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________________ जैनधर्मकी कुछ भूगोल-खगोली मान्यताएँ और विज्ञान स्वामी सत्यभक्त. सत्याश्रम, वर्धा, महाराष्ट्र जबसे मनुष्यके पैर चन्द्रमा पर पड़े है, तबसे सभीके मन मानवकी इस विजयसे उल्लसित हैं। अब मनष्य कई बार चन्द्रमा पर हो आया है और उसके सम्बन्धमें पर्याप्त जानकारी प्राप्त हुई है। जहाँ सामान्य मानव समाजके लिये यह जानकारी उसकी प्रगतिका प्रतीक प्रतीत होती है, वहीं भारतीय धर्म जगतमें इन तथ्योंसे कुछ परेशानी हुई है। इसका कारण यह है कि चन्द्रमाके वैज्ञानिक विवरण धार्मिक ग्रन्थोंमें दिये गये विवरणसे मेल नहीं खाते । इन वैज्ञानिक उपलब्धियोंके उत्तरमें जैन समाज विशेष प्रयत्न कर रहा है। वह त्रिलोक शोध संस्थान और भू-भ्रमण संस्थानके माध्यमसे जंबूद्वीपका नक्शा बना रहा है और पर्याप्त प्रचार साहित्य प्रकाशित कर रहा है। इस साहित्यमें शास्त्रीय मन्तव्योंका विविध तर्कों और प्रमाणोंसे पोषण किया जा रहा है।। अपने इस लेख में मैं कुछ ऐसी जैन मान्यताओंके विषयमें बताना चाहता हूँ जिन पर विद्वानोंको विचार कर नई पीढ़ीकी आस्थाको वलवती बनानेका प्रयत्न करना चाहिये। मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि विश्व कल्याण के लिये जैनधर्मने तत्कालीन युगकी परिस्थितिके अनुरूप समस्याओंको सुलझानेमें अपनी विशेष योग्यताका परिचय दिया है। उसने अपने समयमें विश्वकी व्याख्या करने में पर्याप्त वैज्ञानिक दृष्टिकोणका उपयोग किया है। फिर भी, आजके यन्त्र एवं प्रयोग प्रधान वैज्ञानिक यगमें तत्कालीन कुछ मान्यताएँ विसंगत सिद्ध हो जावें, तो इसे आश्चर्य नहीं मानना चाहिये । धार्मिक व्यक्तियोंका मुख्य लक्ष्य आचारशास्त्र और नैतिक मूल्योंका प्रतिपादन रहा है। धर्म गुरुओंने नये तीर्थ या धर्मका निर्माण किया है, नये विज्ञान, भूगोल, खगोल या इतिहास शास्त्रका नहीं। इनके विषयमें की गई चर्चाएँ धर्म प्रभावना मात्रकी दृष्टिसे गौणरूपमें ही मानी जानी चाहिये। फिर भी, जैनोंकी अनेक मान्यतायें उनके सूक्ष्म निरीक्षण सामर्थ्य एवं वैज्ञानिक चिन्तनकी प्रतीक है। ग्रहोंकी गति प्रकाशके संचरणके लिये माध्यमकी आवश्यकता होती है। वैज्ञानिकोंने किसी समय ईश्वरके रूपमें इस माध्यमकी कल्पना की थी। जैनोंने दो हजार वर्ष पूर्व ही यह चिन्तन किया था और धर्मद्रव्यकी कल्पना की गई। इसी प्रकार स्थिति माध्यमके रूपमें अधर्मद्रव्यकी कल्पना हुई। इन दो द्रव्योंकी मान्यताओंसे पता चलता है कि जैनोंको यह ज्ञान था कि चलता हुआ पदार्थ तब तक नहीं रुक सकता जब तक उसे कोई सहायक न मिले । न्यूटनका जड़त्व सिद्धान्त भी यही मानता है । इसी कारण पृथ्वी आदि विभिन्न ग्रह अनादि कालसे ही अविरत गति कर रहे हैं। संभवतः यह गति तब तक चलती रहेगी जब तक कोई ग्रह उससे टकरा न जाय । जड़त्व सिद्धान्तके अनुसार ग्रहोंकी यह गति प्राकृतिक ही होनी चाहिये । लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि जड़त्व सिद्धान्तका मौलिक तथ्य जाननेके बाद भी ग्रहोंकी अविरत गतिके लिये -४५१ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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