पंच काडों पर पथक-पथक आगमों तथा उनकी टीका. निर्यक्ति और भाष्य आदि में उपलब्ध गाथाओंको अकारादि क्रमसे संकलित कर उनके आधार पर शोधका मार्ग प्रशस्त किया जाता है। पश्चिम जर्मनी (बलिन) के फाइबर्ग विश्वविद्यालयके प्राच्यविद्या विभागके आचार्य डॉ० उलरिश - ५१६ - Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्नाइडर प्राकृत भाषाके विशिष्ट विद्वान हैं। वे अशोकके शिलालेखों पर भाषा-वैज्ञानिक दृष्टिसे शोध कार्य कर रहे हैं । म्यूनिखके डॉ० ए० मैटे, बॉनके डॉ० हिनूबर और बलिनके डा० बोले तथा डा० ब्रुन, डा० मोलर आदि जैन विद्याओंके क्षेत्रमें अब आगे आ रहे है । जापानमें जैनविद्याएँ जापानमें जैन दर्शनके अध्ययनका प्रचार करनेका प्रथम श्रेय डा० ई० नाकामुराको है । वे आजकल रीसो विश्वविद्यालयमें सम्मानित आचार्यके पदपर प्रतिष्ठित हैं । वे जर्मनीके प्रसिद्ध विद्वान डा. हरमन याकोबीके शिष्य रहे हैं। जापानके द्वितीय जैन विद्वान डा० एच० नाकामुरा हैं। उन्होंने जैन और बौद्ध दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन किया है। डा० एस० मात्सुनामीने जर्मनीके जैन विद्या मनीषी डा० शुब्रिगसे जैन आगम और अर्धमागधीका अध्ययन किया है। वे आजकल रीसो विश्वविद्यालयमें आचार्य हैं। इनके अतिरिक्त, जापानमें आजकल कुछ तरुण पीढ़ीके लोग भी जैन दर्शनके अध्ययन-अध्यापनमें दत्तचित्त हैं। श्री नागासाकी ओटानी विश्वविद्यालयमें सहायक आचार्य हैं। वे नालन्दामें डा० सत्कारी मुकर्जीके शिष्य रहे हैं। उन्होंने आचार्य हेमचन्द्र की प्रमाणमीमांसाका जापानी भाषामें अनुवाद किया है। इसी प्रकार डा० एस० ओकुण्डाने जर्मनीके डा० एल० आल्सडोफेसे जैनागम और प्राकृतका अध्ययन किया है। इन्होंने जर्मन भाषामें आइन दिगम्बर डोरमेटीक नामक पुस्तक लिखी है । श्री टाइकन हनाकी, डा० नथमल टाटियाके शिष्य है । उन्होंने अणुयोगद्वाराईका अंग्रेजी अनुवाद किया है। स्व० डा० ए० एन० उपाध्येकी शिष्या कुमारी एस० ओहीराने एल० डी० इंस्टीच्यूट, अहमदाबादमें जैनधर्म पर शोध की है । टोकाई विश्वविद्यालयके सहायक आचार्य श्री टाकाहासीने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय तथा एल० डी० इंस्टीच्यूट, अहमदाबादमें जैनधर्मका अध्यापन किया है। उनके जापानी भाषामें तीन जैन निबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं। इस पीढ़ीके एक अग्रगण्य विद्वान डा० आत्सुइसी ऊनों हिरोशिमाके दर्शन-विभागके अध्यक्ष हैं। वे १९५४-५७ में बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटीमें प्रो० टी० आर० मूर्ति तथा पं० दलसुख मालवणियाके शिष्य रहे हैं। उन्होंने अंग्रेजी तथा जापानी भाषामें जैनधर्म पर अनेक निबन्ध लिखे हैं जिनमें स्याद्वाद, आत्मा, कर्म, ज्ञान, प्रमाण आदिकी समीक्षा की गई है। प्रो० ऊनो जैन तथा न्याय-बैशेषिक दर्शनोंके आधारपर इण्डियन एपिस्टोमोलोजी पर शोध कार्य कर रहे हैं। ये स्याद्वादमंजरीका जापानी भाषामें सटिप्पण अनुवाद भी कर रहे हैं । वे जैनधर्म पर जापानी भाषामें एक ग्रन्थ लिखना चाहते हैं जिसकी सामग्री एकत्रित करने में वे आजकल व्यस्त हैं। रूसमें जेनविद्याएँ रूसमें भी प्राकृत तथा जैनधर्म पर शोध कार्य प्रारम्भ हुआ है। विशुद्ध भाषा-वैज्ञानिक दृष्टिसे प्राकृत पर शोध करनेवालोंमें मैडम मारग्रेट बोरोवयेवा दास्याएँइसकाया तथा मैडम 'तात्याना कैरेनीना (लेनिनग्राड विश्वविद्यालय) उल्लेखनीय है । इस देशमें जैनधर्म पर शोध कार्य करनेवालोंमें मैडम नायली गोवा (मास्को) तथा श्री आण्डे तेरेनत्येव (लेनिनग्राड) प्रमुख हैं। मैडम गसेवाने रूसी भाषामें उपलब्ध जैनधर्मकी एक मात्र पस्तिका लिखी है तथा श्री तेरनत्येव जैनधर्मके इतिहास तथा उमास्वातिके तत्वार्थसत्र पर शोध कार्य कर रहे हैं। मास्कोके इंस्टीच्यट आव ओरियन्टल स्टडीज में भारतीय विद्याके आचार्य प्रो० आइगोर सेरेविया Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकोव भी जैनधर्मके अध्ययनमें व्यस्त हैं कुछ समय पूर्व उन्होंने रूसी भाषामें अनुदित आचार्य हरिभद्रका धूर्ताख्यान प्रकाशित किया था। इसका संशोधित संस्करण अतिशीघ्र प्रकाशित हो रहा है। इनका जैन साहित्य पर एक निबन्ध शार्ट लिटररी एन्साइकोलोपीडियामें भी प्रकाशित हुआ है। अमरीकामें जैनविद्याएँ अमेरिकामें केलिफोनिया विश्वविद्यालयके साउथ ईस्ट एशियन स्टडीज विभागके आचार्य प्रो० पद्मनाभ एस० जैनी, जैनधर्मके मर्मज्ञ विद्वान हैं । उन्होंने जैनधर्म पर बहुत शोध कार्य किया है। उनके अनेक शोधपत्र और कुछ ग्रन्थ भी इधर प्रकाशित हुये हैं । उन्होंने अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय सम्मेलनों में जैनसिद्धान्तोंका तुलनात्मक उपस्थापन किया है । अभी कुछ समय पूर्व ही वे भारत आये थे। वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालयके स्नातक हैं तथा वे लन्दन और मिशिगन विश्वविद्यालयोंमें भी कार्य कर चुके हैं । आप पिछले बीस वर्षोंसे विदेशोंमें जैनविद्याओंके अध्यापन एवं अध्ययनमें लगे हुये हैं। यहाँ होनोलुल स्थित हवाई विश्वविद्यालय भी भारतीय एवं जैन विधाओंका एक प्रमुख केन्द्र बना हुआ है । कुछ समय पूर्व यहाँ काशीके डा० सक्सेना भारतीय दर्शन पढ़ाते थे। उनसे अनेक छात्रोंने जैनविधाओंके अध्ययनमें प्रेरणा प्राप्त की। फिलडेल्फिया विश्वविद्यालय बहत समयसे भारतीय विधाओं तथा जैन विद्याओंके अध्ययनका केन्द्र रहा है। इस समय वहाँ डा० अर्नेस्ट बेन्डर इस क्षेत्रमें काफी कार्य कर रहे हैं। वे भारत भी 3 यहाँके विश्व जैन मिशनसे आप अत्यन्त प्रभावित रहे है। आपके अहिंसा ओर जैनधर्म से सम्बन्धित अनेक लेख व कुछ पुस्तकें प्रकाशित है। वे प्राच्यविद्याओंसे सम्बन्धित एक अमेरिकी शोधपत्रिकाके सम्पादक भी हैं। आजकल जैनविधाओंके प्रचार-प्रसारके लिये डा० चित्रभानु तथा मुनि सुशीलकुमार जी ने भी कुछ वर्षोंसे न्यूयार्क में जैन केन्द्र स्थापित किये हैं। यहाँ जैन ध्यान विद्या, आचार एवं तर्कशास्त्र पर प्रयोग और शोधको प्रेरित किया जाता है। फ्रान्समें जैनविद्याएँ पेरिस विश्वविद्यालय (फ्रान्स) के जैन एवं बौद्ध दर्शन विभागकी शोध निर्देशिका डा. कोले कैले, प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं तथा जैन दर्शनकी विदुषी हैं। गत अनेक वर्षोंसे वे उक्त विषयोंमें शोध कार्य कर रही हैं। आपने मुनिराजसिंह रचित पाहडदोहाका आलोचनात्मक टिप्पणियोंके साथ अंग्रेजी अनुवाद किया है जो एल० डी० इंस्टीच्यूटकी शोध-पत्रिका सम्बोधि (जलाई, १९७६) में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने अपने एक फ्रेन्च भाषाके निबन्धमें दोहापाहडमें अभिव्यक्त जैन सिद्धान्तोंका भगवद्गीता, उपनिषद् आदि ब्राह्मणग्रन्थोंमें उपलब्ध सिद्धान्तोंसे तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। आपने स्टाकहोम और कोपनहेगन विश्वविद्यालयोंमें जैनधर्म में उल्लेखना विषय पर कुछ भाषण दिये थे जो ऐक्टा औरियन्टेलिया में एक बृहत् निबन्धके रूपमें प्रकाशित हुये हैं। आपने जैनविद्याओंसे सम्बन्धित अनेक भाषाओंके ग्रन्थोंकी समीक्षा भी की है। आपके मार्गदर्शनमें फ्रान्समें जैनविद्याओंके अध्ययनका भविष्य उज्जवल होगा। उनके द्वारा लिखित फ्रान्समें जैनविद्याओंके अध्ययनके विकासात्मक इतिहासको इसी ग्रन्थमें अन्यत्र दिया गया है। अन्य देशोंमें जैनविद्याएँ बैल्जियमके घेन्ट विश्वविद्यालयने भारतीय विद्या विभागके आचार्य प्रो० जे० ए० सी० डेल जैन -५१८ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनके अच्छे विद्वान हैं। ये जर्मनीके डा० शूबिंगके शिष्य रहे हैं। इनका एक महत्वपूर्ण जर्मन निबन्ध एच० डब्लू, हॉसिंग द्वारा सम्पादित पुस्तकके चतुर्थ भागमें प्रकाशित हुआ है । इनके सम्पादकत्वमें शूबिंगकी णाहाधम्मकहाओ (जर्मन) प्रकाशित हुई है। यू ट्रेक्टके डा० गोण्डा द्वारा सम्पादित एक ग्रन्थमें जैन दर्शन पर इनका एक महत्वपूर्ण शोध-पत्र भी प्रकाशित हुआ है। फिनलैण्डके डा० अन्टू टाहिटनेन एक विश्वविद्यालयमें काम कर रहे हैं । १९५६-५८ में वे वाराणसी में रहे और पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने भारतीय परम्परामें अहिंसा नामक एक ग्रन्थ अंग्रेजीमें लिखा है जो १९७६ में प्रकाशित हुआ है। इस ग्रन्थमें उन्होंने जैन ग्रन्थोंके उद्धरण देकर भारतीय परम्परामें अहिंसाकी प्रतिष्ठाको सिद्ध किया है। केम्ब्रिजके प्राच्यविद्या विभागके आचार्य डा० के० आर० जर्मन पालि तथा प्राकृत भाषाओंके विशिष्ट विद्वान हैं । आपते प्राकृत भाषाके भाषाशास्त्रीय अध्ययनमें विशेष रुचि प्रदर्शित की है। आज कल आप जैनागमोंका अध्ययन कर रहे हैं एवं आपके निर्देशनमें कुछ छात्र शोध कार्य भी कर रहे हैं। __ आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी केनबरा (आस्ट्रेलियन) के प्रो० बाशम और मेटुम हरकुस भारतीय विद्याओंके साथ-साथ जैनविद्याओं पर भी शोध एवं मार्गदर्शन कर रहे हैं। इन्होंने कुछ पुस्तकें भी इस विषय पर लिखी हैं। अनेक शोध-पत्र भी इनके प्रकाशित हये हैं । डा० बाराम तो भारत भी आ चुके हैं। वियना (आस्ट्रिया) के डा० फाडवालनर तथा हाले (पूर्वजर्मनी) के प्रो० मोडेका नाम भी यहाँ उल्लिखित करना आवश्यक है जो अपने-अपने देशोंमें जैनविद्याओंके अध्यापन और शोधमें लगे हुये हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि अब पाश्चात्य देशोंमें भी अनेक स्थानों पर जैनविद्याओंके अधिकारीविद्वान् प्रतिष्ठित हैं । अनेक विश्वविद्यालय जैनविद्याओंके अध्ययन एवं शोधके केन्द्र बने हैं। हम आशा करते हैं कि ये केन्द्र जैनविद्याओंको समुचित रूपमें प्रकाशित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान करते रहेंगे। -५१९ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINA STUDIES IN FRANCE Madame Colette Coillat, Paris University, France In France, Jainism constantly aroused a great interest among the scholars dealing with the history and culture of India. Early in the 19th century, all encyclopaedias and general reference books give comparatively long accounts on the origins and development of the Community and the Jaina doctrine; they provide informations concerning their artistic achievements and, also, concerning the contemporary status and customs of the sects and believers. Most of the authors pointed to similarities between the Jaina and Buddhist early history, to their common denial of the authority of the Vedas and hostility against animal sacrifice, to the parallelisms in the lives of Buddha and Mahāvira, or again, in the laksaņas of the Saviours to the analogies and differences) in the organization of the Buddhist and Jaina Orders, and, further, in the technical vocabulary of both the Churches (Burnouf, Senart, S. Levi). Hence, the question of their mutual relationship has been much debated (Barth); on the other hand, the fundamental Indian character of the two systems has also been emphasised, and the connections, the possible links between these and Brahmanism have been pointed out. Thus, though the importance of Jainism was in no way ignored (cf. the collection of manuscripts assembled by Senart, a catalogue of which has been edited by Jean Filliozat, "Etat des manuscrits de la collection Emile Senart," Journal Asiatique 1936, p. 127-143), the comparative approach appears to have always fascinated the French scholars, among whom are some of the most brilliant e. g. Sylvain Levi (La doctrine du sacrifice dans les Brāhmanas, 1898, Introduction “Observations sur une langue precanonique du bouddhisme, Journal Asiatique, 1912), Louis Renou, who devoted to Jainism the sixth and last of the Jordan Lectures in Comparative Religion which, in May 1951, he delivered to the London School of Oriental and African Studies, University of London (published in Religions of India, 1953, p. 111-133). Also the histories of Indian philosophy often choose to present together, to compare and oppose, the Jaina and Buddhist tenets (P. Masson-Oursel, Histoire dela philosophie indienne, 1923, parts 3 and 7; the same, in L'Inde antique et la civilisation indienne, 1933, part 3, chapter 2). Moreover, various monographs jointly use the data supplied by the Scriptures of both Communities (L. Silburn, Instant et cause. Le discontinu dans la pensee philosophique de l'Inde, chapter 4). The importance of Jaina contribution in the fields of science and literature was underlined, especially by scholars interested in the Tamil kävyas, like J. Vinson - 520 - Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Legendes bouddhiques et jainas, 1900), while the refinement of Jaina art was described and appreciated by Guerinot and Milloue already in the brief catalogues of both the Guimet Museums (of Lyon and Paris), as it has also been portrayed in the well-known publications of Jouveau-Dubreuil concerning South Indian history and archaeology, and, more recently, in several art books. The unique value of the Jaina sources and traditions for the scholar of Indian history has been stressed on several occasions : by Sylvain Levi, repeatedly, for instance when he studied "the religious donations of the Valabhi kings" (1896, reprinted in 1937), or, again, the epoch of Kanişka and Sātavāhana and the fights for Barygaza Journal Asiatique, 1936, in a posthumous paper). Simililarly, it has been demonstrated by J. Filliozat how a precise synchronism could be shown to exist between the Jaina and Latin data, thus leading to the undeniable conclusion that the accession to the throne of Candragupta Maurya actually took place in 313-312 B. C. (L. Renou et J. Filliozat, L'Inde classique 1, 1947 $394, reprinted in J. Filliozat, Political history of India, from the earliest times to ihe 7th century A. D.) In this connection, it is to be noted that the dates of various southern Jain inscription have been recently re-assessed by V. Filliozat in her book L'epigraphie de Vijayanagar du debut à 1377 (published in 1973). It is well known that a valuable catalogue of Jaina epigraphy, with a "sketch" of the history of Jainism according to the inscriptions, has been edited by A. Guerinot as early as 1908 (Repertoire d'epigraphie Jaina. Precede d'une Esquisse de l'histoire du Jainisme d'apres les inscriptions). It is to be deplored that this gifted scholar had to earn his living by working in the Imprimerie Nationale, and could not devote the whole of his time to research in the field of Jainism, which he had studied under Jacobi's guidance. We owe him the elition and translation into French of the Jūvaviyāra of Säntisūri, the doctrine of which (along with the instructions of Uttarajjhāyā, chapter 36) he summarised in the Revue de l'Histoire des Religions. Another of his contributions is the excellent, accurate Essai de bibliographie jaina. Repertoire analytique et methodique des travaux relatifs au jainisme (1906, items no 1-852), followed by invaluable indices. This study, dedicated to Barth and Senart, lists the books and journal articles published until the end of 1905; it has been supplemented by the same scholar in the Journal Asiatique (X 11, 1909, p. 417448, "Notes de bibliographie jaina"), where the works published from 1906 to the end of 1908 are listed (items no 853–1145). Moreover, in many later issues of the same journal, Guerinot gave bibliographical notes and various news concerning the projects and activities of the Jaina community, who regularly sent him first-hand and friendly Information. His last book, written in French, is a very clear general exposition of La religion djaina. Histoire Doctrine Culte, Coutumes, Institutions (1926, with 25 fine plates). The next detailed treatment of the subject is that by L. Renou and D. Lacombe, in L'Inde classique. Manuel des etudés indiennes 2 (1953, p. 609-664 : sour 66 - 521 - Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ces, history of the Church, rites and customs by L. Renou, &$ 2387-2433; doctrines by O. Lacombe $8 2455-2492; logic, Siddhasena Diväkara by J. Filliozat $8 2493 f.). Since then, .articles on Jainism have been published in several encyclopaedias (Encyclopaedia Universalis, Encylopedie de la Pleiade, Histoire des religions 1, p. 11051145, translated into English and printed in India, in the booklet by C. Caillat, A. N. Upadhye, B. Patel, Jainism, 1974). On the other hand, the sect of the Terapanthis has been the subject of a communication in the Societe Asiatique of Paris (1950) by L. Renou, and of a paper written by L. Renou and Marie-Simone Renou (Une secte religieuse dans l'Inde contemporaine", Etudes, mars 1951, p. 343-351). In fact, both L. Renou and Mme. Renou had always fostered great interest and sympathy for Jainism, and a short account of their visit to Rajaldesar (Bikaner), in 1949, where they had been very kindly invited and received, is inserted by M. S. Renou in her book L'Inde que j'aime (1968, p. 98-113). Some points of the Ardha-magadhi language and of the old religious ritual have been examined by C. Caillat, in papers published in the Journal Asiatique or other periodicals (cf. recently Fasting unto death according to the Jain tradition", Acta Orientalia 38, 1977, p. 43-66, etc.), in Les expiations dans le rituel ancien des religieux jaina (1965; translated into English, with corrections and additions, Atonements in the ancient Ritual of the Jaina monks, Ahmedabad 1975, L D. Series 49), which owes much to the suggestions of L. Renou and W. Schubring. On the basis of Berlin and Ahmedabad manuscripts, C. Caillat further devoted a study to Candavej jhaya. Introduction, Edition critique. Traduction. Commentaire (1971). Presently, it is planned to edit an art book on Jaina cosmography. On the other hand, a Ph.D. is being prepared based on a series of kathās preserved in some of the Strasrbourg and Ahmedabad manuscripts, while anthropological enquiries are devoted to the study of the rites in contemporary Jaina communities. To sum up, though, due to various circumstances, researches have, in France, focussed more on Brahmanism and Buddhism, it is certain that Jainism has always drawn the attention of scholars. Jaina studies attract students all the more nowadays as this field appears to be comparatively virgin and it is related to a living, dynamic Community, who, being interested in its cultural heritage, is ready to cooperate whenever a genuine scientific project is submitted. लेखसार फ्रान्स में जैन विद्याओं का अध्ययन _ मैडम कोले कैले, पेरिस विश्वविद्यालय उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध से विभिन्न विश्वकोशों तथा सामान्य पुस्तकों में दिये गये जैन सिद्धान्तों और जैन समाज के विवरणों से फ्रांस के विद्वान प्रभावित होते रहे हैं। उन्हें जैन, बौद्ध तथा ब्राह्मणों के सिद्धान्तों में रुचि रही है। सेनाई ने तो एक जैन पांडलिपि सूची भी प्रकाशित की थी। फिर भी, फ्रांस के विद्वानों को इन मतों के तुलनात्मक अध्ययन में अधिक रूचि उत्पन्न हुई। इनमें सेलविन लेवी तथा - 522 Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लुइ रेनो के नाम प्रमुख हैं । इन्होंने कनिष्क, शातवाहन, बल्लभी राजाओं के समय की जैन परंपराओं का अध्ययन प्रकाशित किया। जे० फिलियोनेट ने जैन और लातीनी आंकड़ों के आधार पर इनके समसामयिक विकास को प्रकाशित किया । ए. गुरीनो ने 1908 में ही जैन शिलालेखों की सूची प्रकाशित की थी। उसने शान्तिसूरि के जीव विचार का फांसीसी भाषा में अनुवाद किया। जर्नल एसियाटीक में जैन ग्रन्थों की 1909 तक उपलब्ध सूची प्रकाशित की। अन्त में उन्होंने 1926 में जैन धर्म पर भी एक विस्तृत पुस्तक लिखी यह बड़े दुःख की बात रही कि उस समय अनुसंधान के लिये आर्थिक अवसर बहुत कम थे, इसलिये गुयेरीनो को अपनी आजीविका के लिये अन्य काम करना पड़ा। अन्यथा जैन विद्याओं के क्षेत्र में उसका योगदान और भी महनीय होता । एल. रेनो और डी. लेकोम्बे दूसरे प्रमुख विद्वान् हैं जिन्होंने 1950 से अपने अनेक लेखों तथा पुस्तकों के माध्यम से फ्रांस में जैन विद्याओं को आगे बढ़ाया। उसके बाद तो अनेक विश्वकोशों में इस संबंध में नई-नई जानकारी जोड़ी जाने लगी । इसका विवरण अनेक जगह उपलब्ध होता है। एल. रेनो ने भारत की यात्रा भी की और तेरापन्थी श्वेतांबर संप्रदाय से स्थापित अपने संपर्कों के आधार पर जैन धर्म और उसके संप्रदायों पर अनेक लेख व पुस्तकें लिखीं। मैडम सी. कैले ने भी फांस में जैन विद्याओं को आगे बढ़ाया। उन्होंने अर्धमागधी भाषा और सल्लेखना के समान जैन आचारों पर शोध की। इस पर उन्होंने देश-विदेशों में व्याख्यान दिये और अनेक पुस्तकें प्रकाशित कीं। इन्होंने चन्दाविज्झाय का अनुवाद भी किया। इस समय वे जैन स्रष्टि विद्या तथा जैन कमाओं पर शोष करा रही है। इस प्रकार फ्रांस में जैन विद्याओं के प्रति विद्वानों की रुचि निरन्तर बढ़ रही है । लेखक का विश्वास है कि जैन समाज एक गतिशील सांस्कृतिक समाज है और इसने सदैव सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक जैन-अध्ययन के लिये सहायता दी हैं। यह सहयोग ही फांस में जैन विद्याओं के अध्ययन और प्रसार में प्रेरक रहा है। - 523 - Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAIN CONCEPT OF THE SACRED Prof. Padmanabh S. Jaini, California University, Berkeley, U. S. A. Eliade, in his celebrated work The Sacred and the Profane, defines the sacred as being "equivalent to a power, and, in the last analysis, to reality". "Man becomes aware of the sacred", he observes, "because it manifest itself, shows itself, as something wholly different from the profane". He maintains further that "for those who have a religious experience all nature is capable of revealing itself as cosmic sacrality". Accordingly, Eliade sees a religious man as one "who attempts to remain as long as possible in a sacred universe" and believes that "the completely profane world, the wholly desacralized cosmos, is a recent discovery in the history of the human spirit",1 Sacred for the Systems It is obvious that Eliade's concept of the sacred and his idea of religious man are appropriate only to those religions which affirm the existence of a "wholly other reality" capable of manifesting in the "profane". The idea of a reality that is wholly other is somewhat unsatisfactory to the Hindu tradition: otherwise, Eliade's scheme, if suitably modified, would appear to be adequate to comprehend the classical Vedic darśanas and Hindu theism in its multiple forms. The latter has all the major ingredients of a "sacred" tradition: belief in an Almighty Creator, his divine incarnations and power of his grace; belief in the authority of a revealed text, namely the Vedas, which are seen as the source of all knowledge, both ritual and spiritual; and belief in the divine origin of a social system which defines and regulates the activities of each and every member of society. Eliade's concepts of the sacred are, however, deficient when we consider the heterodox systems, particularly the religion of the Jains. Unlike the Carväkas, the Jains are salvationists; unlike the Buddhists, they believe in the existence of souls; hence they must have a concept of the sacred. Nevertheless, their atheism requires that this sacrality be located neither in a Deity nor in its divine ordinances and manifestations, but in man himself, both in the middle of his bondage and in the very act of his isolation (kaivalya) from that bondage. Jainism is distinguished by its man-centredness, a feature which forcefully presents itself in the Jain opposition to all forms of theism. and the alleged sacrality of the phenomena inspired by the Deity. It is the Jain Claim that he alone among salvationists can truly explain the twin doctrines of bondage and freedom, of a beginningless samsära and an endless mokșa. The Vedantin, because of his doctrine of the Absolute Brahman, - 524 - Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ is forced to declare phenomena aş illusory; he must hope that bondage can be wished away merely by denying its reality. The Sāmkhya might admit the reality of both individual souls ( puruşa ) and Prakệti, but he renders the bondage of the soul a mere mockery by declaring that Puruşa is totally incorruptible and unchangeable. The Mimāmsaka is loath to admit the very idea of mokşa, and does not accept the possibility of a man ever knowing anything beyond what the senses will perceive. Lest human beings should imagine that their puny intelligence is capable of properly managing their affairs, the Mimāmsaka, who quietly disposes of gods as mere nominalizations with dative case-endings, stipulates that the dharma or the laws of the universe and the duties of mankind are known only through the Vedas. These are not the relations of a God whose authority must depend on a circular "validation" by the Vedas, nor are they compositions of human beings, however exalted. Rather, these are eternal words, emenating from no man ( apauruseya ) but manifest themselves throughout the cyclical movements of the universe. Yoga and Jain Systems Yoga is one Vedic system which probably comes close to the fundamental teachings of the heterodox schools The term Jina is primarily a description of a yogin who has attained the goal of isolation ( kaivalya ) and omniscience ( kevalajñāna ); indeed, the Jains have claimed that they are the true successors of the yogin depicted in the Indus valley seal. They point to the very significant fact that Hindu divinities are never represented in the posture of meditation (with the possible exception of Siva as Daksiņāmurti ) and that the early Buddha images depict him either in the bhūmisparça or the abhaya-mudrā of preaching. By contrast, images of the Jain Tirthankaras, from the immemorable past to the present day, are invariably shown either seated in a lotus posture or standing erect, rapt in meditation. The discipline of the Patañjala yoga, comprising of yama, niyama etc., agrees in many respects with the rules and regulations and holy practices prescribed for a Jain aspirant. It is conceivable that the Jains and the Buddhists on the one hand and the compilers of the Upanişads and the Gitā, represented by the Patañjala school, on the other, all draw upon an earlier source of yoga which is common to both the Sramana and the Brahmanical traditions. What mainly distinguishes the Vedic yoga from that of the heterodox systems is Patañjali's adoption of Isvara-pranidhāna ( devotion to the Deity) as a means of attaining yoga, however inconsistent this may be with the doctrines of the atheistic Sāmkhya and the monistic Vedānta. Patañjali describes this Deity (Išvara) as one who has never been in bondage, a being who is eternally free from afflictions, actions and their results. He is also an eternally omniscient being, "the guru of all gurus", unrestricted by time. Although called a "purușa-viseșa”, Patañjali's 'guru' is not a human being like Mahävira or Gautama, both of whom also claimed to have acquired freedom from bondage and an irreversible state of omniscience. The belief in an eternally free - 525 - Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ person capable of dispensing salvation by grace is a feature conspicuously absent in the heterodox systems. The Jains as well as the early Buddhists rejected this special category of an eternally free soul as purely arbitrary and observed the activities of a teacher were inconsistent with one deprived of the means of communication, namely mind, body and speech. They also maintained that the belief in such an omnipotent power makes the salvation of the human being dependent on the sweet will of an agency outside the control of the aspirant. They affirmed, and sought to drive home by the examples of Mahāvira and the Buddha, the message that human beings formerly in bondage, are able to break the begining less bond of samsāra, that they have within them the innate powers to realize, here and now, perfection and omniscience, independent of a Deity. Theistic Systems The Yoga school probably saw Isvara playing only the limited role of the spiritual teacher, the Guru. But the theistic darśanas like Nyåya-Vaiseșika and the sectarian cults of Vişņu and Siva, supported by their respective Upanişads. Agamas and Purāņas, saw this Isvara not merely as a benign Guru but as the "Sacred Power", the very source and sustenance of all creation. He, the omniscient and omnipotent Lord, created the world of matter and souls and presided over the destinies of His creations. He dispensed divine justice, weighing the actions of men, punishing the wicked and rewarding the righteous. He held in balance the forces of good and evil (dharma and adharma) by the mighty acts of His divine interventions, the avatāras. Through the Vedas this Lord instructed man in his duties to gods and manes, to the society, and to himself, and stipulated that he be guided not by a free chioce of conscience but by the dictates of varna and āśrama, that is, by the caste and stage of life in which he found himself. While stating in the Gitā that all actions (karma) must be followed by their results, the Lord also predicted dire consequences for breach of the caste duties, duties which must be maintained for the upkeep of the Universe. But it was further promised, rather benignly, that these duties, however unpleasant, could become "sacrifice", or sacred acts, if performed as an act of devotion, and thus comprise the very means of man's salvation from the bonds of action. This kind of theism soon became the most favoured means of salvation, asking nothing more than conformity to the varņāśrama-dharma and an emotional adoration for the Deity in any chosen (ista) form. It inspired mighty waves of bhakti movements which swept across the nation, absorbing countless numbers of diverse people, and assimilating a multitude of gods and cults within its fold. Caves were scooped and temples were erected to enshrine the images of the Lord, who was shown either in the terrible acts of destroying a demon, or, bedecked in royal splendour, enjoying conjugal happiness in the endearing company of His consorts, Poets and scholars alike, joined hands in glorifying the name of the Lord, whom - 526 - Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ they trusted to take care of not only their ultimate salvation but even of their immediate yoga-kşema, the daily bread and butter. The sectarian Puräņas vied with each other in creating a world of fantasy for the benefit of the devotees, who silently accepted as "the Lord's will" untold injustices of an oppressive caste system from within and humiliating defeats and devastations at the hands of unbelievers from without. Jaina Concept of the Sacred As far as we know, no complaint was uttered either by the oppressed masses below or the enlightened brahmins above. The only recorded protest that survives is to be found in the vast literature of the heterodox systems, especially of the Jains, a literature created mostly for the guidance of the Jain laity, which had to be protected from the overwhelming waves of bhakti that engulfed the rest of India. A careful study of this literature, particularly during the medieval period, shows the Jains as pioneers among those who challenged the authority of the Vedas, disputed the efficacy of their sacrifices, repudiated the doctrine of the Creator, rediculed the sacrality of the avatāras, and rejected the brahmanical rituals. In this way they sought to establish a "desacralized cosmos", if we can use such an expression, in which to pursue kaivalya or “isolation", their vision of salvation. The Jain critique of the "sacred" in the Vedic tradition centers around the examination of the nature of an āpta, a technical term meaning 'reliable authority in matters pertaining to salvation of the soul from the bonds of samsāra. This clearly falls in the realm of dharma, and the Mimarsaka declares that only the Vedas, by virtue of their being apauruşeya (uncreated by a human or divine agency) are to be considered apta. The problem of eternal words engaged the attention of such scholastic philosophers as Jaimini, Kumärila and Bhastshari; but Jains saw no difficulty in dismissing the whole controversy with the simple observation that the Vedas consist of words, and like any other composition, must have a human author. The Theist intervenes here, attempting to save the situation by declaring that the Veda are neither Uncreated nor man-made, but emenate as revealation from the Creator, the eternally free and omniscient being who alone deserves to be called āpta. The Jain arguments against this theory are basically two-fold: 1) Creation is not possible without a desire to create and this implies imperfection on the part of the alleged Creator. 2) If karma is relevant in the destinies of human beings, then God is irrelevant; if he rules regardless of karma of beings, then he is cruel and capricious. In brief, the Creator is not free from räga and dveşa and hence is neither free nor omniscient; therefore, he cannot be an apta. The Jain needed no better proof for his thesis than the Hindu Puranas, which narrated the most shocking deeds of their God, perpetrated as He assumed the forms of Brahmä, Vişnu and Siva. They extolled what appeared to the Jain the most hideous and imnioral exploits of Narasimha or Krşna, the Lord's alleged avatāras or manifestations on earth. Akalańka, a celebrated ninth century logician - 527 - Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ expresses the Jain indignation over worship of the Hindu Trinity in his famous stotra to a Jina2. The Jain could allow that the Puranic tales of the avataras were probably figurative and therefore their teaching should be tested against more difinitive texts like the Vedas, the Brahmanas or the Dharma-iästras, which claimed the prerogative to instruct on dharma and adharma. Even here the Jain was disappointed, for these texts bristled with self-contradictions and seemed to lack any universal ethic which could be applied at all times for all human beings. Having, for instance, enjoined that "Thou shall not injure any being" (na himsyāt sarvabhūtäni). the scriptures had no scruples whatsoever against openly prescribing killing of animals for the sacrifice to gods and also as offerings to the manes! Even more obnoxious to the Jain was the fact that such sacrificial hirpsä was not only declared to be without evil, but was even labelled as "dharma", a virtuous act ! Hemacandra (1088-1172) indignantly asks: If hurt, how cause of merit? If cause of merit, how hurt?" The Dharmalästras, having said "Let him not speak what is untrue" (nanṛtam brūyat), proceed to make an exception: "For the sake of a Brahmin he may speak what is not true" (Apastamba); they even list five occasions upon which speaking an untruth is not a lie when spoken in jest, when told in dealing with women, at the time of marriage, when in the peril of life, or in the complete loss of goods. (Vašista XVI 36). Having forbidden stealing and having repudiated taking what is not given, Manu has no hesitation in saying: "Even if a brahmin by violence appropriates another's goods, or by ruse, nevertheless there is on his part no taking of what is not given; for all this (world) was given to the Brahmins, but through the weakness of the Brahmins the outcasts enjoy it. And therefore a Brahmin, taking it away, appropriates his own, a Brahmin simply enjoys his own, he dresses himself in his own, he gives away his own" (Cf. Manusmrti I, 101). Further, in examining the domestic rituals enjoined by the Law books the Jain found that a great many of these were acts of gross superstition, exploited by the brahmins to earn an easy livelihood. They scrutinized, for example, the ceremony of räddha to the ancestors by feeding the brahmins, a practice of great antiquity which forms the very foundation of the Hindu family system even to this day. This ritual is of crucial importance to the Hindu because it is considered a fulfilment of a major obligation under the varṇäérama-dharma. A man must enter the stage of a householder (gṛhasthäärama) by marrying according to the caste rules. Begetting a son is obligatory because only a son can guarantee the ghost (preta) of the dead (father) a new body and a safe passage to the world of ancestors (pitrs); he does this by periodically offering nourishment in the form of śrāddha. Brahmins are fed sumptous meals on these occasions and it is believed that they are able to transfer the merit directly to the deceased fathers. The son is rewarded for his service with the right to inheritance of the paternal property, and a prosperous lineage is expected to result from the blessings of the ancestors. - 528 - Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain ācāryas forbade this ritual to their laity not only because it defied common-sense but also because it was in direct violation of the law of karmas. They argued rather sarcastically that there was no invariable causal relationship between the performance of the srāddha and prosperity of the lineage. It was clear that most people who performed it saw no increase in their lineage; on the other hand, such creatures as donkeys, pigs and goats increased their lineage even without performing the sråddha. And as for the claim that “What is enjoined by the Brahmins accrues to the ancestors", the Jain critic Mallisena ( 1292 A. D. ) retorts : "Whoever is to agree to that ? For only in the Brahmin do we see the fattened bellies; and transference of these into their ( the ancestors' bellies) just cannot be believed; since at the time of feeding no single sign of such transferrence is perceived; and because only on the part of the Brahmins is satisfaction witnessed”.4 The claim that the departed soul depended on his son's offerings in order to acquire a new body was a rather serious one. The Jain believed that a departed soul automatically assumes a new body-human or animal, hellish or heavenlyforged by his past karmas, and also that the new incarnation occurs no more than three instants ( samaya ) after discarding the old body. The Jains had no place for the world of Fathers ( Pitp-loka ) in their cosmology and could not cherish the idea of preserving a "point of meeting between the living and the dead”, which they saw as a constant source of fear and attachment. Nor could they accept the dicates of the varṇāśrama, pertaining to marriage and the begetting of a son; rather than being obligatory, these acts were considered optional and preferrably to be avoided. A man owes nothing to either gods or ancestors; while kindness to parents is a virtue, it is nevertheless perfectly proper to renounce the world whenever one is ready to follow the higher call. The Jain law-givers extended this same critical attitude towards variety of "holy" and "meritorious" practices which orthodox Hindus cultivated with the aim of coming closer to the divine manifest in nature. Somadevasuri (959 A. D.) gives a long list of such practices, which he labels as mūdhatās (follies): 1. Offering libations to the sun, 2. bathing during eclipse, 3. spending wealth at samkrānti ( winter solstice), 4. performing sandhyā ritual ( ablutions at dusk ), 5. worshipping fire, 6. worshipping a house, 7. worshipping one's own body ( by smearing it with ashes, etc.), 8. ritual bathing in rivers and oceans, 9 saluting trees, 10. jumping from holy mountains, 11. saluting the end of a cow's tail, 12. drinking cow's urine, etc. “These and many others”, he warns, "are follies prevalent in the world. A Jain performing these, whether in order to obtain a favour or to maintain one's position in society, will surely lose samyag-darsana, the true insight into the nature of reality'.5 The Jain idea of the “sacred” is clearly shown in one of their most ancient litanies, which lists four saraņas or refuges, also called mangalas, the auspicious 529 - 67 Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ones. These are arihanta (Skt. arhat ), siddha, sādhu and the dharma taught by the Kevalin or omniscient one. The first of these, the arhat, means the Worthy, the Holy One; he is also called Jina ( The spiritual victor ), after whom the Jains take their name. Both arthat and jina were originally Jain terms, which were adopted by many other śramaņas including the Buddhists; the terms are conspicuously absent in the Brahmanical tradition. The arhat is an ascetic, like Mahāvira, who by contemplation and exertion, has attained to omniscience and has acquired an irreversible state of freedom from the bonds of samsāra. While the current state of embodiment continues, he preaches the law ( dharma ) as he has perceived it through his omniscience. At the end of his normal life, his pure soul discards the last of the physical and karmic bonds; becomes totally isolated from all associations, and resides forever at the peak of the universe (loka-ākāśa), endowed with infinite knowledge and bliss. He is then called siddha, the Perfected One. Theoretically the siddha is higher than the arhat. but the latter is given precedence in the Jain litany, for only the arhat is able to preach the law and be a guide to the disciples. The third refuge, the sādhu, is an aspirant, an ascetic who follows the path of purification and adheres to the doctrines preached by the arhat. These doctrines and practices will constitute what is called dharma, the fourth refuge, the mangala by which the Jain abides. It is the contention of the Jain that a person becomes an arhat not by the grace of any Higher Being, but by dint of his own insights (darśan) and exertions (cāritra). He is no doubt helped by the example and preachings of previous Teacherarhats, called Tirthankaras ('Ford-makers'), similarly, he will help others who follow in his wake. The line of Teachers had no beginning and will have no end; any one can at any time join the line, be counted a Teacher and become a siddha. The Jain thus replaces the Yoga doctrine of a single and enternally free Isvara with an interminable succession of 'human' Teachers rising in the course of time. These Teachers do not respond to the aspirant's devotion (pranidhāna), nor can they influence his career; they remain totally indifferent to whether their teachings are received or rejected. The relationship between a Jain and his Jina is strictly impersonal. There is no concept of işta; although Mahāvira is recognised as a historical person and his nirvāṇa is commemorated by an era (the Vira-nirvāṇa-samvat, 527 B. C., probably the oldest historical era in India), he receives the same worship as any other Jina, since they all preached the same perfection and taught the same doctrine. The Jain layperson worships the image of the Jina totally independent of any priest; he does this in a rather lavishly furnished shrine-an imitation of the holy assembly (samavasarana) where the Jina preached his sermon-and is fully aware of the absence of any Deity, considering the whole act as purely a reminder of his true goal. Nor is there any expectation of gaining absolution from the confessions (pratikramaņa) he makes in the presence of the Jina image or of the sädhu, for the laws of karma are irrevocable and no power, however mighty, can enable one to escape the consequences of his own acts. -530 - Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Through acts of worship a Jain may hope to secure such results as karmakşaya (destruction of karma), bodhi-labha (attaing enlightenment) or samadhimarana (holy death in meditation), but as far as worldly gains are concerned, the Jina is past granting any boons; it is unbecoming to even entertain such thoughts in his presence. It is true that this situation makes it possible for the Hindu divinities and Jain demi-gods (yaksas) to creep into the Jain temples in the guise of doorkeepers (dvära-palas) or guardian deities (4äsana-devatäs), catering to the emotional needs of the weaker sections of the Jain laity. But the informed Jain pays no more attention to them than he would to a distinguished guest visiting the temple; for he firmly believes that one reaps the fruits of one's own karma, whether good or evil; no one can add to or take away from another's karma, not even the mightiest of the gods, for they too are subject to the same law. Karma is a psycho-physical complex; although neither holy nor sacred, it is nevertheless a power to be reckoned with, a power which is not to be propitiated but rather to be challenged by the aspirant and overcome by his insight and pure conduct. The Jain äcāryas who struggled against the bhakti movements contended that Iévara and karma are not compatible; the God will always be invested with powers labeled as "sacred", to intervene in the automatic operation of karma, to nullify its effects and finally to set it aside as mere illusion. They argued that such a belief destroys the roots of Universal ethics and justice; instead of making a man self-reliant and motivated to develop his innate powers, it makes him a fatalist resigned to the mercy and favour of a higher power. Therefore they attempted to depict the Hindu trinity of Brahma, Visņu and Siva as a collection of sham gods (kudevas), not to be depended upon for salvation. Further, they exerted great effort in dealing with the two human avataras, Rāma aud Kṛṣṇa, for these could not be dismissed as mere myth, and their cults had become a real threat to the integrity of the Jain laity. The Jain ācāryas had no difficulty in accepting the hero of the Ramayana, whose life had been nearly ideal, except for the deplorable act of killing the demon king Rävana, an act which was the main purpose of the Rāmavatära. They could not let him kill Ravana and yet not take the consequences of going to hell! Therefore they very ingeniously drafted a Jain Ramayana and saw to it that Ravana was killed not by Rama but by his younger brother Lakṣmaṇa, and the latter was cosigned to hell. They made Rama renounce the world in the time-honoured fashion of Jain ascetics, and accepted him as an arhat and a siddha, a true model for the Jain laity. The controversial Krsna, however, did not fare so well. The Mahabharata is filled with accounts of his trickeries as a statesman; he had killed countless humans and demons. The Jain äcäryas tried as best as they could to paint a more flattering picture of Krsna in their Puranas (e. g. the Harivartapurana of Jinasena), making him at contemporary of one of their Tirthankaras named Neminatha, but finally had no alternative but to send him to purgatory to suffer the consequences of his actions. They did predict however, that when he emerges from purgatory in the near future, Kṛṣṇa will be a Tirthankara and will be worshipped by both gods and men. - 531 Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ By their rather bold but not altogether unexpected treatment of Rama and Krşna, the Jains were proclaiming their firm belief that violence (hirmsā) is not compatible with the sacred"; that the scriptures which approved violence as a means of dharma were not holy; and also that no person, however exalted, is to be emulated if his conduct brings harm to other beings. Non-violence or ahimsā is the basis of all dharma; and this ahimsā itself rests upon the knowledge that all beings, even the most insignficant ones, possess an iminortal soul, capable of attaining perfection. This seed of perfection called sa myaktva is the single most "sacred" thing for the Jain. Upon this foundation he has built a very elaborate network of holy practices for the realization of his true nature.' References 1. M. Eliade, The Sacred and the Profane, New York, 1959, pp. 11-13. 2. Akalanka-stotra, Nitya-naimittika-pathavali, Karanja, 1956. 3. Mallisenna's Syadvadamalijari, Agas, 1970. 4. Syadradamarijari, kārika 11. 5. See U pasakādhyayana, kärikā 136-140. 6. Hemacandra's Trisastisalahapurusacarita, VII, 10, 231. 7. For a full description of this path, see P. S. Jaini, The Jaina Path of Purifi cation, California, 1979. लेखसार पवित्र जो जैन धारणा प्रो० पद्मनाम एस. जैनी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, वर्कले, अमेरिका ईलियेड ने अपनी पुस्तक 'दी सेक्रेड एण्ड दी प्रोफेन' में पवित्र और अपवित्र को स्पष्टतः विभेदित किया है और बताया है कि मनुष्य धार्मिक अनुभव से पवित्रता के प्रति उन्मुख होता है । उनका कथन है है कि विश्व में अपवित्रता का गुण पहले नहीं था, अभी ही आया है । यह मान्यता सर्वशक्तिमान् ईश्वरवादी, वेदविश्वासी, कर्मकाण्डी एवं अध्यात्मवादी हिन्दू परम्परा पर भी कुछ परिवर्तित रूप में लागू हो सकती है, लेकिन अनीश्वरवादी जैनों के लिये यह पर्याप्त अपूर्ण है । जैन मान्यता के अनुसार, पवित्रता का केन्द्र बिन्दु कोई अतिमानव या ईश्वर नहीं, अपितु मानव स्वयं को मानना चाहिये । मानव को सम्पूर्ण विकास की क्षमता का केन्द्र बिन्दु मानना आध्यात्मिक विकास का मूल है। अनादि संसार और अनन्त मोक्ष की धारणा की सही व्याख्या जैन मान्यता से ही हो सकती है वेदान्त, सांख्य और मीमांसक लोग ईश्वर या वेद-वादी - 532 - Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने के कारण विश्व और उसकी पवित्रता के सम्बन्ध में यथार्थ नहीं कहते । हां, योग और जैन मान्यताओं सह-सम्बन्ध सोचा जा सकता है क्योंकि जैन भी योग का अभ्यास कर पवित्रता की ओर बढ़ते हैं। लेकिन पतंजल की 'पुरुष विशेष' की मान्यता जैन और बौद्धों से मेल नहीं खाती। ऐसे विशेष देव या पुरुष की मान्यता मानव को अपने विकास के लिए परावलम्बी बनाती है। मानव अपने श्रम और साधना से स्वयं ही पूर्ण विकास कर सकता है, यह महावीर और बुद्ध की मूलभूत शिक्षा है। ईश्वरवादी दर्शनों में कर्मकाण्ड और भक्तिवाद का विविध रूप में विकास हुआ। देवता के मन्दिर बनने लगे, पूजाओं को विविध विधियां आरम्भ हुई ईश्वर लोक की कल्पनायें की जाने लगी और ईश्वरीय इच्छा के आगे सभी नतमस्तक हो गये। इन मान्यताओं के विरुद्ध शिकायत करने वालों में जैन सर्वप्रथम रहे । मध्यकालीन धार्मिक साहित्य के अवलोकन से पता चलता है कि जैनों ने वेद, बलिप्रथा, ईश्वर, कर्मकाण्ड आदि का विरोध किया और सम्भवतः आत्मविकास के लिये 'अपवित्र' संसार की बात कही। जैनों ने ईश्वर के विपयसि में आप्त पुरुष की बात कही और तर्क तथा पौराणिक कथाओं और आख्यानों के बल पर ईश्वर का खण्डन किया । शास्त्रों में वणित विरोधी आदेशों का उल्लेख किया। उन्होंने कर्मवाद और सामान्य अनुभति के आधार पर श्राद्ध के समान अनेक रूढ़ संस्कारों का विरोध किया । सोमदेव सूरि ने बारह मूढ़ताओं का वर्णन करते हए बताया है कि रूढ़ियां सम्यक् दर्शन में बाधक होती हैं। जैन धारणाओं के अनुसार, विश्व में चार मंगल और शरण होते हैं-अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म । कोई भी व्यक्ति अपने दर्शन, ज्ञान और चारित्र की विशेषता से ही अरिहन्त हो सकता है, किसी की कृपा से नहीं। अनेक अवतार या तीर्थकर उसके लिये मार्गदर्शक का काम करते हैं। इस प्रकार जैन योगमत के अनुरूप किसी पुरुष विशेष को न मानकर समय-समय पर होने वाले पुरुष विशेषों या गुरुओं का मानता है। ऐसे पुरुषविशेषों की पूजा-भक्ति से कर्मक्षय, बोधिलाभ, समाधिमरण संभावित है लेकिन इससे सांसारिक लाभ कुछ भी नहीं होता जैसा अन्य मत मानते हैं । कर्मवादी जैन कर्म को एक मनो-भौतिक जटिल तन्त्र मानते हैं जिस पर विजय पाना अति दुष्कर है। जैनाचार्यों ने बताया है कि ईश्वरवाद और कर्मवाद साथ-साथ नहीं रह सकते । ईश्वरेच्छा की पवित्रता मानव का उद्धार नहीं कर सकती। हिंसा और पवित्रता साथ-साथ नहीं रह सकते । अहिंसा ही परमधर्म है । इसी को जैन शास्त्रों में सम्यक्त्व कहा गया है। जैनों के लिये रत्नत्रय रूप सम्यक्त्व (श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र) ही पवित्र है। इसकी प्राप्ति के लिये शास्त्रों में अनेक उपाय सुझाये गये हैं । सम्यक्त्व के अनुगमन से मानव पवित्र होता है । - 533 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINISM AND MODERN SCIENCE-A COMAPARATIVE STUDY Dr. Duli Chandra Jain, York College, New york, U. S. A. Introduction Religion is the science of living, and science and technology are essential for sustaining life on earth Thus religion and science are two sides of the same coin. The Sanskrit word for religion is DHARMA which literally means attributes. Thus religion deals with the attributes of human life--of soul and matter. Religion teaches us the way to lead a healthy, meaningful and fulfilling life. It tells us how to deal with our fellow man and with other living beings. Religion is supposed to bring out the best in human beings. Science is the systematic and accurate knowledge of things and events which occur in nature. It is the study of matter and energy, plant and animal life, the utilization of natural resources without upsetting the delicate balance in nature, making human life better on earth without hurting the environment—the vegetable and animal kingdoms. Science and Technology advance continually and thus life on earth keeps on changing; mostly for the better. Religion, being the science of living, is also supposed to change with time. In the present article, a few features of Jainism are compared with modern science in light of the above ideas. The three jewels of Jainism and the Scientific process The scientific process consists of the following steps : 1. Making observations with an open mind without any bias. 2. Seeking a rational explanation of the observations and building a con sistent theory. 3. Performing further experiments to test and extrapolate the theory. For centuries, science has advanced by way of the scientific process and the state of scientific knowledge is still progressing. A theory is upheld as long as it provides a rational explanation of experimental observation and fits the current structure of scientific knowledge. If any theory proves to be inadequate due to some changes in the state of scientific knowledge or in view of further experimentation, it is discarded and replaced by another theory. There is no room for dogma or preconceived notions in science. - 534 - Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The scientific process is in complete agreement with the three jewels of Jainism (RATNATRAYA ). These are the proper perspective (SAMYAK DARŠANA ), the proper knowledge (SAMYAK JNĀNA) and the proper lifestyle ( SAMYAK CARITRA ).1 The proper perspective involves observing and studying nature-living and non-living, with a view point without any bias. However, this does not preclude the study of religion, Philosophy and science. After a careful observation and thought comes the proper knowledge. 2 This does not necessarily imply knowing what is written in the holy books or accepting what is preached by a learned person. The third jewel in the life of a Jain is adopting the proper life-style. This involves living in harmony with the fellow beings and with nature. It should be emphasized that the proper way of living does not end with such religious activities as worshiping, praying, chanting, listening to sermons, studying religious books, etc. On the other hand, indulging in these religious activities is undesirable if it is done with an intent of show, pride, greed of material comforts in this life or desires of comforts in after-life, The proper way of living involves being at peace with oneself and with one's environment. In fact, all religious activities are just as essential for learning and adopting the proper life-style as schooling is for career development. It is obvious that the proper life-style entails minimizing violence of one's own feelings and violence towards other living beings. Thus non-violence is said to be the supreme religion. Further, telling a lie, stealing, wasting natural resources, etc., entail violence of self and of other beings. Therefore, practice of non-violence requires being truthful, non-stealing and avoiding the acquisition of unnecessary materials. The Theory of Karma and the Scientific view of natural Phenomena According to modern science, all natural phenomena involve interactions between matter and energy. Water from rivers and oceans is evaporated by the rays of the sun. The water vaporises, clouds are formed and it rains. Thus rain is the result of the interactions between solar energy, water, atmospheric particles, wind etc. Such interactions take place because of the intrinsic properties of matter and energy. Charcoal burns because atoms of carbon have the capability of combining with atoms of oxygen. There is repulsion between similar electrical charges and attraction between dissimilar electrical charges. Therefore, a proton attracts an electron. The electronic circuit in a radio receiver detects the radiowaves, amplifies and rectifies them, and, converts electromagnetic energy into sound energy. On the microscopic scale, matter (atoms, electrons, etc.) and energy (electromagnetic waves) possess certain attributes. Consequently, on the gross scale, the components of the radio receiver and radiowaves exhibit some specific properties which are responsible for the working of a radio set. These are examples of interactions between matter and energy. The Karma theory deals with the interactions between soul and ultramicroscopic particles of matter. - 535 - Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The theory of Karma states that ultrafine material particles (Karma) are living beings. Such souls are impure due to the Further, the activities of life' involve the interac Karma particles. These interactions include the associated with the souls of all association of Karma particles. tions between impure soul and following: (a) The Karma particles of various types are attracted by the (impure) soul and the soul sets more Karma particles in its possession. This is known as influx and binding (Asrava and Bandha) of Karma. (b) The soul voluntarily or involuntarily sheds certain Karma particles. This is known as sheddins (Nirjana) of Karma. (c) The Karma particles in the possession of a soul of one kind or intensity can be transformed by the soul into Karma particles of another kind or intensity. We shall call this as the transformation of Karma particles.s In addition to Karma particles, there is pseudo-Karma (Nokarma)* matter associated with impure souls. The pseudo: Karma include the body, food, medicine apparel, family and other environments. The impare soul has the sensation of pleasure or pain due to the association or Karma and pseudo-Karma. The feelings and emotions of various kinds initiate and guide the interactions between the soul and the Karma particles mentioned above. However, soul is the master of self and the master of Karma, especially in view of the kind of interaction of type (c). For example, consider 3 students, Sheila, Ram and Padma, who have to take an examination. Suppose all three have the same type of Karma particles associated with their souls. However, Padma studies and prepares well for the examination, takes it with composure and ends up with a good grade. Thus Padma succeeds in transforming the unfavorable Karma particles in her possession. Ram and Sheila fail the examination. Ram sets upset and angry. He blames his Karma and pseudo-Karma (teacher, books, the system, weather, etc.) for his failure. He feels miserable and accumulates more undesirable Karma particles. Sheila takes her failure in stride and makes a determination to study regularly in the future. Obviously, she accumulates particles which are of different kind from those. obtained by Ram. It should be remarked that it is only the impure souls which experience pleasure and pain throush their bodies, Further, each individual soul is independent. The pseudo-Karmas such as a teacher, a visit to the temple, going to a movie or a health spa, may or may not give rise to the feelings and emotions of one kind or another. Thus the same pseudo-Karma may result in the influx of Karmas of different types and intensities in different individuals. This can be compared to a chemical reaction which proceeds differently and, in certain cases, results in - 536 -- Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ different products, depending on the experimental conditions. In any given situation, characterized by the presence of a set of Karma and pseudo-Karma in one's possession, any individual may have (or may lack) the willpower to mould one's feelings and emotions. Consequently, the person can control, to a lesser or a greater extent, the experience of the Karma in his/her possession and he/she can also influence the influx of new Karma particles. 5 This is the phenomenon of mind over matter. The realization of the fact that soul is different from the matetial particles (Karma and pseudo-Karma) and that a pure soul is not influenced by material particles is known as the science of differentiation (Bhedavijñäna). This leads to penance (Tapa) which is the absence of feelings and emotions-absence of all desires. This causes sheddings of Karma and cuts of the influx of new Karma particles. Eventually, the soul sheds off all Karma particles and attains salvation (Nirvana). Accordings to Jainism, each individual pure soul is God. It has the attribures of infinite perception (Anant Darsana), infinite knowledge (Ananta Jñana) and infinite bliss (Ananta Sukha). Obviously, having the desire to attain salvation or the desire to accumulate 'good' Karma is improper. The right way is just to inculcate human qualities to live every moment of life being guided by the three jewels of Jainism. However, this is a difficult path and one can only try one's best. The Doctrine of Seven Aspects, Relativity and Quantum Mechanics The Jain doctrine of seven aspects (Syāduāda or Anekānta) is unique in Indian Philosophy. It states that the result of an observation depends on the viewpoint of the observer. There are seven aspects which are useful in the observation and interpretation of the entities and events that occur in the universe : 1. The positive aspect (Syādasti). 2. The negative aspect (Syätnästi). 3. The confluence of positive and negative aspects (Syädastināsti). 4. The inexpressible aspect (Syadavaktauya). 5. The positive inexpressible aspect (Syādasti Avaktavya). 6. The negative inexpressible aspect (Syānnāsti Avaktavya). 7. The confluence of positive and negative inexpressible aspect (Syādastināsti Avaktavya). It is rather difficult to understand the full implications of the doctrine of the seven aspects. On the surface, the positive, negative and inexpressible aspects, and, their confluence appear to be inconsistent, but, these different aspects are quite compatible with each other. For example consider the following: (a) Is a tea kettle indestructible ? According to the law of conservation of matter and energy, the tea kettle is indestructible. This is, say, the positive aspect. However, the tea kettle is 68 - 537 Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ subject to a variety of transformations. It can be broken into pieces and can be turned into some other object. Thus from this viewpoint, it is not indestructible. This is the negative aspect. A compromise of positive and negative aspects can be easily made in this case. (b) Is a magnetic field associated with an electrically charged sphere placed in a laboratory ? According to modern science, there is no magnetic field associated with a charge at rest. However, there is a magnetic field associated with a charge in motion. Thus if scientist in the laboratory performs an experiment to detect the magnetic field due to the charged sphere, the result will be negative. However, if an astronaut on a spacecraft performs the same experiment, he will detect a magnetic field due to the charged sphere because he is in relative inotion with respect to the charged sphere. (c) If a coin is tossed, will it come up heads or tails ? Obviously, it is impossible to predict the outcome of the toss. This is the inexpressible aspect. Now if the coin is tossed 20 times, it is reasonable to expect that it will come up heads 10 times. However, in any given set of 20 tosses, there is a certain finite probability of its coming up no heads at all, there is a certain finite probability of it coming up heads only once, there is a certain finite probability of its coming up heads twice, and so on and so forth. Obviously, the answer to the question depends on the point of view adopted in answering it. (d) Consider a ball tied to the end of a string being whirled round and round at a constant speed. It is fairly easy to determine the position of the ball at any instant of time. Now according to modern science, a hydrogen atom consists of an electron revolving around a proton. In this instance, it is not possible to predict the position of the electron precisely. This is the inexpressible aspect. Now if we determine the positions of the electrons of a large number of hydrogen atoms at a given time ( or if we determine the positions of the electron of a single hydrogen atom at different instants of time ), it is found that there is a dcfinite probability of finding the electrons (electron) at a distance of about 0.0000000053 cm. from the protons (proton ). Note the similarity between the present experiment and the experiment of tossing a coin described in the previous example. There is a rich variety of experiments in modern science which illustrate the doctrine of seven aspects. According to Einstein's theory of relativity, the result of an observation depends on the relative motion of the frames of reference in which the body being observed and the observer are situated. Thus, if an astronaut in a speeding spaceship, observes the length of rod, the time interval between two events and the magnetic field due to a charged sphere, all placed in a laboratory, his observations - 538 - Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ will differ from those of a scientist in the laboratory. Some consequences of the theory of relativity, which have been verified experimentally, are : 1. The mass of a particle increases with its velocity. 2. Energy=(mass) (velocity of light ).2 This is the famous mass-energy equivalence equation which indicates that mass can be converted into energy and the energy can be converted into mass. A certain amount of mass is totally annihilated and converted into energy in atomic reactors. In the Phenomenon of pair producton, energy is converted into mass, i.e., a pair of electron and positron (positively charged electron ) is created out of energy According to modern science, in certain experiments, light waves ( electro. magnetic waves ) exhibit the properties of wave motion and in certain other experiments, they behave like particles known as quanta. Quantum mechanics is the branch of science which deals with the motion of quanta. A fundamental postulate of quantum mechanics ( which is also known as wave mechanics ) is Heisenberg's uncertainty principle (or the principle of indeterminacy). It states that it is impossible to simultaneously determine the precise position and the precise momentum (mxv) of a particle. Similarly, it is not possible to simultaneously determine the precise energy of a particle at a given instant of time. Much of modern scientific research is based on the principle of indetermincy and on quantum mechanics. Further, there is the branch of science called the relativistic quantum mechanics in which aspects of the theory of relativity are incopporated in quantum mechanies. Researches in quantum mechanics and relativistic quantum mechanics have led to a great deal of scientific progress. At present, it is not possible to establish a one to one correspondence between the doctrine of seven aspects, and, the theories of relativity, quantum mechanics and relativistic quantum mechanics. However, it is evident that the principle of uncertainty is somewhat similar to the inex; pressibility aspect, and, the theories of relativity and quantum mechanics are parallel to the Jain doctrine of seven aspects. To a scientist, the theories of relativity and quantum mechanics provide powerful tools for scientific research and progress. To a human being, the doctrine of seven aspects, not only provides a means of achieving the proper perspective and the proper knowledge, but it also furnishes an effective means of living at peace with the self and the surroundings. The proper perspective, the proper knowledge and the proper action can result only if we understand the various viewpoints. Peace and harmony can come only if we try to understand others position. Thus the doctrine of seven aspects is the basis for acquiring the knowledge of the universe and it is also fundamental for adopting the proper life-style. It should be emphasized that understanding others viewpoint leads to the absence of anger (KRODHA), pride (MANA ), deceit (MAYA) and greed ( LOBHA). This results in the shedding of KARMA particles and the prevention of the influx (SAMVARA ) of new KARMA particles. - 539 - Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Matter and Energy According to Jainism, matter (Pudgala) has the following four attributes : Touch (Sparsa), taste (Rasa), smell (Gandha) and color (Varna). Touch is of two kinds : Smooth (Snigdha) and rough (Rookșa). The Sanskrit words Sparsa, Snigdha and Rookşa have the common meanings touch, smooth and rough, respectively. However, in Sarvärthasiddhi, Acärya Pūjyapāda has written Snigdharooksatvaguộanimittävidyut. This literally means that lishtning is the result of the Snigdha and Rookşa attributes. On this basis, Prof. G. R. Jain has identified the Snigdha and Rookşa kinds of Sparsa with the positive and negative kinds of elecırical charges. Thus Sparsa refers to electrical charge. Further, color (Varna) can be related to the characteri tic radiation emitted and absorbed by the nuclei, atoms and molecules of the various kind. Possibly, the words Rasa and Gandha also do not have their common literal meanings in this context. This may also apply to the words Asti, Nāsti and Astināsti of the doctrine of seven aspects. Inicidentally, the names given by the modern scientists to the attributes of some elementary particles are charm, flavor and color. In this context, these words also have meanings at variance with their common meanings. One remarkable aspect of the Jain concept of matter (Pudgala) is that light, heat, sound, images, etc., have been enumerated as the transformations of matter (Pudgala).? The equivalence of mass and energy which is a consequence of the theory of relativity is in complete agreement with this concept of Jain theory of matter. Further, the Jainas say that the binding of the various particles occurs due to the Snigdha and Ruksa attributes. This is also in agreement with modern Science. Conclusion It is evident from the above discussion that the broad premises of Jainism and modern scienee agree to a great extent. Further, there is a lot of room for scientific study as far as the Jain concepts of universe, matter and souls are concerned. An objective study of the Jain principles may bring out some detailed agreement between Jain concepts and modern science. References 1. The Sanskrit word SAMYAK means rational and proper. 2. PRAMANANAYAIRAHIGAMAH-TATTVĀRTHASUTRA by UMA SWAMI, Chapter 1, SUTRA 6. It means that the knowledge is attained by means of experimentation ( experimental proof ) and logical thinking. This includes (a) change of Karma of one subclass to Karma of another subclass (Sankramana and Udvelana). (b) decrease in intensity and duration (Apakarşaņa) and (c) increase in intensity and duration (Utkar 3. - 540 - Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ şana) of Karma Tattvārthasūtra (Hindi) by Pt. Phool Chandra ji Siddhantashastri, published by Varni Granthmala, Varanasi, First edition pages 395,398-404. Also, see Gommatsāra Karmakānda, Gatha 409. 4. Ibid, Gatha 3. Nokarma is also known as Nimitta 5. Tattuārthasūtra by Umaswami, Chapter 6, Sutra 6. The type of incoming Karma particles depends on the following: (a) intensity of feelings, (b) intentional of unintentional nature of actions, (c) type of pseudo-Karma and (d) capability of the individual. 6. Cosmology : Old and New by Prof. G. R. Jain. published by Bhartiya Jõāna Pitha, 2nd edition, pp. viii-ix. लेखसार जैन धर्म और आधुनिक विज्ञान : एक तुलनात्मक अध्ययन डा० दुलीचन्द्र जैन, या कालेज, न्यूयार्क, अमरीका वस्तुतः विज्ञान और धर्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। धर्म हमें जीवन में जीने की कला सिखाता है। विज्ञान जगत के सभी द्रव्यों और घटनाओं की व्याख्या करने और हमारे जीवन को भौतिकतः सुखी बनाने का प्रयास कर हमारे धार्मिक जीवन को उन्नत बनाने में योगदान करता है। विज्ञान निरीक्षण, परीक्षण एवं सिद्धान्तीकरण को प्रक्रिया द्वारा पूर्वाग्रह रहित पद्धति को अपनाता है एवं हमारे ज्ञान तथा क्रियाओं को प्रभावित करता है। जैन धर्म के अनुसार भी धार्मिक जीवन के लिए रत्नत्रय का मार्ग बताया है। दर्शन निरीक्षण का प्रतीक है, ज्ञान परीक्षण का प्रतीक है और चरित्र इनके प्रयोग और व्यापकीकरण की संभावना का प्रतीक है। - जैन धर्म का कर्मवाद भी कर्मकण और आत्मा के संबंधों के आधार पर जीवन को मुक्ति दिलाने का मार्ग प्रशस्त करता है। कर्मों के साथ नोकर्म भी रहते हैं। इनकी प्रकृति का प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है। इनकी भिन्नता के कारण ही एक ही कक्षा में पढ़ने वाले तीन विद्यार्थियों का परीक्षाफल भिन्न-भिन्न होता है। वस्तुतः ससारी जीव ही दुःख एवं सुख का अनुभव करता है, परन्तु उसमें ईश्वर बनने की क्षमता है। इन कर्मों का विलगन एवं नये कर्मों का अनागमन ही हमारे जीवन : सकता है। इस विषय पर अब वैज्ञानिक भी ध्यान देने लगे हैं। जैन धर्म का स्याद्वाद आज के सापेक्षतावाद से कहीं आगे हैं । वह तो गूढ क्वान्टम सिद्धान्त का ही एक ईसापूर्व युगीन रूप है। इसके अनुसार, वस्तु या घटना का विवेचन निर्देश बिन्दु पर निर्भर करता है। इसीलिये अनेक विवरण सापेक्षताधारित क्वान्टम यांत्रिकी के आधार पर ही दिये जा सकते है । आज के इन सिद्धान्तों को स्याद्वाद का समान्तर तो माना ही जा सकता है । जैन धर्म के अनुसार, पदार्थ और ऊर्जा एक ही द्रव्य के रूप हैं। क्वान्टमवाद ने यही तर्क तथा गों से सिद्ध किया है। इसी प्रकार, दो कणों के बीच स्थायी संयोग उनके विरोधी विद्युत् गुणों के कारण होता है, यह मान्यता भी पूर्णतः विज्ञान समर्थित है। इस प्रकार जैनधर्म के सिद्धान्त और आधुनिक विज्ञान पर्याप्त अंशों में एक-दूसरे से सहमत हैं । फिर भी, जैन धारणाओं को वैज्ञानिक रूप से अध्ययन करने की पर्याप्त आवश्यकता है। -541 - Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOME REMARKS ON THE PRAMANYA-VADA OF JAINISM Dr. Atsushi Uno, Hiroshima University, Hiroshima, Japan The prāmānya-vada deals with a problem how the truth value of a cognition is determined objectively and subjectively. This has for a long time been of interest to all the Indian philosophical systems, as was the problem of the knowledge and the means thereof. As regards the determination of the truth value of a cognition, viz. truth (prāmānya) and falsity (aprāmānya), most of the philosophical systems accept either of the two alternatives : whether the truth value of cognition, in origination (utpatti) and apprehension ( jñapti), is produced by its intrinsic conditions (svatah), or by some additional conditions (paralah). To confine the discussion to the 'truth' of a cognition, the determinant of svatastva in its origination, comprises all the possible conditions which produce the mere cognition (iñana-mātrotpadakakāraṇa-samagri), whereas that in its apprehension is included factors which bring about the apprehension of the mere cognition (jñānagrāhaka-kāraṇa-sāmagri). A cognition is seid to be originated or apprehended as true externally (parataḥ), only after some additional necessary conditions are added to either of the afore-said determinants. This topic was first developed by the Mimāṁsakas concerning the validity of Vedic scriptures as source of all cognitions and as such was basically confined to the scope of verbal testimony (sabda, āgama) only, later to have been dealt with in relation to other sources of cognition, or better, to all kinds of cognition. Though the Sanskrit term prāmānya may have originally been understood to be equivalent to prāmāratva signifying a property in a means of cognition, both of the terms are generally taken, in an epistemological sense, to mean an abstract property ascribed to a true cognition, thus being identical with pramātva. In his Sarvadarśanasamgraha (Jaimini-darśana), Mādhava quotes two verses which summarize the views of four principl systems viz, the Sāṁkyaas, Naiyāyikas, Bauddhas and Mimāṁsakas as follows :1 pramānatvāprmāṇatve svataḥ sāṁkhyāḥ samāśritāḥ, naiyāyikās te parathì saugatās caramam svataḥ. prathamam parataḥ prāhuḥ prämänyam veda-vādinah, pramāṇatvam svatah prāhuḥ paratas cāpramäņatvam. Among these four views, the first one seems not to be found in any extant Sämkhya text. It might have possibly been dealt with in some of the extinct texts -542 - Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ belonging to this system. The view attributed to the Buddhists in the above verse is neither traceable to any available Buddhist texts nor consistent with any tenet found in them. It is very likely that the view in question was either thus psotulated in conformity with the Buddhist doctrine anityatva (ksai ikatva), or maintained by a particular Buddhist school whose source materials have been buried in oblivion long since. In short, the combinations of the two truth values and two-fold determinant mode (svatastva and paratastva) may be tabulated as follows : truth (1) svataḥ (origination, apprehension) Mimasaka, Sankara-vedāntin, Samkhya (2) paratah (origination, apprehension) Nyāya-Vaiseșika falsity (1) svatah (origination, apprehension) Sāṁkhya (2) paratah (origination, apprehension) Mimāṁsaka, Sănkara-vedāntin, Nyāa-Naiseşika Unlike the Nyāya.Vaiseșikas and others, the Jainas regard the pramāna as a true knowledge which has subjective cognitive fuunction or faculty, and it denotes its resultant cognition as well as its process, a Devasūri (1080-1169) explains in his Pramānanayatattväloka (PNT) that the truth of cognition is the consistency of cognition with the object, and the falsity is the inconsistency of cognition with the object, (I. 18, 19). He further exemplifies the above contention in his own commentary Syādvādaratnākara (SVR) as follows : This consistency of knowledge with the object must be with regard to the object different from the self (=knowledge, cognition), since for anything to be inconsistent with itself is absurd. Thus any cognition is true in relation to itself, and there is no false cognition. On the other hand, in relation to objects other than the self some cognitions are right and the others are false (I. 19).3 And what is established by pramāna is its result (anantaryena phalam) and the other is the mediated one (pārampar yeņa phalam) (VI. 1, 2). Out of the two, the mediate result, being that of all kinds of knowledge except for kevalajñāna, consists of the judgement of acquiring (upādāna), that of abondoning (hāna) and that of indifference (upeksā), whereas the former is the annihilation of ignorance (ajñānanivstti) which is nothing but the determination of the self and the others (sva-paravyavasiti) (VI. 3, 4, 5). Furthermore, the result is neither exclusively different from nor totally the same as the knowledge (pramāna) accordidg to the Jaina theory of non-absolutism (syād-vāda); hence the result is, in a way, its pramāņa (VI. 6, 7, 8). Such being the case, truth is understood to be a property attributed to a true cognition. and is dependent on the consistency with the objects other than the self. Devasūri holds in his PNT that truth and falsity are in their origination and determined externally only, while they are ascertained in their apprehension exter - 543 - Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nally or internally (I.20). Thus like other Indian realists, the Jainas try to seek truth or falsity in terms of consistency of cognition with objects other than itself, and the truth value is not to be attributed to pramāņa as a means of cognition. Devasüri further elucidates in SVR that, these values are internally ascertained when the object is well-acquainted by repeated experience (abhyasa-daśayām).4 A similar idea is found in the Pariks amukhasūtra (PM) of Māņikyanandin and its commentary Prameyakamalamārtanda (PKM) by Prabhācandra", to which Devasūri undoubtedly owed his work. Take for instance one's own palm, one need not resort to any means other than jñānagrāhaka, it being internally known to be true. But, in the case of an unacquainted object, the first cognition arises, is followed by voli tional action to acquire the object (pravstti), and therefrom the second cognition is obtained. The truth of the first cognition which has produced action towards the object (pravartaka-jñāna) is ascertained through the second cognition, in accordance as the latter is a subsequent confirmatory cognition (samvādaka-jñāna, samvādin, avisamvādin) or a cognition of pragmatic consequences (arthakriyā-jñāna) etc. in relation to the former. In this case, the samvādakā-jñāna or arthakriya-jñāna etc. is accepted to be true by the Jainas, without resorting to further verification, and thus the infinite regress is evaded. So far as the external determination is concerned, truth and falsity in origination and apprehension depend on excellence (guma) and deficiency (dosa) respectively; thus the Jainas postulate two distinct positive factors. But suppose a cognition is first originated and apprehended as true, as the Mimāṁsakas hold, independent of any other means, and it is changed into a false one only by subsequent deficiencies. Then only one determinant viz. dosa is to be accepted. Does it necessarily follow that the absence of doña which determines the truth might signify nothing but excellence (guna)? On the other hand, if, like the view attributed to the Buddhists by Madhaväcārya, falsity is originated and apprehended internally and is developed into truth by subsequent positive factor viz. guna, then is the absence of guna not identical with dosa? All the polemic works dealing with this topic are invariably devoted to the inquiry into the characteristics of guna and dosa with a detailed and subtle discussion. Here such controversy is passed over. The peculiarities of the Jaina theory might be summed up as follows: 1. The determination of the truth value of a cognition has been examined hitherto from two-fold aspect viz. utpatti and jñapti, according to general treatises like SVR etc. However, Prabhācandra ( 980-1065 ) in his PKM aud Nyayakumudacandra (NKC) establishes three-fold of division viz. utpatti, jñapti and svakärya. The term svakārya ( the result of pramāņa ) is intended to conform with the aforesaid phala, as is contrasted with pramāņa, which consists of pravrtti, nivrtti and upkeşā. Though apprehension (jñāpti ) invariably presupposes, with the exception of the case of a well-acquainted object ( abhyasita-visaya ), pravrtti by which to verify - 544 - Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the truth value, yet pravștti and the like, as the results of pramāņa, are here postulated for the scrutiny whether such actions are necessarily preceded by the awareness of the truth value viz: truth or falsity. Prabhācandra applies the same rule to the case of sva-karya. The idea of pravștti is here introduced from two distinctive standpoints. In the case of jñāpti, pravítt i is employed as a volitional action which determines the truth value, whereas the bone of contention, in the case of svakārya, centrs about whether such responsive behaviour viz. praustti (inclusive of nivetti and upeksä) is determined by the apprehension of the truth value of cognition. Thus pravrtii has a double character; one is to determine the truth value, and the other is to be determined by the truth value. Anantavirya ( 12th cent. ) in his prame yaratnamālā, another commentary on PM modelled after PKM, establishes two-fold of division viz, urpatti and sva-kārya." In this case, the term sva-kārya refers to the two aspects : one is determination of object' (visaya-paricchili) which involves utpatti, and the other is subsequent response towards the object like pravștti etc. Tnis two-fold division seems to be a more faithful interpretation to the original aphorism of PM than Prabhācandra's., in conformity with the afore-said division of peamāna and prawiāņa-phala, whether mediate or immediate. 2. The later Nyāya-Vaiseșikas like Vāca spatimigra and Udayana try to avoid infinite regress by postulating some kinds of self-valid knowledge which require no further confirmation. The Jainas also stand on the same footing with them, in saying 'On some occasions truth is apprehended at once, like in the case of primal perceptual cognition unconfirmed by repeated experiences. Since such cognition is never ascertained to stand in unfailing correspondence with the object, its truth is apprehended by a subsequent confirmatory congnitien of the same object, by a cognition of its pragmatic consequences, or by a cognition of object concomitant with it. And the truth of cognition of this kind in self-evident and there is no loophole for the charge of infinite regress.' such a presumption is quite an unescapable fate to those who maintain the external determination of the truth value of cognition. 3. The apprehension (jñopti) is not always fixed either internally or externally. The truth value of any cognition is apprehended from the outset of its origination when the object is well-acquainted by repeated experiences. This is the idea generally held among the Jainas. With all my limited research, it is very likely that Vidyānandin or Māņikyanandin was the first Jaina to take up this view.10 However, such theory was not a monopoly of the Jainas alone, but seems to have been borrowed from such Buddhist works as Tattvasamgrahah and its commentary Pañjică. In the latter work, four alternatives are first set forth and are finally rejected on the strngth of the view that such manifold congruous combination of two values and two-fold determinant mode (viz, svat astva and paratstva) are of an 69 - 545 - Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ unrestricted or unfixed (ani yama) nature.11 This bone of contention quite agrees with the Jainas. The Navya-naiyāyikas also came later to hold a similar view, 12 in saying that the truth value of a cognition need not be proved if there is not the slightest doubt about it, and any motiveless doubt of a possible contradiction is of no account. References 1. Sarvadarsanasamgraha, Government Oriental Series, Class A, No. 4, p. 279. 2. The term 'buddhi' synonymous with 'jñāna' is generally understood to have three meanings. Athalye explains to this effect in the following way. "First the act of knowing, which may be called 'understanding'; secondly the instrument of knowledge which is 'intellect, and thirdly the product of the act of knowing, which is 'cognition. It is the last sense that the word is invariably used in Nyāya and Vaiseșika philosophies." (Tarkasamgraha. Bombay Sanskrit Series, No. LV, second ed., p. 173) There is a divergence of opinions, among scholars, about English equivalents to 'jñāna' etc. (Cf. Ingalls, Materials for the Study of NavyaNyāya, p. 29 ft.; Matilal, The Navya-nyāya Doctrine of Negation, p. 6 st.) In this thesis I have tried to use "cognition for the Sanskrit term 'jãāna', in the third meaning, so long as the truth value is taken into consideration in terms of its locus. In Jainism, however, jñāna' is primarily understood to refer to the first and the second meanings and secondarily even to the third meaning, thus being applicable to the widest denotations, as contrasted with other similar Sanskrit terms. Every school lays an emphsis on a particular aspect denoted by 'jñāna', so it seems almost impossible to give a precise English translation to the 'jõāna' shared in common by every school. In Jainism, 'pramāņa' is considered a true knowledge (samyag-jñāna). Such being the case, for the terms jñāna' and 'pramāna' I can hardly give a precise English equivalent, and thus some ambiguity and confusion cannot be avoided. 3. PNT, I. 19, 20. jñānasya prameyāvyabhicãritvaṁ prämānyam iti. tad itarat tvaprāmānyam; SVR, Poona edition, p. 240. prameya-vyabhicāritvam ca jñānasya sva-vyatirikta-grāhyāpekşaiva lakṣaniyam. svasmin vpabhicāritvāsambhavatvāt. tena sarvam jñānam svāpekṣayā pramānam eva na pramāņābhāsah. bahir-arthāpekṣayā tu kim cit pramāṇam kim cit punas tad-ābhāsam. PNT, I. 20, tad ubhayam utpattau parata eva jnaptau tu svatah paratas ceti. SVR, p. 249ff. anabhyāsa-daśāyāṁ paratah pratipadyata iti. kutah pratiyata iti cet, anabhyāsa-dasāyām pramanyam parato jõänate sama. - 546 - Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ yāpadatvād ity ata iti brūmah yadi hi jñānena sva-pramanyam svayam eva jñāyeta yathārtho-paricchedakam aham astiti, tada pramāṇāpramaņam vedam jñāam iti prămânya-samsayaḥ kadācid api notpadyate jñā natva-samsayavat. 5. PM, I. 6, tat-prämānyam svatah paratas ceti.; PKM, ed. by Mahenda Kumar, loc. cit., p. 149ff. 6. PKM, p. 149ff.; NKC, ed. by Mahendra Kumar, vol. 1. p. 199ff. 7. Prameyaratnamālā, ed. by Phoolcanra & Vālacandra, p. 19ff. 8. Nyāyāuārttikatātparyaţikā, Kashi Skt. Series 24, p. 13; Nyāyavārttika tātpryaparisuddhi, Bib, Ind., pp. 119-120. Pramāṇamimāsā, Singhi Jain Series No. 9, p. 6 (I. 1. viii), kvacit parataḥ prāmāny-niscayaḥ, yathä anabhyāsa-paśāpanne pratyakṣe. na hi tat arthena gļhităvyabhicāram iti tad eka-viṣayāt samvādakāta jõānātarād vā, arthakriyā nirbhāsād vā nāntariyārtha darsanād vä tasya prāmānya niściyate. teşāṁ ca svataḥ prāmānya-niscayān nānavasthädi-dausthyāva kaseh. 10. There are no fixed opinions available among scholars about the dates of the said two logicians. Dr. Mahendra Kumar agrees with Pt. Kothiya that Vidyānandin flourished in 775-840, while he fixed the date of Mānikyanandin in 993-1053. Cf. Aptaparikșă, ed. by Kothiya, Intr. pp. 26-51; Siddhiviniscaya, vol. 1., ed. by Mahendra Kumar, Intr. pp. 49-50. Tattvārthaślokavārtika, ed. by Manoharlal, p. 177, tatrābhāsāt pramāņatvam niscitaḥ svata eva nah, anabhyāse tu parata ity āhuḥ pecid amjasā (115). tac ca syādvādinām eva svārtha-niscayanāt sthitam, na tu svaniseayonmuktanihseșa-jõänavācinām (127). kvacid atyantābhyāsāt syatah pramānatvasya niscayān nānayasthādi-dosah, kvadid ahabhyāsāt paratas tasya vyavasthiter nāvyāptir ity etad api syödvādinām eva parmāthataḥ siddhyet svārtha-niscayopagamāt, na punaḥ svarūpa-niscaya-rahita-sakala samveda-vādinām anavasthādyanusamgasya tad-avasthatvāt.... 11. Cf. Pramāṇamimāmsä, op. cit., Bhäşātippaņāni, pp. 16-19. Tattvasamgraha, 3100, abhyasikaṁ yathā jñānaṁ yramāņam gamyate svataḥ, mithya-jñānam cathā kimcid apramāņam svatan sthitam.; Pañjika, on 3123, na hi bauddhair eşāṁ caturņām ekatamo 'pi pakşo' bhisto 'niyama-pakşasyestatvāt, tathā hi--ubhayam apy eiat kimcit szataḥ kimcit parataḥ iti pūrvam upavarnitam. ata eva paksa-catuștayopanyasr 'py ayuktah. pañcama-pakşasya sambhavät. Tattvacintärnani, Bib. Ind., pp. 277-79, 282-84; S. C. Chatterjee, The Nyāya Theory of Knowledge, p. 99. 12. - 547 - Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखसार जैन प्रामाण्यवाद पर एक टिप्पणी डा० आत्सुशी यूनो, हिरोशिमा विश्वविद्यालय, हिरोशिमा, जापान प्रामाण्यवाद ज्ञान की सत्यता को वस्तुनिष्ठ या ज्ञातानिष्ठ रूप से विचार करता है। इस पर प्रायः सभी भारतीय दर्शनों ने विचार किया है। ज्ञान का प्रामाण्य दो प्रकार से संभव है : स्वतः और परतः । ज्ञान-मात्रोत्पादक कारण सामग्री इसमें स्वतः प्रामाण्य उत्पन्न करती है जबकि ज्ञान-ग्राहक-कारण सामग्री से ज्ञान में परतः प्रामाण्य आता है। प्रामाण्यवाद पर सर्वप्रथम मीमांसकों ने विचार किया था। उन्होंने आगम के आधार पर ज्ञान का प्रामाण्य स्वीकार किया था। सर्वदर्शन संग्रह में चार प्रमुख भारतीय दर्शनों का एतद्विषयक मत प्रकट किया गया है जिसका संक्षेपण निम्न हैं : ज्ञान का प्रामाण्य (i) स्वतः (उत्पत्ति, ज्ञप्ति) मीमांसक, सांख्य, शंकर वेदान्त (ii) परतः (उत्पत्ति, ज्ञप्ति) न्याय-वैशेषिक ज्ञान का अप्रामाण्य (i) स्वतः (उत्पत्ति, ज्ञप्ति) : सांख्य (ii) परतः : मीमांसक, न्याय, वेदान्त न्याय के विपर्यास में जैन ज्ञान को ज्ञातानिष्ठता के आधार पर प्रमाण मानते है। देवसूरि ने प्रमाणनयतत्वालोक तथा स्याद्वादरत्नाकर में इस विषय में यही तथ्य स्पष्ट किया है। इसके अनुसार, उत्पत्ति के समय प्रामाण्य परतः ही होता है जब कि ज्ञप्ति के समय यह स्वतः भी हो सकता है और परतः भी हो सकता है। इस विषय में परीक्षामुख तथा प्रमेयकमलमात्तंड भी द्रष्टव्य है । ज्ञान का प्रामाण्य, उत्पत्ति या ज्ञप्ति दशा में गुण-दोषों पर निर्भर करता है। दोषों के कारण ज्ञान में अप्रामाण्य आता है। मीमांसकों और बौद्धों ने इन गुणों और दोषों पर विचार किया है। लेकिन जैन दार्शनिकों ने इस पर विशेष चर्चा नहीं की है। प्रामाण्यवाद के संबंध में जैन मत को निम्न प्रकार संक्षेपित किया जा सकता है : (1) ज्ञान के प्रामाण्य का विचार उत्पत्ति तथा ज्ञप्ति दशा के आधार पर किया जाता है। प्रभाचंद्र ने इसमें स्वकार्य को तीसरी दशा भी जोड़ दी है। ज्ञप्ति के लिए प्रवृत्ति आवश्यक है जो ऐच्छिक क्रिया पर निर्भर करती है। यह प्रवृत्ति न केवल ज्ञान को प्रमाणता देती है अपितु इसका निर्धारण भी प्रमाणता के आधार पर ही होता है । अनन्तवीर्य ने प्रमेयरत्नमाला में प्रामाण्य को उत्पत्ति एवं स्वकार्य दशा में विषय परिच्छित्ति और प्रवृत्ति के रूप में निरूपित किया है। (II) न्याय-वैशेषिकों के समान जैनों ने भी अनवस्था को दूर करने के लिए कुछ स्वयं सिद्ध ज्ञान माने हैं जिनका प्रामाण्य सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। (III) ज्ञप्ति के विषय में यह निश्चित नहीं रहता कि यह स्वतः ही होती है या परतः । यह ज्ञानोत्पत्ति की दशा एवं वस्तु-परिचय पर निर्भर करती है। विद्यानंदि और माणिक्यनंदि का यह मत तत्वसंग्रह और उसकी पंजिका के समान ग्रन्थों के आधार पर बना प्रतीत होता है। नव्य नैयायिकों ने भी बाद में इसी के अनुरूप मत स्वीकार किया है। -548 Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE TALE OF THE ELEPHANT DRIVER IN ITS ĀVAŠYAKA VERSION Adelheid Mette* University of Munich, W. Germany The tale of the elephant driver (mintha) better known after its first and last part under the title of "The cunning woman with the anklet and the jackal”l was composed in Sanskrit slokas by Hemacandra in his Parisistaparvan (II 446-640). This version (written between 1159 and 1173 A D) was edited, translated, retold and compared with its parallels known till 1914 by H. JACOBI. J. HERTEL and J. J. MEYER.2 A condensed summary of its six parts should be good enough to recall the outlines of the story. I: A young man falls in love with a married woman whom he caught sight of while she was bathing. By means of a semantic message which is transmitted by a wandering nun (parivrājikā) she calls him to a rendezvous.3 II: In the night of love the sleepers are discovered by the lady's fatherin-law who steals one of her anklets (nūpura) for evidence. But she succeeds in convincing her husband of her innocence and she is even able to deceive the yakşa through whose legs she has to pass as an ordeal.4 III: The deceived father-in-law can't sleep any more being so grieved by all that has happened. For this reason he is well fit to guard the king's harem by night Here he notices that one of the queens betrays the king with an elephant driver. While the old man, comforted by this event, regains his sleep, the adulteress discloses her identity when she unsuccessfully manoeuvres to conceal her fault to the inquiring king.5 IV: She and her lover succeed in avoiding penalty of death because of his skill in handling an elephant whom he is capable of turning back after standing on only one foot above an abyss. The lovers are sent in exile. V: The queen betrays and leaves the elephant driver and runs off with a robber. The robber forsakes her at the shore of a river and leaves her taking all her goods with him. The elephant driver is taken as the robber and consequently condemned to death. After his death he becomes a vyāntara god.? My English translation was supervised by Miss stud. phil Barbara Fraenkel. - 549 - Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VI : The vyāntara god sees his former lover sitting forsaken in the reeds. To lead her on to the right path of the Jaina religion he gives her an example of her misbehaviour: by magic he creates a jackal who looses his prey because he is greedy for a tastier meal. 8 For HERTEL it was clear that Hemacandra was the first author to join the motifs to this tale from different literary sources where they occurred, and also JACOBI was not able to find a single original text which Hemacandra could have used. In 1962 The Prakrit Text Society has published the Akhyanakamanikośa of Nemicandra with the vștti composed in 1135 A. D. by Amradeva. This commentry also contains an account of parts I-V of our story in 117 Prakrit äryä stanzas written at least 25 years earlier than the Parisistaparvan.' But of far greater interest is another text, likewise inaccessible at the times of JACOBI and HERTEL and doubtlessly the source for Amradeva and Hemacandra as well. This is the Avaśyaka commentary in its divided tradition of curņi and tikā (the latter represented by Haribhadra and Malayagiri). In the treasure of stories, which this tradition presents to us, there is also included an older version of the mintha-kathā in its complexity (parts I-VI) by which this can be dated back to at least the 7th century A. D. (at that time the Avasyaka-cūrņi attained its literary form) 10 But already in verse 846 of the Avaśyaka-niryukti to which the concerning passage of the prose commentaries (cūrņi and ţikā) belongs, the catchword mintha is mentioned. The purpose of this catchword was to give a hint how the technical term akama-nirjarā unvoluntary extinction of karman'll should be explained by the expounders of Jain doctrine : the elephant driver of our story, when condemned to death, suffers from thirst. A Jain believer promises to bring him water if in the meantime he would invoke the arhats. While doing so the mintha dies thus performing akāma-nirjarã. The compiler of the niryukti-several centuries older than the literary wording of the cūrņi12 while choosing the catchword mintha must have been acquainted at least with those parts of the story in which the elephant driver figures. To get a morerqualified judgement of the age if not of the whole composition but at least of the formulation of its single parts in Prakrit language we must examine the text itself as given in the Avasyaka-cūrni. The inserted stanzas, whose high number in this generally rather plain set-up is astonishing, deserve our special interest. There are 11 stanzas spread all over the text : vv. I seq. are composed in the āryā meter, 13 v. 3 is a sloka (sanskrit), v. 4 a prthvi (sanskrit), v. 5 an äryā of the older type, v. 6 a sloka (sanskrit, a well-known subháşita), v. 7 a vaitāliya, vv.8 seq. are triştubhs, vv. 10 seq. slokas. The variety of meters is of course an indicator of the undeniable fact that the whole of the story was a contamination. On the other hand some of the verses prove to be of a considerable age as they are counterparts to verses of the Pali jātaka - 550 - Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vv.8-11) or composed in meters not used in more recent poetry (vv.5 and 7). The most conspicious of the meters is the older form of the arya as represented by v.5, which belongs to the second part of the story. Although not recognized by the editor of the cargi and requiring the slight alteration from vilakkho (=vilakṣaḥ 'confused', a late adjective) to vilakkha (vilaksya 'being confused, baffled', abso lutive) in its first päda this stanza is nevertheless unmistakable: the form ahayam for aham and the particle khu show clearly that a metrical feature is intended. In this way we are able to trace this very rare type of meter in a non-canonical Jain text for the first time. It was known so far as "restricted to the very oldest Jain texts, viz. Ayära 1, 9, Süyagada 1, 4 and (partly) Uttarajjhāyā 8"14 and to some likewise very old poems of the Buddhist Pali canon; here ALSDORF counted 43 instances, one of them in the Telapatta-jātaka (no 96)15, that means in respect of its source comparable to the verse discovered in our text. In later times this meter was forgotten. By good luck the carni has preserved it in our case; at the same time it is characteristic for the development of the Avasyaka text tradition that in the tika the stanza has become unrecognizable. The context of the stanza shows that it is not inserted here as a quotation but belongs to the tale rightly. Its contents is the reaction of the yaksa when the lover "disguised as a pisaca has grasped the sari" of the perfidious woman and she has spoken the formula which is meant to prove her innocence, namely: "besides him who was given to me by my parents (for being my husband) if I know (i. e. if I am sexually touched by) any other man with the exeption of the pisaca, then you (the yaksa) know me". Here follows the stanza: "The yaksa, being baffled, pondered: look here, which sort of things she is contriving. Even I myself am deceived by her, there is indeed no decency in this impudent woman". (Verse 5, in the text.) If by means of the meter this part of the tale can be supposed to have been existing in the third century B.C., then this would be by far the oldest instance of the later on famous motif of 'the falsified ordeal'16 and not, as was presumed up to this time, the Greek romance of Leukippe and Kleitophon written by Achilleus. Tatios17. Here the adulterous Melite has to descend into the waters of the Styx that ascend up to the throat of a faithless woman but recede from a pure one. She is able to conquer the ordeal because in her oath she refers to a date earlier than the adultery had happened. On behalf of its earliest papyrus manuscripts this romance can be assumed to have been written at the end of the second century A. D.18 The tale of the Andabhatajataka (no, 62), where the wife of a brahmana promises to go through a fire ordeal and uses the same trick as our Nupurapandita, does not yield an earlier date because it is accounted only in the prose text, not referred to in the verses of the Jātaka Pali. When Achilleus Tatios and the author of jätaka 62 as well as later poets who used the motif of the falsified ordeal let the women prove their innocence by - 551 Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ water or fire, then they possibly recurred to the regular procedure of an ordeal. However, the kind of a trial chosen in the Nūpurapanditākathā has an exact mean. ing. In Jain tales yaksas often appear as cruel demons to whom, for instance, young girls must be offered So it is according to the yakşa's nature that the woman, if she cannot stand the proof, is to be taken by him as a prey, laggai antar andena, as the cūrni says with a coarse expression (only the younger texts : peak of his shanks, janghā, instead of anda). Also the phrase "then you know me', which the Nūpurapanditā uses in her oath (see above) is to be understood in the sense of touching sexually likewise as of course 'if I know any other man' in the same sentence THEODOR ZACHARIAE in his article Scheingeburt, 191019, had already called attention to this special kind of ordeal known to him from the later versions of our tale in Sukasaptati and Parisista parvan. In connection with other instances of 'creeping through the legs' he was inclined to regard the action as an imitation of the occurrence of birth. Obviously he did not see that the point of our tale is not the coming free of the successful but, on the contrary, the imprisonment of the unsuccessful endurer. The third part of our story appearently belongs to the same layer of literature: like the earlier type of the āryā meter, also the vaitāliya, the so-called "bard's meter', with a variable opening part as used in v. 7 disappeared after the period of early Buddhist and Jain literature. 20 In this case, too, the ţikā has not preserved the metrical feature of the first half of the stanza failing to understand the nominative āruhantiyă (derivative from āruhanti like for instance dadantikā from dadanti in Buddhist Hybrid Sanskrit, cf. EDGERTON, Dictionary). The king recites the stanza after the dicovery of the guilty queen: Used to climb on the maddened elephant you are afraid of the elephant made of straw. Here swooning while beaten by a lotus stalk there she does not swoon being beaten by a chain. (Verse 7, for the text see below.) The fourth part has no verses in it. It is quoted in nearly the same words by śāntisūri and Devendra/Nemicandra in their explanation of Uttarajj häyā 22, 46 as an example for a well-trained elephant21. The four last verses (8-11) correspond to the verses 1 seq. and 4 seq. of the Culladhanuggahajätaka (no. 374). In general it can be said that parallels of this kind point to an early common source lying outside of the sphere of both religions. But a closer examination of the stanzas reveals that the relationship between the two versions is complicated. The first stanza is spoken by the woman, who has forsaken her former lover (in the jätaka : her husband), addressing the robber. According to the Prakrit version she says: The river appears full of water, (so that the crows are able to drink. All my goods, my friend, are in your hand. As you wish to cross over to the other side, surely you wish to get hold of my goods. (Verse 8, for the text see below.) - 552 - Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ This trișttubh ought to have been spoken before the robber left the queen, in fact (I cannot see why, if not due to influence of the Pali version or its forerunner) our text cites it after the flight of the robber. The corresponding Pali sloka is better adapted to the situation : Having taken all the goods you have crossed to the other side, oh brāhmaṇa. Come back quickly; instantly you must let me too cross the river now.32 The resemblance between both versions of the first half of the next tristubh is close, but here the Prakrit text shows a difficulty in its wording : it is hard to understand the form mellevi in pada b; we would expect a passive form of the verb millai, mellai=muốcati. So perhaps it will be allowed to read mellāvio va instead of the transmitted akşaras mellevitāva. The form jāņeppi in pāda c surely is the absolutive, actually an Apabhramsa form (cf. PISCHEL, Prakrit Grammar $ 588) and consequently indicating a more recent poetry if compared with vv. 5 and 7. The robber answers in the Prakrit text : He who was (your) intimate since long is forsaken for the sake of another made intimate through a lie, he who is reliable for the sake of an unreliable. Knowing your innate behaviour which reasonable man could trust you ? (Verse 9, for the text see below). In the Pali version the robber's word are : For the sake of me the not intimate you exchanged your intimate, my lady, for the sake of the unreliable, the reliable one; me too, my lady, you might exchange for the sake of another man,-- I shall go far away from here. 28 If we compare both version of these stanzas a difference jumps to the eye : while in the Āvasyaka text the vv. 8 seq. are triştubhs, in the Jātaka only the meter of v. 2 is triştubh v. 1 being a sloka. However, the couple of verses forming a dialogue between the woman and the robber can be expected to have been composed originally in the same meter. It might be too bold to recommend the one or the other of the possible assumptions about the original shape of the tale, 24 The triştubh verse of the jātaka is transmitted also as verse 4 of the Kaņaverajātaka (no. 318, cf. note 7, supra),25 here forming the concluding stanza after a series of slokas. Has it replaced in jātaka 374 an original sloka ? The remaining stanzas of this jātaka all are slokas. HERTEL already had compared the vv. 4 seq. of jātaka 374 with vv. II 635 seq. of Hemachandra's Parisistaparvan; the older model which Hemachandra made use of and which we possess in the Avasayaka tradition (vv. 10 and 11, belonging to the sixth part of the story ) is more closely connected with those Pali verses. The woman says in the jätaka : Oh jackal, you foolish, you stupid, unwise are you, oh jackal (jambuka ). Having lost fish and flesh seeming wretched you stand reflecting 28 70 -553 Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The jackal answers : Easy to see the fault of others one's own is difficult to see. Bereaved of husband and lover, you too, I think, stand reflecting27. In Prakrit the corresponding verses are : Having let down the piece of flesh you strived for the fish, oh jackal (jambuga ). Deprived of fish and flesh you stand reflecting miserably, oh jackal ( kolhuga ). ( Verse 10, for the text see below). Oh you, wrapped in a covering of leafs, oh you, covered with reeds, deprived of husband and jackal you stand reflecting miserably, you bitch. (Verse 11, for the text see below ). Pāda a of verse 11 shows the feature of the first three ganas of the āryā meter, interchangeable with the first and third sloka pāda in later Prakrit poetry. The first half of this verse displays a trait which is missing in the Prakrit prose tale and in the Pali prose and verse as well, but which belongs to the fable in the Pañcatantra and Parisistaparvan : the robber has stolen the clothes of the woman, therefore she has to cover herself with reeds. As already HERTEL, referring to Hemachandra's version, had remarked the complier of our story has not bothered to alter the expression 'husband' (pai) in pāda c. thus revealing that the incident of the mocking jackal originally did not belong to the former parts of the tale. The omission in the Akhyānakamaņikosavstti gives further confirmation of this fact. The remaining stanzas of our text (vv. 3. 4. 6), all composed in Sanskrit, are to be considered as quotations. Haribhadra omits vv. 4 and 6, Malayagiri omits v. 6, but also in the cūrņi quotations of this kind are rare; the transmission of a prthvi (v.4) probably is unique here. Like v. 3 this stanza should belong to the field of Kāmajāstra literature, while v. 6 has its source in the Cäņakya-niti.28 As there does not exist a critical edition of the Avasyaka curņi, I here present the text of the mintha-kathā according to the print of the Jainabandhu Printing Press (Indore 1928 ) with the necessary emendations made with the help of the tikā?'. Supplemented words or akşaras are marked by acute brackets. (<..>). अकामनिज्जराए । I: वसंतपुरं नगरं । तत्थेगा इन्भवहुगा नईए व्हाइ। अन्नो य तरुणो तं दठू भणइ सुण्हायं ते पुच्छइ एस नई मत्तवाणकरोरु । एए य नईरुक्खा . बयं च पाएसु ते पणया ॥१॥ ताहे सा वि तं भणइ सुभगा होंतु नईमो चिरं च जीवंतु जे नईरुक्खा । genna i TIEMT fyri 413 11211 - 554 - Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताहे सो तीए ण घरं वा बारं वा न जाणइ-त्ति अन्नपानहरेद्वालां यौवनस्थां विभूषयां । वेश्यां स्त्रीमुपचारेण वृद्धां कर्कशसेवया ॥३॥ तीसे य बीइज्जगाणि चेडरूवाणि रुक्खे पलोएंताणि अच्छंति । तेण तेसि पुफ्फाणि फलाणि य दिनाणि । पुच्छियाणि य-का एसा । कस्स वा तेहिं भणियं-अमुगस्म सुण्हा । ता सो तीसे अइयारं नो लभेइ । चितेइ-चरिगा भिक्खस्स एइ । साय कुसुम्भसदृशप्रभं तनुसुखं पटं प्रावृता नवागरुविलेपनेन शरदिन्दुलेखा इव । यथा हसति भिक्षणी सुललितं विटैवन्दिता ध्रुवं सुरतगोचरे चरति गोचरान्वेषिणी ॥४॥ तं ओलग्गइ । सा तुट्टा भणइ-किं करेमि। -अमुगस्म (सुण्हाए) में भणाहि । सा गया (तीए सगासं)। भणिया य जहा-अमुगो ते एवंगुणाई पुच्छइ । तीए रुट्टाए पत्तोल्लगाणि घोवंतीए मसिलित्तण हत्थेण पट्टीए आहया पंचगुलियं । पच्छादारेण य निच्छूढा । सागया साहइ जहानाम पि न सहइ । तेण णायं जहा-काल पंचमीए। ताहे पंचमदिवसे पुणरवि पत्थरिया पवेसजाणणानिमित्तं । ताए सलज्जाए आहणिऊणं असोगवणियाए छिडियाए निच्छूढा । सागया साह जहा-नामपि न सहइ आहणित्ता य अवरदारेण धाडिया मि । तेण णाओ पवेसो । तेण सो अवदारेण अइगओ । असोगवणियाए सुत्ताणि । II : जाव ससुरेण दिद्वाणि तेण णायं जहा-न होइ मम पुत्तो-त्ति । ताहे से पायाओ नेउरं गहियं । वेइयं च ताए । भणिओ य सो-नास लहुं । सहायकिच्चं करेज्जासि । परछा इयरी गंतूण भत्तारं भणइ-धंमो एत्थ । असोगवणियं जामो। गयाणि य सुत्ताणि य । जाहे सो सुत्तो ताहे उट्टवेइ । उद्ववेत्ता भणइ-तुब्भं एयं कुलाणुरूवं जं ममं सुत्तियाए ससुरो पायाओ नेउरं गेहइ । सो भणइसुयाहि । पभाए लभिहिसि । थेरेण सिटुं। सो रूट्रो भणइ-विवरीमो सि थेरा। सो भणइ-मए अन्नो दिट्ठो। ताहे विवाए सा भणइ-अहं सोहेमि । -एवं करेहि । ताहे व्हाया जक्खघर गया। जो कारी सो लग्गइ अंतरण्डेण वोलंतओ। अकारी मुच्चइ । सा पहाविया ताहे सो पिसायरूपं काऊणं साडएणं गेहइ । ताहे सा तत्थ जक्खं भणइ-जो मम मायापिईहिं दिन्नेल्लओ तं च पिसायं मोत्तण जइ अन्नं जाणमि तो मे तुमं जाणसि-त्ति । जक्खो विलक्ख चितेइ- पेच्छह जारिसाणि मंतेइ । अहयं पि वंचिओ णाए नत्थि सइत्तणं खु धुत्तीए ॥५॥ जाव चितेइ ताव सा झडित्ति निफ्फडिया। ताहे थेरो सम्वेण लोगेण हीलिओ। III : तस्स ताए अद्धि ईए निद्दा नट्ठा । ताहे रण्णो कण्णं गयं । ताहे रण्णा अंतेउरपालगो को । आभि सेक्कं च हत्थिरयणं वासद्यरस्स हेत्था बद्धं अच्छइ । देवी हस्थिमिठेण आसत्तिया । नवरि रत्ति हत्थिणा हत्थो गवक्खेण पसारिओ । सा ओतारिया। पुणरवि पभाए पडिविलइया। बवं वच्चइ छत्तीहामो : घत्तिहामो Haribhadra, disregarding the meter (यतिष्याम : Chāya) agu Cūrni, faqat Cūrni, affefer Cūrni, -555 Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालो | अन्नया – चिरं जायं - त्तिहत्थिमिठेण हत्थिसंकलाए आया । सा भणइ सो एरिसओ तारिसओ थेरो न सुयइ । मा रूसह । तं थेरो पेच्छइ सो चितेइ - जइ एयाओ वि एरिसीओ किं नु ताओ अइभद्दियाओ-ति । एवं चितेतो सुत्तो । पभाए लोगो सब्वो उट्ठियो । सो न उट्टेइ । रणो सिहं । राया भणइ - सुवउ । सत्तमे दिवसे उट्ठिओ । रण्णा पुच्छिओ । ककियं जहा - एगा देवी । न जाणामि कयर-त्ति । एवं संववहरइ । ताहे रण्णा भिण्डमओ हत्थी कारिओ । सव्वाओ अंते उरियाओ भणियाओ - एयसा अरचणियं करेत्ता ओलण्डेह सव्वाहि ओलण्डिओ । सा नेच्छइ । भणइ - अहं बोहेमि । किच ताहे रय्या उप्पलनाले भणिया य शकटं पञ्चहस्तेन दशहस्तेन शृङ्गिणम् । हस्तिनं शतहस्तेन देशत्यागेन दुर्जनम् ॥६॥ आया । मुच्छिया किल पडिया । ताहे से उवगयं जहा - एसा कारि-ति । मत्तं गयमारूहतिया भिण्डमस्स गयस्स भायसी । इह मुच्छिय उप्पलाहया तत्थ न मुरछइ संकलाया ॥७॥ पुट्ठी से जोइया । जाव संकलप्पहारो दिट्ठो ताहे IV : रण्णा मिठो सा य तिन्नि विछिन्नकडए विलइयाणि । मिण्ठो भणिओ - पाडेहि हत्थि । दोहिं पाहि वेलुयग्गाहा ठिया । जाव एगो पाओ आगासे कओ जणो भणइ - किं एस तिरिओ जाणइ । तओ दो पाया आगासे । भणिओ (राया ) - कि एवं । तइयवाराए तिन्नि रयणं विणासेह । याणि मायव्वाणि । तहा वि राया रोसं न मुयइ आगासे । एगेण ठिओ । ताहे लोगेण अवकंदो कओ । तारण चित्तं ओगलियं । भणिओ ( मिठो) — तरसि हत्थि नियत्तेउं । भणइ - जइ अभयं देसि । दिनं । तेण अंकुसेण नियतिओ जहा भत्ता थले ठिओ । ताणि ओतारेता निव्विसयाणि कयाणि । V: एगत्य पच्चंतगाम सुन्नघरे ठियाणि । तत्थ य रति गामेल्लयपारद्धो चोरो तं सुन्नघरं अइगभो । तेहि भणियं - वेढेउं अच्छामो मा कोइ पविसउ । गोसे पेच्छामो । सो वि चोरो लोहंतो किह वि तीसे ढुक्को । ती फासो इओ । सो दुषको पुच्छिओ — को सि तुमं । चोरो हं । तीए भणिओ - तुमं मम पई होहि । एयं साहामो जहा चोरो-त्ति । तेहि पभाए मिठो गहिओ एयाए उवइट्टो-त्ति | विचढतो सूलाए भिन्नो । तेण समं सा बच्चइ जाव अंतरा नई । ताहे सा तेण भणिया - एत्थ सरत्थंबे अच्छ जाव अहं एयाणि वत्याणि आभरणाणि य उत्तारेमि । सो गओ । उत्तिष्णो पहाविओ । सा भणइ पुण्णा नई दीसइ कागपेज्जा सव्वं पिया भंडगं तुज्झ हत्थे । जहा तुमं पारमई कामो धुवं तुमं भंडग हेउकामो बद्धं] व इ Cürni, परद्धो Cürni, मेल्लेविताव ध्रुव अध्रुवेणं Cūrni, उतारिता Cürni, लोतो Cūrni, 11911 ओलण्डीओ Curni, • गहेतुकामो] • गहंतुकामो Cūrni, -556 भण्डमयस्स Cūrni, Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो भणइ चिरसंथुओ वाऽलियसंथुएणं मेल्लाविओ व धुव अर्धवेणं । जाकेप्पि तुझं पगइस्सभावं पण्णो नरो को तुहु विस्ससेज्जा ।।९।। सा भणइ-कहिं जासि । सो भणइ-जहा सो मराविओ एवं ममं पि कहिंचि मारावेहिसि । इयरो तत्थ विद्धो उदगं मग्गइ। तत्थ एगो सडो भणइ-जइ नमोक्कार करेसि तो ते देमि । सो उदगस्स अट्टा गओ। जाव पंमि एते चेव नमोक्कारं करेंतो कालगओ। वाणमंतरो जाओ। सो य सड्डो आरक्खियपुरिसेहिं गहिओ। सो ओहिं पउंजइ । जाव पेच्छइ तं सरीरगं सहूं च बद्धं ताहे सिलं विउव्वैत्ता मोएइ । VI : तं च सरत्थंबमज्झे पेच्छइ । ताहे से घिणा उप्पन्ना । सियालरूवं विउव्वेत्ता मंसपेसी (ए) हत्थगया (ए) उदगतीरेण वोलेइ । जाव मच्छगं पेच्छइ तं मंसपेसि मोत्तुं तस्स मच्छस्स पहाविओ। तं पि सेणेण हरियं । मच्छो वि जलं अइगओ। ताहे सियालो झायइ । तीए भणियं मंसपेसि परिच्चज्ज मच्छं पत्थेसि जंबगा। चुक्को मच्छं च मंसं च कलणं झायसि कोल्हुगा ॥१०॥ तेण भण्णइ पत्तपुडिपरिच्छन्ने सरत्थंबेण पाउए । चुक्का पइं च जारं च कलुणं झायसि बंधुगी ॥११॥ एवं भणिया विलिया जाया। ताहे सो सयं रूवं दंसेइ । पण्णाविया भणिया-पन्वयाहि-त्ति । तेण सो राया तज्जिओ। तेण पडिवन्ना। सक्कारेण निक्कता। दियलोगं गया। एवं अकामनिज्जराए मिठस्स ॥ कहिं वि Corni, तो] ता Carni, सर्ल्ड च वद्ध] तं सड्ड वझं Carni, सरत्थंबे अ पाउए Curni, (जणयस्य अजसकारिए Haribhadra). References 1. नुपुर पण्डितायाश्च गोमायोश्च कथा Hemacandra, Parisistaparvan II 445. 2. The text was edited with an introduction by HERMANN JACOBI, Calcutta 11891, 21932. JOHANNES HERTEL published his German translation in Ausgewählte Erzählungen aus Hemacandras Parisiştaparvan, Leipzig 1908. He also dealt with our tale in his article Der kluge Vezier, Zeitschrift des Vereins fuer Volkskunde 18, Berlin 1908, p. 66 seqq. JOHANN JACOB MEYER in his book Isoldes Gottesurteil in seiner erotischen Bedeutnng, Berlin 1914, scrutinized all available versions of the single motifs of the tale. 3. The well-known parallel to this part is the first table of the Vetalapanca vimşati in all its versions. -557 Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. The oldest parallel preserved in Indian literature is contained in Pali jātaka no. 62 (see below). Another early buddhist version is preserved in chinese translation in TAISHO 206 (cf. E. CHAVANNES, Cinq cents contes et alpogues extraits du Tripitaka chinois, Paris 1910-1934, vol. 1, p. 387, no. 116). The 15th tale of the Sukasaptati (ed. RICHARD SCHMIDT, Leipzig 1893) comes closest to Hemacandra's version. 5. As the closest parallel to this part of the story HERTEL has shown Sukasaptati textus simplicior 9, textus ornatior (ed. R. SCHMIDT, Muenchen 1898). 6. The well-trained elephant is the theme of Pali jātaka no. 122. 7. Cf. Pali jātaka no. 318: A courtesan lets her lover been hanged in exchange for a robber to whom she suddenly feels affection (see below). 8. To part V and VI corresponds Pali jātaka no. 374 and in later literature Pañcatantra textus simplicior (Jaina Pañcatantra) IV 10 (11); textus ornatior IV 8. 9. Acārya Nemicandra's Akhyānaka manikośa with ācārya Amradeva's Commentary ed. by Muni Shri Punyavijaya, Benares 1962, p. 188-191. 10. Cf. JACOBI, Parisistaparvan p. VII seq. 11. Cf, WALTHER SCHUBRING, Doctrine of the Jainas (English transl. 1962) $ 86, p. 179 : Extinction or consumption of karman so far as it is not brought about by ascetic methods is called akāmanirjarā (cl. Aupapā tikasūtra $ 65, p. 61, ed. LEUMANN). 12. JACOBI, Partsistaparvan p. VII and ERNST LEUMANN, Uebersicht uber die Avasyaka-Literatur, Hamburg 1934, p. 28 b, assumed the date of about 80 A. D. for composition of the collection of niryuktis, 13. These two verses are quoted as vv 10 and 12 in the Nūpurapaņditā version of the Akhyānakamanikośavrtti. Vy. 5 and 7 of the Avaśyaka text are recognizable in the āryās 62 and 89 of that version 14. Cf. L. ALSDORF, Itthiparinnā, Indo-Iranian Journal 2, 1958, 250= Kleine Schriften, Wiesbaden 1974, p. 194. 15. Cf. L. ALSDORF, Die Arya-Strophen des Pali-Kanons, Abh. Mainzer Akademie, Geistes-und Sozialwiss. KI, 1967, 4; especially p. 18. In this article ALSDORF presents a detailed description of the äryä meter. Our stanza is built exactly to the normal pattern. 16. Cf. J. J. MEYER, l. c. (supra, note 2). For further literature see The Types of Folktale, A Classification and Bibliography, Anti Aarne's Verzeichnis der Maerchentypen, transl. enlarg. by STITH THOMPSON, FF Communications Vol. 75, No. 184, Helsinki 1973, p. 417 seq. no. 1418 (The equivocal oath). For the reference to this literature I thank LĀSZLO VAJDA. - 558 - Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. Achilles Tatius, Leucippe and Clitophon ed. by Erbe Vilborg, Goteborg 1955, VIII 11.12.14. (Cf. ERWIN ROHDE, Griechischer Roman, 1Leipzig 1876, p. 484; "Hildesheim 1961, 515 seq.) 18. Cf. R. A. PACK, The Greek and Latin Literary Texts from GrecoRoman Egypt, Ann Arbor 1965, no. 1-3.2258. 19. Zeitschrift des Vereins fuer Volkskunde 20, 141-181 Kleine Schriften, Bonn und Leipzig 1920, 245-293, cf. p, 283. 20. Cf. L. ALSDORF, Das Jätaka vom weisen Vindhura, Wiener Zeitschrift fuer die Kunde Suedasiens 15, 1971, 27-Kleine Schriften, S. 884; A. K. WARDER, Pali Metre, London 1967, 106. 21. The quotation is introduced with the following words: A: I नेउरपण्डिनखाणयं भणिऊण जाय तो रुट्टेण राइन 22. सब्बं भण्डं समादाय पच्छा गच्छ लहुं खिप्पं 23. असम्युतं मं चिरसन्युतेन 25. मयापि मोती निमिनेय्य अन् Jat. III 221 seq. v 2 (FAUSBLL) 24. By the way, the Pañcatantra version (see note 8 supra) does not supply us with a versified dialogue in the corresponding passage (which indeed, if it did, would not be true to style ). 26. सिगारु बाल दुम्मेध जीनो मच्छ पेसिञ्च 28. 27. सुदस्सं वज्जं असं पारं तिष्णो सि ब्राह्मण मम्पि तारेहि दानितो ॥ The stanza appears also in the Mahavastu-version of the same tale (Vol. II, p. 176, SENART), which, however, in this text has lost much. of its resemblance to the mintha-katha. अतने et af are fa निमिन्नि मोती अधुवं धुवेन । इती अहं दूरतरं गमिस्सं ॥ Jat. III 221 v. 1 FAUSBLL) अप्पपञ्ओसि जुम्बुक | कपणोविय afe | Jat. III. 223, v. 4 (FAUSBLL) पन दु agrafe Jat. III. 223, 5 (FAUSBLL) Cf. L. STERNBACH, Canakya-Niti-Text-Tradition, Vishveshvaranand Indological Series 27, Vol. I. Part 1, 7, 7 (Vṛddha-Caṇakya-prarambhab; cf. also BOEHTLINGK, Indische Sprueche no. 6341) 29. Carni Vol. 1, p. 461-465; cf. Haribhadra's tika, Agamodaya Samiti 1916, p. 349a352a and Malayagiri's tikä, Sheth Devchand Lalbhai Jain Pustakoddhär Fund Series no. 85, Vol. 3, 1936, p. 461b-463b. - 559 Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखसार आवश्यक पाठ में महावत की कथा डा० एडेलहीड मेटे, म्यूनिख विश्वविद्यालय, पश्चिम जर्मनी महावत की कथा को हेमचंद्र ने परिशिष्टपर्व (1959-1173 ई०) में 'नूपुरपंडितायाश्च गोमायोश्च कथा' के नाम से संस्कृत श्लोकों में निबद्ध किया है। इसे जर्मन विद्वानों ने संपादित कर 1891 व 1932 में प्रकाशित किया था। इन विद्वानों का विचार था कि इस कथा के मूलकर्ता हेमचंद्र ही ही हैं। लेकिन जब 1962 में अमरदेव की वृत्ति के साथ नेमिचन्द्र का आख्यानकमणिकोश प्रकाशित हुआ, तो उसमें भी यह कथा मिली । यह कथा हेमचंद्र से कम से कम 25 वर्ष पूर्व लिखी गई थी। लेकिन इस कथा को स्रीत इससे भी प्राचीन है। यह आवश्यक टीकाओं में भी प्राप्त होती है। इससे यह कथा सातवीं सदी की ठहरती है। यह 'मिन्थ कथा' के नाम से श्रावकों को अकामनिर्जरा के निदर्शन के रूप में लिखी गई है । एक श्रावक एक मरणासन्न प्यासे महावत को कहता है, “तुम अरिहन्त का ध्यान करो, तबतक मैं तम्हारे लिये पानी लाता हूँ।' पर पानी लाने के पहले ही महावत की मृत्यु हो जाती है। इस इस प्रकार महावत को अकाम निर्जरा होती है। ___ आवश्यक नियुक्ति में दी गई 'मिन्थ कथा' चूणियों में दी गई कथा से प्राचीनतर है । चूणियो में दी गई कथा उसके विविध छन्दों के आधार पर मिश्रित मालूम पड़ती है। फिर भी इस कथा के कुछ अंश पूर्ववर्ती विशिष्ट आर्याछन्द में निबद्ध हैं और पाली जातकों में भी पाये जाते हैं। ये ही छन्द जैनों के पर्याप्त प्राचीन ग्रन्थों-सूयगड़ तथा उत्तरज्झयण में भी पाये जाते हैं। इससे इस कथा की प्राचीनता ईसापूर्व तीसरी सदी तक जाती है। इस प्रकार यह एकिलस टेरिओस की कथा से भी प्राचीन ठहरती है जो द्वितीय सदी की है । अंडभूतजातक में भी यह कथा है, पर वह उत्तरवर्ती समय की है। लेखक ने इन सभी स्रोतों का तुलनात्मक परिशीलन किया है। उन्होंने कथा को छह अंशों में विभाजित कर उसके प्रत्येक अंश की छन्द-रचना, कथावस्तु की विशेषता तथा अन्य आधारों से आवश्यक नियुक्ति की कथा को प्राचीन सिद्ध किया है। उन्होंने यह आशा भी व्यक्त की है कि इस कथा का धार्मिक उद्देश्य होने के कारण इसका एक अच्छा संपादित संस्करण प्रकाशित किया जाना चाहिये । -560 Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ There are two different ideas of ahimsa in Indian thought. We may name them "Śramanic" and "Vedic". The former is for instance mentioned by SandilyaUpanisad. It means not to cause suffering to any living being at any time either by mental, vocal or bodily activities. The Jainas, Buddhists and Yogins approve the idea of ahimsa in this sense. The point is that any intentional act causing harm or suffering to any living being is to be named as "himsa". Therefore also ahimsa as a concept is applied to all living beings. TWO DEFINITIONS OF AHIMSA Dr. Unto Tahitnen University of Jyväskylä, Finland However, the moral tradition based on the originally Vedic sources is In the Chandogya-Upanisad we find an important Vedic statement regarding the meaning of ahimsa. He who practises ahimsa towards all creatures, except at holy places (tirtha), does not return to this world again." "Holy places" refers here to the place of animal sacrifice. Manu says that the himsa prescribed in the Vedas should be construed to mean ahimsa, because moral duties spring out from the Vedas, This Vedic conception of non-violence appears in a clear form also in the Mahabharata: the violence done to an evil-doer (asadhu-himsa) for maintaining wordly affairs (loka-yātrā) is ahimsa. This appears to mean that "violence to an evil-doer" is bracketed into the concept of ahimsa. The Vedic conception af ahimsa is hence not universal. It means "refraining from causing harm to a living being in the way not enjoined by the Vedas". We can draw the (rather surprising) conclusion that according to the Vedic concept of ahimsa killing an enemy in a war, executing a criminal or killing an animal in a sacrifice are indeed all acts of "ahimusa" provided they are performed according to the commands of the authorative scriptures. Thus there are two different definitions of ahimsa. The term when used does not simply mean the same in all contexts. There are other differences of opinion also. The Vedic idea is motivated by social concern, whereas the śramanic idea refers to an individual motivation. The Jainas have very laboriously dealt not only with ahimsa but also with the meaning of himsa. Himsa, to them, means the hurting of life-principles (praṇa-vyaparopaga) due to the passionate activity (pramatta-yoga). Another later 71 -561 Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain text says that himsa is any injury whatsoever to the material (dranya) or conscious vitalities (bhava-rupa) of life caused through passionate activity (kaşayayoga). Even when there is injury to life, it cannot be considered himsa if the person is not motivated by any kind of passion and carefully follows the code of right conduct. On the other hand, if one acts out of ignorance motivated by passions, violence takes place irrespective of whether another being is killed or not." Further, some texts treat ahimsa as "internal purification". A Jain text says that the absence of attachment (raga) and other passions is ahimsa. Renunciation of both types of possession, external (bahya) as well as internal (abhyantaraaparigraha), is also said to be ahimsa. These references point out a concept of ahimsa in which purity of mind is the predominant moral characteristic. Thus the ramanic or ascetic ahimsa differs from the Vedic concept of ahimsa. The supporters of the former have ardently opposed the Vedic idea of ahimsa. The Yoga-Sastra by Hemacandra makes a covert reference to Manusmrti and some other brahmanic writings as "himsa-fästras" (sciences of violence).10 While referring to Manu and Jaimini, he acidly states that "these dulls, having given up the dharma based on restraint, morality and compassion meant for the welfare of the universe have declared even himsä as a duty.11 It is better to be a poor materialist (cārvāka) who is an open heretic rather than a demon in disguise like Jaimini, preaching the Vedas.12 However, the critics of the Vedic idea of ahimsa are not confined to Jainism. Also within the "orthodox" thought there are representatives of the sramanic ideas. The Samkhya-Kärikä opposes scriptural means sanctioned by the Mimämsä system for terminating suffering only temporarily, and not completely either, because it involves impurity (avifuddhi) in the form of himsa, destruction of moral merit (kşaya) and surpassability (atifaya) in the result.18 Impurity is ascribed to the killing of animals as well as the destruction of the living sprouts for purposes of completing sacrifices such as soma or others.14 A later but authentic commentator on the Samkhya-Sutra says that the scriptural means of the Mimämsä are in truth equal to the wordly means because they are full of sin caused by himsä, and the result is also only a temporary good (vinati-phala), and is unequal to that experienced hereafter. The critic adds that there is no proof of limiting the scope of the general statement na himsyat sarvabhätäni (not violating all the living beings).15 The above references demonstrate that the peak of criticism of the Vedic ahimsa is directed against the approval of exceptions to the universal principle. In this criticism the Jainas, Särnkhya, Yoga and the Buddhists appear to take the same side. 562 Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ References 1. Sandilya-Upanisad 1.1. 2. Chandogya-Upanisad 8.15.1. Manusmrti 5.44 4. Santi-Parva 15.49. 5. Tattvārtha-Sūtra 7.13. Srāvakācāra by Amitagati 6.12. 6. Puruşārtha-Siddhyapāya 3.43. 7. Ibid, 3.45-46. 8. Ibid, 3.44. 9. Ibid, 3.118. 10. roga-Sastra 2.37, also slokas 33-36. 11. Ibid, 2.40. 12. Ibid, 2.38. 13. Samkhya-Karika 2 14. Vacaspati Misra on Samkhya-Karika 2 15. Vijijanabhiksu on Samkhya-Satra 1.6. लेखसार अहिंसा की दो परिभाषायें डा० अन्टू टाहिटनेन, जीवस्केला विश्वविद्यालय, फिनलेण्ड भारतीय विचारधारा में अहिंसा के संबन्ध में दो प्रकार की विचार-धारायें-श्रमण और वैदिक-पाई जाती है। जैन, बौद्ध और योग के समान श्रमण विचारधारा में किसी भी प्राणी को मन, वचन और काम से किसी भी प्रकार के कष्ट न पहँचाने की प्रवृत्ति और क्रिया को अहिंसा कहते हैं। इस धारा का स्रोत शांडिल्य उपनिषद् में पाया जाता है। वैदिक विचारधारा को छान्दोग्य-उपनिषद् में बताया गया है। इसके अनुसार तीर्थस्थानों को छोड़कर अन्यत्र अहिंसा का अभ्यास किया जाता है । मनुस्मृति और महाभारत में भी कहा गया है कि बुरा काम करनेवाले के प्रति की गई हिंसा भी अहिंसा का ही एक रूप है। अहिंसा के संबन्ध में यह वैदिक मान्यता सार्वभौमिक नहीं है। इसका कारण यह है कि यह मान्यता सामाजिक परिवेश से संबंधित है जबकि श्रमण-मान्यता व्यक्तिगत चरित्र पर आधारित हैं। ___ जैनों ने हिंसा-अहिंसा पर परिश्रमपूर्वक विचार किया है। उन्होंने इसे भाव-प्रधान माना है । यह अन्तरंग के शोधन का एक उपाय है। राग, द्वेष, परिग्रह (अन्तर्वाह्य) आदि के त्याग से अहिंसा प्रकट होती है । ये सब मानसिक प्रवृत्तिर्या हैं । फलतः जैनधर्म में मन की शुद्धता नैतिकता का प्रमुख लक्षण माना गया है। जैनों ने वैदिक अहिंसा की मान्यता की काफी आलोचना की है । इसकी आलोचना सांख्य, योग और बौद्ध भी करते हैं । उनका कथन है कि 'न हिंस्यात् सर्वभूतानि' का कोई अपवाद नहीं होना चाहिये । -563 Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UTTARAJJHAYANA STUDIES (AN EDITION AND TRANSLATION OF THE FOURTH AJJHAYAŅA, WITH A METRICAL ANALYSIS AND NOTES) K. R. Norman, Cambridge, England 1. Introduction The importance of the Uttarajjhayaņa-sutta was recognised by European scholars at an early date, and a translation of the whole text was included by H. Jacobi in his translations of Jaina Sūtras (Sacred Books of the East, Vol. XLV, Oxford 1895), while individual ajjhayaņas were studied by E, Leumann (WZKM, V, 111 ff. VI, I ff.) and J. Charpentier (ZDMG LXII, 725-47, LXIII, 171-88; WZKM XXIV, 63 ff.). Both Jacobi (Ahmedabad 1911) and Charpentier (Uppsala 1922) published editions of the whole text. In more recent years L. Alsdorf published a series of studies of the Uttarajjhayana-sutta (Ind. Ling. 16 (1955) 21-28; S. K. Belvalkar Felicitation Vol. (1957), 202-8; W. Norman Brown Commemoration Vol. (1962), 8-17; IIJ VI (1962), 110-36), and also a monograph on its Aryā stanzas ( The Arya Stanzas of the Uttarajjhāyā, Mainz 1966). In a series of articles entitled 'Middle Indo-Aryan Studies', which have appeared in the Journal of the Oriental Institute (Baroda) since 1960, I have discussed a number of words occurring in the Uttar ajjhayana-sutta, and in the fourteenth of that series I have examined the evidence for believing that a number of traces of the dual number occur therein. I have also published a metrical analysis, with text and translation, of the eighth ajjhayana, which is written in the Old āryā metre (Mahavira and His Teachings, Bombay 1977, 9-19). As part of my continuing work upon this very important text, I wish in this paper to examine the fourth ajjhayana, which is written in a mixture of Triştubh and Jagati pādas. No MSS were directly available to me for the production of a critical edition, but I have made use of the following printed editions, and I have noted the readings of Jacobi's edition and the MSS used by Charpentier, as quoted in his edition: C - Charpentier's edition (Uppsala, 1922) the edition by R. D. Vadekar and N. V. Vaidya (Poona, 1954). This is a corrected version of C, with some better readings taken from Devendra's commentary. S = Suttāgame, Vol. II, the Sthänakvāsi edition by Muni Sri Phulchandji Mahārāj (Gurgaon, 1954). - 564 - Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N = L = Uttarādhyayāni śrīmān-Nemicandrācāryaviracitasukhabodhānāmnyā vrttyä samalankrtāni (Valad, 1937). the edition published by Jaina Visva Bhārati Prakāśana (Ladnun. 1975). Jacobi's edition (Ahmedabad, 1911), as quoted by C. J = B1 = MSS quoted by C Säntisüri's commentary was not available to me, but I have noted such of his readings as are quoted in the notes to C. II. Text 1. asamkhayam jiviya mā pamāyae; jarovaniyassa hu n'atthi tăņam. evam vijaņāhi: jane pamatte; kin nū vihimsä ajayā gahinti 2. je pava-kammehi dhanam manūsā samäyayanti amaim gahāya, pahāya tc pāsa-payattie nare verāņubaddhā narayam uventi. 3. teñe jahā sandhi-mune gahie sa-kammunā kiccai pāva-kāri, evam payä pecca iham ca loe. kadāņā kammāņa na mukkha atthi. 4. samsāram avanna parassa atthā sāhāraṇam jam ca karei kammam, kammassa te tassa u veya-kāle na bandhavā bandhavayam uventi. 5. vittena tänam na labhe pamatte imanmi loe aduvā paratthā; diva-ppaņaţthe va ananta-mohe neyāuyam datthum adatthum eva. 6. suttesu yāvi padibuddha-jivi na visase pandiyaāsu-panne. ghorä muhuttā; abalam sariram. bhārunda-pakkhi va car' appamatte. 7. care payāim parisamkamāņo, jara kimmci päsam iha mannamāņo lābhantare jiviya vũhaittā, pacchā parinnāya malāvadhamsi. 8. chandam-nirohena uvei mokkham, äse jaha sikkhiya vamma-dhāri. puvväi väsäim car' appamatte; tamhā muņi khippam uvei mokkham. 9. sa puvvam evam na labhejja pacchã. eso vamā sāsaya-väiyānam. visiyai siļhile äuyammi kā lovanie sarirassa bhee. 10. khippam na sakkei vivegam eum. tamhā samutthāya, pahāya käme, samicca loyam samayā mahesi āyānurakkhi cara-m-appamatte. 11. muhur muhuin moha-gune jayantara anega-rūvā samana carantam phäsä phusanti, asamajasam ca na tesi bhikkhū maņasä pausse. 12. mandā ya phāsā bahu-lohanijjā; taha-ppagäresu maņam na kujjā. rakkhejja koham, viņaejja māṇam, māyam na seve, payahejja loham. 13. je 'samkhayā tuccha para-ppavāi, te pijja-dosāņugayā parajjhā. ee ahamme tti dugumchamāņo, kampkhe gune jāva sarira-bheu tti bemi. - 565 - Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III. Critical Apparatus In this apparatus no account is taken of such orthographical variants as -md-l-nd-, -mt--nt-, -md--nd-, -mdh-l-ndh, -mm-l-mm. Except where quoted, JABL. 2 must be presumed to have the same reading as C. 1b: N. c: N eyam; SNL viyāṇāhi. d: C kiņņu, V kiņņu, S kim nu, N kannā, L kaṇņš, Bl. 2 kannu. 2 a: Skammehim; NBI. 2 mayussa. b: A samayayanti; Santisari quotes v. 1. amayam, c: L pasa pazaṭṭie as two words; N pare. 3 c: Santisüri reads peccha. d: VN mokkhu, L mokkha. 4 b: A karenti. d: N na. 5 a N pamatto. d: N geyauyam. 6 a: Navi. b: Nya; CVSL pandie, S-panne. d:S bhāranda-; S care 'ppamatte. N cara 'ppamatto, L carappamatto. 7 b SN mannamano. c: SJBL. 2 būhaitṭā. 8 a SNL chandam as separate word. b: all sikkhiya- as compound. c: CYSL purvaim; N väsäi; S care 'ppamatio, N cara 'ppamatto, L carappamatto. 9c: Bl. 2 vistyai; A Jums. 10 a Nya. c: N sammecca; NJ logam. d: NLJ appaṇa-rakkhi, Bl. 2 appāņurakkhi; S care 'ppamatto, NL-appamatto. 11 a: A muham muham. c: S phusamti. d: VNL tesu. 12 c CVS rakkhijja; pahejja. 13 a: NL samkhaya; Ctucchā, S tuccha- as compound. b: C parabbhā. c: JA ete; Nahammu. d: VL--bheo, N-bhee. JBL. 2 moham (for koham). d: SNJBL. 2 sevejja IV. Metrical Analysis Of the 52 pādas in this ajjhayana, only two (la and 2c) are Jagati. The remainder are Trişṭubh. When establishing the text, I have selected that reading which best suits the metre. Where the reading involves the lengthening and shortening of a syllable m. c. (metri causa), I have marked the pada number with an asterisk (*), and have commented upon it in the Notes. Openings (syllables 1-4): - - lab, 2bc, 3bd., 4d, 5b, 6b, 7a, 9ace. 10c, 11abd, 12b. lcd., 2ad, 3ac, 4abc, 5acd, 6acd, 7bcd, 8a*bced", 9bd, 10bd, 11c, 12acd, 13abcd. Breaks (syllables 5-7; the caesura is marked by): - la*, 2c, 3ab, 4bcd, 5d, 6b, 7c*, 8bed, 9b, 11a, 13ard -vlu Ibc, 2a, 3cd*, 4a*, 5c, 6d, 7d, 8a, 10ab, 12b, 13c. 1d, 2b d, 5ab. 6aec, 7ab, 9a, 10cd., 11be*d*, 12acd - -566 Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --\v : 8c vu- : 9c -10 : 90 -00 ( with the caesura after the eighth syllable ): 13b Cadences ( syllables 8-11/12 ): all the Triştubh pādas have the cadence •v-v ( with shortening m. c. in 3d* ). both Jagati pädas have the cadence *v-vThis analysis shows that although lengthening and shortening of syllables m. c. took place consistently in the openings and cadences, the necessary changes to produce the standard breaks -vv and ov- were not always made. V, Translation 1. One should not waste ( one's ) life (although it is ) imperfect; assuredly there is no protection for one brought close to old age. Thus know : people are careless; what will the unrestrained get by violence ? 2. Those men who acquire wealth by evil actions, practising folly, will go to hell, leaving their wealth ) behind, bound by their hatred ( like ) a man enveloped in snares. 3. As a thief, an evil-doer, caught in a hole in a wall, is destroyed by his own action, so people are destroyed ) when they pass away and also ) here in (this ) world. There is no release from actions which have been ) performed. 4. Whatever action one who has arrived in the sumsāra does for another or in common (for both of them ), at the time of experiencing the result of) that action they do not ( both ) go to the place of punishment as relations. 5. A careless man would not obtain protection by wealth in this world or in the next; like one who has lost his lamp in endless darkness, ( although ) having seen the right path he is as though not having seen it. 6. And although with wakened soul among sleepers, a wise man with quick intelligence should not be confident Times are hard; the body is weak. He should remain vigilant like a Bhärunda bird. 7. He should continue to mistrust his footsteps, thinking that whatever is here is a snare. Promoting life until the acquisition of release ), afterwards (abandoning it ) after careful consideration, he abolishes impurity. 8. By suppressing desire one goes to release, like a horse carrying armour (when it is) trained. One should be vigilant in the early years; on that account a sage goes quickly to release. 9. (If ) he (did not obtain it) early on, similarly he would not obtain it afterwards; that illustration (that one can obtain it later on) belongs to those who preach (that life is) eternal. One despairs, being slack in respect of life, brought close to death at the dissolution of the body. -1567. Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. One cannot go quickly to seclusion. Therefore, making an effort, giving up sensual pleasures, treating the world with impartiality, a great seer should remain vigilant, guarding himself. 11. Again and again external contacts of many forms impinge upon an ascetic as he continues to overcome the strands of delusion, but a monk should not unbecomingly hate them in his mind. 12. External contacts are also pleasant and desirable to many; one should not set one's mind upon things of such a kind. One should guard against anger, one should dispel pride, one should not cultivate illusion, one should abandon lust. 13. Those who are imperfect, vain, false teachers, are subject to love and hatred and are offenders. Dispising them as unrighteous, one should desire virtues until the dissolution of the body. VI. Notes 1. Although there would seem to be no difficulty in translating asamkhaya (Sanskrit asamskrta) as 'imperfect both here and in verse 13, Jacobi translates 'you cannot prolong your life'. He is apparently following the commentary (=cty), which takes the past participle in the sense of a future passive participle (asamskrtam = asamskraniyam). A comparable phrase occurs at Süyagadamga-sutta I.2.2.21= 1.2.3.10 : na ya samkhayam ahu jūviyam. Silānka explains : 'na cal naiva 'jiaitam' ayuş kam kālaparyāyeņa truţitam sat punaḥ 'samkhayam' iti samskarttum-tantuvat sandhatum s akyate ity evam āhus tadvidvaḥ and 'na ca' naiva trufitam jūvitam āyuh 'samskarttum' sandhātum Śakyate, evam āhuḥ sarvajñaḥ. We could get the word-play by translating 'imperfectible' here and 'imperfect' in verse 13, but the former does not quite give the sense of 'unextendable' which the cty's interpretation whould require. I take jiviya to be accusative (with-m omitted m. c.) as the object of pamāyae, It could equally well be nominative, in which case the first two words of the pada would form a separate clause. For pamāyae in the sense of 'forfeit, squander (an opportunity)' see Alsdorf; IIJ VI (1962), 113. In pada c the cty takes jane pamatte as plural, as the subject of the verb gahinti (-Sanskrit .grahayanti). Although the singular of jana can be used collectively in Sanskrit, one would expect a singular verb with it. It is possible that the words are vocative singular, going with the imperative vijāņāhi, although Pischel, Comparative Grammar of the Prakrit Languages $ 366 lists such forms for Māgadhi, not Ardha-Māgadhi. A more likely solution is that the words jane pamatte form a separate clause, but the comparable difficulty with the word nare in verse 2 cannot be resolved in the same way. In pada d the editions vary between the readings kam and kim I read kim (with->-n before nu) with the 7 of nu lengthened m. c. The cty explains - 568 - Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vihimsā as vihimsrāḥ, but since this word occurs in late Sanskrit only, I prefer to see vihimsā as a truncated instrumental singular of a noun in -ā, cf. samayā in verse 10. 2 In pada b the final vowel of samāyayanti is lengthened m. c. In pada c the cty explains nare as being plural, as it did for jane in verse 1. Since there is no obvious reason why the author of the verse should not have written the plural narā (which scans equally well) has he wished to, I assume that we have here a ‘patch-work' verse, with originally separate pādas strung together. I translate the nominative singular as though it were a metaphor or simile. 3. There is a close parallel to pādas abc in Pāli (Theragātha 786) : coro yathā sandhimukhe gahi to sakammunā haññati pāpadhammo, evam pajā pecca paramhi loke sakammunā haññati papadhammā. There is no way of deciding whether the vowel --z- in gahiegahito is m. c., or a genuine development from Sanskrit gļhita. In pāda d the loss of -m- in kadāna kammāņa is m. c., as is the writing of the stem form in mukkha. If this is for moksyā, agreeing with payā, then pādas c and d go together and we should translate 'people are not to be freed from their actions. The reading mokkhn in VN and the gloss mokso in the cty, however, suggest that mukkha is m. c. for mokkho. 4. In pāda a avanna is a nominative singular without a case ending m. c. In the same päda attha is a truncated dative of purpose (= atthāya), similar to the truncated instrumentals of -ā stem nouns in -a in verses 1 and 10, although the cty explains it as an ablative. In pada d the cty explains : na naiva bandhavāḥ svajanāḥ yadartham karma krtavān te 'bāndhavatām' bandhutām tadvibhajanā panayanādina Suvimti' tti upayānti. I think, however, that there is an intentional word-play between bandhavā and bandhavayam and I believe that the latter word is the equivalent of Sanskrit bandhapadam 'the place of punishment.' The idea behind the verse is that we each suffer the consequences of our own actions; the person for whom we do a deed does not thereby become, so to speak, a personal relation, a co-heir to the fruit of the action. 5. The cty glosses aduva in pada b as athavā. It is rather to be derived from yad u vā, or yad vā (with a svarabhakti vowel --~-), and represents a borrowing from a dialect where the relative pronoun lacked the initial ,-, such as the Eastern dialect of the Asokan inscriptions. The city explains that divappanatthe is a Prakrit version of panatthadīve. Comparable compounds occur elsewhere, e. g. Pāli puñña-kata (= kata-puñña) 'one who has done merit', akkha-cchinna (= chinna-akkha) 'with broken axle', näga-hata (=hata-nāga) ‘killed of an elephant. It is possible that such compounds should 72 - 569 - Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ be analysed differently. The past participle is to be taken as an action noun, giving a tatpurusa compound in the first place, e. g. akkha-cchinna 'the breaking of an axle', and then a bahuvrihi compound possessing the breaking of an axle, i. e. with a broken axle' (see K. P. Norman, Elders' Verses I, London 1969, p. 160). For moha in the sense of darkness or delusion of the mind' see Monier. Williams, Sanskrit-English Dictionary, s. v. moha. In pada d neyāuya does not have the specific meaning 'knowing the Nyāya philosophy' as in Sanskrit, but the more general meaning 'connected with the right way (nyāya).' The cty explains datthum as meaning dệsțvā, but adatphum eva as adrastaiva, having seen, he is a non-seer indeed. I take both words to be infinitives used as absolutives, and I assume that eva here stands for iva, cf. visam eva (Uttarajjhayaņa-sutta XVII. 20) glossed viņam iva. 6. Although N reads avi in pada a, the cty explains : 'caņ' pädapärane, ‘apiņ' sambhāvane, which makes it clear that the correct reading is yāvī, where the final -7 is m. c. In pada b I have adopted the reading pandiya from N; it is a nominative singular without case ending m. c. The variant reading in the other editions can be made to fit the metre if we scan it pandie. Cf. the note on kālovanie in verse 9. In pāda d the cty glosses : carā 'pramattaḥ. I assume that, with the exception of vijānāhi in verse 1 (which I take to be in parentheses, so to speak), there are no imperative forms in this ajjhayana but only optatives, as the reading of Sindicates. I therefore punctuate car' appamatte ( care a ppamatte) here and in verse 8, and I assume that cara in verse 10 is m. c. for care. 7. In pāda a care parisamkamāno is an example of the usage of the root car- with a present participle, as in Sanskrit, in the sense of 'to continue doing something'. Cf. jayantam carantam in verse 11. In pāda c the loss of m in jiviya is m. c. In pada d the cty explains : parinnāya = parijñāya sarvaprakāraih avabudhya. Elsewhere, however, it is made clear that knowledge (parijñā) is twofold: comprehension and renunciation (see H. Jacobi, J aina Sätras I, p. 1 n. 2). Cf. the cty on Uttarajjhayana-sutta XII.41 parijñāya jña parijñayā jñatvā pratyäahyāka parijñayā pratyākhyāya. 8. In pāda a chandam-niroheňa is m: c. for chanda-nirohena. In pāda b I take sikkhiya and vammadhāri separately, to obtain a parallel with pāda a. If this is correct, then sikkhiya is a nominative singular without case ending m. C. In pāda c only N reads the form puvvāi which is required m. c., but it follows this with vāsāt, which like the reading vāsāim of the other editions - 570 - Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ goes against the metre. No edition reads vāsai, which the metre requires. For the punctuation car'appamatte see the note on verse 6. In pada d the final - of man is m. c. 1 9. Jacobi translates pada a: 'If he does not get (vistory over his will) early, he will get it afterwards', but I think the cty is correct in believing that the word evam implies a comparison: (As he does not get it) before, so he would not get it afterwards'. In pada c the final -I of vislyal is m. c. The cty takes sidhile as locative and explains: fithile atmapradelan muñcali ayuşi, but I assuine that it is nominative singular, and with the locative auyammi means (as fithila does in Sanskrit) 'careless in (respect of)'. In pada d kalovanie goes against the metre, but can be made to fit if we scan kalovanie. Cf. the note on pandiya in verse 6. 10, In pada e samaya is a truncated instrumental singular of a stem in -ā. Cf. the note on vihinsa in verse 1. The cty explains: samataya samafatrumitrataya. In pada d, despite the cty (which explains: cara apramattaḥ) I assume that cara is m. c. for care. See the note on verse 6. S repeats the reading it has in verses 6 and 8, which is unmetrical here. The consonant -m- is a 'hiatus-bridger' consonant. 11. For jayantam carantam in padas ab see the note on verse 7. In pada c the final -- of phusamti is m. c. The cty explains asamamjasam ca as: asamañjasam eva ananukālam eva, which indicates that the text being commented upon included the word va, not ca. I read ca, and assume that these two words are to be taken with pada d. In pada d the final - of bhikkhu is m. c. 12. In pada a the cty explains mamda as being for mandaḥ, but since it is parallel to bahu-lohayijja it is probably to be taken as standing for mandrah. 13. In pada a tuccha is a nominative plural form without case ending m. c. NL read samkhaya, but the explanation of the cty shows that we are to understand a negative: na tättvikafuddhimantaḥ kintapacitasṛttayah. In pada ball the editions except C read parajjha, and the cty explains: paravafah. I can only suggest that the word is to be derived from either apraradhya 'not praiseworthy' (although we should expect -pp-), or some derivative of the root aparādh-meaning 'sinner'. If either of these suggestions is correct, then we should need to punctuate 'parajjha. In pada c N reads ee ahammu tti, and glosses: ete adharmahetutvāt adharmaḥ iti. We should need to translate this: 'despising them as being (individually) an unrighteous man'. = 571 - Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ In pada d the construction of jāua with the nominative bheu (the other e ditions also read a nominative) is unusual, Monier-Williams, Sanskrit-English Dictionary, s. v. yāvat, records a usage of yāvat in Sanskrit with a nominative followed by iti. The metre here, however, shows that tti is not to be taken in that way, but is, as usual, part of the phrase found at the end of each ajjhayana. लेखसार उत्तराध्ययन का अध्ययन चतुर्थ अध्ययन का अनुवाद और संपादन : छन्द-विश्लेषण और टिप्पणी यूरोप के विद्वानों ने उत्तरज्झयण-सुत्त का महत्व बहुत पहले जान लिया था। इसीलिये उसके अनेक संस्करण जर्मन, स्वीडन और इंगलैंड के विद्वानों ने संपादित कर प्रकाशित किये हैं। इस लेखक ने भी अनेक शोधपत्र-श्रृंखला के माध्यम से इस ग्रन्थ की विशेषताओं का निरूपण किया है। इस शोधपत्र में इसके चौथे अध्ययन के अंग्रेजी अनुवाद के साथ विचार किया गया है। इसमें अनेक पूर्ववर्ती संस्करणों से सहायता ली गई है। यह अध्ययन त्रिष्टुभ और जागती पदों में लिखा गया है। इसमें 52 पद हैं। इनके पठन से ज्ञात होता है कि इनमें आरंभ और लय-संगति के लिये कुछ अक्षरों में घटा-बढ़ी की गई है। प्रस्तुत निबंध में इन पर अनेक टिप्पणियों के साथ विचार किया गया है। - 572 - Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट जिनवाणीके प्रखर प्रवक्ता, आगमोंके व्याख्याकार एवं समाजके उन्निनीष , पंडितप्रवर कैलाशचन्द्रजीको हमारी शुभ कामनाएँ : नथमल सेठी हिम्मत सिंह जैन मदनलाल पांड्या निर्मलकुमार सरावगी राजेन्द्रकुमार जैन पूरनचन्द्र जैन मिश्रीलाल काला रतनलाल गंगवाल श्रवणकुमार जैन कमलकुमार जैन C. A. चक्रेशकुमार जैन ज्ञानचन्द्र जैन Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खण्डागम प्रथम खण्ड जीवट्ठाणके सत्प्ररूपणाके सूत्र ९३ में 'संजद' पाठके सम्बन्धमें पू० आचार्य (स्व०) शान्तिसागरजीका ___ अन्तिम अभिमत जिनदास पार्श्वनाथ फडकुले और गुलाबचन्द्र सखाराम गांधी जीवट्ठाणके सत्प्ररूणाके सूत्र ९३ में संजद पदके होनेके संबंधमें एक समय बड़ा विवाद था । एक बार पू० श्री १०८ आचार्य शांतिसागरजीका चातुर्मास शोलापुर में हआ था। उस समय षटखंडागम जीवस्थान प्रथम भागका स्वाध्याय चलता था। उस समय यह माना जा रहा था कि द्रव्य-स्त्रीवेदीको भावसंयम नहीं होता, अतः उसे प्रथम पाँच गुणस्थान ही होते हैं। कि द्रव्य-स्त्री वस्त्रादिकका त्याग नहीं कर सकती, फलतः उसके उच्चतर गुणस्थान नहीं हो सकते । फलतः सूत्र ९३; द्रव्यस्त्रीके संयमका वर्णन करता है, यह आचार्य श्री का आग्रह था। इस अभिप्राय का तत्कालीन अनेक विद्वानोंने समर्थन किया था। इसके विपर्यासमें अनेक विद्वानोंका मत यह था कि यह सूत्र भावस्त्रीके संबंधमें वर्णन करता है और इस सूत्र में 'संजद' पद होना चाहिये, किन्तु लिपिकारको असावधानीसे वह मूल सूत्रमें छूट गया । अर्थात् लिपिकार 'संजद' शब्द लिखना भूल गया ।' सूत्रकी टीकाके सूक्ष्म अध्ययनसे भी सूत्रमें संजद पदके १. षट्खंडागम पृ० ७ की भूमिकामें स्व० पं० लोकनाथ शास्त्री, मूडबिद्रीका २४-४-४५ का पत्र प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने सूचित किया था कि धबलाकी दो ताड़पत्रीय प्रतियोंमें ९३वें सूत्र में - ५७४ - .. Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यवर श्री १०८ आचार्य शान्तिसागर महाराज के धवला-संशोधन सम्बन्धी अन्तिम मत के लेखनमग्न पं० जिन दास शास्त्री फड़कुले Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यवर श्री १०८ आचार्य शान्तिसागर महाराज के धवलागत संजदपद सम्बन्धी अन्तिम मत पर विचार लीन ब्र० गुलाबचन्द्र सखाराम गाँधी, सोलापुर s Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने का अनुमान लगता है । इस तथ्यके बावजूद पूज्य आचार्यश्री इस सूत्रको द्रव्य स्त्रीका वर्णन करने वाला मानते रहे थे। लेकिन जब आचार्यश्रीने कुंथलगिरिमें सल्लेखना स्वीकार की, तब उनके दर्शनार्थ एवं वैयाक्त्य हेतु हम दोनों ही वहाँ गये। उस समय ब्र० जीवराज गौतमजी दोशी भी वहाँ गये थे। उस समय महाराजश्री की दृष्टि चली गई थी। फलतः आवाज सुनकर उन्होंने मुझसे पूछा, "कौन है ?" मैंने विनय पूर्वक अपना नाम बताया। उस समय आचार्यश्री से कुछ वार्तालाप भी हुआ जिसका ब्लाक यहाँ दिया जा रहा है। यह वार्तालाप मराठी में है। आचार्यश्रीने संजद पदके संबंधमें अन्तिम अभिप्रायके रूपमें निम्न इसमें लिखित मत व्यक्त किया था : "जिनदास, धवला जीवस्थानका ९३वाँ सूत्र भावस्त्रीका वर्णन करनेवाला है। अतः वहाँ पर संजद पद अवश्य होना चाहिये, ऐसा निश्चयसे लगता है।" re पण संजदादत्रानना भूलद्रव्यस्त्री वर्णन करमा अहे. -सी खात्री स माती ही यातर महाराज भागरिधावरले बने सानो सहरवनाधारणली. त्यांची सन १४ मा करण्या मार्न परमजराभवानेच की गुलाबचन्द्रमवारामगांधी मटम्बगे हत आचार मराज निमारसनायासाठी मीठी बश्रीजीवरामी तमर्थदोशी यांच्याबरोबर गेला होता, मला आवार्य माराला मान्ति प्रदान की तीसत्कण्ठा शेतीपणा मला त्यांच्याजराग्यासलोक प्रतिर --- श्री गगनदीमा महरानादनमानीभासी ताजउग सनिलीवरमांनी मला एडदिवशी चार्म मह राज्यर दान vere महाराजांनादिसानसन्मामुळे जामजऐनाण अभप्रभले..मीविलमनंदनकरुन माझेळा सांगितन त्यानी मानार्थ पहाराज'रेजिनदाता पपलानीलल्ल सूरमारस्त्रीवर्षककरणा जाहेत्तय संबद शब्दस्य पाहिजेभ वाटते. परम पूज्य महाराजांवरनएन महाराजांच्या मत्पन्चपीवनिरग्रहवृत्तीबल मलाबीब-गुला श्रीमानक महानन्द मनी अशा सूचनाको हती नाती बन्मागवासासू जान संजदराब्दस्योडावी., , जिनदास मानाय मलेरिएटरको - 4210)vn परमपूज्य महाराजश्रीका वचन सुनकर उनकी सत्यान्वेषी प्रकृतिका पुनः विश्वास हआ। इस हम लोगोंको बड़ी प्रसन्नता हई । क्योंकि इससे 'संजद' पद संबंधी विवाद भी सदाके लिये हल हो गया है। संजद पद है पर तीसरी प्रतिमें वह ताड़पत्र ही नहीं है। फिर भी वह विवाद उस समय शान्त नहीं हुआ था। यह आचार्यश्रीके उपरोक्त अन्तिम अभिमत के साथ ही हल हुआ था। - ५७५ - Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे सहायक : स्वागत समितिके सदस्यगण* संस्थाएँ और ट्रस्ट १. जीवराज ग्रन्थमाला २. दि० जैन विद्वत् परिषद् ३. वर्णी शोध संस्थान ४. स्याद्वाद महाविद्यालय ५ भारतीय ज्ञानपीठ ६. भा० दि० जैन संघ ७. आदिनाथ जैन ट्रस्ट ८. महावीर ट्रस्ट शोलापुर सागर काशी काशी दिल्ली मथुरा आरा इन्दौर १५००) १०००) ५०१) ११११) १३०२) १००१) ५०१) ५००) स्याद्वाद महाविद्यालय, काशीके स्नातक १. गुलाबचन्द्र दर्शनाचार्य जबलपुर २. डॉ. अरविन्दकुमार ललितपुर ३. बाबू चेतनलालजी डालमियानगर ४. बाबूलाल जैन, भगीरथ आइस कं० दिल्लो ५. श्री हरिश्चन्द्र भाईजी जबलपुर ६. डॉ० ताराचन्द्र चौधरी ललितपुर ७. डॉ० कपूरचन्द्र महरौनीवाले टीकमगढ़ ८. धन्नालाल दुलीचन्द्र जैन बीना ९. शीतलप्रसाद जैन मुजफ्फरनगर १०. पन्नालाल व्याकरणाचार्य छतरपुर ११. प्राचार्य पी. सी. जैन डिब्रूगढ़ १२. डॉ० केशरीमल जैन कटनी १३. प्रो० उदयचन्द्र जैन वाराणसी १४. सगुनचन्द्र चौधरी नजीबाबाद १५. डॉ० दरबारील ल कोठिया वाराणसी १६. डॉ० गुलाबचन्द्र विदिशा १७. पं० श्यामलाल जैन ललितपुर १८. चन्द्रकुमार जैन डालमियानगर १९. मोतीलाल जैन १००१) ५००) ५०१) ५०१) २५१) २५१) २५०) ५०१) २५१) १५१) १५१) १५१) १५१) १०१) १०१) १०१) १००) १०१) - ५७६ - Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००) २०. पं० श्रेयांसकुमार शास्त्री २१. डॉ० शिखरचन्द्र लहरी २२. हुकुमचन्द्र सर्राफ २३. डॉ० डी० सी० दानपति २४. डॉ० रामचन्द्र जैन २५. श्री दरबारीलाल जैन किरतपुरं भोपाल गाजियाबाद जबलपुर सतना ललितपुर १०१) १०१) १०१) १०१) १०१) समाजसेवी सहायक कलकत्ता दिल्ली कटनी कलकत्ता १. श्री मिश्रीलालजी काला २. श्री रमेशचन्द्र जैन ३. रतनलालजी गंगवाल ४. स० सिं० धन्यकुमार ५ . मदनलाल पांड्या ६. बाबू सोहनलालजी ७. हिम्मत सिंह जैन ८. कमलकुमार जैन ९. निर्मलकुमार जैन सरावगी १०. पं० माणिकचन्द्रजी चवरे ११. नथमल सेठी १२. श्रीमती गजाबेन १३. श्री बाबूलाल सतभैया १४. श्री बालचन्द्र देवचन्द्र शाह १५. गुलशनराय जैन १६. श्रीमती सरोज जैन १७. त्रिलोकचन्द्र जैन १८. राजेन्द्रकुमार जैन १९. पूरनचन्द्र जैन २०. ज्ञानचन्द्र जैन २१. चक्रेशकुमार जैन २२. सर सेठ भागचन्द्र सोनी २३. राजमल राजेन्द्र कुमार जैन २४. जिनेन्द्रकुमार जैन २५. डॉ. मुकुन्दजी सोनेजी २.६ सरावगी स्टील ट्रेडर्स २७. ताराचन्द्र बड़जात्या २८. महताब सिंह जैन कलकत्ता कारंजा कलकत्ता बाहुबली टीकमगढ़ बम्बई मुजफ्फरनगर ५०००) २५००) २००१) १००१) १०००) १०००) १०००) ५०१) ५०१) ५००) ५०१) ५००) ५००) २५१) २५१) २५१) २५१) २५१) २५१) २५१) २५१) २५०) कलकत्ता २५०) अजमेर कुरवाई दिल्ली अहमदाबाद रायपुर रायपुर दिल्ली २५१) १५१) १५१) १५१) १५०) -५७७ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. केशरीमल कस्तूरचन्द जैन ३०. सन्तोषकुमार गर्ग ३१. शिखरचन्द्रजी, विनीत टाकीज, ३२. राजकुमार सिंह काशलीवाल ३३. भगवानदास शोभालाल ३४. अमितकुमार ३५. खेमचन्द्र ३६. श्रीमती निशा सिंघई ३७. श्रीमती चंचला बहन शहा ३८. श्री दुलीचन्दजी पहाडिया ३९. सेवारामजी जैन ४०. डॉ. सुरेशचन्द्र जैन रायपुर रायपुर जबलपुर इन्दौर सागर शहडोल शहडोल गरियावन्द बम्बई रायपुर १०१) १०१) १०१) १०१) १०१) १०१) १०१) १००) रायपुर * ३०-९-८० तककी सूची । हमारी प्रबन्ध-समितिके गठनका मूल आधार यही सदस्यता है । - ५७८ - Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन समारोह आयोजन समिति १. श्री सुलतान सिंह बाकलीवाल अध्यक्ष २. ,. रमेशचन्द जैन उपाध्यक्ष ,, मुल्खराज जैन ४. ,, मदनलाल जैन ५. ,, महेन्द्र कुमार जैन ,, सुखबीरचन्द जैन ७. ,, सतीशकुमार जैन महासचिव ८. ,, पदमचन्द जैन वित्त सचिव ,, महावीर प्रसाद जैन सचिव विशिष्ट सदस्य १०. श्री जैनेन्द्र कुमार ११. डॉ० दौलत सिंह कोठारी १२. डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी १३. धर्माधिकारी वीरेन्द्र हैग्गडे १४. श्री अक्षयकुमार जैन १५. , यशपाल जैन १६. डॉ० सत्यव्रतशास्त्री . १७. , दयानन्द भार्गव सदस्य १८. श्री शीलचन्द जैन जौहरी १९. ,, विमलकुमार जैन २०. डॉ. सत्येन्द्र कुमार जैन २१. ,, विमलप्रकाश जैन २२. श्री अजितप्रसाद जैन २३. डॉ० बी० एस० जैन २४. श्री भारतभूषण जैन २५. ,, ब्रजकिशोर जैन २६. ,, चक्रेशकुमार जैन दीपचन्द जैन २८. ,, दीपक शेठ २९. , धरमचन्द जैन ३०. श्री गोकुलप्रसाद जैन ३१. ,, गुनवीरकुमार जैन ३२. , हरीचन्द जैन ३३. , जैचन्द जैन ३४. , जगमोहन जैन ,, लालचन्द जैन ,, करमवीर सिंह जैन ३७. , काश्मीरचन्द गोधा मनीलाल डोसी ३९. " महेन्द्रप्रसाद जैन ४०. " महताब सिंह जैन नाहर सिंह जैन " प्रेमचन्द जैन " पारसदास जैन ४४. " प्रेमचन्द जैन प्रकाशचन्द जैन . रमेशचन्द जैन " रमेशचन्द जैन रमेशकुमार जैन श्रीचन्द जैन सत्येन्द्रकुमार कोचर सन्तलाल जैनी सुरेशचन्द जैन श्रीराम जैन श्रीमन्दरदास जैन सुरेशचन्द जैन सुरेशचन्द्र जैन सुभाष जैन त्रिलोकचन्द गोयल ताराचन्द 'प्रेमी' विजयकुमार जैन युद्धवीर सिंह जैन Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jairie F e Personal use only